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ऊषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई, उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई।
आज लगा हँसने फिर से, वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में शरद-विकास नये सिर से।
हिम-संसृति पर भर अनुराग, सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग।
हटने लगा धरातल से, जगीं वनस्पतियाँ अलसाई मुख धोती शीतल जल से।
प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने, जलधि लहरियों की अँगड़ाई बार-बार जाती सोने।
तनिक संकुचित बैठी-सी, प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी ऐठीं-सी।
विजन का नव एकांत, जैसे कोलाहल सोया हो हिम-शीतल-जड़ता-सा श्रांत।
सोम-रहित उलटा लटका, आज पवन मृदु साँस ले रहा जैसे बीत गया खटका।
नया रंग भरने को आज, 'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक और कुतूहल का था राज़!
सोम, मरूत, चंचल पवमान, वरूण आदि सब घूम रहे हैं किसके शासन में अम्लान?
जिसमें ये सब विकल रहे, अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न ये फिर भी कितने निबल रहे!
सकल भूत चेतन समुदाय, उनकी कैसी बुरी दशा थी वे थे विवश और निरुपाय।
सब परिवर्तन के पुतले, हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा, जितना जो चाहे जुत ले।"
अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान, ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण किसका करते से-संधान!
आकर्षण में खिंचे हुए? तृण, वीरुध लहलहे हो रहे किसके रस से सिंचे हुए?
सब करते स्वीकार यहाँ, सदा मौन हो प्रवचन करते जिसका, वह अस्तित्व कहाँ?
यह मैं कैसे कह सकता, कैसे हो? क्या हो? इसका तो- भार विचार न सह सकता।
तुम कुछ हो,ऐसा होता भान- मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत यही कर रहा सागर गान।"
सदय हृदय में अधिक अधीर, व्याकुलता सी व्यक्त हो रही आशा बनकर प्राण समीर।
मधुर जागरण सी-छबिमान, स्मिति की लहरों-सी उठती है नाच रही ज्यों मधुमय तान।
खेल रहा है शीतल-दाह- किसके चरणों में नत होता नव-प्रभात का शुभ उत्साह।
लगा गूँजने कानों में! मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ' शाश्वत नभ के गानों में।
किसकी सरल विकास-मयी, जीवन की लालसा आज क्यों इतनी प्रखर विलास-मयी?
और भी-जीकर क्या करना होगा? देव बता दो, अमर-वेदना लेकर कब मरना होगा?"
पवन से प्रेरित मायापट जैसी। और आवरण-मुक्त प्रकृति थी हरी-भरी फिर भी वैसी।
दूर-दूर तक फैल रहीं, शरद-इंदिरा की मंदिर की मानो कोई गैल रही।
सुख-शीतल-संतोष-निदान, और डूबती-सी अचला का अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।
लता-कलित शुचि सानु-शरीर, निद्रा में सुख-स्वप्न देखता जैसे पुलकित हुआ अधीर।
नीरवता की विमल विभूति, शीतल झरनों की धारायें बिखरातीं जीवन-अनुभूति!
देख किसी की मृदु मुसक्यान, मानों हँसी हिमालय की है फूट चली करती कल गान।
पवन भर रहा था गुंजार, उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का करता चारण-सदृश प्रचार।
ओढे़ रंग-बिरंगी छींट, गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ पहने हुए तुषार-किरीट।
प्रतिनिधियों से भरी विभा, इस अनंत प्रांगण में मानो जोड़ रही है मौन सभा।
जड़ता-सी जो शांत रही, दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे निज अभाव में भ्रांत रही।
हँसी और उल्लास अजान, मानो तुंग-तुरंग विश्व की। हिमगिरि की वह सुढर उठान
विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय, उसमें मनु ने स्थान बनाया सुंदर, स्वच्छ और वरणीय।
पास मलिन-द्युति रवि-कर से, शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा लगा धधकने अब फिर से।
अग्निहोत्र सागर के तीर, मनु ने तप में जीवन अपना किया समर्पण होकर धीर।
देव-यजन की वर माया, उन पर लगी डालने अपनी कर्ममयी शीतल छाया। |
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