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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है क्षितिज बीच अरुणोदय कांत, लगे देखने लुब्ध नयन से प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत।
लगे शालियों को चुनने, उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना लगी धूम-पट थी बुनने।
अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध। आहुति के नव धूमगंध से नभ-कानन हो गया समृद्ध।
"जैसे हम हैं बचे हुए- क्या आश्चर्य और कोई हो जीवन-लीला रचे हुए,"
कहीं दूर रख आते थे, होगा इससे तृप्त अपरिचित समझ सहज सुख पाते थे।
अब सहानुभूति समझते थे, नीरवता की गहराई में मग्न अकेले रहते थे।
ज्वलित अग्नि के पास वहाँ, एक सजीव, तपस्या जैसे पतझड़ में कर वास रहा।
होती चिंता कभी नवीन, यों ही लगा बीतने उनका जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।
अंधकार की माया में, रंग बदलते जो पल-पल में उस विराट की छाया में।
प्रकृति सकर्मक रही समस्त, निज अस्तित्व बना रखने में जीवन हुआ था व्यस्त।
नियमित-कर्म लगे अपना करने, विश्वरंग में कर्मजाल के सूत्र लगे घन हो घिरने।
चले विवश धीरे-धीरे, एक शांत स्पंदन लहरों का होता ज्यों सागर-तीरे।
तब चलता था सूना सपना, ग्रह-पथ के आलोक-वृत से काल जाल तनता अपना।
चल-जाती संदेश-विहीन, एक विरागपूर्ण संसृति में ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।
सुंदर स्वच्छ निशीथ, जिसमें शीतल पावन गा रहा पुलकित हो पावन उद्गगीथ।
उर्मिल सागर व्यथित, अधीर अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा चंद्रिका-निधि गंभीर।
अलस चेतना की आँखे, हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक मधु से वे भीगी पाँखे।
कंपन सुख बन बजता था, एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का मधुर रहस्य उलझता था।
मधुर प्राकृतिक भूख-समान, चिर-परिचित-सा चाह रहा था द्वंद्व सुखद करके अनुमान।
बाला का अक्षय श्रृंगार, मिलन लगा हँसने जीवन के उर्मिल सागर के उस पार।
तृषित और व्याकुल था आज- अट्टाहास कर उठा रिक्त का वह अधीर-तम-सूना राज।
विकल हो चला श्रांत-शरीर, आशा की उलझी अलकों से उठी लहर मधुगंध अधीर।
संवेदन से खाकर चोट, संवेदन जीवन जगती को जो कटुता से देता घोंट।
यह जगत मधुर कितना होता सुख-स्वप्नों का दल छाया में पुलकित हो जगता-सोता।
यह संघर्ष न हो सकता, फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहाँ बकता?
कह दो हे मेरे जीवन बोलो? किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत, अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।
हे कांति-किरण-रंजित तारा व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु, भरे नव रस सारा।
शांतिमयी छाया के देश, हे अनंत की गणना देते तुम कितना मधुमय संदेश।
तू क्यों इतनी चतुर हुई? इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों अब इतनी मधुर हुई?"
ले संध्या का तारा दीप, फाड़ सुनहली साड़ी उसकी तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?
वह जब उच्छंखल इतिहास, आँसू और' तम घोल लिख रही तू सहसा करती मृदु हास।
रजनी तू किस कोने से- आती चूम-चूम चल जाती पढ़ी हुई किस टोने से।
संचित कर सिसकी-सी साँस, यों समीर मिस हाँफ रही-सी चली जा रही किसके पास।
इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर, तुहिन कणों, फेनिल लहरों में, मच जावेगी फिर अधेर।
किसे ठिठकती-सी आती, विजन गगन में किस भूल सी किसको स्मृति-पथ में लाती।
उडा न दे तू इतनी धूल- इस ज्योत्सना की, अरी बावली तू इसमें जावेगी भूल।
कैसे छूट पडा़ तेरा अँचल? देख, बिखरती है मणिराजी- अरी उठा बेसुध चंचल।
ओ यौवन की मतवाली। देख अकिंचन जगत लूटता तेरी छवि भोली भाली
जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग? या भूली-सी खोज़ रही कुछ जीवन की छाती के दाग"
हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था? प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या? मन जिसमें सुख सोता था
उसको भी न लुटा देना देख तुझे भी दूँगा तेरा भाग, न उसे भुला देना" |
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