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कामायनी
इडा
सर्ग -
1
"किस गहन गुहा से अति अधीर
झंझा-प्रवाह-सा निकला
यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर
ले साथ विकल परमाणु-पुंज
भयभीत सभी को भय देता
भय की उपासना में विलीन
प्राणी कटुता को बाँट रहा
निर्माण और प्रतिपद-विनाश में
दिखलाता अपनी क्षमता
संघर्ष कर रहा-सा सब से,
अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब,
यह छूट पड़ा है विषम तीर
किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?
जो अचल हिमानी से रंजित,
उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग
अपने जड़-गौरव के प्रतीक
अपनी समाधि में रहे सुखी,
बह जाती हैं नदियाँ अबोध
कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,
स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी
चाहता नहीं इस जीवन की
मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,
जो चूम चला जाता अग-जग
प्रति-पग में कंपन की तरंग
वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।
जब छोड़ चला आया सुंदर
प्रारंभिक जीवन का निवास
वन, गुहा, कुंज, मरू-अंचल में हूँ
पागल मैं, किस पर सदय रहा-
क्या मैंने ममता ली न तोड़
किस पर उदारता से रीझा-
इस विजन प्रांत में बिलख रही
मेरी पुकार उत्तर न मिला
लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-
मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा-
कल्पना लोक में कर निवास
देख कब मैंने कुसुम हास
नभ-नील लता की डालों में
उलझा अपने सुख से हताश
कलियाँ जिनको मैं समझ रहा
कितना बीहड़-पथ चला और
पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर-
इस नियति-नटी के अति भीषण
अभिनय की छाया नाच रही
खोखली शून्यता में प्रतिपद-
पावस-रजनी में जुगनू गण को
दौड़ पकड़ता मैं निराश
उन ज्योति कणों का कर विनाश
तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर
फैला है कितना वार-पार
कितनी चेतनता की किरणें हैं
कितना मादकतम, निखिल भुवन
भर रहा भूमिका में अबंग
तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता
ममता की क्षीण अरुण रेख
खिलती है तुझमें ज्योति-कला
जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल
रे चिरनिवास विश्राम प्राण के
मोह-जलद-छया उदार
मायारानी के केशभार
तू घूम रहा अभिलाषा के
नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार
जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक
यौवन मधुवन की कालिंदी
बह रही चूम कर सब दिंगत
मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें
कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन
हँसती तुझमें सुंदर छलना
धूमिल रेखाओं से सजीव
इस चिर प्रवास श्यामल पथ में
छायी पिक प्राणों की पुकार-
बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार
जिसमें सुख-दुख की परिभाषा
विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत
निज विकृत वक्र रेखाओं से,
कितनी सुखमय स्मृतियाँ,
अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण
इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि
आती दुलार को हिचकी-सी
सूने कोनों में कसक भरी।
इस सूखर तरु पर मनोवृति
जीवन-समाधि के खँडहर पर जो
जल उठते दीपक अशांत
फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।
श्रद्धा का सुख साधन निवास
जब छोड़ चले आये प्रशांत
पथ-पथ में भटक अटकते वे
बहती सरस्वती वेग भरी
निस्तब्ध हो रही निशा श्याम
नक्षत्र निरखते निर्मिमेष
वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण
उपकूल आज कितना सूना
देवेश इंद्र की विजय-कथा की
वह पावन सारस्वत प्रदेश
दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत
फैला था चारों ओर ध्वांत।
जब चला द्वंद्व था असुरों में
प्राणों की पूजा का प्रचार
उस ओर आत्मविश्वास-निरत
मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-
मंगल उपासना में विभोर
उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,
आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत
जीवन-विकास वैचित्र्य भरा
अपना नव-नव निर्माण किये
प्राणों के सुख-साधन में ही,
संलग्न असुर करते सुधार
नियमों में बँधते दुर्निवार
दूसरा अपूर्ण अहंता में
अपने को समझ रहा प्रवीण
दोनों का हठ था दुर्निवार,
दोनों ही थे विश्वास-हीन-
फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से
वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध
उनका संघर्ष चला अशांत
मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह
स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता
हो प्रलय-भीत तन रक्षा में
वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो
मुझको बना रहा अधिक दीन-
सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।"
उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को
उडा़ दिया था समझ तूल
तुमने तो समझा असत् विश्व
जो क्षण बीतें सुख-साधन में
उनको ही वास्तव लिया मान
वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,
तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में
कुछ सत्ता है नारी की
समरसता है संबंध बनी
जब गूँजी यह वाणी तीखी
कंपित करती अंबर अकूल
मनु को जैसे चुभ गया शूल।
जिसने इस भ्रम में है डाला
छीना जीवन का सुख-विराम?
प्रत्यक्ष लगा होने अतीत
वरदान आज उस गतयुग का
कंपित करता है अंतरंग
अभिशाप ताप की ज्वाला से
बोले मनु-" क्या भ्रांत साधना
में ही अब तक लगा रहा
क्या तुमने श्रद्धा को पाने
पाया तो, उसने भी मुझको
दे दिया हृदय निज अमृत-धाम
फिर क्यों न हुआ मैं पूर्ण-काम?"
वह हृदय प्रणय से पूर्ण सरल
जिसमें जीवन का भरा मान
जिसमें चेतना ही केवल
पर तुमने तो पाया सदैव
उसकी सुंदर जड़ देह मात्र
सौंदर्य जलधि से भर लाये
तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को
न स्वयं तुम समझ सके
परिणय जिसको पूरा करता
कुछ मेरा हो' यह राग-भाव
संकुचित पूर्णता है अजान
मानस-जलनिधि का क्षुद्र-यान।
सब कलुष ढाल कर औरों पर
रखते हो अपना अलग तंत्र
द्वंद्वों का उद्गम तो सदैव
डाली में कंटक संग कुसुम
खिलते मिलते भी हैं नवीन
अपनी रुचि से तुम बिधे हुए
तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का
प्रणय-प्रकाश न ग्रहण किया
हाँ, जलन वासना को जीवन
अब विकल प्रवर्त्तन हो ऐसा जो
नियति-चक्र का बने यंत्र
हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।
यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि
द्वयता मेम लगी निरंतर ही
वर्णों की करति रहे वृष्टि
अनजान समस्यायें गढती
कोलाहल कलह अनंत चले,
एकता नष्ट हो बढे भेद
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे,
हृदयों का हो आवरण सदा
अपने वक्षस्थल की जड़ता
पहचान सकेंगे नहीं परस्पर
सब कुछ भी हो यदि पास भरा
पर दूर रहेगी सदा तुष्टि
दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।
चुंबित हों आँसू जलधर से
अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग
जीवन-नद हाहाकार भरा-
लालसा भरे यौवन के दिन
पतझड़ से सूखे जायँ बीत
संदेह नये उत्पन्न रहें
फैलेगा स्वजनों का विरोध
बन कर तम वाली श्याम-अमा
दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह
दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष
बदले नर कितने नये रंग-
बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग। |
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