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ईर्ष्या सर्ग -
1
पल भर की उस चंचलता ने
खो दिया हृदय का स्वाधिकार,
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकार
रह गया और था अधिक काम
लग गया रक्त था उस मुख में-
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
वह खोज रहा था मन अधीर,
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढती हो अवसाद चीर।
उसमें न रहा कुछ भी नवीन,
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं रुचता
अब था बन रहा दीन।
दुर्ललित लालसा जो कि कांत,
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
दब जाती अपने आप शांत।
कब तक सोयेंगे अलस प्राण,
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति,
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति
नव-नव स्मित रेखा में विलीन,
अनुरोध न तो उल्लास,
नहीं कुसुमोद्गम-साकुछ भी नवीन
वह चाव भरी लीला-हिलोर,
जिसमेम नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो चंचल मरोर।
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत,
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक सी कभी क्लांत
चलती है तकली भरी गीत,
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"
दिखलाई पडता गुफा-द्वार,
पर और न आगे बढने की
इच्छा होती, करते विचार
मनु बैठ गये शिथिलित शरीर
बिखरे ते सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
अब काली है हो चली, किंतु,
अब तक आये न अहेरी
वे क्या दूर ले गया चपल जंतु
हाथों में तकली रही घूम,
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।
आँखों में आलस भरा स्नेह,
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिये देह
बंध रहे पयोधर पीन आज,
कोमल काले ऊनों की
नवपट्टिका बनाती रुचिर साज,
कालिदी बहती भर उसाँस।
स्वर्गगा में इंदीवर की या
एक पंक्ति कर रही हास
वैसा ही हलका बुना नील।
दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीडा
झेलती जिसे जननी सलील।
भावी जननी का सरस गर्व,
बन कुसुम बिखरते थे भू पर
आया समीप था महापर्व।
वह सहज-खेद से भरा रूप,
अपनी इच्छा का दृढ विरोध-
जिसमें वे भाव नहीं अनूप।
रहे चुपचाप देखते साधिकार,
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी
ज्यों जान गई उनका विचार।
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-
"यह हिंसा इतनी है प्यारी
जो भुलवाती है देह-देह
सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत,
कानन में जब तुम दौड रहे
मृग के पीछे बन कर अशांत
तुम रक्तारूण वन रहे घूम,
देखों नीडों में विहग-युगल
अपने शिशुओं को रहे चूम
मेरा सूना है गुफा-द्वार
तुमको क्या ऐसी कमी रही
जिसके हित जाते अन्य-द्वार?'
पर मैं तो देक रहा अभाव,
भूली-सी कोई मधुर वस्तु
जैसे कर देती विकल घाव।
अवरूद्ध श्वास लेगा निरीह
गतिहीन पंगु-सा पडा-पडा
ढह कर जैसे बन रहा डीह।
कसता प्राणों का मृदु शरीर,
अकुलता और जकडने की
तब ग्रंथि तोडती हो अधीर।
मधु-निर्झर-ललित-गान,
गानों में उल्लास भरा
झूमें जिसमें बन मधुर प्रान।
जिसमें सब कुछ ही जाय भूल,
आशा के कोमल तंतु-सदृश
तुम तकली में हो रही झूल।
तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?
तुम बीज बीनती क्यों?
मेरा मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?
यह किसके लिए, बताओ तो क्या
इसमें है छिप रहा भेद?"
चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं-
हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।
कुछ उपकारी होने में समर्थ,
वे क्यों न जियें, उपयोगी बन-
इसका मैं समझ सकी न अर्थ। |
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