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कामायनी
चलता था-धीरे-धीरे
वह एक यात्रियों का दल,
सरिता के रम्य पुलिन में
गिरिपथ से, ले निज संबल।
धवल, धर्म का प्रतिनिधि,
घंटा बजता तालों में
उसकी थी मंथर गति-विधि।
दक्षिण त्रिशूल से शोभित,
मानव था साथ उसी के
मुख पर था तेज़ अपरिमित।
अवयव प्रस्फुटित हुए थे,
यौवन गम्भीर हुआ था
जिसमें कुछ भाव नये थे।
दूसरे पार्श्व में नीरव,
गैरिक-वसना संध्या सी
जिसके चुप थे सब कलरव।
शिशु गण का था मृदु कलकल।
महिला-मंगल गानों से
मुखरित था वह यात्री दल।
वे चलते थे मिल आविरल,
कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर
अपने ही बने कुतूहल।
बातें थीं करती जातीं,
'हम कहाँ चल रहे' यह सब
उनको विधिवत समझातीं।
कब से ही सुना रही है
अब आ पहुँची लो देखो
आगे वह भूमि यही है।
रूकने का नाम नहीं है,
वह तीर्थ कहाँ है कह तो
जिसके हित दौड़ रही है।"
है देवदारू का कानन,
घन अपनी प्याली भरते ले
जिसके दल से हिमकन।
सहज उतर जावें हम,
फिर सन्मुख तीर्थ मिलेगा
वह अति उज्ज्वल पावनतम"
बोला उसको रूकने को,
बालक था, मचल गया था
कुछ और कथा सुनने को।
पादाग्र विलोकन करती,
पथ-प्रदर्शिका-सी चलती
धीरे-धीरे डग भरती।
वह है जगती का पावन
साधना प्रदेश किसी का
शीतल अति शांत तपोवन।"
विस्तृत क्यों न बताती"
बालक ने कहा इडा से
वह बोली कुछ सकुचाती
वहाँ एक दिन आया,
वह जगती की ज्वाला से
अति-विकल रहा झुलसाया।
फैली गिरि अंचल में फिर,
दावाग्नि प्रखर लपटों ने
कर लिया सघन बन अस्थिर।
जो उसे खोजती आयी,
यह दशा देख, करूणा की
वर्षा दृग में भर लायी।
करते जग-मंगल,
सब ताप शांत होकर,
बन हो गया हरित, सुख शीतल।
छायी फिर हरियाली,
सूखे तरू कुछ मुसकराये
फूटी पल्लव में लाली।
संसृति की सेवा करते,
संतोष और सुख देकर
सबकी दुख ज्वाला हरते।
जो मन की प्यास बुझाता,
मानस उसको कहते हैं
सुख पाता जो है जाता।
वैसे ही चला रही है,
क्यों बैठ न जाती इस पर
अपने को थका रही है?"
हम आये यात्रा करने,
यह व्यर्थ, रिक्त-जीवन-घट
पीयूष-सलिल से भरने।
उत्सर्ग करेंगे जाकर,
चिर मुक्त रहे यह निर्भय
स्वच्छंद सदा सुख पाकर।"
आगे थी कुछ नीची उतराई,
जिस समतल घाटी में,
वह थी हरियाली से छाई।
क्षण भर में थे अंतर्हित,
सामने विराट धवल-नग
अपनी महिमा से विलसित।
श्यामल तृण-वीरूध वाली,
नव-कुंज, गुहा-गृह सुंदर
ह्रद से भर रही निराली।
कुछ अरूण पीत हरियाली,
प्रति-पर्व सुमन-सुंकुल थे
छिप गई उन्हीं में डाली।
मानस का दृश्य निराला,
खग-मृग को अति सुखदायक
छोटा-सा जगत उजाला।
रक्खा हीरे का पानी,
छोटा सा मुकुर प्रकृति
या सोयी राका रानी।
हिमकर था चढा गगन में,
कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर
बैठा किसी लगन में।
उस सर के, वल्कल वसना,
तारों से अलक गुँथी थी
पहने कदंब की रशना।
कलहंस कर रहे कलरव,
किन्नरियाँ बनी प्रतिध्वनि
लेती थीं तानें अभिनव।
उस निर्मल मानस-तट में,
सुमनों की अंजलि भर कर
श्रद्धा थी खडी निकट में।
शत-शत मधुपों का गुंजन,
भर उठा मनोहर नभ में
मनु तन्मय बैठे उन्मन।
फिर कैसे अब वे रूकते,
वह देव-द्वंद्व द्युतिमय था
फिर क्यों न प्रणति में झुकते।
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