हिंदी का रचना संसार | ||||||||||||||||||||||||||
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
|
||||||||||||||||||||||||||
कामायनी
तब वृषभ सोमवाही भी
अपनी घंटा-ध्वनि करता,
बढ चला इडा के पीछे
मानव भी था डग भरता।
पर क्षमा न चाह रही थी,
वह दृश्य देखने को निज
दृग-युगल सराह रही थी
वह चेतन-पुरूष-पुरातन,
निज-शक्ति-तरंगायित था
आनंद-अंबु-निधि शोभन।
मानव उसको अपना कर,
था इडा-शीश चरणों पर
वह पुलक भरी गदगद स्वर
यहाँ भूलकर आयी,
हे देवी तुम्हारी ममता
बस मुझे खींचती लायी।
कुछ भी न समझ थी मुझको।
सब को ही भुला रही थी
अभ्यास यही था मुझको।
यात्रा करने हैं आये,
सुन कर यह दिव्य-तपोवन
जिसमें सब अघ छुट जाये।"
कैलास ओर दिखालाया,
बोले- "देखो कि यहाँ
कोई भी नहीं पराया।
हम केवल एक हमीं हैं,
तुम सब मेरे अवयव हो
जिसमें कुछ नहीं कमीं है।
तापित पापी न यहाँ है,
जीवन-वसुधा समतल है
समरस है जो कि जहाँ है।
लहरों सा बिखर पडा है,
कुछ छाप व्यक्तिगत,
अपना निर्मित आकार खडा है।
बुदबुद सा रूप बनाये,
नक्षत्र दिखाई देते
अपनी आभा चमकाये।
प्राणों का सृष्टि क्रम है,
सब में घुल मिल कर रसमय
रहता यह भाव चरम है।
यह मूर्त-विश्व सचराचर
चिति का विराट-वपु मंगल
यह सत्य सतत चित सुंदर।
वह अपनी सुख-संसृति है,
अपना ही अणु अणु कण-कण
द्वयता ही तो विस्मृति है।
सबको ही स्पर्श किये सी,
सब भिन्न परिस्थितियों की है
मादक घूँट पिये सी।
सो ले निशी की पलकों में,
हाँ स्वप्न देख ले सुदंर
उलझन वाली अलकों में
हो निर्विकार हंसता सा,
मानस के मधुर मिलन में
गहरे गहरे धँसता सा।
दुख-सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे यह मैं हूँ,
यह विश्व नीड बन जाता"
छोटी-छोटी रेखायें,
रागारूण किरण कला सी
विकसीं बन स्मिति लेखायें।
मंगल-कामना-अकेली,
थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित
मानस तट की वन बेली।
पूर्ण-काम की प्रतिमा,
जैसे गंभीर महाह्नद हो
भरा विमल जल महिमा।
यह शून्य रागमय होता,
वह कामायनी विहँसती अग
जग था मुखरित होता।
अणु-अणु थे विश्व-कमल के,
पिगल-पराग से मचले
आनंद-सुधा रस छलके।
परिमल बूँदों से सिंचित,
सुख-स्पर्श कमल-केसर का
कर आया रज से रंजित।
मादन-विकास कर आया,
उनके अछूत अधरों का
कितना चुंबन भर लाया।
जैसे कुछ हो वह भूला,
नव कनक-कुसुम-रज धूसर
मकरंद-जलद-सा फूला।
बिखराया हो केसर-रज,
या हेमकूट हिम जल में
झलकाता परछाई निज।
उच्छवास बना कर निज दल,
चल पडे गगन-आँगन में
कुछ गाते अभिनव मंगल।
बिखरी सुगंध की लहरें,
फिर वेणु रंध्र से उठ कर
मूर्च्छना कहाँ अब ठहरे।
मदमाते होकर मधुकर,
वाणी की वीणा-धवनि-सी
भर उठी शून्य में झिल कर।
दौडे सब गिरते-पडते,
परिमल से चली नहा कर
काकली, सुमन थे झडते।
विश्व-सुन्दरी तन पर,
या मादन मृदुतम कंपन
छायी संपूर्ण सृजन पर।
परिहास पूर्ण कर अभिनय,
सब की विस्मृति के पट में
छिप बैठा था अब निर्भय।
मृदु मुकुल बने झालर से,
रस भार प्रफुल्ल सुमन
सब धीरे-धीरे से बरसे।
मणि-दीप प्रकाश दिखता,
जिनसे समीर टकरा कर
अति मधुर मृदंग बजाता।
मुरली बजती जीवन की,
सकेंत कामना बन कर
बतलाती दिशा मिलन की।
अतंरिक्ष में नचती थीं,
परिमल का कन-कन लेकर
निज रंगमंच रचती थी।
हिमवती प्रकृति पाषाणी,
उस लास-रास में विह्वल
थी हँसती सी कल्याणी।
स्पंदित-सा पुरष पुरातन,
देखता मानसि गौरी
लहरों का कोमल नत्तर्न
उस प्रेम-ज्योति-विमला से,
सब पहचाने से लगते
अपनी ही एक कला से।
सुन्दर साकार बना था,
चेतनता एक विलसती
आनंद अखंड घना था।
इति |
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved. |