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वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,
खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निजी बात।
लहरी पैरों को रही चूम, "माँ तू चल आयी दूर इधर, सन्ध्या कब की चल गयी उधर,
तू देख रही, माँ बस चल घर उसमें से उठता गंध-धूम" श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।
क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास, तू कई दिनों से यों चुप रह, क्या सोच रही? कुछ तो कह,
जो बाहर-भीतर देता दह, लेती ढीली सी भरी साँस, जैसी होती जाती हताश।"
जिसमें अवनत घन सजल भार, आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल शिशु सा आता कर खेल अनिल,
नभ रजनी के जुगुनू अविरल, यह विश्व अरे कितना उदार, मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।
संसृति के कल्पित हर्ष शोक, भावादधि से किरनों के मग, स्वाती कन से बन भरते जग,
झरने झरते आलिगित नग, उलझन मीठी रोक टोक, यह सब उसकी है नोंक झोंक।
सोता ओढे तम-नींद-जाल, सुरधनु सा अपना रंग बदल, मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल,
इस पर खिलता झरता उडुदल, अवकाश-सरोवर का मराल, कितना सुंदर कितना विशाल
शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति, परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल, मुस्क्याते इसमें भाव सकल,
उल्लास भरा सा अंतस्तल, मेरा निवास अति-मधुर-काँति, यह एक नीड है सुखद शांति
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?" पीछे मुड श्रद्धा ने देखा, वह इडा मलिन छवि की रेखा,
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा, जिस पर विषाद की विष-रेखा, कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग, सोया जिसका है भाग्य, जाग।
तुम जीवन की अंधानुरक्ति, मुझसे बिछुडे को अवलंबन, देकर, तुमने रक्खा जीवन,
तुम मादकता की अवनत धन, मनु के मस्तककी चिर-अतृप्ति, तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति
यह हृदय अरे दो मधुर बोल, मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ, मैं पाती हूँ खो देती हूँ,
मैं दुख को सुख कर लेती हूँ, अनुराग भरी हूँ मधुर घोल, चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।
मनु हत-चेतन थे एक बार, नारी माया-ममता का बल, वह शक्तिमयी छाया शीतल,
जिससे यह धन्य बने भूतल, 'तुम क्षमा करोगी' यह विचार मैं छोडूँ कैसे साधिकार।"
अपराधी किंतु यहाँ न कौन? सुख-दुख जीवन में सब सहते, पर केव सुख अपना कहते,
पावस-निर्झर-से वे बहते, रोके फिर उनको भला कौन? सब को वे कहते-शत्रु हो न"
सीमायें कृत्रिम रहीं टूट, श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें, अपने बल का है गर्व उन्हें,
विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें, सब पिये मत्त लालसा घूँट, मेरा साहस अब गया छूट।
अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध, मेरे सुविभाजन हुए विषम, टूटते, नित्य बन रहे नियम
घिर हट, बरसे ये उपलोपम यह ज्वाला इतनी है समिद्ध, आहुति बस चाह रही समृद्ध।
संहार-बध्य असहाय दांत, प्राणी विनाश-मुख में अविरल, चुपचाप चले होकर निर्बल
ये शक्ति-चिन्ह, ये यज्ञ विफल, भय की उपासना प्रणाति भ्रांत अनिशासन की छाया अशांत
हे देवि तुम्हारा दिव्य-राग, मैम आज अकिंचन पाती हूँ, अपने को नहीं सुहाती हूँ,
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ, दो क्षमा, न दो अपना विराग, सोयी चेतनता उठे जाग।"
श्रद्धा बोली, " बन विषम ध्वांत सिर चढी रही पाया न हृदय तू विकल कर रही है अभिनय,
खो गया, नहीं आलोक उदय, सब अपने पथ पर चलें श्रांत, प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह, ओ तर्कमयी तू गिने लहर, प्रतिबिंबित तारा पकड, ठहर,
वह जडता की स्थिति, भूल न कर, सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह, तू ने छोडी यह सरल राह।
कर, जग को बाँट दिया विराग, चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत, वह रूप बदलता है शत-शत,
उल्लासपूर्ण आनंद सतत तल्लीन-पूर्ण है एक राग, झंकृत है केवल 'जाग जाग'
आहुति प्रसन्न देती प्रशांत, तू क्षमा न कर कुछ चाह रही, जलती छाती की दाह रही,
मुझको बस अपनी राह रही, रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत, विनिमय कर दे कर कर्म कांत।
शासक बन फैलाओ न भीती, मैं अपने मनु को खोज चली, सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,
मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली, तब देखूँ कैसी चली रीति, मानव तेरी हो सुयश गीति।"
जननी मुझसे मुँह यों न मोड, तेरी आज्ञा का कर पालन, वह स्नेह सदा करता लालन। |
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