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काम सर्ग -
2
जागरण-लोक था भूल चला
स्वप्नों का सुख-संचार हुआ,
कौतुक सा बन मनु के मन का
वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।
चेतना सजग रहती दुहरी,
कानों के कान खोल करके
सुनती थी कोई ध्वनि गहरी-
संतुष्ट ओध से मैं न हुआ,
आया फिर भी वह चला गया
तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।
अनुशीलन में अनुदिन मेरे,
मेरा अतिचार न बंद हुआ
उन्मत्त रहा सबको घेरे।
मेरा संकेत विधान बना,
विस्तृत जो मोह रहा मेरा वह
देव-विलास-वितान तना।
उनके विनोद का साधन था,
हँसता था और हँसाता था
उनका मैं कृतिमय जीवन था।
रति थी अनादि-वासना वही,
अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के
अंतर में उसकी चाह रही।
उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।
जिससे संसृति का बनता है
आकार रूप के नर्त्तन-सा।
उस पुष्पवती के माधव का-
मधु-हास हुआ था वह पहला
दो रूप मधुर जो ढाल सका।"
अपने आलस का त्याग किये,
परमाणु बल सब दौड़ पड़े
जिसका सुंदर अनुराग लिये।
मिलने को गले ललकते से,
अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के
विद्युत्कण मिले झलकते से।
प्रारंभ माधुरी छाया में,
जिसको कहते सब सृष्टि,
बनी मतवाली माया में।
संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही,
ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था-
मादक मरंद की वृष्टि रही।
शैलों के गले सनाथ हुए,
जलनिधि का अंचल व्यजन बना
धरणी के दो-दो साथ हुए।
हम दोनों साथी झूल चले,
उस नवल सर्ग के कानन में
मृदु मलयानिल के फूल चले,
आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में,
रति-काम बने उस रचना में जो
रही नित्य-यौवन वय में?'
उनकी हृत्त्री की लय थी
रति, उनके मन को सुलझाती
वह राग-भरी थी, मधुमय थी।
वह तृप्ति दिखती थी उनकी,
आनन्द-समन्वय होता था
हम ले चलते पथ पर उनको।
चेतना रही, अनंग हुआ,
हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये
संचित का सरल प्रंसग हुआ।"
यह विश्व कर्म रंगस्थल है,
है परंपरा लग रही यहाँ
ठहरा जिसमें जितना बल है।
जो केवल साधन बनते हैं,
आरंभ और परिणामों को
संबध सूत्र से बुनते हैं।
जो घुलती है नीले अंबर में
वह क्या? क्या तुम देख रहे
वर्णों के मेघाडंबर में?
साधक-कर्म बिखरता है,
माया के नीले अंचल में
आलोक बिदु-सा झरता है।"
"आरंभिक वात्या-उद्गम मैं
अब प्रगति बन रहा संसृति का,
मानव की शीतल छाया में
ऋणशोध करूँगा निज कृति का।
दोनों का समुचित परिवर्त्तन
जीवन में शुद्ध विकास हुआ,
प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई
जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।
वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला,
उसका संदेश सुनाने को
संसृति में आयी वह अमला।
कितनी सुंदर भोली-भाली,
रंगों ने जिनसे खेला हो
ऐसे फूलों की वह डाली।
सुलझन है भूल-सुधारों की।
वह शीतलता है शांतिमयी
जीवन के उष्ण विचारों की।
योग्य बनो"-कहती-कहती
वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा
जैसे मुरली चुप हो रहती।
"पंथ कौन वहाँ पहुँचाता है?
उस ज्योतिमयी को देव
कहो कैसे कोई नर पाता?"
वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ,
देखा तो सुंदर प्राची में
अरूणोदय का रस-रंग हुआ।
हेमाभरश्मि थी खेल रही,
देवों के सोम-सुधा-रस की
मनु के हाथों में बेल रही। |
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