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जिनकी आतुर पीड़ा, कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा।
भूल जिसे कहते हैं, एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं।
जगत की दुर्बलता की माया, धरणी की वर्ज़ित मादकता, संचित तम की छाया।
यह चंद्र-कपाल लिये हो, इन्हीं निमीलित ताराओं में कितनी शांति पिये हो।
सृष्टि जियेगी फिर से, कहो अमरता शीतलता इतनी आती तुम्हें किधर से?
बैठे आसन मारे, देव! कौन तुम, झरते तन से श्रमकण से ये तारे
अंजलि वे दे सकते, चले आ रहे छायापथ में लोक-पथिक जो थकते,
स्वीकृति मिली तुम्हारी लौटाये जाते वे असफल जैसे नित्य भिखारी।
विपुल विश्व की माया, क्षण-क्षण होती प्रकट नवीना बनकर उसकी काया।
सब भूल किया करते क्या? जीवन में यौवन लाने को जी-जी कर मरते क्या?
कहीं नहीं बसता क्या? क्षणिक विनाशों में स्थिर मंगल चुपके से हँसता क्या?
कैसी यह मानवता! प्राणी को प्राणी के प्रति बस बची रही निर्ममता
रोदन बन हँसता क्यों? एक-एक विश्राम प्रगति को परिकर सा कसता क्यों?
कैसे अन्य भूल जावेगा, कौ उपाय गरल को कैसे अमृत बना पावेगा"
मिली रही मादकता, मनु क कौन वहाँ आने से भला रोक अब सकता।
वह आमंत्रण थ मिलता, उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख लहरों-सा तिरता।
धीमे-धीमे निस्वासों में, जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा हिमकर के हासों में।
वह सोती थी सुकुमारी रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी आज़ निशा-सी नारी।
विद्युत थे बिखराते, अलकों की डोरी में जीवन कण-कण उलझे जाते।
बने हुए थे मोती, मुख मंडल पर करुण कल्पना उनको रही पिरोती।
होती थी वह बेली, स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी जो अंग लता सी फैली।
आज़ विराट बना था, अंधकार- मिश्रित प्रकाश का एक वितान तना था।
खोकर सब चेतनता, मनोभाव आकार स्वयं हो रहा बिगड़ता बनता।
वही दूर जाता है, और क्रोध होता उस पर ही जिससे कुछ नाता है।
मन की माया उलझा लेती, प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में उसको लौटा देती।
पल्लव सदृश हथेली, श्रद्धा की, धीरे से मनु ने अपने कर में ले ली।
आँखों में उपालंभ की छाया, कहने लगे- "अरे यह कैसी मानवती की माया।
उसे न विफल बनाओ, अरी अप्सरे! उस अतीत के नूतन गान सुनाओ।
विद्युत नभ के नीचे, केवल हम तुम, और कौन? रहो न आँखे मींचे।
केवल भोग्य हमारा, जीवन के दोनों कूलों में बहे वासना धारा।
उसकी सब आकुलता, जिस क्षण भूल सकें हम अपनी यह भीषण चेतनता।
मुसक्याता रहता है, दो बूँदों में जीवन का रस लो बरबस बहता है।
सोम, अधर से छू लो, मादकता दोला पर प्रेयसी! आओ मिलकर झूलो।"
तब भी छाई थी मादकता, मधुर-भाव उसके तन-मन में अपना हो रस छकता।
"यह तुम क्या कहते हो, आज़ अभी तो किसी भाव की धारा में बहते हो।
तो फिर कौन बचेगा। क्या जाने कोइ साथी बन नूतन यज्ञ रचेगा।
किसी देव के नाते, कितना धोखा ! उससे तो हम अपना ही सुख पाते।
इस अचला जगती के, उनके कुछ अधिकार नहीं क्या वे सब ही हैं फीके?
उज्ज्वल मानवता। जिसमें सब कुछ ले लेना हो हंत बची क्या शवता।"
श्रद्धे ! वह भी कुछ है, दो दिन के इस जीवन का तो वही चरम सब कुछ है।
जितनी सतत सफलता पावे, जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी मधुर-मधुर कुछ गावे।
मृदु मुसक्यान खिले तो, आशाओं पर श्वास निछावर होकर गले मिले तो।
मुकुर बनी रहती हो वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है यह तुम क्या कहती हो?
इस हिमगिरि के अंचल में, वही अभाव स्वर्ग बन हँसता इस जीवन चंचल में।
योग जहाँ होता है, छली-अदृष्ट अभाव बना क्यों वहीं प्रकट होता है।
अपनी सीमा है हम ही तो, पूरी हो कामना हमारी विफल प्रयास नहीं तो"
सविनय श्रद्धा बोली, "बचा जान यह भाव सृष्टि ने फिर से आँखे खोली।
समझ, बची ही होगी, प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी लौट गयी ही होंगी।
कैसे व्यक्ति विकास करेगा, यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
मनु-हँसो और सुख पाओ, अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ।
यह यज्ञ पुरूष का जो है, संसृति-सेवा भाग हमारा उसे विकसने को है।
अपने में केवल दुख छोड़ोगे, इतर प्राणियों की पीड़ा लख अपना मुहँ मोड़ोगे
सब सौरभ बंदी कर लें, सरस न हों मकरंद बिंदु से खुल कर, तो ये मर लें।
सौरभ को पाओगे, फिर आमोद कहाँ से मधुमय वसुधा पर लाओगे।
संग्रह मूल नहीं है, उसमें एक प्रदर्शन जिसको देखें अन्य वही है।
तुम्हें प्रमोद मिलेगा? नहीं इसी से अन्य हृदय का कोई सुमन खिलेगा।
चाहे हो वह एकांत तुम्हारा बढ़ती है सीमा संसृति की बन मानवता-धारा।"
बातें कहते-कहते, श्रद्धा के थे अधर सूखते मन की ज्वाला सहते।
समय देखकर बोले- "श्रद्धे पी लो इसे बुद्धि के बंधन को जो खोले।
अकेला सुख क्या?" यह मनुहार रूकेगा प्याला पीने से फिर मुख क्या?
आँखे प्रिय आँखों में, डूबे अरुण अधर थे रस में। हृदय काल्पनिक-विज़य में सुखी चेतनता नस-नस में।
हृदयों की शिशुता को, खेल दिखाती, भुलवाती जो उस निर्मल विभुता को,
प्रगति दिशा को पल में अपने एक मधुर इंगित से बदल सके जो छल में।
निज़ मनु को थी देती जो अपने अभिनय से मन को सुख में उलझा लेती। "श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी यह भव रज़नी भीमा, तुम बन जाओ इस ज़ीवन के मेरे सुख की सीमा।
ढ़क लेता है तम से उसे अकिंचन कर देता है अलगाता 'हम तुम' से
यही है, बाधा, दूर हटाओ, अपने ही अनुकूल सुखों को मिलने दो मिल जाओ।"
रक्त खौलता जिसमें, शीतल प्राण धधक उठता है तृषा तृप्ति के मिस से।
उस निभृत गुफा में अपने, अग्नि शिखा बुझ गयी, जागने पर जैसे सुख सपने। |
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