हिंदी का रचना संसार | ||||||||||||||||||||||||||
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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना।
तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रहे?
या सुषुप्ति ही सीमा है, आती है रह रह पुकार-सी 'यह भव-रजनी भीमा है।'
पंख भर रहे सर्राटे, सरस्वती थी चली जा रही खींच रही-सी सन्नाटे।
जाग रही थी मर्म-व्यथा, पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस कुछ कह उठती थी करुण-कथा।
दीपों से था निकल रहा, पवन चल रहा था रुक-रुक कर खिन्न, भरा अवसाद रहा।
सजग सतत चुपचाप खडा, अंधकार का नील आवरण दृश्य-जगत से रहा बडा।
कोई अन्य नहीं, स्वयं इडा उस पर बैठी थी अग्नि-शिखा सी धधक रही।
बस समाधि-सा रहा खडा, क्योंकि वही घायल शरीर वह मनु का था रहा पडा।
बस सोच रही बीती बातें, घृणा और ममता में ऐसी बीत चुकीं कितनी रातें।
सुधा-सिंधु लहरें लेता, बाडव-ज्वलन उसी में जलकर कँचन सा जल रँग देता।
शीतलता संसृति रचती, क्षमा और प्रतिशोध आह रे दोनों की माया नचती।
हाँ अनन्य वह रहा नहीं, सहज लब्ध थी वह अनन्यता पडी रह सके जहाँ कहीं।
जो अबाध हो दौड चले, वही स्नेह अपराध हो उठा जो सब सीमा तोड चले।
एक अकेले भीम बना, जीवन के कोने से उठकर इतना आज असीम बना
सहृदयता की सब माया, शून्य-शून्य था केवल उसमें खेल रही थी छल छाया
उस दिन जो आया था, जिसके नीचे धारा नहीं थी शून्य चतुर्दिक छाया था।
नियमन का आधार बना, अपने निर्मित नव विधान से स्वयं दंड साकार बना।
शैल-श्रृंग पर सहज चढा, अप्रतिहत गति, संस्थानों से रहता था जो सदा बढा।
वह अतीत सब सपना था, उसके ही सब हुए पराये सबका ही जो अपना था।
जिसका वह उपकारी था, प्रकट उसी से दोष हुआ है जो सबको गुणकारी था।
पल्लव हैं ये भले बुरे, एक दूसरे की सीमा है क्यों न युगल को प्यार करें?
"अपना हो या औरों का सुख बढा कि बस दुख बना वहीं, कौन बिंदु है रुक जाने का यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।
वर्त्तमान का सुख छोडे, दौड चला है बिखराता सा अपने ही पथ में रोडे।"
या करती रखवाली मैं, यह कैसी है विकट पहेली कितनी उलझन वाली मैं?
इससे कुछ सुंदर होगा, हाँ कि, वास्तविकता से अच्छी सत्य इसी को वर देगा।"
कुछ दूरागत-ध्वनि सुनती, इस निस्तब्ध-निशा में कोई चली आ रही है कहती-
कहाँ प्रवासी है मेरा? उसी बावले से मिलने को डाल रही हूँ मैं फेरा।
अपना सकी न उसको मैं, वह तो मेरा अपना ही था भला मनाती किसको मैं
हो साल रही उर में मेरे कैसे पाऊँगी उसको मैं कोई आकर कह दे रे"
धुँधली सी छाया चलती, वाणी में थी करूणा-वेदना वह पुकार जैसे जलती।
कबरी अधिक अधीर खुली, छिन्नपत्र मकरंद लुटी सी ज्यों मुरझायी हुयी कली।
वय किशोर उँगली पकडे, चला आ रहा मौन धैर्य सा अपनी माता को पकडे।
वे दोनों ही माँ-बेटे, खोज रहे थे भूले मनु को जो घायल हो कर लेटे।
दुखियों को देखा उसने, पहुँची पास और फिर पूछा "तुमको बिसराया किसने?
जाओगी तुम बोलो तो, बैठो आज अधिक चंचल हूँ व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।
खोये भी हैं मिल जाते, जीवन है तो कभी मिलन है कट जाती दुख की रातें।"
मिलता है विश्राम यहीं, चली इडा के साथ जहाँ पर वह्नि शिखा प्रज्वलित रही।
मंडप आलोकित करती, कामायनी देख पायी कुछ पहुँची उस तक डग भरती।
तो क्या सच्चा स्वप्न रहा? आह प्राणप्रिय यह क्या? तुम यों घुला ह्रदय,बन नीर बहा।
वह थी मनु को सहलाती, अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था व्यथा भला क्यों रह जाती?
कुछ हलके से स्पंदन आये। आँखे खुलीं चार कोनों में चार बिदु आकर छाये।
मंदिर, मंडप, वेदी को, यह सब क्या है नया मनोहर कैसे ये लगते जी को?
देख पिता हैं पडे हुए,' 'पिता आ गया लो' यह कहते उसके रोयें खडे हुए।
क्या बैठी कर रही यहाँ?" मुखर हो गया सूना मंडप यह सजीवता रही यहाँ?"
आत्मीयता घुली उस घर में छोटा सा परिवार बना, छाया एक मधुर स्वर उस पर श्रद्धा का संगीत बना।
मैं ह्रदय की बात रे मन विकल होकर नित्य चचंल, खोजती जब नींद के पल,
मैं मलय की बात रे मन चिर-विषाद-विलीन मन की, इस व्यथा के तिमिर-वन की लृ
कुसुम-विकसित प्रात रे मन जहाँ मरु-ज्वाला धधकती, चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की, मैं सरस बरसात रे मन पवन की प्राचीर में रुक जला जीवन जी रहा झुक,
मैं कुसुम-श्रृतु-रात रे मन चिर निराशा नीरधार से, प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मैं सजल जलजात रे मन" उस स्वर-लहरी के अक्षर सब संजीवन रस बने घुले। |
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