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कामायनी उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,
बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा तू आ गयी भला तो- पर क्या था मैं यहीं पडा'
बिखरी चारों ओर घृणा। आँखें बंद कर लिया क्षोभ से "दूर-दूर ले चल मुझको,
खो दूँ कहीं न फिर तुझको। हाथ पकड ले, चल सकता हूँ- हाँ कि यही अवलंब मिले,
हृदय का कुसुम खिले।" श्रद्धा नीरव सिर सहलाती आँखों में विश्वास भरे,
अब क्यों कोई वृथा डरे?" जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से लगे बहुत धीरे कहने,
मुझको दे न यहाँ रहने। मुक्त नील नभ के नीचे या कहीं गुहा में रह लेंगे,
जो आवेगा सह लेंगे" "ठहरो कुछ तो बल आने दो लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,
"रहने देंगी क्या न हमें?" इडा संकुचित उधर खडी थी यह अधिकार न छीन सकी,
उनकी वाणी नहीं रुकी। "जब जीवन में साध भरी थी उच्छृंखल अनुरोध भरा,
अपनेपन का बोध भरा। मैं था, सुंदर कुसुमों की वह सघन सुनहली छाया थी,
उल्लासों की माया थी। उषा अरुण प्याला भर लाती सुरभित छाया के नीचे
अलसाई आँखे मींचे। ले मकरंद नया चू पडती शरद-प्रात की शेफाली,
सुंदर अलकें घुँघराली। सहसा अधंकार की आँधी उठी क्षितिज से वेग भरी,
उद्वेलित मानस लहरी। व्यथित हृदय उस नीले नभ में छाया पथ-सा खुला तभी,
कर दी तुमने देवि जभी। दिव्य तुम्हारी अमर अमिट छवि लगी खेलने रंग-रली,
निकष पर खिंची भली। अरुणाचल मन मंदिर की वह मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,
सुंदरता की मृदु महिमा। उस दिन तो हम जान सके थे सुंदर किसको हैं कहते
प्राणी यह दुख-सुख सहते। जीवन कहता यौवन से "कुछ देखा तूने मतवाले"
चल कुछ अपना संबल पाले" हृदय बन रहा था सीपी सा तुम स्वाती की बूँद बनी,
जब तुम उसमें मकरंद बनीं। तुमने इस सूखे पतझड में भर दी हरियाली कितनी,
तृप्ति बन गयी वह इतनी विश्व, कि जिसमें दुख की आँधी पीडा की लहरी उठती,
बुदबुद की माया नचती। वही शांत उज्जवल मंगल सा दिखता था विश्वास भरा,
सृष्टि-विभव हो उठा हरा। भगवती वह पावन मधु-धारा देख अमृत भी ललचाये,
जिसमें जीवन धुल जाये संध्या अब ले जाती मुझसे ताराओं की अकथ कथा,
सारे श्रमकी विकल व्यथा। सकल कुतूहल और कल्पना उन चरणों से उलझ पडी,
जीवन की वह धन्य घडी। स्मिति मधुराका थी, शवासों से पारिजात कानन खिलता,
स्वर में वेणु कहाँ मिलता श्वास-पवन पर चढ कर मेरे दूरागत वंशी-रत्न-सी,
दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी जीवन-जलनिधि के तल से जो मुक्ता थे वे निकल पडे,
गाते मेरे रोम खडे। आशा की आलोक-किरन से कुछ मानस से ले मेरे,
जिसको शशिलेखा घेरे- उस पर बिजली की माला-सी झूम पडी तुम प्रभा भरी,
बरसा मन-वनस्थली हुई हरी तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया विश्व खेल है खेल चलो,
सबसे करते मेल चलो। यह भी अपनी बिजली के से विभ्रम से संकेत किया,
तब इसको दे दान दिया। तुम अज्रस वर्षा सुहाग की और स्नेह की मधु-रजनी,
तो तुम उसमें संतोष बनी। कितना है उपकार तुम्हारा आशिररात मेरा प्रणय हुआ
संवेदनमय हृदय हुआ। किंतु अधम मैं समझ न पाया उस मंगल की माया को,
हर्ष शोक की छाया को, मेरा सब कुछ क्रोध मोह के उपादान से गठित हुआ,
किरनों ने अब तक न छुआ। शापित-सा मैं जीवन का यह ले कंकाल भटकता हूँ,
कुछ खोजता अटकता हूँ। अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का आकर्षण है खींच रहा,
सब पर, हाँ अपने पर भी मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा। नहीं पा सका हूँ मैं जैसे जो तुम देना चाह रही,
मधु-धारा हो ढाल रही। सब बाहर होता जाता है स्वगत उसे मैं कर न सका,
हृदय हमारा भर न सका। यह कुमार-मेरे जीवन का उच्च अंश, कल्याण-कला
हृदय स्नेह बन जहाँ ढला। सुखी रहें, सब सुखी रहें बस छोडो मुझ अपराधी को"
भीतर उठती आँधी को। दिन बीता रजनी भी आयी तंद्रा निद्रा संग लिये,
मन की दबी उमंग लिये। श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी हाथों को उपधान किये,
मनु चुप सब अभिशाप पिये- सोच रहे थे, "जीवन सुख है? ना, यह विकट पहेली है,
कितनी व्यथा न झेली है? यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी झिलमिल चंचल सी छाया,
यह मुख या कलुषित काया। और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर इनका क्या विश्वास करूँ,
मन ही मन चुपचाप मरूँ। श्रद्धा के रहते यह संभव नहीं कि कुछ कर पाऊँगा
जहाँ खोजता जाऊँगा।" जगे सभी जब नव प्रभात में देखें तो मनु वहाँ नहीं,
यह कुमार अब शांत नहीं। इडा आज अपने को सबसे अपराधी है समझ रही,
अपने में ही उलझ रही। |
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