हिंदी का रचना संसार | ||||||||||||||||||||||||||
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
|
||||||||||||||||||||||||||
उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी,
ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से बढते।
कहता-'फिर जा अरे बटोही किधर चला तू मुझे भेद कर प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही?
बढी जा रही सतत उँचाई विक्षत उसके अंग, प्रगट थे भीषण खड्ड भयकारी खाँई।
हिमकर कितने नये बनाता, दुततर चक्कर काट पवन थी फिर से वहीं लौट आ जाता।
सुंदर सुर-धनु माला पहने, कुंजर-कलभ सदृश इठलाते, चपला के गहने।
शीतल शत-शत निर्झर ऐसे महाश्वेत गजराज गंड से बिखरीं मधु धारायें जैसे।
वे समतल चित्रपटी से लगते, प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर, नद जो प्रति पल थे भगते।
ऊपर महाशून्य का घेरा, ऊँचे चढने की रजनी का, यहाँ हुआ जा रहा सबेरा,
"कहाँ ले चली हो अब मुझको, श्रद्धे मैं थक चला अधिक हूँ, साहस छूट गया है मेरा, निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ,
दुर्बल अब लड न सकूँगा, श्वास रुद्ध करने वाले, इस शीत पवन से अड न सकूँगा।
जिन से रूठ चला आया हूँ।" वे नीचे छूटे सुदूर, पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।"
श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी। सेवा कर-पल्लव में उसके, कुछ करने को ललक उठी थी।
कामायनी मधुर स्वर बोली, "हम बढ दूर निकल आये, अब करने का अवसर न ठिठोली।
यह अनंत सा कुछ ऊपर है, अनुभव-करते हो, बोलो क्या, पदतल में, सचमुच भूधर है?
हम दोनों को आज यहीं है नियति खेल देखूँ न, सुनो अब इसका अन्य उपाय नहीं है।
ऊपर उठने को है कहती, इस प्रतिकूल पवन धक्के को, झोंक दूसरी ही आ सहती।
विहग-युगल से आज हम रहें, शून्य पवन बन पंख हमारे, हमको दें आधारा, जम रहें।
देखो तो, हम कहाँ आ गये" मनु ने देखा आँख खोलकर, जैसे कुछ त्राण पा गये।
ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे, दिवा-रात्रि के संधिकाल में, ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।
भू-मंडल रेखा विलीन-सी निराधार उस महादेश में, उदित सचेतनता नवीन-सी।
तीन दिखाई पडे अलग व, त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे, अनमिल थे किंतु सजग थे।
ग्रह ये हैं श्रद्धे मुझे बताओ? मैं किस लोक बीच पहुँचा, इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ"
तुम शक्ति विपुल क्षमता वाले ये, एक-एक को स्थिर हो देखो, इच्छा ज्ञान, क्रिया वाले ये।
उषा के कंदुक सा सुंदर, छायामय कमनीय कलेवर, भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर।
पारदर्शिनी सुघड पुतलियाँ, चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों, रूपवती रंगीन तितलियाँ
अरुण पराग पटल छाया में, इठलातीं सोतीं जगतीं ये, अपनी भाव भरी माया में।
कोमल अँगडाई है लेती, मादकता की लहर उठाकर, अपना अंबर तर कर देती।
छू लेती, फिर सिहरन बनती, नव-अलंबुषा की व्रीडा-सी, खुल जाती है, फिर जा मुँदती।
है रस धारा से सिंचित होती, मधुर लालसा की लहरों से, यह प्रवाहिका स्पंदित होती।
मनोहारिणी आकृति वाले, छायामय सुषमा में विह्वल, विचर रहे सुंदर मतवाले।
मधुर गंध उठती रस-भीनी, वाष्प अदृश फुहारे इसमें, छूट रहे, रस-बूँदे झीनी।
चलचित्रों सी संसृति छाया, जिस आलोक-विदु को घेरे, वह बैठी मुसक्याती माया।
इच्छा की रथ-नाभि घूमती, नवरस-भरी अराएँ अविरल, चक्रवाल को चकित चूमतीं।
रागारुण चेतन उपासना, माया-राज्य यही परिपाटी, पाश बिछा कर जीव फाँसना।
केवल वर्ण गंध में फूले, इन अप्सरियों की तानों के, मचल रहे हैं सुंदर झूले।
जननी है सब पुण्य-पाप की। ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति, बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।
भाव विटपि से आकर मिलना, जीवन-वन की बनी समस्या, आशा नभकुसुमों का खिलना। |
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved. |