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चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।"
किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष है"
धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा सघन हो रहा अविज्ञात यह देश, मलिन है धूम-धार सा।
यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा, सब के पीछे लगी हुई है, कोई व्याकुल नयी एषणा।
विकल प्रवर्तन महायंत्र का, क्षण भर भी विश्राम नहीं है, प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का।
सुख यों दुख में बदल रहे हैं, हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये, अकडे अणु टहल रहे हैं।
जीवित रहना यहाँ चाहते, भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर, दंड बने हैं, सब कराहते।
जैसे कशाघात-प्रेरित से- प्रति क्षण करते ही जाते हैं, भीति-विवश ये सब कंपित से।
तृष्णा-जनित ममत्व-वासना, पाणि-पादमय पंचभूत की, यहाँ हो रही है उपासना।
कोलाहल का यहाँ राज है, अंधकार में दौड लग रही मतवाला यह सब समाज है।
कर्मों की भीषण परिणति है, आकांक्षा की तीव्र पिपाशा ममता की यह निर्मम गति है।
विजयों की हुंकार सुनाती, यहाँ भूख से विकल दलित को, पदतल में फिर फिर गिरवाती।
उन्नति करने के मतवाले, जल-जला कर फूट पड रहे ढुल कर बहने वाले छाले।
मरीचिका-से दीख पड रहे, भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे, विलीन, ये पुनः गड रहे।
अपराधों की स्वीकृति बनती, अंध प्रेरणा से परिचालित, कर्ता में करते निज गिनती।
हिम उपल यहाँ है बनता, पयासे घायल हो जल जाते, मर-मर कर जीते ही बनता
जला-जला कर नित्य ढालती, चोट सहन कर रुकने वाली धातु, न जिसको मृत्यु सालती।
तट-कूलों को सहज गिराती, प्लावित करती वन कुंजों को, लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।"
यह अति भीषण कर्म जगत है, श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है, जैसे पुंजीभूत रजत है।"
सुख-दुख से है उदासीनत, यहाँ न्याय निर्मम, चलता है, बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
ये अणु तर्क-युक्ति से, ये निस्संग, किंतु कर लेते, कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती, बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी, प्यास लगी है ओस चाटती।
प्राणी चमकीले लगते, इस निदाघ मरु में, सूखे से, स्रोतों के तट जैसे जगते।
समतोलन में दत्तचित्त से, ये निस्पृह न्यायासन वाले, चूक न सकते तनिक वित्त से
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से, माँग रहे हैं जीवन का रस, बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
अधिकारों की व्याख्या करता, यह निरीह, पर कुछ पाकर ही, अपनी ढीली साँसे भरता।
अंबुज वाले सर सा देखो, जीवन-मधु एकत्र कर रही, उन सखियों सा बस लेखो।
अंधकार को भेद निखरती, यह अनवस्था, युगल मिले से, विकल व्यवस्था सदा बिखरती।
किंतु सशंकित हैं दोषों से, वे संकेत दंभ के चलते, भू-वालन मिस परितोषों से।
छूओ मत, संचित होने दो। बस इतना ही भाग तुम्हारा, तृष्णा मृषा, वंचित होने दो।
किंतु विषमता फैलाते हैं, मूल-स्वत्व कुछ और बताते, इच्छाओं को झुठलाते हैं।
शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते, ये विज्ञान भरे अनुशासन, क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते।
तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने, अपने केन्द्र बने दुख-सुख में, भिन्न हुए हैं ये सब कितने
इच्छा क्यों पूरी हो मन की, एक दूसरे से न मिल सके, यह विडंबना है जीवन की।"
श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें, वे संबद्ध हुए फर सहसा, जाग उठी थी ज्वाला जिनमें।
विषम वायु में धधक रही सी, महाशून्य में ज्वाल सुनहली, सबको कहती 'नहीं नहीं सी।
उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा। चितिमय चिता धधकती अविरल, महाकाल का विषय नृत्य था,
करता अपना विषम कृत्य था, स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो, इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे,
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे। |
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