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श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था।
विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये।
और व्यवहार बुरा था, मनस्ताप से सब के भीतर रोष भरा था।
इड़ा का पीला-पीला, उधर प्रकृति की रुकी नहीं थी तांड़व-लीला।
सब जुड़ आये, प्रहरी-गण कर द्वार बंद थे ध्यान लगाये।
में दबी-लुकी-सी, रह-रह होती प्रगट मेघ की ज्योति झुकी सी।
शयन पर सोच रहे थे, क्रोध और शंका के श्वापद नोच रहे थे।
कितना तुष्ट हुआ था, किंतु कौन कह सकता इन पर रुष्ट हुआ था।
इनका चक्र चलाया, अलग-अलग ये एक हुई पर इनकी छाया।
बुद्धि-बल से प्रयत्न कर, इनको कर एकत्र, चलाता नियम बना कर।
सब कुछ मान चलूँ मैं, तनिक न मैं स्वच्छंद, स्वर्ण सा सदा गलूँ मैं
उसी से भीत रहूँ मैं, क्या अधिकार नहीं कि कभी अविनीत रहूँ मैं?
समर्पण दे न सका मैं, प्रतिपल बढ़ता हुआ भला कब वहाँ रुका मैं
चाहती मुझे बनाना, निर्वाधित अधिकार उसी ने एक न माना।
विहीन परिवर्त्तन तो है, इसकी गति में रवि- शशि-तारे ये सब जो हैं।
वसुधा जलनिधि बनती, उदधि बना मरूभूमि जलधि में ज्वाला जलती
लगी है सब के भीतर, गल कर बहते हिम-नग सरिता-लीला रच कर।
एक पल आया बीता टिकने कब मिला किसी को यहाँ सुभीता?
शून्य के महा-विवर में, लास रास कर रहे लटकते हुए अधर में।
स्तर में लहरें कितनी, यह असंख्य चीत्कार और परवशता इतनी।
विश्व का स्पंदन द्रुततर, गतिमय होता चला जा रहा अपने लय पर।
देखते पुनरावर्त्तन, उसे मानते नियम चल रहा जिससे जीवन।
पलक में छलक रहे है, शत-शत प्राण विमुक्ति खोजते ललक रहे हैं।
शाप में ताप भरा है, इस विनाश में सृष्टि- कुंज हो रहा हरा है।
यह पुकार-सी, फैली गयी है इसके मन में दृढ़ प्रचार-सी।
फिर सुख-साधन जाना, वशी नियामक रहे, न ऐसा मैंने माना।
मृत्यु-सीमा-उल्लघंन- करता सतत चलूँगा यह मेरा है दृढ़ प्रण।
जो क्षण हो अपना, चेतनता की तुष्टि वही है फिर सब सपना।"
इक क्षण करवट लेकर, देखा अविचल इड़ा खड़ी फिर सब कुछ देकर
नियामक नियम न माने, तो फिर सब कुछ नष्ट हुआ निश्चय जाने।"
आज कैसे चल आयी, क्या कुछ और उपद्रव की है बात समायी-
जो कुछ इतना क्या न हुई तुष्टि? बच रहा है अब कितना?"
"मनु, सब शासन स्वत्त्व तुम्हारा सतत निबाहें, तुष्टि, चेतना का क्षण अपना अन्य न चाहें
न हुआ है, कभी न होगा, निर्वाधित अधिकार आज तक किसने भोगा?"
चेतना का है विकसित, एक विश्व अपने आवरणों में हैं निर्मित
संघर्ष चला करता है, द्वयता का जो भाव सदा मन में भरता है-
रहे से एक-एक को, होते सतत समीप मिलाते हैं अनेक को।
ठहरें वे रह जावें, संसृति का कल्याण करें शुभ मार्ग बतावें।
परतंत्र बनी-सी, रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में सतत सनी सी।
पर है ठोकर खाती, अपने लक्ष्य समीप श्रांत हो चलती जाती।
यही है बुद्धि-साधना, पना जिसमें श्रेय यही सुख की अ'राधना।
यदि उस छाया में, प्राण सदृश तो रमो राष्ट्र की इस काया में।
परिधि में होती लय है, काल खोजता महाचेतना में निज क्षय है।
नचता है उन्मद गति से, तुम भी नाचो अपनी द्वयता में-विस्मृति में।
क्षितिज पटी को उठा बढो ब्रह्मांड विवर में, गुंजारित घन नाद सुनो इस विश्व कुहर में।
नहीं लय छूटे जिसमें, तुम न विवादी स्वर छेडो अनजाने इसमें।
तुम्हें समझाना है अब, तुम कितनी प्रेरणामयी हो जान चुका सब।
लौट कर फिर हो आयी, कैसे यह साहस की मन में बात समायी
अधिकार यही क्या अभिलाषा मेरी अपूर्णा ही सदा रहे क्या?
ही सतत रहूँ क्या? कुछ पाने का यह प्रयास है पाप, सहूँ क्या?
कुछ कह सकती हो? मुझे ज्ञान देकर ही जीवित रह सकती हो?
जब मिला नहीं है, तब लौटा लो व्यर्थ बात जो अभी कही है।"
चाहिये जो मैं चाहूँ, तुम पर हो अधिकार, प्रजापति न तो वृथा हूँ।
अब टूट रहा सब, शासन या अधिकार चाहता हूँ न तनिक अब।
प्रकृति का इतना कंपन मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र है इसका स्पंदन
खेल है हँस कर खेला किंतु आज कितना कोमल हो रहा अकेला?
एक लय है, मैं उसमें लीन हो चलूँ? किंतु धरा है क्या सुख इसमें।
एक आकाश बना लूँ, उस रोदन में अट्टाहास हो तुमको पा लूँ।
बहे मर्य्यादा बाहर, फिर झंझा हो वज्र- प्रगति से भीतर बाहर,
लहर ऊपर से भागे, रवि-शशि-तारा सावधान हों चौंके जागें,
बालिके मेरी हो, तुम, मैं हूँ कुछ खिलवाड नहीं जो अब खेलो तुम?" |
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