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आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते।
माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है।
और कहूँ क्या कहना था कह चुकी और अब यहाँ रहूँ क्या"
तमने ऐसे छुट्टी, लडके जैसे खेलों में कर लेते खुट्टी।
सी सम्मुख आयी, तुमने ही संघर्ष भूमिका मुझे दिखायी।
भयकरी उनमें ज्वाला, विनयन का उपचार तुम्हीं से सीख निकाला।
बँटा श्रम उनका अपना शस्त्र यंत्र बन चले, न देखा जिनका सपना।
खेलने में आतुर नर, प्रकृति संग संघर्ष निरंतर अब कैसा डर?
पास में अब आने दो इस हताश जीवन में क्षण-सुख मिल जाने दो।
सब कुछ वैभव अपना, केवल तुमको सब उपाय से कह लूँ अपना।
फिर ध्वंस हुआ सा समझो, तुम हो अग्नि और यह सभी धुआँ सा?"
"मैंने जो मनु, किया उसे मत यों कह भूलो, तुमको जितना मिला उसी में यों मत फूलो।
सिखाया तुमको मैंने, तुमको केंद्र बनाकर अनहित किया न मैंने
पर तुमको स्वामी, सहज बनाया, तुम अब जिसके अंतर्यामी।
हमारा अलग खड़ा है, हाँ में हाँ न मिलाऊँ तो अपराध बडा है।
निशा अब बीत रही है, प्राची में नव-उषा तमस् को जीत रही है।
कुछ विश्वास करो तो।' बनती है सब बात तनिक तुम धैर्य धरो तो।"
प्रमाद का फिर से आया, इधर इडा ने द्वार ओर निज पैर बढाया।
भुजाओं की मनु की वह, निस्सहाय ही दीन-दृष्टि देखती रही वह।
तुम्हारा तुम हो रानी। मुझको अपना अस्त्र बना करती मनमानी।
पंगु हुआ सा समझो, मुझको भी अब मुक्त जाल से अपने समझो।
सहज ही अभी रुकेगी, क्योंकि दासता मुझसे अब तो हो न सकेगी।
तुम पर भी मेरा- हो अधिकार असीम, सफल हो जीवन मेरा।
हुई जाती है पल में, सकल व्यवस्था अभी जाय डूबती अतल में।
अति-भय से कंपन, और सुन रहा हूँ नभ का यह निर्मम-क्रंदन
बंदी हो मेरी बाँहों में, मेरी छाती में,"-फिर सब डूबा आहों में
जनता भीतर आयी, "मेरी रानी" उसने जो चीत्कार मचायी।
मनु तब हाँफ रहे थे, स्खलन विकंपित पद वे अब भी काँप रहे थे।
खचित ले राजदंड तब, और पुकारा "तो सुन लो- जो कहता हूँ अब।
साधन सकल बताया, मैंने ही श्रम-भाग किया फिर वर्ग बनाया।
हम सब जो सहते हैं, करते कुछ प्रतिकार न अब हम चुप रहते हैं
या गूँगे काननचारी, यह उपकृति क्या भूल गये तुम आज हमारी"
भीषण दुख से, "देखो पाप पुकार उठा अपने ही सुख से
अधिक संचय वाला, लोभ सिखा कर इस विचार-संकट में डाला।
यही मिला सुख, कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख
से सब की छीनी शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी
अत्याचार किया है? इसीलिये तू हम सब के बल यहाँ जिया है?
रानी इड़ा यहाँ है? ओ यायावर अब मेरा निस्तार कहाँ है?"
अकेला जीवन रभ में, प्रकृति और उसके पुतलों के दल भीषण में।
निज तन पर खेलें, राजदंड को वज्र बना सा सचमुच देखें।"
भीषण अस्त्र सम्हाला, देव 'आग' ने उगली त्यों ही अपनी ज्वाला।
से तीक्ष्ण नुकीले, टूट रहे नभ-धूमकेतु अति नीले-पीले।
प्रजा दल सा झुंझलाता, रण वर्षा में शस्त्रों सा बिजली चमकाता।
करते उन बाणों को, बढे कुचलते हुए खड्ग से जन-प्राणों को।
परमाणु विकल थे, नियति विकर्षणमयी, त्रास से सब व्याकुल थे।
चक्र से उस घन-तम में, वह रक्तिम-उन्माद नाचता कर निर्मम में।
भयानक हुई अवस्था, बढा विपक्ष समूह मौन पददलित व्यवस्था।
टिक कर मनु ने, श्वास लिया, टंकार किया दुर्लक्ष्यी धनु ने।
विषम उंचास-वात थे, मरण-पर्व था, नेता आकुलि औ' किलात थे।
इसको मत जाने देना" किंतु सजग मनु पहुँच गये कह "लेना लेना"।
उत्पात मचाया, अरे, समझकर जिनको अपना था अपनाया।
कैसे होती है बलि, रण यह यज्ञ, पुरोहित ओ किलात औ' आकुलि।
असुर-पुरोहित उस क्षण, इड़ा अभी कहती जाती थी "बस रोको रण।
आप ही तो होता है, ओ पागल प्राणी तू क्यों जीवन खोता है
ठहर जा ओ गर्वीले, जीने दे सबको फिर तू भी सुख से जी ले।"
धधकती वेदी ज्वाला, सामूहिक-बलि का निकला था पंथ निराला।
हाथ अब भी रुकता था, प्रजा-पक्ष का भी न किंतु साहस झुकता था।
इड़ा सारस्वत-रानी, वे प्रतिशोध अधीर, रक्त बहता बन पानी।
रुद्र-नाराच भयंकर, लिये पूँछ में ज्वाला अपनी अति प्रलयंकर।
हुंकार कर उठी सब शस्त्रों की धारें भीषण वेग भर उठीं।
मुमूर्व वे गिरे वहीं पर, रक्त नदी की बाढ- फैलती थी उस भू पर। |
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