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संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती
मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती।
न वह मकरंद रहा, एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग कहाँ
किरन कहाँ चाँदनी रही, वह संध्या थी-रवि, शशि,तारा ये सब कोई नहीं जहाँ।
सित शतदल हैं मुरझाये- अपने नालों पर, वह सरसी श्रद्धा थी, न मधुप आये,
या श्यामलता का नाम नहीं, शिशिर-कला की क्षीण-स्रोत वह जो हिमचल में जम जाये।
झिल्ली की झनकार नहीं, जगती अस्पष्ट-उपेक्षा, एक कसक साकार रही।
वसुधा-आलिगंन करती, वह छोटी सी विरह-नदी थी जिसका है अब पार नहीं।
विहग-बालिका सी किरनें, स्वप्न-लोक को चलीं थकी सी नींद-सेज पर जा गिरने।
एक घड़ी विश्राम नहीं- बिजली-सी स्मृति चमक उठी तब, लगे जभी तम-घन घिरने।
श्याम पराग बिखरते थे, शैल-घाटियों के अंचल को वो धीरे से भरते थे-
सुनते उस दुख की गाथा, श्रद्धा की सूनी साँसों से मिल कर जो स्वर भरते थे-
मंदाकिनि कुछ बोलोगी? नभ में नखत अधिक, सागर में या बुदबुद हैं गिन दोगी?
सिंधु मिलन को जाती हो, या दोनों प्रतिबिंबित एक के इस रहस्य को खोलोगी
जितने चित्र बिगडते बनते हैं, उनमें कितने रंग भरे जो सुरधनु पट से छनते हैं,
व्यापक नील-शून्यता सा, जगती का आवरण वेदना का धूमिल-पट बुनते हैं।
सजल कुहु में आज यहाँ कितना स्नेह जला कर जलता ऐसा है लघु-दीप कहाँ?
दीप-शिखा इस कुटिया की, शलभ समीप नहीं तो अच्छा, सुखी अकेले जले यहाँ
कोकिल जो चाहे कह ले, पर न परागों की वैसी है चहल-पहल जो थी पहले।
और प्रतीक्षा की संध्या, काकायनि तू हृदय कडा कर धीरे-धीरे सब सह ले
सब ले दुख के निश्वास रहे, उस स्मृति का समीर चलता है मिलन कथा फिर कौन कहे?
रूठ रहा अपराध बिना, किन चरणों को धोयेंगे जो अश्रु पलक के पार बहे
जीवन की बीती घडियाँ- जब निस्सबंल होकर कोई जोड़ रहा बिखरी कड़ियाँ।
चिर-सुंदरता में अपनी, छिपा कहीं, तब कैसे सुलझें उलझी सुख-दुख की लड़ियाँ
अब जिनमें कुछ सार नहीं, वह जलती छाती न रही अब वैसा शीतल प्यार नहीं
आशा, मधु-अभिलाषायें, प्रिय की निष्ठुर विजय हुई, पर यह तो मेरी हार नहीं
स्मिति चपला थी, आज कहाँ? और मधुर विश्वास अरे वह पागल मन का मोह रहा
यह अभिमान अकिंचन का, कभी दे दिया था कुछ मैंने, ऐसा अब अनुमान रहा।
भयसंकुल व्यापार अरे देना हो जितना दे दे तू, लेना कोई यह न करे
पूरी कभी न हो सकती, संध्या रवि देकर पाती है इधर-उधर उडुगन बिखरे
अंतरिक्ष अरुणाचल से, फूलों की भरमार स्वरों का कूजन लिये कुहक बल से।
किरन-कली की क्रीड़ा से, चिर-प्रवास में चले गये वे आने को कहकर छल से
मान-भरी मधुऋतु रातें, रूठ चली जातीं रक्तिम-मुख, न सह जागरण की घातें,
कहता छा जाता नभ में, वे जगते-सपने अपने तब तारा बन कर मुसक्याते।"
भरे वेणु के मधु स्वर से लौट चुके थे आने वाले सुन पुकार हपने घर से,
युग छिप गया प्रतीक्षा में, रजनी की भींगी पलकों से तुहिन बिंदु कण-कण बरसे
झरते बिंदु मरंद घने, मोती कठिन पारदर्शी ये, इनमें कितने चित्र बने
नयनालोक विरह तम में, प्रान पथिक यह संबल लेकर लगा कल्पना-जग रचने।
नव तुषार के बिंदु भरे, मुकुर चूर्ण बन रहे, प्रतिच्छवि कितनी साथ लिये बिखरे
पंक्ति चली सोने तम में, वर्षा-विरह-कुहू में जलते स्मृति के जुगनू डरे-डरे।
श्रृंगनाद की ध्वनि चलती, आकांक्षा लहरी दुख-तटिनी पुलिन अंक में थी ढलती।
शलभ उड़े, उस ओर चले, भरा रह गया आँखों में जल, बुझी न वह ज्वाला जलती।
गूँज उठी कुटिया सूनी, माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में लेकर उत्कंठा दूनी।
बाँहें आकर लिपट गयीं, निशा-तापसी की जलने को धधक उठो बुझती धूनी
अब तक मेरा भाग्य बना अरे पिता के प्रतिनिधि तूने भी सुख-दुख तो दिया घना,
भरता है चौकड़ी कहीं, मैं डरती तू रूठ न जाये करती कैसे तुझे मना"
कितनी अच्छी बात कही ले मैं अब सोता हूँ जाकर, बोलूँगा मैं आज नहीं,
नींद नहीं खुलने वाली।" श्रद्धा चुबंन ले प्रसन्न कुछ-कुछ विषाद से भरी रही
मधुर-मधुर वे पल हलके, मुक्त उदास गगन के उर में छाले बन कर जा झलके।
नील-निलय में छिपी कहीं, करुण वही स्वर फिर उस संसृति में बह जाता है गल के।
मुक्ति बना बढ़ता जाता, दूर, किंतु कितना प्रतिपल वह हृदय समीप हुआ जाता
जब फैली मूर्छित मानस पर, तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमें अपना चित्र बना जाता। |
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