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कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही-
कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन- नभ में खिंचती रेख रही।
आगे जलती है उल्लास भरी, मनु का पथ आलोकित करती विपद-नदी में बनी तरी,
शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं, तीव्र प्रेरणा की धारा सी बही वहाँ उत्साह भरी।
हृदय भेदिनी दृष्टि लिये, जिधर देखती-खुल जाते हैं तम ने जो पथ बंद किये।
वह उदय विजयिनी तारा थी, आश्रय की भूखी जनता ने निज श्रम के उपहार दिये
सहयोगी हैं सभी बने, दृढ़ प्राचीरों में मंदिर के द्वार दिखाई पड़े घने,
वर्षा धूप शिशिर में छाया के साधन संपन्न हुये, खेतों में हैं कृषक चलाते हल प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।
आभूषण औ' अस्त्र नये, कहीं साहसी ले आते हैं मृगया के उपहार नये,
कुसुमों की अध-विकच कली, गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम रज, जुटे नवीन प्रसाधन ये।
प्रचंड ध्वनि रोष भरी, तो रमणी के मधुर कंठ से हृदय मूर्छना उधर ढरी,
करते सभी उपाय वहाँ, उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा से पुर की श्री दिखती निखरी।
वे प्राणी चंचल से हैं, सुख-साधन एकत्र कर रहे जो उनके संबल में हैं,
बल की विस्मृत छाया में, नर-प्रयत्न से ऊपर आवे जो कुछ वसुधा तल में है।
सफल हो रहा हरा भरा, प्रलय बीव भी रक्षित मनु से वह फैला उत्साह भरा,
कुशल कल्पनायें करके, स्वावलंब की दृढ़ धरणी पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।
मलय-बालिका-सी चलती, सिंहद्वार के भीतर पहुँची, खड़े प्रहरियों को छलती,
बने रम्य प्रासाद वहाँ, धूप-धूप-सुरभित-गृह, जिनमें थी आलोक-शिखा जलती।
लगे हुए उद्यान बने, ऋजु-प्रशस्त, पथ बीव-बीच में, कहीं लता के कुंज घने,
प्यार भरे दे गलबाहीं, गूँज रहे थे मधुप रसीले, मदिरा-मोद पराग सने।
जिनमें उलझी वायु-तरंग, मिखरित आभूषण से कलरव करते सुंदर बाल-विहंग,
निकली स्वर-लहरी-ध्वनि को, नाग-केसरों की क्यारी में अन्य सुमन भी थे बहुरंग
सम्मुख कितने ही मंच तहाँ, एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें चर्म से सुखद जहाँ,
धूम-गंध आमोद-भरी, श्रद्धा सोच रही सपने में 'यह लो मैं आ गयी कहाँ'
दृढ़ कर में चषक लिये, मनु, वह क्रतुमय पुरुष वही मुख संध्या की लालिमा पिये।
एक चित्र सा कौन यहाँ, जिसे देखने को यह जीवन मर-मर कर सौ बार जिये-
जिसकी बुझती प्यास नहीं, तृषित कंठ को, पी-पीकर भी जिसमें है विश्वास नहीं,
मंच वेदिका पर बैठी, सौमनस्य बिखराती शीतल, जड़ता का कुछ भास नहीं।
करने को है शेष यहाँ?" बोली इड़ा "सफल इतने में अभी कर्म सविशेष कहाँ
नहीं अभी मैं रिक्त रहा- देश बसाया पर उज़ड़ा है सूना मानस-देश यहाँ।
किंतु हुए ये किसके हैं, एक बाँकपन प्रतिपद-शशि का, भरे भाव कुछ रिस के हैं,
करता आँखों में संकेत, बोल अरी मेरी चेतनते तू किसकी, ये किसके हैं?"
सबका ही गुनती हूँ मैं, वह संदेश-भरा फिर कैसा नया प्रश्न सुनती हूँ मैं"
मुझे न अब भ्रम में डालो, मधुर मराली कहो 'प्रणय के मोती अब चुनती हूँ मैं'
मेरा भाग्य-गगन धुँधला-सा, प्राची-पट-सी तुम उसमें, खुल कर स्वयं अचानक कितनी प्रभापूर्ण हो छवि-यश में
ओ प्रकाश-बालिके बता, कब डूबेगी प्यास हमारी इन मधु-अधरों के रस में?
रातों की शीतल-छाया, स्वर-संचरित दिशायें, मन है उन्मद और शिथिल काया,
नर-पशु कर हुंकार उठा, उधर फैलती मदिर घटा सी अंधकार की घन-माया।
वसुधा जैसे काँप उठी वही अतिचारी, दुर्बल नारी- परित्राण-पथ नाप उठी
भयानक हलचल थी, अरे आत्मजा प्रजा पाप की परिभाषा बन शाप उठी।
सब देव शक्तियाँ क्रोध भरी, रुद्र-नयन खुल गया अचानक- व्याकुल काँप रही नगरी,
देव अभी शिव बने रहें नहीं, इसी से चढ़ी शिजिनी अजगव पर प्रतिशोध भरी।
नृत्य विकंपित-पद अपना- उधर उठाया, भूत-सृष्टि सब होने जाती थी सपना
स्वयं-कलुष में मनु संदिग्ध, फिर कुछ होगा, यही समझ कर वसुधा का थर-थर कँपना।
क्रीड़ा से सब आशंकित जंतु, अपनी-अपनी पड़ी सभी को, छिन्न स्नेह को कोमल तंतु,
जो रक्षा का था भार लिये, इड़ा क्रोध लज्जा से भर कर बाहर निकल चली थि किंतु।
राजद्वार कर रुद्ध रही, प्रहरी के दल भी झुक आये उनके भाव विशुद्ध नहीं,
टूटे या ऊपर उठ जाय प्रजा आज कुछ और सोचती अब तक तो अविरुद्ध रही
मनु कुछ सोच विचार भरे, द्वार बंद लख प्रजा त्रस्त-सी, कैसे मन फिर धैर्य्य धरे
रुद्र-क्रोध भीषणतम था, महानील-लोहित-ज्वाला का नृत्य सभी से उधर परे।
पंख लगाकर उड़ने की, जीवन की असीम आशायें कभी न नीचे मुड़ने की,
उनकी वह मोहमयी माया, वर्गों की खाँई बन फैली कभी नहीं जो जुड़ने की।
आकस्मिक बाधा कैसी- समझ न पाये कि यह हुआ क्या, प्रजा जुटी क्यों आ ऐसी
देव-क्रोध से बन विद्रोह, इड़ा रही जब वहाँ स्पष्ट ही वह घटना कुचक्र जैसी।
अब न यहाँ आने देना, प्रकृति आज उत्पाद कर रही, मुझको बस सोने देना"
किंतु डरे-से थे मन में, शयन-कक्ष में चले सोचते जीवन का लेना-देना।
सहसा उसकी आँख खुली, यह क्या देखा मैंने? कैसे वह इतना हो गया छली?
कितनी आशंकायें उठ आतीं, अब क्या होगा, इसी सोच में व्याकुल रजनी बीत चली। |
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