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पथिक-से अश्रांत, यहाँ मिलने के लिये, जो भटकते थे भ्रांत।
अतिथि विगत-विकार, प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार।
तो वह लहर लघु लोल, एक नवल प्रभात, तो वह स्वर्ण-किरण अमोल।
का सजल उद्धाम, दूसरा रंजित किरण से श्री-कलित घनश्याम।
नव जलद सांयकाल- खेलता दो बिजलियों से ज्यों मधुरिमा-जाल।
थे चेतना के पाश, एक सकता था न कोई दूसरे को फाँस।
एक सुनिहित भाव, थी प्रगति, पर अड़ा रहता था सतत अटकाव।
मधुर जीवन-खेल, दो अपरिचित से नियति अब चाहती थी मेल।
तब भी रहा कुछ शेष, गूढ अंतर का छिपा रहता रहस्य विशेष।
अंत का आलोक- सतत होता जा रहा हो, नयन की गति रोक।
जलधि में असहाय, घन-पटल में डूबता था किरण का समुदाय।
कर रहा छल-छंद, मधुकरी का सुरस-संचय हो चला अब बंद।
धूसर क्षितिज से दीन, भेंटता अंतिम अरूण आलोक-वैभव-हीन।
रच एक करूणा लोक, शोक भर निर्जन निलय से बिछुड़ते थे कोक।
थे लगाये ध्यान, काम के संदेश से ही भर रहे थे कान।
उपकरण अधिकार, शस्य, पशु या धान्य का होने लगा संचार।
अतिथि का संकेत- चल रहा था सरल-शासन युक्त-सुरूचि-समेत।
से कुतुहल-युक्त, मनु चमत्कृत निज नियति का खेल बंधन-मुक्त।
पशु अतिथि के साथ, हो रहा था मोह करुणा से सजीव सनाथ।
फिर सतत पशु के अंग, स्नेह से करता चमर- उदग्रीव हो वह संग।
से शरीर उछाल, भाँवरों से निज बनाता अतिथि सन्निधि जाल।
अतिथि बदन निहार, सकल संचित-स्नेह देता दृष्टि-पथ से ढार।
स्नेह शबलित चाव, मंजु ममता से मिला बन हृदय का सदभाव।
दोनों पहुँच कर पास, लगे करने सरल शोभन मधुर मुग्ध विलास।
ईर्षा-पवन से हो व्यस्त बिखरती थी और खुलते थे ज्वलन-कण जो अस्त।
एक तीखी घूँट, हिचकी आह! कौन देता है हृदय में वेदनामय डाह?
इतना सरल सुन्दर स्नेह! पल रहे मेरे दिये जो अन्न से इस गेह।
सभी निज भाग, और देते फेंक मेरा प्राप्य तुच्छ विराग।
पिच्छल-शिला-संलग्न, मलिन काई-सी करेगी कितने हृदय भग्न?
कर अधम अपराध, दस्यु मुझसे चाहते हैं सुख सदा निर्बाध।
हो विभूति महान, सभी मेरी हैं, सभी करती रहें प्रतिदान।
वाडव-वह्नि नित्य-अशांत, सिंधु लहरों सा करें शीतल मुझे सब शांत।"
क्रीड़ाशील अतिथि उदार, चपल शैशव सा मनोहर भूल का ले भार।
बैठे ही रहे धर ध्यान, देखती हैं आँख कुछ, सुनते रहे कुछ कान-
आज कैसा रंग? " नत हुआ फण दृप्त ईर्षा का, विलीन उमंग।
कमल कोमल कांत, देख कर वह रूप -सुषमा मनु हुए कुछ शांत।
तुम किधर थे अज्ञात? और यह सहचर तुम्हारा कर रहा ज्यों बात-
क्यों आज अधिक अधीर? मिल रहा तुमसे चिरंतन स्नेह सा गंभीर?
मुझे अपनी ओर ओर ललचाते स्वयं हटते उधर की ओर
ही नहीं यह आँख, तुम्हें कुछ पहचानने की खो गयी-सी साख।
तुममें छिपा छविमान? लता वीरूध दिया करते जिसमें छायादान।
सब में नृत्य का नव छंद, एक आलिगंन बुलाता सभा का सानंद।
है शांत संचित प्यार, रख रहा है उसे ढोकर दीन विश्व उधार।
ललित लतिका-लास, अरूण घन की सजल छाया में दिनांत निवास-
जैसे सहज सविलास, मदिर माधव-यामिनी का धीर-पद-विन्यास।
सूना पड़ा कोना दीन- ध्वस्त मंदिर का, बसाता जिसे कोई भी न-
अचल आवास, अरे यह सुख नींद कैसी, हो रहा हिम-हास!
स्वास्थ्य, बल, विश्राम! हदय की सौंदर्य-प्रतिमा! कौन तुम छविधाम?
जिसमें मिला हो ओज़, कौन हो तुम, इसी भूले हृदय की चिर-खोज़?
ज्यों खुली सुषमा बाँट, क्यों न वैसे ही खुला यह हृदय रुद्ध-कपाट?
और परिचय व्यर्थ, तुम कभी उद्विग्न इतने थे न इसके अर्थ।
आता बुलाने आज- सरल हँसमुख विधु जलद- लघु-खंड-वाहन साज़। |
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