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घुलने लगा आलोक, इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक।
सुधामय मुसक्यान, देख कर सब भूल जायें दुख के अनुमान।
व्योम-चुबंन-व्यस्त- लौटना अंतिम किरण का और होना अस्त।
देख आवें आज, प्रकृति का यह स्वप्न-शासन, साधना का राज़।"
आँखों में खिला अनुराग, राग-रंजित चंद्रिका थी, उड़ा सुमन-पराग।
मनु का पकड़कर हाथ, चले दोनों स्वप्न-पथ में, स्नेह-संबल साथ।
सब सुधा में स्नात, सब मनाते एक उत्सव जागरण की रात।
माधवी की गंध, पवन के घन घिरे पड़ते थे बने मधु-अंध।
छाया निशा की कांत- सो रही थी शिशिर कण की सेज़ पर विश्रांत।
भावना थी भ्रांत, जहाँ छाया सृजन करती थी कुतूहल कांत।
अतिथि! कितनी बार, किंतु इतने तो न थे तुम दबे छवि के भार!
स्पृहणीय मधुर अतीत, गूँजते जब मदिर घन में वासना के गीत।
मैं बना आज़ अचेत, वही कुछ सव्रीड, सस्मित कर रहा संकेत।
यही सुदृढ विचार' चेतना का परिधि बनता घूम चक्राकार।
है काँपती सुकुमार? पवन में है पुलक, मथंर चल रहा मधु-भार।
इतने आज क्यों हैं प्राण? छक रहा है किस सुरभी से तृप्त होकर घ्राण?
रूठने का व्यर्थ, क्यों मनाना चाहता-सा बन रहा था असमर्थ।
सा रक्त का संचार, हृदय में है काँपती धड़कन, लिये लघु भार
परिधि में सांनद, मानती-सी दिव्य-सुख कुछ गा रही है छंद।
है भरी उत्साह, और जीवित हैं, न छाले हैं न उसमें दाह।
कुहुक-सी साकार, प्राण-सत्ता के मनोहर भेद-सी सुकुमार!
में लिये निश्वास, थके पथिक समान करता व्यजन ग्लानि विनाश।"
फिर वही मृदु हास, सिंधु की हिलकोर दक्षिण का समीर-विलास!
कोई मुकुल सा अव्यक्त- लगा कहने अतिथि, मनु थे सुन रहे अनुरक्त-
क्षोभयुक्त उन्माद, सखे! तुमुल-तरंग-सा उच्छवासमय संवाद।
देखो न कैसी मौन, विमल राका मूर्ति बन कर स्तब्ध बैठा कौन?
आवरण वह नील, शिथिल है, जिस पर बिखरता प्रचुर मंगल खील,
अर्चना अश्रांत बिखरती है, तामरस सुंदर चरण के प्रांत।"
ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप, वह अनंत प्रगाढ छाया फैलती अपरूप,
स्वच्छ सतत अनंत, मिलन का संगीत होने लगा था श्रीमंत।
उत्तेजना उद्भ्रांत। धधकती ज्वाला मधुर, था वक्ष विकल अशांत।
था बाँधता आवेश, धैर्य का कुछ भी न मनु के हृदय में था लेश।
हो लगे कहने "आज, देखता हूँ दूसरा कुछ मधुरिमामय साज!
किंतु क्या यह भूल? रही विस्मृति-सिंधु में स्मृति-नाव विकल अकूल।
जो कामबाला नाम- मधुर श्रद्धा था, हमारे प्राण को विश्राम-
अरे जिसको फूल दिया करते अर्ध में मकरंद सुषमा-मूल।
फिर मिलन का मोद रहा मिलने को बचा, सूने जगत की गोद।
पार कर नीहार, प्रणय-विधु है खड़ा नभ में लिये तारक हार।
कालमाया जाल- नीलिमा से नयन की रचती तमिसा माल।
फेंकती यह दृष्टि, स्वप्न-सी है बिखर जाती हँसी की चल-सृष्टि।
साधना की स्फूर्त्ति, दृढ-सकल सुकुमारता में रम्य नारी-मूर्त्ति।
का विकल विश्रांत मैं पुरूष, शिशु सा भटकता आज तक था भ्रांत।
बालिका-सी कांत, विजयनी सी दीखती तुम माधुरी-सी शांत।
व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत, शस्य-श्यामल भूमि में होती समाप्त अशांत।
बन रहा परिणाम, पा रहा आज देकर तुम्हीं से निज़ काम।
यह समर्पण दान। विश्व-रानी! सुंदरी नारी! जगत की मान!"
पर न चढती दीन, दबी शिशिर-निशीथ में ज्यों ओस-भार नवीन।
वह सुकुमारता के भार, लद गई पाकर पुरूष का नर्ममय उपचार।
मूल मधु अनुभाव, आज जैसे हँस रहा भीतर बढ़ाता चाव।
चिंता साथ ले उल्लास, हृदय का आनंद-कूज़न लगा करने रास।
झुकी थी नासिका की नोक, भ्रूलता थी कान तक चढ़ती रही बेरोक।
ललित कर्ण कपोल, खिला पुलक कदंब सा था भरा गदगद बोल।
समर्पण आज का हे देव! बनेगा-चिर-बंध- नारी-हृदय-हेतु-सदैव।
क्या ले सकूँगी दान! वह, जिसे उपभोग करने में विकल हों प्रान?" |
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