निर्मला
अध्याय
-
4
उस दिन से निर्मला का रंग-ढंग बदलने लगा। उसने अपने को कर्त्तव्य पर मिटा
देने का निश्चय कर दिया। अब तक नैराश्य के संताप में उसने कर्त्तव्य पर
ध्यान ही न दिया था उसके हृदय में विप्लव की ज्वाला-सी दहकती रहती थी,
जिसकी असह्य वेदना ने उसे संज्ञाहीन-सा कर रखा था। अब उस वेदना का वेग शांत
होने लगा। उसे ज्ञात हुआ कि मेरे लिए जीवन का कोई आंनद नहीं। उसका स्वप्न
देखकर क्यों इस जीवन को नष्ट करुं। संसार में सब-के-सब प्राणी सुख-सेज ही
पर तो नहीं सोते। मैं भी उन्हीं अभागों में से हूं। मुझे भी विधाता ने दुख
की गठरी ढोने के लिए चुना है। वह बोझ सिर से उतर नहीं सकता। उसे फेंकना भी
चाहूं,
तो नहीं फेंक सकती। उस कठिन भार से चाहे आंखों में अंधेरा छा जाये,
चाहे गर्दन टूटने लगे,
चाहे पैर उठाना दुस्तर हो जाये,
लेकिन वह गठरी ढोनी ही पड़ेगी
?
उम्र भर का कैदी कहां तक रोयेगा?
रोये भी तो कौन देखता है?
किसे उस पर दया आती है?
रोने से काम में हर्ज होने के कारण उसे और यातनाएं ही तो सहनी पड़ती हैं।
दूसरे दिन वकील साहब कचहरी से आये तो देखा-निर्मला की सहास्य मूर्ति अपने
कमरे के द्वार पर खड़ी है। वह अनिन्द्य छवि देखकर उनकी आंखें तृप्त हा
गयीं। आज बहुत दिनों के बाद उन्हें यह कमल खिला हुआ दिखलाई दिया। कमरे में
एक बड़ा-सा आईना दीवार में लटका हुआ था। उस पर एक परदा पड़ा रहता था। आज
उसका परदा उठा हुआ था। वकील साहब ने कमरे में कदम रखा,
तो शीशे पर निगाह पड़ी। अपनी सूरत साफ-साफ दिखाई दी। उनके हृदय में चोट-सी
लग गयी। दिन भर के परिश्रम से मुख की कांति मलिन हो गयी थी,
भांति-भांति के पौष्टिक पदार्थ खाने पर भी गालों की झुर्रियां साफ दिखाई दे
रही थीं। तोंद कसी होने पर भी किसी मुंहजोर घोड़े की भांति बाहर निकली हुई
थी। आईने के ही सामने किन्तू दूसरी ओर ताकती हुई निर्मला भी खड़ी हुई थी।
दोनों सूरतों में कितना अंतर था। एक रत्न जटित विशाल भवन,
दूसरा टूटा-फूटा खंडहर। वह उस आईने की ओर न देख सके। अपनी यह हीनावस्था
उनके लिए असह्य थी। वह आईने के सामने से हट गये,
उन्हें अपनी ही सूरत से घृणा होने लगी। फिर इस रूपवती
कामिनी का उनसे घृणा करना कोई आश्चर्य की बात न थी। निर्मला की ओर ताकने का
भी उन्हें साहस न हुआ। उसकी यह अनुपम छवि उनके हृदय का शूल बन गयी।
निर्मला ने कहा-आज इतनी देर कहां लगायी?
दिन भर राह देखते-देखते आंखे फूट जाती हैं।
तोताराम ने खिड़की की ओर ताकते हुए जवाब दिया-मुकदमों के मारे दम मारने की
छुट्टी नहीं मिलती। अभी एक मुकदमा और था,
लेकिन मैं सिरदर्द का बहाना करके भाग खड़ा हुआ।
निर्मला-तो क्यों इतने मुकदमे लेते हो?
काम उतना ही करना चाहिए जितना आराम से हो सके। प्राण देकर थोड़े ही काम
किया जाता है। मत लिया करो,
बहुत मुकदमे। मुझे रुपयों का लालच नहीं। तुम आराम से रहोगे,
तो रुपये बहुत मिलेंगे।
तोताराम-भई,
आती हुई लक्ष्मी भी तो नहीं ठुकराई जाती।
निर्मला-लक्ष्मी अगर रक्त और मांस की भेंट लेकर आती है,
तो उसका न आना ही अच्छा। मैं धन की भूखी नहीं हूं।
इस वक्त मंसाराम भी स्कूल से लौटा। धूप में चलने के कारण मुख पर पसीने की
बूंदे आयी हुई थीं,
गोरे मुखड़े पर खून की लाली दौड़ रही थी,
आंखों से ज्योति-सी निकलती मालूम होती थी। द्वार पर खड़ा होकर बोला-अम्मां
जी,
लाइए,
कुछ खाने का निकालिए,
जरा खेलने जाना है।
निर्मला जाकर गिलास में पानी लाई और एक तश्तरी में कुछ मेवे रखकर मंसाराम
को दिए। मंसाराम जब खाकर चलने लगा,
तो निर्मला ने पूछा-कब तक आओगे?
मंसाराम-कह नहीं सकता,
गोरों के साथ हॉकी का मैच है। बारक यहां से बहुत दूर है।
निर्मला-भई,
जल्द आना। खाना ठण्डा हो जायेगा,
तो कहोगे मुझे भूख नहीं है।
मंसाराम ने निर्मला की ओर सरल स्नेह भाव से देखकर कहा-मुझे देर हो जाये तो
समझ लीजिएगा,
वहीं खा रहा हूं। मेरे लिए बैठने की जरुरत नहीं।
वह चला गया,
तो निर्मला बोली-पहले तो घर में आते ही न थे,
मुझसे बोलते शर्माते थे। किसी चीज की जरुरत होती,
तो बाहर से ही मंगवा भेजते। जब से मैंनें बुलाकर कहा,
तब से आने लगे हैं।
तोताराम ने कुछ चिढ़कर कहा-यह तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें मांगने
क्यों आता है?
दीदी से क्यों नही कहता?
निर्मला ने यह बात प्रशंसा पाने के लोभ से कही थी। वह यह दिखाना चाहती थी
कि मैं तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूं। यह कोई बनावटी प्रेम न था। उसे
लड़कों से सचमुच स्नेह था। उसके चरित्र में अभी तक बाल-भाव ही प्रधान था,
उसमें वही उत्सुकता,
वही चंचलता,
वही विनोदप्रियता विद्यमान थी और बालकों के साथ उसकी ये बालवृत्तियां
प्रस्फुटित होती थीं। पत्नी-सुलभ ईर्ष्या अभी तक उसके मन में उदय नहीं हुई
थी,
लेकिन पति के प्रसन्न होने के बदले नाक-भौं सिकोड़ने का आशय न समझ्कर
बोली-मैं क्या जानूं,
उनसे क्यों नहीं मांगते?
मेरे पास आते हैं,
तो दुत्कार नहीं देती। अगर ऐसा करुं,
तो यही होगा कि यह लड़कों को देखकर जलती है।
मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न दिया,
लेकिन आज उन्होंने मुवक्किलों से बातें नहीं कीं,
सीधे मंसाराम के पास गये और उसका इम्तहान लेने लगे। यह जीवन में पहला ही
अवसर था कि इन्होंने मंसाराम या किसी लड़के की शिक्षोन्नति के विषय में
इतनी दिलचस्पी दिखायी हो। उन्हें अपने काम से सिर उठाने की फुरसत ही न
मिलती थी। उन्हें इन विषयों को पढ़े हुए चालीस वर्ष के लगभग हो गये थे। तब
से उनकी ओर आंख तक न उठायी थी। वह कानूनी पुस्तकों और पत्रों के सिवा और
कुछ पड़ते ही न थे। इसका समय ही न मिलता,
पर आज उन्हीं विषयों में मंसाराम की परीक्षा लेने लगे। मंसाराम जहीन था और
इसके साथ ही मेहनती भी था। खेल में भी टीम का कैप्टन होने पर भी वह क्लास
में प्रथम रहता था। जिस पाठ को एक बार देख लेता,
पत्थर की लकीर हो जाती थी। मुंशीजी को उतावली में ऐसे मार्मिक प्रश्न तो
सूझे नहीं,
जिनके उत्तर देने में चतुर लड़के को भी कुछ सोचना पड़ता और ऊपरी प्रश्नों
को मंसाराम से चुटकियों में उड़ा दिया। कोई सिपाही अपने शत्रु पर वार खाली
जाते देखकर जैसे झल्ला-झल्लाकर और भी तेजी से वार करता है,
उसी भांति मंसाराम के जवाबों को सुन-सुनकर वकील साहब भी झल्लाते थे। वह कोई
ऐसा प्रश्न करना चाहते थे,
जिसका जवाब मंसाराम से न बन पड़े। देखना चाहते थे कि इसका कमजोर पहलू कहां
है। यह देखकर अब उन्हें संतोष न हो सकता था कि वह क्या करता है। वह यह
देखना चाहते थे कि यह क्या नहीं कर सकता। कोई अभ्यस्त परीक्षक मंसाराम की
कमजोरियों को आसानी से दिखा देता,
पर वकील साहब अपनी आधी शताब्दी की भूली हुई शिक्षा के आधार पर इतने सफल
कैसे होते?
अंत में उन्हें अपना गुस्सा उतारने के लिए कोई बहाना न मिला तो बोले-मैं
देखता हूं,
तुम सारे दिन इधर-उधर मटरगश्ती किया करते हो,
मैं तुम्हारे चरित्र को तुम्हारी बुद्धि से बढ़कर समझता हूं और तुम्हारा
यों आवारा घूमना मुझे कभी गवारा नहीं हो सकता।
मंसाराम ने निर्भीकता से कहा-मैं शाम को एक घण्टा खेलने के लिए जाने के
सिवा दिन भर कहीं नहीं जाता। आप अम्मां या बुआजी से पूछ लें। मुझे खुद इस
तरह घूमना पसंद नहीं। हां,
खेलने के लिए हेड मास्टर साहब से आग्रह करके बुलाते हैं,
तो मजबूरन जाना पड़ता है। अगर आपको मेरा खेलने जाना पसंद नहीं है,
तो कल से न जाऊंगा।
मुंशीजी ने देखा कि बातें दूसरी ही रुख पर जा रही हैं,
तो तीव्र स्वर में बोले-मुझे इस बात का इतमीनान क्योंकर हो कि खेलने के
सिवा कहीं नहीं घूमने जाते?
मैं बराबर शिकायतें सुनता हूं।
मंसाराम ने उत्तेजित होकर कहा-किन महाशय ने आपसे यह शिकायत की है,
जरा मैं भी तो सुनूं?
वकील-कोई हो,
इससे तुमसे कोई मतलब नहीं। तुम्हें इतना विश्वास होना चाहिए कि मैं झूठा
आक्षेप नहीं करता।
मंसाराम-अगर मेरे सामने कोई आकर कह दे कि मैंने इन्हें कहीं घूमते देखा है,
तो मुंह न दिखाऊं।
वकील-किसी को ऐसी क्या गरज पड़ी है कि तुम्हारी मुंह पर तुम्हारी शिकायत
करे और तुमसे बैर मोल ले?
तुम अपने दो-चार साथियों को लेकर उसके घर की खपरैल फोड़ते फिरो। मुझसे इस
किस्म की शिकायत एक आदमी ने नहीं,
कई आदमियों ने की है और कोई वजह नहीं है कि मैं अपने दोस्तों की बात
पर विश्वास न करुं। मैं चाहता हूं कि तुम स्कूल ही में रहा करो।
मंसाराम ने मुंह गिराकर कहा-मुझे वहां रहने में कोई आपत्ति नहीं है,
जब से कहिये,
चला जाऊं।
वकील- तुमने मुंह क्यों लटका लिया?
क्या वहां रहना अच्छा नहीं लगता?
ऐसा मालूम होता है,
मानों वहां जाने के भय से तुम्हारी नानी मरी जा रही है। आखिर बात क्या है,
वहां तुम्हें क्या तकलीफ होगी?
मंसाराम छात्रालय में रहने के लिए उत्सुक नहीं था,
लेकिन जब मुंशीजी ने यही बात कह दी और इसका कारण पूछा,
सो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए प्रसन्नचित्त होकर बोला-मुंह क्यों लटकाऊं?
मेरे लिए जैसे बोर्डिंग हाउस। तकलीफ भी कोई नहीं,
और हो भी तो उसे सह सकता हूं। मैं कल से चला जाऊंगा। हां अगर जगह न खाली
हुई तो मजबूरी है।
मुंशीजी वकील थे। समझ गये कि यह लौंडा कोई ऐसा बहाना ढूंढ रहा है,
जिसमें मुझे वहां जाना भी न पड़े और कोई इल्जाम भी सिर पर न आये। बोले-सब
लड़कों के लिए जगह है,
तुम्हारे ही लिये जगह न होगी?
मंसाराम- कितने ही लड़कों को जगह नहीं मिली और वे बाहर किराये के मकानों
में पड़े हुए हैं। अभी बोर्डिंग हाउस में एक लड़के का नाम कट गया था,
तो पचास अर्जियां उस जगह के लिए आयी थीं।
वकील साहब ने ज्यादा तर्क-वितर्क करना उचित नहीं समझा। मंसाराम को कल तैयार
रहने की आज्ञा देकर अपनी बग्घी तैयार करायी और सैर करने चल गये। इधर कुछ
दिनों से वह शाम को प्राय: सैर करने चले जाया करते थे। किसी अनुभवी प्राणी
ने बतलाया था कि दीर्घ जीवन के लिए इससे बढ़कर कोई मंत्र नहीं है। उनके
जाने के बाद मंसाराम आकर रुक्मिणी से बोला बुआजी,
बाबूजी ने मुझे कल से स्कूल में रहने को कहा है।
रुक्मिणी ने विस्मित होकर पूछा-क्यों?
मंसाराम-मैं क्या जानू?
कहने लगे कि तुम यहां आवारों की तरह इधर-उधर फिरा करते हो।
रुक्मिणी-तूने कहा नहीं कि मैं कहीं नहीं जाता।
मंसाराम-कहा क्यों नहीं,
मगर वह जब मानें भी।
रुक्मिणी-तुम्हारी नयी अम्मा जी की कृपा होगी और क्या?
मंसाराम-नहीं,
बुआजी,
मुझे उन पर संदेह नहीं है,
वह बेचारी भूल से कभी कुछ नहीं कहतीं। कोई चीज़ मांगने जाता हूं,
तो तुरन्त उठाकर दे देती हैं।
रुक्मिणी-तू यह त्रिया-चरित्र क्या जाने,
यह उन्हीं की लगाई हुई आग है। देख,
मैं जाकर पूछती हूं।
रुक्मिणी झल्लाई हुई निर्मला के पास जा पहुंची। उसे आड़े हाथों लेने का,
कांटों में घसीटने का,
तानों से छेदने का,
रुलाने का सुअवसर वह हाथ से न जाने देती थी। निर्मला उनका आदर करती थी,
उनसे दबती थी,
उनकी बातों का जवाब तक न देती थी। वह चाहती थी कि यह सिखावन की बातें कहें,
जहां मैं भूलूं वहां सुधारें,
सब कामों की देख-रेख करती रहें,
पर रुक्मिणी उससे तनी ही रहती थी।
निर्मला चारपाई से उठकर बोली-आइए दीदी,
बैठिए।
रुक्मिणी ने खड़े-खड़े कहा-मैं पूछती हूं क्या तुम सबको घर से निकालकर
अकेले ही रहना चाहती हो?
निर्मला ने कातर भाव से कहा-क्या हुआ दीदी जी?
मैंने तो किसी से कुछ नहीं कहा।
रुक्मिणी-मंसाराम को घर से निकाले देती हो,
तिस पर कहती हो,
मैंने तो किसी से कुछ नहीं कहा। क्या तुमसे इतना भी देखा नहीं जाता?
निर्मला-दीदी जी,
तुम्हारे चरणों को छूकर कहती हूं,
मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरी आंखे फूट जायें,
अगर उसके विषय में मुंह तक खोला हो।
रुक्मिणी-क्यों व्यर्थ कसमें खाती हो। अब तक तोताराम कभी लड़के से नहीं
बोलते थे। एक हफ्ते के लिए मंसाराम ननिहाल चला गया था,
तो इतने घबराए कि खुद जाकर लिवा लाए। अब इसी मंसाराम को घर से निकालकर
स्कूल में रखे देते हैं। अगर लड़के का बाल भी बांका हुआ,
तो तुम जानोगी। वह कभी बाहर नहीं रहा,
उसे न खाने की सुध रहती है,
न पहनने की-जहां बैठता,
वहीं सो जाता है। कहने को तो जवान हो गया,
पर स्वभाव बालकों-सा है। स्कूल में उसकी मरन हो जायेगी। वहां किसे फिक्र है
कि इसने खोया या नहीं,
कहां कपड़े उतारे,
कहां सो रहा है। जब घर में कोई पूछने वाला नहीं,
तो बाहर कौन पूछेगा मैंने तुम्हें चेता दिया,
आगे तुम जानो,
तुम्हारा काम जाने।
यह कहकर रुक्मिणी वहां से चली गयी।
वकील साहब सैर करके लौटे,
तो निर्मला न तुरंत यह विषय छेड़ दिया-मंसाराम से वह आजकल थोड़ी अंग्रेजी
पढ़ती थी। उसके चले जाने पर फिर उसके पढ़ने का हरज न होगा?
दूसरा कौन पढ़ायेगा?
वकील साहब को अब तक यह बात न मालूम थी। निर्मला ने सोचा था कि जब कुछ
अभ्यास हो जायेगा,
तो वकील साहब को एक दिन अंग्रेजी में बातें करके चकित कर दूंगी। कुछ
थोड़ा-सा ज्ञान तो उसे अपने भाइयों से ही हो गया था। अब वह नियमित रूप से
पढ़ रही थी। वकील साहब की छाती पर सांप-सा लोट गया,
त्योरियां बदलकर बोले-वे कब से पढ़ा रहा है,
तुम्हें। मुझसे तुमने कभी नही कहा।
निर्मला ने उनका यह रूप केवल एक बार देखा था,
जब उन्होने सियाराम को मारते-मारते बेदम कर दिया था। वही रूप और भी विकराल
बनकर आज उसे फिर दिखाई दिया। सहमती हुई बोली-उनके पढ़ने में तो इससे कोई
हरज नहीं होता,
मैं उसी वक्त उनसे पढ़ती हूं जब उन्हें फुरसत रहती है। पूछ लेती हूं कि
तुम्हारा हरज होता हो,
तो जाओ। बहुधा जब वह खेलने जाने लगते हैं,
तो दस मिनट के लिए रोक लेती हूं। मैं खुद चाहती हूं कि उनका नुकसान न हो।
बात कुछ न थी,
मगर वकील साहब हताश से होकर चारपाई पर गिर पड़े और माथे पर हाथ रखकर चिंता
में मग्न हो गये। उन्होंनं जितना समझा था,
बात उससे कहीं अधिक बढ़ गयी थी। उन्हें अपने ऊपर क्रोध आया कि मैंने पहले
ही क्यों न इस लौंडे को बाहर रखने का प्रबंध किया। आजकल जो यह महारानी इतनी
खुश दिखाई देती हैं,
इसका रहस्य अब समझ में आया। पहले कभी कमरा इतना सजा-सजाया न रहता था,
बनाव-चुनाव भी न करती थीं,
पर अब देखता हूं कायापलट-सी हो गयी है। जी में तो आया कि इसी वक्त चलकर
मंसाराम को निकाल दें,
लेकिन प्रौढ़ बुद्धि ने समझाया कि इस अवसर पर क्रोध की जरूरत नहीं। कहीं
इसने भांप लिया,
तो गजब ही हो जायेगा। हां,
जरा इसके मनोभावों को टटोलना चाहिए। बोले-यह तो मैं जानता हूं कि तुम्हें
दो-चार मिनट पढ़ाने से उसका हरज नहीं होता,
लेकिन आवारा लड़का है,
अपना काम न करने का उसे एक बहाना तो मिल जाता है। कल अगर फेल हो गया,
तो साफ कह देगा-मैं तो दिन भर पढ़ाता रहता था। मैं तुम्हारे लिए कोई मिस
नौकर रख दूंगा। कुछ ज्यादा खर्च न होगा। तुमने मुझसे पहले कहा ही नहीं। यह
तुम्हें भला क्या पढ़ाता होगा,
दो-चार शब्द बताकर भाग जाता होगा। इस तरह तो तुम्हें कुछ भी न आयेगा।
निर्मला ने तुरन्त इस आक्षेप का खण्डन किया-नहीं,
यह बात तो नहीं। वह मुझे दिल लगा कर पढ़ाते हैं और उनकी शैली भी कुछ ऐसी है
कि पढ़ने में मन लगता है। आप एक दिन जरा उनका समझाना देखिए। मैं तो समझती
हूं कि मिस इतने ध्यान से न पढ़ायेगी।
मुंशीजी अपनी प्रश्न-कुशलता पर मूंछों पर ताव देते हुए बोले-दिन में एक ही
बार पढ़ाता है या कई बार?
निर्मला अब भी इन प्रश्नों का आशय न समझी। बोली-पहले तो शाम ही को पढ़ा
देते थे,
अब कई दिनों से एक बार आकर लिखना भी देख लेते हैं। वह तो कहते हैं कि मैं
अपने क्लास में सबसे अच्छा हूं। अभी परीक्षा में इन्हीं को प्रथम स्थान
मिला था,
फिर आप कैसे समझते हैं कि उनका पढ़ने में जी नहीं लगता?
मैं इसलिए और भी कहती हूं कि दीदी समझेंगी,
इसी ने यह आग लगाई है। मुफ्त में मुझे ताने सुनने पड़ेंगे। अभी जरा ही देर
हुई,
धमकाकर गयी हैं।
मुंशीजी ने दिल में कहा-खूब समझता हूं। तुम कल की छोकरी होकर मुझे चराने
चलीं। दीदी का सहारा लेकर अपना मतलब पूरा करना चाहती हैं। बोले-मैं नहीं
समझता,
बोर्डिंग का नाम सुनकर क्यों लौंडे की नानी मरती है। और लड़के खुश होते हैं
कि अब अपने दोस्तों में रहेंगे,
यह उलटे रो रहा है। अभी कुछ दिन पहले तक यह दिल लगाकर पढ़ता था,
यह उसी मेहनत का नतीजा है कि अपने क्लास में सबसे अच्छा है,
लेकिन इधर कुछ दिनों से इसे सैर-सपाटे का चस्का पड़ चला है। अगर अभी से
रोकथाम न की गयी,
तो पीछे करते-धरते न बन पड़ेगा। तुम्हारे लिए मैं एक मिस रख दूंगा।
दूसरे दिन मुंशीजी प्रात:काल कपड़े-लत्ते पहनकर बाहर निकले। दीवानखाने में
कई मुवक्किल बैठे हुए थे। इनमें एक राजा साहब भी थे,
जिनसे मुंशीजी को कई हजार सालाना मेहनताना मिलता था,
मगर मुंशीजी उन्हें वहीं बैठे छोड़ दस मिनट में आने का वादा करके बग्घी पर
बैठकर स्कूल के हेडमास्टर के यहां जा पहुंचे। हेडमास्टर साहब बड़े सज्जन
पुरुष थे। वकील साहब का बहुत आदर-सत्कार किया,
पर उनके यहा एक लड़के की भी जगह खाली न थी। सभी कमरे भरे हुए थे।
इंस्पेक्टर साहब की कड़ी ताकीद थी कि मुफस्सिल के लड़कों को जगह देकर तब
शहर के लड़कों को दिया जाये। इसीलिए यदि कोई जगह खाली भी हुई,
तो भी मंसाराम को जगह न मिल सकेगी,
क्योंकि कितने ही बाहरी लड़कों के प्रार्थना-पत्र रखे हुए थे। मुंशीजी वकील
थे,
रात दिन ऐसे प्राणियों से साबिका रहता था,
जो लोभवश असंभव का भी संभव,
असाध्य को भी साध्य बना सकते हैं। समझे शायद कुछ दे-दिलाकर काम निकल जाये,
दफ्तर क्लर्क से ढंग की कुछ बातचीत करनी चाहिए,
पर उसने हंसकर कहा- मुंशीजी यह कचहरी नहीं,
स्कूल है,
हैडमास्टर साहब के कानों में इसकी भनक भी पड़ गयी,
तो जामे से बाहर हो जायेंगे और मंसाराम को खड़े-खड़े निकाल देंगे। संभव है,
अफसरों से शिकायत कर दें। बेचारे मुंशीजी अपना-सा मुंह लेकर रह गये। दस
बजते-बजते झुंझलाये हुए घर लौटे। मंसाराम उसी वक्त घर से स्कूल जाने को
निकला मुंशीजी ने कठोर नेत्रों से उसे देखा,
मानो वह उनका शत्रु हो और घर में चले गये।
इसके बाद दस-बारह दिनों तक वकील साहब का यही नियम रहा कि कभी सुबह कभी शाम,
किसी-न-किसी स्कूल के हेडमास्टर से मिलते और मंसाराम को बोर्डिंग हाउस में
दाखिल करने कल चेष्टा करते,
पर किसी स्कूल में जगह न थी। सभी जगहों से कोरा जवाब मिल गया। अब दो ही
उपाय थे-या तो मंसाराम को अलग किराये के मकान में रख दिया जाये या किसी
दूसरे स्कूल में भर्ती करा दिया जाये। ये दोनों बातें आसान थीं। मुफस्सिल
के स्कूलों में जगह अक्सर खाली रहेती थी,
लेकिन अब मुंशीजी का शंकित हृदय कुछ शांत हो गया था। उस दिन से उन्होंने
मंसाराम को कभी घर में जाते न देखा। यहां तक कि अब वह खेलने भी न जाता था।
स्कूल जाने के पहले और आने के बाद,
बराबर अपने कमरे में बैठा रहता। गर्मी के दिन थे,
खुले हुए मैदान में भी देह से पसीने की धारें निकलती थीं,
लेकिन मंसाराम अपने कमरे से बाहर न निकलता। उसका आत्माभिमान आवारापन के
आक्षेप से मुक्त होने के लिए विकल हो रहा था। वह अपने आचरण से इस कलंक को
मिटा देना चाहता था।
एक दिन मुंशीजी बैठे भोजन कर रहे थे,
कि मंसाराम भी नहाकर खाने आया,
मुंशीजी ने इधर उसे महीनों से नंगे बदन न देखा था। आज उस पर निगाह पड़ी,
तो होश उड़ गये। हड्डियों का ढांचा सामने खड़ा था। मुख पर अब भी
ब्रह्राचर्य का तेज था,
पर देह घुलकर कांटा हो गयी थी। पूछा-आजकल तुम्हारी तबीयत अच्छी नहीं है,
क्या?
इतने दुर्बल क्यों हो?
मंसाराम ने धोती ओढ़कर कहा-तबीयत तो बिल्कुल अच्छी है।
मुंशीजी-फिर इतने दुर्बल क्यों हो?
मंसाराम- दुर्बल तो नहीं हूं। मैं इससे ज्यादा मोटा कब था?
मुंशीजी-वाह,
आधी देह भी नहीं रही और कहते हो,
मैं दुर्बल नहीं हूं?
क्यों दीदी,
यह ऐसा ही था?
रुक्मिणी आंगन में खड़ी तुलसी को जल चढ़ा रही थी,
बोली-दुबला क्यों होगा,
अब तो बहुत अच्छी तरह लालन-पालन हो रहा है। मैं गंवारिन थी,
लडकों को खिलाना-पिलाना नहीं जानती थी। खोमचा खिला-खिलाकर इनकी आदत बिगाड़
देते थी। अब तो एक पढ़ी-लिखी,
गृहस्थी के कामों में चतुर औरत पान की तरह फेर रही है न। दुबला हो उसका
दुश्मन।
मुंशीजी-दीदी,
तुम बड़ा अन्याय करती हो। तुमसे किसने कहा कि लड़कों को बिगाड़ रही हो। जो
काम दूसरों के किये न हो सके,
वह तुम्हें खुद करने चाहिए। यह नहीं कि घर से कोई नाता न रखो। जो अभी खुद
लड़की है,
वह लड़कों की देख-रेख क्या करेगी?
यह तुम्हारा काम है।
रुक्मिणी-जब तक अपना समझती थी,
करती थी। जब तुमने गैर समझ लिया,
तो मुझे क्या पड़ी है कि मैं तुम्हारे गले से चिपटूं?
पूछो,
कै दिन से दूध नहीं पिया?
जाके कमरे में देख आओ,
नाश्ते के लिए जो मिठाई भेजी गयी थी,
वह पड़ी सड़ रही है। मालकिन समझती हैं,
मैंने तो खाने का सामान रख दिया,
कोई न खाये तो क्या मैं मुंह में डाल दूं?
तो भैया,
इस तरह वे लड़के पलते होंगे,
जिन्होंने कभी लाड़-प्यार का सुख नहीं देखा। तुम्हारे लड़के बराबर पान की
तरह फेरे जाते रहे हैं,
अब अनाथों की तरह रहकर सुखी नहीं रह सकते। मैं तो बात साफ कहती हूं। बुरा
मानकर ही कोई क्या कर लेगा?
उस पर सुनती हूं कि लड़के को स्कूल में रखने का प्रबंध कर रहे हो। बेचारे
को घर में आने तक की मनाही है। मेरे पास आते भी डरता है,
और फिर मेरे पास रखा ही क्या रहता है,
जो जाकर खिलाऊंगी।
इतने में मंसाराम दो फुलके खाकर उठ खड़ा हुआ। मुंशीजी ने पूछा-क्या दो ही
फुलके तो लिये थे। अभी बैठे एक मिनट से ज्यादा नहीं हुआ। तुमने खाया क्या,
दो ही फुलके तो लिये थे।
मंसाराम ने सकुचाते हुए कहा-दाल और तरकारी भी तो थी। ज्यादा खा जाता हूं,
तो गला जलने लगता है,
खट्टी डकारें आने लगतीं हैं।
मुंशीजी भोजन करके उठे तो बहुत चिंतित थे। अगर यों ही दुबला होता गया,
तो उसे कोई भंयकर रोग पकड़ लेगा। उन्हें रुक्मिणी पर इस समय बहुत क्रोध आ
रहा था। उन्हें यही जलन है कि मैं घर की मालकिन नहीं हूं। यह नहीं समझतीं
कि मुझे घर की मालकिन बनने का क्या अधिकार है?
जिसे रुपया का हिसाब तक नहीं अता,
वह घर की स्वामिनी कैसे हो सकती है?
बनीं तो थीं साल भर तक मालकिन,
एक पाई की बचत न होती थी। इस आमदनी में रूपकला दो-ढाई सौ रुपये बचा लेती
थी। इनके राज में वही आमदनी खर्च को भी पूरी न पड़ती थी। कोई बात नहीं,
लाड़-प्यार ने इन लड़कों को चौपट कर दिया। इतने बड़े-बड़े लड़कों को इसकी
क्या जरूरत कि जब कोई खिलाये तो खायें। इन्हें तो खुद अपनी फिक्र करनी
चाहिए। मुंशी जी दिनभर उसी उधेड़-बुन में पड़े रहे। दो-चार मित्रों से भी
जिक्र किया। लोगों ने कहा-उसके खेल-कूद में बाधा न डालिए,
अभी से उसे कैद न कीजिए,
खुली हवा में चरित्र के भ्रष्ट होने की उससे कम संभावना है,
जितना बन्द कमरे में। कुसंगत से जरूर बचाइए,
मगर यह नहीं कि उसे घर से निकलने ही न दीजिए। युवावस्था में एकान्तवास
चरित्र के लिए बहुत ही हानिकारक है। मुंशीजी को अब अपनी गलती मालूम हुई। घर
लौटकर मंसाराम के पास गये। वह अभी स्कूल से आया था और बिना कपड़े उतारे,
एक किताब सामने खोलकर,
सामने खिड़की की ओर ताक रहा था। उसकी दृष्टि एक भिखारिन पर लगी हुई थी,
जो अपने बालक को गोद में लिए भिक्षा मांग रही थी। बालक माता की गोद में
बैठा ऐसा प्रसन्न था,
मानो वह किसी राजसिंहासन पर बैठा हो। मंसाराम उस बालक को देखकर रो पड़ा। यह
बालक क्या मुझसे अधिक सुखी नहीं है?
इस अन्नत विश्व में ऐसी कौन-सी वस्तु है,
जिसे वह इस गोद के बदले पाकर प्रसन्न हो?
ईश्वर भी ऐसी वस्तु की सृष्टि नहीं कर सकते। ईश्वर ऐसे बालकों को जन्म ही
क्यों देते हो,
जिनके भाग्य में मातृ-वियोग का दुख भोगना बडा?
आज मुझ-सा अभागा संसार में और कौन है?
किसे मेरे खाने-पीने की,
मरने-जीने की सुध है। अगर मैं आज मर भी जाऊं,
तो किसके दिल को चोट लगेगी। पिता को अब मुझे रुलाने में मजा आता है,
वह मेरी सूरत भी नहीं देखना चाहते,
मुझे घर से निकाल देने की तैयारियां हो रही हैं। आह माता। तुम्हारा लाड़ला
बेटा आज आवारा कहां जा रहा है। वही पिताजी,
जिनके हाथ में तुमने हम तीनों भाइयों के हाथ पकड़ाये थे,
आज मुझे आवारा और बदमाश कह रहे हैं। मैं इस योग्य भी नहीं कि इस घर में रह
सकूं। यह सोचते-सोचते मंसाराम अपार वेदना से फूट-फूटकर रोने लगा।
उसी समय तोताराम कमरे में आकर खड़े हो गये। मंसाराम ने चटपट आंसू पोंछ डाले
और सिर झुकाकर खड़ा हो गया। मुंशीजी ने शायद यह पहली बार उसके कमरे में कदम
रखा था। मंसाराम का दिल धड़धड़ करने लगा कि देखें आज क्या आफत आती है।
मुंशीजी ने उसे रोते देखा,
तो एक क्षण के लिए उनका वात्सल्य घेर निद्रा से चौंक पड़ा घबराकर
बोले-क्यों,
रोते क्यों हो बेटा। किसी ने कुछ कहा है?
मंसाराम ने बड़ी मुश्किल से उमड़ते हुए आंसुओं को रोककर कहा- जी नहीं,
रोता तो नहीं हूं।
मुंशीजी-तुम्हारी अम्मां ने तो कुछ नहीं कहा?
मंसाराम-जी नहीं,
वह तो मुझसे बोलती ही नहीं।
मुंशीजी-क्या करुं बेटा,
शादी तो इसलिए की थी कि बच्चों को मां मिल जायेगी,
लेकिन वह आशा पूरी नहीं हुई,
तो क्या बिल्कुल नहीं बोलतीं?
मंसाराम-जी नहीं,
इधर महीनों से नहीं बोलीं।
मुंशीजी-विचित्र स्वभाव की औरत है,
मालूम ही नहीं होता कि क्या चाहती है?
मैं जानता कि उसका ऐसा मिजाज होगा,
तो कभी शादी न करता रोज एक-न-एक बात लेकर उठ खड़ी होती है। उसी ने मुझसे
कहा था कि यह दिन भर न जाने कहां गायब रहता है। मैं उसके दिल की बात क्या
जानता था?
समझा,
तुम कुसंगत में पड़कर शायद दिनभर घूमा करते हो। कौन ऐसा पिता है,
जिसे अपने प्यारे पुत्र को आवारा फिरते देखकर रंज न हो?
इसीलिए मैंने तुम्हें बोर्डिंग हाउस में रखने का निश्चय किया था। बस,
और कोई बात नहीं थी,
बेटा। मैं तुम्हारा खेलन-कूदना बंद नहीं करना चाहता था। तुम्हारी यह दशा
देखकर मेरे दिल के टुकड़े हुए जाते हैं। कल मुझे मालूम हुआ मैं भ्रम में
था। तुम शौक से खेलो,
सुबह-शाम मैदान में निकल जाया करो। ताजी हवा से तुम्हें लाभ होगा। जिस चीज
की जरूरत हो मुझसे कहो,
उनसे कहने की जरूरत नहीं। समझ लो कि वह घर में है ही नहीं। तुम्हारी माता
छोड़कर चली गयी तो मैं तो हूं।
बालक का सरल निष्कपट हृदय पितृ-प्रेम से पुलकित हो उठा। मालूम हुआ कि
साक्षात् भगवान् खड़े हैं। नैराश्य और क्षोभ से विकल होकर उसने मन में अपने
पिता का निष्ठुर और न जाने क्या-क्या समझ रखा। विमाता से उसे कोई गिला न
था। अब उसे ज्ञात हुआ कि मैंने अपने देवतुल्य पिता के साथ कितना अन्याय
किया है। पितृ-भक्ति की एक तरंग-सी हृदय में उठी,
और वह पिता के चरणों पर सिर रखकर रोने लगा। मुंशीजी करुणा से विह्वल हो
गये। जिस पुत्र को क्षण भर आंखों से दूर देखकर उनका हृदय व्यग्र हो उठता था,
जिसके शील,
बुद्धि और चरित्र का अपने-पराये सभी बखान करते थे,
उसी के प्रति उनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया?
वह अपने ही प्रिय पुत्र को शत्रु समझने लगे,
उसको निर्वासन देने को तैयार हो गये। निर्मला पुत्र और पिता के बी में
दीवार बनकर खड़ी थी। निर्मला को अपनी ओर खींचने के लिए पीछे हटना पड़ता था,
और पिता तथा पुत्र में अंतर बढ़ता जाता था। फलत: आज यह दशा हो गयी है कि
अपने अभिन्न पुत्र उन्हें इतना छल करना पड़ रहा है। आज बहुत सोचने के बाद
उन्हें एक एक ऐसी युक्ति सूझी है,
जिससे आशा हो रही है कि वह निर्मला को बीच से निकालकर अपने दूसरे बाजू को
अपनी तरफ खींच लेंगे। उन्होंने उस युक्ति का आरंभ भी कर दिया है,
लेकिन इसमें अभीष्ट सिद्ध होगा या नहीं,
इसे कौन जानता है।
जिस दिन से तोतोराम ने निर्मला के बहुत मिन्नत-समाजत करने पर भी मंसाराम को
बोर्डिंग हाउस में भेजने का निश्चय किया था,
उसी दिन से उसने मंसाराम से पढ़ना छोड़ दिया। यहां तक कि बोलती भी न थी।
उसे स्वामी की इस अविश्वासपूर्ण तत्परता का कुछ-कुछ आभास हो गया था।
ओफ्फोह। इतना शक्की मिजाज। ईश्वर ही इस घर की लाज रखें। इनके मन में
ऐसी-ऐसी दुर्भावनाएं भरी हुई हैं। मुझे यह इतनी गयी-गुजरी समझते हैं। ये
बातें सोच-सोचकर वह कई दिन रोती रही। तब उसने सोचना शूरू किया,
इन्हें क्या ऐसा संदेह हो रहा है?
मुझ में ऐसी कौन-सी बात है,
जो इनकी आंखों में खटकती है। बहुत सोचने पर भी उसे अपने में कोई ऐसी बात
नजर न आयी। तो क्या उसका मंसाराम से पढ़ना,
उससे हंसना-बोलना ही इनके संदेह का कारण है,
तो फिर मैं पढ़ना छोड़ दूंगी,
भूलकर भी मंसाराम से न बोलूंगी,
उसकी सूरत न दखूंगी।
लेकिन यह तपस्या उसे असाध्य जान पड़ती थी। मंसाराम से हंसने-बोलने में उसकी
विलासिनी कल्पना उत्तेजित भी होती थी और तृप्त भी। उसे बातें करते हुए उसे
अपार सुख का अनुभव होता था,
जिसे वह शब्दों में प्रकट न कर सकती थी। कुवासना की उसके मन में छाया भी न
थी। वह स्वप्न में भी मंसाराम से कलुषित प्रेम करने की बात न सोच सकती थी।
प्रत्येक प्राणी को अपने हमजोलियों के साथ,
हंसने-बोलने की जो एक नैसर्गिक तृष्णा होती है,
उसी की तृप्ति का यह एक अज्ञात साधन था। अब वह अतृप्त तृष्णा निर्मला के
हृदय में दीपक की भांति जलने लगी। रह-रहकर उसका मन किसी अज्ञात वेदना से
विकल हो जाता। खोयी हुई किसी अज्ञात वस्तु की खोज में इधर-उधर घूमती-फिरती,
जहां बैठती,
वहां बैठी ही रह जाती,
किसी काम में जी न लगता। हां,
जब मुंशीजी आ जाते,
वह अपनी सारी तृष्णाओं को नैराश्य में डुबाकर,
उनसे मुस्कराकर इधर-उधर की बातें करने लगती।
कल जब मुंशीजी भोजन करके कचहरी चले गये,
तो रुक्मिणी ने निर्मला को खुब तानों से छेदा-जानती तो थी कि यहां बच्चों
का पालन-पोषण करना पड़ेगा,
तो क्यों घरवालों से नहीं कह दिया कि वहां मेरा विवाह न करो?
वहां जाती जहां पुरुष के सिवा और कोई न होता। वही यह बनाव-चुनाव और छवि
देखकर खुश होता,
अपने भाग्य को सराहता। यहां बुड्ढा आदमी तुम्हारे रंग-रूप,
हाव-भाव पर क्या लट्टू होगा?
इसने इन्हीं बालकों की सेवा करने के लिए तुमसे विवाह किया है,
भोग-विलास के लिए नहीं वह बड़ी देर तक घाव पर नमक छिड़कती रही,
पर निर्मला ने चूं तक न की। वह अपनी सफाई तो पेश करना चाहती थी,
पर न कर सकती थी। अगर कहे कि मैं वही कर रही हूं,
जो मेरे स्वामी की इच्छा है तो घर का भण्डा फूटता है। अगर वह अपनी भूल
स्वीकार करके उसका सुधार करती है,
तो भय है कि उसका न जाने क्या परिणाम हो?
वह यों बड़ी स्पष्टवादिनी थी,
सत्य कहने में उसे संकोच या भय न होता था,
लेकिन इस नाजुक मौके पर उसे चुप्पी साधनी पड़ी। इसके सिवा दूसरा उपाय न था।
वह देखती थी मंसाराम बहुत विरक्त और उदास रहता है,
यह भी देखती थी कि वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है,
लेकिन उसकी वाणी और कर्म दोनों ही पर मोहर लगी हुई थी। चोर के घर चोरी हो
जाने से उसकी जो दशा होती है,
वही दशा इस समय निर्मला की हो रही थी।
जब कोई बात हमारी आशा के विरुद्ध होती है,
तभी दुख होता है। मंसाराम को निर्मला से कभी इस बात की आशा न थी कि वे उसकी
शिकायत करेंगी। इसलिए उसे घोर वेदना हो रही थी। वह क्यों मेरी शिकायत करती
है?
क्या चाहती है?
यही न कि वह मेरे पति की कमाई खाता है,
इसके पढ़ान-लिखाने में रुपये खर्च होते हैं,
कपड़ा पहनता है। उनकी यही इच्छा होगी कि यह घर में न रहे। मेरे न रहने से
उनके रुपये बच जायेंगे। वह मुझसे बहुत प्रसन्नचित्त रहती हैं। कभी मैंने
उनके मुंह से कटु शब्द नहीं सुने। क्या यह सब कौशल है?
हो सकता है?
चिड़िया को जाल में फंसाने के पहले शिकारी दाने बिखेरता है। आह। मैं नहीं
जानता था कि दाने के नीचे जाल है,
यह मातृ-स्नेह केवल मेरे निर्वासन की भूमिका है।
अच्छा,
मेरा यहां रहना क्यों बुरा लगता है?
जो उनका पति है,
क्या वह मेरा पिता नहीं है?
क्या पिता-पुत्र का संबंध स्त्री-पुरुष के संबंध से कुछ कम घनिष्ट है?
अगर मुझे उनके संपूर्ण आधिपत्य से ईर्ष्या नहीं होती,
वह जो चाहे करें,
मैं मुंह नहीं खोल सकता,
तो वह मुझे एक अगुंल भर भूमि भी देना नहीं चाहतीं। आप पक्के महल में रहकर
क्यों मुझे वृक्ष की छाया में बैठा नहीं देख सकतीं।
हां,
वह समझती होंगी कि वह बड़ा होकर मेरे पति की सम्पत्ति का स्वामी हो जायेगा,
इसलिए अभी से निकाल देना अच्छा है। उनको कैसे विश्वास दिलाऊं कि मेरी ओर से
यह शंका न करें। उन्हें क्योंकर बताऊं कि मंसाराम विष खाकर प्राण दे देगा,
इसके पहले कि उनका अहित कर। उसे चाहे कितनी ही कठिनाइयां सहनी पडें वह उनके
हृदय का शूल न बनेगा। यों तो पिताजी ने मुझे जन्म दिया है और अब भी मुझ पर
उनका स्नेह कम नहीं है,
लेकिन क्या मैं इतना भी नहीं जानता कि जिस दिन पिताजी ने उनसे विवाह किया,
उसी दिन उन्होंने हमें अपने हृदय से बाहर निकाल दिया?
अब हम अनाथों की भांति यहां पड़े रह सकते हैं,
इस घर पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। कदाचित् पूर्व संस्कारों के कारण यहां
अन्य अनाथों से हमारी दशा कुछ अच्छी है,
पर हैं अनाथ ही। हम उसी दिन अनाथ हुए,
जिस दिन अम्मां जी परलोक सिधारीं। जो कुछ कसर रह गयी थी,
वह इस विवाह ने पूरी कर दी। मैं तो खुद पहले इनसे विशेष संबंध न रखता था।
अगर,
उन्हीं दिनों पिताजी से मेरी शिकायत की होती,
तो शायद मुझे इतना दुख न होता। मैं तो उसे आघात के लिए तैयार बैठा था।
संसार में क्या मैं मजदूरी भी नहीं कर सकता?
लेकिन बुरे वक्त में इन्होंने चोट की। हिंसक पशु भी आदमी को गाफिल पाकर ही
चोट करते हैं। इसीलिए मेरी आवभगत होती थी,
खाना खाने के लिए उठने में जरा भी देर हो जाती थी,
तो बुलावे पर बुलावे आते थे,
जलपान के लिए प्रात: हलुआ बनाया जाता था,
बार-बार पूछा जाता था-रुपयों की जरूरत तो नहीं है?
इसीलिए वह सौ रुपयों की घड़ी मंगवाई थी।
मगर क्या इन्हें क्या दूसरी शिकायत न सूझी,
जो मुझे आवारा कहा?
आखिर उन्होंने मेरी क्या आवारगी देखी?
यह कह सकती थीं कि इसका मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता,
एक-न-एक चीज के लिए नित्य रुपये मांगता रहता है। यही एक बात उन्हें क्यों
सूझी?
शायद इसीलिए कि यही सबसे कठोर आघात है,
जो वह मुझ पर कर सकती हैं। पहली ही बार इन्होंने मुझे पर अग्नि–बाण
चला दिया,
जिससे कहीं शरण नहीं। इसीलिए न कि वह पिता की नजरों से गिर जाये?
मुझे बोर्डिंग-हाउस में रखने का तो एक बहाना था। उद्देश्य यह था कि इसे दूध
की मक्खी की तरह निकाल दिया जाये। दो-चार महीने के बाद खर्च-वर्च देना बंद
कर दिया जाये,
फिर चाहे मरे या जिये। अगर मैं जानता कि यह प्रेरणा इनकी ओर से हुई है,
तो कहीं जगह न रहने पर भी जगह निकाल लेता। नौकरों की कोठरियों में तो जगह
मिल जाती,
बरामदे में पड़े रहने के लिए बहुत जगह मिल जाती। खैर,
अब सबेरा है। जब स्नेह नहीं रहा,
तो केवल पेट भरने के लिए यहां पड़े रहना बेहयाई है,
यह अब मेरा घर नहीं। इसी घर में पैदा हुआ हूं,
यही खेला हूं,
पर यह अब मेरा नहीं। पिताजी भी मेरे पिता नहीं हैं। मैं उनका पुत्र हूं,
पर वह मेरे पिता नहीं हैं। संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं। जहां
स्नेह नहीं,
वहां कुछ नहीं। हाय,
अम्मांजी,
तुम कहां हो?
यह सोचकर मंसाराम रोने लगा। ज्यों-ज्यों मातृ स्नेह की पूर्व-स्मृतियां
जागृत होती थीं,
उसके आंसू उमड़ते आते थे। वह कई बार अम्मां-अम्मां पुकार उठा,
मानो वह खड़ी सुन रही हैं। मातृ-हीनता के दु:ख का आज उसे पहली बार अनुभव
हुआ। वह आत्माभिमानी था,
साहसी था,
पर अब तक सुख की गोद में लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने आप को
निराधार समझ रहा था।
रात के दस बज गये थे। मुंशीजी आज कहीं दावत खाने गये हुए थे। दो बार महरी
मंसाराम को भोजन करने के लिए बुलाने आ चुकी थी। मंसाराम ने पिछली बार उससे
झुंझलाकर कह दिया था-मुझे भूख नहीं है,
कुछ न खाऊंगा। बार-बार आकर सिर पर सवार हो जाती है। इसीलिए जब निर्मला ने
उसे फिर उसी काम के लिए भेजना चाहा,
तो वह न गयी।
बोली-बहूजी,
वह मेरे बुलाने से न आवेंगे।
निर्मला-आयेंगे क्यों नहीं?
जाकर कह दे खाना ठण्डा हुआ जाता है। दो चार कौर खा लें।
महरी-मैं यह सब कह के हार गयी,
नहीं आते।
निर्मला-तूने यह कहा था कि वह बैठी हुई हैं।
महरी-नहीं बहूजी,
यह तो मैंने नहीं कहा,
झूठ क्यों बोलूं।
निर्मला-अच्छा,
तो जाकर यह कह देना,
वह बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। तुम न खाओगे तो वह रसोई उठाकर सो
रहेंगी। मेरी भूंगी,
सुन,
अबकी और चली जा। (हंसकर) न आवें,
तो गोद में उठा लाना।
भूंगी नाक-भौं सिकोड़ते गयी,
पर एक ही क्षण में आकर बोली-अरे बहूजी,
वह तो रो रहे हैं। किसी ने कुछ कहा है क्या?
निर्मला इस तरह चौककर उठी और दो-तीन पग आगे चली,
मानो किसी माता ने अपने बेटे के कुएं में गिर पड़ने की खबर पायी हो,
फिर वह ठिठक गयी और भूंगी से बोली-रो रहे हैं?
तूने पूछा नहीं क्यों रो रहे हैं?
भूंगी- नहीं बहूजी,
यह तो मैंने नहीं पूछा। झूठ क्यों बोलूं?
वह रो रहे हैं। इस निस्तबध रात्रि में अकेले बैठै हुए वह रो रहे हैं। माता
की याद आयी होगी?
कैसे जाकर उन्हें समझाऊं?
हाय,
कैसे समझाऊं?
यहां तो छींकते नाक कटती है। ईश्वर,
तुम साक्षी हो अगर मैंने उन्हें भूल से भी कुछ कहा हो,
तो वह मेरे गे आये। मैं क्या करुं?
वह दिल में समझते होंगे कि इसी ने पिताजी से मेरी शिकायत की होगी। कैसे
विश्वास दिलाऊं कि मैंने कभी तुम्हारे विरुद्ध एक शब्द भी मुंह से नहीं
निकाला?
अगर मैं ऐसे देवकुमार के-से चरित्र रखने वाले युवक का बुरा चेतूं,
तो मुझसे बढ़कर राक्षसी संसार में न होगी।
निर्मला देखती थी कि मंसाराम का स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता जाता है,
वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है,
उसके मुख की निर्मल कांति दिन-दिन मलिन होती जाती है,
उसका सहास बदन संकुचित होता जाता है। इसका कारण भी उससे छिपा न था,
पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ न कह सकती थी। यह सब देख-देखकर उसका
हृदय विदीर्ण होता रहता था,
पर उसकी जबान न खुल सकती थी। वह कभी-कभी मन में झुंझलाती कि मंसाराम क्यों
जरा-सी बात पर इतना क्षोभ करता है?
क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया?
मेरी और बात है,
एक जरा-सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है,
पर उसे ऐसी बातों की इतनी क्या परवाह?
उ
सके जी में प्रबल इच्छा हुई कि चलकर उन्हें चुप कराऊं और लाकर खाना खिला
दूं। बेचारे रात-भर भूखे पड़े रहेंगे। हाय। मैं इस उपद्रव की जड़ हूं। मेरे
आने के पहले इस घर में शांति का राज्य था। पिता बालकों पर जान देता था,
बालक पिता को प्यार करते थे। मेरे आते ही सारी बाधाएं आ खड़ी हुईं। इनका
अंत क्या होगा?
भगवान् ही जाने। भगवान् मुझे मौत भी नहीं देते। बेचारा अकेले भूखों पड़ा
है। उस वक्त भी मुंह जुठा करके उठ गया था। और उसका आहार ही क्या है,
जितना वह खाता है,
उतना तो साल-दो-साल के बच्चे खा जाते हैं।
निर्मला चली। पति की इच्छा के विरुद्ध चली। जो नाते में उसका पुत्र होता था,
उसी को मनाने जाते उसका हृदय कांप रहा था। उसने पहले रुक्मिणी के कमरे की
ओर देखा,
वह भोजन करके बेखबर सो रही थीं,
फिर बाहर कमरे की ओर गयी। वहां सन्नाटा था। मुंशी अभी न आये थे। यह सब
देख-भालकर
वह मंसाराम के कमरे के सामने जा पहुंची। कमरा खुला हुआ था,
मंसाराम एक पुस्तक सामने रखे मेज पर सिर झुकाये बैठा हुआ था,
मानो शोक और चिन्ता की सजीव मूर्ति हो। निर्मला ने पुकारना चाहा पर उसके
कंठ से आवाज़ न निकली।
सहसा मंसाराम ने सिर उठाकर द्वार की ओर देखा। निर्मला को देखकर अंधेरे में
पहचान न सका। चौंककर बोला-कौन?
निर्मला ने कांपते हुए स्वर में कहा-मैं तो हूं। भोजन करने क्यों नहीं चल
रहे हो?
कितनी रात गयी।
मंसाराम ने मुंह फेरकर कहा-मुझे भूख नहीं है।
निर्मला-यह तो मैं तीन बार भूंगी से सुन चुकी हूं।
मंसाराम-तो चौथी बार मेरे मुंह से सुन लीजिए।
निर्मला-शाम को भी तो कुछ नहीं खाया था,
भूख क्यों नहीं लगी?
मंसाराम ने व्यंग्य की हंसी हंसकर कहा-बहुत भूख लगेगी,
तो आयेग कहां से?
यह कहते-कहते मंसाराम ने कमरे का द्वार बंद करना चाहा,
लेकिन निर्मला किवाड़ों को हटाकर कमरे में चली आयी और मंसाराम का हाथ पकड़
सजल नेत्रों से विनय-मधुर स्वर में बोली-मेरे कहने से चलकर थोड़ा-सा खा लो।
तुम न खाओगे,
तो मैं भी जाकर सो रहूंगी। दो ही कौर खा लेना। क्या मुझे रात-भर भूखों
मारना चाहते हो?
मंसाराम सोच में पड़ गया। अभी भोजन नहीं किया,
मेरे ही इंतजार में बैठी रहीं। यह स्नेह,
वात्सल्य और विनय की देवी हैं या ईर्ष्या और अमंगल की मायाविनी मूर्ति?
उसे अपनी माता का स्मरण हो आया। जब वह रुठ जाता था,
तो वे भी इसी तरह मनाने आ करती थीं और जब तक वह न जाता था,
वहां से न उठती थीं। वह इस विनय को अस्वीकार न कर सका। बोला-मेरे लिए आपको
इतना कष्ट हुआ,
इसका मुझे खेद है। मैं जानता कि आप मेरे इंतजार में भूखी बैठी हैं,
तो तभी खा आया होता।
निर्मला ने तिरस्कार-भाव से कहा-यह तुम कैसे समझ सकते थे कि तुम भूखे रहोगे
और मैं खाकर सो रहूंगी?
क्या विमाता का नाता होने से ही मैं ऐसी स्वार्थिनी हो जाऊंगी?
सहसा मर्दाने कमरे में मुंशीजी के खांसने की आवाज आयी। ऐसा मालूम हुआ कि वह
मंसाराम के कमरे की ओर आ रहे हैं। निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया। वह
तुरंत कमरे से निकल गयी और भीतर जाने का मौका न पाकर कठोर स्वर में
बोली-मैं लौंडी नहीं हूं कि इतनी रात तक किसी के लिए रसोई के द्वार पर बैठी
रहूं। जिसे न खाना हो,
वह पहले ही कह दिया करे।
मुंशीजी ने निर्मला को वहां खड़े देखा। यह अनर्थ। यह यहां क्या करने आ गयी?
बोले-यहां क्या कर रही हो?
निर्मला ने कर्कश स्वर में कहा-कर क्या रही हूं,
अपने भाग्य को रो रही हूं। बस,
सारी बुराइयों की जड़ मैं ही हूं। कोई इधर रुठा है,
कोई उधर मुंह फुलाये खड़ा है। किस-किस को मनाऊं और कहां तक मनाऊं।
मुंशीजी कुछ चकित होकर बोले-बात क्या है?
निर्मला-भोजन करने नहीं जाते और क्या बात है?
दस दफे महरी को भे,
आखिर आप दौड़ी आयी। इन्हें तो इतना कह देना आसान है,
मुझे भूख नहीं है,
यहां तो घर भर की लौंडी हूं,
सारी दुनिया मुंह में कालिख पोतने को तैयार। किसी को भूख न हो,
पर कहने वालों को यह कहने से कौन रोकेगा कि पिशाचिनी किसी को खाना नहीं
देती।
मुंशीजी ने मंसाराम से कहा-खाना क्यों नहीं खा लेते जी?
जानते हो क्या वक्त है?
मंसाराम स्त्म्भित-सा खड़ा था। उसके सामने एक ऐसा रहस्य हो रहा था,
जिसका मर्म वह कुछ भी न समझ सकताथा। जिन नेत्रों में एक क्षण पहले विनय के
आंसू भरे हुए थे,
उनमें अकस्मात् ईर्ष्या की ज्वाला कहां से आ गयी?
जिन अधरों से एक क्षण पहले सुधा-वृष्टि हो रही थी,
उनमें से विष प्रवाह क्यों होने लगा?
उसी अर्ध चेतना की दशा में बोला-मुझे भूख नहीं है।
मुंशीजी ने घुड़ककर कहा-क्यों भूख नहीं है?
भूख नहीं थी,
तो शाम को क्यों न कहला दिया?
तुम्हारी भूख के इंतजार में कौन सारी रात बैठा रहे?
तुममें पहले तो यह आदत न थी। रुठना कब से सीख लिया?
जाकर खा लो।
मंसाराम-जी नहीं,
मुझे जरा भी भूख नहीं है।
तोताराम-ने दांत पीसकर कहा-अच्छी बात है,
जब भूख लगे तब खाना। यह कहते हुए एवह अंदर चले गये। निर्मला भी उनके पीछे
ही चली गयी। मुंशीजी तो लेटने चले गये,
उसने जाकर रसोई उठा दी और कुल्लाकर,
पान खा मुस्कराती हुई आ पहुंची। मुंशीजी ने पूछा-खाना खा लिया न?
निर्मला-क्या करती,
किसी के लिए अन्न-जल छोड़ दूंगी?
मुंशीजी-इसे न जाने क्या हो गया है,
कुछ समझ में नहीं आता?
दिन-दिन घुलता चला जाता है,
दिन भर उसी कमरे में पड़ा रहता है।
निर्मला कुछ न बोली। वह चिंता के अपार सागर में डुबकियां खा रही थी।
मंसाराम ने मेरे भाव-परिवर्तन को देखकर दिल में क्या-क्या समझा होगा?
क्या उसके मन में यह प्रश्न उठा होगा कि पिताजी को देखते ही इसकी त्योरियं
क्यों बदल गयीं?
इसका कारण भी क्या उसकी समझ में आ गया होगा?
बेचारा खाने आ रहा था,
तब तक यह महाशय न जाने कहां से फट पड़े?
इस रहस्य को उसे कैसे समझाऊं समझाना संभव भी है?
मैं किस विपत्ति में फंस गयी?
सवेरे वह उठकर घर के काम-धंधे में लगी। सहसा नौ बजे भूंगी ने आकर कहा-मंसा
बाबू तो अपने कागज-पत्तर सब इक्के पर लाद रहे हैं।
भूंगी-मैंने पूछा तो बोले,
अब स्कूल में ही रहूंगा।
मंसाराम प्रात:काल उठकर अपने स्कूल के हेडमास्टर साहब के पास गया था और
अपने रहने का प्रबंध कर आया था। हेडमास्टर साहब ने पहले तो कहा-यहां जगह
नहीं है,
तुमसे पहले के कितने ही लड़कों के प्रार्थना-पत्र पडे हुए हैं,
लेकिन जब मंसाराम ने कहा-मुझे जगह न मिलेगी,
तो कदाचित् मेरा पढ़ना न हो सके और मैं इम्तहान में शरीक न हो सकूं,
तो हेडमास्टर साहब को हार माननी पड़ी। मंसाराम के प्रथम श्रेणी में पास
होने की आशा थी। अध्यापकों को विश्वास था कि वह उस शाला की कीर्ति को
उज्जवल करेगा। हेडमास्टर साहब ऐसे लड़कों को कैसे छोड़ सकते थे?
उन्होने अपने दफ्तर का कमरा खाली करा दिया। इसीलिए मंसाराम वहां से आते ही
अपना सामान इक्के पर लादने लगा।
मुंशीजी ने कहा-अभी ऐसी क्या जल्दी है?
दो-चार दिन में चले जाना। मैं चाहता हूं,
तुम्हारे लिए कोई अच्छा सा रसोइया ठीक कर दूं।
मंसाराम-वहां का रसोइया बहुत अच्छा भोजन पकाता है।
मुंशीजी-अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना। ऐसा न हो कि पढ़ने के पीछे
स्वास्थ्य खो बैठो।
मंसाराम-वहां नौ बजे के बाद कोई पढ़ने नहीं पाता और सबको नियम के साथ खेलना
पड़ता है।
मुंशी जी-बिस्तर क्यों छोड़ देते हो?
सोओगे किस पर?
मंसाराम-कंबल लिए जाता हूं। बिस्तर जरुरत नहीं।
मुंशी जी-कहार जब तक तुम्हारा सामान रख रहा है,
जाकर कुछ खा लो। रात भी तो कुछ नहीं खाया था।
मंसाराम-वहीं खा लूंगा। रसोइये से भोजन बनाने को कह आया हूं यहां खाने
लगूंगा तो देर होगी।
घर में जियाराम और सियाराम भी भाई के साथ जाने के जिद कर रहे थे निर्मला उन
दोनों के बहला रही थी-बेटा,
वहां छोटे नहीं रहते,
सब काम अपने ही हाथ से करना पड़ता है।
एकाएक रुक्मिणी ने आकर कहा-तुम्हारा वज्र का हृदय है,
महारान। लड़के ने रात भी कुछ नहीं खाया,
इस वक्त भी बिना खाय-पीये चला जा रहा है और तुम लड़को के लिए बातें कर रही
हो?
उसको तुम जानती नहीं हो। यह समझ लो कि वह स्कूल नहीं जा रहा है,
बनवास ले रहा है,
लौटकर फिर न आयेगा। यह उन लड़कों में नहीं है,
जो खेल में मार भूल जाते हैं। बात उसके दिल पर पत्थर की लकीर हो जाती है।
निर्मला ने कातर स्वर में कहा-क्या करुं,
दीदीजी?
वह किसी की सुनते ही नहीं। आप जरा जाकर बुला लें। आपके बुलाने से आ
जायेंगे।
रुक्मिणी- आखिर हुआ क्या,
जिस पर भागा जाता है?
घर से उसका जी कभ उचाट न होता था। उसे तो अपने घर के सिवा और कहीं अच्छा ही
न लगता था। तुम्हीं ने उसे कुछ कहा होगा,
या उसकी कुछ शिकायत की होगी। क्यों अपने लिए कांटे बो रही हो?
रानी,
घर को मिट्टी में मिलाकर चैन से न बैठने पाओगी।
निर्मला ने रोकर कहा-मैंने उन्हें कुछ कहा हो,
तो मेरी जबान कट जाये। हां,
सौतेली मां होने के कारण बदनाम तो हूं ही। आपके हाथ जोड़ती हूं जरा जाकर
उन्हें बुला लाइये।
रुक्मिणी ने तीव्र स्वर में कहा- तुम क्यों नहीं बुला लातीं?
क्या छोटी हो जाओगी?
अपना होता,
तो क्या इसी तरह बैठी रहती?
निर्मला की दशा उस पंखहीन पक्षी की तरह हो रही थी,
जो सर्प को अपनी ओर आते देख कर उड़ना चाहता है,
पर उड़ नहीं सकता,
उछलता है और गिर पड़ता है,
पंख फड़फड़ाकर रह जाता है। उसका हृदय अंदर ही अंदर तड़प रहा था,
पर बाहर न जा सकती थी।
इतने में दोनों लड़के आकर बोले-भैयाजी चले गये।
निर्मला मूर्तिवत् खड़ी रही,
मानो संज्ञाहीन हो गयी हो। चले गये?
घर में आये तक नहीं,
मुझसे मिले तक नहीं चले गये। मुझसे इतनी घृणा। मैं उनकी कोई न सही,
उनकी बुआ तो थीं। उनसे तो मिलने आना चाहिए था?
मैं यहां थी न। अंदर कैसे कदम रखते?
मैं देख लेती न। इसीलिए चले गये।
अध्याय
-5
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