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देवरानी जेठानी की कहानी
- प. गौरीदत्‍त शर्मा

( हिन्‍दी का पहला उपन्‍यास देवरानी जेठानी की कहानी (1870) है अथवा परीक्षागुरु (1882), इस पर विद्वानों में मतभेद है। जहॉं डॉ नगेन्‍द्र और डॉ निर्मला जैन सरीखे विद्वानों ने लाला श्रीनिवासदास के परीक्षागुरु को हिन्‍दी का पहला मौलिक उपन्‍यास माना है, वहीं डॉ गोपाल राय व डॉ पुष्‍पपाल सिंह आदि ने पं गौरीदत्‍त रचित देवरानी जेठानी की कहानी को हिन्‍दी का पहला उपन्‍यास होने का गौरव प्रदान किया है।
      हिन्‍दी उपन्‍यास कोश (1870
1980) के कोशकारों संतोष गोयल, उषा कस्‍तूरिया और उमेश माथुर ने भी देवरानी जेठानी की कहानी को हिन्‍दी का पहला उपन्‍यास मानते हुए अपने कोश की शुरुआत देवरानी जेठानी की कहानी के प्रकाशन वर्ष सन् 1870 ई से ही की है।
      हम हिन्‍दी समय डॉट कॉम पर लाला श्रीनिवासदास लिखित
परीक्षागुरु भी शीघ्र ही प्रस्‍तुत करेंगे, जिसका उल्‍लेख आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने अपने महत्‍वपूर्ण ग्रंथ हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास में किया है। )

भूमिका

स्त्रियों को पढ़ने-पढ़ाने के लिए जितनी पुस्‍तकें लिखी गयी हैं सब अपने-अपने ढंग और रीति से अच्‍छी हैं, परन्‍तु मैंने इस कहानी को नये रंग-ढंग से लिखा है। मुझको निश्‍चय है कि दोनों, स्‍त्री-पुरुष इसको पढ़कर अति प्रसन्‍न होंगे और बहुत लाभ उठायेंगे।

      जब मुझको यह निश्‍चय हुआ कि स्‍त्री, स्त्रियों की बोली, और पुरुष, पुरुषों की बोली पसन्‍द करते हैं जो कोई स्‍त्री पुरुषों की बोली, वा पुरुष स्त्रियों की बोली बोलता है उसको नाम धरते हैं। इस कारण मैंने पुस्‍तक में स्त्रियों ही की बोल-चाल और वही शब्‍द जहॉं जैसा आशय है, लिखे हैं और यह वह बोली है जो इस जिले के बनियों के कुटुम्‍ब में स्‍त्री-पुरुष वा लड़के-बाले बोलते-चालते हैं। संस्‍कृत के बहुत शब्‍द और पुस्‍तकों- जैसे इसलिए नहीं लिखे कि न कोई चित से पढ़ता है, और न सुनता है।

      इस पुस्‍तक में यह भी दर्शा दिया है कि इस देश के बनिये जन्‍म-मरण विवाहादि में क्‍या-क्‍या करते हैं, पढ़ी और बेपढ़ी स्त्रियों में क्‍या-क्‍या अन्‍तर है, बालकों का पालन और पोषण किस प्रकार होता है, और किस प्रकार होना चाहिए, स्त्रियों का समय किस-किस काम में व्‍यतीत होता है, और क्‍यों कर होना उचित है। बेपढ़ी स्‍त्री जब एक काम को करती है, उसमें क्‍या-क्‍या हानि होती है। पढ़ी हुई जब उसी काम को करती है उससे क्‍या-क्‍या लाभ होता है। स्त्रियों की वह बातें जो आजतक नहीं लिखी गयीं मैंने खोज कर सब लिख दी हैं और इस पुस्‍तक में ठीक-ठीक वही लिखा है जैसा आजकल बनियों के घरों में हो रहा है। बाल बराबर भी अंतर नहीं है। 

      प्रकट हो कि यह रोचक और मनोहर कहानी श्रीयुत एम.केमसन साहिब, डैरेक्‍टर आफ पब्लिक इन्‍सट्रक्‍शन बहादुर को ऐसी पसन्‍द आयी, मन को भायी और चित्‍त को लुभायी कि शुद्ध करके इसके छपने की आज्ञा दी और दो सौ पुस्‍तक मोल लीं और श्रीमन्‍महाराजाधिराज पश्चिम देशाधिकारी श्रीयुत लेफ्टिनेण्‍ट गवर्नर बहादुर के यहॉं से चिट्ठी नम्‍बर 2672 लिखी हुई 24 जून सन् 1870 के अनुसार, इस पुस्‍तक के कर्त्‍ता पंडित गौरीदत्‍त को 100 रुपये इनाम मिले।।

            दया उनकी मुझ पर अधिक वित्‍त से

            जो मेरी कहानी पढ़ें चित्‍त से।

            रही भूल मुझसे जो इसमें कहीं,

            बना अपनी पुस्‍तक में लेबें वहीं।

            दया से, कृपा से, क्षमा रीति से,

            छिपावें बुरों को भले, प्रीति से।।

            - प. गौरीदत्‍त शर्मा

 


 

देवरानी जेठानी की कहानी

भाग - 1

 

मेरठ में सर्वसुख नाम का एक अग्रवाल बनिया था। मंडी में आड़त की दूकान थी। आसपास के गॉंवों से लोग सौदा लाते। इसकी दुकान पर बेच जाते। पैसा-रुपया तुलाई का इसके हाथ भी लग जाता। और कभी भाव चढ़ा देखता तो हजार का नाज-पात लेकर दूकान में डाल देता और फ़ायदा देख उसे बेच डालता। ब्‍याज-बट्टे और गिर्वी-पाते की भी उसे बहुतेरी आमदनी थी। हाट-हवेली, धन-दौलत, दूध-पूत परमेश्‍वर का दिया उसके सबकुछ था। और यह इसने अपने ही पुरुषार्थ से किया था।

 

मॉं-बाप तो पिछले हैजे में पॉंच वर्ष का छोड़कर मर गये थे। चाचा ने पाला था। थोड़े ही दिन हुए होंगे जब तो कूकडि़यॉं बेचा करे था। चना-चबेना करता। खॉंचा सिर पै लिये गलियों में फिरा करे था।

 

फिर इसने परचून की दुकान कर ली। मुंशी टिकत नारायण और हरसहाय काबली शहर के अमीरों की इसके यहॉं उचापत उठने लगी। इसमें परमेश्‍वर ने ऐसी की सुनी कि आड़त की दूकान हो गई। जहॉं-तहॉं से माल आने लगा। बढ़ी इज्‍जत बढ़ गई। लोग पचास हज़ार रुपये का भरम करने लगे। सच्‍च है जिसे परमेश्‍वर देता है छप्‍पर फाड़ के ऐसे ही देता है।

 

बड़ा भला मानस था। अड़ौसी-पड़ौसी सब इससे राजी थे। पुन्‍न-दान में बहुत तो नहीं परंतु छठे-छमाहे कुछ-न-कुछ करता रहे था। बड़ी अवस्‍था में आप ही अपना बिवाह किया था। पहिले दो लड़कियॉं हुईं, बड़ी का नाम पार्वती छोटी का प्‍यार का नाम सुखदेई रक्‍खा। फिर ईश्‍वर ने उपरातली दो लड़के दिये। बड़े का नाम दौलत राम छोटे का नाम छोटे-छोटे पुकारने लगे। इन सब बहिन भाइयों की कोई दो-दो तीन-तीन वर्ष की छुटाई-बड़ाई होगी। बड़ी लड़की दिल्‍ली बिवाही गयी। छोटी लड़की की मंगनी बंशीधर कबाड़ी के यहॉं हापुड़ हुई।

 

एक दिन रात को अपने घर में कहने लगा कि सुखदेई की मॉं, लाला बुलाकी दास हमारी बिरादरी में जो मदर्से में नौकर है यों कहते थे कि अपने छोटे बेटे को तुम अंग्रेजी पढ़ाओ। इसमें तेरी क्‍या सलाह है और दौलत राम को तो मै अपने कार में गेरूंगा।

उसने कहा अच्‍छा तो है। सारे दिन गलियों में कूदता फिरे है। परसों किसी लौंडे के कुछ मार आया था। उसकी मॉं लड़ती हुई यहॉं आई। और मैं तुमसे कहना भूल गई। आज चौथा दिन है कि दिल्‍ला पॉंडे हमारे पुरोहित की बहू मिसरानी आई थी और कहे थी कि सुखदेई को मेरे साथ नागरी पढ़ने भेज दिया करो और भी मुहल्‍ले की पॉंच-सात लौंडियें उसके घर जाया करे हैं और वह सीना-पिरोना भी सिखलाया करे है। और वह बड़ी-बड़ी बात कहै थी कि जब सुखदेई पढ़ जायगी चिट्ठी-पत्री लिखनी आ जायगी। घर का हिसाब लिख लिया करेगी। और उसके घर कभी-कभी एक मेम आया करे है। लौंडियों को देख हरी हो जा है और उनका पढ़ना सुनकर किसी को छल्‍ला और किसी को अंगूठी दे जा है।

 

सो छोटेलाल तो मदर्से में बिठाये गये। दौलत राम लाला के साथ दूकान जाने लगे। और सुखदेई मिसरानी से नागरी पढ़ने लगी।

 

एक दिन कोई चार घड़ी दिन होगा। छोटे लाल बाहर खेल रहा था। घर में भाग गया और कहने लगा कि मॉं लाला आवे हैं।

 

यह अपने मन में डर गई और कहने लगी कि आज दिन से क्‍यों आये।

इतने में वह भी आन पहुँचे और खाट पर बैठ गये। इसने छोटे लाल को पंखा दिया और कहा लाला को हवा कर।

 

यह बोले सुखदेई की मॉं, ले बोल क्‍या करें? जहॉं दौलत राम को टेवा गया था, तनी गॉंठ करने को नाई आया है। और झल्‍लामल जो कल खुरजे से आये थे यों कहें थे कि लड़की का बाप डूँगर बिचारा गरीब बनियॉं है। सरा के नुक्‍कड़ पर परचून की दूकान खोल रक्‍खी है। पर लड़की की मॉं बड़ी लड़ाका है। तुम्‍हारे समधी के पास ही हमारा घर है और छोटेलाल की पीठ ठोक कर कहने लगा कि भाई छोटे लाल हमारा नसीबेवर है। गुड़गॉंवें के तहसीलदार ने इसका टेवा मॉंगा है। अभी तो रास्‍ते में लाला दीनदयाल, किरपी के ताऊ, गाड़ी में बैठे आवे थे। मुझे पुकार कर कहने लगे कि मैं मामाजी से मिलने गुड़गॉंवें गया था सो वह पूछें थे कि सर्बसुख आड़ती का छोटा बेटा क्‍या किया करे हैं? मैंने कहा साहब, मदर्से में अंग्रेजी पढ़े है और होशियार है। सो उन्‍होंने उसका टेवा मागा है। तुम मुझे दे देना मैं भेज दूँगा। लाला साहब, लड़की बड़ी सुघड़ है। वह अपनी लड़की को आप नागरी पढ़ाया करे हैं।

 

सुखदेई की मॉं बोली कि तुम दौलत राम की सगाई रख लो। आई हुई लक्ष्‍मी घर से कोई नहीं फेरता। और रुपया-पैसा हाथ-पैरों का मैल है। आगे लौंडिया लौंडे का भाग है।

सो नाई तनी गॉंठ करके चला गया। और उसी साल में विवाह की चिट्ठी ले के आया। इन्‍होंने कहला भेजा कि अब के वर्ष तो हमारी लड़की विवाह की ठहर गयी है। अगले वर्ष विवाह रख लेंगे।

      छोटेलाल की पत्री गुड़गॉंवे मिल ही गयी थी। लाला दीनदयाल के मारफत वहॉं से कहलावत आई कि सर्वसुख जी से कहना कि मरती जीती दुनिया है। आगे मैं सरकारी नौकर हूँ। आज यहॉं, कल जाने कहॉं को बदली हो जाय। सो लड़की का विवाह हम इसी साल में करेंगे।

इन्‍होंने यहॉं से कहला भेजा कि हमारी इज्‍जत उनके हाथ है। अभी तो दो विवाहों से निपटे हैं और इस साल में न केवल सूझता भी नहीं है। अगले साल जैसा मुन्‍शी जी कहेंगे वैसा करेंगे।

      अगले साल बिवाह की तैयारी हो गई और बड़ी धूम-धाम से लाला जी बेटे का बिवाह कर लाये। दोनों तर्फ की वाह-वाह रही। जब बहु घर आयी बगड़-पड़ौसन सब इकट्ठी हो गयी और सुखदेई की मॉं से कहने लगीं ले बहिन, बहुडि़या तो भली-सुन्‍दर है। तेरी बड़ी बहू का रंग तो सॉवला है।

      जो कोई बड़ी-बूढ़ी आती है बहु कहती पॉंव पडूँ जी। वह कहती बहुत शीली सपूती हो। बूढ़ सुहागन रह।

      जब कोई इसके बाप के घर की बात पूछती वह ऐसी मीठी बातों से जवाब देती कि सब प्रसन्‍न हो जाती। बिना बातों नहीं बोलती, चुपकी बैठी रहती। वा जब अवसर पाती अपनी पोथी ले बैठती। मुहल्‍ले और बिरादरी की बैअर-बानियों में धूम पड़ गई कि फलाने की बहु बड़ी चतुर है। कोई कहती बड़े घर की बेटी है। इसका बाप तहसीलदार है। अंग्रेजी पढ़ा हुआ है। अपनी बेटी को आप पढ़ाया है। कोई कहती जी इसके साथ जो नायन है, वह कहे थी, इसपैं सीनी-पिरोना भी आवे है और भली अच्‍छी फुलकारी भी काढ़े है।

सुखदेई का अभी गौना नहीं हुआ था। बाप ही के घर थी। ननद-भावजों का बड़ा प्‍यार हो गया। दोनों पढ़ी-पढ़ी मिल गयीं।

 

सुखदेई इतनी पढ़ी हुई न थी परन्‍तु चिट्ठी-पत्री तो अच्‍छी तरह से लिख लिया करे थी। इसने अपनी सब पढ़ी हुई भनेलियों को बुलाया और उनका लिखना-पढ़ना अपनी भावज को दिखलाया।

जब दौलतराम बिवाह के लाये थे तो पट्टा फेर करते लाये थे। इसका कारण यह था कि लड़की के बाप घर में पहिले ही कुछ नहीं था। विवाह ही में उघड़ गया। गौना क्‍या करेगा? सो तबसे दौलत राम की बहु ज्ञानो ससुराल ही में थी। जब कोई बैअर-बानी बाहर की आती, न तो बैठने को पीढ़ा देती और न उसकी बात पूछती। और जो कुछ कहती भी, तो ऐसी बोलती जैसे कोई लड़े है। सास से तो रात दिन खटपट रक्‍खे थी और जब कोई देवरानी को इसके सामने सराहती तो कहती हॉं जी, वह तो अमीर की बेटी है। मैं तो गरीब बनिये की बेटी हूँ। मुँह से कुछ नहीं कहती पर देवरानी को देख-देख फुँकी जाती। और जभी से छोटी ननद से भी जलने लगी। बड़ी ननद पारबती से बड़ा प्‍यार था। (और वह विवाह में बुलाई हुई आयी थी) और प्‍यार होने का कारण यह था कि वह भी लगावा-बझावा थी। उधर की इधर और इधर की उधर।

 

अब बहु को आये आठ-दस दिन हुए होंगे कि उसका भाई रामप्रसाद मझोली लेके विदा कराने को आया। लाल सर्वसुख जी ने भी जैसे बनियों में रस्‍म होती है, दे-ले कर बहु को बिदा कर दिया और बहु के भाई से चलते-चलते यह कह दिया कि भाई, पहुँचते ही राजी-खुशी की चिट्ठी लिख भेजना।

      जब सुखदेई के विवाह को तीन वर्ष हो चुके, हापुड़ से गौने की चिट्ठी आयी। लाला ने घर में आके सलाह की। सुखदेई की मॉं ने कहा मैं तो पॉंचवें वर्ष करूँगी। लाला ने समझा दिया कि जिस काम से निबटे, उससे निबटे। यह काम भी तो करना ही है और यह भी कहा है कि धी-बेटी अपने घर ही रहना अच्‍छा है। अर्थात् सुखदेई भी अपने घर गई और वहॉं अपने कुनबे की लौंडियों को नागरी पढ़ाने लगी।

 

लाला सर्वसुख का माल रेल पै लदने जाया करे था। वहॉं के बाबू से इसकी जान पहिचान हो गई थी।

      एक दिन कहने लगा कि बाबू जी हमारा छोटा लड़का मदर्से में अंग्रेजी पढ़ने जाया करे है। वह कहे था जो तुम कहो तो तुम्‍हारे पास काम सीखने आ जाया करे। बाबू ने कहा कल तुम उसे हमारे पास दफ्तर में भेजना। छोटे लाल अगले दिन वहॉं गया। बाबू को अपना लिखना दिखलाया। उसकी पसंद आया। इससे कहा तुम रोज-रोज आया करो। यह जाने लगा। थोड़े दिन पीछे उसी दफ्तर में पंदरह रुपये महीने का नौकर भी हो गया।

इसे नौकर हुए कोई एक वर्ष बीता होगा कि बाबू की बदली अम्‍बाले की हो गयी। यह बाबू का काम किया ही करे था। और साहब भी रोज देखा करे था। बाबू की जगह इसे कर दिया, और यह कह दिया कि अब तो तुमको चालीस रुपये महीना मिलेगा फिर काम देख के साठ रुपये महीना कर देंगे।

      जब छोटे लाल पंदरह ही रुपये का नौकर था कि इसके लाला गौना कर लाये थे और अब गौनयायी अपने घर ही थी। छोटे लाल इस बात से अपने मन में बड़ा मगन था कि मेरी बहु पढ़ी हुई है और बड़ी चतुर है।

      इधर इसकी घरवाली इससे खूब राजी थी। और यह बात परमेश्‍वर की दया से होती है कि दोनों स्‍त्री-पुरुष के चित्‍त इस तरह से मिल जायें। यह कुछ अचंभे की बात भी नहीं है। दिल तो वहॉं नहीं मिलता जहॉं मर्द पढ़ा हो, और स्‍त्री बेपढ़ी। जब यह दोनों मिलते, एक-दूसरे को देख बड़े प्रसन्‍न होते। इधर वह उसके मन की बात पूछती और अपनी कहती। इधर उसकू इस बात का बड़ा ही ध्‍यान रहता कि कोई बात ऐसी न हो कि जिससे इसका मन दुखे। उसकी बेसलाह कोई काम न करता। उसके लिए एक नागरी का अखबार लिया। रात को उर्दू और अंग्रेजी अखबारों की खबरें उसे सुनाता और जब आप थक जाता उससे कहता लो अब तुम हमें अपने अखबार की खबरें सुनाओ। इस बात से इसको बड़ा ही आनन्‍द होता।

      उनका घर तो ऐसा ही था जैसा और बनियों का हुआ करता है। पर इसने अपना चौबारा सोने और उठने-बैठने को सजा रक्‍खा था। चादर लग रही थी। कलई की जगह नीला रंग फिरवा रक्‍खा था। बोरियों के फर्श पर दरी बिछा रक्‍खी थी। तसबीर और फानूस भी लग रहे थे। दो कुर्सी बड़ी और दो कुर्सी छोटी जिनको आरामकुर्सी कहते हैं, एक तर्फ पड़ी हुई थीं। किताबों की एक आलमारी मेज के पास लगी हुई थी। दो पलंगों पर रेशम की डोरियों से चिही चादर खिंची हुई थी। अपना सादा कमरा अच्‍छा बना रक्‍खा था।

      जो कोई बाहर की लुगाई आती, छोटेलाल की बहु अपना चौबारा दिखाने ले जाती। एक दिन अपनी जेठानी से बोली कि आओ जी, तुम भी आओ। उसने कहा अब ले मैं ना आती। और लुगाइयों ने कहा निगोड़ी अपने देवर का चौबारा देख ले ना। शर्मा-शर्मी उठी चली गयी। और चौबारे को देख अक्‍क-धक्‍क रह गयी।

      इसकी अटारी में दो पुरानी-धुरानी खाट पड़ी हुई थीं। पिंडोल का पोता और गोबर का चौका भी न था। एक कोने में उपलों का ढेर। दूसरे में कुछ चीथड़े। और एक तर्फ नाज के मटके लग रहे थे।

      इसका कारण यह था कि बिचारा दौलत राम तो निरा बनियॉं ही था। पढ़ा-लिखा कुछ था ही नहीं। आगे उसकी बहु गॉंव की बेटी थी और उसने देखा ही क्‍या था? छोटेलाल की बहु की सी सुथराई और सफाई और कहॉं? आटा पीसना और गोबर पाथना इसकू खूब आवे था। वाये दिन भर लड़ा लो।

 

छोटेलाल की बहु सारे दिन कुछ न कुछ करती रहे थी। सबेरे उठते ही बुहारी देती। चौका-बासन करके दूध बिलोती। फिर न्‍हा-धोके दो घड़ी भगवान का नाम लेती। रोटी चढ़ाती। जब लाला छोटेलाल रोटी खा के दफ्तर चले जाते, थोड़ी देर पीछे दौलतराम और उसका बाप दूकान से रोटी खाने को आते। जब वह खा लेता और सास-जिठानी भी खा चुकतीं तब सबसे पीछे आप रोटी खाती।

      और जिस दिन दौलत राम की बहु रोटी करती, दाल में पानी बहुत डाल देती। और कभी नून जियादह कर देती और कभी डालना भूल जाती। गॉंव के सी मोटी-मोटी रोटियें करती। किसी को बहुत सेक देती और कोई कच्‍ची रह जाती। इसलिये बेचारी देवरानी को दोनों वक्‍त चूला फूँकना पड़े था।

      रात को पूरी-परॉंवठा और तरकारी कर लिया करे थी। दो पहर को रोटी खाने से पीछे घण्‍टा डेढ़ घण्‍टा आराम करती। फिर सीना-पिरोना, मोजे बुनना, फुलकारी काढ़ना, टोपियों पै कलाबत्‍तू की बेल लगाना आदि में जिस काम को जी चाहता, ले बैठती।

 

इस समय मुहल्‍ले और बिरादरी की लौडियें दो घड़ी को इसके पास आ बैठा करे थीं। किसी को मोजे बुनना बतलाती, और किसी को लिखना-पढ़ना सिखलाती और आप भी अपना काम किये जाती।

      जब कभी इस काम से मन उछटता तो अपनी पोथी में से सहेलियों और भनेलियों को कहानियॉं सुना-सुना कर कभी रुलाती और कभी हँसाती। और जब कभी ज्ञान-चर्चा छेड़ देती तो भगवत गीता के श्‍लोक पढ़-पढ़ कर ऐसे सुन्‍दर अर्थ करती कि सुनकर सब मोहित और चकित हो जातीं और जिस दिन एकादशी, जन्‍माष्‍टमी, रामनौमी वा और कोई तिथि-पर्वी होती और सीना पिरोना न होता तो उस दिन तुलसीदास और सूरदास के भजन गाती और विष्‍णुपद सुनाती कि सब प्रसन्‍न हो जातीं।

      रात को जब सब व्‍यालू कर चुकते यह अपने चौबारे में चली जाती और रात को दस बजे तक जहॉं-तहॉं की बातचीत करके हँसती और बोलती रहती।

      सुखदेई के भानजे का बिवाह यहॉं मारवाड़े में हुआ था। हापुड़ से अपनी बहु को लेने आया। अगले दिन लाला सर्वसुख से दूकान पर मिलने गया। राजी खुशी कह के बोला कि मामी ने अपनी भावज को यह चिट्ठी दी है, घर पहुँचा देना।

      लाला ने नौकर के हाथ घर चिट्ठी भेज दी। छोटेलाल की बहु ने पहले आप पढ़ी फिर सास को पढ़कर इस तरह सुना दी-

 

स्‍वस्ति श्री सर्वोपमायोग्‍य बहु आनंदीजी यहॉं से सुखदेई की राम राम बॉंचना। यहॉं क्षेम-कुशल है। तुम्‍हारी क्षेम-कुशल सदा भली चाहिए। बहुत दिन हुए कि तुम्‍हारी एक चिट्ठी आई थी। मैंने तो उसका जवाब लिख दिया था। फिर तुमने कोई चिट्ठी नहीं लिखी। यद्यपि वहॉं के आने-जाने वालों से राजी-खुशी की खबर मिलती रही तथापि चिट्ठी के आने से आधा मिलाप है। अब तो मुझे आये बहुत दिन हुए। तुम से मिलने को जी चाहे है। सो मॉं से कहना कि मुझे दो-चार महीने को बुला ले। यहॉं से मेरा जी उछट रहा है। लालाजी से मॉं पूछ देगी जो मेरी नथ बन गयी हो तो ज्ञानचंद मेरे भानजे के हाथ भेज देना और भाई की भोज प्रबंध की पोथी जो तुम्‍हारे पास है थोड़े दिन के लिए भेज देना। जब मैं आऊँगी लेती आऊँगी। अब तो यहॉं भी एक लौंडियों का मदर्सा हो गया है। हमारी मिसरानी से हमारी पालागन कह देना और सब सहेलियों और भनेलियों से राम-राम कहना। चिट्ठी का जवाब जरूर-जरूर लिख भेजना। थोड़े लिखे को बहुत जानना। चिट्ठी लिखी मिती मार्गसिर बदी 1 सम्‍बत् 1925

      सुखदेई की मॉं ने चिट्ठी सुनके कहा कि कल पॉंच सेर आटे के लड्डू कर लीजो। लौंडिया को कोथली भेजनी है और जो मैं कहूँ चिट्ठी में लिख दीजो सो सुखदेई को यह चिट्ठी लिखी गयी-

      स्‍वस्ति श्री सर्वोपमायोग्‍य बीबी सुखदेई जी यहॉं से आनन्‍दी की राम-राम बॉंचना। चिट्ठी तुम्‍हारी आई। समाचार लिखे सो जाने। तुम्‍हारी मॉं जी ने लालाजी से तुम्‍हारे बुलाने वास्‍ते कहा था। सो उन्‍होंने कहा है कि माघ के महीने में हम बाग की प्रतिष्‍ठा करेंगे। तब लौंडिया सुखदेई को भी बुलावेंगे और मेरे सामने जेठ जी से कह दिया है कि भाई तु ही लौंडिया को जाके ले अइयो। और वह बाग लाला जी ने दिल्‍ली के रास्‍ते में लगाया है। उसमें कुऑं तो बन गया है, शिवाला बन रहा है। जिस सुनार को तुम्‍हारी नथ बनने को दी थी, वह सोना लेके भाग गया। लाला जी कहें थे, दूसरे सुनार से और बनवा करके भेज देंगे। तुम्‍हारी भनेली रामदेई मेरे पास रोज-रोज फुलकारी सीखने आया करे थी। बेचारी बड़ी गरीब थी। तुम्‍हें नित याद कर ले थी। जिठानी जी के स्‍वभाव को तुम जानो ही हो, एक दिन बेबास्‍ते उससे लड़ पड़ी। तीन दिन से वह नहीं आई। दो घड़ी जी बहला रहे था सो यह भी न देख सकीं। फुलकारी का ओन्‍ना जो मैं तुम्‍हारे लिए अपने पीहर से लायी थी, भोज प्रबन्‍ध की पोथी, पॉंच सेर लड्डू और आठ आने नकद तुम्‍हारे भानजे के हाथ तुम्‍हें भेजे हैं। रसीद भेज देना। तुम्‍हारी मॉं ने तुम्‍हें राम-राम कही है। मेरी राम-राम अपनी सासू और भनेलियों से कह देना। चिट्ठी लिखी मिति मार्गसिर सुदि 2 सम्‍वत 1925

      यह चिट्ठी और चिट्ठी में लिखी हुई चीजें सुखदेई के भानजे के हाथ भेजी गयीं और जबानी भी कहलावत गई कि लाला बंसीधर से कह देना कि माघ के महीने में लौंडिया को लेने बहल आवेगी। ऐसा न हो कि उलटी फिरी आवे। एक चिट्ठी लिख भेजें।

      यहॉं दौलत राम की बहु बड़ी भोर उठके गौ की धार काढ़ती। गोबर पाथती। न्‍हाती न धोती। चर्खा लेकर बैठ जाती और कभी-कभी दाल दलती नाज फटकती आटा छानती। दस-दस और बीस-बीस मन नाज दूकान से इखट्ठा आ जाय था। उसे अकेली बोरियों और कट्टों में भर देती। काम तो बहुतेरा करे थी। पर वैर-विषवाद बहुत रक्‍खे थी।   

 

और यह सास ने दोनों देवरानी जेठानियों को जैसा जिस जोग देखा काम बॉंट दिया था। पीसना-खोटना, चर्खापूनी ऐसी मेहनत के काम देवरानी से नहीं हो सके थे, इसलिये कि उसने बाप के घर किये नहीं थे। परंतु वह उससे दसगुने अच्‍छे काम कलाबत्‍तू और गोटा-किनारी के जाने थी। पीसने-खोटने में क्‍या रक्‍खा है। घड़ी भर पीसा, दो पैसा का हुआ। वह आठ आने रोज का कढ़ावट का काम कर ले थी।

 

जेठानी रोटी खा के फिर चर्खा ले बैठती। इस जैसी इसकी भी दो एक भनेलियॉं थीं। सो कोई न कोई इसके पास आ बैठी करे थी। यह उससे देवरानी का ही झींकना झींकती। सासू का खोट बतलाती कि मेरी सास बड़ी दोजगन है। छोटी बहु को जो कोई आधी बात कहे है तो लड़ने को उठे है। ससुर जी से मेरी रात दिन कटनी करे है। यों कहे है यह तो कच्‍ची रोटी करे है। बहिन जिस पै जैसी आती होगी वैसी करेगी। और यह मेरी देवरानी बड़ी खोट और चुपचोट्टी है। मेरा देवर सत्‍तर चीजें लावे है। दोनों खसम-जोरू खावे हैं। किसी को एक चीज़ नहीं दिखलाते। छडियों के मेले के दिन जरा सा मूँग का दाना मेरे बास्‍ते लेके आई थी, सो मैंने तो फेर दिया। हमें तो जैसा मिल गया खा लिया। मेरी देवरानी छटॉंक भर पक्‍का घी दाल में डाल के खावे है। इस प्रकार से नित चुगली करती और अपनी देवरानी को सुना-सुना चर्खा कातती जाती, ताने-मेहने और बोली-ठोली मारती जाती कि ले पीसे कोई और खावे कोई। कोई ऐसी लुगाई भी होती होगी और पीसना नहीं जानती होगी? यों कहो मेहनत नहीं होती।

      देवरानी चुपकी सुना करती। कभी कुछ न कहती। एक दिन उसने इतना कहा था कि जेठानी जी, तुम्‍हारा कैसा स्‍वभाव है बाहर की लुगाइयों के सामने तो बोली-ठाली की बात मत कहा करो। इसमें घर की बदनामी है।

      उसके पीछे ऐसी पॉंच पत्‍थर लेकर पड़ी कि उसे पीछा छुड़ाना दुर्लभ हो गया।

और बोली अब चल तो तेरी जेठानी है उससे कह। छोटा मुँह और बड़ी बातें। आप मेरी बड़ी बनके बैठी है और जो कुछ मुँह में आया कहती रहीं।

वह बेचारी चुपकी होके चली आई।

सास ने कहा अरी तू उससे क्‍यों बोली थी?

उसने कहा अयजी, मैंने तो उसके भले की बात कही थी।

सास ने कहा मैं क्‍या कहूँ? हमारी वह कहावत है कि अपना मरण जगत की हांसी।

दौलत राम की बहु जहॉं तक होता अपने मालिक से रात को नित्‍यप्रति सास और देवरानी की बुराई करती। तुम जानो, आदमी ही तो है और बेपढ़ा। रोज-रोज के सिखलाने और बहकाने से दौलतराम भी अपनी बहु की हिमायत करने लगा और मॉं से लड़ने लगा।

जब उसकी मॉं ने यह हाल देखा तो एक दिन उसके बाप से कहा और यह सलाह दी कि दौलत राम को जुदा कर दो। और मैं तो छोटी बहु में रहूँगी। तुम्‍हारी तुम जानो।

 

ऊँच-नीच सोच के बड़ी देर में यह जवाब दिया कि अच्‍छा तो मैं बड़ी बहु में रोटी खा लिया करूंगा। अपना सिर पकड़ कर बैठ गया और कहने लगा कि बिरादरी के लोग हॅसेंगे और ठट्ठे मारेंगे कि फलाने के घर लुगाइयों में लड़ाई हुई थी तो उसने अपने बड़े बेटे को जुदा कर दिया। देखो यह कैसी बहु आई इसने हमारी बात में बट्टा लगाया और घर तीन तेरह कर दिया।

 

घरवाली बोली अजी जब अपना ही पैसा खोटा हो परखन वाले को क्‍या दोष है? जग तो आरसी है जैसा लोग देखेंगे वैसा कहेंगे।

 

सामने का दालान दौलत राम को दे दिया और सब तरह से जुदा-जोखा कर दिया। जो कोई चीज दुकान से आती दोनों घर आधी-आधी बट जाती।

 

जब यह खबर गुड़गॉंवें पहुँची कि लाला सर्वसुख के यहॉं औरतों में लड़ाई रहे थी सो उन्‍होंने अपने बेटों को जुदा कर दिया है। सो तहसीलदार साहब ने अपनी बेटी को यह चिट्ठी लिखी-

स्‍वस्ति श्री सर्वोपमायोग्‍य बीबी आनन्‍दी जी यहॉं से राम प्रसाद आदि समस्‍त बाल गोपाल की राम-राम बंचना। यहॉं क्षेम-कुशल है तुम्‍हारी क्षेम-कुशल चाहते हैं। तुम्‍हारी मॉं तुमको बहुत याद करे है। सो मैं तुमको बहुत जल्‍दी ही बुलाऊँगा। तुम्‍हारे छोटे भाई गंगाराम को मदर्से में बिठा दिया है और बड़े भाई राम प्रसाद को तुम्‍हारे ताऊ के पास आगरे इस कारण भेज दिया है कि वहॉं कालिज में पढ़कर वकालत का इम्‍तहान दे। तुम्‍हारी छोटी बहिन भगवान देई एक महिने से मॉंदी है और जब ही से उसका लिखना-पढ़ना छूटा हुआ है। और तुम तो आप बुद्धिमान हो परन्‍तु तौ भी जो पिता का धर्म है, दो चार बात लिखना आवश्‍यक है। बेटी, जो मैं तुमसे उसी दिन प्रसन्‍न हूँगा जब मैं यह सुनूँगा कि तुम्‍हारी ससुराल वाले तुमसे प्रसन्‍न हैं। तुम्‍हारा लिखना-पढ़ना उसी दिन काम आवेगा जब तुम अपनी सास की आज्ञा में रहोगी। सास को माता के तुल्‍य जानना। ननद और जेठानी को अपनी बहिनों से अधिक मानना। और यह मैं जानता हूँ कि सब लड़कियों को ससुराल में जाकर प्रथम कठिनता मालूम हुआ करती है और इसका कारण यह है कि बाप के घर तो कुछ और ही चाल-चलन होता है और ससुराल में जाकर नये-नये तौर देखती है। जी घबराया करता है। परन्‍तु जो ज्ञानवान लड़कियें हैं घबराती नहीं सब काम किये जाती हैं। यह भी जानना उचित है कि मॉं-बाप का घर तो थोड़े ही दिन के लिए है। सारी अवस्‍था ससुराल में ही काटनी है। अपने धर्म-कर्म पर चलना ईश्‍वर को याद रखना। आए-गए का आदर सम्‍मान करना, सबसे मीठा बोलना, संतोष से अपने कुटुम्‍ब में गुजरान करना, आपको तुछ जानना, यह अच्‍छे कुल की बेटियों के धर्म हैं। ज्ञान चालीसी की पोथी में तुमने पढ़ा है कि अच्‍छों से सबको लाभ होता है। मेरा इस कहने से प्रयोजन यह है कि जो कोई स्‍त्री तुम्‍हारे कुटुम्‍ब की तुमको सीने-पिरोने का काम दे, जो अवसर मिले तो उसे कर देना उचित है। देखो विद्यादान का शास्‍त्र में कैसा महात्‍मा लिखा है। अर्थात जो बातें तुमको आती हैं, औरों को भी सिखलाना चाहिए। चिट्ठी लिखी मिति पौष शुदि 6 संबत् 1925

यह चिट्ठी छोटेलाल के खत में बंद होकर आई और उसने अपने घर में दे दी।

दौलत राम के जुदे होने से छह महीने पीछे एक लड़की हुई। इधर उसी दिन हापुड़ से चिट्ठी आई कि लाला सर्वसुख जी, अनन्‍त चौदस के दिन चार घड़ी दिन चढ़े तुम्‍हारे धेवती हुई है।

(उस समय लाला दुकान पर थे) चिट्ठी को पढ़ के लाला ने दौलत राम से कहा कि ले भाई लौंडियों ने घर घेर लिया। यह चिट्ठी अपनी मॉं को सुनाई आ।

दौलत रात की लड़की की छटी तो हो चुकी ही थी। दसूठन के दिन लाला भी घर ही थे और सारे कुटुम्‍ब ने उस दिन दौलत राम ही के घर खाया था।

दोपहर को दुकान से एक पल्‍लेदार चिट्ठी ले के आया और बोला कि लालाजी यह चिट्ठी तुम्‍हारे नाम दिल्‍ली से आई है। मुनीम जी ने खोली नहीं तुम्‍हारे पास भेज दी है और एक आना महसूल का दिया है।

लाला ने चिट्ठी पढ़ के कहा कि पार्बती की बड़ी लौंडिया का वसन्‍त पंचमी का बिवाह है। पंदरह दिन पहिले वह भात नौतने आवेगी सो अब भात का फिकर भी करना चाहिए।

घरवाली बोली कि सुखदेई को छूछक भेजना है। फिर ऐसी ही दो चार गृहस्‍त की बातें करके कहा कि छोटेलाल के घर में भी लड़की-बाला होने वाला है। बहु के बाप को एक खत गिरवा देना कि वह साध भेज दे।

धौन भर पक्‍के लड्डू, पॉंच तीयल बागे, पॉंच गहने, कुछ मूँग और चावल, एक रुपया नगद छूछक के नाम से नाई के हाथ हापुड़ भेज दिया।

जब पार्वती भात नौतने आयी तो अपनी देवरानी को साथ लायी। गुड़ की भेली देके बोली कि बिवाह में सबको आना होगा। लाला जी ने कहा बीबी, छोटेलाल की तो छुट्टी नही है। दौलतराम भात ले के आवेगा।

और बिवाह से एक दिन पहिले नाई ब्राह्मण को साथ ले दौलत राम भात ले के दिल्‍ली में जा पहुँचा।

उस दिन सारी बिरादरी में बुलावा फिर गया कि आज भात लिया जायगा। 51 रुपये नगद, नथ, बिछुआ, छन, पछेली, सोने मूँगे की माला, पायजेब, सोने की हैकल, सोने का बाजू पचलड़ा और नौ नगे, पार्बती के सारे कुटुम्‍ब को कपड़े 21 तीयल भरी-भरी, ग्‍यारह बरतन, एक दोशाला और एक रुमाल आदि सबको दिखलाके पार्वती के ससुर के हवाले किये। और जब भात ले के डौढ़ी पर पहुँचे थे पार्वती दस-बीस तो स्त्रियों को साथ लिये गीत गाती हुई भाई का आर्ता करने आई थी।

वहॉं दौलत राम को जो कोई पूछता यह कौन साहब हैं वह कह देते कि यह भाती हैं।

इन दिनों छोटेलाल की बहु गर्म चीज न खाती। बहुत करके कोठे पै न जाती और न बोझ उठाती। जब किसी चीज को खाने को जी चाहता तो अपनी सास वा और किसी बड़ी-बढ़ी से पूछ के मँगा लेती। ऐसी-वैसी चीज न खाती। खट्टी चीज को बहुत जी चाहा करे था सो कभी-कभी नीबू का आचार वा कैरी खा ले थी।

जेठ शुदि 3 जुमेरात के दिन छोटेलाल के घर लड़के का जन्‍म हुआ। बड़ी खुशी हुई नक्‍कारखाना रखा गया। जन्‍म पत्री लिखी गई बिरादरी बालों को एक-एक पान का बीड़ा दिया।

वह उठ खड़े हुए और बोले, लाला सर्वसुखजी मुबारिक।

उन्‍होंने उत्‍तर दिया कि साहब आपको भी मुबारिक।

बाहर जो नाई ब्राह्मण घिर गये थे उन सबको पैसा-पैसा बॉंट दिया। दाई को एक रुपया दिया, वह पॉंच रुपये मॉंगती रही।

जच्‍चा के खाने को गूँद की पँजीरी हुई। अब जो भाई बिरादरी और नाते-रिश्‍ते में से औरतें आतीं लौंडे की दादी का मुबा‍रिक वा बधाई कहके बैठ जातीं।

वह कहती जी, भगवान ने दिया तो है, अब इस्‍की उमर लगावे और लहना सहना हो।

नातेदारों और प्‍यार-मुलाहजे वालों के यहॉं से कुर्त्‍ता, टोपी, हँसली, कडूले आने लगे। धी-ध्‍यानों के यहॉं से जो आये थे उनमें से किसी को फेर दिया और किसी का रख लिया और दो-दो चार-चार रुपये जैसा नाता देखा उन पर रख दिये।

तहसीलदार के यहॉं से भी छूछक अच्‍छा आया। सारी बिरादरी में वहा-वाह हो गई।

जिनके स्‍वभाव खोटे पड़ जा हैं फिर सुधरने कठिन पड़ जा हैं। यह कुछ तो खुशी हुई पर जेठानी एक दिन को भी आ के न खड़ी हुई। छठी और दसूठन के दिन चर्खा ले के बैठी और जिस दिन देवरानी चालीस दिन का न्‍हान न्‍हा के उठी तो उस बिरियॉं नाक में बत्‍ती दे के छींका और सास और देवरानी को सुना-सुना यह कहती कि जिनके नसीब खोटे हैं उनके बेटी हो हैं और जिनके नसीब अच्‍छे हैं उनके बेटे हो हैं।

एक दिन सास तो लड़ने को उठी भी पर बहु ने समझा लिया कि जो किसी के कहने सुनने से क्‍या हो है? हमारा भगवान भला चाहिए।

जिस दिन हीजड़े नाचने आये लुगाइयों को दिखलाने को पैसा बेल का दे गई।

छोटे लाल ने लौंडे को खिलाने को एक टहलवी रख दी और उससे यह कह दिया कि बच्‍चे को राजी राखियो।

लाला ने चार रुपये का घी और एक रुपये की खॉंड़ दूकान से भेज दी। और जब रात को घर आए घरवाली से कह दिया कि घी को ता के रख छोड़यो और बहु की खिछड़ी वा दाल में डाल दिया करियो। खॉंड़ के लड्डू बना लीजो। बहु का शरीर निर्बल हो गया है, इसमें ताकत आ जायगी और बच्‍चा दूध से भूखा नहीं रहेगा और बहु से कह दीजों कि ऐसी-वैसी चीज न खाये जिससे बच्‍चे को दु:ख हो।

वह आप चतुर थी। दोनों वक्‍त बँधा खाना खाती। लाल मिर्च, गुड़, शक्‍कर, सीताफल की तरकारी, तेल का अचार, खीरे और अमरूद आदि से परहेज करती। पर होनी क्‍या करे? जब लड़का छह महीने का था, एक दिन सिर से न्‍हाई थी। भीगे बालों बच्‍चे को दूध पिला दिया। सर्दी से उसे खॉंसी का ठसका हो गया। अगले दिन करवा चौथ थी। बर्ती रही और पूरी कचौरी खाने में आई। लौंडे को सॉंस होई आया। बड़ा फिकर हुआ। सास उठावने उठाने लगी और बोल कबूल करने लगी। धन्‍ना की मॉं पनिहारी को ननवा चमार को बुलाने भेजा। उसने आते ही झाड़ दिया और अपने पास से लौंडे को गोली खिला दी।

गोली के खाते ही बीमारी और बढ़ गई और लौंडे का हाल बेहाल हो गया। इतने में लाला दुकान से भागे आए। छोटेलाल घर ही था। दोनों की सलाह हुई कि हकीम को दिखलाओ और सारा हाल कह दो। हकीम जी ने कहा कि घबराओ मत, उस पाजी ने जमाल गोटे की गोली दे दी है और वह पच गई है। मैं यह दवा देता हूँ बच्‍चे की मॉं के दूध में देना। इससे चार पॉंच दस्‍त हो जायेंगे, आराम पड़ जायगा और वैसा ही हुआ।

लाला घर में बड़े गुस्‍सा हुए कि अब तो भगवान ने दया की, कोई स्‍याना-वाना घर में नहीं बड़ने पावे। यह निर्दयी इसी तरह से बच्‍चों को मार डालते है और कुछ नहीं जानते। और बहु से कह दीजो कि फिर भीगे बालों दूध न पिलावे। और भला वह तो बालक है, उसने देखा ही क्‍या है? तू तो बड़ी-बूढ़ी थी। पहिले से क्‍यों नहीं समझा दिया था?

वह चुप हो रही।

दौलत राम की बहु सब कुछ खाती-पीती रहे थी। जब सास वा ससुर उसके भले की बात कहते, उसका उलटा करती। लौंडिया भी उसकी सूख के कॉंटा हो रही थी और आप भी नित मॉंदी रहे थी।

एक समय गर्मी के दिन थे। दो-तीन धुऍं में रोटी की। दोनों मॉं बेटियों की ऑंखें दुखने आ गयीं। परहेज किया नहीं और बीमारी बढ़ गई। किसी ने बहका दिया कि तुम्‍हारी ऑंखें घर के देवता ने पकड़ी हैं। उस दिन से दवाई भी डालनी छोड़ दी। बेचारे दौलत राम को आप चूला फूँकना पड़ा।

-- आगे पढें :  भाग - 2

 

 

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