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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4 सम्पादक - राघव शरण शर्मा किसान क्या करें
किसानों के दोस्त और दुश्मन किसान बन्धुओ मैं नहीं चाहता कि शिष्टाचार के आडम्बर में पड़कर आपका अमूल्य समय एक क्षण भी गँवाऊँ। इसीलिए काम की बातें करने में लग जाता हूँ। ज्यों-ज्यों किसान आन्दोलन मजबूत हो रहा है और किसान सभा लोकप्रिय होती जा रही है त्यों-त्यों इस पर आक्रमण भी मुस्तैदी के साथ होने लगे हैं। कल तक जो हमारे परममित्र थे, समर्थक थे वे भी सशंक हो रहे हैं और फूँक-फूँक कर पाँव देने लगे हैं। वे लोग ऐसी बातें बोलने लगे हैं जिससे पता चलता है कि इस आन्दोलन को वे बढ़ने देना नहीं चाहते, इसमें उन्हें खतरा नजर आने लगा है। चाहे और लोग इसे जो समझें, मगर मुझे तो उनके ऐसे कामों को देखकर खुशी होती है। क्योंकि यह हमारी बढ़ती हुई ताकत का सबूत है। हमारे अधाकचरे मित्रों का धीरे-धीरे पर्दाफाश हो रहा है और हम आज कहाँ हैं इसका पता हमें चलने लगा है यह भी अच्छा ही हो रहा है किसी भी आन्दोलन के शुरू में ही असली शत्रु-मित्रों की पहचान हो जाने से उसमें मजबूती आती है और आगे चलकर धोखे की गुंजाइश कम रह जाती है। आज की इस स्थिति का हमें दिल से स्वागत करना चाहिए। इस सम्बन्ध में खुशी की एक और बात है। आमतौर से नौजवान और विद्यार्थीगण किसान आन्दोलन में खास दिलचस्पी रखने लगे हैं और इधर जेलों से रिहा होने वाले प्राय: सभी राजनीतिक बन्दी इस काम में दिलोजान से पड़ गए और पड़ रहे हैं। जिन लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्यशाही को हिलाया और थर्राया है, मेरा विश्वास है, उनके सहयोग से किसान आन्दोलन शीघ्र ही साम्राज्यशाही, जमींदारशाही, महाजनशाही और पूँजीशाही का अन्त करने में सफल होगा। मैं चाहता हूँ कि किसान और किसान सेवक अपने सच्चे दोस्तों और दुश्मनों की ठीक-ठाक पहचान करें और इस महान आन्दोलन को उन खतरों से बचाएँ जो आगे बढ़ने पर सभी प्रगतिशील आन्दोलनों के रास्ते में आया करते हैं। कारण प्रारम्भ के दोस्त ही दुश्मन का काम करने लग जाते हैं और उनकी पहचान देर और दिक्कत से होती है। हमें सबसे प्रथम अपने असली स्वार्थ को देखना चाहिए और उसकी सिध्दि के लिए अपने ही त्याग तथा बलिदान का भरोसा करना चाहिए। गैरों के त्याग और बलिदान पर लट्टू बनके अपने हिताहित का विचार न करना और ऑंख मूँदकर उनकी या किसी की बातें मानना, आत्मघात के बराबर है। अन्धा परम्परा को छोड़ हमें नेताओं और उपदेशकों की हर बात को अपने (किसान-मजदूरों के) सामूहिक स्वार्थ की कसौटी पर कसकर उसकी कड़ी जाँच करना चाहिए। इतना ही नहीं कभी-कभी नेताओं को जो लम्बी दलीलें दिया करते हैं, हक्का-बक्का भी करना चाहिए, जैसा कि रूस या अन्य देशों की जनता ने समय-समय पर किया है Reasonable leaders of the Soviet were paralysed by the masses. और जैसा कि अभी हाल में ही कानपुर के मजदूरों ने किया है। इसका नतीजा यह होता है कि जनता को भेड़ों की तरह मूँड़ने की हिम्मत छोड़कर नेता लोग सँभल जाते हैं। हमें नेताओं के उपदेशों को ही सुनना न चाहिए, वरन् उनके कामों पर भी कड़ी निगाह रखनी चाहिए और देखना चाहिए कि कहीं हमारा शत्रुओं से भीतर ही भीतर वे लोग घुल-घुल कर बातें तो नहीं करते। यह निहायत जरूरी है। उनके कामों पर कड़ी नजर रखे बिना हमेशा धोखा हुआ है और आगे भी होगा। जमींदारी का खात्मा क्यों? यद्यपि जब तक किसान-मजदूर राज्य या कमाने वालों का राज्य सारे देश में कायम नहीं हो जाता और शासन की बागडोर कमाने वालों के हाथ में नहीं आ जाती तब तक हमारे कष्टों का अन्त नहीं हो सकता, अतएव वही राज्य हमारा परम लक्ष्य है और वही असली स्वराज्य है। तथापि उसकी प्राप्ति में साम्राज्यशाही की ही तरह या उससे भी शायद बढ़कर जमींदारी और साहूकारी बाधक है। अतएव इन दोनों का अन्त जल्द से जल्द करना किसान सभा का तात्कालिक लक्ष्य है। साम्राज्यशाही तो भले-बुरे कानूनों के बल पर टिकी है लेकिन यह जमींदारी तो केवल जोर-जुल्मों के सहारे कानूनों का गला घोंट-घोंट कर या उनकी ऑंखों में धुल झोंक-झोंक कर ही खड़ी है। एक तो साम्राज्यशाही या अंग्रेजी शासन के कानून यों ही मालदारों के ही अधिक लाभ के लिए बने हैं। दूसरे उन्हें भी यह जमींदारी पाँव तले दिन दहाड़े रौंदती है। तिस पर तुर्रा यह कि रुपए के बल से जमींदारों का बालबाँका हो नहीं सकता, वे निर्भय विचरते हैं। सन् 1793 ई. के 22 मार्च को लार्ड कार्नवालिस के एक फतवे (Regulation) के अनुसार इस जमींदारी रूपी पूतना का जन्म हुआ और इतिहास के जानकारों ने लिखा है कि उसके बाद जो पाँचवें, सातवें, ग्यारहवें, आदि फतवे निकाले गए और जिन्हें जस्टिस फील्ड जैसे अंग्रेज सज्जन तक ने 'काला 7वें आदि फतवे' कहा है, उन्हीं के आधार पर किसानों की जानमाल और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत पर आक्रमण करके इस जमींदारी की रक्षा की गई है, उसे पाला-पोसा गया है। वे सभी फतवे इसीलिए निकाले गए थे कि बिना अदालत की शरण लिये ही जमींदार का मामूली नौकर किसानों के जनान खाने तक में बेधाड़क घुसकर तलाशी ले सकता और बकाया लगान में चीज-वस्तु जब्त कर सकता था। यहाँ तक कि पड़ोसी के द्वार पर पड़े हुए गल्ले, जानवर आदि को भी इस शक में जब्त कर सकता था कि यह चीजें उसी किसान की हैं जिसके जिम्मे लगान बाकी है। ऐसी नादिरशाही के बीच यह जमींदारी प्रथा सयानी और तगड़ी होकर अब बूढ़ी हो चली है मरणासन्न है। क्योंकि उसकी उम्र का 145वाँ वर्ष गुजर रहा है। कसके एक धक्का लगा कि खत्म हुई। आज जो जमींदारों के जुल्मों की कहानियाँ छपा करती हैं, उनकी जड़ तो इस जमींदारी की ही जड़ में है। ये जुल्म शुरू से ही चले आ रहे हैं और आज कानून के बदल जाने पर भी वे बन्द नहीं हुए। क्योंकि पुरानी आदत आसानी से छूटती नहीं, छूट सकती नहीं। एक बात और है। यदि जुल्म और अत्याचार बन्द हो जाए तो जमींदारी एक मिनट भी टिक नहीं सकती। तब तो किसान निर्भय और हिम्मतवर बनके जमींदार का मुकाबला जब न तब कर बैठेंगे और वह उनसे पार न पा सकेगा। अदालतों में दावे करके यदि सबों से लगान वसूल करना हो तो कुछ ही साल में जमींदारी खत्म हो जाए। इसीलिए हजार जोर-जुल्म और गैर-कानूनी तरीके से किसानों को पस्त और तीन तेरह कर दिया गया है। यदि जमींदार अपने अमलों को काफी वेतन देता है और आबपाशी आदि का पूरा प्रबन्ध करता है तो मोटर दौड़ाने और महल सजाने के लिए उसे बचेगा ही क्या? इसीलिए भूखे शिकारी कुत्तों की तरह दो-दो चार-चार रुपए के नौकर रखता है, जिनका काम होता है कदम-कदम पर सैकड़ों प्रकार से किसानों को नोचते रहना। जमींदार के खर्च भी समयानुसार बढ़ते जाते हैं और शहरों में रहने, सैर-सपाटे करने, बड़ी-बड़ी पाख्रटयाँ देने, चुनावों में पड़ने और फैशन करने से खर्च तो बढ़ते ही जाते हैं। मगर जमींदारी की आमदनी तो बढ़ती नहीं इसीलिए बीसियों प्रकार की गैर-कानूनी वसूलियाँ जारी की गई हैं। गंगा के किनारे तो गंगशिकस्त और गंग बरार के करते महाराजा डुमराँव तथा दूसरे जमींदारों की पाँचों घी में हैं। जो जमीन गंगा की धार में जाने के बाद फिर बाहर आई उसका नए सिरे से बन्दोबस्त किया जाता है और इसमें खूब चढ़ा ऊपरी कराई जाती है। कभी-कभी तो एक से ज्यादा लोगों के साथ बन्दोबस्त करके किसानों को ही आपस में गुत्थमगुत्था करने का मौका दिया जाता है। यदि जमींदार को यह सब करने न दिया जाए तो उसकी आमदनी ही जाती रहे, उसका मजा किरकिरा हो जाए और अन्त में किसानों की संगठित शक्ति और मुकाबले के सामने जमींदारी की अन्त्येष्टि ही हो जाएगी। जमींदारी प्रथा का यह भीतरी विरोध (Internal contradiction) है। इसीलिए शीघ्र से शीघ्र उसका अन्त होने में ही कल्याण है। जमींदारी पैदा करने में अंग्रेजी सरकार का स्वार्थ कई प्रकार से सिद्ध हुआ एक तो हमारे देश की सम्पत्ति वाणिज्य-व्यापार में न लगकर जमीन के खरीदने में लगी और इस प्रकार विदेशी व्यापार के लिए यहाँ काफी गुंजाइश रही। दूसरे सरकार और जनता के बीच में एक ऊँची दीवार खड़ी हो गई, जिसके पीछे रहके सरकार अपना सारा काम चलाती रही और जनता जल्दी उसे देख न सकी, इसीलिए उस आक्रमण भी न कर सकी। जोर-जुल्म और दमन कार्य तो जमींदारों के द्वारा हो ही जाता था। सरकार के लिए कानून के खिलाफ खुल के काम करना आसान नहीं था। मगर उसके दोस्त और एजेण्ट ये जमींदार सबकुछ कर सकते थे, कर सकते हैं। इस प्रकार देश के भीतर दो परस्पर विरोधी स्वार्थ पैदा हो गए। साथ ही, जमींदारी मशीनरी के जरिए आसानी से 80 से लेकर 90 फीसदी किसान नामर्द और पस्त हिम्मत बना दिए गए। फिर सल्तनत का मुकाबला कौन करे? जमींदार और उनके अमले किसानों की छाती पर बचपन से लेकर मरने तक किस प्रकार सवार रहते और रह-रह के कोदो दलते रहते हैं इसका कटु अनुभव धारा सभाओं के बहस मुबाहसों, अखबारों की लीपापोती और किसानों के पढ़ने से नहीं हो सकता। इसे तो किसानों के जले दिल, उनकी भीगी ऑंखें, उनकी पस्ती और बेबसी ही बता सकती है, सो भी उन्हें जो सहृदय हैं, जो आहों और मूक वेदनाओं को जान सकते हैं, जानने की योग्यता रखते हैं। इस प्रथा में एक बड़ा दोष यह है कि इसने निठल्ले लोगों का एक खासा दल पैदा कर दिया है जो रईस और भलेमानस कहाते हैं। जो लोग रोजगार व्यापार में पैसे लगाते हैं उन्हें फिक्र बनी रहती है कि किस वस्तु का व्यापार कहाँ है और वहाँ औरों के साथ मुकाबला कैसा है। इसलिए बड़ी मुस्तैदी और तत्परता से चीजें तैयार कराते और बाजार में पहुँचाते हैं। कच्चे माल की भी चिन्ता उन्हें रहती है। उधर अपनी साख (प्रतिष्ठा) भी बनाए रखना पड़ता है। इतने पर भी घाटे का डर बराबर बना रहता है। कभी-कभी घाटा होता है और पूँजी भी डूब जाती है। विपरीत इसके जमींदारों को न तो कोई फिक्र है, न चिन्ता, न कुछ सोचना है, न विचारना, मगर चिन्ता है तो केवल मौज करने की। घाटा तो कभी होता नहीं। यदि लगान न मिला तो सरकारी न्यायालय वसूल करवा देने के लिए तैयार रहते ही हैं। और इसके लिए उन्हें मेहनताना भी जमींदारों को देना नहीं पड़ता, वह तो किसान से ही वसूल कर लिया जाता है। कितना सुन्दर सौदा है। फिर जमींदारी में रुपया न लगाकर व्यापार में कौन लगाए? अपनी चैन में खलल कौन डाले? परिणाम यह हुआ कि देश के धन और दिमाग में एक प्रकार का जंग लग गया, वह कुन्द पड़ गया। इस प्रकार हमारे देश की व्यापारिक और मानसिक समुन्नति के लिए यह जमींदारी अभिशाप हो गई। जो लोग अंग्रेजी सरकार से लड़ते और लड़ना चाहते हैं उन्हें जमींदारी के खिलाफ लड़ने में जो आनाकानी होती है वह हमारी समझ में नहीं आती। आमतौर से देहातों में अंग्रेजी सरकार का तो कहीं पता नहीं रहता। मगर जमींदार सरकार तो हर गाँव में विराजती है और किसानों तथा गरीबों का शोषण और उत्पीड़न सैकड़ों प्रकार से करती रहती है। फलत: इस शत्रु का अनुभव किसान बराबर करता रहता है। जब हम निरन्तर छाती पर सवार रहने वाले शत्रु से लड़ाई की बात नहीं करके मेल की बात करते हैं और उस शत्रु से लड़ना चाहते हैं, जिसका अनुभव दैनिक जीवन में सर्वसाधारण किसान मजदूरों को बराबर नहीं होता, तो वह लोग हमारी बात समझ नहीं सकते और आश्चर्य में पड़ जाते हैं, मौत सदा सिर पर सवार है और उसका दु:ख सबसे ज्यादा होता भी है। मगर उससे बचने की कोशिश कौन करता है? हाँ जब बीमारी होती है तभी यत्न किया जाता है। लेकिन जूते की काँटी बराबर चुभती है तो जी जान से उसे दूर करने की कोशिश की जाती है। जमींदारी जूते की काँटी और विदेशी शासन मौत का दु:ख है यह हमें भूलना न चाहिए। एक बात और बिहार में अंग्रेजी सरकार को हम करीब पाँच करोड़ देते हैं जिनका एक बड़ा हिस्सा या अधिकांश किसानों से ही लिया जाता है। इस रकम में एक अच्छा हिस्सा बड़ी-बड़ी तनख्वाहों में खर्च होता है बेशक और उसे हम रोक भी नहीं सकते। फिर भी बहुत बड़ा हिस्सा स्कूल, कालिज, अस्पताल, दवाखाना औषधालय, सफाई, सड़क, कुएँ, नहर आदि में खर्च होता है जिससे जनता की भलाई है। पुलिस, कचहरियों का खर्च भी बहुत अंश में जनता के हित में है। मगर जमींदार लोग तो 20 करोड़ से कम वसूल नहीं करते और इसमें से भरसक एक पैसा भी जनता के काम में खर्च करना नहीं चाहते, खर्च नहीं करते। हाँ टायटिल और उपाधि के लिए या अधिकारियों को खुश करने के खयाल से भले ही कुछ दे दिया करते हैं या स्कूल और अस्पताल बनवा दिया करते हैं। कितने जमींदार हैं जिन्होंने देहातों के बीच केवल किसानों के ही लाभ के लिए औषधालय या स्कूल खोले हैं? अपने और अपने नौकरों-चाकरों के लिए स्कूल और अस्पताल बनवा दिए और उससे यदि कुछ गरीबों का भी लाभ हो गया तो इससे क्या? यह तो मजबूरी की बात हो गई। यहाँ तक देखा जाता है कि यदि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की ओर से दवाखाने या अस्पताल खुलते हैं तो वह भी जमींदारों के घरों और महलों के ही पास खुलें ऐसी कोशिश होती है। स्कूलों और सड़कों के बारे में भी यही होता है। यह भी देखा जाता है कि स्कूल और अस्पताल खुलवाते हैं जमींदार अपने नाम से और उनका खर्च वसूल होता है किसानों से। यदि गाँव में चोरी-डकैती हो तो अंग्रेजी सरकार की पुलिस खबर पाते ही दौड़ पड़ती है। मगर हजार खबर देने पर भी जमींदार अपना यह फर्ज ही नहीं समझता कि उस जगह पर जाएँ। ऐसी दशा में यदि सरकार से युद्ध करते हैं तो उससे कई गुना भीषण युद्ध इस 'मुफ्तखोरी की संस्था' जमींदारी के खिलाफ छेड़ना चाहिए। सरकार तो 5 करोड़ का हिसाब पेश करती और उसकी मंजूरी लेती है। मगर ये 20 करोड़ हजम करनेवाले जमींदार? इन्हें हिसाब-किताब से क्या काम? कुछ लोग मुंशी जी वाला हिसाब लगाकर बताते हैं कि जमींदारों की कुल आमदनी 11 करोड़ है और उसमें माल (रेवेन्यू) और वसूली का खर्च मिलाकर 3 करोड़ से कम नहीं है। ऐसी हालत में 6 करोड़ से कुछ ही ज्यादा उन्हें बचता है और यदि जमींदारी मिट जाए तो बिहार की साढ़े तीन करोड़ जनता में उस आमदनी को बाँटने से औसतन फी आदमी साल में दो रुपए आय होगी। लेकिन इससे गरीबी दूर हो नहीं सकती। अत: जमींदारी मिटाने का प्रश्न छोड़कर देश की समृध्दि बढ़ाने का दूसरा उपाय सोचना चाहिए। इस प्रश्न से घरेलू झगड़ा भी पैदा होता है और इस प्रकार स्वराज्य की लड़ाई में बाधा होती है। ऐसे लोग पूर्व में बताई गई मौलिक बातों का कतई खयाल नहीं करते। हमारा तो खयाल है कि जमींदारी सड़ा हुआ मुर्दा है और जब तक इसे जला या दफना न देंगे इससे बराबर दुर्गन्ध आती और बीमारी फैलती रहेगी। और अगर फी आदमी साल में दो रुपया भी बच जाता है तो गरीबों के लिए यही क्या कम है? मुफ्तखोर यह दो रुपया भी हमारा क्यों ले जाएँ? क्या हम मुफ्त में एक कौड़ी भी बर्दाश्त करते हैं? और फिर ऐसे लोग हमारे ही रुपए से मौज करें हमें ही पस्त और पागल बनाएँ। क्या पैसे देकर ऐसे लोगों की जरूरत तैयार होने देना ठीक है जो सदा से देशद्रोही तथा कांग्रेसद्रोही रहे हैं और आगे भी रहेंगे। अगर आज ये कांग्रेस में आए हैं या आ रहे हैं तो सिर्फ इसीलिए कि भीतर से ही हमला करें और कमजोर बनाएँ। पं. जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, 'कांग्रेस में आकर न तो स्वराज्य लेने को ही उत्सुक हैं और न स्वतंत्रता संग्राम में भाग ही लेने को। इन्हें तो अपना मतलब साधना है Who were not eager to achieve Swaraj or join fight but were saveving personal gains.* और इनके साथ घरेलू झगड़े का क्या सवाल ? ये तो सदा किसानों, गरीबों और कांग्रेस पर हमला करते ही रहे हैं। ये तो हमारे पुराने दुश्मन हैं। बिहार में तो इन्होंने गत चुनाव में केवल संगठित रूप से विरोध ही नहीं किया किन्तु जहाँ तक जमींदारों के वोट से चुने जाने की बात थी, एक भी कांग्रेसी उम्मीदवार को असेम्बली या कौंसिल में चुने जाने नहीं दिया। फिर इनके साथ रिआयत कैसी? इनका हमला तो आज भी किसानों पर पूर्ववत् जारी है। तो क्या हम लोग हमले के जबाव न दें। इससे अपनी (सान करें) यह तो गैरमुमकिन है। ऐसा उपदेश देने वालों पर आज यदि कोई आक्रमण करे तो क्या वे चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे? उनका घर या धन कोई लूटे तो क्या लुटेरे का मुकाबला न करेंगे? यदि किसान का भाई या पड़ोसी लूटने आए तो किसान रोके नहीं? क्या स्वराज्य और उसकी लड़ाई का यही अर्थ है कि हमारे घर और देश के आदमी हमें लूटते और अपमानित करते रहें और हम चूँ न करें? ऐसे स्वराज्य से तो हम बहुत डरते हैं और उसे दूर से प्रणाम करते हैं। जो लोग ऐसा उपदेश देते हैं असल में वे जमींदारी जुल्म के शिकार हैं नहीं, या यदि हैं तो मुर्दे और आत्मसम्मान हीन हैं। हम जानते हैं कि 'जिनके पाँव न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई' के किसानों की तकलीफों को समझने की कोशिश भी नहीं करते, यह और भी दर्दनाक बात है। जो लोग 'एकै साधो सब सधौ' का गीत गाकर कहा करते हैं कि स्वराज्य मिलने पर ये सभी झगड़े अपने आप मिट जाएँगे वे हमारी ऑंखों में धूल झोंकना चाहते हैं। दुनिया के सभी देशों में स्वराज्य हो गया सो भी सैकड़ों वर्षों से मगर रूस को छोड़ ये सभी झगड़े सभी देशों में मिटने के बजाए दिनोदिन भयंकर होते चले जाते हैं। यदि जमींदार, पूँजीवाले और साहूकार स्वराज्य आने पर भी रहे तो वह स्वराज्य गरीबों के लिए एक कौड़ी का भी न होगा। किसान, मजदूर, और पीड़ित लोग साधु फकीरों के कहने से स्वर्ग या बैकुण्ठ को इसीलिए अच्छा और अपने रहने लायक समझते हैं कि वहाँ जमींदार, सूदखोर और पूँजीपति नहीं रहते ऐसी उनकी धारणा है। यदि उन्हें पता लग जाए कि ये जमींदार वगैरह मरकर वहाँ भी जाएँगे और अपना काम करेंगे तो गरीब लोग स्वर्ग बैकुण्ठ का नाम भी न लें। बल्कि नरक को ही अच्छा समझें यदि वहाँ जमींदारों की गुंजाइश न हो। जो लोग उन भूखे किसानों से जिनकी जमीनें धड़ाधाड़ जमींदारों, साहूकारों और बैंकों के द्वारा नीलाम हो रही हों और जिनके बाल बच्चे अन्न, वस्त्रा, दवा के बिना तड़पते हों, आजादी की लड़ाई लड़ पाने की आशा करते हैं, उनकी समझ की बलिहारी है। जिस सिपाही की ऐसी दशा हो वह मैदान छोड़ कर भाग आता है और जब तक यह हालत रहे जाता नहीं। सत्याग्रह करने जा रहे हैं, मगर बीच में ही पेट में दर्द हो जाए या बुखार आ जाए तो हम सत्याग्रह की बात भूल कर पेट की दवा करते और ज्वर का उपचार करते हैं और हमारे दूसरे साथी भी इसी काम में फँस जाते हैं। सख्त भूख लगने पर भगवान और सत्याग्रह भूल जाता है सिर्फ यह याद आता है यह अप्रिय सत्य है। किसान आन्दोलन इसी भूख और बीमारी की दवा का उपाय है। हम इसके जरिए जमींदारी और साहूकारी जुल्म हटाकर किसान को थोड़ा आराम पहुँचाना चाहते हैं और इस प्रकार अपने नेतृत्व में अमली तौर से उसका विश्वास पैदा करके उसे आजादी की लड़ाई के लिए कमर बाँधकर तैयार करना चाहते हैं। रह गई हिसाब की बात सो तो गलत है। अगर हम भूलते नहीं तो सरकारी रेवेन्यू (माल) 135 लाख है। 1931-32 वाली बिहार, उड़ीसा की शासन रिपोर्ट में लिखा है कि सरकार जमीन के मुनाफे का प्राय: 90 फीसदी जमींदारों के लिए छोड़ देती है, ‘Today the state relinquished nearly ninety perent of the profits to the land owners.’ ऐसी दशा में सरकारी बयान के ही अनुसार साढ़े तेरह करोड़ की आमदनी जमींदारों को होती है। मगर अवली में जो लूट किसानों की होती है उसका हिसाब सरकार के पास क्या है? दक्षिण बिहार में तो अवली बहुत ज्यादा है सो भी अधिकांश दलबन्दी, जिसमें जमींदार का हिस्सा 16 सेर से 9 सेर है। तिस पर भी बढ़ई वगैरह कई अबवाब (सलामी, तवान) सूद, जुर्माना के रूप में अपार धन जमींदारों के पास चला जाता है। (अन्ती तौजी, घाट, चरसा, महाल आदि) पचासों वसूलियाँ अलग हैं। जल कर, फल कर, वगैरह भी हैं। जंगल के कर जुदा हैं। लकड़ियों और बाँसों की बिक्री से खासी आमदनी जंगलों के जरिए होती है। अबरक और कोयला तो बिहार की खास चीज है। पत्थर की बिक्री भी होती है। लोहा भी यहीं निकलता है। यदि यह सब आमदनी मिला दी जाए तो क्या लगान की आधी भी न होगी? हमने कई जगह हिसाब लगा के देखा है तो सिर्फ गैर-कानूनी वसूलियाँ लगान के पाँचवें हिस्से के बराबर हो जाती हैं। बेगारी या कम मजदूरी देकर काम करवाना यह तो आम बात है। इसके सिवाय जमींदारों के दर्जनों नौकर हर गाँव में रहते और साग तरकारी, घी, दूधा, दही, रस, ऊख, चना, मटर, बकरा-बकरी, मुर्गी, अण्डा, जूता, कम्बल, तेल, बर्तन वगैरह चीजें बराबर लेते रहते हैं। यदि साल-भर की इनकी लूट भी उसमें जोड़ दी जाए तो यह रकम बीस करोड़ से कहीं ज्यादा हो जाएगी। जमींदारी प्रथा का खात्मा होने पर 135 लाख के सिवाय बाकी तो किसानों के पास ही रहेगा जो प्राय: ढाई करोड़ किसानों में बाँटने पर फी आदमी करीब आठ रुपए और पाँच जनों के परिवार के लिए चालीस रुपया सालाना होगा। यह गरीबों के लिए बैठे बैठाए बहुत ज्यादा है। चरखे की आमदनी किसी भी परिवार को, जिसमें पाँच मनुष्य हों, इतनी शायद ही हो और होगी भी तो उसके लिए अलग परिश्रम होगा। उसमें यदि यह चालीस रुपए मिल जाएँ तो कितना सुन्दर हो। जोर, जुल्म आतंक का जो अन्त हो जाएगा जमींदारी के साथ ही सो तो अलग ही है। इतने पर भी जो लोग दलीलें दिया करते हैं कि जमींदारी मिट जाने पर भी खासमहाल में किसानों की तकलीफें ज्यों की त्यों हैं और बम्बई या मद्रास के इलाके में जमींदारी प्रथा के न रहने पर भी किसानों के दु:ख दूर न हुए उनसे हमारा निवेदन है कि वे जमींदारी मिटाने का अर्थ समझने की कोशिश करें। वे भारी भूल करते हैं यदि खासमहाल की जमींदारी ही है और आमतौर से खासमहाल का जमींदार कलेक्टर समझा जाता है, फर्क इतना ही है कि अन्य जमींदार जहाँ और जमीनों के मालिक हैं तहाँ खासमहाल का मालिक सरकार ही है। इसीलिए उसे खास कहे हैं। तो भी खासहाल और जमींदारियों से अच्छा इसलिए है कि वहाँ बेगारी या अववाब नहीं चलते और गैरकानूनी जुल्म नहीं होते। रह गई बम्बई आदि में प्रचलित रैयतवारी की बात। यह ठीक है कि वहाँ जमींदारी नहीं है लेकिन इसी के बहाने खेती प्रथा, इनामदारी, जागीरदारी जन्मी प्रथा, और साहूकार जमींदार प्रणाली प्रचलित है, सारांश यह कि सरकार और किसानों के बीच कोई न कोई शोषक दल सर्वत्र है। अन्ततोगत्वा कहीं-कहीं किसान ही हजारों एकड़ जमीन रखते हैं और दूसरों के साथ शिकमी बन्दोबस्त करते हैं और जमींदारी प्रथा के खत्म करने का अर्थ है कि खेती करने वाले (किसान) और सरकार के बीच में कोई न रहें जो किसान से लगान लेकर कुछ स्वयं हजम करे और कुछ सरकार को दे। हर किसान के पास उसके परिवार के गुजारे के लायक काफी जमीन हो और उसे सरकार को नाममात्र का माल या कर देना पड़े। असल में किसान ही अपनी जोत जमीन का मालिक हो और इन्कम टैक्स की तरह उसे अपनी एक निश्चित आमदनी से अधिक आमद पर सिर्फ टैक्स लगे, लेकिन इतने से ही उसकी तकलीफें दूर न हो जाएँगी। इसके लिए तो उसे किसान मजदूर राज्य स्थापित करना होगा जैसा कि पहले कह चुके हैं। जैसे अनेक बीमारियाँ होती हैं और एक के दूर हो जाने पर भी दूसरी रह सकती है और उससे कष्ट भी हो सकता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरी से कष्ट है इसीलिए पहली का हटाना बेकार है। किसानों के कष्टों के कई कारणों में एक प्रधान कारण जमींदारी प्रथा है और इसे दूर करना है, बस यही अर्थ है। इसके बाद कष्ट के और कारणों का पता लगाकर उन्हें भी दूर किया जाएगा। जो लोग जमींदारी के सुधारने की बात कहते हैं और उसके मिटाने का विरोध करते हैं या यों कहते हैं कि उसके सुधार की कोशिश की जाए और यदि न सुधारेगी तो स्वयं मिट जाएगी उनसे हम पूछते हैं कि साम्राज्यशाही के मिटाने की बात भी वे क्यों नहीं छोड़ देते? उसे भी सिर्फ सुधारने में ही लग जाएँ। यदि वह न सुधारेगी तो समय पाकर स्वयं मिट जाएगी। जिस प्रकार जमींदारी एक निन्दित प्रथा है उसी प्रकार साम्राज्यशाही भी पूँजीवाद रूपी प्रथा का अत्यन्त विकसित और भयंकर रूप है। यदि साम्राज्यशाही सुधार नहीं सकती तो जमींदारी कैसे सुधारेगी जिसका जन्म ही पापमय है? जमींदारी के सुधारने की आशा करना कोयले को साबुन से धोकर सफेद करने या बालू से तेल निकालने की आशा के समान ही है। यह कहना कि खेती करने वाले की ही तरह उसमें रुपया और सामग्री (Money and materiat) जुटाने वाले को भी साझीदार समझना चाहिए और जमींदार रुपया तथा सामग्री लगाते हैं बिलकुल गलत बात है। यदि हल, बैल, बीज या पूँजी देकर और आबपाशी आदि का प्रबन्ध करके जमींदार साझीदार बनना चाहते तो यह बात समझ में आती भी। मगर वह तो ऐसा कुछ करता नहीं। वह तो मुफ्त ही किसान की कमाई को हड़प लेना चाहता है, हड़प लेता है। चाहे फसल मारी जाए, मगर वह तो पाई-पाई लगान सूद के साथ वसूलता ही है। यही साझीदारी है? यह साझीदारी का सिध्दान्त गलत भी है। किसान के पास तो इतनी पूँजी चाहिए ही कि वह खेती में लगे, यदि दूसरा कोई पूँजी लगाना चाहता है तो वह स्वयं खेत लेकर उसमें लगाए और खेती करे। पैसे के बल से दूसरे की कमाई खाने का सिध्दान्त ठीक नहीं है। यह तो सिर्फ सरकार का ही काम है कि किसान के लिए जमीन और पूँजी की व्यवस्था कर दे और उससे थोड़ा सा टैक्स सिर्फ इसलिए ले कि फिर उसी की भलाई में उसे खर्च करे। यदि जमींदारी, साहूकारी और पूँजी के द्वारा होने वाला शोषण बन्द न होगा और स्वराज्य के समय भी ये चीजें रहेंगी तो किसानों की गरीबी भी रहेगी ही। क्योंकि स्वराज्य होने पर जमीन में घी, दूध या गेहूँ, चावल की न तो वर्षा ही होगी और न पनाले ही फूटेंगे। ऐसी हालत में जो पैदावार होगी वह तो जमींदारों और साहूकारों आदि के हाथ में आज की ही तरह जाएगी। फिर किसान क्या खाएगा? कल कारखाने खोलकर, गरीबी दूर करने की बात मनोमोदक मात्र है। चीनी के पचासों कारखाने बिहार में खुल गए मगर क्या किसानों की गरीबी और तकलीफ घटी? या कि उलटे बढ़ी? ये कारखाने तो बेकारी को बढ़ाने और किसानों को सताते हैं। हाँ, पूँजीवाद न हो और सभी कारखाने, किसान मजदूरों और उनमें काम करनेवालों के हो जाएँ तो बात ही दूसरी है। मगर पूँजीवाद का अन्त करने से पूर्व जमींदारी का अन्त करना ही जरूरी होगा। मुआवजा और कीमत देकर बहुत लोगों का कहना है कि जमींदारी प्रथा का अन्त तो जरूर हो, मगर जमींदारों को उसकी कीमत (मुआवजा) दी जाए। लेकिन हमारी समझ में यह बात नहीं आती। उन्हें कीमत किस बात की मिलेगी? क्या 1793 में उन्होंने किसानों से जमींदारी कीमत देकर खरीदी थी? इतिहास का कोई भी पन्ना क्या इसका साक्षी है? कलम की एक नोंक से किसानों की सारी जमीन छीनकर जमींदारों को सौंप दी गई उन्हीं लोगों को जो पहले मुगल सरकार के जमाने में सरकारी मालगुजारी की वसूली में कमीशन एजेण्ट थे और जिन्हें आज भी नेपाल राज्य में जिम्मेदार कहते हैं, जिम्मेदार का अर्थ है कि सरकार ने अपनी वसूली के लिए उनको कुछ मौजों का जिम्मेदार बना दिया था और वसूली के मुताबिक फी सैकड़ा पाँच से दस रुपए तक कमीशन उन्हें देती थी। यही बात हाल में युक्त प्रान्तीय असेम्बली में वहाँ के माल मन्त्री ने भी कही थी। इस प्रकार यह जमींदारी तो एक प्रकार से चोरी या लूट का माल ठहरा और यदि आज हमें उसका पता लग गया तो पुराने मालिकों को वह वापस तो मिल जाना ही चाहिए। कीमत की बात कैसी? जिन लोगों ने दाम देकर पीछे औरों से जमींदारी खरीदी है उन्हें भी कीमत का दावा करने का हक नहीं। आखिर चोरी या लूट का माल जो खरीदता है वह भी गुनहगार ही है। हाँ, यदि जमींदारी की पैदाइश जोर जुल्म या छीना-झपटी से न हुई रहती और खरीद-बिक्री के द्वारा ही इसकी उत्पत्ति हुई रहती तो बात दूसरी थी। मगर यह तो जबर्दस्ती छीनी गई है। और इसका साक्षी इतिहास है। इतने पर भी यदि जमींदार कीमत माँगते हैं तो किसान गुजश्ता 145 वर्षों का वासिलात क्यों न माँगें? और अगर ऐसा हो तो उन्हें तो लेने के देने पड़ जाएँगे। ऐसी हालत में अपनी परवरिश के लिए जमीन, रोजगार तथा रुपया-पैसा अगर जमींदार चाहे तो यह चीज समझ में अच्छी तरह आ जाती है और उनकी यह माँग पूरी की जा सकती है बशर्ते कि शान्ति के साथ वे लोग इस जमींदारी का नामोनिशान मटियामेट करने दें। लेकिन कीमत की तह में कई गम्भीर और पेचीदा बातें भी हैं जिनका विचार निहायत जरूरी है। आखिर जमींदारों को यह कीमत देगा कौन और कहाँ से? बिहार की समूची जमींदारी की कीमत कम से कम एक अरब रुपया बताई जाती है। यह एक अरब कौन देगा? बड़े-बड़े पूँजी वाले और बैंक हो तो देंगे। परिणाम यह होगा कि हम जो जनता के हाथ में शासन सूत्र लाना चाहते हैं वह न होगा और स्वराज्य के पहले ही यहाँ की सरकार पूँजी वालों के हाथ में बंधक हो जाएगी; उनके शिकंजे में कर्जदार की तरह जकड़ जाएगी। दूसरी ओर उस रुपए से आज के जमींदार कल- कारखाने खोलकर मालोमाल बनेंगे और जमींदारी के स्थान पर देश का सारा कारबार उन्हीं के हाथ में चला जाएगा। फलत: मालदारों को दोनों तरफ से लाभ ही होगा। एक ओर बैंक और धनियों का दबाव, दूसरी ओर कल-कारखानेदारों का जोर इन दोनों के बीच स्वराज्य सरकार की कचूमर निकल जाएगी। साथ ही, जो जमींदार अपनी जमींदारी के जरिए किसानों पर जुल्म करते थे वही अब एक और कच्चा माल खरीदने में और दूसरी ओर मिलों में काम करनेवालों के साथ व्यवहार करने में वही अत्याचार करेंगे, बल्कि वह और भी शोषण् हो जाएगा। सुसंगठित बन जाएगा। इस प्रकार रोजा को गए, नमाज गले पड़ी, वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी। जो लोग राय देते हैं कि जमींदारों को केवल साढ़े तीन या चार रुपया सैकड़ा, सालाना सूद ही उनकी कीमत पर दिया जाए वह तो सोचते नहीं कि सालाना यह चार करोड़ कहाँ से आएगा। बिहार सरकार तो स्वयमेव अर्थ संकट से तबाह रहती है। ऐसी हालत में बराबर कर्ज लेकर देते रहने का भी वही अर्थ हुआ। बल्कि अन्ततोगत्वा इसका असर एक बार देने की अपेक्षा और भी बुरा होगा। यदि सरकार ही जमींदारियों को लेकर इन्तजाम करे तो यह जमींदारी का मिटना कैसे हुआ? आखिर खासमहाल का मजा भी किसान चख ही चुके हैं। अतएव बिना कीमत या मुआवजा के ही जमींदारी का अन्त करना होगा और किसान सभा का यही लक्ष्य है। ऋण और बकाया लगान का अन्त इसी प्रकार किसानों और गरीबों की छाती पर चक्की की तरह लदे ऋण की भी इतिश्री किए बिना गुजर नहीं। एक तो किसान इस ऋण को दे नहीं सकता। उसकी तो कमर और रीढ़ टूट चुकी है। अब इस बोझ को वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। अतएव सदा के लिए उसका पिंड इससे जल्द से जल्द छूट जाए इसी में कल्याण है और इसका एक ही तरीका है कि सरकारी कलम की नोंक से ही किसानों के सभी ऋण खत्म कर दिए जाएँ। यदि देखा जाए तो पता चले कि महाजनों ने सौ की जगह हजार और इससे भी ज्यादा वसूल कर लिया है। फिर उनकी बही में बाकी दर्ज है। एक तो सूद की दर बहुत ज्यादा है खासकर गल्ले की। दूसरे दर सूद के चलते वह और भी खतरनाक हो जाती है। एक पैसे और एक आने से लेकर चार आने फी रुपए तक सूद लिया जाता है। तिस पर भी दर सूद। सौ रुपए का ऋण लिया तो डेढ़ और दो सौ का दस्तावेज लिखाया जाता है। अतएव इस अन्धेर खाते का खात्मा एक ही धक्के में कर डालना ठीक है। महाजनों और बैंकों ने गरीबों को काफी लूटा है। पटना जिले में हमने देखा कि एक जगह बहुत बढ़िया खेत 25-35रुपए बीघे में ही कोआपरेटिव बैंक ने नीलाम करवा लिया है जिसकी कीमत आज भी पाँच सौ रुपए बीघे से कम नहीं हो सकती। महाजन लोग ऐसा ही करते हैं और किसान की बेबसी से अनुचित लाभ उठाते हैं। फलत: किसानों को उनके आज तक के कर्ज से बरी कर देना ही ठीक है। हाँ, यदि किसी का कर्ज ऐसा हो जो चुकता न हुआ हो तो उसको चुकता करने की जिम्मेदारी सरकार अपने ऊपर ले सकती है। जबकि इंग्लैण्ड और फ्रांस आदि की सरकारों ने नर संहार के लिए लिया हुआ जर्मन युद्ध का महत्व देने से इनकार कर दिया तो किसान की क्या बात? उसने तो जमींदारों को देने के ही लिए या बीज और बैल आदि के ही लिए अधिाकांश कर्ज लिया है। एक बात और। बिहार की कुल जमीन, जंगल, पहाड़, नदी वगैरह मिलाकर इस समय 44324173 एकड़ है, जिसमें खेती वाली 20301900 एकड़ है। यहाँ की जनसंख्या करीब साढ़े तीन करोड़ है जिनमें करीब ढाई करोड़ किसान हैं। इस प्रकार हिसाब लगाकर देखने से फी किसान औसतन पौन एकड़ से भी कुछ ही ज्यादा पड़ती है। इधार सरकारी रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि एक एकड़ की औसतन कीमत सवा सौ और डेढ़ सौ के बीच में है। 1929 में वह 128 रुपया, 1930 में वह 122 रुपया और 1932 में 134 रुपया थी। इसका सीधाा अर्थ यह है कि प्रत्येक किसान के हिस्से में जो जमीन पड़ती है यदि उसे बेच डाले तो 100 रुपया भी मुश्किल से ही उसे मिलेंगे। इधार कर्ज की हालत यह है कि बिहार के गाँवों का कुल ऋण जो 1929-30 में 155 करोड़ का उसमें किसानों का हिस्सा 129 करोड़ माना गया है। यह सरकारी कमिटी या हिसाब है। हमारे हिसाब से तो इससे कहीं ज्यादा है। जानकारों का यह भी कहना है कि बैंकिंग कमिटी ने भारत के गाँवों का कुल ऋण जो करीब 9 अरब 1929-30 में कूता था। वह 1936-37 में प्राय: 15 अरब और 1938 में 17-18 अरब से कम नहीं है अर्थात् गत 9 वर्षों में करीब दूना हो गया है। इस हिस्सा से बिहार के किसानों का ऋण भी 129 करोड़ से बढ़कर प्राय: ढाई अरब जरूर हो गया है। जो प्रति किसान औसतन 100 रुपया पड़ता है। नतीजा यह होगा कि यदि सारी जमीन बेचकर सिर्फ कर्ज चुकाना चाहें तो भी किसान कठिनाई से पार पा सकते हैं। इसीलिए जहाँ तक एक ओर इस भयंकर कर्ज को रद्द कर देने के अलावा और कोई भी चारा ही नहीं वहाँ दूसरी ओर सरकार की ओर से अधिाक से अधिाक 5 या 6 रुपए सैकड़ा सालाना की दर से किसानों को कर्ज मिलने की व्यवस्था होनी चाहिए। केवल सूद की दर कानून के जरिए घटा देने से काम न चलेगा। चालाक सूदखोर पहले भी ऐसा करते थे और अब तो और भी सौ रुपए देकर दो-तीन सौ के कागज लिखाया करेंगे। हाँ, जिस प्रकार बनियों के लिए दिवालिया कानून है वैसा ही पर बहुत आसान दिवालिया कानून किसानों के भी लिए हो तो उससे कुछ सहायता मिल सकती है। इसी प्रकार किसानों के ऊपर जो बकाया लगान है, चाहे उसकी डिक्री हुई है या नहीं उसको भी कलम की एक नोंक से रद्द किए बिना गुजर नहीं है। चाहे हजार कोशिश की जाए मगर किसान दे नहीं सकता, उतने पर भी यदि उसे बार-बार दबाया और दिक किया जाएगा तो वह निश्चय ही अधाीर (Desperate) हो जाएगा और उसका परिणाम किसी के भी लिए अच्छा न होगा। यदि जमींदारों के साथ कदम-कदम पर संघर्ष होने न देना है तो पिछली गन्दगी का खात्मा होना चाहिए और बकाए को रद्द करके नये सिरे से देने पावने का सिलसिला जारी करना चाहिए बकाए में थोड़ी या ज्यादा कमी करने से अब काम चलने का नहीं। गत नौ वर्षों की सस्ती के समय में जमींदारों ने किसानों को इस कदर बेरहमी से कानून की छत्राच्छाया में चूसा और पस्त किया है कि अब उनके पास कुछ रह ही नहीं गया है। खूबी तो यह कि आज भी किसानों के लगान की कमी को वे बर्दाश्त नहीं कर सकते और सारी शक्ति लगाकर उसे रोकना चाहते हैं। लगान और नहर रेट में काफी कमी की जाए इस प्रकार कर्ज और बकाया लगान को रद्द करने के बाद भी जब तक आगे के लिए लगान में काफी कमी न होगी किसान पनप नहीं सकते, लगान चुका नहीं सकते। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार गल्ले की कीमत 60 फीसदी से घट गई है यानी जितना गल्ला बेचने पर पहले ढाई रुपया मिलता था उसी का अब एक रुपया मिलता है। फलत: आमतौर से यदि ढाई की जगह एक हो तो दो की जगह एक तो होना ही चाहिए और जहाँ ज्यादा लगान हो वहाँ तिहाई या चौथाई मात्रा रख के बाकी अंश सदा के लिए खत्म किया जाना चाहिए दृष्टान्त के लिए 15 रुपया हो तो 4 रुपया या 5 रुपया से ज्यादा लगान नहीं रहना चाहिए और इसके घटाने का तरीका क्या हो? क्या बारह आने के स्टाम्प पर फी किता दरखास्त दी जाए और वकील रखे जाएँ। हर्गिज हर्गिज नहीं। यह बात किसान के सामर्थ्य के बाहर की है और ऐसा करने में जमींदार डराते-धामकाते तथा फुसलाते हैं। तरीका यही है कि सरकार घोषणा कर दे कि किस हिसाब से लगान घटेगा और हाकिम मुकर्रर कर दे जो एक ओर से खतियान या रिकार्ड उठाकर ऑंख मूँद के घटाते चले जाएँ। उसमें किसी के बोलने या आगे चीं-चपड़ की गुंजाइश न हो। आज तो एक विचित्र लीला है। एक ओर लगान घटाया जाता है और दूसरी ओर काश्तकारी कानून की 104धारा को दर्जनों उपधाराओं के अन्दर अपील के जरिए किसान को तंग करने और घटाए लगान को फिर बढ़ाने की कोशिश जमींदार करते हैं। आखिर उस मुकदमेबाजी की घुड़दौड़ में गरीब किसान कहाँ तक टिक सकता है। क्या कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने इसे विचारा है? किसान को जो भी मिले वह सीधो और साफ हो। यह नहीं कि एक ओर तो देखने और कहने के लिए मिले और दूसरी ओर छिन जाए और किसान को सिर्फ खर्च, परेशानी और निराशा हाथ लगे। नहर रेट की बात भी कुछ ऐसी ही है। बड़ी चिल्लपों और परेशानी के बाद फी रुपए करीब एक आने की छूट मिली है। पहाड़ खोदकर चुहिया निकली। ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती। एक ओर तो सरकार कहती और कानून बनाती है कि जिस दर से गल्ले का दाम गिरा है उसी दर से लगान में कमी होनी चाहिए। ठीक ही है। किसान दे कैसे सकता है? लेकिन जब नहर रेट की कमी का प्रश्न आया तो यह दलील भूल गई और प्राय: 30 लाख की वसूली में दो लाख की छूट दे दी गई। क्या मतलब? किसान कहाँ से देगा? यह दोमुँही चाल कैसी। यह भी नहीं कि नहर में घाटा हो। अब तो काफी बचत है। उड़ीसा में तो घाटा सहकर भी नहर रेट में कमी की गई थी। तो यहाँ क्यों न की जाए? उड़ीसा जब साथ था तो घाटा देकर भी 4 सैकड़ा बचत थी। अब तो वह अलग हो गया तो काफी बचत है। यह दलील कि 'घाटे के जमाने में और मदों से इसकी पूर्ति होती थी अत: अब इस मद से उठाकर पूर्ति की जानी चाहिए' ठीक नहीं। किसान सबों की रीढ़ है और वह टूट चुका है। अत: उस पर भार देना खतरे को खामख्वाह बुलाना है और दूसरे मदों में भी तो घूम-घुमाकर किसान का ही पैसा आता है। आखिर जमींदार, साहूकार या पूँजीवाले जो कुछ सरकार को देते हैं वह किसान से ही लेकर और स्टाम्प वगैरह में भी घुमा-फिराकर यही पैसे देता है। असल में यह दलील कोई चीज नहीं है कांग्रेसी मंत्रिेमंडल ऋण के मामले में और इस नहर रेट के मामले में मालूम होता है, फैजपुर के प्रस्ताव की 'काफी कमी' (Substantical reduction) को भूल गया है। हमें इस बारे में ऐसा जबर्दस्त आन्दोलन करना चाहिए कि उसे मजबूर होकर याद करना पड़े। क्योंकि रुपए में एक आने की कमी को कोई भी 'काफी कमी' कहने की हिम्मत नहीं कर सकता। साथ ही, नहर विभाग के सनातन अत्याचार ज्यों के त्यों बने हैं उन्हें भी बन्द करने के लिए किसानों की कमर कसना ही होगा। दूसरा रास्ता नहीं। बकाश्त जमीन और सर्टीफीकेट किसानों के सामने दो और विकट समस्याएँ हैं, बकाश्त जमीन की वापसी और जमींदारों को सर्टीफीकेट का अधिकार कतई नहीं मिलना। सर्टीफीकेट का अधिकार किसानों को किस प्रकार तबाह कर सकता है इसका ताजा उदाहरण महाराजा डुमराँव का वह जुल्म है जिसके शिकार इसी सर्टीफीकेट की ओर में, भोजपुर कदीम सिमरी और ढकाइच के और खासकर सिमरी के किसान हाल में ही हो चुके हैं। पं यमुना कार्यी ने जो असेम्बली में सवाल इस सम्बन्ध में किए थे उनके उत्तरों से इस जुल्म पर काफी प्रकाश पड़ता है, यों तो हम लोग अच्छी तरह जानते ही हैं। निस्सन्देह इन्हीं सब जुल्मों के भंडाफोड़ और बिहार प्रान्तीय किसान सभा के निरन्तर आन्दोलन ने सरकार को विवश किया है कि वह जमींदारों को भविष्य में यह अधिकार न देने की घोषणा करे और जिन्हें यह अधिकार दिया गया है उनसे भी छीन ले। लेकिन आसानी से लगान की वसूली के नाम पर प्रकारान्तर से इस सर्टीफीकेट का असली जहरीला अंश सभी जमींदारों को देने की कोशिश हो रही है और कानून बनने जा रहा है। यह जानकर किस किसान और किसान हितैषी को मर्मान्तक वेदना न होगी? हम इस चीज को बर्दाश्त नहीं कर सकते। हम साफ पूछना चाहते हैं कि लगान की आसानी से वसूली (Spedy realization) के नाम पर जो कुछ संशोधन किया जाता है वह सर्टीफीकेट का असली खतरनाक हिस्सा नहीं है तो और क्या? खास मुंसिफ रहेगा। सर्टीफीकेट आफिस की जगह। एक महीने की नोटिस ठीक वैसी ही देगा। नोटिस की तामील का तरीका वही पुराना होगा और किसान को पता लगाया न लगा क्योंकि मुंसिफ के केसों में अकसर नहीं लगता और डिक्री तथा तीन महीने के भीतर वारा-न्यारा हो जाएगा। किसी भी हालत में 6 महीने से ज्यादा समय नहीं लग सकता। बिना पूरी रकम जमा किए नोटिस न मिलने का उज्र सुना न जाएगा। ये सब बातें आए कानून में डाल दी गई तो फिर सर्टीफीकेट का क्या बचा रहेगा? यदि ऐसा हुआ तो किसानों को इसके विरोध में प्राणपण से कोशिश करनी होगी। हमें तो अभी सजग हो जाना चाहिए कि ऐसा होने ही न पाए। नहीं तो किसान खत्म हो जाएँगे। बकाश्त जमीन का प्रश्न भी टेढ़ा है। असल में इसके बारे में जमींदारों ने हमेशा बेईमानी और धोखेबाजी से काम लिया है और आज भी उससे बाज आना नहीं चाहते। बिहार काश्तकारी कानून की 20, 21 धाराओं के पढ़ने से, जो पहले से ही बनी हैं, साफ मालूम होता है कि किसी भी मौजे में लगातार 12 वर्ष तक जिसके परिवार में खेती होती रहे और वह खेती चाहे एक ही खेत में होती हो या अनेक खेतों में और चाहे हर साल वह खेत बदलते ही क्यों न रहते हों, वह किसान सेटल्ड (Settled) रैयत कहा जाता है और जो बकाश्त उसे जोतने को दी गई वह फौरन उसकी हो गई जिससे वह बेदखल किया नहीं जा सकता जब तक उसका लगान देता रहे। 99 फीसदी बकाश्त जमीनें ऐसी ही हैं और उन पर किसानों का मौसमी हक हो गया है। मगर जमींदार इस बात का कोई कागजी सबूत किसान के पास रहने नहीं देता और मौके पर इनकार कर देता है कि हमने वह जमीन किसान को नहीं दी है, हम स्वयं जोतते हैं ऐसा झूठा दावा करता है और जाल फरेब से उस जगह सफल भी हो जाता है। जब तक किसानों का पूरा संगठन न हो और अपने हक पर वे मरने-मिटने को तैयार न हो जाएँ यह बात बराबर होती ही रहेगी, इसका दूसरा उपाय नहीं है। कानून कुछ नहीं कर सकता। वह भी तो धन और शक्ति का ही साथी है, उसी का मददगार है। आज बकाश्त जमीन लौटाने के नाम पर जो समझौता कांग्रेस के नाम पर हुआ बताया जाता है उसका मतलब यदि पूर्वोक्त बकाश्त जमीनों के लौटाने से है तो उसमें सरासर धोखा है। क्योंकि वह जमीनें तो कानूनन किसानों की ही हैं। फिर उन्हें किसानों को लौटाने की क्या बात? और उन्हीं के लिए पुरानी डिक्री का आधा रुपया किसान क्यों देने लगे? यदि यह समझौता दूसरी बकाश्त जमीनों के बारे में है जो 1929 और 1936 के बीच नीलाम हुई हैं जो आठ या दस हजार या ज्यादा सालाना आमदनी वाले जमींदारों के पास हैं और जिन्हें उन्होंने ता. 22.3.38 तक किसी के साथ पक्का बन्दोबस्त नहीं किया है सो भी सिर्फ वही जमीनें जिन पर इज़ाफा हुआ था या जिनका अवली से नगदी हुई थी तो हमारा फिर भी यही कहना है कि इसमें भी वही धोखा है। एक तो थोड़े से ही बड़े जमींदारों की थोड़ी सी ऐसी जमीनें हैं जो भी उन्होंने प्राय: सभी को दूसरों के हाथ पहले ही बन्दोबस्त कर दिया है। फिर कानून बताने की जरूरत क्यों की ? इस दि-दोरे से क्या लाभ कि बकाश्त जमीन लौटाई जाएगी ? यदि कानून ही बनाना है तो ऐसा बनाइए कि सर्वे के बाद से लेकर आज तक छोटे-बड़े सभी जमींदारों ने बकाया लगान में जो जमीनें नीलाम इस्तीफा वैनामे के जरिए बकाश्त बना ली हैं सभी वापस मिल आएँ। नहीं तो रहने दीजिए। चार काम करने होंगे यही तो संक्षेप में किसानों के मुख्य-मुख्य तात्कालिक प्रश्न हैं और इन्हीं के साथ किसान मजदूर राज्य या असली राज्य का प्रश्न लगा हुआ है। यदि हम इनका हल करने में मुस्तैदी से लग जाएँ तो हमारी मुसीबतें भाग जाएँ और किसान सुखी हो जाएँ। मगर मुस्तैदी से लगने का अर्थ क्या है यह समझ लेना चाहिए। हमें इसके लिए किसान सभा का जबर्दस्त संगठन करना होगा। और गाँव से लेकर प्रान्त तक जोरदार किसान सभाओं का ताँता बना देना होगा। जो सोता है वह लुट जाता है और जगने वाले को लूटना आसान काम नहीं है। हमें अपने जागरण का सबूत देना होगा। मुर्दे को या तो जलाते या गाड़ देते हैं। हमारी भी हालत अब तक यही रही है। हमारे शत्रु हमें सदा जलाने और गाड़ने की कोशिश वंश-परम्परा से करते आए हैं नहीं, नहीं उन्होंने हमें जलाया और गाड़ दिया है। फिर भी आश्चर्य है कि हम न जाने कैसे अब तक बचे हैं। असल में उन्हें हमारी जरूरत है। बिना हमारे उनका काम चल नहीं सकता। हमीं तो बासमती, गेहूँ, घी, दूध, मलाई उपजाते हैं और वे खाते हैं। हमीं तो उनकी शारीरिक सेवा, नौकर-चाकर के रूप में करते हैं यदि हम न रहें तो वे बिना मौत मर जाएँ। इसीलिए मरैं न मीताय के अनुसार हमें किसी प्रकार उन्होंने जिन्दा रखा है। लेकिन आखिर हमारा क्या फर्ज है क्या यों ही नारकीय जीवन बिताते रहें और मुर्दा बने रहें? नहीं हमें जिन्दा होने का सबूत देकर इस नारकीय जीवन को मिटाकर इसे सुखमय जीवन बनाना चाहिए। मगर इसके लिए रास्ता क्या है। जिनका स्वार्थ हमारे स्वार्थ से विपरीत है वे हमें कदापि करने न देंगे। वे पहले से ही काफी चतुर और संगठित हैं। अतएव सफलतापूर्वक उनका मुकाबला करने के लिए हमें चतुर और संगठित बनना पड़ेगा। दूसरा मार्ग है ही नहीं। यही है किसान सभा का रहस्य बिना इसके जमींदारों का मुकाबला कर नहीं सकते। हमें गोल-मोल बातों में न पड़ श्रेणीगत स्वार्थ (Class interest) के आधार पर अपना सुदृढ़ संगठन बनाना होगा। हमें मोर्चेबन्दी करनी होगी। इसके विपरीत जो बोले वह तो हमारा शत्रु होगा या शत्रुओं का दोस्त और मददगार। उसकी बात में भूलकर भी न पड़ना होगा। हमें व्रत लेना होगा कि किसान संगठन को सुदृढ़ बनाकर ही हम दम लेंगे। फिर सारी बाधाएँ विलीन हो जाएँगी। दृढ़ संकल्प और अध्यानयवसाय के सामने बाधाएँ टिक नहीं सकती हैं; पहाड़ भी पिघल जाते हैं, यही कर्मयोगियों का सनातन अनुभवहै। इस संगठन के दौरान हमें चार काम उठकर करने होंगे। (1) किसान सभा के लाखों मेम्बर हर जिले में बनाने होंगे। कोशिश यह होगी कि हर बालिग मर्द और औरत किसान सभा के मेम्बर बन जाएँ। कम से कम हर थाने में 20-25 मेम्बर बनें और इस प्रकार किसान सभा का मेम्बरी का रजिस्टर पहाड़ा की तरह शत्रुओं का डरावना प्रतीत हो और वे ठंडे पड़ जाए। जो मेम्बर होंगे और एक आना पैसा साल में देंगे उन्हें समाज से ममता होगी, घनिष्ठता होगी जिससे सभा की ताकत बढ़ेगी। (2) किसान सेवक दल कायम करना होगा। हर आने में ढाई सौ सुशिक्षित किसान सेवकों का दल बनना चाहिए जिनका काम हो कि गाँवों में चक्कर लगाते रहें और पहरा दें। उन्हें देखकर किसानों में हिम्मत होगी और दुश्मन दहल जाएँगे। सेवक दल के बिन किसान सभा का जोरदार काम बाकायदे चल नहीं सकता। (3) किसान कोष का संग्रह करना होगा। आखिर इन किसान सेवकों को खिलाना-पिलाना और कपड़ा-लत्ता देना ही होगा। उनके रहने का प्रबन्ध भी करना होगा। घर में खाकर यह काम भाड़े पर कब तक चलेगा? किसान सभा का ऑफिस भी चलाना होगा ठिकाने से और यह बिना धान के हो नहीं सकता। इसलिए हर किसान का फर्ज है विवाह, श्राद्ध, उपनयन, खेत, खलिहान हर मौके पर इस कोष के लिए कुछ न कुछ निकाले और किसान सभा में दे। (4) 'जनता' का घर-घर और गाँव-गाँव प्रचार करना होगा। बहुत सी पत्र-पत्रिकाएँ हैं और उनमें किसानों की बातें भी पाई जाती हैं। मगर 'जनता' किसानों की अपनी है। यह बेमुरव्वत होकर बेलाग किसानों की बातें लिखती और उनके लिए पग-पग पर युद्ध करती है इसीलिए इसका जन्म हुआ है। इसमें किसानों का दर्द है, उनकी आह है, उनकी चीख है, और सभी से ऋण पाने का मन्त्रा और उपाय भी इसके पन्ने-पन्ने में है। अतएव हमें प्रण लेना चाहिए कि इसके लाखों ग्राहक बनाकर ही दम लेंगे और आप तथा दुनिया साश्चर्य नेत्रों से देखेगी कि आप कहाँ से कहाँ जा बढ़े आपकी मुसीबतें न जाने कहाँ भाग गईं। श्रेणी युद्ध और खयाली खतरे लेकिन यहाँ पर हमारे अनेक दोस्त चौंक पड़ते हैं और कहते हैं कि यह तो श्रेणी युद्ध की तैयारी हो रही है। जिसमें हिंसा ही हिंसा है। साथ ही किसान सभा में कांग्रेस का समानान्तर या मुकाबले की संस्था बन रही है या बन जाएगी और इस प्रकार आजादी की लड़ाई में बाधा होगी। लेकिन उन्हें समझ लेना चाहिए कि आजादी की सबसे ज्यादा जरूरत किसानों को ही है क्योंकि उनके लिए इस आजादी के साथ रोटी और कपड़े का जीवन-मरण का प्रश्न लगा हुआ है। यह बात जमींदार और मालदार के साथ नहीं है। उनके लिए आजादी का प्रश्न या तो कौतूहल की चीज है या अपने शोषण को और भी पक्का और वैज्ञानिक बनाने का साधान है। फिर कोई भी किसान या उसका सच्चा हितैषी उस आजादी के संग्राम में बाधा पहुँचाने की बात सोचकर या काम करके अपने पाँव में कुल्हाड़ी क्यों मारेगा? यदि किसान सभा के कार्यकर्ता सच्चे किसान हितैषी नहीं हैं तो जो ऐसे हों वही यह काम क्यों नहीं चलाते? न तो स्वयं करना न दूसरे को करने देना यह तो बेजा बात है। रह गई श्रेणीयुद्ध की बात। हमें उसकी तैयारी क्या? वह तो सदा से जारी है। अन्तर यही है कि धनिक श्रेणी अब तक असहाय असंख्य कमाने वाली है पर निष्ठुर आक्रमण करती रही है और किसी ने चूँ तक नहीं की। पर ज्यों ही ये कमाने वाले उस आक्रमण को रोकने की तैयारी करने लगे कि श्रेणी युद्ध का बावेला मच गया। यह तो बेईमानी और पक्षपात है, ठीक ही है कि 'हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम। वह कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती।' आखिर जमींदारों और पूँजीपतियों की संगठित लूट श्रेणीयुद्ध नहीं है तो है क्या? क्या यह गरीबों की पूजा प्रतिष्ठा है? श्रेणियों और उनके स्वार्थों को सुनकर भी श्रेणीयुद्ध से ऑंख मूँदना 'गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज, करना है। हमारे देश या दुनिया में जमींदार किसान आदि श्रेणियों से कौन इनकार कर सकता है और उनके स्वार्थ परस्पर विरोधी हैं यह ठोस सत्य है। इजीफा हटे, लगान घटे, बाकी रद्द हो, बेगार जार जुल्म हटे तो किसान का हित है। मगर जमींदार छाती पीटता है और उसका स्वार्थ ही उलटा है। फिर तो विरोधी स्वार्थों का संघर्ष होगा ही और यही श्रेणी युद्ध या वर्ग युद्ध। जमींदार और पूँजी मिटा दीजिए और यह युद्ध स्वयं खत्म हो जाएगा। लेकिन इन चीजों को रखके वर्ग युद्ध मिटाने की बात मनोराज्य मात्र है। हिंसा का भूत सर्वत्र देखनेवालों की बुध्दि पर हमें तरस आता है। जो लोग अहिंसा के बड़े पुजारी बने हैं क्या वे आत्मरक्षा के कानूनी और नैतिक हक को छोड़कर अपनी और अपनी जान-माल की रक्षा कर सकते हैं? यदि उनका पड़ोसी हमला करे और लूटपाट मचा दे तो क्या आत्मरक्षा में वे बल प्रयोग न करेंगे, कहना आसान है, करना असम्भव है। तो आखिर किसानों का संगठन क्या है? सिवाय दुश्मनों की संगठित हिंसा के विपरीत अपनी रक्षा की तैयारी के? समानान्तर या मुकाबले की संस्था होने का भूत बराबर देखने से काम न चलेगा। किसने 1885 में सोचा था कि कांग्रेस साम्राज्यशाही से सफलतापूर्वक मिलेगी और इसका अन्त करने पर तुल जाएगी? भविष्यवक्ता बनना बड़ा खतरनाक काम है खासकर राजनीति में किसी बात का बार-बार याद दिलाना और उसी के आधार पर तानाजनी करना भी बुरा है। इसी तानाजनी ने रूस के किसानों और मजदूरों को बोल्शेविक बनाया, जबकि वे जानते तक न थे कि बोल्शेविक या बोल्शेविज्म कौन चिड़िया है। समानान्तर होने के खतरे को रोकने का उपाय किसान सभा का विरोध नहीं है, किन्तु एक ओर कांग्रेस के तपे-तपाए सिपाही किसान सभा की बागडोर अपने हाथ में लें और दूसरी ओर किसानों की माँगों का बेखटके और बेमुरव्वत होके कांग्रेस समर्थन करे सक्रिय रूप से। यदि इतने पर भी मुकाबले का डर हो तब तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ और कसर है। यदि सामूहिक रूप से कांग्रेस पके-पकाए कार्यकर्ता, किसान सभा में रह के भी यह बात रोक नहीं सकते तब तो मानना पड़ेगा कि यह अवश्यम्भावी और जरूरी चीज है और इसकी कोई दवा नहीं। बल्कि विरोध करने पर ही इसका ज्यादा खतरा है। असल बात है कि इधर हम तो किसानों की पीड़ाओं को दूर तक पहुँचाने और सुनाने की कोशिश करते हैं और उधर राजनीतिक गुत्थियों की ओट में हमारी पुकार बन्द करने की कोशिश की जाती है और खतरे की यह बनावटी घंटी बताई जाती है। उधर राजनीति सूझती है, इधार प्राणों पर आ बनी है। 'इधर अठखेलियाँ सूझीं, हम बेजार बैठे हैं' मालूम होता है। हमारी किसानों की वेदनाओं की भनक उन तक नहीं है। नहीं तो ये दलीलें कभी न उठतीं। कालिक पेन (भीषण दर्द) जिसके पेट में हो वह तर्क दलीलें नहीं सुनता, किन्तु चीखता जाता है जब तक दर्द बन्द न हो। उसके लिए तो एक ही दलील है कि वह दर्द खत्म किया जाए। यदि उसकी आहोजारी से, चीख से आपके काम में बाधा पड़ती है, तो बला से, उसके प्राणों की भी तो बाजी उधार लगी है। वह तो अपने वश में भी नहीं, उस दर्द का बन्दी है। फिर आपकी क्यों सुनने लगा? आपका यह सुनाना भी किस अक्ल की बात है? खेद है कि आप उसकी स्थिति में नहीं? अतएव उसी की व्यथा को समझ नहीं सकते, अनुभव कर नहीं सकते। नहीं तो इस चीख पुकार की यों निन्दा भर्त्सना नहीं करते। यह तो वही बात हुई कि हम सुनाते हैं दर्दे दिल अपना वे समझते हैं दिल्लगी दिल की हमें इन बातों और तर्क दलीलों की परवाह न करके आगे बढ़ने के लिए कमर कस के विश्वास के साथ अग्रसर होना चाहिए। जिस सिपाही को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अटल विश्वास नहीं वह कदापि विजयी नहीं हो सकता। इस विश्वास में अपार शक्ति है। हम इस शक्ति के बल पर सीना खोल के डटे तो विजयी होंगे जरूर। शर्त यही है कि हम भी कवि के शब्दों में जपते रहें किµ कह दे कोई धनवानों से हम भी दुनिया में रहते हैं। वे मौज करें हम घुल-घुल के दिन-रात मुसीबत सहते हैं॥ इन्कलाब
जिन्दाबाद (1938)
राजनीति और गाँधीवाद इतिहास इस बात का साक्षी है कि जनता का, कमानेवालों का, श्रमजीवियों का किसानों और मजदूरों का शोषण और उत्पीड़न बहुत पुराने जमाने से चला आ रहा है। चाहे रामराज्य की बात लें या रावणराज्य की, धर्मराज्य या कंसराज्य की, यह बात कभी बन्द नहीं हुई। मुसलमानी राजत्वकाल को देखें या उससे पहले नजर डालें, यह चीज हमें बराबर मिलेगी। भारत में ही नहीं, इसके बाहर भी सर्वत्र यही हाल रहा है। यह बात दूसरी है कि वह उत्पीड़न कभी बहुत प्रचंड और बीभत्स रहा हो और कभी जरा दबा-सा। यह तो शोषकों और शासकों की मनोवृत्ति मात्रा का परिचायक है कि वे चतुर या काइयाँ थे या सीधो प्रहार करने वाले तथा लट्ठ मारनेवाले। लेकिन इतने से शोषण और उत्पीड़न के मूल रूप में कोई परिवर्तन नहीं हो गया। जब तक दूसरों की कमाई का उपभोग गैर लोग किसी भी प्रकार करते रहें, ऐसा करने की उन्हें न केवल स्वतन्त्राता ही हो, वरन् यह उनका अधिाकार माना जाता हो और जब तक इसी सिध्दांत के आधार पर देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था का निर्माण हो तब तक शोषण के खात्मे की बात भी कैसे उठ सकती है? राजा, महाराजा, सरदार, शासक, व्यवस्थापक, धार्माचार्य, पंडित, पुजारी, साधु, फकीर, औलिया, मौलवी, देवता, ईश्वर बनकर दूसरों की कमाई की हिस्सेदारी कुछ लोग भी करेंगे, तब तक शोषण रहेगा ही। यदि ये सब न भी दीख पड़े तो भी एतन्मूलक सामाजिक व्यवस्था के चलते यह बात जारी रहेगी ही। हमारी कमाई बिना हमारी स्वच्छन्द और विस्पष्ट सम्मति के कोई भी ले ले और उसे खर्च भी बिना हमारी वैसी राय के ही करे और इतने पर भी कहा जाए कि यह उत्पीड़न नहीं, शोषण नहीं, जुल्म नहीं तो यह सरासर अनर्गल बात होगी। कारण, शोषण की दूसरी परिभाषा है नहीं। वास्तव में इसकी भ्रामक परिभाषा करके ही लोग स्वयं धोखे में पड़ते और दूसरों को भी डालते हैं। किसकी कमाई कितनी है और एक रोगी मनुष्य जब कतई काम न करके या बहुत थोड़ा करके औरों की अपेक्षा अधिक पदार्थ लेता है तो औरों की कमाई का अपहरण करता है या नहीं, इत्यादि प्रश्नों का निर्णय असाधारण रूप से किया जाएगा। यह माना जाएगा कि स्वस्थावस्था में ही काम करके रुग्णावस्था में हर आदमी आवश्यक पदार्थों का अधिाकारी है, और इससे वह दूसरों के श्रम का अपहारक नहीं। कारण, यह बात तो समाज में आगे-पीछे सभी पर लागू होती ही है। यह भी ठीक है कि काम की तौल सामर्थ्य के तराजू पर होती है। यही कारण है कि महाभारत वाले चार दिन के भूखे ब्राह्मण का पाव-भर सत्तू का, जो उसका सर्वस्व था, दान कर्ण के लाखों मन सोने के दान से कहीं बढ़ गया। अतएव स्थूल रीति से तो यही मानना होगा कि जितना हम कर सकते हों उतना ही ईमानदारी से करें और जितनी हमारी वास्तविक आवश्यकता हो उसकी पूर्ति नेकनीयती से करें तो हम शोषण और उत्पीड़न के अपराधी न होंगे। ऐसी हालत में यह निख्रववाद है कि जनता का उत्पीड़न आज तक कभी बंद न हुआ, खत्म न हुआ। प्रत्युत अधिाकांश श्रमजीवियों का अपहरण भीषण रूप से सदा होता रहा है। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े आदि की परंपरागत व्यवस्था के प्रचलित रहने पर दूसरी बात हो भी नहीं सकती थी। 'ऊँच' का व्यावहारिक अर्थ ही है सबसे बड़ा हृदयहीन शोषक और 'नीच' का सबसे बड़ा शोषित। और यह भी निख्रववाद है कि इस शोषण का खात्मा ही राजनीति का निचोड़ और असली अर्थ जनता के लिए है। अब प्रश्न यह है कि यह शोषण मिटा क्यों नहीं? इसको मिटा डालने की कोशिश अब तक क्यों न की गई? और अगर की गई तो उसमें सफलता क्यों न मिली? लोगों ने इस भयंकर शोषण को अब तक बर्दाश्त क्यों किया? कहने के लिए सत्युग और त्रोता की बातें की जाती हैं लेकिन आज कलयुग में इसे खत्म करने का जो भगीरथ प्रयत्न संसारव्यापी रूप में हो रहा है, वह उन युगों में क्यों न हुआ? इन प्रश्नों के उत्तर सभी लोग अपनी-अपनी अभिरुचि और योग्यता के अनुसार विभिन्न रूपों में देंगे, परन्तु उत्तार देने की चेष्टा करने के पूर्व देखना चाहिए कि किसी पदार्थ को मिटा देने के लिए जरूरी चीज क्या है? मिटा देने की शक्ति तो जनता में है; लेकिन उस प्रसुप्त एवं कार्याक्षम शक्ति को जाग्रत तथा कार्यशील बनाने के लिए कौन-सी बात नितान्त अपेक्षित है? असल में किसी चीज के मिटाने के दो अर्थ माने जाते हैं, एक तो उसे रूपान्तरित कर देना, दूसरे उसे उच्छिन्न या निर्मूल कर देना। दोनों के ही लिए विरोधा में प्रचंड आन्दोलन और भारी संघर्ष अपेक्षित है। इसी से वह शक्ति जाग्रत और कार्यशील होती है। रूपान्तरित करने में यही संघर्ष कभी-कभी क्रान्ति का रूप धारण कर लेता है; लेकिन वह क्रान्ति या उसकी मनोवृत्ति चिरस्थायी और दृढ़ नहीं होती। वह अमिट प्रभाव के रूप में निरंतर कायम नहीं रहती, कुछ समय बाद विलीन हो जाती है। लेकिन मटियामेट या उच्छिन्न करने के लिए तो एकमात्र क्रान्ति ही उपाय है वह क्रान्ति जो अमर होकर बनी रहे और जब तक उच्छेद न हो जाए, उसका प्रवाह जारी रहे। अमिट क्रान्ति की यह प्रचंड ज्वाला उसे मिटाकर छोड़ती है। फ्रांस आदि देशों में पहले प्रकार की क्रान्ति हुई। फलत:शोषण का पूर्वरूप बदल कर नया बन गया। परन्तु रूस में दूसरे प्रकार की अमर क्रान्ति ने उस शोषण के मिटाने का बीड़ा उठा लिया है। और जब तक अपना काम न कर ले वह मिटने वाली नहीं। बस,इसी प्रकार की अमर क्रान्ति उत्पीड़न का उच्छेद करती है और इसे लाने के लिए शोषण या इसे जन्म देने वाली व्यवस्था के प्रति हमें तीव्र रोष और ज्वलन्त असन्तोष होना नितान्त आवश्यक है ऐसा असन्तोष,जो काम किए बिना मिट न सके और जो बराबर धक्-धक् प्रज्वलित रहे। यदि आज हम ब्रिटिश राज्य को भारत से मिटा देने पर तुले हैं तो केवल इसलिए कि हमें उसके प्रति भयंकर और अमिट असन्तोष है। इसी में संघर्ष के जरिए इनमें वह शक्ति जाग्रत की है,या नहीं ऐसा कर रहा है जिससे क्रान्ति हो और वर्तमान व्यवस्था टूटे। यदि हमारा यही प्रचंड असन्तोष शोषण के प्रति न रहा,तो विदेशी शोषण और शासन मिटाकर उसका स्थान स्वदेशी शोषण और शासन ले लेगा और व्यवहारत:श्रमजीवी जनता जहाँ की तहाँ ही रह जाएगी, जैसी की तैसी ही रह जाएगी। इसी प्रकार यदि यही असन्तोष आज से पूर्व इस सनातन शोषण और उत्पीड़न के प्रति जनता में उत्पन्न हुआ होता तो यह शोषण कभी का मिट गया होता। खेद तो यही है कि आज भी सामूहिक रूप से हमारा जनता का घोर असन्तोष इस विदेशी शासन के प्रति जितना है उतना शोषण के प्रति नहीं है। हम यह समझते ही नहीं कि यदि यह शासन बुरा है तो इसीलिए कि वह हमारा भयंकर शोषण करता है। फलत: वास्तव में यह शोषण ही बुरा है, फिर चाहे स्वदेशी हो या विदेशी। जब इस समय यह दशा है तो पूर्व का कहना ही क्या?हमने इस असन्तोष को वैसा नहीं बनाया तो विदेशी शासन के हटने पर भी अमेरिका आदि की तरह जनता का शोषण जारी ही रहेगा। खेद तो यह है कि यदि असन्तोष की यह भावना जनता में भरने की कोशिश की जाती है तो हिंसावाद की दोहाई देकर बड़ा बावेला मचाया जाता है। हमें पता ही नहीं चलता कि हमारा लक्ष्य अहिंसा है या शोषण का खात्मा। हम यह भी समझने में असमर्थ हैं कि शोषण विदेशी ही हुआ करता है, स्वदेशी नहीं। और अगर दूसरों की कमाई पर मौज मारने वाले ही शोषण करते हैं तो फिर इसी श्रेणी में आनेवाले स्वदेशी सेठ-साहूकारों, पूँजीपतियों तथा जमींदारों से शोषितों की मैत्री कैसी? मेल कैसा? इसकी बात या चर्चा भी कैसी? यदि इनका शोषण इस मेल से ही मिट सकता है तो फिर अंग्रेजों का क्यों न मिटेगा कि उनके साथ हम लड़ाई करें? शोषण् की प्रणाली तो जैसी उनकी, वैसी इनकी जैसी स्वदेशी, वैसी विदेशी। अब देखना यह है कि जनता में क्रान्ति का भाव पैदा करनेवाला यह ज्वलंत असन्तोष शोषण के प्रति पहले क्यों न हुआ? आज भी उसके होने में क्या बाधाएँ हैं और रूस में वह क्यों हुआ ? हमारे विचार से तो इसका एक ही कारण है, और वह है धर्म का प्रभाव। यों तो कहा जाता है कि धार्म की खोज और उसकी उत्पत्ति आत्मा की भूख की शान्ति के लिए ही हुई। प्रारंभ में जब इसका इतना विस्तार न था तब चाहे यह बात रही भी हो, और आज भी अपवाद स्वरूप कुछ गिने-चुने लोगों के लिए वह सच हो सकती है। फिर भी सामूहिक रूप से जो उसका विस्तृत प्रचार आज हो गया है, या पहले भी हुआ था और जो उसका व्यावहारिक रूप तथा प्रयोग हमें देखने को मिला और मिल रहा है, वह तो यही बटाटा है कि जनसाधारण के असन्तोष को, जिसका सनातन शोषण के प्रति समय-समय पर होना स्वाभाविक है, कुंठित और ठंडा करने के ही लिए सार्वजनिक रूप में उसकी सृष्टि हुई है। इसका तो काम ही है शोषण को पूर्ववत् जारी ही नहीं रखना, प्रत्युत उसका प्रसार करना। 'मनुष्याणां सहेषु कश्चिद् यतति सिद्धये, यततामपि सिध्दानां कश्चिन्मां वेत्तिा तत्तवत:'गीता के इस वचन से तो सिद्ध हो जाता है कि धर्म की बात जो अध्यानयात्मवाद या आत्मा की बुभुक्षा की शान्ति के लिए मानी गई है वह लाखों में एकाध के लिए, यानी अपवाद-स्वरूप है, नियम रूप नहीं है। धर्म का नियमित रूप से प्रसार के लिए है इसीलिए उसने असन्तोष को मिट्टी में मिलाने की भरपूर कोशिश की है। आखिर जिसे आत्मा के लिए इतना आवश्यक माना गया, वह अनायास सार्वजनिक क्यों हो गया? क्यों ऐसा बना दिया गया? सर्वसाधारण् तो आत्मा को समझते ही नहीं, फिर उसकी भूख को वे क्या समझें? मोती, हीरे जैसा अमूल्य एवं जनसाधारण की पहुँच के बाहर की वस्तु जो यह अध्यानयात्मवाद या ईश्वर है वह कुंजड़े या पंसारी की दुकान पर क्यों बिकने लगा और जनसाधारण उसके ग्राहक क्यों बनाए गए? धर्म की तो यह प्रवृत्तिा है कि वह झट सार्वजनिक और व्यापक बन जाता है, उससे तो उसकी 'भेड़ी-मुंडन' वाली प्रवृत्तिा का पता लगता है। जनसाधारण को धर्म के नाम पर जो ही सिखाया जाता है, वह उसे ही मानने लगते हैं। लौकिक या व्यावहारिक बातों के जरिए उन्हें इस प्रकार मूँडा नहीं जा सकता। यम-नियम धर्म के स्तम्भ माने जाते हैं और इनमें सन्तोष का स्थान प्रमुख है और सत्य और अहिंसा का भी। होता यह है कि बार-बार सन्तोष की बूटी पिलाकर जनता के बढ़ते हुए असन्तोष को खत्म कर दिया जाता है। पूर्वजन्म की कमाई, ईश्वर की मर्जी, प्रारब्धा और तकदीर की बातµये सभी चीजें बाल्यावस्था से ही और वेश, परम्परा से भी जनता की नाड़ियों में, दिल-दिमाग में भर दी जाती हैं। फिर असन्तोष की अग्नि भड़के तो कैसे? वह शोषण को मिटा देने को बेचैन और बावली हो तो कैसे? तकदीर में लिखा होगा तो हो ही जाएगा, नहीं तो लाख करो कुछ न होगा यह मंत्र सारी आशाओं पर पानी फेर देता है और संघर्ष का मौका आने ही नहीं देता।
¹गीता-7/4 सम्पादक देवताओं तथा सन्तजनों के आशीर्वाद से ही सबकुछ होगा यह मनोवृत्ति बगावत का माद्दा पैदा होने ही नहीं देती। जब हम मानते हैं कि शोषक वर्ग अपने कर्मों का फल भोग रहा है और हम भी वही भोग रहे हैं तो फिर उसके प्रति असन्तोष कैसे हो? कहाँ से हो? जनता को बताया जाता है कि यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था कर्मों के अनुसार ही है, अतएव सच्ची है, इसके विपरीत चलना या इसे मिटाना पाप है, हिंसा है, असत्य है तो फिर वह क्या करे? और शोषक लोग तो दिन-रात सत्य एवं अहिंसा का गला घोंटते ही रहते हैं। उसकी इस हरकत के लिए एक ढाल धर्म ने ही निकाली है और बतलाया है कि राजनीति में यह बातें पाप नहीं, बुरी नहीं। हुआ तो पीछे से कुछ दान-पुण्य करवा दिया! बस, चलो छुट्टी। गरीब के लिए एक तो राजनीति है ही नहीं, दूसरे पैसा उसके पास कहाँ कि दान-पुण्य करे? चाहे और बातों में भले ही मतभेद हो, लेकिन इन सभी पूर्वोक्त बातों में सभी धर्म एकमत हैं, यह महान आश्चर्य है और इससे एकमात्र निष्पत्ति यह निकलती है कि धर्म का काम ही है जनता की क्रान्ति को रोक देना, सांसारिक बातों में भाग्य या ईश्वर जैसे पदार्थों को ला देना और परिस्थिति को और भी जटिल बना देना। दृश्य वस्तुओं को अदृश्य क्रोड़ में डालना न केवल रहस्यमय है, किन्तु बुध्दिभेद उत्पन्न करके जनता को जानबूझ कर किंकर्तव्यविमूढ़ बना देने का अपराधी बनना है।
(2) राजनीति में गाँधीवाद का आधार वही धर्म है। इसीलिए हम इसके विरोधी हैं। अध्यानयात्म या पारलौकिक प्रश्नों में यदि उस बात को स्थान मिले तो हमें कुछ कहना नहीं है लेकिन राजनीति में उससे खतरा है। गाँधीवाद के मुख्य स्तम्भ तो यम-नियम ही हैं और यह पहले ही बताया जा चुका है कि यम-नियम, सन्तोष आदि ऐसे पदार्थ हैं जो क्रान्ति की अग्नि को सुलगने नहीं दे सकते। उनमें अपरिग्रह भी एक चीज है जिसके मानने का सीधा अर्थ है कि हम सम्पत्तिा से अपने को विमुख कर लें और उसे नाचीज समझें। यदि हमें अपनी दशा से सन्तोष हो और सम्पत्ति रखना पाप हो तो फिर शोषण से मुक्ति पाने का क्या प्रश्न है? इसकी जरूरत क्या? इन संतोष, अपरिग्रह आदि को धार्मिक बुध्दि से मानने का तो मतलब यही होता है कि हम इन्हें छोड़ नहीं सकते, चाहे जो हो। कारण, व्यासजी कहते हैं कि 'न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धार्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतो:' धार्म को किसी पदार्थ के लिए, यहाँ तक कि प्राणों के लिए भी न छोड़ो। ये बातें यदि नीति के लिए होतीं तो और बात थी क्योंकि नीति का तो त्याग हो सकता है, लेकिन गाँधीवाद तो इन्हें सिध्दान्त के रूप में मानता है। फलत: इनका त्याग असम्भव है और इस त्याग के बिना ज्वलन्त असन्तोष होगा कहाँ जिससे शोषण के विरुद्ध जेहाद बोला जा सके? यही नहीं, गाँधी जी तो स्पष्ट कहते हैं कि हिंसा और असत्य द्वारा स्वराज्य मिलने पर वे उसे त्याग देंगे ऐसा स्वराज्य वे नहीं चाहते। इसका तो सीधा अर्थ है कि उनका मुख्य ध्यानयेय अहिंसा और सत्य है, स्वराज्य तो उसके बाद की चीज है। लेकिन जनता के लिए तो स्वराज्य ही वास्तविक ध्यानयेय है, वह अहिंसा और सत्य की फिक्र नहीं करते। फलस्वरूप जनता और गाँधीजी स्वराज्य के मामले में भी हो विपरीत मार्गावलम्बी हैं। ऐसी हालत में गाँधीवाद को राजनीति में प्रश्रय देने का सीधा अर्थ होगा कि जनता भी सत्य और अहिंसा को ही अपना चरम लक्ष्य बनाए परन्तु यह तो असम्भव है। राष्ट्रीय महासभा ने भी इन दोनों को केवल नीति के स्वरूप में ही स्वीकार किया है। गाँधीवाद के द्वारा इस बात को बदलने की कोशिश असम्भव को सम्भव करने की ही कोशिश मानी जाएगी। यदि हम किसी भी प्रकार अपने लक्ष्य तक पहुँच जाएँ तो केवल इसलिए वहाँ से लौटने का यत्न न करेंगे कि जाने का सस्ता अमुक के स्थान पर अमुक था। यह तो साधान को साध्यानय और साध्यानय को साधान मान लेने की भारी भूल होगी। मार्ग तो आखिर साधान ही है न! भूख में भात मिला तो खाएँगे, न कि कहाँ से, कैसे मिला, यह देखने को रुकेंगे। एक और भी आपत्ति गाँधीवाद के राजनीतिक प्रयोग में है। यह वाद तो आदर्शवाद है, Idealistic है, इसमें व्यावहारिकता पर मुख्य दृष्टि नहीं। आदर्शवाद का तो मतलब ही है कि व्यावहारिक दृष्टि से दिक्कतों का खयाल करके हम किसी ध्यानयेय से हट न जाएँ प्रत्युत उसके लिए सदा बद्धपरिकर रहें। इस पक्ष में तो सर्वथा अव्यावहारिक वस्तु को ही लक्ष्य मानकर प्रयत्न किया जाता है क्योंकि जो पदार्थ जनता के लिए व्यावहारिक हो जाए वह आदर्श हो नहीं सकता। आदर्शावतारा है जो पथ-प्रदर्शन भले ही करे, परन्तु उस तक जनसाधारण के लिए पहुँचना असम्भव हो। तर्क और युक्ति से हमने उसे जाँच लिया, बस इतना ही काफी है। व्यावहारिकता की कसौटी पर उसका कसा जाना जरूरी नहीं। लेकिन यह आदर्शवाद राजनीति में ठीक नहीं। राजनीति में तो व्यावहारिक बातों के ही बल से हम चल सकते और कायम रह सकते हैं, न कि आदर्शों के बल से। राजनीति का निचोड़ है शोषण का सर्वात्मना अन्त हो जाना, जिसका मोटा अर्थ है अन्न और वस्त्रादि का प्राचुर्य,जिससे किसी को भी जीवनोपयोगी पदार्थों की कमी न हो। यह नितान्त व्यावहारिक चीज है। भूखे को यदि भात मिल जाए या नंगे को वस्त्र तो वह यह न देखेगा कि वह सत्य और अहिंसा के द्वारा मिला या अन्य प्रकार से। वह तो ऑंखें मूँद कर उस पदार्थ का उपयोग करेगा। हाँ,यदि धार्मिक संसार में यह आदर्शवाद चले तो बात ही दूसरी है। वह तो संसार ही आदर्शवाद का है। वहाँ तो कोई बाहरी या व्यावहारिक दुनिया है नहीं कि दिक्कतें हों। वहाँ यदि आदर्श के पीछे चले जा रहे हैं और देर भी होती है तो कोई चिन्ता नहीं, कभी तो लक्ष्य-प्राप्ति होगी ही। लेकिन भूखे या बीमार के साथ यह प्रश्न नहीं, उसे तो भोजन और औषधि फौरन से पेशतर चाहिए। देर हो जाने पर तो मौत ही हो जाएगी। अत: विलम्ब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। धार्मिक दृष्टि से गाय या मस्जिद को खामख्वाह बचा लेना जरूरी नहीं। यदि बचाने में हम मर गए तो यही पर्याप्त है, भले ही वे दोनों बचें या खत्म हों। यही आदर्शवाद की महिमा है। इसीलिए तात्कालिक सफलता वहाँ जरूरी नहीं है। लेकिन राजनीति में तो ठीक उलटी बात है। वहाँ तो शीघ्र से शीघ्र सफलता मिल जाना ही जरूरी हैµस्थूल सफलता की ही प्राप्ति अपेक्षित है। रोटी के लिए तो शुद्ध मन से यत्न करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे प्राप्त कर लेना भी; परन्तु धार्मिक बातों में शुद्ध विचार से काम कर लेना ही अलम् माना जाता है। इसीलिए राजनीति में आदर्शवाद की गुंजाइश नहीं; प्रत्युत इसकी खिचड़ी से उसकी हानि होती है, वह चौपट हो जाती है। चाहे जैसे हो, लक्ष्य-सिध्दि के लिए दृढ़ संकल्प तथा तन्मूलक अध्यानयवसाय इस आदर्शवाद में नहीं रह जाता जो राजनीतिक सफलता के लिए नितान्त अपेक्षित है। एक और भी आपत्ति की जा सकती है। राजनीतिक युद्ध राष्ट्र के जीवन-मरण का युद्ध है। यह कोई निश्चिन्तता की बात नहीं कि आज नहीं तो कल सफलता होगी, इसमें हानि नहीं। धर्म के बारे में तो गीता कहती है कि न तो इसमें अपूर्णता की बात है और न बाधा की गुंजाइश है। इस धार्म का थोड़ा भी आचरण महान भय से मुक्ति दिलाता है 'नेहाभिक्रम नाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते, स्वल्पमप्यस्य धार्मस्य त्रायते महतो भयात्' (गीता 2/40)। और यही गीता का धर्म गाँधीवाद की मूल भित्ति है। परन्तु राजनीति में तो अवस्था ठीक इसके विपरीत है। यहाँ तो अपूर्णता है, सहों बाधाएँ हैं, और थोड़े से काम तो चलता नहीं, प्रत्युत हानि हो जाती है। ऐसी दशा में इस युद्ध को अत्यन्त सतर्कता के साथ चलाना चाहिए और अपूर्णता बाधाओं तथा छिटपुट कामों का जितना ही कम अवसर मिलता हो उतना ही ठीक समझ वैसा ही उद्योग, वैसा ही समारम्भ करना चाहिए। इसका निष्कर्ष यह है कि इस स्वतन्त्राता-संग्राम में ज्यादा से ज्यादा सैनिक सम्मिलित हों। वे अधिक से अधिक कुशल और तत्पर हों और अपने अस्त्रा-शस्त्रा के प्रयोग की उन्हें पूरी जानकारी हो। परन्तु यह बात गाँधीवाद के अनुसार असम्भव है क्योंकि इस मत में तो प्रत्येक युद्ध में हमारा असली अस्त्र सत्य और अहिंसा है। क्षण-क्षण में और तिल-तिल पर जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता और मुद्दों में होती है, ठीक उसी प्रकार गाँधीवाद में सत्य और अहिंसा की जरूरत है। इन दोनों में गड़बड़ी हुई कि जीती-जिताई लड़ाई में भी हम हारे। लेकिन भारी कठिनाई तो इसमें यही है कि सैन्य-संचाल के सिवाय कोई भी इस अस्त्र-शस्त्र का पक्का जानकार नहीं, इसका प्रयोग अत्यर्थ रूप में करना जानता नहीं, तो फिर इन अस्त्रा-शस्त्रों के पूर्ण ज्ञाता प्रचुर सैनिक मिलेंगे कहाँ से? वे तैयार किए जाएँगे कैसे? कितनी चिन्ता की बात है कि सैनिक तो तैयार हैं, लेकिन अस्त्र-शस्त्र तो चलाना जानते नहीं हैं, जिससे या तो पग-पग पर सेनानायक के पास जाकर उन्हें पूछना पड़ता है और इतने पर भी चलने की भूल करते हैं और फटकार सुनते हैं, या फिर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उन्हें बैठ जाना पड़ता है और हार होती है। दूसरी ओर शत् इतना प्रबल और कुशल है कि वह तो असत्य और हिंसा को अपना प्रधान अस्त्र बनाता है और अपना काम सँभालता है। यदि कहनेवाले कहें कि आज तक तो हम बराबर जीत ही रहे हैं, फिर अस्त्रा-शस्त्रा की अनभिज्ञता की चर्चा कैसी? तो हमारा यही निवेदन है कि अब तक का युद्ध गाँधीवाद के आधार पर नहीं चला है, अब तक हमने सत्य और अहिंसा को नीति मात्र मानकर काम किया है, न कि ध्यानयेय मानकर। कारण, गाँधीवाद को कांग्रेस या हमारी राजनीति ने अभी तक अपनाया नहीं है। फिर रह-रहकर कठिनाइयाँ आती गई हैं, लेकिन जब हम इसे अपनी राजनीति का मूलाधार मान लेंगे, जिसकी कोशिश बराबर हो रही है तो परिणाम यही होगा कि हमको स्वतन्त्राता-संग्राम के सैनिक के रूप में इस सत्य और अहिंसा को मूल ध्यानयेय मान लेना पड़ेगा, और हमारे लिए मन, वचन तथा कर्म इन तीनों के द्वारा इन दोनों का पालन करना बाध्यानयतामूलक होगा जो सर्वथा असम्भव है। जब इस बात का दावा अभी तक इसके आचार्य गाँधीजी भी नहीं करते तो औरों का तो कहना ही क्या? दु:ख की बात है कि जब हम राजनीतिक मामलों में गाँधीवाद के प्रसार की बातें और चेष्टाएँ करते हैं तो यह बात भूल जाते हैं कि यह चीज सार्वजनिक रूप से अव्यावहारिक है और ऐसी बातों के लिए आदर्शवादमूलक धार्मिक संसार में ही स्थान होना चाहिए। नीति और ध्यानयेय में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। मौके पर नीति को हम छोड़ सकते हैं, परन्तु ध्यानयेय को नहीं छोड़ सकते। ऐसी दशा में गाँधीवाद की ओट में हमारी राजनीति में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सन्तोष आदि को ध्यानयेय की तरह प्रविष्ट करना न केवल अवांछनीय है, प्रत्युत हानिकर भी है और हमारे इस युद्ध को कुंठित तथा बन्द कर देने वाला है। केवल आवेश में न आकर हमें इस खतरे की ओर ध्यान रखते हुए कोई भी प्रयास इस दिशा में करना चाहिए।
(विशाल भारत, गाँधी अंक, अक्तूबर 1938) |
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