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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4 सम्पादक - राघव शरण शर्मा किसान क्या करें
छठा भाग किसान सभा की सदस्यता के बाद ही पर उससे मिला हुआ दूसरा प्रश्न है। किसान सेवक दल का। पहले कदम के बाद ही यह दूसरा कदम आता है। असल में तो इसके बिना पहले कदम की भी सफलता हो नहीं सकती। जो लोग पहले कदम को पूर्ण सफल बनाने में तन-मन से लग जाएँगे, पिल पड़ेंगे, वही तो सच्चे किसान सेवक होंगे, उन्हीं से तो वास्तविक किसान सेवक दल का श्रीगणेश और सूत्रपात होगा। यदि पहले कदम में हमें पूरी सफलता मिली तो उसका साफ मतलब यही होगा कि हम जबर्दस्त से जबर्दस्त किसान सेवक दल तैयार कर सकेंगे। उससे यह साफ हो जाता है कि जिस मात्र में हमारे पहले कदम की सफलता होगी उसी मात्र में उस दूसरे कदम की भी, मगर उत्तरोत्तर बढ़ने वाली, कामयाबी मिलेगी। क्योंकि किसान सभा के सदस्य बनाने वाले मस्ताने लोगों के अलावे सदस्यों में भी बहुत से जवान स्त्री, पुरुष ऐसे निकलेंगे ही जो खामख्वाह चाव के साथ सेवक दल में भर्ती हो जाएँ। इस तरह एक ऐसा चक्र चालू हो जाएगा जिसका उत्तरोत्तर विकास होता ही रहेगा। किसान सेवकों का एक दल तैयार हो के सदस्य बनाने में लग जाएगा। फलस्वरूप वह दल तथा सदस्यों में से कुछ और लोगों को मिलाकर नए सिरे से विस्तृत किसान सेवक दल संगठित होगा। आगे चल के सदस्य बनानेवालों की संख्या बढ़ेगी ही। फलत: सेवक दल का आकार भी उसके बाद विस्तृत होगा। इस प्रकार अन्योन्याश्रय तथा परस्पर सहकारिता के करते ही हम आगे बढ़ेंगे। सवाल पैदा होता है कि किसान सेवक दल का सूत्रपात हो कैसे, इसे कैसे, कौन करे, कब करे तथा इसमें शामिल हों कैसे लोग? सवाल तो आसान भी है और कठिन भी। इसका जवाब भी कुछ ऐसा ही है। दुनिया की जो प्रणाली है उसके अनुसार तो चटपट में हो सकते हैं कि जो लोग इस काम में दिलचस्पी रखते हों वह फौरन आगे आएँ और इस काम को हाथ में लेके बढ़ाएँ जिन्हें किसान सभा के उद्देश्य तथा कार्यक्रम में पूरा यकीन हो, जो उसे दिल से मानते हों उन्हीं का यह काम है कि इसमें पड़ जाएँ। इसमें शामिल भी उन्हीं लोगों को करें जो धुनी हों। लगन वाले हों, भरसक युवक हों, उत्साह वाले हों। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें किसान सभा में, किसानों में, उनके लक्ष्य में और खुद अपने आप में ज्वलन्त, जीता जागता विश्वास हो। जब रावण ने लंका के बीच बैठी सीता से छेड़खानी की तो सीता का तड़ाक-फड़ाक उत्तर मिला कि 'सो भुज कंठ कि तव अति घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।'' विचित्र उत्तर था, ऐसा कि साधारण आदमी को समझ में ही न आए। वह उसे पागल प्रलाप के सिवाय कुछ समझे ही न। या ज्यादे से ज्यादा लड़कपन की बात माने। भीषण चहारदीवारी और दुर्गम समुद्र से घिरी हुई बीहड़ लंका की एक वाटिका में एक स्त्री बैठी हुई है जिसका कोई भी अपना कहलाने वाला पास-पड़ोस में तो क्या हजारों मील तक नहीं हो। वह स्त्री चुरा के जबर्दस्ती वहाँ लाई गई है अकेली। वहाँ भी उसके इर्द-गिर्द खूँखार राक्षसों का पहरा है, ऐसा पहरा कि हवा भी बिना इजाजत के आने न पाए। ऐसी तो सख्ती है। लंका भी वही जहाँ खुद रावण रहता है, जो उसका गढ़, उसकी राजधनी है, जहाँ जाते समय हनुमान को पहले तो समुद्र में ही परछाईं के द्वारा खिंच जाना पड़ा और बड़ी मुश्किल से जान बच पाई। मगर जब मामूली बिल्ली के रूप में उस गढ़ में घुसने लगे तो एक राक्षसी ने ही रोक-टोक की। फलत: उसमें भी उनकी भिड़न्त हुई। ऐसा तो दुष्प्रवेश वह गढ़ है। उसके अधिपतिरावण का तो कहना ही नहीं। उसका प्रताप तो मध्यांग ज्येष्ठ के सूर्य जैसा तपता है। उसके बारे में तुलसी ने कही दिया है कि 'चलत दसानन डोलति अवनी।' यदि एक बार कस के बोल दे तो देवताओं की धोती ढीली हो जाए और उनकी स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ें। उसी लंका के बीच बैठी असहाय सीता उसी रावण से ललकार के कहती हैं कि मेरे शरीर को या तो राम की बाँहें छू सकती हैं या तेरी तलवार ही। तेरी क्या बिसात कि छू ले? ऐ बदमाश, मैं यह पक्की बात कहती हूँ। यह कोई बन्दर घुड़की नहीं है। सीता के ये वचन किस बात के प्रमाण हैं? उसके ऐसा कहने के लिए वहाँ सामान ही क्या है? कोई भी कारण साधारण स्त्री-पुरुषों को नजर नहीं आता कि जिससे सीता की इन बातों का समर्थन हो सके या उनका औचित्य सिद्ध हो। फिर भी ये बातें सही थीं, उचित थीं और इतिहास उस बात का साक्षी है कि सीता ने ठीक ही ललकारा था। रावण की हिम्मत ही न हो सकी कि नजदीक भी जाए, उसी रावण की जिसका तेज जलता था, जो तपता था, जिसके बारे में लोगों ने कहा है कि 'पवन जहँ अंगना बटोरे, मेघ भरैं जहँ पानी।' यह असम्भव बात, यह अनहोनी कैसे हो गई? उसका रहस्य क्या है? हमें यही बात तो सोचनी है। यदि हम तह में घुस के देखें तो साफ ही मालूम होगा कि सब कुछ होते हुए भी सीता में यह जीता जागता हुआ विश्वास था कि मेरे जैसी पतिव्रता एवं सती-साध्वी को छूने की हिम्मत किसी पापी को नहीं हो सकती। उसके दिल में यह ज्वलन्त धारणा दृढ़ता के साथ बैठी हुई थी कि रामचन्द्र अवश्य मिलेंगे और मेरा उद्धार करेंगे केवल इसके कि रावण मेरा कुछ भी करे, कुछ भी कर सके, उसका यह अमिट और अटूट यकीन था कि प्रतापी से भी प्रतापी पापी उसकी ओर देखते ही भस्म हो जाएगा। वह हृदय के अन्तस्तल से यह माने बैठी थी कि शीघ्र से शीघ्र उसका उद्धार लंका से हो के ही रहेगा। वह हस्तामलक की तरह स्पष्ट ही देखती थी कि रामचन्द्र से मेरा मिलन जल्द ही होने वाला है। इस धारणा को उसके दिल दिमाग से कोई भी ताकत डिगा न सकती थी। हजार संकट आए, बाधाएँ आएँ, और अब और ज्यादा बाधाएँ होई क्या सकती थीं? फिर भी मेरा लक्ष्य तो सिद्ध होगा ही, मैं तो अपने इष्ट को प्राप्त करूँगी ही। स्वप्न में भी उसे दूसरा खयाल होता न था। कभी भी वह इस दृढ़ धारणा से विचलित होती न थी। बस इसी का यह परिणाम हुआ कि उसकी भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य ही निकली और वह विजयिनी हुई सो भी शीघ्र ही। यही वजह थी कि रावण काँप गया और अपना-सा मुँह लेके चलता बना। अटल, अडिग, अमिट, ज्वलन्त, जीते-जागते विश्वास की करामात ही ऐसी है। अपने लक्ष्य में अपने ध्येय में अपनी शक्ति में ऐसा विश्वास का होना ही विजय की पहली तथा आखिरी सीढ़ी है। यह अदम्य विश्वास हिमालय को हिला देता है, समुद्र को सुखा देता है, जहर को अमृत बना देता है और चाँद-सूर्य को पूर्व से पश्चिम या पश्चिम से पूर्व कर देता है। इसमें पहाड़ को तोड़ने वाली ऐसी (डायनामिक) शक्ति है कि कुछ कहिए मत। इसी के बल पर टिट्टिभी ने अपने बच्चे पाए थे समुद्र के गर्भ से। इसी के चलते पाँच वर्ष का बालक घोर जंगल में जा के, जबकि उसे बोलने की पूरी शक्ति न थी, अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सका। इसी की करामात है कि प्रह्लाद सभी प्रकार की विकट से विकट परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुआ और आदर्श पुरुष बना। संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि अपने में तथा अपने लक्ष्य में अक्षुण्ण देदीप्यमान विश्वास रखने वाले बड़े से बड़े पैगम्बर या ऋषि-मुनि विजयी बने हैं। इसके करते ही अनेक देशों के हकों के लिए लड़ने वाले महापुरुष सफलमनोरथ हुए हैं। इसके बिना लड़ने वाला पुरुष भीतर से खोखला रहता है। इसके सभी प्रयत्न ऐसे ही विफल होते हैं जैसे बिना फल (लोहे की नोक) वाला तीर। इसलिए किसान सेवक देश में जो लोग प्रविष्ट हों या जो उसका काम चलाएँ उनमें इस अटूट विश्वास का होना बुनियादी चीज है। अंग्रेजी में उस आदमी को लाइलाज कहते हैं जो किसी की सुनता ही नहीं। किसान सेवक को सचमुच वैसा ही होना चाहिए जहाँ तक अपनी धुन से मतलब है, जहाँ तक उसके लक्ष्य में लगन तथा विश्वास से ताल्लुक है। उसके विपरीत किसी की भी बात सुनने को वह कभी तैयार न हों। ऐसी बातों से उसके कान के पर्दे जब फटने लगें तभी उसे पक्का धुनी कह सकते हैं। तभी वह सच्चा किसान सेवक बनने का हकदार हो सकता है। हमें तो मस्तराम और मतवालों का दल चाहिए जो झूमते चलें, जो लापरवाह हों और जिनकी दृष्टि उसके लक्ष्य पर ऐसी टँगी हो कि सारी चीज ही भूल जाए। एक खयाली उड़ान मारने वाले ने प्रश्न किया और खुद ही उत्तर भी स्वयं ही दिया। उसने कहा कि चकोर आग क्यों खाता है? थोड़ी देर सोचने के लिए रुका। फिर कहने लगा चकोर की लगन उसकी अनन्य भक्ति, उसका प्रेम चन्द्रमा से है। वह चाहता है कि किसी प्रकार अपने प्रेमी से या प्रेम पात्र से मिलूँ। मगर कोई रास्ता नहीं सूझता है। वह तो कहाँ जमीन पर रहने वाला और चन्द्र ठेठ आकाश में अनन्त दूरी के ऊपर। यह अगम्य अन्तर। यह अपार दूरी। यह कैसे पार की जाए, यह मामूली नहीं होता है। उसके पर हैं तो बहुत ही सुन्दर, अत्यन्त रमणीय, मनमोहक। मगर उनमें उड़ान मारने की ऐसी शक्ति नहीं कि वहाँ पहुँचा दें। हो भी कैसे? रमणीय तथा दिखाऊ चीजों में, तड़क-भड़क वालों में शक्ति कहाँ? वह तो शान-बान में ही खत्म हो जाती है। इसलिए बार-बार तड़फड़ाता है। लेकिन नतीजा कुछ नहीं। हाँ खुरदुरे तथा नाखूनदार पाँवों में ही तो दौड़ने की ताकत है। ठीक ही है। ऐसे ही हाथ-पाँव तो कुछ कर सकते हैं। दुनिया का यही नियम है। लेकिन खेद है कि चन्द्रमा-चकोर का प्रेम पात्र तो इस धरातल पर है नहीं। फिर पाँवों की शक्ति से फायदा ही क्या? वह दौड़े भी तो आखिर जाएगा कहाँ? यहाँ तो 'प्रीतम बसे पहाड़ पर हम गंगा के तीर अब तो मिलना कठिन है पायन परी जंजीर' वाली बात है। प्रियतम तो आसमान में है। पहाड़ पर भी होते तो शायद कोशिश करता। फलत: अपने को खासकर अपने परों को धिक्कारता है कि किसी भी काम के न साबित हुए। सो भी ऐन मौके पर ही। इसके बाद उसकी बेकली और बेचैनी बढ़ती है। और प्रीतम से मिलने को वह बहुत बुरी तरह अधीर हो उठता है। फिर एकाएक उसे खयाल आता है कि एक रास्ता तो मिलने के लिए बहुत ही आसान है। मेरा प्रीतम केवल आकाश में ही नहीं बसता है। उसका निवास स्थान महादेव बाबा का ललाट भी तो है और महादेव जी को भस्म से बहुत ही अनुराग है, यहाँ तक कि वे तो चिता की भस्म ज्यादा प्रेम से सारे शरीर में रमाते हैं। इसीलिए तो उनका स्थान श्मशान माना जाता है तथा उनके बारे में पुराने लोगों ने 'श्मशानेष्वाक्रीड़ा' 'चिताभस्मालेप:' आदि कहा है। तो बस, चलो अब सब ठीक हो गया। मेरी दिक्कत अनायास ही हल हो गई। अब तो प्रीतम से मिल के ही रहूँगा। अब तो और कुछ करना नहीं है। केवल आग खाऊँगा। और जल के राख हो जाऊँगा। फिर तो श्मशानशायी शिव खामख्वाह मेरे शरीर का भस्म अपने सर्वांग में जिसमें ललाट प्रमुख है, लपेटेंगे और मैं प्रीतम से, माशूक से, अयत्न ही जा मिलूँगा। बस, उसने आग खाना शुरू कर दिया। अपने 'प्रियतम' अपने लक्ष्य के प्रति अटूट प्रेम और अमिट विश्वास में झूमने वाले मस्तानों की टोली यही करती है। उसका यही रास्ता ही है। उसका तो मूल मन्त्र ही यह है कि 'सन्तन संग बैठि लोक लाज खोई। अब तो बात फैल गई जाने सब कोई।' जब घोर जंगल में राम के पास से सीता हरी जा चुकी, तो उसके प्रेम में उनकी सुध-बुध ऐसी गायब हुई और वे ऐसे विह्नल हो गए कि पशु-पक्षियों एवं वृक्षों तक से भी सीता का पता पूछना शुरू किया, 'हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी। 'सच्ची लगन इसी का नाम है। मस्ती इसे ही कहते हैं। बिना इस प्रकार के अनोखे पागलपन के लक्ष्य तक पहुँच सम्भव भी नहीं। यही पागलपन तो पत्थर को भी पिघलाता और कट्टर विरोधियों को भी सहायक बनाता है। ऐसे ही मस्तानों की टोली का जब किसान सेवक दल बने, तभी किसानों का उद्धार होगा। हम ऐसी ही टोली चाहते हैं। इस मस्ती में अटल प्रतिज्ञा, दृढ़ संकल्प, 'शरीरं वा पातर्ययम्, कार्य वा साधायेयम्', मौत या लक्ष्य वाली लगन का पुट जब आ मिलता है तो काम बन जाता है। 'अर्जुन स्यं प्रतिज्ञे दे न दैन्यं न पलायनम्' के अनुसार जब उद्योगी पुरुष झट से प्रण कर लेता है कि न तो किसी के सामने दाँत निपोरेंगे और न दिक्कतों से घबरा के भाग ही जाएँगे। किन्तु खुले दिल से ललकारता है कि आओ विपत्तियाँ तुम दु:खों को साथ लाओ। पीटूँगा मैं तुम्ही को, तुम से ही या पिटूँगा, तभी तो विजय होती है। विपत्तियों से क्या डरना? वही तो विजय की पहली सीढ़ी है। कठिनाइयाँ और दिक्कतें हों तो लक्ष्य की ओर साइन बोर्ड की तरह इशारा करती हैं कि इसी रास्ते से वह मिलेगा। देखो न वह तो नजदीक में ही है। मगर जो साइन बोर्ड के पास तक पहुँचा ही नहीं उसे क्या पता कि सिवाय इसके और रास्ता लक्ष्य प्राप्ति का है या नहीं? उसे क्या मालूम कि वह दूर है या नजदीक? कहते हैं, तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे। राम को छोड़ उन्हें औरों से न तो प्रेम था और न उनकी परवाह करते थे। साथ ही राम से मिले बिना चैन ही न लूँगा यह भी उनका हठ था, ऊँट की पकड़ थी, दृढ़ प्रतिज्ञा थी। घटना ऐसी बताई जाती है कि एक बार ब्रज में घूमने-घामने जा निकले। वहाँ देखते है कि वृन्दावन बिहारी का सोलहों सिंगार है और मुरली मुख में लगाए कृष्ण सुरीली तान छेड़ रहे हैं। इधर-उधर ढूँढ़ा खोजा सही। पर राम का कहीं पता नहीं। वहाँ से उनकी बेदखली हो चुकी थी। वह क्या अयोध्या थी? वह तो आनन्द कन्द का ब्रज था। फिर राम का वहाँ पता हो तो कैसे? तुलसीदास को यह बात खटकी। सोचा क्या करें? कैसे कृष्ण के सामने सर झुकाएँ? तब तो अनन्य भक्ति ही खत्म हो जाएगी, ध्येय के प्रति, आराध्य के प्रति, साक्ष्य के प्रति, अनन्य प्रेम ही न रह जाएगा। इसलिए उनने तय किया कि चाहे जो हो, पर कृष्ण के सामने तो मेरा यह सर झुकेगा नहीं, और साथ ही सुना भी दिया कि 'कहा कहौं छवि आपकी भले बने हो नाथ। तुलसी मस्तक तब नवैं जब धनुष बान हाथ।' गजब हो गया। मगर नतीजा क्या हुआ? झख मार के कृष्ण को अपना रूप बदल के राम बनना पड़ा। 'निज भक्तन के कारणे नाथ भए रघुनाथ'। तब कहीं जाकर तुलसी का मस्तक उनके सामने नवा। सच्ची लगन एवं दृढ़संकल्प में वह अभूतपूर्व शक्ति है कि आखिर ध्येय को अपने पास खींच ही तो लाती है। साधारण चुम्बक का आकर्षण उसके सामने फीका है। इसीलिए तो कहते हैं कि विवेकानन्द जैसे घोर नास्तिक एवं प्रचण्ड तार्किक को परमहंस रामकृष्ण के एक मामूली वाक्य ने सोलहों आने बदल दिया। न कोई तर्क, न कोई दलील, न कोई माथापच्ची। और विवेकानन्द पूरे आस्तिक बन गए। उनने रामकृष्ण से पूछा के ऐ महाराज, ईश्वर भी कोई पदार्थ है? रामकृष्ण ने बस इतना ही कहा कि हाँ, मैं तो उसे ठीक वैसे ही देखता हूँ जैसे तुम मुझे। इतने से ही काम हो गया। क्या किसी और के मुँह से अनन्त बार ऐसा वाक्य सुन के भी विवेकानन्द पर कुछ भी असर होता, सिर्फ घृणा पूर्ण हँसी के? फिर रामकृष्ण में क्या खूबी थी कि बात हृदय में चुभ गई? असल में उनकी लगन सच्ची थी, लक्ष्य के प्रति उनकी भक्ति अनन्य थी। उनका बाहर भीतर एक था। जो कहते वही करते थे। ऐसा नहीं कि 'मुख में बान और मन में आन'। इसी का वह नतीजा था। यह बाहर-भीतर एकरस होना ही सच्ची लगन का दृढ़ संकल्प का असली सबूत है। कहने के लिए तो सभी कह डालते हैं कि हमें तो किसानों में अटूट भक्ति है, हम तो उनका उद्धार हृदय से चाहते हैं, हमारा तो यही व्रत ही है, आदि-आदि। मगर इसका पता कैसे लगे? इसकी परीक्षा किस प्रकार हो? इसके जाँच की कसौटी क्या है? यह लगन, यह प्रेम, यह भक्ति केवल बातों की ही है या कि उसमें कुछ सार है, इसका निश्चय कैसे हो? इसका रास्ता यही बाहर-भीतर एकरस होना ही है। जब हम इसी रंग में रँगे हैं तो यह बात छिपने की कब तक? उस प्रेम का पनाला तो फूट के बाहर आई जाएगा। हजारों मौके लगेंगे जब उसे बाहर आना ही होगा। कहते हैं कि कस्तूरी को कितना ही छिपा रखिए फिर भी उसकी गन्ध फैल ही जाती है। यह प्रेम, यह किसान भक्ति तो कस्तूरी की गन्ध से भी हजार गुनी तेज है, भेदन करने वाली है। वह तो अंग-अंग में बिंध जाने वाली चीज है। वह तो रोम-रोम से फूट पड़ती है। इसका फूटना यही है कि हम जो सोचें वही बोलें और वही करें। जब हमारा हरेक काम हमारी हरेक साँस हमारी बातों से ही मिलती जुलती रहेगी, जब एक भी काम उसके विपरीत न होगा तभी माना जाएगा कि हम सच्चे किसान सेवक हैं। यदि दैवात् एकाध बार चूके तो हममें खामख्वाह तिलमिलाहट होगी, तड़प होगी और हमारा दिल सहसा रो उठेगा कि हाय रे, हम तो चूके। यही है हमारी उस दृढ़ प्रतिज्ञा, सच्ची लगन की परख की कसौटी। बात यह है कि किसान सेवकों को यह समझ लेना होगा कि उन्हें किसानों के सामने हिसाब देना है। वह हिसाब दो प्रकार का होगा। एक तो रुपए, पैसे, अन्न, पानी आदि का। दूसरा अपने कामों का। सार्वजनिक जीवन की जो हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है वह यह है कि चाहे हमें मजबूर करके हमारे कामों का और रुपए- पैसे आदि के रूप में हमें जो कुछ जनता से मिला है उसका, दोनों का ही, हिसाब देना पड़े और हमें इसे दें भी जब जनता हमारी छाती पर सवार हो के तलब करे। अगर हम खुद यह नहीं महसूस करते, अपने दिल में समझते नहीं कि हमें दोनों का हिसाब खामख्वाह देना है। फलत: हर क्षण उसके लिए तैयार रहना चाहिए। जनता का तो फर्ज ही है कि हमसे दोनों प्रकार का हिसाब जरूर माँगे और गड़बड़ी होने पर अमानत में खयानत का जुर्म हम पर लगा के हमारी सजा करे और हमें उस स्थान से च्युत भी कर दे। इसके बिना काम चलने का नहीं। यही तो जरूरी है। मगर चाहे वह माँगे या न माँगे। हमारा तो यह पवित्र कर्तव्य होना चाहिए कि हम उसके लिए तैयार रहें। ऐसा होने पर कभी भी हम चूकेंगे नहीं। तब तो हमारी सख्त नजर अपने हरेक कामों पर तथा जनता के द्वारा दिए गए पैसे-पैसे पर दाने-दाने पर रहेगी। हम बार-बार देखते रहेंगे कि अपने कामों में कहीं गलती तो नहीं करते, हमारे काम कहीं ऐसे तो नहीं कि उसमें जनता का तत्काल या सुदूर भविष्य में अहित होगा। अन्न- पानी और रुपए-पैसे के बारे में भी फूँक-फूँक के ही उस दशा में हम पाँव देंगे और हमारे जानते एक भी मामूली से मामूली खर्च ऐसा न हो सकेगा जो जनता के लाभार्थ न हो। तब तो हम उसकी कौड़ी-कौड़ी का खूब ही सदुपयोग करेंगे। और अगर कहीं चूके तो साफ ही स्वीकार करेंगे कि यह भूल हो गई। मगर फिर भविष्य में होने न पाएगी। इस हालत में हमारे हाथ-पाँव, हमारी जबान, हमारा ईमान, हमारी नीयत तथा हमारे दिल-दिमाग पर जबर्दस्त लगाम रहेगी जो कभी बहकने न देगी, कुरास्ता चलने न देगी। इस प्रकार हमारा बाहर-भीतर एकरस होगा। हर बात में स्वयमेव प्रत्यक्ष हो जाएगा। इसमें विशेष जाँच-पड़ताल की जरूरत ही न पड़ेगी। और अगर जनता ने, किसानों ने, हमारी कभी इस बात में परीक्षा भी ली तो हम सोलहों आने खाँटी सिद्ध होंगे, उस परीक्षा में अच्छी तरह उत्तीर्ण होंगे। लेकिन जनता का भी फर्ज है कि वह किसान सेवकों से कसके हिसाब माँगे, बराबर माँगे। कम से कम उनके दिल पर यह असर पैदा कर रखे कि उन्हें अकस्मात् हिसाब देना पड़ जाएगा जब कि तैयारी करने की मुहलत मिली न सकेगी। ऐसी मनोवृत्ति के, ऐसे आतंक के, पैदा न करने का ही नतीजा यह होता है कि रुपए-पैसे में और कामों में भी, दोनों ही में, गड़बड़ी होती है, अमानत में खयानत प्राय: होती ही रहती है, किसान सेवकों को इस दोनों प्रकार के मामले में लापरवाही एवं ढीले ढाले बना देने की जबावदेही इस प्रकार किसानों पर ही आ जाती है। अत: यदि हम चाहते हैं कि किसान सेवक बाहर-भीतर एकरस रहें तो यह सख्ती जो कामों और पैसों के हिसाब के बारे में बताई गई है, बराबर बेमुरव्वती और बिना लल्लोचप्पो के रखी जानी ही चाहिए। किसानों का तो बेड़ा डूबेगा ही यदि सोलहों आने उन्हीं के ऊपर दारमदार रखने वाले किसान सेवकों का दल तैयार न किया जाए। जरा सी ढिलाई हुई कि सेवक लोगों ने जमींदारों एवं मालदारों से गुपचुप बातचीत शुरू कर दी। उनके जाल तो सदा बिछे ही रहते हैं। बस उनके हमारे सेवक लोग जा फँसे। ऊपर से तो यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे मालदारों के जानी दुश्मन हैं। बातें भी ऐसी ही करते रहते हैं। जमींदारों और धनियों से मिलने-जुलने का नाम लेने पर आगबबूला हो जाते हैं। मगर उनकी यह भावभंगी सिर्फ दिखावटी होती है ठीक वैसी ही जैसी कि गाली सुनते ही वेश्या की क्रोधामयी भावभंगी। भीतर से तो वे मालदारों से मिलते ही हैं, मिले ही रहते हैं। मगर उसे छिपाना चाहते हैं। छिपाने की कोशिश करते हैं। फिर भी वह छिपेगा कब तक? आखिर प्रकट होई जाएगा। बशर्ते कि किसानों की बेरुखी बराबर बनी रहे। कहते हैं कि एक सज्जन का चाल चलन कुछ शिथिल था। फलत: उनके साथी या अभिभावक उन पर कड़ी नजर रखते थे। ताकि वे बहक न जाएँ। एक दिन ऐसा हुआ कि वे हजरत सोई रात में धीरे से घसक गए और किसी यार के पास जाके सारी रात मौज करते रहे। सोने का... (इन दोनों निबन्धों के बीच की पूरी एक कापी (64पेजी एक्सरसाइज बुक) अनुपलब्ध है)।
...तामिली नहीं सकती। जब तक शोषक लोगों की शक्ति रहेगी, जब तक उनका अस्तित्व रहेगा वे लाख उपाय करके जनता को ठगते ही रहेंगे। इसीलिए तो वे लोग किसान, मजदूर आदि जनता के भीतर सामूहिक रूप से असली राजनीतिक चेतना, वास्तविक राजनीति का ज्ञान आने देना चाहते नहीं। यदि किसान और मजदूरों में सोचने की शक्ति आ जाए और वे राजनीतिक दृष्टि से अग्रसर या समुन्नत हो जाअँ तो शोषकों के लिए बड़ा भारी खतरा होगा। जनता में सोचने-विचारने की शक्ति बड़ी खतरनाक चीज है, ऐसा वे मानते और समझते हैं। तब तो उनका जादू ही मिट जाएगा और उनकी टिक्की ही न लग पाएगी। इसलिए हर तरह कोशिश करके लोगों को तेली के बैल की तरह ऑंखें मूँद के ही रखना चाहते हैं। यदि बैल की ऑंखें खुली हों तो वह हर्गिज तेली की मर्जी के मुताबिक थोड़ी सी ही जगह में चक्कर नहीं काट के फाँद जाएगा। इसीलिए सबसे पहले तो जनता में,सर्वसाधारण में,किसी भी प्रकार के सोचने-विचारने की शक्ति का आना वे बर्दाश्त नहीं कर सकते। लेकिन यदि किसी प्रकार और बातें सोचने की शक्ति बर्दाश्त भी कर लें तो भी राजनीतिक ज्ञान तो उन्हें सर्वथा सर्वदा असह्य है। जनता में यह ज्ञान आ जाए इसकी अपेक्षा शोषक लोग अपनी मौत ज्यादा पसन्द करेंगे। क्योंकि मौत तो तब कम से कम अपनी मर्जी के मुताबिक होगी। मगर जब जनसाधारण राजनीति में प्रबुद्ध हो गए तो फिर शोषकों को मरने भी इच्छानुसार न देंगे। किन्तु उन्हें विवश करेंगे कि जनसाधारण की इच्छा के अनुकूल ही मरें या जिएँ। इसीलिए जमींदार, मालदार और उनके दोस्तों की एकमात्र इच्छा रहती है कि जनता में राजनीतिक मामलों के प्रति अत्यन्त उदासीनता हो, लोगों को इन बातों में जरा भी दिलचस्पी न हो। इसके लिए वे लोग सबकुछ करने को तैयार होंगे। जो भी खर्च हो, परेशानी हो सब कुछ सहर्ष सह लेंगे। क्योंकि पीछे तो सारा खर्च और सारी परेशानी सूद दर सूद के साथ वसूल हो ही जाएगी। इसीलिए उनके लिए सबसे अनुकूल बात यही है कि जनसाधारण या उनमें अधिकांश राजनीतिक मामलों में कोई दिलचस्पी न लें। जनसाधारण में यह चेतना न होने का ही नतीजा है कि वे वोट के महत्त्व को समझते ही नहीं। फलत: मालदार और उनके दलाल पैसे के बल पर ही वोट प्राप्त कर लेते हैं। नादानी के कारण किसी नौकरी-चाकरी, मुरव्वत या सिफारिश के चलते ही लोग अपना वोट उन्हें दे आते हैं। और नहीं हुआ तो कुछ पैसे ही लेकर दे आए और दूसरों से भी दिला दिया। भला जो वोट तख्त उलटने की ताकत रखता हो उसे यों फेंका जाए? पाँवों तले रौंदा जाए? इससे कहीं अच्छा है कि उसे फाड़ के फेंके। क्योंकि तब गो उससे होने वाले लाभ भले ही न मिले, लेकिन मालदारों को देने से जो गला कटेगा वह तो बचेगा। वोट के जमाने से उनका दल अमीरों और उनके दलालों के टुकड़े खाके किसानों और मजदूरों को फँसाने के लिए घूमा करता है। उससे सजग रहना चाहिए। साफ कह देना होगा कि आपके लिए चाहे जान, घर-बार भले ही दे दें मगर वोट कदापि न देंगे क्योंकि यदि वोट का ठीक-ठाक उपयोग करेंगे तो जान भी बचा लेंगे और गया घर-बार भी लौटा लेंगे सूद के साथ। शोषक और स्थायी स्वार्थ वाले हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की रक्षा की पूरी गारण्टी चाहिए और व्यक्तिगत सम्पत्ति पर कभी कोई धावा न बोले, प्रत्युत उसकी कदर करे ऐसा प्रबन्ध चाहिए। उनकी दृष्टि में राजनीति का निचोड़ यही दो बातें हैं। ठीक भी है। सम्पत्ति तो उनके पास हई। यह आई भी है लोगों का रक्त चूस-चूस के। इसलिए कहीं ऐसा न हो कि लोग बिगड़ उठें और लूट लें। यही कारण है कि उसकी सुरक्षा की पूरी गारण्टी सरकार से करवाना चाहते हैं। लेकिन यदि कहीं उन्हीं पर हमला हो गया तो ? आखिर शोषण तो करते हैं वही लोग। फलत: यदि लोगों में 'रहे बाँस न बजे बाँसुरी' के अनुसार उन्हीं पर हाथ साफ कर लिया तो? इसीलिए शारीरिक रक्षा की भी गारण्टी वे चाहते हैं। वर्तमान राजनीति के यही दो मूल तत्त्व हैं। बाकी इन्हीं दोनों के विस्तार हैं। मगर गरीबों को, जनता को, इससे क्या लाभ ? उनके शरीर पर हमला करेगा ही कौन? उन्हें खतरा हई किससे? उनने किसका क्या छीना-लूटा है, यदि अपना ही सर्वस्व छिनवाया-लुटवाया नहीं है? सम्पत्ति तो उनके पास हई नहीं कि उस पर कोई खतरा हो। उनका तो शरीर और उनकी श्रमशक्ति यही सम्पत्ति है। मगर ये दोनों भी अमीरों के हाथ में बिकी जैसी हैं? ठीक जैसे कसाई के हाथ में गाय पड़ी हो। फिर व्यक्तिगत सम्पत्ति की रक्षा की गारण्टी से भी उन्हें क्या लाभ? कहने के लिए तो कानून ये दोनों बातें सभी के लिए करता है। मगर जनता को तो इससे कोई प्रयोजन नहीं। यह तो मुट्ठी-भर शोषकों के ही फायदे के लिए है। इससे स्पष्ट है कि पूँजीवादी राजनीति कितनी खोखली, कितनी निस्तार और किस कदर धोखे की है। असल में गारण्टी तो कानून के द्वारा सिर्फ इस बात की होनी चाहिए कि 'कमाने वाला खाएगा'। कानून सबसे पहले यह कहे कि कमाने वाले, काम करने वाले, हर प्रकार से सुखमय और समुन्नत जीवन गुजारें। हमारी राजनीति का निचोड़ यही है और हमें, किसानों और मजदूरों को, इसीलिए लड़ना है। किसानों की राजनीति हवा में मिल जाएगी और उन्हें कोई पूछेगा भी नहीं, यदि उनकी अपनी सभा, किसान सभा, ही न रही। यदि वह जबर्दस्त न हुई और ऑंख मूँद के उसकी आज्ञा पर चलने वाले किसान न बने तो उससे कोई बात भी न करेगा। शोषक और उनके दोस्त किसानों के सामने खूब बहकते हैं सही और लम्बी-लम्बी बातें भी करते हैं। मगर उनका कलेजा धक्-धक् करता रहता है कि कहीं किसान सभा उनकी कलई खोल न दे। कहीं वह किसानों को सजग न कर दें। किसान सभा को याद करके ही उनकी सारी अक्ल खत्म हो जाती है, सारी बोलती बन्द हो जाती है। और सारी आई-बाई ही हजम हो जाती है। मजदूर सभा की भी यही बात है। इसलिए किसानों को चाहिए कि राजनीतिक दृष्टि से भी किसान सभा की ही ओर दृष्टि रखे और उसे सब कुछ मानें। किसान सभा ही उनकी दुनिया हो, वे अपनी उसी दुनिया में सोते-जागते-विचरते रहें, उसकी की चर्चा दिन-रात करते रहे, उसी की समुन्नति की बात बराबर सोचते रहें, उसी के लिए लड़ें, झगड़ें, उसी के लिए मरें-मिटें और उसी के लिए संग्राम और युद्ध करें। तभी उनकी राजनीति दुरुस्त होगी, उनके काम की होगी। उनके लिए कामधेनु बनेगी। राजनीति की दृष्टि से किसानों को दो खास बातें और भी करनी होंगी। हम देखते हैं कि चाहे कोई नेता उन्हें मिले या न मिले, उनकी कोई किसान सभा हो या न हो, उन्हें कोई रास्ता दिखावे या न दिखावे, कभी-कभी जुल्मों और तकलीफों से ऊब के, जबकि बर्दाश्त करना असम्भव हो जाता है, लड़ बैठते, बगावत कर देते, तूफान बरसा कर डालते हैं। बेशक अन्ततोगत्वा उन्हें उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिलती। वे शोषकों और शासकों के द्वारा बुरी तरह पीस दिए जाते हैं। ऐसी घटनाओं से हर मुल्क का इतिहास भरा पड़ा है। हाँ, इतना जरूर हो जाता है कि उनका यह दमन शोषकों तथा शासकों को बहुत ही महँगा पड़ता है। उन्हें आगे के लिए भी खतरा हो जाता है। इसलिए जिन बातों से किसान ऊब कर बागी बन बैठे थे उन्हें दूर करने की कुछ न कुछ कोशिश होती ही है। ऐसी लड़ाइयों को इतिहास में बिना तैयारी की आप ही आप अचानक लड़ी जाने वाली लड़ाइयाँ कहते हैं। इनसे यदि कभी पूरी सफलता भी मिली तो कालान्तर में वह विफल बना दी जाती है। मगर दरअसल पूर्ण सफलता तो कभी भी नहीं मिलती है। इसका कारण क्या है? क्यों वे विफल होते रहते हैं बार-बार और शोषक सफल? असल में किसानों में राजनीतिक चेतना वर्ग चेतना तो होती नहीं। मगर शोषक में खामख्वाह होती है। किसान लोग इन लड़ाइयों का राजनीतिक महत्त्व क्या जानने गए? वे यह भी क्या जानें कि हममें वर्ग चेतना चाहिए और उसी के आधार पर संगठित रूप से लड़ने पर ही हमें विजय मिलेगी जो स्थायी होगी। उनमें यह जागृति, यह ज्ञान कतई होता नहीं। इसी से विफलता मिलती है। वर्तमान युग में तो इस चेतना के बिना और राजनीति के ज्ञान के बिना और भी सफलता मिलना असम्भव है। इसलिए हमारा और उनका प्रधान काम है कि जो भी ऐसी आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ी जाएँ वे वर्ग चेतना के आधार पर राजनीतिक लड़ाई के रूप में ही लड़ी जाएँ। इस प्रकार राजनीतिक चेतना बहुत जल्द विस्तृत और दृढ़ होगी। वे अपने अनुभव से ही यह बात जल्द सीखेंगे। दूसरी बात यह है कि वस्तुत: किसानों के संख्या बल और उनकी उत्पादन शक्ति के करते उनकी महत्ता, उनकी श्रेष्ठता स्वाभावत: मूल रूप से उनमें पड़ी हुई है। इसे कौन अस्वीकार करेगा? यह तो सभी मानते हैं कि यदि किसान न हो तो दुनिया का सारा कार-बार ही बन्द हो जाए, दुनिया मसान ही बन जाए। धन और जन का सम्पादन सर्वत्र वही करते हैं। इसे ही मूल रूप से निहित पर प्रसुप्त श्रेष्ठता कहते हैं। वे ऐसे हैं कि चाहें तो तूफान बरसा करें और दुनिया को नष्ट कर दें। मगर इससे काम नहीं चलेगा। खान में पड़े हीरे की कीमत कहीं नहीं होती जब तक वह बाजार में उसकी पूछ न हो। पहलवान जब तक अपनी करामात न दिखाए उसकी कदर नहीं होती, उसकी धाक नहीं जमती। सिंह बलवान होता है सही। मगर जब तक वह सोया हो और अपना विक्रम दिखाए नहीं उसके पेट में हिरण चले नहीं जाते। इसीलिए किसानों की इस बीज रूप से निहित प्रसुप्त श्रेष्ठता को, विक्रम को वास्तविक रूप, व्यावहारिक आकार देना होगा ताकि दुनिया देखे और चकाचौंध में पड़े। बिना इसके उनकी राजनीति मुर्दा ही रह जाएगी उनकी विपदा बनी की बनी ही रहेगी जब तक हम उस विक्रम को प्रकट नहीं करते, जब तक हम उसे वास्तविक बल नहीं बना डालते तब तक उद्धार की कोई आशा नहीं। इसलिए हमारा, किसान सभा का, किसान सेवकों का और खुद किसानों का पूर्ण प्रयत्न होना चाहिए कि किसान वर्ग चेतना के आधार पर आर्थिक लड़ाइयों को राजनीतिक रूप में परिणत करें और अपने भीतर निहित जौहर को दिखाएँ। आखिरी प्रश्न यह रह जाता है कि जिस वोट की राजनीतिक महत्ता इतनी बड़ी है वह आखिर दिया किसे जाए? अपना वोट अन्ततोगत्वा दें किसे? असल में इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है। मगर इसका यह मतलब भी नहीं कि किसान इसे जान सकते ही नहीं। बात तो यह है कि यदि अपनी तलवार हम शत्रुओं को देंगे तो उससे हमारा ही गला सबसे पहले कटेगा। अत: ऐसी भूल तो हर्गिज करनी न चाहिए कि किसान अपने वर्ग के शत्रुओं को, जमींदारों और उनके दलालों को अपना-अपना वोट दे दें। इस बात में तो कोई रिआयत या समझौता करने की गुंजाइश ही नहीं। शत्रुओं के लिए सीधा और साफ नाहीं है। फिर आते हैं ऐसे लोग जो बीच में हैं। न तो किसानों के ही साथ साफ खुल के रहते हैं और न उनके दुश्मनों के ही साथ। कभी इधर ढुलकते नजर आते हैं तो कभी उधर। वास्तव में तो जो लोग किसानों के, शोषितों के, साथ खुल्लम खुल्ला नहीं आते वह खामख्वाह उनके शत्रुओं से मिली जाते हैं। तीसरा रास्ता तो है नहीं। मगर उनकी यह दशा स्पष्ट प्रतीत नहीं होती। साफ-साफ यह देखा नहीं जाता कि उधर जा मिले। यह भी सम्भव है कि अपवाद स्वरूप कुछ लोग बीच ही का रास्ता पकड़ें। हालाँकि ऐसों की संख्या नाममात्र की ही होती है। फिर भी बीच में रहने का नतीजा तो यही होगा कि कभी किसानों की ओर मिलेंगे और कभी जमींदार आदि की तरफ। हो सकता है, कभी उदासीन भी रहें। मगर यहाँ तो सीधा सवाल है कि किसानों और शोषितों के लिए सतत लड़ने और संग्राम करने का। जरा भी रिआयत न कर बेमुरव्वती से उनके हकों के लिए कदम-कदम पर मुठभेड़ करने की जरूरत है। इसलिए जो लोग ऐसा नहीं करते उनसे किसानों को कोई आशा नहीं हो सकती है। जब माँग भर सेन्दुर या चटपट विधवा की बात है तो गोलमोल कैसा? फिर भी ऐसे लोगों के सम्बन्ध में जरा सोच-विचार के काम करना होगा। वह कैसे किया जाएगा यह बात अभी-अभी साफ हुई जाती है। लेकिन इतना तो निर्विवाद है कि न सिर्फ जिनकी बातों से, प्रत्युत कामों से, रोज-रोज के सलूकों और व्यवहारों से, तौर-तरीकों से, चालों और हरकतों से, सारांश सभी प्रकार से, यह सिद्ध हो चुका है कि वे किसान हित के व्रत के व्रती हैं, किसानों के ही लिए मरने-जीने वाले हैं और जिनके बारे में किसान सभा ने भी आदेश दे दिया है, सबसे पहले वोट के असली अधिकारी वही लोग हैं। जिनके बारे में किसान संसार में जरा भी शकसुबहा ही रह गया है कि किसानों को छोड़ दूसरी ओर नजर भी डालेंगे, जिनकी सेवाओं ने, जिनके त्याग और बलिदान ने किसानों को न सिर्फ ऊँचा उठाया है, उन्हें उनका अधिकार दिलाया है, बल्कि जिनके सामने किसानों के सिर आभार के मारे झुक गए हैं वही हैं असली अधिकारी किसानों के वोट के। जिनके नाम पर जमींदारों और मालदारों में थर्राहट पैदा हो जाती है वही किसानों के वोट पा सकते हैं, उन्हीं को वोट मिलना चाहिए। सबसे बड़ी बात यह है कि जो न तो मेम्बर बनना चाहते और न वोट की परवाह करते हैं, लेकिन जिन्हें यदि किसान सभा हुक्म देकर खासतौर से भेजे तभी मजबूरन तैयार हो सकते हैं उनसे ही किसानों को कभी धोखा नहीं हो सकता। मगर सबकुछ होते हुए भी जिनके दिलों में मेम्बरी की कुछ भी इच्छा है या जो किसान सभा की सख्त फरमान के बिना भी वोट लेने और मेम्बर बनने की बात सोचते हैं उनसे धोखा हो सकता है। उनके दिल की यह दुर्बलता ही उन्हें कभी पथभ्रष्ट कर सकती है। किसान सेवकों को तो किसानों के अधिकारों के लिए लड़ना है। फिर यह लड़ाई चाहे कौंसिल, असेम्बली, पार्लियामेंट आदि में रह के लड़ी जाए, या उनसे बाहर ही रह के। कौन कहाँ लड़ेगा, कौन कहाँ रहके ही ज्यादा काम कर सकता है और ज्यादा खूबी से लड़ सकता है, किसके कहाँ रहने से ज्यादा फायदा किसानों को होगा, इस बात का निर्णय तो किसान सभा ही कर सकती है और वही उसी निर्णय के अनुसार अपने आदमियों को, सिपाहियों को हुक्म दे सकती है कि अमुक को अमुक स्थान पर जाना और काम करना है। फिर तो बिना ननुनच के वहाँ जाना ही होगा और जब तक वहाँ से वापस आने की आज्ञा नहीं होती वहीं रह के अपनी डयूटी अदा करनी होगी। ऐसी दशा में किसी भी किसान सेवक को अधिकार या स्वतन्त्रता कहाँ रह जाती है कि वह खुद सोचे कि असेम्बली वगैरह में जाएगा या बाहर रहेगा? और अगर कोई किसान सेवक नामधारी ऐसा करता है तो वह ईमानदार सेवक नहीं है। मगर ऐसे किसान सेवकों को देने के बाद भी ऐसा मौका आ सकता है कि औरों को भी देना पड़े। ऐसा भी मौका हो सकता है कि ऐसे किसान सेवकों को वोट देना उचित न हो, उचित न समझा जाए। क्योंकि परिस्थितियाँ बराबर एक सी नहीं रहती हैं, बदला करती हैं। खास कर राजनीतिक लड़ाई में ऑंख मूँदकर काम करने में खतरा होता है। राजनीति का रास्ता कोई राजमार्ग नहीं है। वह तो बड़ा ही टेढ़ा-मेढ़ा और बीहड़ है, नीचा-ऊँचा है। इसलिए वहाँ सँभल-सँभल पग धारिए की बात है फलत: ऐसी जरूरत पड़ सकती है कि खाँटी किसान सेवकों के बजाए औरों को वोट दिया जाए। वैसे मौकों पर ही खूब सोचना-विचारना पड़ता है। वही किसान सभा के नेतृत्व और किसानों की राजनीतिज्ञता की कड़ी परीक्षा होती है। उसमें उन्हें उत्तीर्ण होना होगा। सौ बात की एक बात तो यह है कि जब तक शोषितों के हाथ में पूर्ण रूप से शासन सूत्र आ नहीं जाता और आने पर भी जब तक खतरा है कि छिन जाए तभी तक यह बातें ज्यादा सोचनी पड़ती हैं कि किसे वोट दिया जाए, किसे न दिया जाए। पीछे तो यह मसला आसान हो जाता है और उतने सोच-विचार की जरूरत रही नहीं जाती है। क्योंकि चुनाव के फलस्वरूप पदों को भोगना तो है नहीं, पदों को स्वीकार करना तो इसलिए है नहीं कि उनसे किसानों के लिए कोई वैधानिक और रचनात्मक काम करें। यह बात तो गलत है। यह सिद्धान्त ही भ्रमात्मक है कि पूर्ण अधिकार मिलने के पूर्व ही इस दृष्टि से कोई भी पद स्वीकार किए जाएँ यह तो सुधारवाद और अवसरवादिता है। हमें तो इससे हजार कोस दूर रहना है। यह तो वह कीचड़ है कि इसमें फँस के हम खत्म ही हो जाएँगे, मरी जाएँगे। इसलिए हमें तो तब तक उन संस्थाओं का क्रान्तिकारी उपयोग मात्र करना है। हमें उनका ऐसा उपयोग करना है कि क्रान्ति का वायुमण्डल तैयार हो, उसका मार्ग परिष्कृत हो, उसकी बाधाएँ कम हों। कोई भी ऐसी संस्था न तो बुरी होती है और न भली। सबकुछ निर्भर करता है उसके उपयोग पर ही। यदि हमने उसका उपयोग क्रान्ति के लिए किया तो ठीक है। मगर यदि केवल सुधार बुद्धि से किया तो बुरा है। और इनका क्रान्तिकारी उपयोग केवल यही है कि इनमें जा के शोषकों का, उनकी चालों का, उनकी सरकार का पद-पद पर भंडाफोड़ दिया जाए, कच्चा चिट्ठा खोला जाए। और अड़ंगे लगाए जाएँ। बाहर जो क्रान्तिकारी आन्दोलन चलते हैं, उनके साथ भीतर के काम का पूरा मेल हो और दोनों एक-दूसरे के पोषक हों। फलत: इसी दृष्टि से लड़ने वालों को ही उन संस्थाओं के मेम्बर बनाना ठीक है। ऐसे ही लोगों को वहाँ चुन के,वोट दे के,भेजना चाहिए। मगर हमारे चाहने पर भी जब परिस्थितिवश ज्यादातर ऐसे लोग भेजे न जा सकें या यों कहिए कि सभी चुनाव क्षेत्रों में ऐसों का भेजना गैर-मुमकिन हो तब क्या करना होगा, यह प्रश्न है। वहाँ सरकार तो चलानी है नहीं और न संस्था ही चलानी है। प्रबन्ध भी नहीं करना है। ऐसी दशा में यदि हमारा बहुमत न भी रहे तो क्या हर्ज? अड़ंगा और भंडाफोड़ तो कुछ चुने चुनाए लोग भी करी सकते हैं। इसलिए जहाँ तक ऐसे पक्के नेता भेजे जा सकें, भेजें जाएँ। कोशिश यही रहे कि कुछ न कुछ जरूर ही भेजे जाएँ। सारी शक्ति लगा के कम से कम कुछ जगह सफलता प्राप्त की जाए जरूर ही। जो लोग खड़े हों वह हारें न तो अच्छा। मगर इसका यह भी मतलब नहीं है कि हारने की ही डर से हमारे पक्के आदमी कहीं से खड़े ही न हों। यह तो सरासर गलत बात होगी। हम तो स्वतन्त्र रूप से अपने कुछ आदमियों को खड़ा करेंगे ही। हाँ कोशिश करेंगे कि वे जरूर जीत जाएँ। इसीलिए यदि कठिनाई देखेंगे तो ज्यादा जगह से अपने आदमी खड़ा करेंगे ही नहीं। मगर यदि कहीं एकाध हारे भी तो परवाह नहीं, चुनाव में खड़े हो के जीत लेना ही काम नहीं है। किसान सभा के खाँटी आदमियों को जो तपे तपाए हों, खड़ा करके हम अपनी नीति को जनता के सामने स्पष्ट कर देंगे कि वहाँ जाके हमें क्या करना है। इसका नतीजा यह होगा कि जो लोग हमारे विरोधी होंगे या जो जीत का रास्ता पकड़ने वाले होंगे उन्हें अपनी नीति का खुलासा खामख्वाह करना होगा। सो भी सिर्फ उसी चुनाव क्षेत्र में नहीं, किन्तु सर्वत्र। जनता या किसानों को हमारी नीति मालूम हो जाएगी तो सभी चुनाव क्षेत्रों में आग की तरह यह बात फैलेगी। फलत: सर्वत्र जनता और किसान उम्मीदवारों से किसी नीति के आधार पर यह प्रश्न करेंगे कि आप वहाँ जाके क्या करेंगे ? इसका परिणाम यह होगा कि जनता का और किसानों का वोट जिसमें जरूर मिले इसके लिए उन्हें अपनी नीति का स्पष्टीकरण करना ही होगा। और खामख्वाह ऐसी बातें कहनी ही होंगी, ऐसी घोषणाएँ करनी ही होंगी जिनसे किसानों को लाभ हो और वे खिंच जाएँ। हमारी नीति के मालूम होते ही उन्हें भी बहुत कुछ किसान हित की बातें, किसान हित के वादे करने ही होंगे। नहीं तो वोट ही न मिलेगा। इस प्रकार वे वादे में बँध जाएँगे। हमारा काम यही होगा कि हम किसानों से कह दें कि ये सभी वादे खूब याद रखें। क्योंकि मौका आने पर जब वे लोग इन्हें पूरा न करेंगे तो उनसे सवाल करना होगा। इस प्रकार आगे चल के उनकी पोल खुल जाएगी और किसानों को पुनरपि वे ठग न सकेंगे। अब इस वोट के बारे में केवल एक ही बात रह जाती है जहाँ से हम अपने पक्के आदमी किसी वजह से चुन नहीं सकते वहाँ क्या करें? वहाँ चुपचाप बैठे रहें या किसी को वोट दें-दिलाएँ ? चुपचाप रहना ठीक नहीं। वोट तो देना-दिलाना होगा ही। किसे दें-दिलाएँ यही प्रश्न है। हमें वहाँ देखना होगा कि चुनाव में जितने दल वाले पड़े हैं उनकी नीति क्या-क्या हो है। जो लोग किसी दल के न हो के व्यक्तिगत रूप से खड़े हों उन्हें तो साफ-साफ टका-सा उत्तर मिलना चाहिए फिर चाहे वह कितने ही अच्छे क्यों न हों? यह सदा याद रखना होगा कि राजनीतिक दल ही हारते और जीतते हैं। वही बुरा या भला कुछ कर भी सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से जाने वाले लोग तो हर मौके पर सिर्फ अपने ही लिए सौदा करते रहते हैं। फलत: वे बहुत ही खतरनाक होते हैं। इसलिए ऐसों को तो एक वोट भी नहीं मिलना चाहिए। तभी वह रास्ता बन्द होगा। रह गई दलों की बात। तो उसमें भी साफ-साफ शोषकों के बल के बारे में तो शुरू में ही कह चुके हैं। उनके लिए तो साफ इनकार है। मगर जो दब जाते हैं उनमें यह देखना होगा कि कौन दल जनता के ऊपर किसानों तथा औरों पर ज्यादा असर रखता है, जिसके ऊपर उनका ज्यादा विश्वास है कि उनकी भलाई करेगा। किसानों को जब तक अनुभव न हो तब तक क्या पता कि किसान सभा के बाहर जो लोग हैं और जो दल किसान सभा से अलग हैं वह एक न एक दिन किसानों को धोखा देंगे ही। किसान केवल लेक्चर से ये बातें समझ नहीं सकते। जनता का ऐसा स्वभाव नहीं। कुछ ही लोगों को इस प्रकार समझा सकते हैं। यह जनसमूह तो कटु अनुभव के बाद ही सीखता और ठीक-ठीक समझता है। जबकि उसके माथे न उतरे और उसकी ऑंखों के सामने न गुजरे उसकी अक्ल दुरुस्त नहीं होती। यही संसार का नियम है। इसलिए जिस दल पर उनका ज्यादा विश्वास हो उसी दल को चुन लेना होगा इस बात की कोशिश करनी होगी कि उसकी नीति और प्रोग्राम ज्यादे से ज्यादा किसानों के अनुकूल हो। किसान सभा के नेता लोग उस दल से साफ कह दें कि हम आपका साथ चुनाव में देंगे सिर्फ उन जगहों को छोड़ जहाँ खास हमारे आदमी खड़े हैं। इस प्रकार भरसक इस बात की कोशिश करनी होगी कि वह दल किसान सभा के आदमियों के विरुद्ध अपना उम्मीदवार खड़ा न करें। साथ ही अपना प्रोग्राम ऐसा बनाएँ जो किसानों को ज्यादा पसन्द हों, बनिस्बत और दलों के प्रोग्राम के। चाहे बातचीत और समझौते से या किसानों के दबाव से सही, यह बात हो जानी चाहिए। यह हमारी पहली जीत होगी यदि हमारे उम्मीदवारों का उस दल ने विरोध न किया और यदि प्रोग्राम भी कुछ ज्यादा बना तो कहना ही क्या? किसानों का वोट लेने के लिए अच्छा तो देखने में जरूर ही रहेगा यदि उसमें कुछ और भी तरक्की हो जाए तो ठीक ही है। यदि न भी हो तो वही सही। यदि हमारे आदमी का वह लोग विरोध न करें तो यह भी एक बात होगी, मगर यदि प्रोग्राम भी वही रखें और विरोध भी न छोड़ें तो भी कोई बात नहीं। किसान सभा को निश्चय कर लेना होगा कि बाकी जगहों में उसी दल को जिताने में सहायता दी जाएगी। इसके बाद किसानों को यह बात साफ-साफ बता देनी होगी कि हम उस दल के उम्मीदवारों की मदद करेंगे। क्यों करेंगे यह भी बता देना होगा। उसके बाद किसानों का काम होगा कि उसी के अनुसार काम करें। उसमें जरा भी इधर-उधर होने न पाएँ। किसानों को हम अच्छी तरह समझा देंगे कि हम उन्हें इसीलिए मदद कर रहे हैं कि तुम्हारा विश्वास उसी दल में ज्यादा है। तुम समझते हो कि वह दल विजयी हो के तुम्हारे हक तुम्हें दिलाएगा। उस दल की बातों और प्रतिज्ञाओं पर तुम्हारा अभी तक विश्वास है। हम हजार समझाते हैं, मगर तुम अभी समझते नहीं हो। तुम्हारा विश्वास उन पर से डिगता नहीं। इसलिए तुम्हारी बात मानकर के ही हम ऐसा करते हैं कि तुम उसे पसन्द भी करो और आगे चल के तुम्हारी ऑंखें भी अपने अनुभव के बल पर खुल जाएँ और तुम असलियत समझ जाओ कि तुम्हारा उद्धार कौन करेगा, तुम्हें पक्का यकीन हो जाए कि किसान सभा के सिवाय दूसरे से तुम्हारा उद्धार हर्गिज न होगा। जब वे लोग चुन के असेम्बली या पार्लियामेंट या ऐसी ही दूसरी संस्थाओं में जाएँगे तभी उनका नंगा रूप मालूम होगा। क्योंकि बहुमत के आधार पर जब वहाँ ये पद ग्रहण करेंगे तो उस समय वे वादे भूल जाएँगे जो आज किसानों से कर रहे हैं। वही परीक्षा का समय होगा। और कलई घुलेगी, 'हकीकत साफ खुल जाएगी वक्ते इम्तहां तेरी।' उन्हें यह भी बता देना चाहिए कि और दलों के लोग तो किसानों से ज्यादा दूर हैं बनिस्बत इस दल के। फलत: उनसे तो किसानों को भी कोई आशा शायद ही है। ऐसी हालत में उन्हें जिताना बड़ा ही खतरनाक है। वे तो सीधा शोषण करते ही जाएँगे। इसलिए उन्हें बहुमत में भेज के उनके हाथ में शासन या प्रबन्ध की शक्ति देना तो शैतान के हाथ में मशाल देना हो जाएगा। जब हम इस दल का समर्थन करते हैं तो खतरा तो मिटी जाता है। वे लोग तो हमारी और किसानों की भी नजरों में खतरनाक हैं। अत: उनसे बचना ही चाहिए। मगर जिस दल का समर्थन हम करते हैं गो हमारी दृष्टि में वह भी खतरनाक है। फिर भी दुर्भाग्य से किसान समूह ऐसा नहीं समझता। फलत: यहाँ हमारा और उसका मतभेद है। इसलिए हम किसानों की ही बात मानकर यहाँ चल रहे हैं और सर्वसम्मत मर्ज (खतरे) की दवा पहले करते हैं। चटपट मारने वाला रोड़ा पहले भगा रहे हैं। इसके बाद जो अभी सर्वसम्मत रोग नहीं है, फलत: जो देर से मारेगा उसकी पारी भी खामख्वाह आएगी और वह भी भगाया जाएगा। मगर किसानों की ऑंखें खुलने पर ही इतना करने के बाद चुनाव का काम ठीक ही होगा। टिप्पणी--इस लेख के आगे के पृष्ठ उपलब्ध नहीं हैं।
यह क्या? लोकसंग्रह नागपुर में सत्याग्रह समर का मारूं बाजा बज गया था, रणचण्डी की प्रचण्ड पुकार दिग्दिगन्त में फैल गई थी, समरांगण में आहुति होने के लिए देश की वीर आत्माओं के दल एके बाद दीगरे रणभूमि पहुँच रहे थे, हँसते-हँसते माता के लाल जेल की चहारदीवारी के भीतर बन्द होते जाते थे, माता की दारुण दुर्दशा से सन्तप्त हृदय अपनी श्रद्धा की पुष्पांजलि लेके उसकी आराधना के लिए लालायित हो उठे थे। मातृभक्ति को शब्दों से नहीं, किन्तु कर्मों द्वारा प्रकट करने का अलभ्य अवसर ढूँढ़ने वालों ने इस देवदत्त स्वर्ण सुयोग का हृदय से स्वागत किया था। इस अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए आगे बढ़ने वालों की होड़ लग चुकी थी और लग रही थी, देश के कोने-कोने से सच्ची लगन वाले महापुरुष धीरे-धीरे युद्धभूमि में पहुँच के सैन्य संचालन, सामग्री सम्पादन और शान्तिपूर्ण रण को अनवरत चलाने का उदात्त उद्योग कर रहे थे, इस धर्मयुद्ध का श्रीगणेश करनेवाला महारथी शत्रु के पिंजड़े में बन्द हो के अपने प्राणों की बाजी लगाए बैठा था। इसका प्रथम सेनापति, जो इसका जीवन है, प्राण है, आत्मा है, ज्योति है, दारुण तपश्चर्य में विलीन होके क्षुधा, तृषा आदि कष्टों की उपेक्षा की मूर्ति बन बैठा था और 'शरीरं वा पातर्ययं कार्यं वा साधयेयम्' का जीता जागता भाष्य अपनी क्रिया के रूप में जनता के सामने उपस्थित करने को बद्धपरिकर हो गया था। ठीक इसी समय अकस्मात् बिना बादल के आकाश से विकराल विद्युतपात होता है, रुक जाओ, Halt, की मनहूस आवाज होती है, जो उत्साह मदमत्त आत्माओं की उमंग पर पानी फेर देती है और मालूस के अन्तस्तल से आवाज आती है कि यह क्या? सत्याग्रह समर के विशेषज्ञ महात्मा जी का वह पत्र ही इस रसभंग, इस 'मोहन भोग की कंकड़ी' का कारण बताया जाता है, जो उनके द्वारा सत्याग्रह के सम्बन्ध में श्रीयुत भरुचा को लिखा गया था। आज बहादुर मंचेरशा जेल के भीतर बन्द है और उनकी जगह दूसरे लोग सेनापति के पद पर अभिषिक्त हुए हैं। उनका कहना है कि महात्मा जी के अनुरोध और लोकमत जानने के खयाल से एक मास के लिए समर स्थगित किया गया है। परन्तु हमारी तो समझ में आता ही नहीं कि मध्य धारा में आके नौका की जाँच कैसी? नाविकों की परीक्षा और सम्मति कैसी? यदि यही करना था तो आरम्भ करने से प्रथम ही कर लेते, खूब सोच-विचार लेते। मध्य में आके और कुछ लोगों को बलिदान करके यह परामर्श और लिहाज कैसा? युद्ध के मध्य में ऐसा करना पराजय का नामान्तर ही समझा जाता है? तो क्या अब हमारी वीरता इसी में है कि सेनापति के हटते ही आत्मसमर्पण कर दें? देश को आजाद करने में क्या यही लड़कपन काम देगा? अब जब शुरू कर चुके थे, तो 'विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना: प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति' को चरितार्थ करने में ही मनुष्यता थी, इनसानियत थी, शान थी, बुद्धिमानी थी, शिष्टसम्मत मर्दानगी थी। लेकिन पद पद पर आगा-पीछा करना हमारा सनातन धर्म जो ठहरा। बस 'विघ्नविहता विरमन्ति मध्या:' को ही हमने यहाँ चरितार्थ कर डाला, 'सहसा करि पाछे पछताहीं' का लक्ष्य अपने आपको बना दिया। यही तो हमारी बहादुरी की बानगी और मर्दानगी का नमूना है। बेशर्मी की हद हो गई और गैरत का गला घुट गया। जिस जोश और उमंग के साथ यह समर छिड़ा था और आगे चल कर अग्रणी लोग जैसी उत्साहपूर्ण बातें कर रहे थे, उससे इसको स्वप्न में भी आशा न थी और अचानक यह देख के मुख से निकल आया कि यह क्या? मान लीजिए कि लोकमत जानने के लिए ही हमने सत्याग्रह स्थगित किया है और यदि लोकमत इसका विरोधी हुआ तो फिर इसे बन्द कर देना ही पड़ेगा। ऐसी दशा में देश के जिन लालों को हम लोगों ने जेल भेजा है, उनका क्या होगा? उनकी इस व्यर्थ की जिल्लत का उत्तरदायित्व किस पर होगा? और यदि वे यों ही जेल में सड़ते रह गए, और दैव न करे कि ऐसा हो, यदि अवारी की दशा मैक्सिवनी की हो गई, तो संसार के सामने मुख दिखलाने की भी जगह कहाँ रह जाएगी? यदि निर्लज्जता की ओट में ऐसा कर भी लें तो भविष्य में क्या होगा? देश के दबंग नेताओं और कांग्रेस की बार-बार घोषणा है कि बिना सत्याग्रह के स्वराज्य प्राप्ति असम्भव है। लेकिन यदि बालकों की तरह चट सत्याग्रह शुरू कर कुछ को जेल में पठाके पट सोचना और लोकमत जानने के लिए उसे यों ही स्थगित करना शुरू कर दिया करेंगे तो फिर जनता का विश्वास हम पर और सत्याग्रह पर कैसे रह जाएगा? और यदि उसका विश्वास ही जाता रहा, तो फिर केवल स्वयम्भू नेताओं के करते क्या होगा? यह तो कहने की बात ही नहीं कि सार्वजनिक कार्यों में ऐसी हरकतों का नैतिक प्रभाव अत्यन्त अनिष्टकारी, भयंकर एवं विषमय होता है। ऐसा करने से सार्वजनिक कार्यों का भविष्य सदा के लिए चौपट हो जाता है। यही नहीं, जेल में जलील होने वाले वीर अवारी और दूसरे सैनिकों को ज्यों ही हमारी इस कायरता और बुजदिली का पता लगा होगा त्योंही उन पर बिजली गिर गई होगी और उन्होंने आह भरी होगी कि यह क्या ? क्या ऐसी घोषणा करने की बात सोचने से पहले हमने इस महापाप से बचने का, इस आत्मघात की निवृत्ति का, इस देशद्रोह के प्रायश्चित्त का कोई उपाय सोचा है? यदि नहीं, तो दुनिया हमारे नाम पर थूकेगी और स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ने वाले हम बहादुरों की इस करनी को देखके पूछेगी कि इस लड़ाई के मध्य में ही यह क्या? लोकमत जानने के लिए परतन्त्र और पतित देशों के लिए यह रीति नहीं है जो नागपुर के नेताओं ने निर्धारित की है। यह तो स्वतन्त्र और समुन्नत देशों के ही लिए लागू है, मौजूं है। पराधीन देशों में तो जनता का मत जानने और बनाने का एक ही लासानी उपाय है और है वह दुष्कर। आज हम महात्मा जी के पत्र का बहाना लेकर सत्याग्रह, स्थगित करने के नाम पर, बन्द कर देते हैं। परन्तु यदि 19 मई के उनके ही यंग इंडिया को देखते तो पता लग जाता कि लोकमत जानने और बनाने का कौन सा उपाय उन्होंने बताया है। यह लिखते हैं, ''निस्सन्देह अब तो कार्यकर्ताओं को स्वावलम्बी हो जाना चाहिए। उन्हें अब बड़े और प्रभावशाली समझे जानेवाले लोगों के मुँह की ओर इस आशा से देखने की कोई जरूरत नहीं कि वे उन्हें अपने नामों का उपयोग करने की इजाजत दें। बल्कि यदि वे किसी बात को ठीक समझें तो उन्हें स्वयं ही निर्भयतापूर्वक अपनी योजनाओं पर अमल शुरू कर देना चाहिए। उन्हें अपने विश्वास के बल और कार्य पर ही निर्भर रहना चाहिए। गलतियाँ तो होंगी ही और कष्ट भी होगा, सो भी ऐसा कष्ट जो टाला नहीं जा सकता। पर, राष्ट्र यों ही आसानी से नहीं बन जाते। किसी बड़ी बात को हासिल करने के लिए कठोर और कड़े अनुशासन (Dicipline) की आवश्यकता होती है और यह अनुशासन कोरी दलील और निरे वाद-विवाद से नहीं प्राप्त होता। इसका पाठ तो विपत्ति की शालाओं में ही पढ़ा जाता है। और जब युवक बिना किसी ढाल के काम करना सीखेंगे तो वे अनुशासन और जिम्मेदारी को भी अच्छी तरह जानने लग जाएँगे। फिर तो इन उम्मीदवार नेताओं की फौज में से एक ऐसा नेता पैदा होगा जिसे अनुशासन और आज्ञापालन के लिए पुकार मचानी न पड़ेगी, वरना वे उसे स्वभावत: प्राप्त हो जाएँगे। कारण, वह कई जगह धोखा खाके और परीक्षाओं में उत्तीर्ण होके निश्चित नेतृत्व के लिए अपना अधिकार सिद्ध कर देगा।'' क्या इससे अच्छा उपाय लोकमत को जानने या अपने अनुकूल बनाने का हो सकता है? तो क्या नागपुर के नेताओं ने महात्माजी का यह भी कथन सुना है या केवल पत्र ही पढ़ा है? स्मरण रहे कि पत्र तो यों ही ऊपरी है। पर, यह लेख तो उसी सत्याग्रह के बारे में ही है। और यदि पढ़ा है, तो सत्याग्रह स्थगित करने के व्याज से यह क्या? मौ. मुहम्मद अली चाहते हैं कि लाठी भी न टूटे और साँप भी मर जाए। परन्तु अब तो समय ही पलट गया है। फलत: इस गंगा-यमुनी चाल की गुजर अब नहीं। आप या तो मुसलमानों को ही प्रसन्न रख सकते हैं या हिन्दुओं के ही प्रेमभाजन हो जाएँ। पर, दोनों कैसे होगा? भय है कि कहीं 'दुविधा में दोऊ गए' को ही आप चरितार्थ न कर बैठें और आपकी दशा त्रिशंकु की हो जाए। यदि सब समाचारपत्रों में प्रकाशित महात्माजी का नागपुर सत्याग्रह के सम्बन्ध का पत्र ठीक है, और ऐसा न होने का कोई कारण तो दीखता नहीं, तो स्वीकार करना पड़ता है कि हम महात्माजी की मनोवृत्ति समझने में सर्वथा असमर्थ हैं। यदि इस सत्याग्रह को वे असत्याग्रह और अशान्तिमूलक समझते हैं, तो 19 मई वाले अपने इसी विषय के लेख में उन्होंने यह स्पष्ट लिख क्यों न दिया? उसमें तो केवल इतना ही लिखते हैं कि इस सत्याग्रह के सम्बन्ध में मेरी स्वीकृति नहीं है, बस, मैं इतना ही कह सकता हूँ और इसके बारे में कोई राय नहीं दे सकता। आज फिर ऐसा क्या हो गया कि एकदम इसके विरोधी हो गए? यदि सशस्त्र सत्याग्रह आज अशान्तिमूलक और हेय है, तो क्या यह उनकी नई जानकारी है? यह तो पहले से ही जानते होंगे। इसके सिवाय चोरी के कानून की अवज्ञा की उपमा इस अवसर पर बहुत खटकती है। उससे यहाँ क्या सम्बन्ध? अस्त्र विधान ने तो भारत को जनाना, नामर्द और पंगु बना दिया है। इसने ईश्वरीसृष्टि में यह मरम्मत कर दी है। फलत: हम चोर-डाकुओं और जंगली जन्तुओं से अपनी रक्षा नहीं कर सकते। जो यमराज से वार्तालाप करने के लिए मृत्यु का आलिंगन हँसते-हँसते करते थे आज वही लाल पगड़ी देख के डर जाते हैं। यह महापाप किसके करते हुआ? क्या इसका कारण और कोई है? यह विधान मनुष्यता का कलंक है। अतएव इसकी अवज्ञा से चोरी के विधान की अवज्ञा की तुलना कैसी? सशस्त्र सत्याग्रह शान्तिपूर्ण नहीं हो सकता है, यह भी निराली बात है। जिन्होंने कृपाणधारी सिखों को गुरु के बाग और जैतों में शान्तिपूर्ण सत्याग्रह करते देखा है, वही कह सकते हैं कि शान्ति शस्त्र रखने न रखने से नहीं होती वह तो मन का पदार्थ है, मनोवृत्ति है। जिस प्रकार चातक को चन्द्रमा से लगन होती है और रह-रह के यही याद हो आता है, जिस तरह पपीहा को स्वाती की बूँद की पिपासा रहती है और क्षण-क्षण में उसकी स्मृति हुआ करती है, जैसे चींटों को चीनी से प्रेम होता है और पल-पल में वही स्मरण हो जाती है, जिस प्रकार मीन को जल से प्रीति होती है और वियोगावस्था में वही उसके दिमाग में घूमा करता है, जिस तरह मयूर को श्याम मेघमाला से मुहब्बत होती है और वही उसे बार-बार नचाया करती है, जैसे पतंग को दीपक से अनुराग है और वही उसे पुन:-पुन: व्याकुल कर दिया करता है, जिस तरह मृग का मुरली की तान से जी जान का सम्बन्ध है और वही उसे अधीर कर दिया करती है, जिस प्रकार मधुकर को पुष्परस से घनी घनिष्टता है और वही उसे अपनी स्थिति भुला देने को विवश कर देता है, जिस तरह हाथी को हथिनी से गाढ़ी मैत्री है और वही अपने दर्शनमात्र से उसे जाल में फँस जाने को बाध्य करती है, जैसे मछली को माँस और अन्न के टुकड़ों की लालच है और वही उसे वंशी में फँस के प्राणाहुति के लिए विवश कर देते हैं, ठीक उसी तरह हमें रायल कमीशन से अनुराग है, प्रीति है, घनिष्ठता है, लगन है और क्या नहीं है? फलत: हम उसकी याद से आज तड़फड़ा उठे है और हम उसके द्वारा किस जाल में फँसेंगे, किस वंशी को गले में घुसेड़ेंगे, किस दीप की शिखाज्वाला में जलेंगे, इसका हमें पता ही नहीं। चीनी में मिठास अवश्य होती है, परन्तु उसी के आस्वादन में सहस्र-सहस्र चींटियों की जान एक ही साथ जाती है। परन्तु हमें तो इसकी परवाह है ही नहीं, इस अनर्थ की कल्पना भी हमें नहीं है। हम तो इस समय एकमात्र यही बात सोचते हैं कि किस प्रकार रायल कमीशन का पदार्पण शीघ्रातिशीघ्र यहाँ हो जाए और हम लोग उससे अपना मनोअभिलषित सिद्ध करें। परन्तु भविष्य के गर्भ में रहने वाले अनर्थ को, प्राणान्तकारी परिणाम को, सत्यानाशकारी परिपाक को, यदि उसकी सम्भावना होती, भुला देने में या उस ओर दृष्टिपात न करने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। कोई कहे या न कहे, बोले या न बोले, अपनी मण्डली और समिति में प्रस्ताव करे या न करे, प्रत्युत दिखाने के लिए अपनी भावभंगी से उदासीनता ही क्यों न प्रकट करे, लापरवाही क्यों न सूचित करे, लेकिन हममें हरेक का मानस उसी कमीशन की ओर खिंचा है, प्रत्येक भारतीय का मानस रूपी लोहा उसी कमीशन रूपी चुम्बक की ओर आकृष्ट है और लाख अनिच्छा के रहते हुए भी हम दिन-रात कम से कम एक-दो बार उसकी स्मृति अपने मानस पटल में अवश्य जगा लेते हैं। निस्सन्देह हममें कुछ ऐसे वीर पुरुष भी हैं, जिन्हें कमीशन की स्मृति दु:खद है और वे आज भी ऐसे कमिशनों के वैसे ही विपक्षी हैं जैसे आज से कई वर्ष पूर्व थे। वे सोचते हैं और हमारे जानते ठीक ही सोचते हैं कि यह कमीशन और कमेटियाँ हमारे जाल हैं, जो हमारी मनोवृत्ति को वास्तविक कार्य से बलात् हटा कर अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। हमारी स्वभावसिद्ध कमजोरियों को प्रबल हो जाने और अपना प्रभाव दिखा देने का अवसर देती, इनके करते मानव स्वभाव-सिद्ध-दुर्बलता एकाएक बलवती हो उठती है और आतुरता के आवेश में आके हममें बड़े से बड़े भी आशा-भरी दृष्टियों से इन्हें देखने की भारी भूल कर बैठते हैं, थाली खो जाने पर व्यग्रता और आतुरता के मारे घड़े में भी हाथ डाल के टटोलने की बात प्रसिद्ध ही है। बस, उसी नियम को चरितार्थ करते हुए हममें वीर से वीर और निरपेक्ष से निरपेक्ष आत्माएँ भी इन कमीशनों के मायाजाल में अनायास और अनजान में ही फँस जाती हैं। मयदानव द्वारा रचित सभा में बड़ों-बड़ों को भी भ्रम हो जाना कोई नई बात नहीं है। यह माया ऐसी है और यह मोह ऐसा प्रबल है कि 'सियहिं विलोकि धीरता भागीं' को चरितार्थ करने में जनक सरीखों के त्याग, वैराग्य और निर्मम प्रवृत्ति को भी स्थानच्युत कर देने की कमाल की करामात इन कमेटियों में रहती है? इनके करते जो पारस्परिक भेदबुद्धि और कलह उत्पन्न होती है उसकी स्मृति अभी ताजा ही है और हममें शायद ही कोई उसे भूला होगा। यह है संक्षेप में कतिपय दूरअंदेशों का विचार। यह बात बिलकुल ही सत्य है कि जब बिजली चमकती है तो हममें दृढ़ से भी दृढ़ पुरुषों की ऑंख सहसा झप जाती है। इन कमीशनों का वायुमण्डल मय सभा से भी अधिक मोहक और चपला की चमक से भी विशेष विचलित करने वाला, अन्तर्दृष्टि को झपानेवाला होता है। लोग कौंसिलों को ही मायामन्दिर कहते हैं। परन्तु ये कमीशन तो इस विषय में कौंसिलों के भी बाप हैं। फलत: ये कमिशन सिवाय भारतीयों को फँसाने के और कुछ कर ही नहीं सकते। मछलियों और दूसरे जीव-जन्तुओं को फँसाने के लिए भी अन्ततोगत्वा कुछ न कुछ चारा फैंकना ही पड़ता है। ये विचार कुछ उच्च आत्माओं के हैं और सोलहों आने यथार्थ हैं। परन्तु आज इन विचारों की प्रतिष्ठा कहाँ है? हममें कितने हैं जो इन विचारों को व्यावहारिक रूप देने को आज तैयार हैं? यद्यपि कमीशन का बहिष्कार, वास्तविक और व्यावहारिक बहिष्कार इन विचारों का फल हो सकता है, तथापि आज इस राष्ट्रीय दुरवस्था के युग में बहिष्कार की चर्चा उठा के मूर्खता करने कौन जाएगा? हम जानते हैं कि बहुतेरे इसकी चर्चा भी करेंगे। परन्तु हृदय से इसे माननेवाले और साथ ही बड़े कहाने वाले कितने मिलेंगे? बड़े इसीलिए कि छोटों को पूछता ही कौन है, चाहे वह कितने ही पक्के और बहुसंख्य क्यों न हों। फिर भी इन कमीशनों की उपेक्षा तो की जा सकती थी और की जा सकती भी है। लेकिन क्या यह भी हमसे सम्भव है? क्या आज के दूषित और मनहूस वायुमण्डल में यह भी हम सामूहिक रूप से करने को तैयार हैं? कदापि नहीं। हमें तो रह-रहके वही याद आ रहा है और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वही आज हमारे विचारों का प्रधान विषय हो रहा है। लोग हम पर हँसेगे और कहेंगे कि यह क्या लड़कों और पागलों की बातें कर रहे हो? कमीशन की उपेक्षा करना मूर्खता और पहले से पड़ी बेड़ियों को और भी जकड़ने का सामान प्रस्तुत करना है। अब इनकी मोहकता और विचालक शक्ति का पता हमें अच्छी तरह है। फलत: इन अनिष्टों की सम्भावना इनसे कदापि नहीं है। परन्तु ऐसा कहने वालों को हम हाल के ताजे कृषि कमीशन की याद दिलाएँगे। क्या वे भूल गए कि इन कमीशनों और कौंसिलों के पूर्ण अविश्वासी महात्माजी भी किसी न किसी रूप में इनके फन्दे में फँस ही गए? चाहे उनका फँसना ऊपरी और क्षणिक ही क्यों न हो और चाहे उन्होंने और लोगों ने भी उनकी सफाई इस बारे में लाख क्यों न दी हो। फिर भी उन्होंने इस बारे में जो बम्बई के गवर्नर से परामर्श किया था उसका प्रभाव लोगों पर कितना पड़ा और कैसा हुआ? महात्माजी के सहस्र-सहस्र कट्टर अनुयायियों पर गोया वज्र ही टूट पड़ा और उनका हृदय टूक-टूक हो गया। उन्होंने लाख सफाई दी, पर जनता का सन्तोष उससे न हो सका और हो भी कैसे? उन्होंने भी तो कुछ न कुछ आशा उस कमीशन से की ही थी, तभी तो उस सम्बन्ध में बातें करने गए। यदि निराश होते तो बातें क्यों करने जाते? बस, यही आशा सब विपत्तियों और अनर्थों की जननी है और इसी ने उन्हें भी धोखे में डाल दिया। धोखे में इसलिए कि अभी-अभी मद्रास सरकार ने सक्र्यूलर निकाल के उनके चरखा संघ को राजनीतिक करार देते हुए सरकारी कर्मचारियों को उसमें सहायक होने से रोका है। जब महात्माजी पर भी उसका प्रभाव हो गया तो यहाँ इस कथन में अत्युक्ति क्या कि 'सिव बिरंचि कहुँ मोहइ, को है बपुरा आन?' क्या हम इससे शिक्षा ग्रहण करेंगे? कहा जाता है कि कमिशन में आधे या अधिक भारतीय हों और वे जनता के विश्वासपात्र हों, प्रतिनिधि हों, कमीशन के यूरोपीय सदस्यगण ऐसे हों कि जिनका भारत से प्रत्यक्ष रूप से कोई स्वार्थ या सम्बन्ध न रहा हो या भविष्य में होने की सम्भावना हो, आदि आदि। यह भी माँग अभी से पेश की जाती है कि प्रान्तों को पूर्ण स्वायत्ताशासन देने की सिफारिश करते हुए भारत सरकार में भी जिम्मेदारी का भाग प्रविष्ट किया जाए और वह भी पूर्णरूपेण नहीं तो आंशिक रूप से ही जनता के प्रति जिम्मेदार हो। लेकिन यह बातें सुनके हँसी भी आती है और रुलाई भी। विचार होता है कि क्या अभी तक हमने ब्रिटिश सरकार को पहचाना तक नहीं? तो क्या सचमुच ये कमीशन निरी हमारी ही भलाई के लिए नियुक्त हुआ करते हैं? आखिर, यह खामखयाली भी हम किस बूते पर करते हैं? यह सोचते भी हम किस आधार पर हैं? यदि हमारे करते इस कमीशन की नियुक्ति हुई रहती तो एक बात थी। पर, हम तो चट्टान से भी टकरा-टकरा के अपना सिर फोड़ और मन मोड़ चुके और उसका कुछ न हुआ। फिर भी हम मान बैठते हैं कि यह वही कमीशन नियुक्त होता है जिसे हमने बार-बार चाहा है, जिसका मुतालिबा बार-बार पेश किया है। पर, याद रखना चाहिए कि यह कमिशन वही नहीं है। यह तो हमारे ब्रिटिश प्रभुओं का निजी है, जो उनकी ही मर्जी मुबारक का फल है। चीन में गड़बड़ी है और रूस से भी तनातनी है। अफगानिस्तान का भी रुख अंग्रेजों के प्रति अच्छा नहीं है। यह पता चला है कि रूस सरकार का हाथ अफगानिस्तान में इस समय विशेष है। जापान अंग्रेजों से सन्तुष्ट है नहीं और चीन में राष्ट्रीय भावों की विजय हो ही रही है। तो क्या इन सब घटना चक्रों का प्रभाव भारत पर न पड़ेगा और हमारे प्रभु इनसे दूरअंदेशी का लाभ न उठावेंगे? यह तो कभी सम्भव नहीं। बस, इन्हीं के करते यहाँ कमीशन जो कुछ कर जाए वह कर जाए। हमें अपने बल को तो इस समय कुछ भी आशा करनी निरी मूर्खता होगी। जिस प्रकार महापात्रों को दैवी कोप की आशा रहती है और वह दिन-रात यही सोचा और मनाया करते हैं कि अमुक धनिक यजमान के घर कोई मृत्यु हो तो कुछ मिले, ठीक वही दशा हमारी है और हम भी दिन-रात यही सोचा करते हैं कि ब्रिटिश सरकार बाहरी विपत्ति आवे जिससे हमें लाभ हो। इस समय भी यही दशा है, जितनी चिन्ता हमें बाहरी परिस्थिति की रहती है और जितना अवलम्बन उस पर करते हैं यदि उसका सहस्रांश भी अपनी चिन्ता करके स्वावलम्बी होते तो आज भारत का इतिहास दूसरा ही होता। अन्ततोगत्वा यही करना होगा, कारण, बाहरी घटना चक्र की फलस्वरूप अधिकर-प्राप्ति कभी स्थायी न हो सकेगी और 'मालेमुफ्त दिलेबेरहम' को हम चरितार्थ कर डालेंगे। फलत: हमें उसी रायल कमीशन की जप करते मरना न चाहिए और यह न सोचना चाहिए कि इस समय वही सब कुछ करेगा। हाँ करेगा वही, जो हमारी शक्ति के बल पर नियुक्त होगा।
(आषाढ़ शुक्ल 15, गुरुवार, संवत् 1984, 14
जुलाई, 1927, लोकसंग्रह, समस्तीपुर, पटना से प्रकाशित)
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