काल और कलाकृति
भूमिका
काल और सृजन
उपन्यास की मृत्यु और उसका पुनर्जन्म
कहानी : एक शुद्ध विधा
कलाकृति और आलोचना की मर्यादा
प्रेमचंद की उपस्थिति
मलयज की मृत्यु पर
भूमिका
इस पुस्तक के निबंध पिछले कुछ वर्षों के दौरान समय-समय पर स्वतंत्र रूप से लिखे गए थे। कुछ ऐसे विषय जो बरसों से मुझे उकसाए रहते थे... कहानी का विशिष्ट क्षेत्र कविता से कितना अलग है, उपन्यास से कितना दूर है? हिंदी आलोचना के प्रति गहरा असंतोष, काल और कला के बीच अंतर्द्वंद्वी संबंध, एक आधुनिक भारतीय का अपनी संस्कृति से लगाव और अलगाव - ये कुछ ऐसे प्रश्न थे, जिन्हें मैं अपने से पूछना चाहता था। किंतु इसके साथ यह भी इच्छा थी, कि जिन विषयों को मैंने बहुत झिझकते हुए अपनी पुरानी दो किताबों ('शब्द और स्मृति' और 'कला का जोखिम') में छुआ-भर था, उन्हें अधिक ठोस और व्यापक फलक पर जाँच-परख सकूँ। वास्तव में यह पुस्तक उस चिंतन-श्रृंखला की तीसरी और अंतिम कड़ी है, जिनके बीज और संकेत पिछली दो पुस्तकों में दिखाई दे जाते हैं। एक तरह से सिंगरौली की यात्रा भी उस 'तीर्थयात्रा' की अँधेरी परिणति है, जिसकी शुरुआत इलाहाबाद के कुंभ मेले में हुई थी।
यद्यपि इस पुस्तक की तैयारी किसी विशेष विषय या थीम के इर्द-गिर्द नहीं की गई, इसके निबंध अपने को सहज रूप से तीन खंडों में विभाजित कर लेते हैं; एक तरफ हमारी कला का परिवेश है, जो (दूसरे खंड में) हमें अनायास स्वयं इस परिवेश की स्थिति - मनुष्य की अवस्था - की पड़ताल करने को उत्प्रेरित करता है; किंतु वह 'मन' क्या है, जहाँ से ये दोनों अपना मूलभूत चरित्र, स्वभाव और आग्रह ग्रहण करते हैं? इसका उत्तर देने के लिए मैंने अंतिम खंड में अपनी डायरी के कुछ अंश देने उपयुक्त समझे, जिन्हें मैं समय-समय 'रास्ते पर' जमा करता रहता हूँ। पता नहीं, दूसरों के लिए वे कितना मतलब रखेंगे?
कहानियाँ अकेले में लिखी जा सकती हैं, किंतु शायद निबंध नहीं। यह पुस्तक असंभव होती, यदि मैं पिछले वर्षों बराबर एक जीवंत, स्फूर्तिदायक और कभी-कभी काफी कड़वी बहस के बीच न रहता; इसलिए मैं सिर्फ उन स्थानों के प्रति ही ऋणी नहीं हूँ, जहाँ मुझे इनमें से अनेक निबंध लिखने की प्रेरणा मिली (भोपाल, दिल्ली, पंचमढ़ी) बल्कि उन मित्रों के प्रति भी गहरा आभार महसूस करता हूँ - जे. स्वामीनाथन, रामचंद्र गांधी, जीत ओबेरॉय - जिनकी गहन और पैनी अंतर्दृष्टि, समग्र जीवन दृष्टि पर आग्रह और भारतीय मनीषा के प्रति आस्था मेरे लिए हमेशा बौद्धिक उत्तेजना और प्रेरणा के स्रोत रहे हैं।
मेरी इच्छा तो यह थी, कि यहाँ मैं उन लेखकों और पुस्तकों का भी उल्लेख करूँ, जिन्होंने इन निबंधों को लिखने के दौरान अनेक दुर्गम-स्थलों के बीच मुझे रास्ता सुझाया है, किंतु उनकी सूची इतनी लंबी है कि सबका उल्लेख करने के बाद भी मेरा आभार पूरा नहीं होगा; वे अदृश्य रूप से पुस्तक के हर पन्ने पर मौजूद हैं। शायद सबसे बड़ा आभार यह है कि हम यह भी भूल जाएँ कि कौन-सा विचार हमारा 'अपना' है, कौन-सा कितना दूसरों से ग्रहण किया हुआ। सिर्फ यह याद रखना जरूरी है कि मेरी गलतियों और कमजोरियों में उनका कोई साँझा नहीं, जिन्होंने अपनी बातचीत, अपने लेखन और अपनी उपस्थिति से इस पुस्तक को संभव बनाया है।
स्वतंत्रता-दिवस निर्मल वर्मा
15 अगस्त, 1985
काल और कलाकृति
काल और सृजन
भोपाल में एक परिचर्चा हुई थी - 'काल और सृजन' पर। परिचर्चा के दौरान मेरे भीतर अनेक जिज्ञासाएँ और शंकाएँ उठी थीं, लेकिन दो दिन की बातचीत में उन्हें ठीक-ठीक शब्दों में निरूपित करना संभव नहीं था। बाद में मैंने कुछ नोट्स तैयार किए, जो काफी विश्रृंखलित और अधूरे हैं - उन्हें किसी भी अर्थ में परिचर्चा पर एक निष्कर्षात्मक टिप्पणी के रूप में नहीं लिया जाए।
शायद इस विषय को चुनने के पीछे कहीं हमारे भीतर एक त्रास मौजूद था - इतिहास और समय के प्रति त्रास। क्या हम मनुष्य के भीतर बहनेवाली सृजन धारा को इतिहास के दावों और दबावों से मुक्त रख सकते हैं - या यह सिर्फ एक आदर्शवादी लालसा और स्वप्न है? यहाँ मैं उन फार्मूलों और फैशनों की बात नहीं कर रहा, जो कुछ देर के लिए भले ही कला को कलुषित कर लें, हम जल्दी ही उनके मोह और आतंक से छुटकारा पा लेते हैं। स्वयं कला - कला का सत्य - हमें उसके आवरण से मुक्त करवा लेता है। स्वयं हमारी प्यास और कला की संपूर्ति एक बिंदु पर एकीकृत हो जाते हैं। लेकिन यह त्रास जाता नहीं, कुछ देर के लिए अपने को छिपा लेता है और फिर दुबारा आता है - एक दूसरे वेश में, एक दूसरी माँग लिए...
इस बार उसकी माँग में धमकी नहीं है - वह कला से यह नहीं कहता कि तुम्हें सार्थक होने के लिए इतिहास के आगे घुटने टेकना होगा; वह कला से सिर्फ यह पूछता है, कि अगर तुम्हें समय की कलुष से इतना डर है, तो तुम किसी 'परम और शाश्वत सत्य' की ओर क्यों नहीं मुड़तीं। अगर मैं झूठ और नश्वर हूँ (इतिहास कहता है) तो तुम किसी प्लैटो के 'प्राइमल आइडिया', किसी ऐसे संपूर्ण सत्य की ओर क्यों नहीं जातीं, जो शायद सृष्टि के समूचे कारोबार, कार्यकलाप, ऐतिहासिक परिवर्तनों के पीछे छिपा रहता है - अटल, अद्वैत, एब्सेल्यूट - उसमें न समय की गंदगी है, न इतिहास का आतंक : क्यों नहीं कला अपनी सार्थकता किसी परम और पवित्र सत्य में ढूँढ़ती? क्यों उसमें रमती है जो रूप है, बाह्य का यथार्थ है, माया है - क्यों नहीं इस माया को भेद कर उस 'परम' को पकड़ती, जो हर परिवर्तन और विकृति से परे है?
इतिहास के विरुद्ध 'परम' का यह नियंत्रण कम आकर्षक नहीं है। एक बार जीवन की नश्वरता, अनुभवों की अराजक-अर्थहीनता जान लेने के बाद यह प्रलोभन और भी अधिक बढ़ जाता है कि हम समय और जीवन की सीमाओं का अतिक्रमण करनेवाले किसी ऐसे 'परम सूत्र' को पा सकें, जो न केवल हमारे जीवन को कोई अर्थवत्ता दे सके, बल्कि हमारे सृजनात्मक कर्म की चरम उपलब्धि – कला को कोई स्थायी मूल्य, कोई नैतिक वैधता प्रदान कर सके। वे लोग भी जो कला के मूल्यांकन के लिए किसी भी आइडियॉलॉजी को अप्रासंगिक मानते हैं, क्योंकि समयबद्ध होने के कारण वह कला के शाश्वत भेद को नहीं खोल सकती, चुपचाप किसी परम सत्य के आलोक मंडल को स्वीकार कर लेते हैं। क्या परम की सत्ता आइडियॉलॉजी के शासन से कम आततायी है? क्या कोई ऐसा शाश्वत सत्य है - अद्वैत के दर्शन से ले कर वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत तक - जो कला के अभेद्य सत्य - गोएटे के शब्दों में कहें तो उसके 'प्रत्यक्ष रहस्य' को खोल सकती है?
एक लंबे अर्से से पश्चिम में समय और इतिहास के प्रति एक सशंकित और पीड़ित दुविधा का भाव रहा है : वह 'चीज' जो हमेशा बदलती है, दुनिया को बदलती है, किसी अंतिम, चरम बिंदु की ओर अग्रसर होती है - क्या इतिहास की उस सतत-परिवर्तनशील प्रक्रिया में हम कलाकृति की कोई सार्थक, विश्वसनीय कसौटी ढूँढ़ सकते हैं? कला, जो परिवर्तन के विपरीत, एक स्थिर और चिरंतन विश्वास पर टिके रहने की चेष्टा है, क्या अपने सत्य का रेफरेंस किसी ऐसे मूल्य में खोज सकती है, जो स्वयं इतिहास से उपजा है, और कभी भी मृत, और अप्रासंगिक हो सकता है? शायद इसी विडंबना से बचने के लिए पश्चिम का आधुनिक कलाकार बाह्य जगत के यथार्थ के समानांतर अपनी रचना करता है, जिसे हम 'नियो-रियलिज्म' (नव-यथार्थवाद) का नाम दे सकते हैं, या दूसरे चरम पर जा कर वह बाह्य यथार्थ को संपूर्ण रूप से ठुकरा अपनी कृति का रेफरेंस अपने भीतर, अपने अहम और इगो के संसार में ही पाता है क्योंकि -अपने में से अधिक इस दुनिया में और कौन-सी चीज, नैतिकता, मूल्य या यथार्थ विश्वसनीय और प्रामाणिक हो सकता है? क्या दोनों ही स्थितियों में कला का अवमूल्यन नहीं होता? कलाकार के अहम और इतिहास दोनों के बीच फँस कर क्या कोई भी कलाकृति अकिंचन, क्षुद्र और मूल्यहीन नहीं हो जाती? अहम-त्रस्त कला और कला में सोशल रियलिज्म - ऊपर से देखने पर दोनों एक-दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं - किंतु क्या वे दोनों कला की अद्वैत और अखंडित सत्ता को ठुकरा कर नहीं चलते?
लेकिन 'अहम' का एक वृहत्तर और समग्र रूप है - जिसे हम 'सेल्फ' या 'आत्मन' कह सकते हैं और यह संसार का विरोधी, प्रतिद्वंद्वी तत्व नहीं है : यह अपने सत्य में उस 'परम' का ही अणु है, जो सामाजिक यथार्थ से कहीं ज्यादा व्यापक और सार्वभौमिक है - जिसमें समूची प्रकृति, जीव-संसार, समय और इतिहास की धारणाएँ शामिल हैं। भारत में महान कला के ऐसे क्षण आए हैं, जब कलाकार इस आत्म और उस परम के बीच एक जीवंत संबंध और संतुलन कायम करता है - लेकिन ऐसा भी होता है कि हम अपने भीतर के 'मैं' को अकिंचन मान कर जीवन का समूचा सत्य 'परम' को समर्पित कर देते हैं - क्या इससे कला अपने उच्चतम गौरव से स्खलित नहीं होती? यदि पश्चिम में मनुष्य के भीतर शताब्दियों से इतिहास के प्रति आतंक-भाव रहा है, तो क्या पूर्व में -विशेषकर भारत में - शाश्वत के प्रति एक अगाध सम्मोहन नहीं रहा है, परम सत्य के प्रति सम्मोहन, जो अहम की सफरिंग और नश्वरता से मुक्त है, जो अपने में अखंडित है, अटल है, एब्सेल्यूट है। इससे हम कला को इतिहास के आतंक से तो मुक्त रख पाए, किंतु क्या परम के प्रति इस पूजा-भाव ने हमारी कला को एक अमूर्त और अवायवी 'दर्शन' का ही आनुषंगिक अंग नहीं बना दिया, जहाँ शाश्वत की स्थिरता तो है, अहम का आवेग नहीं... कला के लिए नश्वरता का भय उतना ही संहारी हो सकता है, जितना शाश्वत का सम्मोहन। कला उसकी कोई मदद नहीं कर सकती जो इतिहास से संत्रस्त है, किंतु जिसने 'परम' में सत्य को पा लिया है, क्या उसे कला की कोई जरूरत, कोई अंदरूनी भूख महसूस हो सकती है? कला में आनंद स्थिति दिखाना एक बात है, पर क्या आनंद स्थिति को प्राप्त करने के बाद कला का सृजन संभव है?
इसीलिए कला के मर्म को थाहने के लिए हम जीवन की ओर मुड़ते हैं - जो हर क्षण मिटता है और एक जैसा रहता है : एक कलाकृति अहम के अनिश्चय और शाश्वत के सम्मोहन दोनों को अपने में समाहित करती है - इसलिए हर उत्कृष्ट कलाकृति में हमें एक अद्भुत 'स्थिर आवेग' के दर्शन होते हैं - स्थिरता, जो हमें समय और इतिहास और संसार की माया के बीच एक शांत केंद्रबिंदु की ओर ले जाती है, आवेग, जो हर क्षण हमारे भीतर की जड़ता पैसिविटी, निष्क्रियता के तमस को तोड़ता है। वह हमें निर्वैयक्तिक होना सिखाती है - और निर्वैयक्तिक होने का अर्थ तटस्थ होना नहीं है, समय और संसार का अतिक्रमण करना नहीं है, बल्कि अपने अहम और इगो की छलनाओं और भ्रांतियों से मुक्त होना है, ताकि हम सच्चाई की सब दिशाएँ और आयाम एक साथ देखने की सामर्थ्य जुटा सकें - चूँकि बंधनों और छलनाओं का सिलसिला मृत्यु तक समाप्त नहीं होता, इसलिए मुक्त होने का आवेग निरंतर जारी रहता है। कला में वह स्थिर आवेग (still passion) है, जहाँ हम एक साथ, एक ही समय में काल और कालातीत, जीवन और मृत्यु, इतिहास और शाश्वत में वास करते हैं सच्चाई यह है कि एक के विपरीत दूसरे का पलड़ा भारी होते ही कला की गरिमा नष्ट होने लगती है, क्योंकि स्वयं मनुष्य अपने 'मनुष्यत्व' के गौरव से वंचित होने लगता है... यदि सार्त्र ने अपनी चरम हताशा में मनुष्य को 'अर्थहीन आवेग' (useless passion) माना था, तो इसलिए कि वह कभी इस भ्रांति से मुक्त नहीं हो सके कि मनुष्य सिर्फ ऐतिहासिक जीव नहीं है : आवेग सचमुच कहीं नहीं ले जाता, यदि उसका अर्थ एक स्थिर बिंदु में वास नहीं करता। कला में इस अविश्वास के कारण ही सार्त्र जीवन-भर 'स्वतंत्रता' की बात करते रहे और साथ ही साथ उन सब 'दर्शनों' का समर्थन करते रहे, जो मनुष्य को एक निर्मम आततायी, टोरिलेटेरियन गुलामी की तरफ घसीटते थे... किंतु क्या यह समूचे इतिहास-दर्शन की ट्रेजेडी नहीं है?
इतिहास की छलना के विपरीत एक दूसरा सत्य है - जिसे मैंने कभी एलीफेंटा गुफा में शिव की मूर्ति में देखा था। वहाँ ये दो चरम सत्य - संपूर्ण स्थिरता और संपूर्ण पैशन - एक साथ चट्टान के पत्थर से निकाले गए थे। एक ओर शक्ति का अपूर्व वैभव और सौंदर्य - दूसरी ओर पुरुष का पौरुष संकल्प और लौकिक संपन्नता - दोनों ही जीवन, प्रेम, कर्म, प्रजनन और श्रम के गौरव से मंडित हैं - लेकिन इन दो अगल-बगल की मूर्तियों से हट कर जब आँख बीच की मूर्ति पर ठिठकती है, तो सब कुछ स्तब्ध और स्थिर-सा हो जाता है। शिव ने मानो अपने चेहरे पर पुरुष के वैभव और शक्ति के सौंदर्य दोनों को एक शांत, निर्वैयक्तिक, अटल बिंदु पर केंद्रित कर लिया है - एक असाधारण तन्मयता में - जो महज ठहराव नहीं है, बल्कि वह एक ऐसा अदृश्य बिंदु है, जहाँ सब गतियाँ निश्चल हो जाती हैं। वह उस अद्भुत संतुलन का क्षण है, जहाँ सृजन और सौंदर्य, माया और यथार्थ, एक-दूसरे में घुल कर एक असीम एकाग्रता और निस्संगता का भाव जाग्रत करते हैं, जो शायद ही किसी अन्य कलाकृति में देखना संभव हो; एक ऐसी दुर्लभ कलाकृति, जो कला के अपूर्व सौंदर्य और उसकी परिभाषा को एक साथ आलोकित करती है। दुनिया में कितनी ऐसी कलाकृतियाँ हैं जो कला का रहस्य जीवन के अर्थ में और जीवन का रहस्य कला के अर्थ में एक साथ उद्घाटित करती हों?
मैंने ऊपर 'कला के अर्थ' का उल्लेख किया है। एक कलाकृति का अर्थ कैसे निकलता है? क्या वह विज्ञान या समाजशास्त्र या गणित के सूत्रों या सिद्धांतों से जो अर्थ निकलता है - उससे अलग है? परिचर्चा में स्वामीनाथन ने एक जगह बहुत सुंदर और सारगर्भित बात कही थी कि कोई कलाकृति या तो अपने में संपूर्ण रूप से अभेद्य होती है या हजारों अर्थ खोलती है। जब हम किसी कलाकृति को किसी एक खास अर्थ के साथ नत्थी कर देते हैं, उसी समय हम उसकी समग्र और संश्लिष्ट अर्थवत्ता को नष्ट कर देते हैं। इस संदर्भ में हाईनिरिख़ जिश्मर की बात याद आती है : भारत की पौराणिक कथाओं की व्याख्या करते हुए उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय लोक-मानस में यदि विष्णु और शिव ने अपनी लोकप्रियता में वैदिक देवताओं - ब्रह्मा-इंद्र-वरुण को पीछे छोड़ दिया, तो इसका कारण यह था कि वैदिक देवताओं की तरह शिव और विष्णु की अवधारणा किसी एक खास अर्थ या प्रयोजन के साथ नहीं जुड़ी थी। शिव संहार ही नहीं करते, पृथ्वी की रक्षा के लिए गंगा को अपने शीर्ष पर वहन भी करते हैं, वैसे ही विष्णु पोषण ही नहीं करते, नरसिंह अवतार ले कर हिरण्यकश्यप का नाश भी करते हैं; दोनों देवताओं में विरोधी तत्वों को आत्मसात करने की अंतहीन क्षमता है - क्या यही कारण नहीं है कि प्राचीन भारतीय कला में विष्णु और शिव के बहुमुखी, द्विविधात्मक बिंब को जितना विभिन्न रूपों में चित्रित किया गया, उतना किसी और देवता को नहीं? इससे हम एक अनोखे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कोई कलाकृति एक खास दर्शन या आइडियॉलॉजी से उत्प्रेरित हो सकती है - किंतु एक कलाकृति की सत्ता में उसका अर्थ उस दर्शन या आइडियॉलॉजी के संदेश या डॉग्मा से कहीं अधिक व्यापक, और संश्लिष्ट हो सकता है -उसके विपरीत जा सकता है : आधुनिक जीवन में ईसाई धर्म का उतना केंद्रीय महत्व नहीं रहा जो यूरोपीय मानस के लिए मध्यकाल में था - लेकिन बाइजश्न्टाइन कला, गोथिकगिरजों का स्थापत्य और ईसा मसीह के जीवन और मृत्यु से प्रेरित असंख्य चित्र आज भी - शुद्ध कला के रूप में - हमें आलोड़ित करते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि एक चित्र के ऊपरी बिंब या प्रतीक क्या हैं - वे किसी भी धर्म या आइडियॉलॉजी से उधार लिए हो सकते हैं - फिर वह चाहे '¬' का चिह्न हो, सलीब का प्रतीक, या हँसिया-हथौड़ा ही क्यों न हो - महत्वपूर्ण बात यह है कि कलाकृति की अर्थवत्ता इन चिह्नों और प्रतीकों के राजनीतिक-धार्मिक संदर्भों का अतिक्रमण कर लेती है, खुल जाती है - एक स्वायत्त इकाई बन जाती है और इस तरह समय के गुजरने के साथ यदि उसके प्रतीक और बिंब अप्रासंगिक या अर्थहीन भी हो जाते हैं - तो भी चित्र का कलात्मक अर्थ रत्ती-भर मलिन नहीं पड़ता।
कलाकृति से एक अर्थ निकालना - अथवा उसमें अपने विश्वासों का सबूत ढूँढ़ना-दोनों ही बातें झूठी नैतिकता को जन्म देती है। कला की नैतिकता इसमें नहीं है, कि वह हमारे संस्कारों या विश्वासों का समर्थन करे, इसके लिए हमारी दुनिया में जज और मौलवी और कॉमीसार हैं, जो हमें एक खास व्यवस्था में रहने और जीने की मर्यादा सिखाते हैं - क्या वैध है, क्या अवैध : हमें यह करना चाहिए, यह नहीं। कला सिखाती नहीं, सिर्फ जगाती है, क्योंकि उसके पास 'परम सत्य' की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह गलत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके। तब क्या कला नैतिकता से परे हैं? हाँ, उतना ही परे जितना मनुष्य का जीवन सामाजिक व्यवस्था से परे है... जहाँ व्यक्ति का अनुभव इतना विलक्षण और अनूठा है कि उसे किसी भी व्यवस्था की मर्यादा अर्थ नहीं दे सकती। यहीं कला की 'नैतिकता' शुरू होती है - कोई अनुभव झूठा नहीं, क्योंकि हर अनुभव अद्वितीय है। झूठ तब उत्पन्न होता है जब हम किसी 'मर्यादा' को बचाने के लिए अपने अनुभव को झुठलाने लगते हैं। सीता के अनुभव के सामने राम की मर्यादा कितनी पंगु और प्राणहीन जान पड़ती है -इसलिए नहीं कि उस मर्यादा में कोई खोट या झूठ है, बल्कि इसलिए कि राम अपनी मर्यादा को बचाने के लिए अपनी चेतना को झुठलाने लगते हैं। परिचर्चा में डॉ. रामचंद्र गांधी ने एक बहुत महत्वपूर्ण सत्य की ओर संकेत किया था जब उन्होंने कहा कि भारतीय मनीषा में अंत:करण (conscience) पर जोर नहीं, जोर हमेशा 'चेतना' (consciousness) पर रहा है - एक अखंडित, और स्वच्छ, और पारदर्शी चेतना, जो काल और स्पेस की सीमाओं को भेद कर सब कुछ एक साथ देखती है। नैतिकता की पहली शर्त है - हम कितना कुछ देख सकते हैं। क्या कला की भी पहली शर्त यह नहीं है? क्या अपने सगे-संबंधियों, गुरु-पितामहों को मारना अनैतिक नहीं है? अर्जुन का यह प्रश्न महत्वहीन नहीं है, किंतु प्रश्न की गहरी नैतिक पीड़ा केवल उस समय अर्थपूर्ण हो सकती है, जब वह उसे - उस प्रश्न को - आसपास फैले समूचे यथार्थ के संदर्भ में देख सकें। कृष्ण का ब्रह्मरूप और कुछ नहीं - सिर्फ विभिन्न यथार्थों को एक साथ देखने की चेतना है। यह चेतना हर व्यवस्था की नैतिकता के परे-मनुष्य को समग्र और समूचे यथार्थ से जोड़ती है; कला का सत्य इस चेतना के भीतर है जो सब कालों को समेटे है, इसलिए जब किसी विशिष्ट युग या समाज व्यवस्था के मूल्य इस चेतना को धुँधलाते हैं - अथवा स्वयं मनुष्य का अहम और दुराग्रह उसे झुठलाता है - तभी कला का हस्तक्षेप अपने सबसे मूलगामी अर्थ में नैतिक हो जाता है। क्या यह महज संयोग है कि मनुष्य जाति के आदिकाव्य-महाभारत या ईलियड की घटनाओं या सफोकिलीस के नाटकों ने निरंतर इस विराट चेतना की परतों को खोला है? ईडिपस की ट्रेजेडी यह नहीं है कि उसने कोई अनैतिक काम किया है बल्कि यह कि वह अपनी चेतना पर परदा पड़े रहने देता है, आँखें रहते हुए भी अंधा रहता है; अंत में पश्चात्ताप के क्षणों में जब वह सचमुच अपनी आँखें फोड़ लेता है, तो उसका यह भयानक कर्म उसके समूचे जीवन-कलाप की तार्किक परिणति जान पड़ता है। धृतराष्ट्र की जन्मजात अंधता और ईडिपस का स्वेच्छा से अंधा होना - ये दो विभिन्न संस्कृतियों की कलाकृतियों को कितना समीप सरका देता है। दोनों ही पात्र मोहानिष्ठ हैं - दोनों ही दृष्टिहीन है - दृष्टि जो चेतना है। दोनों ही हमें इस विराट प्रश्न की देहरी पर ला कर छोड़ देते हैं कि कला में नैतिकता का संकट क्या हमारी द्वैत, खंडित चेतना का ही तो परिणाम नहीं है?
लेकिन इसे संकट क्यों मानें? क्या यह सृजन का कुरुक्षेत्र नहीं है, जहाँ दो विराट सेनाओं के बीच एक खाली जगह पर यथार्थ, भ्रम, माया और सत्य के बारे में बहस होती है - पर्वत शिखर के अकेले एकांत में नहीं - बल्कि सत्य और असत्य के बीच फैले मैदान में। कितनी शताब्दियाँ बीत गईं जब गीता में ये प्रश्न उठाए गए थे। आज की हर महत्वपूर्ण, कविता या उपन्यास इन्हें छूता है, इनसे भिड़ता है - क्योंकि कला में जब तक मनुष्य जीवित है, कोई प्रश्न पुराना नहीं पड़ता और कोई उत्तर अंतिम नहीं होता। जीने की अखंड, अदम्य धारा में - जिसे परिचर्चा में मुकुल घोषाल ने 'सागर की तरह अपार और विस्मयकारी' कहा था।
हम कई बार मरते हैं, अनेक बार अप्रत्याशित क्षणों में शाश्वत का बोध करते हैं, कितनी बार अपने खंडित अनुभवों में बदहवास होते हैं, किंतु ऐसे दुर्लभ अवसर भी आते हैं, जब एक चकाचौंध में पूरा पैटर्न दिखाई दे जाता है जो हमारी गलतियों, गुनाहों, अज्ञान और अधैर्य के परदे के पीछे छिपा रहता है, कला जब यह परदा हटाती है तो अचानक लगता है - हाँ, यह सत्य है, यही मेरे जीवन का अर्थ है - लेकिन विचित्र बात यह है, कि अगर हमसे कोई पूछे, तुमने वाल्मीकि से क्या अर्थ पाया, शेक्सपियर या टॉलस्टॉय ने तुम्हें क्या दिया - तो एक भी उत्तर संतोषजनक नहीं जान पड़ता - क्योंकि हम जानते हैं कि जो हमें मिला है, वह कोई जीवन का हल नहीं है, किसी समस्या का समाधान नहीं है - हम सिर्फ एक बड़ी रोशनी में आ गए हैं। हम कुछ ज्यादा देख रहे हैं - हालाँकि दुनिया और हमारा जीवन वही है, जो पहले था। क्या यह कम है?
उपन्यास की मृत्यु और उसका पुनर्जन्म
अर्से से हम यह अफवाह सुनते आए हैं कि उपन्यास ने अपना चोला छोड़ दिया है, लेकिन हजारों की संख्या में उपन्यास अब भी लिखे जाते हैं। शायद ही किसी विधा को मरने में इतना समय लगा हो जितना उपन्यास को! यद्यपि उसकी मृत्यु की भविष्यवाणियाँ समय-समय पर होती रहती हैं, फीनिक्स की मानिंद हर बार वह अपनी मृत्यु की राख झाड़ कर पुन: उठ खड़ा होता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि शायद अफवाह सच है और उपन्यास सचमुच मर गया है, जैसा हम उसे अभी तक जानते आए थे। डिकेंस, फ्लोबेर, तोल्सतोय, दोस्तोएवस्की की रक्त-मांस मंडित प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में लिथड़ी गाथाएँ जिन्हें आज तक हम उपन्यास की संज्ञा देते आए थे, हमारे समय तक आते-आते वे एक अंधी गली में गुम हो गई हैं, अपने पीछे एक भी ऐसा सुराग नहीं छोड़ गई हैं, जिन्हें पकड़ कर उपन्यास की पुरानी गौरवगरिमा को उजागर किया जा सके। अब हम जिन पुस्तकों को उपन्यास के बहाने पढ़ते हैं, क्या वे उसकी मृत काया की महज प्रेत-छायाएँ हैं?'
देखा जाए तो उपन्यास हमेशा से तकलीफ में था और जितना अधिक वह फलता-फूलता गया, उसके भीतर की अदृश्य तकलीफ भी बढ़ती गई। वह आत्म-चेतना की तकलीफ थी, जिसने अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय मानस को एक विशिष्ट और असाधारण मनोस्थिति में ढाला था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि मनुष्य सिर्फ एक व्यक्ति में बदल जाए और समाज एक ऐसी भीड़ में, जिसका अपना कोई चेहरा नहीं। मनुष्य का एक व्यक्ति में सिकुड़ जाना और दूसरी तरफ समाज का इस हद तक फैल जाना, जहाँ व्यक्तित्वहीनता ही उसका संस्कार हो - उपन्यास की तकलीफ इन दो पाटों के बीच फँसे मनुष्य की बदहवासी, लक्ष्यहीनता और अकेलेपन को प्रतिबिंबित करती थी।
मनुष्य क्या है? यह सनातन प्रश्न है और एपिक, कविता, नाटक जैसी सनातन (क्लासिक) विधाओं में इस प्रश्न को अनेकानेक स्तरों पर उघाड़ा गया था, किंतु व्यक्ति क्या है? इस प्रश्न के साथ सीधी-सीधी पहली मुठभेड़ उपन्यास ने की थी। व्यक्ति जो चाहे किसी भी वर्ग, संप्रदाय, धर्म या परिवार का सदस्य क्यों न हो, किंतु जिसकी प्रामाणिकता उसकी सदस्यता (belonging) में नहीं उसके होने (being) में निहित होती है। व्यक्ति जो अपने को 'व्यक्त' करता है और व्यक्त करने के दौरान ही अपने होने का प्रमाण देता है। पहले उसके प्रमाण-पत्र में दूसरों के हस्ताक्षर होते थे, वे उसके होने के साक्षी थे। माता-पिता, वर्ग-जाति और सबसे ऊपर ईश्वर; वे थे इसलिए वह था, उनके बिना वह कुछ नहीं था - महज शून्य। समाज में व्यक्ति की अवधारणा ही एक अभूतपूर्व घटना या चाहें तो कहें दुर्घटना थी - क्योंकि उसके होने के सबूत में सिर्फ उसका मैं था और ईश्वर और न्याय और नियम की अदालत में मैं की शिनाख्त स्वयं 'मैं' कैसे कर सकता है? इसलिए व्यक्ति के अस्तित्व पर शुरू से ही संदेह की छाया पड़ चुकी थी। उपन्यास ने पहली बार ऐसे व्यक्ति की गवाही लेने का प्रयास किया था जो अपने लिए इस दुनिया में किसी को साक्षी नहीं बना सकता था। नंगा और निरीह व्यक्ति, संपूर्ण रूप से स्वतंत्र और संपूर्ण रूप से संदिग्ध, असंख्य संभावनाओं में खुला हुआ और हर संभावना को अंतिम परिणति तक पहुँचाने की जिम्मेदारी ढोता हुआ। वह कुछ भी हो सकता था -संत, हत्यारा, शैतान। दोस्तोएवस्की का यह कथन कि यदि ईश्वर नहीं है तो मनुष्य कुछ भी कर सकता है, न केवल व्यक्ति के जोखिम भरे संसार को उद्घाटित करता है, बल्कि उस संसार की अंतहीन अराजकता को भी रेखांकित करता है, जिसे उपन्यास ने अपनी विधा के घेरे में पहली बार समेटा था। उपन्यास की तकलीफ बहुत कुछ व्यक्ति के जन्म होने की प्रसव पीड़ा से जुड़ी हुई थी।
व्यक्ति की जिस अंतरात्मा को उपन्यास ने अपना केंद्र-बिंदु बनाया था, उसी चीज ने उपन्यास को कथ्यात्मक बिरादरी की अन्य समस्त विधाओं से अलग भी कर दिया। एपिक, आख्यायिका दंतकथा, फेबल, लोककथाएँ, किस्से-कहानियाँ - ऊपर से देखने पर लगता है कि उपन्यास इन्हीं प्राचीन कथ्यात्मक शैलियों की आधुनिक और परिष्कृत उत्पत्ति है। इस भ्रम का कारण शायद यह है कि उपन्यास और इन कथ्यात्मक शैलियों में यदि एक चीज समान रहती है तो वह है - कहानी। ये समस्त कथ्यात्मक विधाएँ किसी-न-किसी रूप में कोई किस्सा-कहानी सुनाते हैं; लेकिन क्या उपन्यास सिर्फ कहानी सुनाने का माध्यम है? यदि ऐसा होता तो उपन्यास जैसे विशिष्ट फॉर्म को अन्वेषित करने की क्या आवश्यकता थी - मनुष्य की कहानी को अभिव्यक्त करने के लिए क्या पुरातन-काल से चलती आई कथ्यात्मक शैलियाँ काफी नहीं थीं? काफी नहीं थीं, क्योंकि किस्सागो के सुरक्षित संसार में जो मनुष्य बसता था, उपन्यास का व्यक्ति उस संसार की हदों से कहीं दूर जा पड़ा था। पुरातन कथा-शैलियों में हमें कितने पात्र याद रहते हैं? एक राजा था - कहानी यहाँ से शुरू होती है; कौन-सा राजा? यह अप्रासंगिक है... क्योंकि राजा और रानी और राक्षस और पक्षी हमारे पुरातन-लैंडस्केप की आर्कीटाइप स्मृतियों को उघाड़ते हैं - वे सार्वभौमिक हैं, अटल हैं; कहानी शुरू होते ही वे कठपुतलियों की तरह नाचने लगते हैं।
लेकिन मदाम बॉबेरी? हम उसके बारे में क्या जानते हैं? उपन्यास पढ़ने के बाद जो याद रह जाता है वह मदाम बॉवेरी की कहानी नहीं, जो हजार औरतों की कहानी हो सकती है, बल्कि वे हजार घटनाएँ जिनके अद्भुत और अप्रत्याशित सम्मिश्रण से एक मदाम बॉवेरी का जन्म हुआ था, एक स्वतंत्र स्त्री, जिसके अपने संकल्प और अपने स्वप्न थे। उपन्यास से पहले की कथ्यात्मक विधाओं में पात्रों पर घटनाएँ घटती हैं, किंतु उपन्यास में व्यक्ति-पात्र अपनी इच्छाओं और संकल्पों से किसी-न-किसी रूप में इस घटना-चक्र में अपना हस्तक्षेप करना चाहते हैं, इसमें वे असफल हों, पराजित हों, घटनाओं के रथ-तले कुचले जाएँ, यह बात दूसरी है – बल्कि यही बात उपन्यास को कहानी-किस्सों में अलग करती है; उपन्यास भी कथ्यात्मक विधा है किंतु वह कहानी कहने का शुद्ध माध्यम नहीं है। डॉन क्विग्हॉते और मदाम बॉवेरी के स्वप्नों और सांसारिक घटना-चक्र की अनिवार्य लौहवत्ता के बीच एक तनाव-भरा द्वंद्व बराबर चलता रहता है। एक द्वंद्वात्मक टकराव - इसीलिए उपन्यास का फॉर्म पुरानी कथा-विधाओं से इतना अलग है। इसीलिए वे आलोचक, जो उपन्यास को विदेशी विधान मान कर भारतीय उपन्यास का उद्धार पुरानी आख्यायिका, लोक-कथाओं और किस्सों की शैली को पुनर्जीवित करने में देखते हैं, शायद समस्या का सीधा-साधा सामना नहीं करते; उपन्यास विदेशी विधा है जरूर, किंतु भारतीय समाज के उलट-फेर में जो व्यक्ति आज आकार ग्रहण कर रहा है क्या पुरानी कथ्यात्मक शैलियाँ उसके विकट संघर्षमय संसार के बीहड़ अंतर्द्वंद्वों को अपने में समेट पाएँगी, मुझे इसमें संदेह है। क्या यह महज संयोग था कि हजारीप्रसाद जी अपनी किस्सागोई गप्प शैली में आधुनिक जीवन पर कोई उपन्यास लिखते हुए हमेशा झिझकते रहे? विदेशी बोझ से छुटकारा दुर्भाग्यवश हमेशा परंपरा में ही नहीं मिलता जब तक स्वयं परंपरागत शैलियों को आधुनिक दबाव-तले पुनर्निर्मित और परिवर्तित नहीं किया जाता। उपन्यास के 'भारतीयकरण' की समस्या को उपन्यास से पहले की सहज और भोली और अपेक्षाकृत सरल स्थिति में लौट कर नहीं सुलझाया जा सकता।
लेकिन एपिक? वह तो सबसे प्राचीन कथ्यात्मक विधा है; कुछ उपन्यासों को पढ़ते हुए हमें क्यों बार-बार होमर या वाल्मीकि याद आते हैं? शायद इसीलिए हेगल ने उपन्यास को 'आधुनिक मध्यवर्ग के महाकाव्य' के रूप में परिभाषित किया था।1 जॉयस का यूलिसिस तो अपनी संरचना में ओडिसी के
1 हेगल की इस परिभाषा का अनुकरण करते हुए, किंतु दुर्भाग्यवश उनके प्रति आभार न प्रगट करते हुए,डॉ. नामवर सिंह ने भारतीय उपन्यास को 'किसान-जीवन का महाकाव्य' माना है। यह परिभाषा कितनी भ्रामक है, मैं उस बहस में यहाँ नहीं जाना चाहूँगा। सिर्फ इतना कह देना काफी है कि जबकि हेगल के सामने बुर्जुवा वर्ग के विकास का समूचा भविष्य फैला था, वहाँ भारतीय किसान का वह अंधकारमय -मार्क्स के शब्द में कहें, तो मैलनकोलिक भविष्य डॉ. नामवर सिंह नहीं देख पाते, जहाँ भूमि से उन्मूलित हो कर भारतीय किसान का वर्ग-संस्कार = उसका 'किसानत्व' ही संकट में पड़ गया है। प्रेमचंद ने अपने अंतिम उपन्यास और कहानियों में किसान की 'मैलनकाली' - औपनिवेशिक विषाद को अभिव्यक्त किया था किंतु आज की स्थिति में इस 'विषाद' के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं बची रही है। यदि व्यावसायिक औद्योगीकरण की मार भारतीय किसान पर उतनी ही निर्ममता से पड़ती रही, जिसका दु:स्वप्न मार्क्स ने देखा था, तो अगले कुछ वर्षों में हमें अपने गाँवों में पूँजीवादी फार्मर, जो किसान या peasant नहीं है या खेतिहर मजदूर मिलेंगे - किसान नहीं।
समानांतर ही चलता है। दोनों विधाओं की यह समानता अस्वाभाविक भी नहीं है; ऐसे उपन्यास हैं, जो महाकाव्य के पैमाने पर विभिन्न व्यक्तियों के समग्र जीवन को एक विराट भित्तिचित्र की तरह अपने पन्नों पर अंकित करते हैं। यह अकारण नहीं है कि 'ब्रदर्स कारामाजोव' या 'युद्ध और शांति' या अगर बीसवीं सदी में रचे गए प्रूस्त के ‘रिमेंब्रेंस ऑव थिंग्स पास्ट’ को ही लें, उन्हें पढ़ते हुए हमें अनायास क्लासिक युग में रचे महाकाव्यों या आइसलैंडी सागा-ग्रंथों की याद हो आती है - जन्म से मृत्यु तक मनुष्य के संपूर्ण जीवन की गाथाएँ, जिंदगी की विराट समंदर, जिसमें हर उठती लहर और मरते हुए ज्वार के भवसागर को नापा जाता है।
ये उपन्यास एपिक की याद जरूर दिलाते हैं, किंतु असल में एपिक की संभावनाओं को छूते-छूते रुक जाते हैं, कुछ छोटे पड़ जाते हैं - इसलिए नहीं कि तोल्सतोय या प्रूस्त की यथार्थ की पकड़ कहीं ढीली हो जाती है या उनकी अथक सृजन-ऊर्जा कहीं बीच में मंद पड़ जाती है, बल्कि इसलिए कि जिस समूचे मनुष्य की विराट सृष्टि को एपिक एक समय में चित्रित करते थे, वह आधुनिक समाज तक आते-आते खंडित व्यक्तित्वों में ही इतने भयानक ढंग से बिखर गया है कि उपन्यास उसे केवल नॉस्टॉलजिया के क्षणों में याद कर सकता है या कभी दुर्लभ क्षणों में पकड़ पाता है - बाकी समय उसे अपना माथा उन दीवारों से फोड़ना पड़ता है, जो न केवल हर व्यक्ति को अपने समाज से अलग करती हैं, बल्कि स्वयं उसकी अंतरात्मा में एक फाँक की तरह खिंची रहती है। ऑल्डस हक्सले ने अपने एक बहुत दिलचस्प निबंध 'एपिक और संपूर्ण सत्य' में इस बात को रेखांकित किया था - होमर के महाकाव्यों में कैसे मनुष्य का हर क्षण उसके जीवन की निरंतरता में संपूर्ण बन जाता है। कोई घटना आकस्मिक नहीं है, वह एक समूचे पैटर्न में अर्थ ग्रहण करती है; वह एक तरह का दैवी, पूर्व निर्धारित पैटर्न है, हर चीज वैसे ही होगी, जैसे उसे होना है - प्राकृतिक नियमों की तरह अनिवार्य और अर्थसंगत जिसमें पवित्र और सांसारिक, धार्मिक और संसारी सीमाएँ एक-दूसरे में घुल जाती हैं।
उपन्यास में क्यों नहीं ऐसा संभव हो पाता? शायद इसका एक कारण यह है कि उपन्यास शुद्ध रूप से सेक्युलर विधा है, जिसमें से समस्त देवी, देवताओं, प्रकृति के अलौकिक चमत्कारों और नियति की भविष्यवाणियों को बहिष्कृत कर दिया गया है। वहाँ सब कुछ व्यक्ति के स्वायत्त स्वेच्छाचारी निर्णयों पर निर्भर है, इसलिए सब कुछ आकस्मिक और सांयोगिक है। बड़े-से-बड़े उपन्यास को पढ़ते हुए क्यों यह तकलीफ मन को कोंचती रहती है कि घटनाएँ नितांत दूसरी तरह से घट सकती थीं कि उनके पीछे ऐसा कोई दैवी या प्राकृतिक सेंक्शन नहीं, जो उन्हें किसी दूसरे क्रम में सँजोने से रोक सकता हो। क्यों यह संदेह मन को सालता रहता है कि यदि अन्ना केरेनिना चाहती, तो अपने जीवन की घटनाओं के पहिए विपरीत दिशा में मोड़ सकती थीं, उनके क्रम को बदल सकती थीं और इस तरह अपने को आत्महत्या के भयावह अंत से बचा सकती थीं? यह नहीं कि उपन्यास में उसकी मृत्यु विश्वसनीय और अनिवार्य नहीं जान पड़ती - यही तो सबसे बड़ी विडंबना है - उपन्यास में जो चीज सबसे अधिक अनिवार्य और स्वाभाविक जान पड़ती है - जीवन के संपूर्ण प्रवाह में वही चीज अचानक सांयोगिक (Contingent) और संदिग्ध-सी बन जाती है। मेरी मैकार्थी ने अपने एक निबंध में लिखा था कि यदि अन्ना केरेनिना व्रान्स्की से स्टेशन पर न मिलती - जो निरा संयोग था - तो उसकी जिंदगी पूर्ववत अपनी लगी-बँधी पटरी पर चलती रहती। यह भीषण सत्य है। एक आकस्मिक घटना समूचे जीवन की नियति को बदल सकती है। यह बात मदाम बॉवेरी पर लागू नहीं होती, जो अपनी स्थिति से छुटकारा पाने के लिए किसी भी प्रेमी के साथ भाग सकती थीं; इस दृष्टि से अन्ना का चरित्र मदाम बॉवेरी से कहीं ज्यादा स्वतंत्र है और उसका प्रेम जितना सांयोगिक है उतना ही संहारकारी। एपिक की घटनाओं और पात्रों की नियति की अनिवार्यता में कहीं प्रकृति का समर्थन और साधुवाद है जो उसे निश्चित और नियामक बनाता है। किंतु उपन्यास की अनिवार्यता एक व्यक्ति के ठिठुरते अरक्षित निर्णयों पर निर्भर है, जिसे बाहर की कोई शक्ति-समाज, प्रकृति, ईश्वर-अपना संरक्षण देकर वैध नहीं करार कर सकती। उपन्यास की घटनाएँ कलात्मक रूप से अनिवार्य होने के बावजूद किसी तरह की नैतिक वैधता (legitimacy) या प्राकृतिक क्रमबद्धता प्राप्त नहीं कर पातीं। क्या औपन्यासिक जगत की इस अराजक अवैधता को देख कर ही तोल्सतोय ने अंतिम वर्षों में अपने महान उपन्यासों को इतनी निर्ममता से अस्वीकार नहीं कर दिया था?
व्यक्ति के इस स्वेच्छाचारी और अराजक संसार के भयावह तर्क को काफ्का अंतिम, परिणति तक ले गए, जहाँ मनुष्य को अपराधी तो घोषित किया जाता है किंतु कोई ऐसा नियम या न्यायालय नहीं, जिसके सामने हम यह पता चला सकें कि आखिर उसने कौन-सा ऐसा काम किया है, जिसका अपराध उस पर मढ़ा जा रहा है। दोस्तोएवस्की की अराजक नियमहीनता का संसार - जिसमें व्यक्ति सब कुछ कर सकता है - काफ्का तक आते-आते अपना पूरा एक चक्र समाप्त कर लेता है, जिसमें व्यक्ति की यही सब कुछ करने की स्वाधीनता ही उसका सबसे बड़ा पाप और अपराध बन जाती है। उनका अंतिम उपन्यास 'कासल' एक दुर्गम अंतहीन, यातनामय खोज है, किसी ऐसे सर्वोच्च अधिकारी (ईश्वर?) को पाने की तलाश, जिसके लॉ, नियम या आदेश के अंतर्गत मनुष्य अपने जीवन की अर्थवत्ता को उपलब्ध कर सके - एक ऐसा ईश्वरीय संदेश जो हमें अंतिम और स्पष्ट रूप से बता सके कि इस धरती पर मनुष्य का दायित्व-धर्म, वोकेशन क्या है? काफ्का अंतिम उपन्यासकार थे जो उपन्यास की इतरनैतिक और सेक्युलर सीमाओं को लाँघ कर नियम और धर्म की वैध दुनिया में जाना चाहते थे और लाँघने के इस असंभव प्रयास में दोनों दुनियाओं के बॉर्डर पर ही खत्म हो गए थे। क्या उनका अंत एक अजीब ढंग से हमें वाल्टर बेंजामिन की मृत्यु की याद नहीं दिलाता जो नात्सी यूरोप के अधर्म से छुटकारा पाने के लिए लोकतंत्र की धर्मसंपन्न व्यवस्था में जाना चाहते थे और जिन्होंने घोर हताशा में धर्म और अधर्म की अंतिम सीमा पर ही आत्महत्या कर ली थी?
यह वह क्षण था, जब पहले-पहल यूरोप में उपन्यास-या ज्यादा सच्चाई से कहें तो यूरोपीय उपन्यास की मृत्यु की अफवाह सुनाई देने लगी थी। ध्यान से देखें तो पश्चिमी संस्कृति का यह क्षण ठीक वही था जब पहली बार यूरोपीय समाज में व्यक्ति की मृत्यु की चर्चा भी शुरू होने लगी थी - एक ऐसा व्यक्ति-जो अकेला और आरक्षित होने के बावजूद अपनी भावनाओं और विचारों में स्वायत्त था, राज-सत्ता और जन-समूह से अलग अपनी विशिष्ट इकाई पहचानता था : आत्म-केंद्रित लेकिन स्वाभिमानी व्यक्ति जिसकी छवि को यूरोप के रोमैंटिक-साहित्य में अनेक लेखकों ने उकेरा था। किंतु उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में जिस औद्योगिक, नागर सभ्यता का अभ्युदय हुआ, उसने एक ऐसी भीड़ को जन्म दिया, जिसकी क्षुद्र बाजारू रुचियों को देख कर फ्लोबेर इतना आतंकित हुए थे; जन के नाम पर जिस चेहराहीन, दृष्टिहीन, रुचिहीन व्यक्तियों की भीड़ ने भेड़ों की तरह यूरोपीय नगर को घेरा था, उससे बचने के लिए फ्लोबेर ने अपने एकांत कमरे में शुद्ध कला की साधना में ही जीवन की अर्थवत्ता खोजनी चाही थी; पहली बार कलाकार के स्वतंत्र और स्वायत्त व्यक्तित्व पर संकट की छाया मँडराने लगी थी; स्वयं व्यक्ति का रोमैंटिक उज्ज्वल चरित्र एक औसत आदमी की सपाट और सतही और यंत्रचालित दुनिया में अपनी वैयक्तिक विशिष्टता खोने लगा था।
पहले महायुद्ध के बाद व्यक्ति का यह संकट इतना गहरा हो चुका था कि स्पेनिश चिंतक और दार्शनिक जोंस ऑर्तेगाई गास्से ने अपनी पुस्तक 'द रिवोल्ट ऑव द मासेज' में पहली बार यूरोप के व्यक्ति को 'भीड़ के मनुष्य' (mass man) में कायाकल्पित होते देखा था, और यह भयावह कायाकल्प था - क्योंकि भीड़ का मनुष्य रेनेसेंस के विलक्षण और विशिष्ट गरिमा संपन्न मनुष्य और उन्नीसवीं शती के रोमैंटिक हीरो की अनोखी विशिष्टता से स्खलित हो कर व्यक्ति के सबसे औसत, निम्नतम आत्मसंहारी और संवेदन-शून्य संस्करण में बदल गया था, एक आत्महीन मनुष्य, जिसने अपने व्यक्तित्व को एक असहाय बोझ मान कर भीड़ की अमानवीय सत्ता के हवाले कर दिया था। स्वतंत्रता का दर्द और सोच अब उसे नहीं मथता था, एक सोचहीन मनुष्य, जो अपनी अंतिम परिणति में हमें काम्यू के आउटसाइडर की याद दिलाता है, खाने-पीनेवाला व्यक्ति, जो अपनी माँ की मृत्यु के दूसरे दिन ही स्विमिंग-पूल में तैरने जाता है, अपनी प्रेमिका के साथ सोता है और जिसे ठीक-ठीक याद भी नहीं रहता कि उसकी माँ की मृत्यु कब हुई थी, कल या परसों? जरा कल्पना कीजिए दोस्तोएवस्की के ‘नोट्स ऑव् द अंडरग्राउंड’ के विक्षिप्त, बदहवास, घृणा, प्रेम, आत्म-जुगुप्सा और नैतिक-अनैतिक प्रश्नों की दलदल में कलपता आउटसाइडर काम्यू के अजनबी तक आते-आते कैसे एक उदासीन, दैनिक कार्य-कलापों में डूबे भावशून्य रोबो में बदल गया है? काम्यू का नायक इसलिए अजनबी नहीं है कि समाज से अलग अपनी भावनाओं या आदर्शों में विशिष्ट है - उन्नीसवीं शती के निहिलिस्ट, विद्रोही आउटसाइडर की तरह - बल्कि इसलिए कि उसका व्यवहार शुद्ध रूप से आज के 'भीड़ मनुष्य' का स्वाभाविक चरित्र है - हम सबका चरित्र - किंतु जहाँ हम अपनी-भावशून्यता और आध्यात्मिक दिवालिएपन को अपने छद्म सरोकारों और संसारी नैतिकता की काई तले छिपाए रहते हैं, काम्यू का हीरो हमें इसलिए अजनबी लगता है क्योंकि उसने इस काई को अपने ऊपर से उतार कर अपने को जस-का-तस प्रस्तुत कर दिया है; एक औसत, दैनिक और आयामहीन पुरुष; दोस्तोएवस्की का नायक अपनी आत्मा के अंडरग्राउंड अँधेरे में आउटसाइडर था, काम्यू का अजनबी ऊपर सतह की रोशनी मे घूमता-फिरता नगर की भीड़ का एक ऐसा टिपिकल प्राणी है जो अपने औसतपन की चरमावस्था के कारण भयावह-सा जान पड़ता है; पहला दूसरों के औसत संसार से अलग छिटक कर अपनी आत्मा की अनंत परतों को छीलता है दूसरा भीड़ के अनंत समूह के बीच एक औसत इकाई है, जिसकी आत्मा शून्य की अथाह परतों के नीचे दबी है। लगता है, जैसे इन दो उपन्यासों के बीच यूरोपीय मनुष्य ने व्यक्तित्व के चरम बोझ से व्यक्तित्वहीनता के चरम हल्केपन तक की पीड़ित यात्रा तय की है। उपन्यास विधा, जिसका जन्म ही व्यक्ति की विशिष्ट अवधारणा से जुड़ा था, यदि हमारे समय की घोर व्यक्तित्वहीनता तक आते-आते अपने को इतना थका और क्लांत और संभावना-शून्य पाए, तो क्या यह आश्चर्य की बात होगी?
यूरोप में व्यक्ति की यह परिणति, 'सब कुछ' से 'कुछ नहीं' तक की यात्रा क्या अनिवार्य थी? इस प्रश्न को थोड़ा-सा बदल कर ऐसे भी पूछ सकते हैं कि जिस समाज में व्यक्ति की अवधारणा मनुष्य के सर्व-सत्ता संपन्न और आत्म-केंद्रित अहम (ईगो) से शुरू होती है, उसका अंत यदि इस अहम के आत्मसंहार में हो, एक खंडित और खोखला अहम, तो यह क्या अस्वाभाविक बात होगी? एक ऐसी संस्कृति में, जहाँ आत्मा और अहम, ईगो और सेल्फ के बीच कोई स्पष्ट अंतर न हो, जहाँ एक को दूसरे के साथ उलझाया जाता रहा हो, वहाँ मनुष्य अपने अहम का अतिक्रमण करके अपनी आत्मा के साक्षात्कार करने का जोखिम नहीं उठाता बल्कि अहम के बोझ से छुटकारा पाने के लिए स्वयं अपने सेल्फ को ही नष्ट कर डालना चाहता है। बीसवीं शती के उत्कृष्ट उपन्यासों में इस खोए हुए सेल्फ, इस लुप्त आत्मा को पाने की छटपटाहट जरूर दिखाई देती है, जिसके बिना कोई भी व्यक्ति अपनी अस्मिता, अपनी पहचान, धरती पर अपने होने का अर्थ परिभाषित नहीं कर सकता; सॉल बैलो के पात्र हरजौग का कॉमिक ट्रैजिक संघर्ष यही है कि बीसवीं शती की औद्योगिक दुनिया में अपनी असली पहचान, अपने सही रोल, अपनी आत्मा के नक्शे को निर्धारित कर सके क्योंकि वह जिस दुनिया में रहता है, वहाँ लोगों की अथाह भीड़ तो है, असंख्य अहमों का कुलबुलाता समूह, किंतु स्वयं व्यक्ति का सेल्फ, उसका अपनी आत्मा से संबंध इतना धूमिल और संदिग्ध बन गया है, कि यह पता लगाना भी असंभव बन गया है, कि उसका अपना स्वयं कितना उसका अपना है, कितना दूसरों से उधार लिया हुआ, दूसरों द्वारा अनुशासित। हरजौग अंधी गली के जिस अंतिम मोड़ पर पहुँच गए हैं, वहाँ यदि एक तरफ हमें यूरोपीय उपन्यास का डेड एंड दिखाई देता है, तो दूसरी तरफ वह कुंजी भी मिल जाती है, जो मनुष्य के अँधियारे मन, अहम की परतों तले दबे आत्मन का ताला खोल सके, जिसके दरवाजे एक दूसरी दुनिया की तरफ खुलते हैं।
कैसी है यह दुनिया, जो यूरोपीय उपन्यास के अहम-केंद्रित संसार से मुड़ कर हमें एक ऐसे मन से साक्षात कराती है, जहाँ अहम की भयभीत आक्रामक साम्राज्य की सीमाएँ खत्म हो जाती हैं, एक ऐसे सेल्फ के दरवाजे खोलती है, जिसके भीतर व्यक्ति का मन इड, ईगो, सुपर-ईगो जैसे अँधेरे तहखानों में बँटा नहीं है, बल्कि जहाँ मन, आत्मा और देह एक संपूर्ण सृष्टि के मिनिएचर में स्वयं मनुष्य के भीतर अखंडित रूप से मौजूद है। क्या हम इसे 'भारतीय मन' की दुनिया कह सकते हैं? मुझे नहीं मालूम, किंतु अवश्य ही यह वह दुनिया नहीं है, जिसका चित्र हमें आज तक यूरोपीय उपन्यासों में उपलब्ध होता रहा है। फिर कैसा है यह संसार, जिसके भीतर इस मन का संस्कार बसा है, जिसके तंतुओं से स्वयं इस मन का टेक्सचर बना है? यूरोपीय उपन्यास की अहम-आक्रांत दुनिया से निकल कर यदि हमें इस अनोखे मन, मनुष्य के आत्मन-संस्कार में प्रवेश करने का अवसर मिल सके तो हमें सहसा लगेगा मानो हर इकाइयों की दुनिया से निकल कर संबंधों की दुनिया में चले आए हैं। यहाँ सब जीव और प्राणी एक-दूसरे में अंतर्गुंफित हैं, अन्योन्याश्रित हैं, न केवल वे प्राणी जो प्राणवान हैं, बल्कि वे चीजें भी जो ऊपर से निष्प्राण (inanimate) दिखाई देती हैं। इस अंतर्गुंफित दुनिया में चीजें आदमियों से जुड़ी हैं, आदमी पेड़ों से, पेड़ जानवरों से, जानवर वनस्पति से, और वनस्पति आकाश से, बारिश से, हवा से। एक जीवंत, प्राणवान, प्रतिपल साँस लेती, स्पंदित होती हुई सृष्टि-अपने में संपूर्ण सृष्टि जिसके भीतर मनुष्य भी है, किंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य सृष्टि के केंद्र में नहीं है, सर्वोपरि नहीं है, सब चीजों का मापदंड नहीं है; वह सिर्फ संबंधित है और अपने संबंध में वह स्वायत्त इकाई नहीं है, जिसे अब तक हम व्यक्ति मानते आए थे, बल्कि वह वैसे ही संपूर्ण है जैसे दूसरे जीव अपने संबंध में संपूर्ण हैं, जिस तरह मनुष्य सृष्टि का ध्येय नहीं है उसी तरह मनुष्य का ध्येय व्यक्ति होना नहीं है, हम साधन और साध्यों की दुनिया से निकल कर संपूर्णता की दुनिया में आ जाते हैं। मनुष्य की समग्रता का यह अद्भुत साक्षात हमें मार्खेज के उपन्यास ‘One hundred years of solitude’ में मिलता है, इसीलिए वह यूरोप के व्यक्ति-केंद्रित या व्यक्तिहीन उपन्यास से इतना अलग जान पड़ता है। यूरोपीय मनुष्य का ज्वर, जो व्यक्ति के अलगाव और अकेलेपन के कारण उपन्यास की मर्मांतक तकलीफ बन कर प्रकट हुआ था, संबंधों की इस परिकल्पना में अपने आप नष्ट हो जाता है, घुल जाता है। हेगल ने जहाँ व्यक्ति की अस्मिता दूसरों के विरुद्ध-अन्य के खिलाफ-परिभाषित की थी, वहाँ उसके विपरीत संबंधों की दुनिया में विवेकानंद बिलकुल दूसरे कोण से व्यक्ति को आँकते हैं, 'व्यक्ति का जीवन संपूर्ण के जीवन में बसा है, उसका सुख संपूर्ण के सुख में निहित है, संपूर्ण के बिना व्यक्ति की परिकल्पना असंभव है। यह ऐसा शाश्वत सत्य है, जिसकी आधार-शिला पर समूचा विश्व टिका है। इस अनंत संपूर्ण की ओर धीरे-धीरे अग्रसर होना, उसके प्रति अगाध सहानुभूति और समानता महसूस करना, उसके सुख में सुखी और उसकी यातना में दुखी अनुभव करना - यही व्यक्ति का एकमात्र कर्तव्य है। यह केवल उसका कर्तव्य ही नहीं है, बल्कि उसके उल्लंघन में उसकी मृत्यु है।' (रेखांकित : लेखक)
विवेकानंद ने व्यक्ति की मृत्यु के बारे में जो चेतावनी उन्नीसवीं शती के अंत में दी थी, हमारी शती की ढलती घड़ियों में वह एक साक्षात और एक क्रूर सत्य बन कर हमारे सामने खड़ी हो गई है। आज के उपन्यास को इस मृत्यु का सामना करना है और वह यह किसी सरलीकृत शार्टकट से नहीं कर सकता, न भारत की पुरानी कथ्यात्मक शैलियों में जा कर उसे चित्रित किया जा सकता है, न ही उसे उन्नीसवीं शती में रचित उपन्यास के चौखटों में ही बंद किया जा सकता है, व्यक्ति जहाँ सर्वोपरि था। उसका सामना केवल मनुष्य के आत्मन-व्यक्तित्व, उसके सेल्फ को पुनर्भाषित करने की दुर्गम और बीहड़ प्रक्रिया में ही संभव हो सकेगा। दूसरे शब्दों में, हम जिस नए उपन्यास की परिकल्पना करते हैं, वह पश्चिम के यथार्थवादी, विक्टोरियन उपन्यास से तो भिन्न होगा ही, किंतु वह परंपरागत अर्थों में भारतीय मन का उपन्यास ही होगा, यह कहना असंभव है, जबकि हम इस मन को ही संस्कारगत संस्कृति के संकट के संदर्भ में पुनर्परीक्षित नहीं करते। जाहिर है, उपन्यास की यह परिकल्पना व्यक्ति के खंडित ईगो का अतिक्रमण करके, उसे वैसी संपूर्ण स्थिति में देखने से शुरू होगी, जिसमें वह समानता और सहानुभूति के संवेदात्मक स्तर पर पुन: अपना रिश्ता आसपास फैली सृष्टि से जोड़ सके - स्वयं उसके बीच जीवित रहने की भूली हुई मर्यादा को याद रख सके, इस याद को एक ऐसी कलात्मक स्पेस में अभिव्यक्त कर सके, जो स्मृति भी है, इतिहास भी, जादू भी, माया और यथार्थ की लीला भी, पुरुष और प्रकृति के बीच एक नए पुराण की रचना जो हमें एक तरफ बार-बार अपनी पुरानी कथ्यात्मक विधाओं की याद दिलाएगी - महाकाव्य लोककथाएँ, परी कथा, इंद्रजाल, तो दूसरी तरफ उसमें हमें पश्चिमी उपन्यास के वे सर्वोत्तम, दुर्लभ क्षण भी याद आते रहेंगे, जब व्यक्ति ने अपने अंतर्मन की अँधेरी गुहा से बाहर संपूर्ण से साक्षात्कार किया था। वह स्वप्न जो ब्रदर्स कारामोजोव में दिमित्री ने मानसिक यंत्रणा के असहनीय क्षण में देखा था, दोस्तो, मैंने एक स्वप्न देखा है, एक वाक्य जो एक कौंध में मनुष्य का समूचा, पीड़ित इतिहास आलोकित कर जाता है या फिर उस सीधे-सादे किसान की आत्मा में जिसके भीतर तोल्सतोय और प्रेमचंद ने संपूर्ण सत्य से साक्षात किया था, या भीतर का वह अँधेरा सूरज, जिसकी रोशनी में लॉरेंस ने बीसवीं शती की मशीनी सभ्यता की समस्त छद्म बौद्धिक अवधारणाओं को भेद कर समूचे ब्रह्मांड से खून का रिश्ता जोड़ा था। पश्चिमी उपन्यास में संपूर्णता की ये झलकें बहुत दुर्लभ हैं, किंतु उनसे साक्षात किए बिना न तो हम व्यक्ति की पीड़ा समझ पाएँगे, न उसका अतिक्रमण करके नए उपन्यास की राह खोज पाएँगे।
उपन्यास पश्चिम की विधा अवश्य हो, व्यक्ति की पीड़ा - एक व्यक्ति की हैसियत से - हर जगह एक जैसी है। यूरोपीय उपन्यास के चौखटों से मुक्त हो कर हम जिस उपन्यास के पुनर्जन्म की परिकल्पना करते हैं, उसमें मनुष्य की देह पर उन सब घावों के निशान होंगे, जिसे व्यक्ति ने अपने पूर्व-जन्म में झेला है, किंतु अब उनकी पीड़ा किसी अन्य के द्वारा या विरुद्ध न हो सृष्टि के उस समूचे अस्तित्व से जुड़ी होगी, जिसके सुख में सुखी और जिसकी यातना में दुखी हुआ जाता है। यहाँ देखना, होना, महसूस करना अलग-अलग खंडों में विभाजित नहीं है, जो हमें फ्रांस के नए उपन्यास में मिलता है, जिसकी व्याख्या रॉव्ब ग्रिये ने की है। रॉव्ब ग्रिये के लिए 'नया उपन्यासकार' वह है जो चीजों को सिर्फ देखता-भर है, एक तटस्थ दर्शक की तरह, जिसमें वह अपनी भावनाओं द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं करता। उसके विपरीत जिस उपन्यास की परिकल्पना हम कर रहे हैं, वहाँ हस्तक्षेप का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि वहाँ लेखक देखनेवाला सब्जेक्ट नहीं है और दुनिया दिखाई देनेवाली आब्जेक्ट नहीं है बल्कि दोनों एक-दूसरे के बीच में हैं; मनुष्य दुनिया के बीच में है, प्राणियों में एक प्राणी, जीवों में एक जीव, वह दूसरों को देखता है, तो दूसरे भी उसे देखते हैं, कुछ उसी भाव में जैसे कभी पॉल क्ले ने कहा था - जब कभी मैं जंगल में घूमता हूँ तो मुझे लगता है कि जहाँ मैं पेड़ों को देख रहा हूँ, वहाँ पेड़ मुझे देख रहे हैं।
यह बिलकुल दूसरा संसार है, जहाँ कोई केंद्र नहीं है, क्योंकि सब केंद्र में हैं, एक चमत्कारी, जादुई दुनिया, जिसका जादू सिर्फ इस छोटे-से सत्य में है कि जीवन की प्राणवत्ता को सेक्युलर और धार्मिक में विभाजित नहीं किया जा सकता; जो है, वह पवित्र है। दोस्तोएवस्की ने कहा था कि अगर ईश्वर नहीं है, तो मनुष्य सब कुछ कर सकता है; आज हम कह सकते हैं कि अगर व्यक्ति नहीं है, तो मनुष्य सब कुछ हो सकता है, पेड़ और पत्थर और धूप और जंतुओं के जैविक उज्ज्वल संसार में एक जीव-सार्वभौमिक पवित्रता के बीच पवित्रता का प्राण-पुंज। उपन्यास, ए ब्राइट बुक ऑव लाइफ?1 हाँ क्यों नहीं किंतु भारतीय या यूरोपीय किताब नहीं - बल्कि जीवन की एक संपूर्ण किताब।
1 डी.एच. लॉरेंस - Novel is a bright book of life.
कहानी : एक शुद्ध विधा
पिछले वर्षों में साहित्यिक विधाओं के भीतर एक अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है। पहले जो विधाएँ अपने को आत्म-केंद्रित दायरों में सुरक्षित रखती थीं, अब वे धीरे-धीरे अपनी हदों का अतिक्रमण करके दूसरी विधाओं में प्रवेश करने लगी हैं। उन्होंने अपने बंद दरवाजों को खोल कर न केवल बाहर झाँका है, बल्कि अपनी देहरी को लाँघ कर दूसरी विधाओं के संसार में विचरने की उन्मुक्तता दिखाई है। अब वे मुक्त रूप से एक-दूसरे से घुलती-मिलती हैं। पत्रकारिता का प्रवेश साहित्य में होता है। आँखों-देखी रिपोर्ताज कहानी की विधा में स्फूर्त होती है और जब कभी इन 'संभोगी' प्रयासों से किसी नई किंतु अशुद्ध और मिश्रित विधा का जन्म होता है (जैसे - नोबोकोव का उपन्यास ‘पेलफायर’ या मेलर का आत्मपरक रिपोर्ताज ‘आर्मीज ऑव द नाइट’) तो उन्हें पढ़ कर हमारे भीतर जो प्रतिक्रिया होती है उसे हम आसानी से अब तक की परंपरागत, साहित्यिक विधाओं में परिभाषित या विभाजित नहीं कर सकते। कोई साहित्यिक विधा अखंडित रूप से शुद्ध और पवित्र हो सकती है, इस बात में एक ऐसी धार्मिक शुद्धता का धूप-कपूर में रचा-बसा वातावरण याद हो आता है जिसके भीतर मलार्मे जैसे कवि तो फल-फूल सकते हैं, लेकिन मेलर जैसे बहुमुखी कथाकार जरूर मुरझा जाएँगे। जहाँ तक गद्य का प्रश्न है, हम उत्तरोत्तर एक ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं जहाँ साहित्यिक विधाएँ अपनी संकीर्ण लक्ष्मण रेखाओं से उठ कर खुली हवा में एक-दूसरे के साथ मिलने-जुलने लगी हैं।
किंतु यह भी सच है कि यदि विधाओं की सीमाएँ धुँधली पड़ गई हैं तो भी इसके बावजूद कहानी, कविता और उपन्यास के बीच अंतर अब भी कायम है। विभिन्न विधाओं के ढाँचे जरूर ढीले पड़ गए हों, लेकिन वे विघटित नहीं हुए हैं। कहानी सिर्फ इसीलिए कम कहानी या अकहानी नहीं हो जाती, यदि उसने कथा कहने की अपनी पुरानी विधि को त्याग दिया है। एक काव्यात्मक रूपक कथा के समूचे लैंडस्केप को अपनी नोंक से बींध सकता है और कोई बिंब बार-बार हाँट करता हुआ, अपने को दोहराता हुआ कथा की परंपरागत शैली को तोड़ कर घटना के क्रम को एक नया अर्थ दे सकता है। किंतु कहानी का बिंब या रूपक अपनी अर्थवत्ता किसी देह के भीतर ही उपलब्ध कर सकते हैं - गद्य की देह के भीतर। किंतु इसका उल्टा भी हो सकता है - कोई कविता किसी कहानी में आकार ले सकती है - पुश्किन की लंबी कविता 'यूजिन ऑनेगिन' इसकी मिसाल है - किंतु यहाँ कहानी की घटनाएँ केवल उस देह में स्फूर्त होती हैं, जो कविता ने उन्हें दी है, इसलिए यहाँ रचना का अंतिम और चरम अनुभव कहानी की घटनाओं के बावजूद केवल कविता में ही अनावृत्त होता है। अत: साहित्यिक विधाओं का चयन स्वेच्छाचारी ढंग से नहीं हो सकता, वह अनुभव की प्रकृति में ही निहित होता है। कोई लेखक अपने अनुभव को एक विधा से दूसरी विधा में अपनी मन-मरजी से स्थानांतरित नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने से अनुभव का जीवंत स्फुरण ही नष्ट हो जाएगा। यह बात दूसरी है कि एक बार मर जाने के बाद कोई भी अनुभव किसी भी विधा में रूपायित किया जा सकता है - नाटक में, कविता में या कहानी में; किंतु तब वह एक मृत नाटक होगा, एक मृत कविता और एक मृतक कहानी। ऐसा कभी नहीं होता कि लेखक कुछ अनुभव करे और फिर उस अनुभव को किसी कलात्मक फॉर्म में रूपायित करे, उलटे होता यह है कि स्वयं अनुभव अपने फॉर्म के साथ उपस्थित होता है। लेखक अपने अनुभव का फॉर्म नहीं चुनता, अनुभव एक खास फॉर्म में ही लेखक के भीतर उदित होता है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि किसी अनुभव को कहानी में पकड़ा गया है - कला में 'पकड़ा' कुछ भी नहीं जाता - यह ज्यादा सही होगा कि अमुक अनुभव केवल कहानी में ही, कहानी के फॉर्म में ही रूपायित हो सकता था - अन्य किसी फॉर्म में नहीं।
हम कहानी को शब्दों में पढ़ते हैं, किंतु क्या ये वही शब्द हैं जो हम किसी कविता या अखबारी रपट में पढ़ते हैं? अखबारी रपट के शब्द सिर्फ माध्यम हैं, वे हमें दुनिया और लोगों के बारे में सूचना देते हैं। एक बार सूचना पढ़ लेने के बाद उसके शब्द अपना समूचा अर्थ खर्च कर देते हैं, खाली हो जाते हैं। कविता में शब्द अपेक्षाकृत अधिक स्वायत्त होते हैं। शब्द के अर्थ किसी बाहरी माध्यम को पूरा नहीं करते, वे शब्द की आत्म-केंद्रित इकाइयों में ही अंतर्निहित होते हैं; किंतु कहानी में शब्द न सिर्फ रपट की तरह माध्यम होते हैं, न किसी की तरह स्वायत्त होते हैं। उनके भीतर एक तनाव भरी चमक रहती है। एक कहानी बाहर की दुनिया की रपट को अपने सत्य की भाषा में परिणत करती है। जिंदगी और कला के बीच मँडराते हुए कहानी का सत्य शब्द में बिंधा रहता है और यही शब्द वाक्यों में बिंधे रहते हैं, और एक वाक्य दूसरे वाक्य की तरफ जाता हुआ एक ऐसा जाल बुनता है जिसमें जीवन की धड़कन को फाँस लिया जाता है, किंतु एक लेखक मकड़ी नहीं है जो जिंदगी को मक्खी की तरह बाहर से पकड़ कर भीतर लाता है, बल्कि वाक्यों के बनने के साथ-साथ कहानी का सत्य उद्घाटित होता रहता है और जाले में जो जीवन पकड़ा जाता है वह उन रेशों से अलग नहीं होता जिनसे जाला बुना जाता है। कहानी की कला में हम मक्खी को जाले से अलग नहीं कर सकते, जिस तरह हम उसकी फॉर्म को उसके कथ्य से अलग नहीं कर सकते; दोनों अविच्छिन्न हैं।
अत: किसी कला-विधा की पवित्रता वास्तव में वह फॉर्म या रूप है जिसमें लेखक का समूचा दर्शन, स्वप्नजगत और कथ्य समाहित हो जाता है। कहानी का कथ्य छोटा या बड़ा किया जा सकता है, किंतु जिस फॉर्म में कहानी ने अपना रूप और सत्य ग्रहण किया है वह अपनी विशिष्टता में अद्वितीय है और किसी भी हेर-फेर की अपेक्षा नहीं करता। चेखव की कहानी का अंदरूनी और अंतिम अनुभव इसमें निहित नहीं है कि कहानी क्या कहती है, क्योंकि कहानी में जो कहा गया है वह कमोबेश अलग-अलग ढंग से चेखव के अनेक समकालीन लेखकों ने व्यक्त किया था; अगर चेखव की कहानियाँ एक अनोखे ढंग से अपनी स्मृति की छाप हम पर छोड़ जाती हैं, तो अपनी सघन प्राज्ज्वलता के कारण, जिसके होते लगता है कि हम उनकी कहानियों में जीवन के हाड़-मांस को छू रहे हैं, जबकि वास्तव में हम छू रहे होते हैं सिर्फ - उनके गद्य की देह-मज्जा को। यहाँ शब्दों का इस्तेमाल न आत्मकेंद्रित इकाइयों के रूप में होता है और न ही सूचना देने के माध्यम के रूप में; वे केवल एक विस्तार रचते हैं जिसमें होता सबकुछ है लेकिन व्याख्यायित कुछ भी नहीं किया जाता।
कथ्यात्मक गद्य की यह विशुद्धता उस समय प्रगट हुई थी जब कहानी का विकास एक स्वायत्त सत्ता के रूप में हो चुका था। कहानी को अपने आधुनिक रूप में विकसित होने के लिए छापेखाने की प्रतीक्षा करनी पड़ी ताकि पत्र-पत्रिकाओं में उसे एक के बाद स्वतंत्र रूप में प्रकाशित किया जा सके। यह नहीं कि कहानियाँ पहले नहीं लिखी जाती थीं, किंतु पहले वे नीति-कथाओं (पंचतंत्र) या रोमांचकारी किस्सों (अरेबियन नाइट्स) या पौराणिक कथाओं की हैसियत से प्रचलित थीं। कमोबेश वे एक मौखिक परंपरा के भीतर आती थीं जहाँ कहानी-किस्सों को किसी संप्रदाय के सदस्यों को सुनाया जाता था, जिनके अनुभवों और स्मृतियों का एक सामान्य केंद्र बिंदु (पॉइंट ऑव् रेफरेंस) हुआ करता था। शायद कथा-वाचक का नाम भी कोई नहीं जानता था, कम-से-कम महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि वह श्रोता-समूह का ही अभिन्न अंग था और जो कहानियाँ वह उन्हें सुनाता था वे कथा-वाचक और श्रोताओं, दोनों की ही स्मृतियों में साझा करती थीं। किंतु आज हम जिस विधा को आधुनिक कहानी के रूप में जानते हैं वह पुरानी कथाओं से केवल इसलिए भिन्न नहीं हैं कि वह अब मुद्रित होती है, सुनी नहीं जाती, किंतु एक-दूसरे बुनियादी अर्थ में भी वह उनसे अलग है: आधुनिक युग तक आते-आते कहानी अपनी सामूहिक स्मृतियों के परिवार से बाहर निकल कर धीरे-धीरे एक व्यक्ति की निजी और प्रायवेट कल्पना को उद्घाटित करने लगी। अब उसकी जड़ें एक लेखक की निजी चेतना में रहती हैं और इस वैयक्तिक चेतना के हस्ताक्षर कहानी पर अंकित रहते हैं। कहानी के विकास में यह एक महत्वपूर्ण मंजिल मानी जाएगी कि जिस दिन कहानी स्वायत्त रूप से प्रौढ़ बनी, उस दिन उसने अपने-आपको स्थानीय विचित्रताओं से भी मुक्त कर लिया; कहानी की आधुनिकता ही उसकी सार्वभौमिकता भी बन गई। यह महज एक संयोग नहीं था कि पेरिस में बैठे हुए कवि बॉदलेयर, एक सुदूर अमेरिकी लेखक, एडगर ऐलन पो की अद्भुत, दु:स्वप्नीय कहानियों से इतना अभिभूत हो गए थे। आज हम जिसे 'तीसरी दुनिया' कहते हैं, स्वयं उसके लेखक भी आधुनिक कहानी के इस सार्वभौमिक प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। हमारी शताब्दी के दूसरे शतक में स्वयं प्रेमचंद यूरोप के कथा-साहित्य को, विशेषकर रूस के उन्नीसवीं शताब्दी के कहानीकारों, लेखकों को बड़ी तृष्णा और लालसा से पढ़ते थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक कहानी को स्वायत्त और सार्वभौमिक बनाने का श्रेय सीधा-सीधा उपन्यास को जाता है, जिसने अपने विकास के आरंभिक चरण में कथ्यात्मक विधाओं की आत्मनिर्भर स्वतंत्रता के लिए धरती तैयार की थी। इस धरती पर एक ऐसी नई कथ्यात्मक विधा ने जन्म लिया जो अपने स्वर और परिवेश में पूर्ण रूप से सेक्युलर थी; उसने अपने आपको एकबारगी समस्त पौराणिक और धार्मिक संस्कारों से मुक्त कर लिया था। दूसरी तरफ उपन्यास ने अपनी जवानी की उत्कर्ष घड़ियों में मध्यवर्ग की बुर्जुआ नैतिकता के सर्वव्यापी बंधन से भी मुक्त हो कर अपनी स्वतंत्र कलात्मक सत्ता को प्रतिष्ठित किया था। आज जब हम 'कला कला के लिए' के नारे के सौंदर्यशास्त्र की भर्त्सना करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि यही नारा अपने समय में कितना क्रांतिकारी था। उसमें वास्तविकता से पलायन का भाव नहीं था, बल्कि उसने कला के प्रभुत्व को उस यथार्थ के विरुद्ध स्थापित किया था, जिसे बुर्जुआ वर्ग ने अपनी ओछी और क्षुद्र मान्यताओं से इतना दूषित कर दिया था। आज के तथाकथित क्रांतिकारी युग में जहाँ कला के मूल धर्म को 'कलावाद' कह कर तिरस्कृत किया जाता है, जो हमें याद रखना चाहिए कि 19वीं सदी के अंतिम चरण में यही 'कलावादी' लेखक थे जिन्होंने मध्यवर्ग के सब मूल्यों को अस्वीकार करके समाज में एक विद्रोही 'आउटसाइडर' की हैसियत से रहना पसंद किया था। उन्होंने कला की पवित्रता और स्वायत्तता को ढाल बना कर समाज की उस छद्म चेतना का सामना किया था जो आज हमारे युग का चरम-अभिशाप बन चुकी है। यह वह क्षण था जब कला की स्वतंत्रता छद्म सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध एक नैतिक चुनौती का प्रतीक बन गई थी। इसे जाने बिना हम फ्लॉबर जैसे लेखक की पीड़ा नहीं समझ सकते, जो एक तरफ अपने उपन्यास लिखते जाते थे और दूसरी तरफ उस पब्लिक से घोर घृणा करते थे जो उनके उपन्यास पढ़ती थी।
यह विडंबना ही मानी जाएगी कि 19वीं सदी के अंतिम और अवसादपूर्ण शतकों के दौरान ही कहानी को अपनी विश्वसनीय आवाज मिली थी। हम जब तॉल्सतॉय, चेखव और मोपासां की कहानियाँ पढ़ते हैं तो हमें कुछ हैरानी-सी होती है कि उनके हाथों कहानी जैसी संक्षिप्त और सुकुमार विधा ने व्यक्ति की घोर पीड़ा और अंतर्द्वंद्व को तो व्यक्त किया ही था किंतु उसके साथ उस समय की दम घोटती और विषादजनक सामाजिक परिस्थितियों पर भी इतनी साफ और संयत टिप्पणी की थी। अब कहानी उपन्यास की गरीब बिरादर नहीं थी, उसने स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने का जोखिम उठाया था। यह सही है कि उसमें अब भी पुराने किस्सों का भावनात्मक लिरिसिज्म बचा रह गया था, किंतु उसने अपने अनुभव क्षेत्र के लिए जो दायरा चुना था वह उपन्यास से बहुत अलग था।
क्या उपन्यास और कहानी का अंतर इसी में निहित है कि कहानी अपने आकार में छोटी और संक्षिप्त होती है, और क्या इस लाघव्य के कारण कहानी मानवीय स्थिति को उतने सजीव विस्तार और गहनता से अभिव्यक्त नहीं कर पाती जितना एक उपन्यास करता है? अंग्रेजी साहित्यकार और समीक्षक मि. प्रिशेट दोनों के बीच अंतर समझते हुए कहते हैं कि 'उपन्यास हमें सब कुछ बताता है जबकि कहानी सिर्फ एक बात बताती है - पूरी सघनता के साथ।' क्या सचमुच ऐसा है? एक चीज का क्या मतलब है और जिसे मि. प्रिशेट सब कुछ कहते हैं, क्या उपन्यास सचमुच जन्म से ले कर मृत्यु तक मनुष्य के समस्त अनुभवों को अपने में समेट पाने की शक्ति रखता है? सच तो यह है कि इस तरह की कसौटियाँ बिलकुल फेल हो जाती हैं जब हम उन्हें किसी महत्वपूर्ण कलाकृति पर लागू करते हैं। तॉल्सतॉय की कहानी 'ईवान इलिच की मृत्यु' सिर्फ एक चीज के बारे में है, मरने के बारे में, किंतु क्या यह एक चीज उन समस्त अनुभवों को अपने में नहीं समेटती जिसे ईवान इलिच ने अपनी समूची जिंदगी में भोगा है? यह कहानी जीवन के एक ऐसे नैतिक किंतु निर्णायक क्षण पर केंद्रित है, जो पिछले गुजरे हुए वर्षों की घोर निराशा और अँधेरे को सहसा आलोकित कर जाता है और इस तरह उन सब कृत्रिम विभाजनों को नष्ट कर देता है, जिसे आलोचक 'एक और समस्त' के बीच खींचते हैं। और फिर मिसेज डेलोवे का क्या कहेंगे? यह कहानी नहीं पूरा उपन्यास है, किंतु इसकी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी कि उसकी नायिका के समूचे जीवन में क्या बीता-गुजरा है। वह केवल उसके कुछ चुने हुए क्षणों को ही उद्घाटित करती है (मिसेज वुल्फ शायद उन क्षणों को मोमेंट्स ऑव् विजन कहेंगी) किंतु बाकी जिंदगी एक बंद किताब की तरह हमेशा बंद रहती है, उस अतीत के ताले की तरह बंद, जिसे हम कभी नहीं खोल पाएँगे, इसलिए कहानी और उपन्यास के बीच 'एक और अनेक' का विभाजन निरर्थक है। यहाँ शायद हमारे लिए उपनिषद दर्शन ज्यादा कारगर होगा जिसने एक में अनेक और अनेक में एक खोजने का सत्य बताया था और शायद यही सत्य हमें विधाओं को एक-दूसरे से अलग करते समय भी ध्यान में रखना चाहिए।
यह कह देने के बाद मैं तुरंत यह जोड़ना चाहूँगा कि कहानी और उपन्यास के बीच गहरा अंतर है किंतु वह अंतर नहीं जिसकी कसौटी मि. प्रिशेट ने निर्धारित की है। दोनों में अंतर एक या अनेक ब्यौरों के बीच नहीं है, बल्कि इन ब्यौरों के प्रति खुद लेखक का क्या रुख है, उनसे वह किस तरह का संबंध बिठाता है, कथा-विधा का फॉर्म इस रुख और संबंध द्वारा अनुशासित होता है। जरूरी नहीं एक कहानी का दर्शन एक उपन्यास की अपेक्षा कम संपूर्ण या कम व्यापक हो - किंतु इस दर्शन के भीतर कहानी का हर डिटेल एक भिन्न किस्म का तनाव और तापमान ग्रहण करता है। उपन्यास की तरह कहानी के ब्यौरे केवल माध्यम मात्र ही नहीं हैं, जो एक-दूसरे से जुड़ते हुए अंत में एक समग्र प्रभाव छोड़ते हैं, बल्कि कहानी में हर डिटेल अपनी ही जिंदगी से स्पंदित होता हुआ एक स्नायुतंत्र है और जब कहानी खत्म होती है तो कुछ भी पूरा नहीं होता, क्योंकि उसमें कभी कुछ भी शुरू नहीं होता। बेशक छपे हुए पन्ने पर कहानी एक बिंदु से शुरू होती है और दूसरे बिंदु पर समाप्त होती जाती है, किंतु चेतना की सतह पर कहानी के जीवन का एक अंश ही दिखाई देता है, अपनी रोशनी में चमकता हुआ। कहानी समय के दरिया में नहीं बहती, जहाँ उपन्यास बहता है, बल्कि वह एक तालाब-सी जमी रहती है जो स्थिर है; स्मृति का स्थिर समय, जिसमें याद करना ही उसकी सतह को थोड़ा-सा हिलाना है। उपन्यास के माध्यम से स्मृति समय की शक्ति के खिलाफ संघर्ष करता है, किंतु कहानी में ऐसा पुरातन तत्व कायम रहता है जिसमें चीजें समय के खिलाफ नहीं, बल्कि उसके संदर्भ में याद की जाती हैं। यही कारण है कि कहानी उपन्यास की अपेक्षा शब्दों पर ज्यादा निर्भर रहती है। क्योंकि यहाँ शब्द उन घटनाओं के समानांतर चलते हैं जो हम याद करते हैं, वे महज स्मृति को उजागर करने का साधन नहीं हैं, जो व्यतीत हो गई हैं।
यही तथ्य हमें एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर ले जाता है। व्यक्ति की चेतना के बारे में यह एक विचित्र चीज है कि जब वह समय के पैमाने में रूपायित होती है तो अनिवार्यत: उपन्यास की विधा में ही ढल कर आती है, किंतु दूसरे छोर पर जब वह अपने को शब्दों के कालातीत-तंत्र में समेट लेती है तो हमेशा कविता बन कर बाहर निकलती है। किंतु उस चेतना का क्या होता है जो समय की गति को रोकने की तो कोशिश करती है किंतु शब्दों के स्वायत्त तंत्र में डूबना नहीं चाहती? ऐसे क्षण में एक ऐसी साहित्यिक विधा का जन्म होता है जो उपन्यास और कविता के बीच की जगह को समेटती है जिसे अगर हम चाहें तो कहानी का नाम दे सकते हैं, जिसका एकमात्र प्रेरणा-स्रोत यही एक लालसा है कि वह किसी तरह कविता के जमे हुए समय को पिघला कर उस कथ्यात्मक क्षेत्र में बहा सके जो असल में उपन्यास की जमीन है। कहानी अपनी छोटी-सी जीवन-यात्रा में उस अजानी और खाली जमीन को पार करती है जो भाषा और समय, कविता और इतिहास के बीच फैली है।
क्या यह एक दुर्लभ करतब है कि कहानी अपनी संरचना में काव्यात्मक हो किंतु अपने उद्देश्य में कथ्यात्मक? किंतु यही दुर्लभ चमत्कार तो हमें ईसाक बाबेल, हेमिंग्वे, केथरीन मेन्सफील्ड और डी.एच. लॉरेन्स की कुछ कहानियों में मिलता है जिनमें उन्होंने असाधारण पवित्रता और उज्ज्वल सात्विक संयम के साथ कथ्यात्मक ब्यौरों को साधने का दु:साहस किया और उसमें सफल भी हुए। खुद हमारे देश में माणिक वंद्योपाधयाय, जैनेंद्र और प्रेमचंद की कुछ कहानियों में उनके उपन्यासों की अपेक्षा यही संकेंद्रित शक्ति और तन्मयता दिखाई देती है। ये सब लेखक जो एक-दूसरे से इतने भिन्न हैं कम-से-कम एक बात में बिलकुल समान दिखाई देते हैं, जिसे टॉमस मान ने 'पैशन और पवित्रता' का अद्भुत समन्वय माना था। यह बात हमें बाबेल में दिखाई देती है जिन्होंने अपनी कहानियों में अपने समय के इतिहास को इतनी पैनी नोक से भेदा था - तथ्यों और घटनाओं का विवरण दे कर नहीं बल्कि एक नंगी और नुकीली इमेज के द्वारा जिसमें एक सिपाही द्वारा बत्तख का गला मरोड़ने से जो खून फव्वारे की तरह फूटता है और अँतड़ियाँ बदबदा कर बाहर निकलती हैं - यह एक इमेज इतने कम शब्दों में युद्ध की रक्तिम विभीषिका को जिस भयावह आवेग के द्वारा व्यक्त करती है उसे शायद भारी-भरकम युद्ध संबंधी उपन्यास भी व्यक्त नहीं कर पाते। यह चेखव ही तो थे जिन्होंने एक बार गोर्की को सलाह दी थी कि चाँदनी को व्यक्त करने के लिए एक टूटी हुई बोतल के काँच में चाँदनी के अक्स को दिखाना ही काफी है। यदि बाबेल ने इतिहास को एक काव्यात्मक बिंब में परिणत किया था तो चेखव ने दूसरे छोर पर काव्यात्मक बिंब को अपने कथ्यात्मक गद्य के शांत प्रवाह में पिरोया था। गद्य में यह चमत्कार - बिना कविता की काव्यात्मकता और उपन्यास के ऐतिहासिक समय का सहारा लिए उपलब्ध कर पाना-एक तरह से कहानी द्वारा उस चुनौती को स्वीकार करना था जो हमारे भीतर उपन्यास और कविता से अलग एक नया भावनात्मक संसार रचा पाती है।
यही चुनौती हिंदी कहानी ने स्वीकार की थी, किंतु संदर्भ और परिवेश यूरोप से बिलकुल भिन्न था। भारत जैसे परंपराग्रस्त समाज में अक्सर साहित्य धर्म या सामाजिक विचारधाराओं का अनुचर होता है जिसके कारण उसकी स्वायत्त सत्ता हमेशा खतरे में पड़ी रहती है। यदि साहित्य समाज के विभिन्न सरोकारों के दलदल में धँसा रहे तो वह धर्मशास्त्र या सामाजिक-राजनीति का परजीवी बन जाता है, एक जोंक की तरह उनका खून खींच कर जीवित रहता है और इस तरह आत्मा की आवाज बनने का नैतिक अधिकार खो देता है। यही कारण है कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हिंदी कहानी ने अपने को विभिन्न सामाजिक, धार्मिक आग्रहों और पूर्वग्रहों से मुक्त करके एक स्वतंत्र साहित्यिक फॉर्म में विकसित होने का सतत और साहसपूर्ण संघर्ष किया था। यह संभव नहीं हो पाता यदि हिंदी कहानी सेक्युलर होने की लंबी और पीड़ायुक्त यात्रा तय न करती। सेक्युलर सबसे अधिक व्यापक अर्थ में - केवल धर्मनिरपेक्षता के अर्थ में नहीं। यदि प्रेमचंद के साथ हिंदी कहानी एक कला-विधा के रूप में इतनी प्रौढ़ हुई तो इसलिए कि वे अपने समय के सबसे अधिक सेक्युलर लेखक थे।
किंतु यही शायद प्रेमचंद और उनके अन्य समकालीन लेखकों की सबसे बड़ी सीमा भी थी, क्योंकि भारतीय संदर्भ में महज सेक्युलर होना काफी नहीं है। अपने को धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त करना स्वतंत्रता का चिह्न है किंतु आधुनिकता की झोंक में अपने को धर्म-निरपेक्ष बनाना, यह स्वतंत्र नहीं आत्म-उन्मूलन की बीमारी का शिकार होना है। कहानी में जो सेक्यूलेरिज्म एक स्वच्छंद हल्कापन देता है वही उपन्यास में दृष्टि को सीमित कर देता है। हमारे समाज में धर्म निरपेक्षता का आधुनिक आंदोलन दरअसल मुक्ति का आंदोलन न हो कर उन धार्मिक विश्वासों के विघटन को व्यक्त करता है, जो एक समय में भारतीय जनता को इस धरती पर रहने का आश्वासन देते थे। धार्मिक विश्वासों की इस धरती से निष्कासित हो कर हिंदुस्तान का मध्यवर्ग अब एक ऐसे सेक्युलर युग के खुले रेगिस्तान में फेंक दिया गया है जहाँ उसके संस्कारगत मिथक और प्रतीक उसकी मदद नहीं कर सकते। अतीत से मुक्त हो कर वह वर्तमान में अपने को अजनबी और आत्मनिर्वासित पाता है। हिंदी कहानी ने भारतीय मध्यवर्ग की इस आध्यात्मिक उदासीनता और विषाद को बहुत सशक्त ढंग से व्यक्त किया है, किंतु भारतीय उपन्यास कुछ अपवादों को छोड़ कर नैतिक आदर्शों की खोई हुई पवित्रता से चिपटा रहा है। (रवींद्रनाथ ठाकुर का गोरा एक उदाहरण है, जो न विश्वास की गरिमा दे पाता है न संदेह की पीड़ा को व्यक्त कर पाता है।) इसके विपरीत हिंदी कहानी ने उस कीचड़ में धँसने का थोड़ा-बहुत प्रयास किया, जिसकी गंदगी और गलाजत से आज समूचा भारतीय-जीवन ग्रस्त है।
भारतीय मनुष्य सिर्फ आर्थिक मनुष्य नहीं है, न ही उसका औपनिवेशिक त्रास केवल उसकी आर्थिक पीड़ा को व्यक्त करके चुक जाता है। भारतीय मनुष्य का आधुनिक संकट समस्त औपनिवेशिक अपवित्रताओं से ग्रस्त है जो उसकी संस्कृति का संकट है। यहीं कथ्यात्मक कला की सबसे बड़ी विडंबना दिखाई देती है। हम जिसे अभी तक फॉर्म की पवित्रता मानते आए थे वह अनुभव के उस कूड़े-करकट की अपवित्रताओं से बनती है, जिसे जीवन हमारे पास छोड़ जाता है। हम प्रेम करते हैं और घृणा करते हैं और दुख भोगते हैं और सारे समय हम अनुभवों के घटाटोप में घिरे रहते हैं, एक ऐसा घटाटोप जिसकी कोई तार्किक संगति नहीं, जिसका कोई पैटर्न, कोई अर्थ समझ में नहीं आता। हमारे अनुभव क्षेत्र की अराजकता जितनी ही बढ़ती है, उतना ही हमारे ऊपर विचारधाराओं के विभिन्न मठाधीशों का आतंक बढ़ता जाता है, जो हमारी असंगत स्थिति को किसी-न-किसी ऐतिहासिक या मनोवैज्ञानिक शास्त्र द्वारा सुलझा देना चाहते हैं। जितना ही संकट गहन होता है उतनी ही मसीहों और मठाधीशों की आवाजें ज्यादा ऊँची और कर्णभेदी होने लगती हैं, स्वयं कला इन आवाजों द्वारा आच्छादित होने लगती है। यदि कला इन सत्ताधारी मसीहाओं की भाषा बोलने से इनकार कर देती है तो उसे चुप रहने के लिए बाध्य किया जाता है और सचमुच दुनिया के उन देशों में उसे चुप कर दिया गया है, जहाँ सत्ता ने भाषा की जड़ों को ही भ्रष्ट और निष्प्राण कर दिया है। एक बार फिर ईसाक बाबेल की याद आती है, जो शायद हमारे युग के सबसे असाधारण कहानी लेखक थे; उन्होंने बहुत पहले सोवियत लेखक सम्मेलन में एक भाषण देते हुए कहा था, 'मैं एक नई साहित्यिक विधा का इस्तेमाल करने जा रहा हूँ और वह है - मौन की विधा;' किंतु गूँगे नारों के कोलाहल के बीच मौन भी विरोध का प्रतीक हो जाता है। ईसाक बाबेल को अपने मौन के लिए लेबर कैंप में मरना पड़ा।
इससे हमें एक शिक्षा तो मिलती ही है - आज के युग में जहाँ हर तरह की चालबाजी और आतंक द्वारा मनुष्य की नैतिक चेतना को संत्रस्त किया जाता है, कला ही एक ऐसी चीज बची रह गई है जो सत्य की भाषा के प्रति संपूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है, एक ऐसी प्रतिबद्धता जिसके बिना समस्त सामाजिक प्रतिबद्धताएँ मूल्यहीन हो जाती हैं। मनुष्य को नष्ट करने से पहले उसकी भाषा को नष्ट किया जाता है, किंतु उसे नष्ट करने की जरूरत ही नहीं। आदमी जीवित ही नहीं रहता यदि उसकी भाषा मृत हो जाती है। इसलिए जब हम कहानी की विधागत पवित्रता की बात करते हैं तो हम कला के रहस्यवादी सौंदर्य की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि भाषा की अंत:शक्ति और कल्पना की अंतहीन ऊर्जा की बात कर रहे हैं, जो अपने सत्य को बाहरी आवाजों से भ्रष्ट नहीं होने देती। हम उसकी फुसफुसाहट में अपने सत्य को सुनते हैं। कलात्मक विधाएँ सार्वभौमिक हो सकती हैं किंतु कलात्मक सत्य नहीं, वे अनिवार्यत: उस भाषा में लिपटे होते हैं, जिसमें वे संप्रेषित किए जाते हैं। यदि यह भाषा जीवित नहीं रहती तो हम अपने समय में कला और मानवीय गरिमा को भी नहीं बचा सकते।
आलोचना की मर्यादा
एक अच्छी आलोचना हमें क्यों उद्वेलित करती है? इस प्रश्न को थोड़ा बदल कर इस तरह भी पूछ सकते हैं कि एक कलाकृति जिस तरह हमें उद्वेलित करती है, आलोचना द्वारा उत्प्रेरित उद्वेलन क्या वैसा ही होता है? एक क्षण के लिए अगर हम शास्त्रीय बहस में न पड़ें, कि आलोचना और कला के उद्वेलन-स्रोत कहाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं तो फिर इस जिज्ञासा का समाधान कैसे करें कि कभी-कभी कोई आलोचना हमें उतनी ही गहराई से मथने लगती है जितनी कोई कलाकृति - या शायद उससे भी ज्यादा? एक समीक्षा के द्वारा हम उस समीक्षित-कृति का कोई विराट सत्य पा लेते हैं जैसे किसी उपन्यास को पढ़ कर हम जीवन के एक अभेद्य रहस्य की कुंजी पा लेते हैं। अगर कलाकृति का संबंध उस चीज से है जिसे हम 'जीवन' कहते हैं, तो क्या उस जीवन का महत्व कम है, जो एक कलाकृति में संचारित होता है जिसे आलोचना एक चकाचौंध की तरह आलोकित कर देती है? इस अर्थ में दोनों ही अनुवादक हैं, लेखक अपने संसार का टेक्स्ट अपनी रचना में अनुवादित करता है, आलोचक उसी रचना को टेक्स्ट बना कर वापिस मुड़ता है, वापिस उस संसार में जो अब कलाकार की व्यक्तिगत संपत्ति न रह कर एक सार्वजनिक अनुभव बन गया है - कला का अनुभव - जिसमें सब साझा कर सकते हैं।
यह वापिस मुड़ना महत्वपूर्ण है, क्योंकि महत्वपूर्ण आलोचना इसी 'मुड़ने' की प्रक्रिया में जन्म लेती है। यही चीज एक आलोचक को एक पाठक से भी अलग करती है। जब एक समीक्षक किसी कलाकृति का रसास्वादन करता है, वह स्वयं एक पाठक है, बल्कि एक अच्छे आलोचक की प्राथमिक शर्त यही है कि वह कितना भाव-प्रवण, कितना चौकन्ना, कितना उत्सुक पाठक है; किंतु जब यही उत्सुकता पाठक को उस कृति का पुनरावलोकन करने को उत्प्रेरित करती है, जिसने उसे झिंझोड़ा है तो यहाँ रसास्वादन के साथ एक और चीज जुड़ जाती है - आलोचनात्मक जिज्ञासा - जो सिर्फ कृति का ही मूल्यांकन नहीं करती बल्कि पाठक को अपनी प्रतिक्रियाओं की पड़ताल करने को भी बाध्य करती है। अब वह कलाकृति का निस्संग भावक मात्र नहीं रहता, सिर्फ इसी से संतोष नहीं कर लेता कि किसी कविता या कहानी में वह कितना डूबा है; वह डूबते-डूबते ऊपर आता है, उत्सुक और जिज्ञासु निगाहों से देखता है, कौन-सी वह लहर थी जिसने उसे इतने गहरे तल में डुबो दिया था, जहाँ से आई थी? उसने जो डूब कर तल की गहराई में देखा था, अब वही अनुभव उसे तल के ऊपर 'सतह' को देखने के लिए विवश करता है। एक कलाकृति की सतह-उसकी भाषा के दृश्य-संकेत - उतना ही बड़ा सत्य है जितनी उसके अर्थ की गहराई; दोनों अभिन्न रूप से कला में संपूर्ण सत्य के साथ जुड़े हैं; बिना एक को जाने दूसरे को जानना असंभव है; दरअसल कला का रहस्य दोनों के अंतर्निहित रिश्ते में वास करता है।
लेकिन रहस्य की एक अजीब विशेषता है; अगर वह पूरी तरह अभेद्य और अज्ञात हो, तो वह कभी 'रहस्य' नहीं रहेगा, क्योंकि तब वह अपने प्रति हमारी कोई जिज्ञासा नहीं जगा सकेगा। वे सब सत्य-और ऐसे लाखों सत्य होंगे - हमारे लिए कभी रहस्यमय नहीं हो सकेंगे क्योंकि वे हमेशा हमारे बोध के परे रहेंगे। ईश्वर का रहस्य उसके होने या न होने में नहीं है; उसका रहस्य 'ईश्वर' शब्द के बोध में है, जो उसके होने या न होने के बारे में जिज्ञासा जगाता है। दूसरी तरफ वह सत्य भी कभी रहस्य का दर्जा नहीं प्राप्त करता, जिसके अर्थ को मनुष्य पूरी तरह उपलब्ध और हासिल कर लेता है, appropriate कर लेता है - क्योंकि तब उस अर्थ के परे कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। उदाहरण के तौर पर अखबार की रपट जिस सत्य को संप्रेषित करती है, एक बार उसे जान लेने के बाद वह हमारे लिए कोई 'रहस्य' नहीं; रपट जिस स्थिति का वर्णन करती है, वह रहस्यमय भले ही हो, किंतु स्वयं रपट का कथ्य नहीं। एक कलाकृति का सत्य यदि रहस्यमय होता है तो इसलिए कि वह न तो पूरी तरह बोध के परे है, न पूरी तरह से मनुष्य उसे हासिल कर पाता है; वह कहीं इन दो चरमों के बीच में है; वह कुछ कहती है, कुछ नहीं कहती, इसलिए नहीं कि वह कहना नहीं जानती, बल्कि जो कलाकृति कहती है, उसमें वे अकथनीय सत्य भी शामिल होते हैं, जो अपनी चुप्पी के बावजूद उसमें मौजूद रहते हैं; आलोचना की यह एक बड़ी चुनौती है कि क्या वह कलाकृति के कथ्य से उसके अकथ्य को - उसकी भाषा से उसके मौन को - दो शब्दों में कहें तो उसकी सतह से उसकी गहराई को उजागर कर पाती है या नहीं।
हिंदी आलोचना में हमें प्राय: ऐसे वाक्य दिखाई दे जाते हैं... अमुक उपन्यास की भाषा बहुत सुंदर और संवेदनशील है, किंतु उपन्यास अपने में बहुत 'सफल' नहीं माना जा सकता। सफल शायद इसलिए नहीं है कि वह किसी गहरे, महत्वपूर्ण सत्य को संप्रेषित नहीं कर पाता। किंतु उपन्यास का सत्य अनिवार्यत: उसकी भाषा में संवेदित होता है। और यदि वह सत्य अनुपस्थित या आलोचना की कसौटी पर महत्वहीन और अप्रासंगिक है, तो उसकी भाषा को सशक्त या संवेदनशील माननेवाली कसौटी कौन-सी है? क्या भाषा की सामर्थ्य को कलाकृति की अर्थवत्ता से अलग किया जा सकता है? संवेदनहीन भाषा जिस तरह कलाकृति का अर्थ उद्घाटित नहीं कर पाती उसी तरह उस कलाकृति की भाषा कभी संवेदनशील नहीं मानी जा सकती, जो किसी महत्वपूर्ण सत्य से शून्य है। दिलचस्प बात यह है कि ऐसी आलोचना में भाषा के प्रति 'सौंदर्यवादी' सम्मोहन और कलाकृति के प्रति समाजशास्त्रीय आग्रह - दोनों साथ-साथ चलते हैं-और आलोचक इसमें कहीं भी कोई आत्म-विरोध नहीं देख पाता। वह इस सत्य को अनदेखा कर देता है कि कलाकृति का रहस्य उसके अलग-अलग तत्वों या तंतुओं में नहीं, उसके समूचे संघटन-विधान में जीवित रहता है और ज्यों ही हम एक तत्व को दूसरे से अलगाते हैं, कलाकृति का सत्य और सौंदर्य दोनों ही बिखर जाते हैं, मुरझाने लगते हैं।
कला के इस स्वायत्त धर्म पर विश्वास करना कहाँ तक उचित है - यदि उचित है - तो इस विश्वास का स्रोत कहाँ है? हम यह मान कर चलते हैं कि शब्दों के अर्थ होते हैं और ये अर्थ किसी-न-किसी रूप में बाह्य यथार्थ के अनुभवों से संबंध रखते हैं; जब हम हरे रंग का शब्द उच्चारित करते हैं, तो कहीं-न-कहीं घास का स्मरण हो आता है। अर्थ और अनुभव का यह साम्य (correspondance) सिर्फ बाहरी यथार्थ की ठोस चीजों पर ही नहीं, बल्कि हमारे अंतर्मन की सूक्ष्म और अमूर्त अनुभूतियों पर भी लागू होता है। हर शब्द किसी अनुभव की याद है, किसी जाने-पहचाने यथार्थ की स्मृति जगाता है - किंतु अजीब बात यह है कि शब्दों में संयोजित कविता अपने में एक ऐसे यथार्थ का सृजन करती है, जो शब्दों के अलग-अलग अर्थों में नहीं चुक जाता, बल्कि एक ऐसे अर्थ की सृष्टि करती है, जो कविता के बाहर कहीं उपलब्ध नहीं है। शब्दों के अर्थ परिचित हैं, किंतु कविता में उनका रहस्यमय संयोजन एक ऐसे सत्य से साक्षात्कार कराता है, जो अब तक अपरिचित था, एक ऐसा अनूठा और स्वायत्त सत्य, जो हमारे समस्त परिचित अनुभवों से अलग है और चूँकि सत्य का यह चमत्कार शब्दों के भीतर संयोजित है - वह किसी दूसरी विधा में संप्रेषित नहीं हो सकता।
किंतु यदि कलाकृति का सत्य अपने में बिलकुल स्वायत्त और विशिष्ट है, तब उसके मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? क्या यह जरूरी है कि कलाकृति का स्वायत्त अर्थ अपने मे महत्वपूर्ण, जीवनदर्शी और मूल्यवान सत्य भी हो?
एक कलाकृति जो सत्य हमें संप्रेषित करती है, वह अपने में चाहे कितना अद्वितीय और अनूठा क्यों न हो - उसका मूल्य अंतत: उन रिश्तों में उद्घाटित होता है जो वह अब तक के हमारे अर्जित किए, अनुभूत सत्यों के साथ जोड़ पाती है। जब हम कोई महान उपन्यास या कविता पढ़ते हैं, किसी संगीत-रचना को सुनते हैं, किसी मूर्ति या पेंटिंग को देखते हैं तो वह उन सब अनुभवों की याद दिलाती है, जो न हमें सिर्फ दूसरी कलाकृतियों से प्राप्त हुए हैं बल्कि जो कला से बाहर हमारे अपने जीवन-अनुभव के भी सत्य हैं। एक कलाकृति का अनुभव अब तक के अर्जित हमारे समूचे अनुभव-संसार को झिंझोड़ जाती है। वह एक टूरिस्ट का निष्क्रिय अनुभव नहीं है जिसे वह अपनी नोटबुक में अंकित करके संतोष कर लेता है। वह एक जीवंत, सक्रिय अनुभव है जो हमारे अनुभव-संसार में प्रवेश करता है, उसमें अजीब किस्म की हलचल उत्पन्न कर देता है, अपने मात्र अस्तित्व से उसके समूचे स्वरूप और पैटर्न को बदल देता है और अंतत: हमें विवश करता है कि उस कलाकृति के आलोक में अपने समस्त अनुभव-सत्यों की मर्यादा का पुनर्मूल्यांकन कर सकें। एक महान कलाकृति मनुष्य को नहीं बदलती, न उसके संसार को बदलती है, वह सिर्फ उस रिश्ते को बदलती है जो अब तक मनुष्य अपने संसार से बनाता आया था; लेकिन एक बार रिश्ता बदल जाने के बाद न तो वह मनुष्य ही वैसा मनुष्य रह पाता है जैसा वह कलाकृति के संपर्क में आने से पहले था, न उसका संसार वैसा संसार रह जाता है जो उसे कलाकृति के अनुभव के बाद दिखाई देता है। एक आलोचक जितनी सूक्ष्म दृष्टि से इस बदलाव को परिभाषित कर सकेगा, उतनी ही अधिक प्रामाणिकता के साथ वह उस कलाकृति के मूल्य और अर्थवत्ता को भी रेखांकित कर सकेगा।
अत: यदि समर्थ आलोचना की पहली शर्त यह है कि वह कलाकृति के अखंडित और स्वायत्त यथार्थ को पहचान सके; तो दूसरी शर्त यह भी है कि वह कलाकृति के बाहर फैले यथार्थ को भी एक संपूर्ण और अविभाज्य के रूप में स्वीकार सके; एक ऐसा यथार्थ जिसकी अर्थवत्ता सिर्फ इतिहास और समाज के अनुभवों में ही समाप्त नहीं हो जाती - जो बिना मनुष्य के भी जीवित था और तब भी जीवित रहेगा जब मनुष्य नहीं होगा। जब तक वह यथार्थ के इस सार्वभौमिक अनुभव को अपनी आलोचना का संदर्भ-बिंदु (reference point) नहीं बनाता, तब तक वह कलाकार की इस अदम्य लालसा को नहीं समझ पाएगा जो इस नामहीन यथार्थ को नाम, आकारहीन यथार्थ को बिंदु, अराजक यथार्थ को एक अर्थ देना चाहती है। यदि कला का मूल रहस्य मनुष्य की इस सृजनात्मकता में निहित है कि वह यथार्थ के नामहीन अनुभव को रूपायित कर सके, तो क्या सृजनात्मक आलोचना की प्रतिज्ञा यह नहीं होगी कि वह इसी यथार्थ को कसौटी मान कर कलाकार के शब्द, रूप और नामों की सच्चाई और सार्थकता का परीक्षण कर सके? किंतु इस अनुभव का मूल्यांकन मनुष्य की समूची संस्कृति के संदर्भ में ही हो सकता है। इसी अर्थ में एक महान आलोचक अपनी संस्कृति का भी आलोचक होता है; वह कलाकृति के स्वायत्त अनुभव को मानवीय संस्कृति की निरंतरता में - जिसे हम परंपरा कहते हैं - उसके भीतर परिभाषित करता है। वह एक साथ दो प्रश्नों का सामना करता है - क्या दुनिया का बाह्य यथार्थ कला के अंतर्निहित यथार्थ का साक्षी हो सकता है? इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न है - क्या कला का अंतर्निहित सत्य दुनिया के यथार्थ का साक्षी हो सकता है?
ऊपर से देखने पर भ्रम हो सकता है कि कला का यथार्थ और दुनिया का यथार्थ दो स्वतंत्र इकाइयाँ हैं; - एक यदि इतिहास के द्वारा अनुशासित होती है तो दूसरी के नियम कहीं मनुष्य के भीतर परिचालित होनेवाले मिथक और स्मृतियों - एक कालातीत स्वप्न-भाषा - में बसते हैं। यह अकारण नहीं है कि अनेक यूरोपीय भाषाओं में उपन्यास को 'रोमान' या रोमांस की संज्ञा दी जाती है, जिसका अनुभव मनुष्य के दैनिक और दुनियावी यथार्थ से बाहर और परे की चीज है। जब उपन्यास जैसी समाजोन्मुख विधा को काल्पनिक रोमांस माना जाता है तो कविता या संगीत जैसी विधाओं की लौकिक मर्यादा कितनी संदिग्ध हो सकती है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। हम एक ऐसी सभ्यता में रहते हैं जहाँ दुनिया के यथार्थ को कला के सत्य से विलगित कर दिया गया है - पानी में खड़ी दो चट्टानों की मानिंद - जिनकी छाया एक-दूसरे को भले ही छूती हो -किंतु जिनका मूल तत्व और आधारभूमि एक-दूसरे से बिलकुल अलग हैं। कहना न होगा, कि इस अलगाव के रहते न केवल हमारा जीवन-यथार्थ सत्वहीन हो गया है, बल्कि स्वयं कल्पनाशीलता की गरिमा - जो हर कलाकृति का ऊर्जा स्रोत है - धीरे-धीरे सूखने लगी है।
यथार्थ के प्रति यह खंडित दृष्टिकोण हमारी आधुनिक सभ्यता की विलक्षण देन है, जो शायद पहले किसी समाज में मौजूद नहीं था। इस दृष्टिकोण के कारण स्वयं मार्क्सवादी आलोचना - जो एक समय में यथार्थ की समग्रता को प्रतिपादित करने का दावा करती थी - आज अविश्वास से उस बिंदु पर आ खड़ी हुई है, जहाँ बीसवीं शती के शुरू में प्रतीकवादी एस्थेरिक आलोचना थी। यदि एक का अविश्वास उस 'यथार्थ' से है जो कलाकृति में जीवित रहता है, तो दूसरे का संदेह उस कल्पनाशीलता से है, जो यथार्थ की अंतहीन संभावनाओं को उजागर करती है। हम एक ऐसे विकट समय में रह रहे हैं जहाँ हमने यथार्थ के बहुमुखी स्वरूपों को इतिहास की एक-आयामी धारा में ढाल कर सर्वथा श्रीहीन बना दिया है वहाँ कला को सिर्फ व्यक्ति के अंतर्मन की छाया में संकुचित कर एक ऐसी विपन्न 'मिनिमल' अवस्था में डाल दिया है, जहाँ उसका दूसरे की स्मृति और संस्कार में कोई साँझा नहीं। दोनों ही स्थितियों में यथार्थ का अनुभव और कला की क्षमता अपने को एक खंडित, और अवमूल्यित अवस्था में पाते हैं।
संकट के ऐसे बिंदु पर आलोचना का हस्तक्षेप गहरे और व्यापी अर्थों में एक नैतिक हस्तक्षेप होगा, ऐसा मैं मानता हूँ। नैतिक केवल कलाकृति के मूल्यों के निर्धारण में नहीं, बल्कि समूची सभ्यता की मर्यादाओं के मूल्यांकन में, जिसके बिना किसी भी कलाकृति की प्रासंगिकता या सार्थकता को नापना असंभव है। कलाकृति की मूल्यवत्ता आँकने की तब एक ही विश्वसनीय और प्रामाणिक कसौटी रह जाती है-क्या वह अपने युग के संदेह और अविश्वास के कुहरे को भेद कर एक ऐसे सत्य से साक्षात कराती है, जहाँ मनुष्य के मन और बाहर की सृष्टि में कोई विभाजन नहीं रहता? एक कलाकृति में यह साक्षात्कार एक स्वप्न की तरह होता है, लेकिन यह स्वप्न मायावी नहीं है, आत्मछलना नहीं है; यह एक खोया हुआ सत्य है, जो एक समय में मनुष्य के अनुभव-संसार के केंद्र में था, जिसे आधुनिक व्यक्ति - अपनी खंडित अवस्था के बावजूद या शायद उसी के कारण - एक स्मृति की तरह सँभाले और सँजोए रहता है। आदमी उसी चीज का स्वप्न देखता है, जो कभी पहले था, जो आज भी कहीं छिपा है; हम उसकी छिपी हुई मौजूदगी को एक गुजरी हुई याद की तरह महसूस करते हैं - नॉस्टेलाजिया की तरह नहीं, बल्कि एक छिपे हुए जख्म की तरह। चूँकि हमने इस स्मृति को नहीं खो दिया है, इसलिए वह कभी भी हमारे यथार्थ में प्रवेश कर सकती है, उसका हिस्सा बन कर उसे संपूर्ण रूप से बदल सकती है। हर सृजनात्मक आलोचना इस विश्वास को केंद्रबिंदु बना कर कलाकृति का मूल्य आँकती है - कलाकृति जो खुद अपने में जख्म है और एक जख्मी विभाजित जीवन का अतिक्रमण करने का प्रयास भी!
आज तक हम कला को सभ्यता का अंग मानते आए थे, किंतु पिछले चार सौ वर्षों के दौरान - विशेषकर यूरोपीय रेनेसेन्स के बाद - सभ्यता के सब प्रतीक - वे चाहे विज्ञान के हों या दर्शन के - मनुष्य को उसके संपूर्णत्व, उसके आत्यंतिक और अखंडित 'आत्म' को विभाजित करते आए हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें मनुष्य की बुद्धि का उसकी संवेदना से, उसकी देह का उसकी आत्मा से, उसके अस्तित्व का उसकी दृष्टि से कोई संबंध नहीं रह गया है। आज हमें इस अद्भुत विडंबना का सामना करना पड़ता है कि कला जो क्लासिक और मध्यकालीन युग में मानव की संपूर्ण चेतना की सबसे समर्थ अभिव्यक्ति मानी जाती थी, हमारे युग में आते-आते उसकी सार्थकता संस्कृति का अंग बनने में नहीं, बल्कि उन मूल्यों और मर्यादाओं को अस्वीकृत करने में निहित हो जाती है, जिसके रहते मनुष्य का यथार्थ उत्तरोत्तर एकांगी, पंगु और विश्रृंखलित होता गया है। संस्कृति जो एक समय में कला की संरक्षित पीठिका थी, उसे पोषित करती थी - जिसके रहते दाँते और तुलसीदास जैसे कवियों को सहज रूप से ही अपने काव्य-संसार के भरे-पूरे रूपक और प्रतीक मिलते थे, अब उस संस्कृति ने अपनी परंपरागत भूमिका छोड़ दी है। आज का सुसंस्कृत मनुष्य कोई भी हो, कलाकार नहीं है; उसका ऐसी 'संस्कृति' से कोई सरोकार नहीं जिसने व्यक्ति की स्वायत्तता के नाम पर उसे 'आत्म-शून्य' बना दिया है और समूह के नाम पर लोक स्वभाव की सहज धारा और स्मृति को सुखा दिया है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि व्यक्ति-ग्रस्त और समूह-ग्रस्त दोनों ही व्यवस्थाओं ने एक ही समानधर्मा संस्कृति को जन्म दिया है - इतिहास, प्रगति और विज्ञान की आक्रामक मर्यादाओं से मंडित, जिसमें कला समाज के केंद्र में नहीं, बल्कि मानवीय अनुभव के हाशिए पर ठेल दी गई है - एक उपभोग्य कला-वस्तु, (art-object), फिर चाहे उसे मनोरंजन का मात्र साधन माना जाए या समाज के लिए उपयोगी वस्तु, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
यहीं पर एक कलाकृति का मूल्यांकन एक व्यापक संदर्भ में एक पूरी संस्कृति का मूल्यांकन हो जाता है; एक आलोचक आधुनिक मानसिकता की उस विश्लेषणात्मक शैली को नहीं स्वीकार करता जहाँ कलाकृति के सौंदर्य को एस्थेटिक्स के हवाले कर दिया जाता है और उसकी प्रासंगिकता को इतिहास के फार्मूलों द्वारा मूल्यांकित किया जाता है। वह आधुनिक संस्कृति के इस छद्म वर्गीकरण से ऊपर उठ कर कलाकृति के मूल सत्य पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। यह सत्य फिलासफी या तर्कशास्त्र की बौद्धिक अवधारणाओं का सत्य नहीं है, बल्कि वह कहानी, कविता या उपन्यास रचने की प्रक्रिया में एक ऐसे संसार में उद्घाटित होता है, जिसके मिथक और प्रतीक आधुनिक संस्कृति की मर्यादाओं से बिलकुल अलग हैं। हर महत्वपूर्ण कलाकृति का सत्य उसके विकल्पीय संसार में निहित रहता है। यह विकल्पीय संसार कोई ऐसा संसार नहीं है, जिसका यथार्थ से कोई नाता नहीं, बल्कि वह उस यथार्थ का सत्य है, जिससे मनुष्य का नाता टूट गया है; एक स्वायत्त संसार, किंतु आत्मकेंद्रित संसार नहीं, वह एक खुली स्पेस का संसार है, एक कला-वस्तु का सीमित, सुंदर संसार नहीं, जिसे दर्शक बाहर से देखता है बल्कि एक सक्रिय और संपूर्ण सत्य का वाहक - जो बार-बार हमारी दुनिया में प्रवेश करता है, उसे भंग करता है, झिंझोड़ता है; संपूर्ति और संपूर्णता की स्मृति जगाता है। इसी अर्थ में कलाकृति की अनुभूति हमारी संस्कृति के विभाजित अनुभवों की सबसे सटीक और प्रखर आलोचना हो जाती है। व्यावहारिक आलोचना की मर्यादा यह है कि वह उस 'भाषा' का मूल्य पहचान सके, जिसमें एक कलाकृति हमारे युग की संस्कृति पर आलोचना करती है।
कलाकृति की भाषा - मैं इस प्रश्न पर दुबारा लौटना चाहूँगा। इस निबंध के आरंभ में मैंने कहा था कि किसी आकृति का विशिष्ट सत्य उसकी भाषा में ही गुंफित रहता है, उसके बाहर नहीं। किंतु यह एकतरफा व्यापार नहीं है। जहाँ यह सच है कि एक कलाकृति का सत्य शब्दों के विशिष्ट संयोजन में ही उद्घाटित होता है, वहाँ यह भी उतना ही सच है कि वह सत्य कला की भाषा को भी अपनी विशिष्ट गुणात्मकता में उजागर करता है। दूसरे शब्दों में, एक कलाकृति की भाषा संप्रेषण का महज माध्यम मात्र नहीं है बल्कि कलाकृति में ही वह अपना आत्मीय और आत्यंतिक चरित्र उद्घाटित करती है। यहीं पर कलाकृति की भाषा और संसारी-उपयोग की भाषा में पहली बार मूलभूत अंतर दिखाई पड़ता है। हाइडगर ने इस सत्य को बहुत सुंदर ढंग से परिभाषित किया है। एक कारीगर जब औजार बनाने के लिए पत्थर का इस्तेमाल करता है तो औजार बनने पर पत्थर की उपयोगिता भी खत्म हो जाती है; किंतु जब एक मूर्तिकार उसी पत्थर को मूर्ति बनाने में इस्तेमाल करता है तो वहाँ पत्थर माध्यम या साधन नहीं रहता, जिसकी उपयोगिता मूर्ति बनने के बाद चुक जाती है; उलटे स्वयं मूर्ति का सत्य पहली बार पत्थर के सहज आत्मीय गुण-उसके पत्थरपन-को उजागर करता है। एक अखबारी रिपोर्ट में शब्दों की उपयोगिता रिपोर्ट के कथ्य को संप्रेषित कर देने के बाद समाप्त हो जाती है किंतु एक कविता को एक बार पढ़ लेने के बाद शब्दों का महत्व खत्म नहीं हो जाता - यहाँ शब्द सिर्फ माध्यम नहीं है, इसीलिए हम बार-बार उसके पास लौटते हैं क्योंकि यदि शब्दों के बीच कविता ने अपना सत्य पाया है, तो इसी सत्य ने पहली बार कविता के शब्दों को 'शब्द' होने की मर्यादा से पुष्ट किया है। कविता में शब्द असली अर्थ में शब्द बनते हैं जैसे मूर्ति में पत्थर असली अर्थ में पत्थर बनता है।
यदि एक आलोचक भाषा के इस प्राकृतिक आयाम को नहीं समझ पाता, वह कला के एक अत्यंत मूल्यवान सत्य को अनदेखा कर देता है जो उसे संस्कृति से नहीं - प्रकृति के विराट परिवेश से मिलता है, जहाँ मनुष्य का कोई दखल नहीं, किंतु जो बार-बार मनुष्य के संसार को खटखटाता है। कुछ शब्द जादुई होते हैं, अपने अर्थों में नहीं; बल्कि उनके परे; दैहिक रूप से जादुई, जिनका जादू उनकी ध्वनि में निहित होता है, ऐसे शब्द जो कोई संदेश देने से पहले भी अपना अर्थ रखते हैं, शब्द जो अपने में ही अर्थ और संकेत हैं, जिन्हें समझना नहीं, सुनना होता है, एक जानवर के शब्द, एक बच्चे की स्वप्न-भाषा... मारिना स्वेतायोवा ने यह बात पुश्किन के संदर्भ में कही थी, किंतु क्या वह हर कलाकृति पर लागू नहीं होती? इसी अर्थ में एक कलाकृति मानवीय भी होती है, और गैर-मानवीय भी। मिट्टी, पत्थर, स्वर, शब्द - शब्द जो सबसे शुरू में था - एक ऐसी भाषा की सृष्टि करते हैं, जिसे समझना नहीं, सुनना होता है, देखना होता है, अनुभूत करना होता है। किंतु जो सभ्यता प्रकृति पर विजय पाने में ही अपना गौरव प्राप्त करती है, वह सुनने, देखने और अनुभूत करने की क्षमता को ही नष्ट कर देती है। उसका संबंध प्रकृति के प्रति उतना ही आक्रामक है, जितना कलाकृति के प्रति लोलुप - समझना एक तरह से हासिल करने का पर्याय हो जाता है, जो गर्वीली स्पर्धा से उत्पन्न होता है, अनुभूत करने की विनयशील आत्मीयता से नहीं। कितना अजीब है कि जिस आक्रामक रिश्ते से प्रकृति का प्रदूषण होता है, कला की भाषा का दूषण भी ठीक उसी रास्ते से होता है। इसीलिए कुछ आश्चर्य होता है, जब लीविस और ऑर्वेल जैसे आलोचक कला-भाषा के अवमूल्यन पर तो विक्षोभ करते हैं - और ठीक ही करते हैं - किंतु उसके कारण केवल राजनीति, पत्रकारिता या शिक्षा-पद्धति में ही टटोल कर संतोष कर लेते हैं। वे कला की भाषा को मात्र माध्यम मान कर चलते हैं, मानवीय-संस्कृति का मात्र एक उपादान – इसीलिए वे उस वैषम्य को नहीं देखते जो स्वयं मनुष्य की संस्कृति और कलाकृति की प्रकृति, शब्द और सत्य के बीच आ खड़ा हुआ है।
किंतु यदि कलाकृति की भाषा अपनी 'गूँज' की प्रकृति से लाती है, जो मनुष्येतर है, उसका सत्य बराबर उस स्वप्न में ध्वनित होता है, जो मनुष्य के भीतर है, जब वह प्रकृति से अलग नहीं हुआ था। इसीलिए एक कलाकृति से साक्षात कभी-कभी एक गहरा आध्यात्मिक अनुभव भी होता है। क्या आज की आलोचना ने कभी ऐसे अनुभव को परिभाषित करने का प्रयास किया है, जो किसी दार्शनिक धर्मशास्त्र के घेरे में नहीं आता, जो परंपरागत अर्थ में 'आध्यात्मिक' नहीं है, जो मनुष्य को किसी धार्मिक संदेश देने का दावा नहीं करता - लेकिन वह अपने में इतना संपूर्ण है कि एक कौंध में हमें अपनी 'स्थिति के समूचे सत्य' से साक्षात करा देता है। यह तभी हो पाता है जब एक कलाकृति विभाजित मानस की पीड़ा और अंतर्द्वंद्व से जन्म ले कर भी महज उसकी प्रतिच्छाया नहीं रहती, वह पीड़ा एक दूसरा दरवाजा भी खोलती है, जहाँ हर खंडित अनुभव के बाकी अवशेष दिखाई देते हैं - जीवन की कुहलिका में उपेक्षित, दबे हुए, तिरस्कृत - किंतु कलाकृति के आलोक में - उसी अनुभव को पूरा करते हुए, अर्थ देते हुए - जिसके कारण एक अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी कृति में आनंद का अनुभव पीड़ा को काटता नहीं, न ही पीड़ा का घटाटोप आनंद को ओझल करता है, बल्कि दोनों अनुभव एक साथ होते हैं। गोएटे का नायक वर्थर अपने खंडित अनुभवों के बीच पहली बार प्रेम की संपूर्णता - उसके अलौकिक आनंद - को अनुभूत करता है। बिना उस आनंद के क्या वह अपनी पीड़ा को छू पाता जिसने उसे आत्महत्या करने को विवश किया? किंतु बिना उस पीड़ा को भोगे क्या हम प्रेम के उस संपूर्ण अनुभव को देख पाते, जिसे कोई दूसरा उपयुक्त शब्द न मिलने के कारण मैंने 'आध्यात्मिक अनुभव' कहा है?
यदि मैंने आलोचना के संदर्भ में वर्थर का उदाहरण दिया है, तो इसलिए कि हमारी आज की आलोचना ने अपने को ऐसे संकीर्ण दायरे में बाँध लिया है जिसके बाहर कला के अनेक अनुभव उपेक्षित और अपरिभाषित पड़े रहते हैं जिन्हें आसानी से रोमांटिक या आध्यात्मिक कह कर खारिज कर दिया जाता है। यही नहीं, हमारे विज्ञ आलोचक एक ही लेखक के अनुभव-संसार को विभाजित करने की शल्य-क्रिया करने में नहीं हिचकते -हम उन अनुभव-खंडों को स्वीकार लेते हैं जो आज के हमारे सामाजिक-ऐतिहासिक आग्रहों से मेल खाते हैं, किंतु उसी लेखक के उन पक्षों के बारे में चुप रहते हैं - जो उसकी बनी-बनाई इमेज को किसी रूप में भंग करते हैं, उसमें असंगति उत्पन्न करते हैं। यही कारण है कि हम तॉलस्तॉय के चिंतनशील निबंधों को 'धार्मिक प्रोपेगेंडा' मान कर उपेक्षित करते हैं, जबकि उनके उपन्यासों को यथार्थवादी मान कर उनकी पूजा करते हैं - मानो तॉलस्तॉय के आध्यात्मिक अंतर्द्वंद्वों और विश्वासों का उनके कला के यथार्थ से कोई संबंध न हो। वे यह भूल जाते हैं कि इसी संबंध के रहते 'ईवान ईलिच की मृत्यु' जैसी महान रचना का जन्म हुआ था। आलोचना की सबसे मूल्यवान मर्यादा यह है कि वह कलाकृति के समूचे तंतुजाल के रेशों को विश्लेषित करे, जिसमें संसारी यथार्थ और आध्यात्मिक लोक के अनुभव एक-दूसरे से गुँथे रहते हैं - जिनके भीतर एक ऐसा सत्य जन्म लेता है, जहाँ यथार्थ का अनुभव दूसरे यथार्थ के अनुभव का निषेध नहीं करता, बल्कि वह एक खुली भूमि तैयार करता है, जहाँ यथार्थ की अनेक परतें खुलती हैं, एक-दूसरे से टकराती हैं, एक साथ अनेक अर्थों को उद्घाटित करती हैं। यदि यथार्थ के विभिन्न अर्थों का कोई लोकतंत्र है, तो वह केवल उस स्वतंत्रता में ही उपलब्ध होता है, जिसे हर कलाकृति अपने भीतर ले कर चलती है, जो न किसी एक अर्थ से अपने को नत्थी करती है, न किसी दूसरे अर्थ की तानाशाही स्वीकार करती है।
किंतु सब अर्थ एक तरह से ही मूल्यवान नहीं होते। किसी कलाकृति का कोई भी अनुभव नगण्य नहीं है - लेकिन वह है, इसीलिए मूल्यवान नहीं बन जाता। समर्थ आलोचना - जहाँ अर्थों के लोकतंत्र को स्वीकार करती है, वहाँ वह मूल्यों की वर्ण-व्यवस्था को भी गहरा सम्मान देती है, जिसके बिना किसी भी कलाकृति की गुणवत्ता या - गुणहीनता को पहचानना असंभव है।
पिछले वर्षों में यदि हिंदी आलोचना का परिदृश्य कुछ अधिक उत्साहवर्धक नहीं दिखाई देता तो इसका एक कारण शायद यह है कि स्वयं आलोचना ने अपनी मूल्य-व्यवस्था का निर्माण करने की कोई विशेष चेष्टा नहीं की। किसी रचना की समीक्षा पढ़ते हुए हमें आलोचक के सामाजिक आग्रह जरूर दिखाई देते हैं, किंतु उन आग्रहों की मूल्यवत्ता जो परंपरा, संस्कृति और कलात्मक अनुभवों के संबंधों के बीच निर्मित होती है, वह कहीं दिखाई नहीं देती। किसी कृति की आलोचना पढ़ते समय हम आलोचना की राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा से तो परिचित होते हैं - उस सांस्कृतिक परिवेश की आबोहवा से नहीं - जहाँ बहुत-सी धाराएँ एक साथ चलती हैं - जिनके बीच कलाकृति अपना विशिष्ट चरित्र बनाती है। चूँकि आलोचक का अपनी संस्कृति की व्यापक अर्थसत्ता से कोई लगाव नहीं, इसीलिए उसमें कलाकृति की अंतर्निहित समग्रता को जाँचने का भी ज्यादा उत्साह नहीं। इसीलिए हमारे यहाँ संस्कृति के विचारक एक वर्ग मंए आते हैं - कला के आलोचक दूसरे वर्ग में - दोनों में कहीं आदान-प्रदान नहीं होता। यदि हम हजारीप्रसाद जी को अपवाद मान कर छोड़ दें - तो किसी एक आलोचक में दोनों लगाव लगभग साथ नहीं दिखाई देते।
हिंदी आलोचना का यह दुर्भाग्य रहा है - और शायद सिर्फ हिंदी आलोचना का नहीं - कि वह कलाकृति की बहुआयामी भूलभुलैयों में जाने से कतराती है - कोई कृति नितांत वैयक्तिक पीड़ा में सामाजिक संदर्भों को खोल सकती है और सामाजिक यथार्थ के बीच व्यक्ति का रहस्यमय मनोसंसार उद्घाटित कर सकती है - कला के इस अंतर्विरोधी चरित्र में उसे ज्यादा विश्वास नहीं। वह एक सीधा-सादा रास्ता अपनाना पसंद करती है, जहाँ एक खास अर्थ को चुना जा सके - और फिर उस एकांगी अर्थ की सूली पर कलाकृति के समूचे चरित्र को टाँगा जा सके। मुश्किल यह है कि खूँटे से उतार कर जो चीज हाथ आती है, वह कलाकृति नहीं, उसकी मुर्दा देह है, जिसकी प्राणवत्ता को आलोचक न जाने किस अँधेरी गली में फेंक कर फरार हो जाता है? ऐसी आलोचना ने ही हमारे यहाँ प्रसाद को 'हिंदू आध्यात्मिकता' और प्रेमचंद को 'यथार्थवादिता' की सूली पर चढ़ा कर अपने कर्तव्य से मुक्ति पा ली है। यदि आज तक निराला और मुक्तिबोध ठीक-ठीक किसी एक सैद्धांतिक कटघरे में फिट नहीं होते, तो उसका श्रेय हमारी आलोचना को नहीं, इन कवियों के उस विराट, संश्लिष्ट और अंतर्विरोधी धाराओं में विस्फोटित होती हुई ऊर्जा को जाता है जिसे किसी एक सामाजिक और रूपवादी व्याख्या में रिडयूस करना असंभव है। हमारी आलोचना का अभिशाप यह नहीं है कि वह किसी मार्क्सवादी या कलावादी दृष्टि के बोध से आक्रांत है - काश, ऐसी कोई विवेकशील दृष्टि अपनी संपन्न प्रखरता में हमारे पास होती - उसका अभिशाप यह है कि वह कला के प्रति बहुत ही सँकरा और सिकुड़ा हुआ -अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करूँ - तो निरा रिडक्टिव रुख अपनाती है; उससे कलाकृति का अवमूल्यन तो होता ही है, उस दृष्टि या विचारधारा की विपन्नता भी जाहिर होती है, जिसकी कसौटी पर कलाकृति को आँका गया है।
आशा की बात यह है कि समय-समय पर अवमूल्यन की इस प्रक्रिया का विरोध किया गया है, व्यवस्थित रूप से नहीं, लेकिन गहरी संस्कारसंपन्न व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं के आधार पर। विजयदेव नारायण साही और कुँवरनारायण के अनेक निबंध इस प्रतिक्रिया का सर्वोत्तम उदाहरण है। स्वयं डॉ. नामवर सिंह ने बरसों पहले कहानी के क्षेत्र में सामान्याकृति धारणाओं का खंडन करते हुए एक समर्थ और सृजनात्मक हस्तक्षेप किया था। अज्ञेय द्वारा नई कविता का आकलन, नेमिचंद्र जैन की उपन्यास-आलोचना इसी कोटि में आती है। किंतु कला के प्रति जिस 'रिडक्टिव' रुख का उल्लेख मैंने ऊपर किया है, यदि उसका कोई निरंतर, मूल्यवान और सब बाधाओं और अभियोगों के बावजूद एक सुचिंतित और साहसी आलोचनात्मक विरोध हुआ है - उन युवा आलोचकों द्वारा -जिन्हें पूर्वग्रह की 'बदनाम मंडली' का सदस्य माना गया है। पिछले वर्षों में आलोचना के क्षेत्र में यदि मलयज, रमेशचंद्र शाह और अशोक वाजपेयी का योगदान इतना महत्वपूर्ण रहा है तो इसलिए कि उन्होंने आलोचना की मूल्यहीनता के कुहासे से निकल कर एक सांस्कृतिक पीठिका प्रदान की है, जिसमें आलोचक की दृष्टि उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी कलाकृति की स्वायत्तता। दोनों के टकराव से ही ऐसी बिजली पैदा होती है, जो हमारी चिंताओं और सरोकारों के समूचे परिवेश को आलोकित कर पाती है।
हर महत्वपूर्ण आलोचक के पास अपनी दृष्टि या दर्शन होना चाहिए - सिर्फ कला के संबंध में नहीं, बल्कि समूची संस्कृति के बारे में - उसे आप उसकी 'आइडियालॉजी' कहें, तो भी इस प्रसंग में कोई अंतर नहीं पड़ता। कोई आलोचक खाली हाथ किसी कलाकृति के पास नहीं जाता; जो आलोचक खाली हाथ जाते हैं, मुझे डर है, वे खाली हाथ लौट भी आते हैं। एक आलोचक नंगा और निरीह हो कर नहीं, अपने सब विश्वासों, पूर्वग्रहों, अस्त्रों-शस्त्रों से लैस हो कर एक कलाकृति का सामना करता है। ये अस्त्र और औजार वह अपने अध्ययन, सूझ-बूझ और अनुभव-संसार से अर्जित करता है। इसी अनुभव-संसार के भीतर वह उन मूल्यों की व्यवस्था बनाता है जो उसे कलाकृति के मूल्यांकन में योग देती है। किंतु यदि आलोचक की मूल्य-व्यवस्था कलाकृति के अनुभव को आलोकित करने के बजाय धुँधलाते हैं, खंडित करते हैं, तो मूल्यांकन के वे सब अस्त्र-औजार बेकार और निरर्थक पड़े रहेंगे, जो वह अपने साथ लाया है। एक आलोचक इन्हीं औजारों से कलाकृति के मूल्यों को परखता है; किंतु ऐसा भी होता है, कि कोई कलाकृति एक ऐसी विकल्पीय संसार के मूल्यों की रचना करे, जिसके संपर्क में आते ही आलोचक को अपनी मूल्य-व्यवस्था के सब औजार और कसौटियाँ अपर्याप्त, एकांगी और असंतोषजनक जान पड़ें। यह उसके सामने गहरी चुनौती का प्रश्न है : क्या वह अपनी मूल्य-व्यवस्था से चिपका रहेगा, और किसी दर्शन, विश्वास और विचारधारा को अपनी बैसाखी बना कर कलाकृति की वैकल्पित सत्ता को खारिज कर देगा - अथवा उसमें इतना नैतिक साहस और आलोचनात्मक विवेक होगा, कि वह अपने अस्त्रों और विश्वासों को अनुपयुक्त मान कर छोड़ दे, और आलोचना के ऐसे औजारों का निर्माण करे, जो उस कलाकृति के अपरिचित संसार की अर्थवत्ता को नए सिरे से परिभाषित करने में सक्षम हो सके। यदि आलोचना की मर्यादा इसमें है, कि वह तटस्थ हो कर नहीं, अपने विश्वासों और आग्रहों के साथ कलाकृति से मुठभेड़ करती है, तो उससे कहीं ऊँची मर्यादा यह है कि जरूरत पड़ने पर वह अपनी उन सब कसौटियों और मापदंडों को त्याग सकती है, जो उस कलाकृति के सामने झूठी और अप्रासंगिक बन गई हों। किंतु यह वही आलोचक कर सकेगा, जिसके पास छोड़ने को कुछ है, जो खाली है, वह क्या कुछ छोड़ेगा?
प्रेमचंद की उपस्थिति
प्रेमचंद की मृत्यु को चार दशक से अधिक बीत चुके हैं। हर दशक के कथाकारों ने उन्हें अपनी-अपनी कसौटी पर परखा है, स्वीकारा है या अस्वीकारा है। ऐसे समकालीन लेखक भी हैं, जिन्हें शायद प्रेमचंद का नाम ही निरर्थक जान पड़े - क्योंकि उनकी सृजन-यात्रा में वह उन्हें किसी भी रूप में प्रासंगिक नहीं जान पड़ते; किंतु ऐसे कथाकारों की रचनाओं में भी हमें प्रेमचंद की अदृश्य छाया मिल जाती है। एक क्लासिक लेखक की यह अद्भुत विशेषता है कि हम उसके आविष्कारों को बिना उसके प्रति आभारी महसूस हुए भी अपना लेते हैं - शायद सबसे गहरा प्रभाव वह होता है, जब हम यह तक भूल जाएँ कि इस प्रभाव को हमने कहाँ से, किस स्रोत से प्राप्त किया है। हम अपनी स्वतंत्रता में एक ऐसी परंपरा का अनुकरण करते हैं, जो हर जगह है और किसी जगह दिखाई नहीं देती। क्या आज भी प्रेमचंद हमारे बीच अदृश्य-रूप से उपस्थित हैं? मैं आपका ध्यान इस प्रश्न की ओर आकर्षित करना चाहूँगा और यह भी कि एक लेखक की उपस्थिति से हमारा क्या अभिप्राय है?
यहाँ सबसे पहले मैं उस भ्रांति की ओर संकेत करना चाहूँगा, जिसे एक अर्से से हमारे आलोचकों ने पोषित किया है - वह है किसी लेखक की उपस्थिति या प्रभाव को उसके विचारों या विश्वासों में खोजना, जबकि सत्य यह है कि साहित्य में किसी लेखक के विश्वास उसकी रचनाओं से अलग कोई हैसियत नहीं रखते। मैंने जानबूझ कर 'साहित्य' में कहा है, क्योंकि उसके बाहर उसके विश्वासों का अवश्य महत्व होता है, लेकिन बाहर भी अलग से उनके बारे में हमारी जिज्ञासा नहीं जाग पाती, यदि पहले से ही हम उसकी रचनाओं में एक विशिष्ट यथार्थ से साक्षात्कार नहीं कर पाते। शायद मैं अपनी बात को उलझा कर कह रहा हूँ, वास्तव में बात बहुत सरल है - यदि आज हम अपने बीच प्रेमचंद की उपस्थिति महसूस करते हैं - तो उनके प्रगतिशील विचारों या यथार्थवादी आदर्शों (या आदर्शवादी यथार्थ - आप जो भी कहना चाहें) के कारण नहीं -बल्कि उनकी रचनाओं में निहित मनुष्य, एक भारतीय मनुष्य की मानसिक बनावट के कारण, जिसे पगने, फूलने में सैकड़ों वर्ष लगे थे - एक स्थिर व्यक्तित्व का चेहरा, जिसका दर्शन हमें पहली बार उनकी कहानियों-उपन्यासों में हुआ था। एक चेहरे का सत्य नहीं, बल्कि ऐसे सत्य का चेहरा, जिसे उन्होंने शहरी, ग्रामीण, कस्बाती चेहरों के बीच गढ़ा था - औपनिवेशिक स्थिति में रहनेवाले एक हिंदुस्तानी की आर्कीटाइप छवि जो उनसे हमारे साहित्य में नहीं थी। किंतु इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेमचंद के बाद के कहानीकारों के लिए भी वह छवि अपनी उड़ानों के लिए एक स्थायी आधार-बिंदु, एक जमीन, एक तरह की 'बेस-कैंप' बन गई थी। इस कैंप से ऊपर जाते हुए अनेक लेखक-पर्वतारोही अपने भीतर प्रेमचंदीय संसार की तस्वीरें अपने साथ ले गए थे; यात्रा के दौरान इन तस्वीरों में अनेक मोड़-सलवटें, विकार और विकृतियाँ दिखाई दी थीं - बड़े घर की बेटियाँ अकेली पड़ती गईं, पंच-परमेश्वर की जगह नकली 'जूडास' आ विराजे, बेकारी और बेरोजगारी के दिनों में बड़े भाई साहब का उत्साह इतना मंद पड़ गया कि अपने छोटे भाई के साथ गुल्ली-डंडा खेल सकें; प्रेमचंद का विश्वास कि एक भारतीय मनुष्य - वह किसान हो या एक निम्न मध्यवर्गीय कस्बाई अर्धशिक्षित क्लर्क या कर्मचारी - अपनी पुरानी खोई हुई खुशी को खोज सकता है - वह बाद के वर्षों में धीरे-धीरे एक मरीचिका-सा बनता गया। यह एक भारतीय लिबरल बुद्धिजीवी की मरीचिका थी, जिसकी झलक पहली बार बीसवीं शती के शुरू में दिखाई दी थी। हमें हैरानी होगी कि प्रेमचंद ही नहीं, भारत के अनेक शहरी बुद्धिजीवी - जिनमें स्वयं गांधी जी शामिल थे - (उनके 'हिंद स्वराज' के बावजूद) एक समय में भारतीय समाज की मुक्ति बाहर के दुश्मनों से छुटकारा पाने में खोजते थे - वह चाहे गांधी जी की आँखों में विदेशी सत्ता हो, या प्रेमचंद की आँखों में समाज की कुरीतियाँ और अंधविश्वास हों; आशा यह थी, कि एक बार इनसे छुटकारा पाने के बाद हम दैन्य और दरिद्रता के आँसू भारतीय चेहरे से पोंछ सकेंगे। यह कुछ वैसा ही भ्रम था, जैसे कोई बीमार आदमी यह सोचे कि उसके रोग का कारण उसके मैले-कुचैले कपड़ों से जुड़ा है - एक बार हिम्मत जुटा कर वह अपने चीथड़ों को उतार फेंके और तब अचानक पहली बार देखे, कि समूची देह कोढ़ के जख्मों से अटी है; रोग कपड़ों में नहीं था, उलटे उन्होंने ही रोग को अपने भीतर छिपा रखा था। वे सिर्फ बाहर से ही 'दुश्मन' प्रतीत होते थे, भीतर का दुश्मन कहीं और बैठा था।
भीतर का दुश्मन? आपमें से कुछ लोग सोचेंगे कि मैं आपको किसी टेढ़े-मेढ़े रास्ते से अस्तित्ववादी दर्शन की ओर ले जा रहा हूँ; कुछ दूसरे प्रबुद्ध, आधुनिक लोगों को शायद लगेगा कि मैं किसी भीतरी 'पाप' की ओर संकेत कर रहा हूँ, जिसका उल्लेख अक्सर हमें पश्चिम के अस्तित्ववादी कैथलिक लेखकों में मिलता है, किंतु यदि आपको मेरी बात से कर्म की जिम्मेदारी और पाप की जवाबदेही का हल्का-सा अहसास हो जाता है, तो मेरे लिए यह काफी है। आपको शायद यह भी महसूस होगा, कि इन मुहावरों में कुछ शब्द आपके जाने-पहचाने हैं, कर्म, पाप, आदि; हम चाहे इनका दार्शनिक अर्थ ठीक-ठीक न समझें, तो भी एक भारतीय किसान से ले कर एक करोड़पति भी इन शब्दों में कहीं-न-कहीं अपने संस्कारों की झलक पाता है; लेकिन जिम्मेदारी? जवाबदेही? इन शब्दों को पढ़ कर हम तुरंत भड़क भी न जाएँ, तो भी कुछ परेशानी में पड़ जाते हैं; क्या इनसे 'विदेशी दर्शनों' की बू नहीं आती? यदि अपने कर्मों के कारण कोई गरीब भूखा रहता है, तो उसके प्रति हमारी जवाबदेही का क्या मतलब? कहने की जरूरत नहीं, मैं इन विश्वासों को कुछ ज्यादा ही सरलीकृत ढंग से - एक पैरोडी-की तरह प्रस्तुत कर रहा हूँ; लेकिन इससे शायद कोई इंकार नहीं करेगा, कि जाने-अनजाने हम भारतीय अक्सर इन तर्कों की आड़ में अपने कर्मों की जिम्मेदारी से हाथ धो लेते हैं, लेकिन यदि हमारी जीवन प्रणाली में 'जिम्मेदारी' का स्थान नहीं, या बहुत नगण्य है, तो फिर स्वाभाविक प्रश्न उठता है - उसमें नैतिकता का स्थान कहाँ है? दूसरे शब्दों में-क्या बिना 'दायित्व बोध' के नैतिकता की चर्चा करना अपने में एक गहरा विरोधाभास नहीं है, जिसके रहते भारतीय-मनीषा में शताब्दियों से ऊपर से नीचे तक एक काली दरार आ पड़ी है। क्या प्रेमचंद ने भारतीय आत्मा के बीच खिंची इसी खाई, खाई के अँधेरे और, इस अँधेरे में पनपनेवाले अंतर्विरोधों को देखा था?
अब आप पाएँगे, कि यह प्रश्न एक तरफ 'अस्तित्व' का प्रश्न है, दूसरी तरफ संस्कृति का। यह सही है कि हम अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न को केवल अपने समय के तकाजों के संदर्भ में ही परिभाषित कर सकते हैं - लेकिन खुद समय के तकाजों के झूठ-सच को समझने के लिए हमारे पास केवल अपने अस्तित्व के अलावा कोई दूसरी कसौटी नहीं है। मुझे इस प्रश्न में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है कि प्रेमचंद कितने 'आधुनिक' थे, किंतु यदि आधुनिकता का मतलब अपने समय में अपने को परिभाषित करना है, तो अनिवार्यत: हमें इतिहास द्वारा खींची उस दरार या खाई का सामना करना पड़ेगा जो भारतीय चरित्र और मनीषा में पिछले दो सौ वर्षों से गहरी होती गई है। अंतत: क्या आधुनिक संदर्भ में प्रेमचंद की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता की समस्या इसी प्रश्न के साथ नहीं जुड़ी है? प्रेमचंद मनुष्य की बुनियादी अच्छाई में विश्वास करते थे - एक सुशिक्षित भारतीय लिबरल का आशावादी दृष्टिकोण उन्होंने अपने जीवन में सहज रूप से अपनाया था। लेकिन यह दृष्टिकोण एक उच्चवर्गीय यूरोपीय शिक्षित हिंदुस्तानी से काफी अलग था - भारतीय किसान के सहज जीवन की अंतरंग समझ और सहानुभूति के बल पर 'अच्छाई' की एक परिभाषा बनी थी, जो सीधे-सीधे एक भारतीय मनुष्य के 'धर्म' से जुड़ी थी। यहाँ मैं धर्म शब्द का प्रयोग ठेठ भारतीय संस्कारों के संदर्भ में कर रहा हूँ, आध्यात्मिक आस्था के अर्थ में नहीं बल्कि दायित्वबोध के अर्थ में - जहाँ हर व्यक्ति अपने सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों के परिवेश में अपनी जगह पहचानता है और उसमें रह कर ही अपनी सुविधा, सुरक्षा और अस्मिता महसूस करता है, जिसे हम शुद्ध रूप में -आत्म-स्वाभिमान (sense of honour) मान सकते हैं। एक जमींदार का ऑनर किसानों के प्रति उसके दायित्व में उतना ही निहित है जितना एक ऋणी किसान का ऑनर इसमें है, कि वह भूखे रह कर भी अपनी सात पीढ़ियों तक महाजन का ऋण चुकाने में जुटा रहे। पंच की गद्दी के प्रति वफादार रह कर जिस तरह एक साधारण मनुष्य परमेश्वर बन जाता है, उसी तरह जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जगह-चाहे वह 'जगह' वर्ण-व्यवस्था में ही निहित क्यों न हो, के प्रति निष्ठा रखने में ही मनुष्य का देवत्व छिपा रहता है। मनुष्य की जवाबदेही यहाँ भी है - किंतु वह व्यक्ति के स्वतंत्र संकल्प से उत्पन्न नहीं हुई - वह एक 'दी हुई' पूर्व-निर्धारित, जिम्मेदारी है, समाज के प्रति, जाति के प्रति, परिवार के प्रति - इसलिए मनुष्य की पीड़ा उन विवशताओं से उत्पन्न होती है, जो उसे अपनी बुनियादी 'अच्छाई' से स्खलित करती है - उसे अपनी परंपरागत जगह से उन्मूलित करती है। प्रेमचंद अपने अधिकांश लेखन में कभी इस अच्छाई पर शंका नहीं प्रकट करते, क्योंकि उस पर शंका करने का मतलब होगा, एक हिंदुस्तानी के व्यावहारिक धर्म और दायित्वों पर शंका प्रकट करना। वह यदि अपनी आरंभिक कहानियों और उपन्यासों में समाज सुधार की बात करते हैं, तो इसलिए नहीं कि उन सुधारों के कारण मनुष्य सामंतवादी रिश्तों के भीतर एक स्वतंत्र, गरिमापूर्ण सत्ता उपलब्ध करेगा - बल्कि इसलिए कि वह इन रिश्तों के भीतर पुन: अपने धर्म और दायित्व को निर्विघ्न संपन्न करने की सुविधा पा सकेगा। उन्हें मनुष्य के सामाजिक रिश्तों में अदम्य विश्वास था -व्यक्ति उन्हीं के भीतर अपना धर्म निभा सकता है; किंतु वह 'धर्म' स्वयं मनुष्य की निजी, वैयक्तिक आकांक्षाओं, इच्छाओं, अभिलाषाओं के रास्ते में बाधा बन सकता है -इसकी पीड़ा और विवशता को वह अपनी आरंभिक रचनाओं में अधिक नहीं देख पाते थे। इसलिए उनमें एक सरलीकृत किस्म के सुधार का आदर्श छिपा था, जिसका रिश्ता समूचे भारतीय-समाज की बीहड़ आत्म-उन्मूलन की व्यथा से नहीं बैठ पाता था। यदि ये आरंभिक उपन्यास कमजोर हैं, तो इसलिए नहीं कि उनके आदर्श में कोई खोट है, बल्कि असली कमजोरी इसमें है कि उन लिबरल, सुधारवादी आदर्शों का भारतीय यथार्थ की कटु विभीषिका से कोई लेना-देना नहीं था। यह विभीषिका क्या थी?
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि पिछड़े डेढ़ सौ वर्षों के अंग्रेजी राज ने युग-युग से चली आती किसानों की आत्म-निर्धारित मर्यादाओं, रिश्तों, खुद सामंतवादी समाज के भीतर इन रिश्तों को जोड़नेवाली धार्मिक कड़ियों को छिन्न-भिन्न कर डाला था। यदि एक व्यवस्था किसान और उसकी जमीन के बीच शाश्वत, पवित्र रिश्ते को भंग कर देती है (जैसी कि अंग्रेजों की भूमि संबंधी व्यवस्था - जमींदारी व्यवस्था ने किया था) तो किसान के तमाम दूसरे रिश्ते भी एक सिरे से दूसरे सिरे तक विकृत हो जाते हैं। प्रेमचंद इस विकृति को देख पाते हैं - किंतु स्वयं यह 'सामाजिक विकृति' एक भारतीय किसान की आत्मा के भीतर अँधेरी दरार खींच सकती है... इस ओर यदि उनका ध्यान और अंतर्दृष्टि जा पाती, तो वह भारतीय किसान का चित्रण उतनी ही संपूर्णता और संवेदना के साथ कर पाते, जैसा उन्नीसवीं शती में टॉलस्टाय ने रूसी 'मुजिश्क' (गरीब किसान) की अभिशप्त आत्मा को अपने लेखन में दर्शाया था। टॉलस्टाय के बारे में कहा जाता है कि पहली बार उनके उपन्यासों में रूसी किसान के दर्शन होते हैं, प्रेमचंद के उपन्यास में भी पहली बार किसान के दर्शन होते हैं - किंतु वह 'औपनिवेशिक किसान' था, उसके नीचे दबे भारतीय किसान का मूल चरित्र संस्कृति, धार्मिक आस्था (जो 'व्यावहारिक धर्म' से अलग है), मनुष्य, प्रकृति और ईश्वर के बारे में उसके परंपरागत विश्वास - उनके सृजन की रोशनी में ऊपर नहीं आते। प्रेमचंद ने भारतीय किसानों की 'ऐतिहासिक विकृति' को देखा था - किंतु उस चीज का मूल सांस्कृतिक टेक्सचर अपने गैर-ऐतिहासिक रूप में क्या था - जो विकृत हुआ था, उसकी अंतर्दृष्टि प्रेमचंद में नहीं मिलती। प्रेमचंद अक्सर उस पक्ष को अनदेखा कर देते हैं, जिसमें भारतीय किसान की सांस्कृतिक विरासत छिपी थी -यह विरासत उसके व्यावहारिक, सामाजिक 'धर्म' से कहीं ज्यादा गहरी और महत्वपूर्ण थी - एक शब्द में कहें - तो उसकी आध्यात्मिक विरासत। अंग्रेजी राज ने इस विरासत को जिस तरह आहत किया था, उसकी पीड़ा का आयाम प्रेमचंद के उपन्यासों में नहीं दिखाई देता - इसलिए उनके लेखन में उन्नीसवीं शती के रूसी उपन्यासकारों का 'आध्यात्मिक अंतर्द्वंद्व' नहीं मिलता, जो सामाजिक यथार्थ से उत्पन्न हो कर भी महज 'सामाजिकता' में नहीं चुक जाता। इस दृष्टि से प्रेमचंद सच्चे और बुरे अर्थों में 'तीसरी दुनिया' के लेखक थे, यह उनकी 'ऐतिहासिक उपलब्धि' और कलात्मक सीमा थी, सीमा इसलिए, क्योंकि कला में हर लेखक की दुनिया पहली दुनिया होती है - खासकर एक भारतीय लेखक के लिए - जिसका अतीत, परंपरा और जीवनदृष्टि - बाकी दुनियाओं से मूलत: भिन्न रहे हैं। इतिहास का यह धर्म है कि वह हर देश को किसी-न-किसी दुनिया के कटघरे में खड़ा कर सके; कलाकार का धर्म है कि वह हर कटघरे से मुक्ति पा कर अपनी प्राथमिक और मौलिक दुनिया में प्रवेश करने का साहस जुटा सके।
यह साहस - कहना न होगा - उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में विवेकानंद ने जुटाया था; स्वयं प्रेमचंद के समकालीन गांधी ने बड़ी सतर्कता से औपनिवेशिक दबावों और विकृतियों को भारतीय जीवन की मूलधारा और विकृति के संदर्भ में विश्लेषित करने का प्रयत्न किया था। ये लोग - खासकर गांधी जी - चूँकि पश्चिमी संस्कृति के आलोचक थे, उन मार्क्सवादियों से बहुत अलग थे, जो एक तरफ औपनिवेशिकता की निंदा करते थे, दूसरी तरफ पश्चिम के विज्ञान और औद्योगिक शक्तियों को भारत - जैसे पिछड़े समाज में प्रगति का सूचक भी मानते थे। मैं आपका ध्यान 1930 के आसपास के जमाने की ओर आकृष्ट करना चाहूँगा, जब उन्नीसवीं शती के बंगाल रेनेसेन्स के बाद पहली बार भारतीय बौद्धिक-संसार में एक बार नए सिरे से सिद्धांतों, आदर्शों और मतों में मुठभेड़ हुई थी - यह वह समय था, जब भारतीय राजनीति में वामपंथी रेडिकलिज्म ने पहली बार -कमजोर ढंग से भले ही लेकिन स्पष्ट रूप से हस्तक्षेप करना शुरू किया था। यह वह समय भी था, जब प्रेमचंद अपनी सृजनात्मक-शक्ति के चरम-शिखर पर थे और उन्होंने अपने अंतिम उपन्यास और कहानियाँ लिखी थीं।
प्रेमचंद के अंतिम उपन्यास और कहानियों में जहाँ हम उनके समस्त पुराने गुणों से परिचित होते हैं - वहाँ दूसरी तरफ सहसा एक आश्चर्यजनक बोध भी होता है, यह वही प्रेमचंद हैं, जिन्होंने गबन, निर्मला और रंगभूमि जैसे रोचक, सीधे-सादे, मार्मिक उपन्यास लिखे थे - किंतु उसके परे एक दूसरे प्रेमचंद की भी झलक दिखाई देती है, जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा था। हल्की-सी नाराजी, कुछ दबा हुआ-सा आक्रोश, एक बेचैन-सी हताशा, जो पिछली कहानियों की पस्त और पराजित निराशा से अलग थी - और अनुभव के इन खंडित टुकड़ों के पीछे सत्य का एक अखंडित बोध परिलक्षित होता है, जो शायद स्वयं प्रेमचंद की जीवन-यात्रा में एक आश्चर्यजनक खोज थी। वह कौन-सा सत्य था, जो इतने बरसों बाद भी उनकी अंतिम रचनाओं में इतने जीवंत और ज्वलंत रूप से विद्यमान है और जिसकी प्रतिध्वनि को प्रेमचंद की आनेवाली हर नई पीढ़ी ने बहुत विस्मय, ध्यान और चिंता से सुना है?
शायद इसका उत्तर हमें जैनेंद्र के एक संस्मरण से मिलता है, जो उन्होंने प्रेमचंद की याद में लिखा था। एक जगह वह अपने और प्रेमचंद के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, 'मैं अपने को बुद्धि का दुश्मन मानता हूँ, जबकि प्रेमचंद के संबंध में कह सकता हूँ, कि वह धन के दुश्मन थे।' (मैं स्मरण से उन्हें उद्धृत कर रहा हूँ, शब्द शायद भिन्न हों, आशय यही था) दरअसल हम जिस व्यवस्था में रहते हैं, वहाँ देर-सबेर धन से दुश्मनी अनिवार्यत: 'बुद्धि' से दुश्मनी की ओर अग्रसर होती है - क्योंकि 'बुद्धि' स्वयं धन अर्जित करने के लिए एक हथियार और औजार की तरह इस्तेमाल की जाती है। हमारे युग में 'बुद्धि का राक्षसी रोल' धन की आसुरी शक्तियों से अलग नहीं किया जा सकता। पैसा यदि मनुष्य को उसके मनुष्यत्व से ही वंचित करता है, तो बुद्धि, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे युग में अनेक मतवादी विचारधाराओं में हुई, मनुष्य को अपने विवेक और ज्ञान से ही वंचित कर देती है, जिससे वह अपने 'खोखलेपन' को भी नहीं देख पाता। मनुष्य के आत्म उन्मूलन में बुद्धि की आक्रामकता ने उतना ही भयावह रोल अदा किया है, जितना धन की पिपासा ने, जो मनुष्य को मात्र 'वस्तु' में परिणत कर देती है।
शायद आप भाँप गए होंगे, मैं आपको किस बिंदु की ओर ले जा रहा हूँ - प्रेमचंद के अंतिम सत्य की ओर - जो 'धन' के साक्षात्कार से जाग्रत हुआ था। यह सत्य भी प्रेमचंद को औपनिवेशिक संदर्भ में ही उपलब्ध हुआ था - खुद अपनी आँखों से उन्होंने भारतीय समाज में उन सब मूल्यों को विषाक्त होते देखा था, जिनके प्रति अपने आरंभिक उपन्यासों में उन्होंने इतना गहरा लगाव और निष्ठा प्रगट की थी - मनुष्य का व्यावहारिक धर्म, ईमानदारी, दायित्व की भावना जो सामंती ढाँचे के भीतर भी मनुष्य के आपसी रिश्तों में मानवीयता सँभाल कर रखते थे। अक्सर औपनिवेशिक व्यवस्था के विरोध में कहा जाता है कि वह 'तीसरी दुनिया' की सामंती शक्तियों से गठजोड़ करती है - लेकिन यह अर्धसत्य है। वह यदि सामंती सत्ता से गठजोड़ करती है, तो दूसरी तरफ उसी व्यवस्था में पलनेवाले परंपरागत मानवीय रिश्तों को भ्रष्ट भी करती है - और नष्ट करने की यह प्रक्रिया पैसे के रिश्तों से आरंभ होती है - और यह पूरा सत्य है। महाजनी सभ्यता का भयानक और विषैला सत्य, जिसे एक बार देख लेने के बाद प्रेमचंद की दुनिया पहले जैसी नहीं रही; न्याय, धर्म, संस्कार और जातीय दायित्व में उनके भोले विश्वासों पर एक काली, लंबी छाया-सी आ पड़ी; यही छाया मनुष्य की आत्मा के बीचों-बीच खिंची हुई अँधेरी खाई, जिसकी क्रूर किंतु अत्यंत शक्तिशाली अभिव्यक्ति हमें गोदान और उससे भी अधिक कफन-जैसी कहानियों में दिखाई देती है। पहली बार उन्होंने भ्रम के परदे के पीछे हिंदुस्तानी यथार्थ का घिनौना और वीभत्स चेहरा देखा था। एक छलाँग में वह न केवल सामंती आदर्शों को लाँघ गए थे, किंतु - और यह तथ्य महत्वपूर्ण है -उन्होंने महाजनी संस्कृति की भौतिक विडंबनाओं को भी भेद डाला था। यह छलाँग आदर्शवाद से यथार्थवाद की तरफ नहीं थी, जैसा कि हमारे हिंदी विभागों के प्रोफेसर और आलोचक मानते हैं - कोई भी सच्चा यथार्थ आदर्श से शून्य नहीं होता जैसे कोई भी आदर्श बिना यथार्थ की ठोस-अंतर्दृष्टि के अर्थहीन और बौना हो जाता है; प्रेमचंद के आदर्श नहीं बदले, सिर्फ यथार्थ से उनका संबंध बदल गया। वह अब भी मनुष्य की अच्छाई में विश्वास करते थे - लेकिन इस अच्छाई के सामने उन्होंने पहली बार बुराई या पाप से भी साक्षात्कार किया - जिसे हम 'ईविल' कह सकते हैं। पैसा अपने में पाप है। यह बोध सहसा प्रेमचंद को एक ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर देता है, जिस मोड़ पर बिलकुल दूसरे रास्ते से गांधी आए थे।
मैंने शुरू में गांधी और विवेकानंद को आधुनिक सभ्यता का आलोचक माना था -उन्होंने भारतीय समाज में औपनिवेशिक दूषण को अपनी संस्कृति और अतीत के संदर्भ में आँका था और उसी को कसौटी मान कर आधुनिक सभ्यता की अमानवीय और भौतिक बीमारियों को परखने की कोशिश की थी, जरा देखिए, प्रेमचंद भी अपने अंतिम उपन्यासों, कहानियों में महाजनी सभ्यता के घोर आलोचक बने थे - लेकिन भारतीय-संस्कृति के आधार पर नहीं - प्रेमचंद ने गांधी की तरह कभी गीता से कर्म की प्रेरणा प्राप्त नहीं की - बल्कि उनका रास्ता बिलकुल दूसरा था, जिसे अगर आप नाम देना चाहें तो कह सकते हैं, एक हिंदुस्तानी की गरीबी और यातना का रास्ता; प्रेमचंद ने औपनिवेशिक तंत्र के भीतर पलती हुई एक हिंदुस्तानी की यातना और मजबूरी में आधुनिक भौतिक संस्कृति का खोखलापन देखा था; सत्य वही था, जिसे टाल्स्टाय और गांधी ने देखा था - लेकिन उसका सामाजिक स्रोत और अनुभव-यात्रा बिलकुल अलग थी। जिस औपनिवेशिक दृष्टि की सीमाओं ने प्रेमचंद की आरंभिक कहानियों और उपन्यासों को सतही और भावुक बनाया था, उसी औपनिवेशिक तंत्र के भीतर हिंदुस्तानी यातना ने उन्हें एक विशिष्ट दृष्टि दी थी।
मुझे नहीं लगता प्रेमचंद से पहले या बाद के किसी कहानीकार में गरीबी, खास हिंदुस्तानी गरीबी का इतना ठंडा, तटस्थ और तीखा वर्णन मिलता है, जो अगली पीढ़ी के प्रगतिशील लेखकों के शहरी, दिखाऊ बनावटी रोमांटिसिज्म से बिलकुल अलग था। एक शहरी प्रगतिशील लेखक स्वयं धन की सुविधाओं से जुड़ा रहता है, उसके मन में गरीबी सिर्फ दया जगाती है, जो क्रांतिकारी रोमांटिसिज्म का दूसरा पहलू है - प्रेमचंद चूँकि स्वयं धन को संदेह की दृष्टि से देखते थे, गरीबी के प्रति उनका रुख दया, नफरत और विरोध जैसी भावुक प्रतिक्रियाओं से बिलकुल अलग था। धन का अभाव अपने में वरदान हो सकता है, अगर वह ऐसी गरीबी को जन्म न दे, जिसमें मनुष्य स्वयं अपने धर्म और दायित्वबोध से ही वंचित हो जाता है। इस स्तर पर प्रेमचंद का महाजनी-व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश एक गहरी नैतिक पीड़ा लिए है - एक ठेठ परंपरावादी हिंदुस्तानी की पीड़ा - जिसकी जरा-सी झलक भी हमें उनके बाद आनेवाले पश्चिमी शिक्षा से लैस प्रगतिवादियों में नहीं दिखाई देती। विडंबना यह है कि यही पश्चिमी संस्कृति में पले लोग जिनका एक औसत हिंदुस्तानी की औपनिवेशिक पीड़ा से दूर का रिश्ता भी नहीं था, अपने को 'प्रेमचंद की परंपरा' का सबसे वफादार अनुयायी मानते हैं।
प्रेमचंद के अंतिम उपन्यासों, कहानियों की एक बड़ी उपलब्धि है - अब यह हिंदुस्तानी किसान को सिर्फ औपनिवेशिक चौखटों में ही नहीं देखते - बल्कि वह उसे सीधे-सीधे आधुनिक स्थिति की विडंबनाओं में ले आते हैं - स्थिति अब भी औपनिवेशिक जड़ता और उत्पीड़न में डूबी है - लेकिन प्रेमचंद उसे अब एक ऐसे संकट के संदर्भ में देखते हैं, जो महज 'तीसरी दुनिया' के बाहरी उपादानों द्वारा अनुशासित नहीं है; बल्कि अब वह व्यक्ति और समाज के बीच रिश्तों में घुन की तरह चिपका है - स्वयं मनुष्य की आत्मा में साँप की तरह विराजमान है। लेकिन इस साँप से डरने की जरूरत नहीं; कफन तक आते-आते अचानक प्रेमचंद के पात्रों को अहसास होता है, जिसे वह सर्वग्रासी साँप समझे बैठे थे, वह महज रस्सी है, सामाजिक मर्यादाओं और कर्तव्यों की कच्ची, जर्जरित, तार-तार होती हुई रस्सी - जिसे एक झटके से तोड़ कर मुक्त हुआ जा सकता है। प्रेमचंद ने जैसे इस कहानी में अंतिम रूप से फैसला ले लिया हो, कि वह उन सब मूल्यों को एक-एक करके 'कलंकित' करेंगे, जिन्हें वह धर्म और पवित्रता का प्रतीक मानते थे। एक सामंतवादी समाज में एक संस्कारग्रस्त धर्मशील व्यक्ति का विद्रोह केवल दूषण (blasphamy) के रूप में हो सकता है - उन समस्त मर्यादाओं को दूषित और हास्यास्पद बना देता है, जिन्हें हम पुरातनकाल से पुनीत और पवित्र मानते आए हैं। इस अर्थ में हिंदी साहित्य में 'कफन' शायद पहली 'ब्लासफेमस' कहानी है। जिस क्षण बाप-बेटे ने घर की औरत के कफन के पैसों से शराब का कुल्हड़ मुँह से लगाया था, उस क्षण पहली बार हिंदी साहित्य में व्यक्ति ने अपनी स्वतंत्रता का स्वाद भी चखा था। यह क्षण वह था, जब प्रेमचंद के समाज में 'व्यक्ति' का जन्म हुआ था। यह जन्म मृत्यु और शमशान की छाया में हुआ था - दो पियक्कड़ हिंदुस्तानियों का मुक्ति समारोह। अपनी अंतिम कहानी में प्रेमचंद पूरा एक दायरा पूरा कर गए थे। जिस समाज के लिए उनके पात्र आज तक अपने को होम करते आए थे, उसके एवज में वह समाज - गोदान के लिए न सही - कफन के एक चीथड़े के लिए चार पैसे नहीं जुटा सकता? जरूर जुटाएगा, औरत की मुरदा देह के लिए नहीं - तो अपनी मुर्दा मर्यादाओं को ढँकने के लिए ही सही!
कहते हैं, उन्नीसवीं शताब्दी का रूसी साहित्य गोगोल के 'ओवरकोट' से बाहर आया था, पता नहीं इसमें कितना सत्य है, किंतु हिंदी का आधुनिक कथा साहित्य का बड़ा अंश प्रेमचंद के 'कफन' से बाहर आया है, यह मुझे जरूर सत्य जान पड़ता है। पूरा साहित्य नहीं - ऐसे लेखक हैं, जैनेंद्र, अज्ञेय और अनेक नए लेखक - जो शायद बिना प्रेमचंद के भी अपनी लीक बना सकते - मैं स्वयं शायद ऐसी श्रेणी में आता हूँ जिस पर प्रेमचंद का कोई सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं दिखाई देता। यहाँ तक कि वे लेखक जो अपने को प्रेमचंद की 'परंपरा का उत्तराधिकारी' मानते हैं,अपनी उत्कृष्ट रचनाओं में (जहाँ वे सिर्फ प्रेमचंद की नकल नहीं कर रहे) प्रेमचंद के कथा-विधान में काफी महत्वपूर्ण परिवर्तन करते रहे हैं। इसका कारण है। प्रेमचंद की अधिकांश रचनाएँ यूरोप के उन्नीसवीं शती में विकसित यथार्थवादी ढाँचे में लिखी गई थीं - यह ढाँचा, कथ्यात्मक फॉर्म एक तरह से अन्य विश्वव्यापी आधुनिक उपकरणों की तरह हर लेखक के लिए सुलभ था - जब कभी लेखक के जातीय अनुभव इस ढाँचे में फिट नहीं हो पाते थे, तो लेखक अक्सर ढाँचे को छोड़ने के बजाय अपने अनुभवों को छोड़ देना ज्यादा सुविधाजनक मान लेता था। मैंने इस द्वंद्व का उल्लेख अन्यत्रा किया है, यहाँ विस्तार में जाने के बजाय मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि प्रेमचंदोत्तर पीढ़ी के कुछ महत्वपूर्ण लेखकों ने अपने अनुभवों को व्यापक औपन्यासिक स्पेस देने के लिए प्रेमचंद के 'यथार्थवादी' फॉर्म से अपने को मुक्त किया है - रेणु के उपन्यास इसका सजीव उदाहरण हैं। प्रश्न यथार्थ से विदा लेने का नहीं था, स्वयं बदलते हुए यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए 'यथार्थवादी' ढाँचे की सीमाओं से मुक्ति पाना था।
किंतु किसी परंपरा को तोड़ना उसकी अवज्ञा करना नहीं है; रेणु, अज्ञेय या जैनेंद्र यदि बिलकुल अलग किस्म कि उपन्यास लिख पाए तो इसलिए क्योंकि उनके पास पहले से ही प्रेमचंद मौजूद थे। यदि हम अपने पुरखों की अपेक्षा कुछ ज्यादा, कुछ अधिक, कुछ महत्वपूर्ण सत्य उपलब्ध करते हैं तो इसका सीधा-सा कारण है कि हमारी दृष्टि के साथ पुरखों की दृष्टि जुड़ी है - आज जब कुछ समीक्षक और लेखक प्रेमचंद की परंपरा की बात डंके की चोट के साथ दुहराते हैं - उसे कसौटी मान कर आधुनिक-लेखन को प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी घोषित करते हैं - तो मुझे काफी हैरानी होती है। मुझसे ज्यादा हैरानी और क्षोभ शायद प्रेमचंद को होता, यदि वह जीवित होते। वह शायद हँसी में उनसे कहते 'भई, आप तो मेरी परंपरा में आते हैं, लेकिन मैं? मैं कौन-सी परंपरा में आता हूँ - सेवासदन की परंपरा में या कफन की परंपरा में?' और तब हमें अचानक पता चलेगा कि स्वयं प्रेमचंद को 'प्रेमचंद की परंपरा' से मुक्त करना जरूरी है - क्योंकि वह स्वयं अपने को पीछे छोड़ कर हमेशा नया बनते गए, जिसमें समूचा 'छोड़ा हुआ अंश' भी शामिल था। यह - मेरे विचार में - उनकी सबसे गौरवपूर्ण उपलब्धि थी जो इतने वर्षों बाद भी हमारे बीच उपस्थित है।
मलयज की मृत्यु पर
विश्वास नहीं होता कि मलयज जहाँ हमारे बीच थे, वह जगह अब खाली है; वह विचित्र, अनूठी, अकेली जगह थी, जहाँ से उन्होंने दुनिया, जीवन की रचना को देखा था। हमें कभी इतनी फुरसत नहीं मिली, कि हम उस जगह तक पहुँच पाते - सिर्फ उनके लेखन -मात्र लेखन से हम थोड़ा बहुत अंदाजा लगा लेते थे कि मलयज वहाँ हैं, जहाँ से उनकी निगाह चीजों को चमका जाती है। वह अब उस तारे की तरह है, जो सहसा बुझ जाता है, किंतु उसकी रोशनी अनंत समय तक हमारे आसपास, हमारी दुनिया, हमारे सोच के औजारों पर चमकती रहती है...
वह एक दुबले-पतले, लाइम-लाइट से घबरानेवाले, हमेशा पिछली पंक्ति में बैठनेवाले व्यक्ति थे, एक ऐसे लेखक जो अपने बारे में कुछ नहीं कहते थे, इसलिए हम भी उनके बारे में चुप रहते थे। लेकिन जब भी उनका कुछ लिखा हुआ आँखों के सामने पड़ जाता, कोई सोचती हुई-सी कविता, कोई कविता को छूती हुई सोच - किसी मित्र को लिखा हुआ पत्र - तो हम चौंक से जाते, अचानक याद आता, यह तो मलयज हैं, इतना पारदर्शी और पवित्र गद्य, इतनी महीन सोच, रचना के प्रति इतना चौकन्ना, चौतरफा लगाव-भला इस तरह का बींधता, भेदता, चमकीला, तहों को छीलता चिंतन और किसका हो सकता है?
विश्वास नहीं होता, कि अब हम चौंकेंगे नहीं, स्तब्ध नहीं होंगे। यह सोचना असंभव लगता है कि छोटे-छोटे अंतरालों के बीच अचानक प्रगट होनेवाले मलयज अब एक कभी न खत्म होनेवाले अंतराल में चुप रहेंगे...
चुप वह अक्सर रहते थे; सिर्फ लिखने में उनका स्वर सुनाई देता था, एक महीन और मर्मज्ञ आवाज; वह उन कम, बहुत कम लेखकों में थे, जिनकी रचनाएँ पढ़ते हुए मुझे उनकी आवाज सुनाई देती थी - तीखी और तल्ख आवाज नहीं - बल्कि एक अजीब शांत संयम में सधी हुई, संयम जो बाँध की तरह अपने नीचे न जाने कितनी उत्तेजना, कितना उन्मेष, कितना पैशन भींचे रहता है, ठंडा और तटस्थ संयम नहीं, बल्कि विचारों की गड़गड़ाहट के बीच एक बिजली की तरह कौंधता हुआ, आसपास के अँधेरे, अभेद्य कानों को आलोकित करता हुआ - एक असह्य तनाव में अंदर उठता हुआ, खुद अपने को रोकता, नियंत्रित करता हुआ। इसका सबसे सजीव और सटीक उदाहरण उनका अंतिम लेख है - मुक्तिबोध पर। छोटी, महत्वपूर्ण बातें, जिन्हें हम लेखक का ऑब्सेशन मान कर टाल जाते हैं, नजरअंदाज कर जाते हैं, वही मलयज की निगाह में एक अभूतपूर्व रहस्य, एक अप्रत्याशित सत्य उजागर करती हैं। वह हमें घसीट कर ऐसे कोने में ले जाते हैं, जहाँ से हमने किसी रचना को पहले नहीं देखा था।
मलयज की आधुनिकता उनकी निगाह में बसती थी, मांसल और सजीव और साफ जिसके रहते वह आज की रचना को निरायास पिछली सब कृतियों से जोड़ लेते थे। वह रचना के साथ-साथ चुपचाप उल्टे पाँव उस अँधेरी माँद में चले जाते थे, जहाँ वह सबकी आँखों से छिप कर जन्म लेती है। खून और मांस और मिट्टी में लिथड़ी हुई; इसीलिए उनके यहाँ परंपरा बीते हुए समय को उघाड़ना नहीं, उस परिवेश को खोलना है, जहाँ आज और बीता हुआ कल एक साथ बसते हैं। इतिहास उनके यहाँ अमूर्त अवधारणा में नहीं, ठोस, स्पर्शवान, स्पंदित होते परिवेश में साँस लेता है, एक मांसल परिदृश्य में चमकता है।
जरा मलयज के साथ चलिए, जहाँ-जहाँ वह रामचंद्र शुक्ल के पदचिह्नों पर चलते हुए उनके परिवेश में गए थे, धूल में, धरती में, कस्बे की धुँधलाती बस्तियों की तरफ... जहाँ हम एक तरफ शुक्ल जी की ओर जा रहे हैं, वहाँ दूसरी तरफ मलयज की तरफ लौट रहे हैं - उनके अंतर्मन की तरफ - वह एक कवि की दोतरफा यात्रा है, जहाँ वह आलोचक बनता है, एक आलोचक का अंतर्मंथन है, जहाँ विवेक-बुद्धि काव्यात्मक सत्य की उड़ान पर अपने पँख तौलती है। मुझे याद नहीं आता कि हमारे समय में किसी लेखक में कविता और आलोचना इतने निरायास, सहज ढंग से समन्वित होती थी, जितनी मलयज में। वह 'कवि-आलोचक' नहीं थे; वह सिर्फ एक प्रगल्भ, सजग लेखक थे जिनमें कविता और आलोचना अलग-अलग होते हुए भी धानुष-बाण की तरह जुड़े रहते थे, जिसमें जब कभी उनकी निगाह रचना के केंद्र-बिंदु पर निशाना बाँधाती है, तो असह्य तनाव में तना हुआ तीर लक्ष्य पर बिंधा हुआ काँपता-सा दिखाई देता है - तनाव और सफाई और शांत-संयम में मड़ा हुआ - टॉमस मॉन जिसे 'प्रिसाइज पैशन' कहते थे। मलयज सच्चे अर्थों में 'प्रिसाइज पैशन' के लेखक थे।
इसलिए वह सही अर्थों में आधुनिक थे, यदि आज इस शब्द का कोई मतलब रह गया है, तो वह मलयज के लेखन में अनुप्राणित होता है। मुझे कोई संदेह नहीं, कि यदि वह कुछ और वर्ष जीवित रहते, तो हम सबके लिए उनका आलोचनात्मक-चिंतन एक सबक होता, एक मॉडल और आदर्श कि कैसे एक हिंदी लेखक अपनी सृजन-यात्रा में आधुनिक दबावों को जीता है, भोगता है, समोता है। वह उतने ही सहज रूप से आधुनिक थे, जितना हम हवा में साँस लेते हैं - न उनमें कोई दिखावा था, न शहादत का भाव। मलयज की आधुनिकता उनके औजारों में निहित थी, जिनसे वह कविता रचते थे और रचना को तौलते थे। उनकी एकमात्र आलोचना-पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' एक अभूतपूर्व उदाहरण है, कि बिना किसी पूर्व निर्धारित दर्शन या सिद्धांत का सहारा लिए महज अपनी प्रखर विवेक शक्ति, सुरुचि संपन्नता और साहित्य के प्रति असीम जिम्मेदारी और प्रेम (हाँ, प्रेम, जो प्रतिबद्धता से बहुत अलग है) के आधार पर किसी रचना के मूल मर्म तक पहुँचा जा सकता है - और इस पहुँच के लिए यदि उन्हें चिंतन के उन औजारों का भी प्रयोग करना पड़े, जो सहज रूप से एक शिक्षित व्यक्ति को पश्चिम से मिलते हैं, तो वह उन्हें 'अछूत' मान कर अस्वीकार नहीं करते थे; किंतु उनकी आधुनिकता इन पश्चिमी औजारों में निहित नहीं थी, बल्कि जिस अपूर्व दक्षता और आत्मविश्वास के साथ उन्होंने इन औजारों को अपनी व्यक्तिगत, आत्मीय संवेदना और समझदारी में तपा कर पिघलाया था और उसे अपने निजी प्रयोग के औजारों में गढ़ा था, उनकी आधुनिकता उनकी इस मौलिक कल्पनाशीलता में निहित थी।
मलयज 'भारतीय लेखक' नहीं थे, वह एक लेखक थे, जो भारतीय परिवेश में रहते थे, वह 'आधुनिक लेखक' भी नहीं थे, वह एक ऐसे लेखक थे जो आधुनिक समय में जीते थे; यही कारण था कि वह न आधुनिकता से ज्यादा आक्रांत थे, न भारतीयता से ज्यादा सम्मोहित। वह रचना के अलावा किसी बैसाखी को नहीं स्वीकारते थे और यह रास्ता लंबा और दुर्गम था। अन्य लेखक शॉटकट ढूँढ़ते हैं; मलयज ने अपने इर्द-गिर्द उन सब रास्तों को बंद कर दिया, जिन्हें शॉटकट की तरह इस्तेमाल किया जा सकता था।
किंतु जिस रास्ते को उन्होंने चुना, उसे भी वह कहाँ पार कर सके? लगता है, वह कहीं रास्ता पार करते हुए हमारे पास आ रहे थे - और बीच सड़क पर ही कोई दुर्घटना हो गई और हम अब भी इस तरफ खड़े उनका इंतजार कर रहे हैं। शायद यही कारण है कि रह-रह कर पछतावे और आक्रोश से भरा एक अजीब-सा संदेह मन को कोंचता है कि उनका इस तरह जाना जरूरी नहीं था। वह बच सकते थे और हमारे बीच हो सकते थे यदि - डॉक्टर ठीक से उनका परीक्षण कर पाते, यदि समय से उन्हें दवा दी जा सकती, यदि तत्काल वह अस्पताल पहुँच पाते; यदि, यदि, यदि... भारत की भयावह स्थिति में पता नहीं कितने 'यदियों' के गड्ढे बिछे हैं, जहाँ लोग लड़खड़ा कर गिर पड़ते हैं; शायद यही कारण है मलयज की मृत्यु मुझे एकदम बेमानी, अर्थहीन, एब्सर्ड जान पड़ती है। उनकी मृत्यु में अंत की अनिवार्यता नहीं, दुर्घटना की दहशत महसूस होती है।
कुछ लेखकों की मृत्यु के बारे में सुन कर हम अपने भीतर यह ढाँढ़स बाँध लेते हैं, कि उन्होंने जो कुछ भी महत्वपूर्ण लिखना था, वह उनके पीछे था। उनकी मृत्यु एक लेखक से ज्यादा एक जाने-पहचाने ख्यातिसंपन्न व्यक्ति की मृत्यु जान पड़ती है - और शायद यह सच भी है। किंतु मलयज के साथ यह सच नहीं था। उन्होंने एक कठिन, मेहनत-भरी, संघर्षमय जिंदगी गुजारी थी; वह जिंदगी एक तरह की तैयारी थी - उस सबको लिखने की तैयारी - जिसकी बाट हम सब इतनी आशा और उत्सुकता से जोह रहे थे। शायद ही उनकी कोई ऐसी टिप्पणी, लेख, कविता - यहाँ तक कि उनके पत्र थे, जिन्हें मैं ढूँढ़-ढूँढ़ कर नहीं पढ़ता था और पढ़ते समय हमेशा कुछ अप्रत्याशित-सा अनुभव होता, पिछले अनुभवों से बिलकुल भिन्न; मलयज उन दुर्लभ लेखकों में थे, जिनके लेखक के बारे में कुछ भी 'प्रिडिक्ट' नहीं किया जा सकता था - इसलिए उनको पढ़ने का कौतूहल और उत्तेजना कभी मंद नहीं पड़ती थी।
आनेवाले वर्षों में पता नहीं कितने लेखकों को अकादमी पुरस्कार मिलेंगे, शिखर पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार - लेकिन कुछ लेखक होते हैं जिनका अमरत्व और जिनकी याद पुरस्कारों में नहीं - उस एक-दो इंच जमीन से जुड़ी होती है, जिसे उन्होंने अपने लेखन से आगे बढ़ाया है, पुरानी सीमाओं को लाँघ कर अजानी धरती पर जाने का जोखिम उठाया है। आनेवाले वर्षों में हम जब कभी रामचंद्र शुक्ल, निराला, अज्ञेय या शमशेर के बारे में सोचेंगे, तो हमारे चिंतन के बीच मलयज मौजूद रहेंगे; मलयज ने इन लेखकों के कृतित्व पर जो गहरा प्रकाश डाला था, वह आज स्वयं मलयज की स्मृति के साथ जुड़ गया है। हमारी सोच अनिवार्यत: मलयज के प्रति कृतज्ञता से जुड़ी होगी क्योंकि हर आनेवाली पीढ़ी को आधुनिक साहित्य के मर्म को समझने के लिए जाने-अनजाने जमीन के उस टुकड़े पर चलना होगा, जिसे मलयज ने अपने मुखर चिंतन और अपूर्व निष्ठा से तैयार किया था।
यह क्या कम पुरस्कार है, मलयज के लिए न सही, हमारे लिए, हम सबके लिए?
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