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निबंध


हिंदी कविता की तीसरी धारा
मुकेश मानस

Mukesh manash मुकेश मानस
मुकेश मानस
हिंदीसमयडॉटकॉम पर उपलब्ध

आलोचना
हिंदी कविता की तीसरी धारा

जन्म

:

15 अगस्त 1973, बुलंदशहर,  उत्तर प्रदेश

भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, कहानी, आलोचना
प्रमुख कृतियाँ : कविता संग्रह : पतंग और चरखड़ी, काग़ज़ एक पेड़ है

कहानी संग्रह : उन्नीस सौ चौरासी
आलोचना : हिंदी कविता की तीसरी धारा
पत्रकारिता : मीडिया लेखन : सिद्धांत और प्रयोग
अनुवाद : व्हाई आई एम नाट ए हिंदू (कांचा इलैया), इंडिया इन ट्रांजिशन (एम.एन. राय)
संप्रति : सत्यवती कालेज, दिल्ली में एसोशिऐट प्रोफेसर

संपर्क

: हिंदी विभाग, सत्यवती कालेज, अशोक विहार, फेस-3, नई दिल्ली -110052
टेलीफोन : 09873134564

ई-मेल

:

mkumar@satyawati.du.ac.in, mukeshmaanas@gmail.com

आजाद भारत के पूर्व 'तेभागा और बाद में 'तेलगाना' के बाद नक्सलबाड़ी विद्रोह बड़ा और व्यापक किसान विद्रोह है। इसने भारतीय समाज के राजनीतिक परिदृश्य पर क्रांतिकारी वाम चेतना को संभव बनाया। इस आंदोलन की व्यापकता के फलस्वरूप हिंदी कविता में क्रांतिकारी वाम चेतना से लैस कविता के तीसरे संसार की उत्पत्ति हुई जिसने पिछले शीतयुद्धीय और पूँजीवादी राजनीति से प्रभावित, दिग्भ्रमित और दिशाहीन साहित्यांदोलनों के जाल को काटा और प्रगतिशीलता और जनवादी कार्य का न केवल विस्तार किया बल्कि जन कला और जन साहित्य के नए प्रतिमान रच कर उसे नए मायने भी दिए।

प्रगतिवादी कवि मुक्तिबोध की एक बहुत महत्वपूर्ण मगर एकदम अचर्चित कविता है - 'भूल-गलती'। यह कविता मुक्तिबोध ने 1963 में लिखी थी और अप्रैल 1964 की 'कल्पना' में प्रकाशित हुई थी। इस कविता की आखिरी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :

हमारी हार का बदला चुकाने आएगा

संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर

हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर

प्रकट हो कर विराट हो जाएगा [1]

संकल्प-धर्मा चेतना यानी दुनिया बदलने की दृष्टि और संघर्ष करने की चेतना। मुक्तिबोध की यह कविता महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह आजाद भारत में संकल्प-धर्मा चेतना के एक अध्याय के अवसान और दूसरे की शुरुआत और उसके प्रकट हो कर विकट हो जाने की क्रांतिकारी आस्था को रेखांकित करती है। तेलंगाना किसान विद्रोह जब अपने चरम पर था तब भाकपा के मध्यमार्गियों ने उसे भूल-गलती का जिरह बख्तर पहन कर कठघरे में खड़ा कर दिया। इसी संकल्प-धर्मा चेतना का कोई रक्तप्लावित स्वर प्रकट हो कर विकट हो जाएगा, यह मुक्तिबोध की कोई भविष्यवाणी नहीं थी बल्कि समाज बदलाव को साकार करने की जनता की संघर्ष क्षमता के ऐतिहासिक क्रम से विकट हो कर प्रकट होने की अभिव्यंजना है। यह गुप्त स्वर्णाक्षर नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ और उसने भारतीय राजनीति और सहित्य के परिदृश्य को पूरी तरह से बदल ड़ाला।

भारत में समाजवादी विचारधारा के प्रसार, पहले से चली आ रही जनवादी साहित्य की परंपरा के विकास और वामपंथी आंदोलन के प्रभाव के कारण साहित्य में प्रगतिवादी आंदोलन की शुरुआत हुई। साहित्य के राजनीतिक सरोकार, वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा के प्रति प्रतिबद्धता, व्यवस्था परिवर्तन और क्रांति जैसे विषयों पर वैचारिक मंथन आरंभ हुआ। परिणामस्वरूप प्रेमचंद जैसे महान लेखकों के समर्थन से प्रगतिशील लेखक संघ' (प्रलेस) की स्थापना हुई और साहित्य के जनवादी सरोकारों पर स्पष्टता बनी।

छठे दशक की सर्द हवाओं में वामपंथ की मूलधारा अपनी ऊष्मा बरकरार नहीं रख सकी। जनसंघर्षों की अविराम क्रम से पराजय और समझौतों की दुष्चक्रीय निराशा के बाद प्रलेस के प्रभावकारी सांस्कृतिक आंदोलन का रास्ते से भटकना स्वाभाविक ही था। इसके साथ ही इसकी कार्य-सूची से क्रांतिकारी परिवर्तन की सहगामिनी सांस्कृतिक चेतना के निर्माण और नई परिस्थितियों के अनुरूप सांस्कृतिक संगठन के इतिहास-सम्मत कार्य का निकल जाना इसकी अनिवार्य परिणति थी। [2]

प्रलेस की वैचारिक प्रतिबद्धता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के साथ थी और इसलिए प्रलेस के इस भटकाव और पतन को भाकपा के इतिहास और कामकाज के परिदृश्य में समझना ज्यादा आसान होगा। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भाकपा ने देश भर में उमड़ रहे किसान विद्रोहों को समाजवादी विचारधारा व सांगठनिक चेतना से लैस करने और उन्हें व्यापक जनसमूह से जोड़ने की पहलकदमी की। यह उचित भी था क्योंकि भारत के इतिहास में किसान विद्रोहों की एक लंबी और अविस्मरणीय कड़ी रही है। बारासात के तितु मीर, सिद्धू कानू और बिरसा मुंडा के नेतृत्ववाले किसान विद्रोहों से भी बहुत पहले से किसान संघर्षों की एक लंबी श्रृंखला नक्सलवाड़ी किसान विद्रोहों तक चलती चली आई है। यह श्रृंखला आज भी भले ही सतह पर न दिखाई देती हो किंतु पृष्ठभूमि में यह अनवरत चल रही है। किसान हमेशा से सामंतों और सरकार दोनों के खिलाफ लड़ते आए हैं। लड़ाई भले ही स्थानीय शोषकों के खिलाफ शुरू हुई हो किंतु अपनी चरम परिणति में ये संघर्ष सत्ता विरोधी ही रहे हैं। सन 1947 का किसान विद्रोह इसका सशक्त उदाहरण है। इन किसान विद्रोहों में हमला करने की चेतना ही नहीं बल्कि अपनी समानांतर सत्ता बनाने की समझ भी बुनियादी तौर पर मौजूद थी। यह भी देखने में आता है कि ये सभी संघर्ष स्वत:स्फूर्त ढंग से ही चलते रहे और खत्म भी होते रहे, किंतु इनके बार-बार उठने की श्रृंखला कभी नहीं टूटी।

'तेभागा' और 'तेलंगाना' आंदोलन भाकपा की पहलकदमी की सफलता के प्रतिमान हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक पहले से ले कर पहले आम चुनावों के बीच चलाए गए 'तेभागा' और 'तेलंगाना' विद्रोह किसान संघर्षों के अविस्मरणीय अध्याय हैं। खेतिहर क्रांति को ध्यान में रख कर चीनी क्रांति के अनुभव को आत्मसात करता हुआ तेभागा आंदोलन एक पहला प्रयोग था। फसल के बँटवारे, लगान चुकाने की प्रक्रिया, फालतू वसूली तथा किसानों और जमींदारों के बीच विषमतापूर्ण संबंधों के खिलाफ बंगाल में चलाया गया 'तेभागा' संघर्ष एक नई तरह की आजादी की दिशा में पहला कदम था। [3]

1946 से 1951 के बीच चलाया गय 'तेलंगाना' किसान आंदोलन तेभागा से बड़ा और व्यापक जनाधारवाला किसान विद्रोह था। आंध्रप्रदेश में 'बैठी प्रथा' के जरिए दलितों के बर्बर शोषण और जमीन के विषमतापूर्ण संबंधों के खिलाफ इस आंदोलन ने जोर पकड़ा। इस आंदोलन का जनाधार दलित और आदिवासियों की बहुसंख्या थी। किसानों के गुरिल्ला दस्तों ने निजामशाही के दमन और जमींदारों की लूट के खिलाफ संघर्ष चलाते हुए तीन हजार गाँवों को अपने कब्जे में ले कर वहाँ का प्रशासन ग्राम राज्य कमेटियों को सौंप दिया था। सशस्त्र सघर्ष के रूप में चलाया जानेवाला यह पहला दीर्घकालिक भारतीय किसान विद्रोह था। निजाम की रियासत को भारतीय संघ में मिलाने के लिए हुए समझौते के तहत भारतीय फौजों ने तेलंगाना के वीर दलित और आदिवासी किसानों, ग्राम राज कमेटियों और कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं पर अमानवीय अत्याचार किए, तानाशाही नृशंसता की वापसी की और जमींदारी शासन की कुव्यवस्था को पुनर्स्थापित किया। दमन और उत्पीड़न से घबरा कर मध्यमार्गियों के दवाब में आंदोलन उस समय वापस ले लिया गया जब किसानों ने स्थानीय मुद्दों से ऊपर उठ कर राजसत्ता का सवाल उठाना शुरू कर दिया था।

तेलंगाना आंदोलन को लगे धक्के का बहाना बना कर कम्युनिस्ट पार्टी के मध्यमार्गियों ने चीनी क्रांति के महत्व को ठुकरा दिया और 'शांतिपूर्ण ढंग से समाजवाद में संक्रमण' की नीति अपना कर नए नेतृत्व ने नेहरूवादी सरकार के खिलाफ लोकशाही सरकार बनाने का नारा दे कर पार्टी को संसदीय जनवाद के रास्ते पर ढकेल दिया। [4] आज उसका संसदीय जनवाद केवल संसदवाद बन कर रह गया है। धीरे-धीरे पार्टी के एजेंडे से जनसंघर्षों को संगठित करने का विचार भी गायब हो गया। पहले से चले आ रहे अंतर्निहित अंतर्विरोधों के कारण पार्टी विभाजित हो गई।

सशस्त्र संघर्ष का नारा देने के बावजूद नई पार्टी भाकपा (मार्क्सवादी) भी भारतीय किसानों और मजदूरों की आकांक्षा के अनुरूप नेतृत्व दे पाने में असमर्थ रही। उसने भी चुनावों में हिस्सा ले कर संसदीय जनवाद के रास्ते को चुना। बंगाल में सरकार बनाने और व्यापक जनाधार के बावजूद यह पार्टी भी किसानों के हित में उपयुक्त भूमि सुधार लागू करवा पाने में असमर्थ रही।

माकपा की स्थापना के बाद से ही सशस्त्र संघर्ष के पैरोकार चारु मजूमदार, कानू सान्याल, सौरेन बोस, सरोज दत्त आदि नेताओं ने उसके सूत्रीकरणों की आलोचना शुरू कर दी थी। इसी बीच चारु मजूमदार ने आठ ऐतिहासिक दस्तावेज लिखे। पहले पाँच दस्तावेजों में उन्होंने माकपा को क्रांतिकारी संगठन में तब्दील करने की कोशिशों को ही रेखांकित किया है। बाद के तीन दस्तावेजों में उनके माकपा से मोहभंग और नई पार्टी की धारणा की तरफ आने के संकेत मिलने लगते हैं। माकपा के रवैए के खिलाफ किसानों और मजूदरों में असंतोष बढ़ रहा था। 1967 के मार्च महीने में नक्सलबाड़ी इलाके के किसानों ने जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। यह किसान संघर्षों के नए अध्याय का आरंभ था जिसे 'वसंत का वज्रनाद' की संज्ञा दी गई। कुछ राजनीतिक विचारकों ने इसे 'उग्र वामपंथी आंदोलन और चेतना' की शुरुआत भी माना। धीरे-धीरे यह आंदोलन दावानल की तरह पूरे देश में फैल गया। कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने एक नई विचारधारा को अपना कर सशस्त्र संघर्ष के रास्ते का समर्थन किया। बकौल मुक्तिबोध, संकल्पधर्मा चेतना का गुप्त रक्तप्लावित स्वर इस आंदोलन के रूप में ही दावानल की भाँति प्रकट हो कर पूरे देश में फ़ैल गया।

नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत ने भारतीय समाज और राजनीति में व्यापक बदलाव की आकांक्षा को रेखांकित किया। परिवर्तन का यह मोड़ राजनीति और साहित्य दोनों में साथ-साथ देखने को मिलता है। नक्सलवाड़ी परिघटना ने कम्युनिस्ट आंदोलन में व्यापक बदलाव के लिए संसदीय मार्ग और सशस्त्र संघर्ष के बीच अरसे से चल रही बहस को क्रांति के पक्ष में निर्णय तक पहुँचाया। इस आंदोलन ने पहली बार किसानों की असीमित, अग्रगामी क्रांतिकारी चेतना और संगठन क्षमता का उद्घाटन किया। इस आंदोलन ने पहली बार दलितों और स्त्रियों की मुक्ति और राज्यों की स्वायत्तता के प्रश्न को परिदृश्य पर पूरे सामाजिक और मानवीय सरोकारों के साथ प्रकट किया और उनके संघर्ष को व्यापक समाज बदलाव का हिस्सा माना। भारतीय समाज और शासक वर्ग की नई व्याख्याएँ प्रस्तुत की गईं और क्रांतिकारी जनवाद की धारणा सामने आई। ऊपर से देखने में यह आंदोलन आज बिखरा हुआ और अनेक गुटों में विभाजित दिखता है किंतु पृष्ठभूमि में यह आज भी भारत का सबसे बड़ा किसान आंदोलन है जो अपने अनेक रूपों के साथ भारतीय राजनीति के परदे पर मौजूद है।

प्रलेस की विचारधारात्मक प्रतिबद्धता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ी हुई थी। भाकपा के संसदीय मार्ग अख्तियार कर लेने पर उस की प्रतिबद्धता भी ढीली पड़ गई। वह नई चुनौतियों के सामने लड़खड़ाने लगा। कई विसंगतियों और संकीर्णताओं में उलझा प्रलेस 1953 के बाद जड़ता का शिकार हो गया। [5] प्रलेस के विघटन के बाद साहित्यकार आधुनिकतावादी साहित्य के दवाब में आ गए। गहराते राजनीतिक संकट, बढ़ते जन असंतोष और आमूल क्रांतिकारी दिशा के अभाव के कारण साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी अराजकता पनपने लगी जिसका विचारात्मक नेतृत्व विश्व पूँजीवादी संस्कृति के निहायत ही पतनशील संस्करण कर रहे थे। कविता की मुख्य धारा अकविता के रूप में उद्धत और बेहूदा बयानबाजी के साथ आम तौर पर समाज, संस्कृति और राजनीति के समूचे निषेध और हवाई विद्रोह का माध्यम बन गई। शोषक वर्ग की राजनीति ने अकविता और असहित्य के तमाम मसीहाओं को देह की दलदल में कैद कर दिया। [6]

नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह से जनमी अपार क्रांतिकारी ऊष्मा ने हिंदी और भारतीय कविता के पूरे परिदृश्य को बदल डाला। बाँग्ला, तेलुगू, मलयालम, पंजाबी, मराठी, कश्मीरी, उड़िया, कन्नड़, असमिया आदि भाषाओं की कविताओं में एक नया सुर सुनाई पड़ने लगा। नेपाली और बाँग्लादेशी कविता पर भी इसका प्रभाव पड़ा। यह कोई संयोग की बात नहीं है कि देश की जनता 1965-67 के जिस काल में कांग्रेस की सत्ता को ठोस चुनौती दे रही थी, उसी के आस-पास हिंदी में लघु-पत्रिकाओं का आंदोलन जोर पकड़ रहा था।[7] नए-नए जनवादी रचनाकार उसके माध्यम से सामने आने लगे थे। आधुनिकतावादी साहित्यांदोलनों की तिकड़मों से बाहर आ कर शीतयुद्धीय राजनीति के प्रचारक रचनाकारों के मुखौटों को नंगा कर सैकड़ों नए रचनाकार नए संदर्भ में नए तेवर की जमीन तोड़ते दिखाई पड़ने लगे। अनेक पुराने प्रगतिशील कवियों की प्रगतिशीलता फिर से जाग उठी और क्रांतिकारी चेतना से लैस नए कवियों की पीढ़ी अस्तित्व में आई। क्रांति और व्यापक समाज बदलाव की दिशा में कविता और कवि की प्रतिबद्धता की व्याख्या फिर से की जाने लगी।

सुप्रसिद्ध कहानीकार और 'पहल' के संपादक ज्ञानरंजन ने लिखा है कि सातवें दशक के उत्तरार्ध में भयावह सामाजिक परिस्थितियों, राजसत्ता की असफलताओं और क्रूरताओं के प्रतिरोध में उभरी लड़ाइयों ने जब देश की चेतना को गुणात्मक स्तर पर बदलना शुरू किया तो एक और तरह की कविता की जरूरत पैदा हुई। इस बदली हुई चेतना ने हिंदी में निरपेक्ष, तटस्थ, ठंडी, व्यक्तिवादी और स्वायत्त कविता को या तो कठिन या हास्यापद बना दिया। मुक्तिबोध जिसे 'सच का पूरी तरह से बाहर आना' कहते थे, वह इस परिवर्तन के बाद ही कायदे से शुरू हुआ। [8] ठंडी, तटस्थ और शोषक वर्ग की पक्षधर कविता की जगह एक नई तरह की कविता की जरूरत दरकार हुई और कविता की यह धारा जिसे हम हिंदी कविता की तीसरी धारा के रूप में जानते हैं नक्सलबाड़ी आंदोलन के गर्भ से ही उत्पन्न हुई।

नई कविता : नए मायने

हिंदी में भी इस आंदोलन ने नए गायकों को जन्म दिया और वे 1970 में कलकत्ता से महेश्वर के संपादन में 'शुरूआत' काव्य संग्रह से सामने आए। वे शुरुआत करते हैं विद्रोह के शब्दाडंबर से अलग जन विद्रोहों और जन सरोकारों को कविता में तरजीह देने की, रचनाकारों के आत्मप्रद परिस्थितियों से उबर कर क्रांतिकारी चेतना और जनसंघर्षों से एकमेक होने की, तमाम भाषाई प्रवाद को काट कर सुस्पष्ट, धारदार और जनपक्षधर भाषा की। इन कवियों की कविताएँ उस समय हिंदी में हो रहे बदलाव का माकूल सबूत हैं। इन कवियों के जरिए उग्र वाम चेतना को हिंदी कविता में पहली बार भाषा मिली। इनकी क्रांतिकारी चेतना के कारण अकविता का धुँधलका छँटने लगा।

तुम्हें दो चार की खुशी के लिए

प्यारा है हजारों की मौत का कानून

और हमें लाखों-करोड़ों की खुशी के लिए

प्यारा है दो-चार का खून [9]

नक्सलबाड़ी आंदोलन की उठान के पहले दौर से 'शुरुआत' के कवियों ने साहित्य में उपस्थित अंतर्विरोधों और सुधारवादी नजरिए के वैचारिक धरातल से अपने को अलग किया और प्रगतिशीलता व प्रगतिशील साहित्य को नए मायने दिए। उनके दुविधाविहीन स्वर ने पतनगामी वाम आंदोलनों के वैचारिक आधार पर चोट की और उसे बुरी तरह से तोड़ डाला। इस विषय में 'शुरुआत' के ही एक कवि उग्रसेन लिखते हैं :

नहीं , अब जरूरी हो गया है

ले लेना निर्णय

कि साँस लेने भर की राहत के लिए भी

हमें यह सारी सख्त चट्टानें तोड़नी होंगी [10]

'शुरुआत' के कवियों की कविताओं का स्वर तीखा और वामपंथी राजनीतिक चेतना का क्रांतिकारी जेहाद है। वे अपने संघर्षमय जीवन के कारण के पक्ष में खड़े हुए। उन्होंने नक्सलबाड़ी की तर्ज पर देश भर में हो रहे सर्वहारा के क्रांतिकारी अमल से डरने के बजाय उसमें आगामी पीढ़ियों और समूचे देश का भविष्य देखा। इसलिए उनकी कविताएँ आत्मा के मनोजगत में बसनेवाले किसी लखटकिए कवि का सत्य नहीं बल्कि क्रूर सत्य हैं और शोषण और दमन पर टिकी व्यवस्था को खुली चुनौती हैं। किंतु ये कवि कई कारणों से अपनी रचनाशीलता को कविता में बनाए नहीं रख सके। कुछ की असमय मौत हो गई और कुछ साहित्य की अन्य विधाओं की ओर मुड़ गए। इनके बाद मंगलेश डबराल, विष्णुचंद्र शर्मा, आलोकधन्वा, वेणुगोपाल, कुमार विकल, महेश्वर, गोरख पांडेय, पंकज सिंह, शिवमंगल सिद्धांतकर, वीरेन डंगवाल, नीलाभ, कुमारेद्र पारसनाथ सिंह, ज्ञानेद्र पति, त्रिनेत्र जोशी आदि कवियों की एक नई और मजबूत पीढ़ी सामने आई जिसने कविता के क्षेत्र में कविता की तीसरी धारा की बुनियाद को न सिर्फ मजबूत किया बल्कि उस पर भव्य इमारत भी खड़ी की।

'शुरुआत' के कवि कोई तटस्थ कवि नहीं थे बल्कि क्रांतिकारी चेतना से लैस कवि थे। उनका मानना था कि क्रांतिकारी साहित्य जनांदोलनों और जनसंघर्षों की उपज होता है प्रगतिवादी आंदोलन के बाद दूसरी बार किसान-मजदूर व निम्न वर्ग उनकी कविता में अपनी आशा-निराशा, कुंठा-पराजय, आकांक्षा-सपने और संघर्ष के बहुतेरे रंगों को ले कर प्रकट हुए। यहाँ कुछ अतियाँ भी हुई। जैसे, संघर्ष के चित्रण का मुख्य स्वर सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा के दायरे में ही सिमटने लगा और जन-जीवन की व्यापक अभिव्यक्ति पीछे छूटती गई।

इमरजेंसी के बाद आंदोलन के दूसरे दौर के कवियों ने अपनी पहले की अनेक कमजोरियों पर काबू पाने की कोशिश की। जनता की व्यापक चेतना से जुड़ने और उसके जनसंघर्षों में शामिल होने से कवियों में पहले की भावात्मक स्फीति कमतर हुई। वे समझने लगे कि कविता से बंदूक का काम नहीं लिया जा सकता। जनता की सौंदर्य चेतना की समझ के अभाव में कविता को बयानबाजी में बदल जाने की संभावना ज्यादा होती है। बाद के कवियों ने जन-जीवन की यथार्थवादी परिस्थितियों, उसके सौंदर्य बोध और संघर्ष चेतना को अपनाने की ओर बढ़ते हुए अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं के तोड़ते हुए जनता की बोली, धुनों और मुहावरों को अपनाया और उन्हें परिष्कृत रूप में ढालने की कोशिश की। रचनाओं को जनता के लिए संप्रेषणीय बनाने के लिए गंभीर और जरूरी प्रयास किए गए। रूप और वस्तु व विचार और अनुभव के द्वंद्वात्मक सामंजस्य को जोर बढ़ने लगा [11]

तीसरी धारा के काव्य सरोकार

सातवें दशक के उत्तरार्ध से ले कर नवें दशक के प्रारंभ तक हिंदी कविता में स्पष्ट रूप से तीन अलग-अलग संसार दिखाई पड़ते हैं। [12] पहला संसार उन लोगों का था जिन्होंने भूखे, नंगे, फटेहाल लोगों को कविता की दुनिया से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया था। इन लोगों ने अपने आस-पास के संसार, समय और समाज से परे कविता की एक स्वायत्त दुनिया बसा ली थी। प्रेम, रति और मृत्यु जैसे शाश्वत विषयों को ले कर ही वे कविताएँ लिख रहे थे। इनका काव्य शिल्प अत्यंत ही जटिल और दुर्बोध था। जीवन तथा समाज से कटा यह संसार शासक वर्गों के मूल्यों और अभिररुचियों से प्रभावित और परिचालित था। कविता का दूसरा संसार ऐसे कवियों का था जिनका चरित्र पूरी तरह से मध्यवर्गीय था। परंतु वे सब धरातल पर वामपंथी राजनीति, मार्क्सवाद और सामान्य जनों के प्रति सहानुभूति रखते थे। इन कवियों की पीड़ा यह थी कि वे अपनी सामाजिक और वर्गीय स्थिति को भी सुरक्षित रखना चाहते थे। व्यवस्था के दमन, अन्याय और अत्याचार से बचने के लिए तथा उससे किसी न किसी रूप में जुड़े रहने के लिए इन लोगों ने प्रतीकात्मकता की शैली अपनाई तथा सामाजिक संघर्षों और यथार्थ का अमूर्तीकरण किया। व्यापक जन समाज और संघर्ष के मूल प्रश्नों से कटे मध्यवर्गीय महानगरीय बोध का यह संसार अपने घर-परिवार, आस-पड़ोस तथा व्यक्तिगत सुख-दुख की सीमा में सिमटा सिकुड़ा रहा। कविता का तीसरा संसार ऐसे कवियों का था जो तत्कालीन जनसंघर्षों से पूरी तरह जुड़े रहे। उन्होंने सत्ता के क्रूर दमन का कविता और जीवन दोनों में खुल कर विरोध किया और मजदूरों, किसानों की जीवन परिस्थितियों और उनके संघर्षों को अपनी कविताओं का केंद्रबिंदु बनाया।

हिंदी कविता की तीसरी धारा के कवियों की चिंता एक-सी है। इनका काव्य सरोकार भी एक-सा है परंतु काव्य-वस्तु और काव्य-रूप की दृष्टि से इनमें काफी विविधता है। अपने समय और समाज से रिश्ता भी ये अलग-अलग ढंग से कायम करते हैं। इनकी कविताएँ एक ही विचारधारा, एक ही लक्ष्य और एक ही स्वभाव की दृष्टि से भिन्न हैं। इन कवियों की ये वैविध्य विशेषताएँ नई कविता, अकविता और समकालीन कविता की एक दूसरे की कार्बन कॉपी लानेवाली एकरूपता को मुँह चिढ़ाती है। [13]

प्रगतिवादी आंदोलन के विघटन के बाद भी किसानों और मजदूरों के जीवन पर कविताएँ लिखी जाती रहीं। 'नई कविता' और 'अकविता' स्वातंत्रयोत्तर भारत में उभरते और विकसित होते मध्य वर्ग की आशा-निराशा, कुंठा-संत्रास और अकेलेपन की कविताएँ है। महानगरीय बोध की अधिकता के कारण किसान-मजदूर कविता के हाशिए पर भेज दिए गए। इसकी एक वजह किसानों और मजदूरों के आंदोलन में आया ठहराव भी था। इन कवियों ने ग्राम्य जीवन के चित्र भी उकेरे हैं किंतु उनमें वस्तुस्थिति के रेखांकन के बजाय उसके प्रति रोमानीपन का भाव ही ज्यादा झलकता है। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने जिस प्रकार किसानों और मजदूरों को राजनीति के केद्र में पुनर्स्थापित किया, उनको क्रांति की मूलधारा की शक्ति माना, उसी प्रकार हिंदी कविता की तीसरी धारा के कवियों ने कविता में उनकी रचनात्मक वापसी की। किसानों के जीवन की कटु सच्चाइयाँ अपने तमाम सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों के साथ इन कवियों की कविताओं देखने को मिलती हैं। मसलन भूमि सुधारों के ज़रिए पूँजीवादी शासक वर्ग ने अपने फ़ायदे के लिए सामंतवादी शक्तियों को एक हद तक कमजोर करके अपने साथ सत्ता में भागीदार बना लिया। किसानों को जमीन नहीं मिली और उनका शोषण बदस्तूर जारी रहा। यह स्वातंत्र्योत्तर भारत के किसानों की जो नेहरू के समाजवादी नमूने का समाज बनाने के नारे की असलियत को सामने लाती है और भारतीय किसान का वास्तविक कारूणिक चित्र भी।

खूँटे कहाँ तोड़े गए ?

रस्सी कहाँ काटी गई ?

खूँटे की जमीन भी खूँटेवाले की है

रस्सी भी उसी की बाँटी हुई है

रस्सी खोल देने के लिए सिर्फ कह दिया गया है

जमीन कहाँ दी गई है [14]

तीसरी धारा की कविता ने अकविता के तनावहीन, वायवीय, सर्वनिषेधवादी आक्रोश और दिशाहीन काव्य दृष्टि को चुनौती पेश की। अकविता के मध्यवर्गीय बोध के जाल को काटते हुए इस धारा के कवियों ने सीधे निम्नवर्गीय जनता और उसकी संघर्ष चेतना से संबंध स्थापित किया।

इस नई और जुझारू तेवरवाली कविता के ये कवि सत्ता की अमानवीयता और उसकी क्रूरता के मुखौटे को साहस और निर्भीकता के साथ उघाड़ते हैं। ये व्यवस्था के प्रति अपने आक्रोश और आक्रामकता को जनता के गुस्से और आक्रोश से जोड़ कर हिंदी कविता को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। वे लगातार जनता के दुखों और तकलीफों को अपनी कविता का मुख्य सरोकार बनाते हुए उनके कारणों की तलाश वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों में करते हैं, वे शुरुआत करते हैं शब्दों के विचार-शून्य और विद्रोह के शब्दाडंबर से बाहर जन विद्रोह और जन सरोकारों को तरजीह देने की, आत्मसंघर्ष और आत्मप्रद स्थितियों से उबर कर, जनसंघर्ष और क्रांतिकारी चेतना से एक होने की। इसके पीछे नक्सलवादी आंदोलन से उपजी क्रांतिकारी राजनीतिक चेतना, व्यापक विश्व दृष्टि और एक निश्चित स्वप्न बोध क्रियाशील रहते हैं। गोरख पांडेय की एक छोटी-सी कविता इसी चेतना और स्वप्न बोध को बड़े ही आशापूर्ण ढंग से खोलती है :

 

हमारी यादों में

कारीगर के कटे हाथ

सच पर कटी जुबानें चीखती हैं हमारी यादों में

हमारी यादों में तड़पता है

दीवारों में चिना हुआ

प्यार

अत्याचारी के साथ लगातार

होनेवाली मुठभेड़ों से भरे हैं

हमारे अनुभव

यहीं पर

एक बूढ़ा माली

हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में

फूल और उम्मीद

रख जाता है [15]

सत्ता और व्यवस्था की क्रूरता के चित्र हिंदी कविता में काफी पहले से मिलने लगते हैं। भारतेंदु और उनके सहयोगी लेखकों ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों और कार्यवाहियों का खुल कर विरोध किया था। प्रगतिवादी आंदोलन से संबद्ध कवियों ने भी सामंतवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरोध को कविता का मुख्य स्वर बनाया था। आठवें दशक की कविता में व्यवस्था द्वारा नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह को कुचलने के लिए किए गए भयानक जुल्मों और अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह कम ही देखने को मिलता है। सत्ता और व्यवस्था का यह भयावह और आतंकपूर्ण समय वहाँ एक असहनीय चुप्पी के साथ अनुपस्थित है। जो है वह भी इतना प्रतीकात्मक और बिंबात्मक है कि अपनी प्रासंगिकता भी जाहिर नहीं कर पाता। किंतु तीसरी धारा के कवियों को यह भयानक समय और सत्ता का आतंक एक दु:स्वप्न की तरह झकझोरता है। कुमार विकल और गोरख पांडेय की अनेक कविताएँ इस संदर्भ में गौर करने लायक हैं :

नहीं देखूँगा किस तरह

झूठी मुठभेड़ों के नाम पर

नौजवानों की हत्याएँ होती हैं

और घरों में इंतजार कर रही माँएँ

आँसू सूख जाने के बावजूद रोती हैं [16]

कुमार विकल की कविताओं में 'खूनी नदी' बार-बार आती है और नागार्जुन उन्हें बार-बार-कलकत्ता बुलाते हैं जहाँ नौजवानों की एक समूची पीढ़ी मार डाली गई है। गोरख कलकत्ता हत्याकांड पर 'कलकत्ता 71' लिख कर हजारों 'हजार चुरासीर माँ' जैसी खामोश मँओं की चीखें सुनते हैं। भूख, दमन और आतंक का मिला-जुला रूप उनकी कविताओं में अपने भयावह समय की वास्तविकता बन कर आता है। हर तरफ चल रही गिरफ्तारियों, कत्ले-आम और कर्फ्यू के डरावने शोर के बीच लोकतंत्र के ताबूत से झाँकते तानाशाह के चेहरे की सच्चाई इन कवियों के यहाँ निर्भीकता और साहस के साथ प्रकट होती है :

तानाशाह दद्दो आँधी की तरह

करोड़ों अशांत सिरों के सफाया देश पर

नंगी नाच रही है [17]

इस दौर में जन-जीवन से कटे, मध्यवर्गीय सीमाओं में कविता को कैद करनेवाले कवियों की एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आई जिसमें जन जीवन से जुड़ने की न तो ललक थी, न आकांक्षा। उनके पास बनी-बनाई आस्था तो थी किंतु उसके अनुरूप चलाए जानेवाले जनसंघर्षों के खतरे से वे स्वयं को बचाए रखना चाहते थे। इस प्रकार कविता की मुख्यधारा आभिजात्य वर्ग की सौंदर्याभिरुचि का हिस्सा हो कर एक खास तरह के ठंडेपन, अमूर्तता, प्रतीकात्मकता और मध्यवर्गीय महानगरीय बोध की सीमाओं में सिकुड़ने लगी। जनता के गहरे गुस्से, क्षोभ और तिलमिलाहट से भरी बेचैन कविता की जगह संतुलन और सामंजस्य से भरी, सहानुभूति से युक्त शाश्वत आशावाद की कविताएँ रची जाने लगीं। जनता के उत्पीड़न, संघर्ष और यथार्थ के जटिल बोध की जगह कविता के आकाश को चिड़िया, फूल, पत्तियों से भरा जाने लगा। घर-परिवार, व्यक्तिगत, सुख-दुख में सीमित दृष्टि अपने वक्त की समग्र और वास्तविक पहचान को धूमिल करने लगी, तीसरी धारा के कवियों ने इस मानसिकता से छुटकारा पाया। उन्होंने घर-परिवार, बच्चों व औरतों की त्रासद स्थितियों के लिए जिम्मेदार पितृसत्तात्मक, सामंतवादी, पूँजीवादी, साम्राज्यवादी व उपभोक्तावादी संरचनाओं व संबंधों पर आघात करते हुए उनके संघर्षपूर्ण रूप की अभिव्यक्ति की।

शंख के बाहर खड़ी है माँ

कनपटी पर एक लंबे बाघ की छाया लिए

दहाड़ से माँ की त्वचा फट रही है

नारियल की रस्सियों की तरह लहू बह कर आ रहा है [18]

इन कवियों ने कुंठा, पराजय, मुत्यु-संत्रास और निरर्थकता की जगह जीवन के प्रति आस्था और विश्वास का स्वर प्रबल किया। इनके यहाँ सामाजिक-राजनीतिक परिस्थतियों की स्पष्ट व्याख्या है, उसकी वस्तुगत समझ है। वे सच कहने से कतराते नहीं या प्रतीकात्मकता का आधार ले कर सच को झुठलाते नहीं, बल्कि उनका साहसीपन सच को निर्भीकता से कह देने में है। उनके पास महानगरीय विडंबनाओं, मध्यवर्गीय विद्रूपताओं व निराशापूर्ण माहौल के खिलाफ सामाजिक बदलाव की निश्चित स्वप्नदृष्टि है। अनुभव के आधार पर वे जानते हैं कि सत्ता अपने तमाम भयानकतम हथियारों का इस्तेमाल करने के बावजूद जनता में सुलगती विद्रोह की भावना और नई दुनिया बसाने के सपने को दबा तो सकती है किंतु उसे खत्म नहीं कर सकती। जनता का आंदोलन ठहराव और विभाजन का शिकार होने के बावजूद जनता में सुलगती विद्रोह की भावना और नई दुनिया बसाने के सपने को दबा तो सकती है, किंतु उसे खत्म नहीं कर सकती। जनता का आंदोलन ठहराव और विभाजन का शिकार होने के बावजूद पृष्ठभूमि में चलता रहता है। जनता अपनी रोजमर्रा जिंदगी में सघर्ष करती ही रहती है और उसके हाथ लगातार सत्ता के मानचित्र को पलट देने के लिए उठते ही रहते हैं। वक्त आने पर यही हाथ हथियार भी थाम लेते हैं :

आखिरकार फैसला तो वे हाथ ही करेंगे ,

वे हाथ

जिनमें

वक्त बंदूकें थमा दिया करता है

वे हाथ

जो

लगातार उग रहे हैं

बरस रहे हैं

खेतों मे , खलिहानों में , सड़कों में गलियों में [19]

जनता की अनवरत संघर्ष चेतना से संबद्धता ही इन कवियों को क्रांतिकारी आस्थावाद की ओर ले जाती है और इसके प्रभाव में वे नितांत दमनकारी और निराशा भरे माहौल मे भी अपने शब्दों को अँधेरे में नहीं छोड़ने का निश्चय करते हैं। उनके शब्द अपने भीतर रोशनी की ऊष्मा लिए रहते हैं :

शब्द बोलते हैं सच

शब्दों में छुपता है झूठ और शब्दों में ही मारा जाता है [20]

हिंदी कविता में साठ के दशक के बाद की पीढ़ी के कवियों, पुराने प्रगतिशीलों और जनवादी कवियों पर भी इस परिवर्तन का व्यापक असर देखने को मिलता है। धूमिल की 'पटकथा', रघुवीर सहाय की 'पानी-पानी', सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की 'कुआनो नदी', लीलाधर जगूड़ी की 'नाटक जारी है, और केदारनाथ सिंह की उस दौर की कविताएँ इसी असर और संदर्भ की कविताएँ हैं। पुराने प्रगतिशीलों में नागार्जुन, त्रिलोचन और शमशेर पर भी उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। नागार्जुन की 'भोजपुर', त्रिलोचन की 'नगई महरा', केदारनाथ अग्रवाल के गीत और शमशेर की अनेक कविताएँ इसी तेवर की हैं। जनवादी कवियों में राजेश जोशी, विजेद्र, नरेद्र जैन, कुलदीप सलिल, मनमोहन, इब्बार रब्बी, शलभ श्रीराम और ऋतुराज की कविताएँ भी समकालीन जनजीवन के असंतोष और संघर्ष के गहरे चित्र प्रस्तुत करती है। इसके अलावा ऐसे कवियों पर भी असर पड़ा, जिन्हें आज किसी भी धारा में गिना नहीं जाता है किंतु जो अपने रचना कर्म की दृष्टि और विचार से व्यापक जनवादी धारा से जुड़े हुए हैं।

 

बतौर निष्कर्ष

कविता की तीसरी धारा के कवि निःसंदेह मध्य वर्ग से आए हैं किंतु मध्यवर्गीय सीमाओं को लाँघते हुए इन्होंने न सिर्फ सर्वहारा दृष्टि विकसित की, उसके पक्ष में और उनके बीच रह कर कविताओं की रचना की, अपितु जन-जीवन के विविध रूपों से ओत-प्रोत और साधारण वर्ग में उपस्थित सौंदर्याभिरुचि निश्चित कर सांस्कृतिक राजनीतिकरण करने की ओर कदम बढ़ाए। गोरख पांडेय इसका बेमिसाल सबूत हैं। भोजपुरी में लिखे उनके गीत आज पूरे भारत में जनसंघर्ष का प्रतीक हैं। इन कवियों ने किसानों-मजदूरों, युवाओं, औरतों, दलितों और वंचितों को उनकी वस्तुगत सच्चाइयों और सत्ता के साथ उनके अंतर्विरोधों के रूप में देखा व गहरी मानवीय संवेदना और व्यापक संघर्षशील दृष्टि से परिपूर्ण चित्र प्रस्तुत किए। गोरख पांडेय की 'कैथरकलाँ की औरतें' और आलोकधन्वा की 'ब्रूनो की बेटियाँ' और 'भागी हुई लड़कियाँ' इस संदर्भ की बेमिसाल कविताएँ हैं।

तीसरी धारा के इन कवियों ने रहस्यमय, अस्पष्ट, दिग्भ्रमित और निष्कर्षहीन भाषा संसार की जगह स्पष्ट, सरल और सत्य को व्यापक संदर्भों में अभिव्यक्ति करनेवाली भाषा के संसार का सृजन किया। उन्होंने तथाकथित जनवादी छद्म और जनभाषा की तटस्थ शब्दावली को छोड़ कर उसके समानान्तर काव्यभाषा का एक ऐसा रचनात्मक संसार खड़ा किया जिसमें कवि साकार समूह का आत्मचेतन विस्तार प्राप्त करते हैं। मध्यवर्गीय बोध की जालपूर्ण भाषा के खिलाफ उनकी कविताओं की भाषा इकहरी प्रतीत होती है, किंतु उसमें जन ऊष्मा से परिपूर्ण गहरी मानवीय संवेदना छलक-छलक आती है। उन्होंने जटिल और दुर्बोध काव्यशिल्प की जगह जनता के बीच उपस्थित विभिन्न जन कला-रूपों व शैलियों को खोजा, उनका परिष्कार किया और लोकगीतों से परिपूर्ण गीतों, गजलों व कविताओं की रचना संभव हुई जिसमें रूप और वस्तु के बीच जबरदस्त सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश दिखाई पड़ती है।

कविता की तीसरी धारा के कवि सभी पिछले प्रगतिशीलों से प्रेरणा ग्रहरण कर रहे थे और जनवादी कवियों के समानांतर प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता के धुँधलके को छाँटते हुए जन जीवन की विडंबना और संघर्ष का गहरा चित्रण कर रहे थे। इस संदर्भ में तीसरी धारा के काव्य आंदोलन को प्रगतिवादी व जनवादी कविता से काट कर नहीं देखा जा सकता अपितु इस आंदोलन को उनके क्रांतिकारी विस्तार के रूप में ही समझा जा सकता है। विरसम, अखिल भारतीय क्रांतिकारी लेखक संघ, राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा व जन संस्कृति मंच के उद्भव ने तीसरी धारा के कवियों की वैचारिक क्षमता व सांगठनिक कार्यवाही को कार्य रूप दे कर ही इस आंदोलन को मजबूत किया।

अंत में यह कहा जा सकता है कि आजाद भारत के पूर्व तेभागा और बाद मे तेलंगाना के बाद नक्सलबाड़ी विद्रोह बड़ा और व्यापक किसान विद्रोह है। इसने भारतीय समाज के राजनीतिक परिदृश्य पर क्रांतिकारी वाम चेतना को संभव बनाया और मुक्तिबोध के शब्दों में 'सच की तरह से बाहर लाने' के साहसपूर्ण कार्य को सरंजाम दिया। इसका प्रभाव अन्य चीजों के अलावा साहित्य पर बहुत गहरा पड़ा। इस आंदोलन की व्यापकता के फलस्वरूप हिंदी कविता में क्रांतिकारी वाम चेतना से लैस कविता के तीसरे संसार की उत्पत्ति हुई जिसने पिछले शीतयुद्धीय और पूँजीवादी राजनीति से प्रभावित, दिग्भ्रमित और दिशाहीन साहित्यांदोलनों के जाल को काटा और प्रगतिशीलता और जनवादी कार्य का न केवल विस्तार किया बल्कि जन कला और जन साहित्य के नए प्रतिमान रच कर उसे नए मायने भी दिए।

[1] मुक्तिबोध रचनावली, खंड दो, राजकमल, पृष्ठ 39

[2] सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा, शशिप्रकाश, राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा प्रकाशन, 1984। पृष्ठ 11

[3] नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिंदी कविता, सियाराम शर्मा, पल प्रतिपल - 42, पृष्ठ 138

[4] वही

[5] रचना के सरोकार, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, वाणी प्रकाशन, 1987, पृष्ठ 125

[6] लोहा गरम हो गया है,गोरख पांडेय, जन संस्कृति मंच, 1990, पृष्ठ 50

[7] साहित्य के बुनियादी सरोकार, कर्णसिंह चौहान, पीपुल्स लिटरेसी, 1982, पृष्ठ 156

[8] इस नवा्न्न में, ज्ञानरंजन, संभावना, 1979, भूमिका

[9] शुरुआत, उग्रसेन द्विवेदी, जनवादी साहित्य कला मंच, 1970, पृष्ठ 10

[10] शुरुआत, उग्रसेन, जनवादी साहित्य कला मंच, 1970, पृष्ठ 37

[11] लोहा गरम हो गया है, गोरख पांडेय, जन संस्कृति मंच, 1990, पृष्ठ 55

[12] नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिंदी कविता, सियाराम शर्मा, पल-प्रतिपल - 42, पृष्ठ 155

[13] नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिंदी कविता, सियाराम शर्मा, पल प्रतिपल - 42, पृष्ठ 156

[14] बसंत के बादल, शिवमंगल सिद्धांतकर, किरावल, 1978, पृष्ठ 19

[15] स्वर्ग से विदाई, गोरख पांडेय, जन संस्कृति मंच, 1990, पृष्ठ 41

[16] एक छोटी सी लड़ाई, कुमार विकल, संभावना, 1992, पृष्ठ 76

[17] धूल और धुआँ, शिवमंगल सिद्धांतकर, हिरावल, 1981, पृष्ठ 19

[18] दुनिया रोज बनती है, आलोकधन्वा, राजकमल, 1999, पृष्ठ-39

[19] हवाएँ चुप नहीं रहतीं, वेणुगोपाल, 1980, पृष्ठ 80
[20] आदमी को निर्णायक होना चाहिए, महेश्वर, 1993, पृष्ठ 66

 

 

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