समाजों और देशों का राजनीतिकरण जैसे जैसे ज़्यादा हुआ है, मानवीय मुद्दों का संघर्ष
और तेज़ होने की बजाय ढीला ही पड़ा है। विस्तृत मानवीय समस्याओं पर जब खुल कर बहस
करने का समय आया तो वे सभी समस्याएं एक बृहत संदर्भ में अपना महत्व खोती जा रही
हैं। उन समस्याओं पर बेबाकी से बेझिझक और निडर होकर बात करना मुश्किल हो गया है।
दायरे इतने संकुचित हो गए हैं कि कोई भी विचार अपने पूरे पांव फैला कर वहां बैठ भी
नहीं सकता, छलांग लगाना तो दूर की कौड़ी। किसी भी मुद्दे का राजनीतिकरण एक अच्छी
बात होती है क्योंकि आज किसी भी समस्या को हल करने का एक मात्र उपाय राजनीति ही है।
लेकिन राजनीतिकरण का अर्थ एक खुला मंच न होकर केवल दलीय, वर्गीय, जातीय या धार्मीय
हो कर रह जाए तो भविष्य पर आंखें टिका कर बात नहीं की जा सकती, सिर्फ़ आज की स्थिति
का अपने पक्ष में दोहन ही बच रहता है। ज़रा भी खुला सोचने वाले लोग किसी ऐसे अवसर
की तलाश में बैठे रह जाते हैं कि कब वे अपनी बात बिना लाठी, गोली खाए कह सकें।
मानवाधिकारों की बात करना हास्यास्पद बनता जा रहा है।
पिछले चार सौ सालों के दौरान जो मुख्य इन्सानी लड़ाईयां थीं, उन्हें सीधे तौर पर इस
तरह कहा जा सकता है : उपनिवेशों का आज़ादी के लिये लम्बा संघर्ष, भारत में दलितों
का अस्पृश्यता और अस्मिता का संघर्ष, अश्वेतों का अपनी जानवर से भी बदतर स्थिति
बदलने का संघर्ष। इस काल में तमाम औद्योगिक क्रांतियां हुईं, वैज्ञानिक आविष्कार
हुए, ब्रह्माण्ड की नई स्थितियां उजागर हुईं, मानवाधिकारों की दुदंभि बजाने वालों
की फौज भी तैयार हुई और साथ ही, मानवीय उत्पीड़नों और अतिक्रमणों की अनदेखी करते
हुए विकास की नींव रखी गई। जिस विषय में सब से अधिक लिखा, सोचा और किया जाना चाहिए
था, उसी विषय को इतना दबा कर रखा गया जैसे यह कोई दैवी प्रकोप हो और हम क्षुद्र
मानव इस स्थिति में क्या कर सकते हैं। पेड़ों और पशुओं तक के उत्पीड़न की बात हुई,
मगर अश्वेतों और दलितों के शोषण और उत्पीड़न की बात ही नहीं की गई। न्याय और अन्याय
की बात सिर्फ़ उन्हीं लोगों तक सीमित रही जो विधान की रचना में हिस्सेदार बने रहे।
इन तीन संघर्षों के अतिरिक्त वर्ग संघर्ष सब से अधिक विस्फोटक और चमकदार रहा, जिस
में खूनी क्राँतियां भी शामिल हैं। मध्यपूर्व का ईसाई-यहूदी, मुस्लिम-यहूदी संघर्ष
भी इसी समय के दौरान सुर्खियों में रहा। दोनों विश्वयुद्ध - यूरोप के आपसी वैमनस्य
और लालच से पैदा होने के कारण मानवीय संघषों का दर्जा नहीं पा सकते। इन संघर्षों
में अश्वेतों और दलितों का संघर्ष अभी तक जारी है, अनिर्णित है। मध्यपूर्व का
संघर्ष केवल एक राजनीतिक मोहरा बन कर रह गया है। उस का मानवाधिकारी स्वरूप अब
धुंधला पड़ता जा रहा है।
उपनिवेशों की स्वतन्त्रता, अश्वेतों की अकथ व्यथा और दलितों के हज़ारों वर्षों के
दमन शमन ने संसार को महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग और बाबा साहेब आंबेडकर सरीखे
नेता दिए। इन तीनों ने अपने अपने समय में अपनी अपनी धारणाओं और सोच के मुताबिक एक
साहसी संघर्ष का रास्ता दिखाया। आज तीनों ज़िन्दा होते, तो परिस्थितियों के बदल
जाने पर वे अन्य कोण अपनी सोच में जोड़ते और बदली हुई परिस्थितियों की सप्तवर्णी
में और रंग उभरते। परिस्थितियां बदली हैं, इस में शक नहीं। आज लगभग सारी दुनिया
आज़ाद है। अश्वेत अपने अश्वेत होने पर गर्व करते हैं और दलित बाहरी तौर पर ही सही,
अस्पृश्य नहीं रहे। ऐसे हालात में हम अपने कुछ भी होने या न होने की ज़िद छोड़कर
देखें कि हमारा संघर्ष कहां हमें शक्तिशाली बनाता है और कहां हमें कमज़ोर भी करता
है। हमें वे बातें साफ़ करनी हैं जो हमारे संघर्ष के विस्तार को कम करती हैं, खुले
रास्तों की नाकाबन्दी करती हैं, दूर तक दिखने वाले आकाश के फैलाव को छोटा करती हैं।
वे बातें भी कहनी हैं जो उदारवादी पाखण्ड को बेनकाब करती हैं और एक षड़यन्त्रकारी
ढंग से हमारे अपमानों-अवमाननाओं की दुर्ग दीवारों को और पक्का करती हैं।
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चार अप्रैल मार्टिन लूथर किंग का शहीदी दिवस है। 1968 में उन की हत्या की गई थी,
1968 से आज तक चालीस वर्ष हो गए। सिविल राइट्स का जमाना यानी पचास और साठ का दशक
अमरीकी मानस को तरह तरह से रौशन रखता है। आस निरास आमने सामने रह कर एक दूसरे से
आंख नहीं चुराते। दोनों ही सच थे - आस भी, निरास भी। लेकिन आज जब हम मार्टिन लूथर
को याद करते हैं तो उनके बेटे, बेटी और उन का अश्वेत समाज बदले हुए लहज़े में बात
करते हैं। गोरों का नस्लवादी रवैया उन्हें आज भी एक संघर्ष की स्थिति में बनाए रखता
है। लेकिन उन के रवैये में उन की शक्ति का गर्व कम, असमंजस की स्थिति ज़्यादा है।
इसी तरह काले अमरीकियों में अपनी मान्यता के अहसास के साथ साथ एक कटु आभास अपनी ही
पारिवारिक और सामूहिक कमज़ोरियों का भी है। वे हारना नहीं चाहते। अपनी ही
कमज़ोरियों की वजह से वे ये लड़ाई हारना नहीं चाहते। उन की लड़ाई जारी है 1861 से,
जब से अब्राहम लिंकन ने काले अमरीकियों को गुलामी से आज़ाद कराया। संविधान के
तेरहवें संशोधन के अन्तर्गत सारे अमरीका में गुलाम प्रथा को कानूनन समाप्त कर दिया
गया था।
1672 से लेकर जब वर्जीनिया में पहला गुलामों भरा जहाज़ इस धरती पर उतरा था, 1861 तक
की गुलामी उन्हें अपनी नियति ही लगती थी। बहुत से गुलाम भरपूर वफ़ादारी का (गुलाम)
जीवन जीते थे। अपने स्वामी की पूरी ईसाईयत से सेवा करना अपना धर्म समझते थे, भले ही
ऐसे ईसाई गुलामों की संख्या बहुत कम होगी। अधिकतर को जिस तरह के ज़ुल्मों को सहना
पड़ता था, वहां मन और शरीर दोनों मर जाते थे। एक मशीनी ज़िन्दगी सुबह से शाम तक के
काम की और इस बीच कब और कितने कोड़े जिस्म के किस हिस्से को लहूलुहान कर जाएं, इस
का हिसाब उन का शरीर भी नहीं रखता होगा। जो गुलाम अपने स्वामियों के दयावान होने का
भ्रम पाले रखते थे, उन का मोहभंग भी कभी न कभी ज़रूर होता था। एक गुलाम औरत अपने
मालिक और दयावान मालकिन को क्या कहे जब एक सुबह उसका सात वर्ष का बच्चा एक व्यापारी
के हाथों थोड़े से पैसों के लिए बेच दिया जाए? एक घोड़ा खरीदने के लिए दो एक गुलाम
बच्चे बिक भी जाएं तो घर में चीज़ों की कमी नहीं आती। कानून उन्हें नागरिक नहीं
मानता था, मालिक उन्हें इन्सान नहीं मानता था। 1861 को कानूनी तौर पर आज़ादी का
ऐलान एकदम भौंचक कर देने वाली स्थिति थी। काले अमरीकी क्या करें, अपने पैरों पर
खड़े होने के लिए क्या करें? उन्हें सिर्फ़ घरों से मुक्त किया गया था। सामाजिक
अधिकार उन्हें कोई नहीं दिया गया। बल्कि पहले से ज़्यादा मुश्किल स्थिति बन गई।
पहले वे गोरों के घरों में खेतों खलिहानों में, व्यापारों में उनके साथ रहते थे। अब
वे अलग और साधनहीन थे। बिल्कुल अलग। छोटे बड़े घेटो बनते गये, काली बस्तियां। हर
तरह से काली। छोटे मोटे काम धंधे जैसे कैसे भी हुए, शुरू किये। लेकिन इस प्रक्रिया
में उन काले अमरीकियों का समाज बिल्कुल बिखर गया, टूट गया। पहले गुलाम थे। अब आज़ाद
होकर सारे गोरे समाज की घृणा का पात्र बन गए। कहीं किसी बात की कोई सांझ नहीं, कोई
नागरिक अधिकार नहीं। शिक्षा और रोज़गार की स्थितियां बनते हुए जब एक देश को आज़ादी
के बाद आधी सदी लग जाती है तो एक साधनहीन मानवसमूह को अपने पैरों पर खड़ा होने में
कितना समय लगेगा, इस बात का अन्दाज़ा आज की स्थितियों से लगाया जा सकता है। आज़ादी
के सौ बरस बाद मार्टिन लूथर का सिविल राईट्स आंदोलन इसी बात का प्रमाण है। सौ वर्ष
बाद ऐसा आंदोलन कि हमें साथ बैठने दो, साथ पढ़ने दो, हमारे बच्चों को भी उन्हीं
स्कूलों में जाने दो। हमें भी अपने गली-मुहल्लों में घर बनाने दो, हमें भी उन्हीं
सड़कों पर चलने दो। हम भी ईसा मसीह को मानते हैं, हमें भी उन्हीं चर्चों में जाने
दो। हमें नौकरी पर गोरों से आधी मजूरी मत दो, हमें अपनी पुलिस की लाठियों, गोलियों
से बचाओ। कानून, कचहिरयां हमारे लिए भी हों। ऐसा आंदोलन उन की आज़ादी के सौ वर्ष
बाद क्या दिखाता है? काला समाज अपनी परम्पराओं को बचाता हुआ, नई परम्परायें बनाने
में जुट गया। अपना संगीत, नृत्य, साहित्य, सांस्कृतिक पहचान इन दिनों खूब बनी।
लेकिन साथ ही सामाजिक और पारिवारिक ज़िम्मेवारियों को निभाने की स्वस्थ परम्पराएं
स्पष्ट रूप से उतनी नहीं बन सकीं। पारिवारिक विघटन, बेरोज़गारी, शराब, यौन
उच्छृंखलता आदि कमज़ोरियों ने काले अमरीकी समाज में वह स्थिरता नहीं आने दी जो एक
मूल्य श्रृंखलित मज़बूत समाज में होती है।
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कुछ समय पहले तक अलगाववादी सोच ही थी। उसी सोच में अश्वेत शक्ति को देखा गया।
समन्वयात्मक सोच को, एक बृहत्तर अमरीकी समाज की सोच को, कमजो़री समझा गया। मारकॅस
गार्वे ने अश्वेत राष्ट्रीयता की बात की थी। अलग काले स्कूल, चर्च वगैरह को
उन्होंने अश्वेत शक्ति का प्रतीक माना था। बाद में, कई दशकों बाद मैल्कोल्म एक्स
(Malcom X) ने एक अति अलगाववादी रुख इख्तियार किया। उन्होंने साफ़ कहा कि 'अपनी अलग
पहचान अमरीकी समाज में विलीन करने से वे गोरे हमारे व्यवसाय, पूंजी, शिक्षा, उद्योग
- सब कुछ पर कब्ज़ा कर लेंगे। हम फिर उन्हीं पर हर बात के लिए निर्भर हो जाएंगे' ।
ब्लैक पैंथर इसी तरह का अति अलगाववादी उग्रवादी अल्पकालिक जुट था जो जल्दी ही अपनी
अपरिपक्व सोच का शिकार हो कर समाप्त हो गया। अलग रह कर अपनी शक्ति अर्जित करना,
अपनी पहचान बनाना, अपनी मौलिकता और सांस्कृतिक जड़ों को खोज कर और उन के आधार पर
आगे बढ़ना एक बात है, उग्रवादी होकर दूसरों से जबरन कुछ पाने का प्रयास दूसरी बात
है। टी.वी. स्टार बिल कॉस्बी और उन जैसे कई काले उसी अश्वेत शक्ति को जुटाने में
लगे हैं। पिछले वर्ष एक घोषणापत्र 'Come on People' में उन्होंने लिखा था, ''गोरों
ने हमें बिल्कुल अलग करके रखा। उस कष्ट से बहुत सी अच्छी बातें भी पैदा हुईं। उसने
हमें अपनी देखभाल खुद करना सिखाया। हमने अपने रेस्तरां, अपने होटल, अपने थियेटर
खोले, अपनी बीमा कंपनियां चलाईं। अपनी खाने-कपड़े की दुकानें खोलीं। शवगृह जैसी
चीज़ें भी हमारी अपनी थीं। हमारे लोगों को काम मिला। सारे काले समुदाय की आर्थिक
शक्ति बढ़ी। गोरों ने हमें अलग करके हमें अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया।'' इस तरह
के घोषणापत्र में वे अपने आप को काली राष्ट्रीयता की अति अलगाववादी नीति से जोड़ कर
नहीं देखते। जब से अलगाव खत्म हुआ, काले और गोरों के आर्थिक और सांस्कृतिक मिश्रण
की स्थिति आई, उस में सिर्फ़ कालों को नुकसान हुआ।
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अलगाव के समय जो सांस्कृतिक उपलब्धियां काले अमरीकनों की हुईं, उन का विश्वव्यापी
प्रभाव हुआ। 'हारलेम रिनेसां' (Harlem Renaissance) 1920-1940 तक का समय इस का
उत्कर्ष उदाहरण है, जब हारलेम काले लोगों का केन्द्र बन गया। हारलेम न्यूयार्क शहर
का ही एक हिस्सा है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और यूरोप में औद्योगिक
क्रांति शुरू हुई, उस समय अश्वेत अमरीकी अपनी स्वतन्त्रता, नागरिक अधिकारों की
लड़ाई और अपनी संस्कृति, अपने विशिष्ट जीवन दर्शन और अपने अफ्रीकी मूल से जुड़ने का
संघर्ष कर रहे थे। गुलामी समाप्त हुए आधी से ज़्यादा सदी हो गई थी, लेकिन अमरीकी
कानून उन पर अपने प्रतिबन्ध और भी कड़े कर रहा था। 'जिम क्रो' के काले कानूनों के
नाम से ये प्रतिबन्ध जाने जाते हैं। अमेरिका के दक्षिण भागों में अश्वेतों की
संख्या अधिक थी। खेतों की गुलामी और मज़दूरी से आज़ाद होकर अश्वेत उत्तर और पश्चिम
की ओर जाने लगे। वहाँ उद्योग धन्धे ज्यादा थे। उत्तरी भाग हमेशा ही गुलामप्रथा
विरोधी होने के कारण अश्वेतों के प्रति उदार भी था। इसी कारण बड़ी संख्या में
अश्वेत शिकागो और न्यूयार्क में आ बसे। बीसवीं सदी के आते आते हारलेम में लगभग दो
लाख अश्वेत आ बसे। मुश्किल से तीन वर्ग मील के इलाके में इतनी बड़ी अश्वेत आबादी
अपनी शक्ति का संगठन और अपने मूल्यों को विकसित करने में लग गई। हर स्तर के लोग
यहां आ बसे थे। इस अश्वेत सागर में असीम संपदा छिपी हुई थी। अपने अस्तित्व की
ऊंचाईयां और गहराईयां नापने का अतुल उत्साह इस समुदाय में पैदा हुआ। अशिक्षित,
शिक्षित, मज़दूर, दुकानदार, अदाकार, संगीतकार, साहित्यकार इत्यादि एक विशाल आत्मोदय
में लग गए। न्यूयार्क का हिस्सा होने के कारण हर बात का विस्तृत केन्द्र वह पहले ही
था। लेकिन न्यूयार्क के गोरेपन ने हारलेम के काले रंग को अपनी पूरी चमक के साथ
उभारा। अपनी अस्मिता की ऐसी पहचान उजगार हुई कि इस तीन वर्गमील की संस्कृति, कला,
संगीत अमेरिका में ही नहीं, दुनिया के बाकी हिस्सों में भी गूंजने लगा। अश्वेत
सामाजिक दर्शन, जो इस निद्राभंग से पैदा हुआ, वह मार्टिन लूथर किंग के नागरिक
अधिकार आंदोलन का भी आधार बना। बीस वर्ष के इस समय काल में इस कौम की सदियों की
उपलब्धियां छिपी हुई हैं। सदियों के बोझ से दबा मानस एक ज्वालामुखी की तरह फूट
पड़ा। इस समय का कला, संगीत, साहित्य और दर्शन जैसे पिछले जन्म की स्मृति भी है, आज
का जीवन भी और भविष्य के सपने भी। बीस वर्ष का यह समय ऐसा उन्मुक्त आकाश है, जहां
उड़ान के बाद दिशाओं और ऊँचाईयों की कोई सीमा नहीं रहती।
इन दिनों कई संस्थाएं, पत्रिकाएं और समाचार पत्र अश्वेत पत्रकारों और
लेखकों-दार्शनिकों ने स्थापित किए। W.E.B. Dubois के नेतृत्व में NAACP (नेश्नल
आरगेनाईज़ेशन ऑफ़ कलर्ड पीपल) की स्थापना हुई, जो अश्वेत अधिकारों की प्रमुख संस्था
है। 'क्राईसिस' पत्रिका भी 'डुबोयन' ने शुरू की। उन्होंने समझौतावादी सोच को नकार
कर अश्वेत पहचान का नारा दिया। 'आपरचुनिटी' चार्ल्स जानॅसन और 'दि मैसेन्जर' फ़िलिप
रैन्डाफ़ के संपादन में शुरू हुई। सब से प्रसिद्ध पत्रिका 'नीग्रो व्लर्ड' अश्वेत
राष्ट्रीयता के अग्रज चिंतक मारकॅस गार्वे द्वारा शुरू की गई। संगीत की दुनिया पर
जाज़ संगीत और ब्लूज़ सारे विश्व पर छा गए। बीटल्स को भी इसी संगीत ने प्रभावित
किया था। हारलेम के कहवा संगीत और नृत्यमंचों की धूम थी। अपोलो थिएटर का अपना
ऐतिहासिक महत्व है। साहित्य की दुनिया सब से अधिक महत्वपूर्ण रही। अश्वेत अनुभवों
और बदलती हुई स्थितियों से पैदा होने वाली सामाजिक दृष्टि के साथ साथ सम्भावनाओं की
शक्तिमता इस दौर के साहित्य में उसी तरह उजागर हुई जैसे किसी कौम का इतिहास अपने
शुरू से आखिर तक एक ही रचना में बाहर आने को तत्पर हो। उस समय की कविताएं आज भी
प्रसिद्ध हैं। कल की स्मृति तीक्ष्ण है और आज का अहसास आने वाले कल की शक्ति से
भरपूर है। शर्मिन्दा सिर्फ़ उन्हें होना है जो कल इस स्थिति को देखेंगे। लैगंस्टन
हयूज़ (जो इस समय के सब से सशक्त कवि हैं) की एक नन्ही सी कविता इस सच को ऐसे
समेटती है।
मैं भी अमेरिका के गीत गाता हूँ
मैं भी अमेरिका के गीत गाता हूँ
मैं उनका अश्वेत सहोदर हूँ
मुझे वे मेहमानों के सामने
रसोईघर में जाकर खाने को कहते हैं
लेकिन मैं हँसता हूँ, खूब खाता हूँ
और खूब पुष्ट होता हूँ
कल मैं भी उस मेज़ पर बैठूंगा
जब उनके मेहमान आएंगे
कोई मुझे कह नहीं पाएगा
कि जाओ किचन में खाओ
वे देखेंगे कि मैं कितना सुन्दर हूँ आकर्षक हूँ
और बेहद शर्मिन्दा होंगे
मैं भी अमेरिका के ही गीत गाता हूँ।
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अश्वेत पीड़ा का दैनिक स्वरूप साहित्य के माध्यम से ही उजागर होता है। उन का जीना
मरना, रोज़ रोज़ का अपमान, अपनी हीनता का कुहासा, अपने कुछ भी न कर पाने की
असमर्थता का धुंधलका, अपने भविष्य के प्रति भावशून्यता का मकड़ जाल सिर्फ़ साहित्य
में ही बखान हुआ है। इस पीड़ा का पूरा गीत कभी गाया जा ही नहीं सकता। लेकिन कलम की
नोक से जितना लहू उड़ेला जा सकता है, भरपूर उड़ेला गया है। इतिहास ग्रन्थों के मुँह
पर तमाचा मारता हुआ साहित्य असली इतिहास लिखता है। उसी साहित्य के माध्यम से ही हम
भी इन समय वीथियों में जाने का प्रयत्न करते हैं। 1987 में टोनी मोरिसन का उपन्यास
Beloved प्रकाशित हुआ। 1856 की एक सच्ची घटना को आधार बना कर लिखा गया यह उपन्यास
इतिहास के पौने दो सौ साल पुराने गर्त में उतरता है। 1856 में मारग्रेट गार्नर की
कहानी समाचार पत्रों में छपी थी। अपने मालिक के ज़ुल्मों से भागकर जाने के प्रयास
में वह ओहायो नदी पार करते हुए पकड़ी गई थी। दोबारा गुलामी की ज़िन्दगी में वह अपनी
नन्ही बच्ची को नहीं ले जाना चाहती थी। मारग्रेट गार्नर ने तब अपनी छोटी बच्ची को
मार दिया था, गुलामी से बचाने के लिए। तब का अश्वेत अंधेरा कितना घना था, उसी का
इतिहास लेखक की अनुभूत कल्पना रचती है। नायिका इन सभी बातों की प्रत्यक्ष या परोक्ष
साक्षी है। जो उसके सामने नहीं घटा, वह भी उस से जुड़ा है। उन्हीं पात्रों के
माध्यम से जिन का वह हिस्सा बन गई है। कहानी कहने की यह शैली पाठक को उस घटना क्षण
के दर्द से बचा लेती है, पीड़ा को तटस्थ होकर देखने की स्थिति में ले आती है। पीड़ा
का क्षण कोई और अहसास उस से जुड़ने नहीं देता, साक्ष्य चिन्तन पैदा नहीं करता।
उस समय को जीवन्त करती हुई इस रचना के बराबर रखी जा सकती है, एलिस वॉकर की कृति
Color Purple जो आज के अश्वेत पक्ष के एक मार्मिक सत्य को उजागर करती है। कल का
अन्धेरा आज से कितना भिन्न है या एक जैसा है, इन दोनों उपन्यासों को बराबर रख कर
पता चलता है। आज के अश्वेत समाज की दुखती रगों पर हाथ रखता हुआ यह उपन्यास काफ़ी
बेचैन कर गया आज के समाज को। लेकिन आज की हकीकत को अपना शव नहीं समझा जा सकता। इस
अपने स्वरूप को देखना होगा ही, आईने में देखो या लिहाफ़ में मुंह छिपा कर देखो।
दोनों उपन्यासों को साथ रख कर देखने से समय श्रृंखला बनती है। उस समय का विरोध भी
हम स्वयं कर रहे थे, आज के इस अलमारी में बन्द कंकाल को भी हम ही खींच कर बाहर
लायेंगे। दोनों उपन्यास ऐतिहासिक महत्व के हैं। एक जिस छोर हमें छोड़ता है, दूसरा
उस छोर से हमें आगे ले चलता है। इतिहास की Escort Service हैं जैसे ये दो उपन्यास।
इस गुलामी के इतिहास को जीवन्त करने के लिए टोनी मोरिसन को सन्न कर देने वाले उस
समयांश से गुज़रना पड़ा होगा। आंख की जगह आंख, कान की जगह कान को रख कर, एक एक दुख
को, टुकड़े बीन कर अपनी जगहों पर रख कर यह चित्र पूरा करना पड़ा होगा। इस पज़ल
बोर्ड के कई टुकड़े टोनी को नहीं मिले होंगे। कई रंग छूट भी गए होंगे। कहीं काला
ज़्यादा काला नज़र आया होगा, तो कहीं लाल कम लाल। फिर भी इस चित्र की निर्मिति में
साहस है, धीरज है, निर्द्वन्द् भाव प्रवणता है, घटनाओं और स्थितियों को तारतम्य में
जोड़ कर देखने की बाल एकाग्रता और कलात्मकता है, अपने समय में रहते हुए, आगे और
पीछे देख सकने की कल्पनाशीलता है, जो एक सच्चे इतिहासकार या साहित्यकार में होती है
या होनी चाहिए। उन दिनों का इतिहास कहने लिखने का कोई और तरीका इतना कारगर नहीं हो
सकता।
'बिलॅवेड' उपन्यास के आरम्भ में ही नायिका अपनी सास की कथा कहती है। एक महानायिका
की -
''बेबी सग्ज़ (सास) जानती है, अपने हों या पराए अगर वे भाग नहीं गए या फांसी नहीं
चढ़ाए गए, तो उन्हें या किराए पर चढ़ा दिया गया या किसी दूसरे गोरे व्यक्ति को उधार
दे दिया गया, गिरवी रख दिया गया या जुए में हार दिया गया। बस ऐसे ही मोहरे बनते रहे
सभी। उस के आठ बच्चे थे। छः के अलग अलग पिता थे। बस एक हेल को ही वह अपने पास लम्बे
समय तक रख सकी। दो छोटी बेटियां अभी मुश्किल से दूध के दांतों की उम्र में थीं।
जाते हुए उन्हें वह मिल भी नहीं पाई। उन्हें एक सौदे में एक साहेब को दे दिया गया,
मैथुन के लिए। बदले में एक बेटा बचा पाई। लेकिन उसे भी मालिक ने कुछ इमारती
लकड़ियों के बदले बेच दिया। उसने वादा किया था कि वे उसे (सग्ज़ को) गर्भ नहीं
देगा। लेकिन वह वायदा भी उसने नहीं निभाया। उस बच्चे को वह प्यार नहीं कर सकी और
बाकियों को बचा नहीं सकी। जो भगवान ने लेना है, ले ले, उस ने सोचा। और भगवान ने जो
लेना था, ले लिया। उसे मालिक से यह बेटा 'हेल' मिला। बाद में आज़ादी मिली जो अब उस
के किसी काम की नहीं थी।''
भुक्त भोगी ने कह दी बड़ी सादगी से अपनी बात। अपने ही किसी को अपना दुख सुनाने में
कैसी नाटकीयता। कहने की ज़रूरत भी कहां है? एक ख़बर जैसी है कि और क्या हुआ। दुख को
कैसे कोई खींचतान कर बड़ा करे। एक ख़ास गहराई से नीचे शब्द कहां रह जाते हैं?
उस समय की करीब करीब हर अश्वेत औरत की यही कहानी थी। पति किसी और का गुलाम है,
पत्नी किसी और की। मिलना कभी कभी, किसी सीमित छुट्टी की घड़ियों में।
मालिक अक्सर अश्वेत औरतों को माएं बना डालते थे। फिर उन्हीं बच्चों को गुलाम बना कर
किसी और को जब कभी भी, किसी सौदे में बेच दिया जाता था। लकड़ी भी कभी कभी इन
इन्सानों से मंहगी हो जाती थी। अगर बच्चे गोरे पिता और काली मां की संतान होते तो
उन का रंग बीच का सा हो जाता। इन्हें मुलाटो कहते हैं। सब से ज़्यादा अवहेलना और
निदर्यता इन्हीं बच्चों को सहनी पड़ती। अपने पिताओं के अपराधबोझ के ये बड़ी जल्दी
शिकार हो जाते। पत्नी के गर्भ में किस का बच्चा है, इस बात के दुख दर्द में कौन
अश्वेत पुरुष जलता। पत्नी को गले लगा कर और अधिक प्यार ही किया जा सकता था। पत्नी
का अपमान, बिकते हुए बच्चे, रेप हो कर मां बनती औरतें, इस घर से उस घर में बदले
जाते हुए गुलाम पुरुष - यही वह ज़िन्दगी थी लाखों लोगों की, जिस का विरोध कहीं से
नहीं उठता था।
इतिहास-साहित्य सही इतिहास भी है और साहित्य भी। अत्यन्त दुख, भाव कृपणता और दुर्गम
तटस्थता से लिखी हुई रचना टोनी मोरिसन की यह कृति Beloved है। कथा में अपनी बच्ची
की हत्या करने के बाद उसे जल्दी से दफ़न करने का एक प्रसंग है। सेथ एक कब्रिस्तान
में है। उसने एक पत्थर चुना जो कब्र पर लगाना है। लिखना है उस पत्थर पर नाम और कुछ।
अपनी बच्ची का गला काट कर उसने उसे मारा था। खून से हाथ अभी भी चिपचिपाए हुए थे। वह
बात करती है कब्रिस्तान में एक पत्थर पर अक्षर गोदने वाले कारीगर से।
कारीगर पूछता है तुम्हारे पास दस मिनट हैं? मैं बिना पैसे लिए तुम्हारा यह काम कर
दूंगा। दस मिनट, सात अक्षरों के लिए। तो दूसरे दस मिनट में वह Dearly (प्रिय) भी
खुदवा सकती है। Dearly Beloved, लेकिन जो कुछ सौदा उस ने किया, वह बस एक शब्द के
लिए ही था। वही एक शब्द उसके लिए अर्थपूर्ण था। यही उस ने सोचा कारीगर के साथ उन
खुरदरे, कब्र के पत्थरों के बीच अपनी देह रगड़ते। कारीगर का बेटा पास खड़ा देखता
रहा। कारीगर के चेहरे पर वही पुराना गुस्सा था, सिर्फ़ भूख नयी थी। वो दस मिनट
काफ़ी थे एक और उपदेशक को चुप कराने के लिए, एक क्रोध से भरे कस्बे को शांत करने के
लिए।
उस की मृत बच्ची की आत्मा में इतना क्रोध समा गया था कि उस कारीगर के बेटे के सामने
अपना शरीर खुरचवाना काफ़ी नहीं था, उसे शांत करने के लिए। क्रोध इस घर में बसा हुआ
है, उस बच्ची के इसी क्रोध से घिरे हुए ही जीना है। बस यही काफ़ी नहीं रहा। वही दस
मिनट वह अब भी सहती है, वही जो उसने सुरमई रंग के पत्थर के साथ सट कर गुजारे थे।
उसके घुटने पूरे खुले थे, एक कब्र की तरह खुले। वही दस मिनट बच्ची के लहू में भीगी
हुई उस की उंगलियों जैसे ही जीवन्त हैं। लेकिन बच्ची का क्रोध कम नहीं होता। घर की
दीवारों में समा गया है....।
टोनी मोरिसन एक सतरंगी वृक्ष का वर्णन करती हैं। अश्वेत पीठ पर फैले हुए सतरंगी
वृक्ष का। प्रसव से पहले जब ऐमी ने सेथ की पीठ से कपड़ा उठाया, तो वह बड़ी देर एक
खामोशी में डूबी रही। फिर इस तरह बोली जैसे कोई सपने में बोलता है। एक अस्पष्ट
प्रस्फुटन -
'ये तो पेड़ है, एक चोकबेरी का पेड़ । देखो, ये इस पेड़ का तना है। पूरा लाल और बीच
से पूरा खुला हुआ, रस से भरा हुआ। और यहां ये टहनियां हैं, तुम्हारी पीठ पर अलग अलग
फैली हुई टहनियां। और पत्ते भी हैं और फूल भी, नन्हे चेरी के फूल, सफ़ेद। तुम्हारी
पीठ पर तो पूरा पेड़ उगा हुआ है, अपनी पूरी बहार में है। परमात्मा के मन में क्या
है मैं नहीं जानती। मुझे बस हैरानी होती है। मैंने भी पीठ पर कोड़े खाए हैं। लेकिन
इस तरह से तो कभी नहीं।' सेथ ने एक लम्बी सांस भरी और ऐमी अपने दिवास्वप्न की
प्रस्फुटन से एक झटके में बाहर निकल आई।
इस तरह की अश्वेत पीठें, बाँहें, टांगें जिन पर कोड़ों ने पेड़, पौधे, फूल उगा दिये
थे, हर घर में थे। लेकिन ये पौधे और फूल तोड़े नहीं जा सकते थे, मुर्झाने भी नहीं
दिए जाते थे। उम्र भर लम्बा बसंत था इन के लिए। थोड़े थोड़े दिन बाद इन में नए रंग
भर दिए जाते थे। मालिकों के हाथों में नए हंटर, नए चाबुक आ जाते थे।
अमरीका के गृहयुद्ध (1860-64) के पहले और युद्ध के बाद हज़ारों, अश्वेत भगोड़ों के
अनुभव क्या थे? गुलामी से भागकर कहां जाते? भागना अगर संभव हो भी गया तो भागकर जाएं
कहाँ? ऐसे गुलाम जनों की अनगिनत कथाएं उन्हीं द्वारा लिखी हुई मिलती हैं - जिन्हें
Slave Narratives कहते हैं। उन कथाओं में गुलामी के जीवन की ऐसी सच्ची कहानियां
दर्ज हैं जो सारी इतिहास पुस्तकों को कूड़े में फेंक देती हैं। बहुत बाद में ये सब
प्रकाशित हुईं, तब एक सामूहिक सामाजिक साहस पैदा हुआ, अपने आसपास रहने वालों को
सदियों पुराने दर्द सुनने सुनाने का। मालिक के घर के बाहरी हिस्से में दबड़ों
(केबिनों) में रहने वाले गुलामों को दिन में कितनी बार और क्यों कोड़े खाने पड़ते
थे, इसके लिए उन्हें मन या शरीर से तैयार होने की ज़रूरत नहीं होती थी। मालिकों के
पास भूल बताने का एक ही तरीका था, चाबुक चलाना। बच्चे अपने पिताओं और मांओं को
कोड़े खाते देखते रहते। यकीनन ही उन्हें क्रोध तब नहीं आता था। स्वीकृति थी, मौन और
मुखर दोनों। मां/पिता को बहुत मारा है मालिक ने, इसका दुख ज़रूर उन में बंटता होगा।
बच्चे भी मां बाप के सामने खूब पिटते थे, यहां भी क्रोध से ज़्यादा दुख ही था।
दूसरे मालिक के घर से कोड़े खाकर आने वाला पति उन तीन चार घंटों में क्या अपनी पीठ,
बाजू, टांग दिखाए। लेकिन छुपता नहीं होगा। पत्नी पूछती भी नहीं होगी 'आज मालिक ने
बहुत मारा है' बस थोड़ा और ज़्यादा प्यार कर लेती होगी। कही, अनकही बातों से -
Slave Narratives और दूसरी रचनाएं अटी पड़ी हैं। औरतों का कोड़े खाने के बाद सेक्स
के लिए मजबूर होना, लगातार मजबूर होते रहना, मां बनना, जिस किसी की मां बनना - कैसी
नियति थी? पशुओं के समाज तक में जिस किसी की मां बनना तो स्वीकृत है, लेकिन कोड़े
खाने के तुरन्त बाद यौन क्रिया करना और फिर मां बनना कहीं भी स्वीकृत नहीं। किसी
योजना में स्वीकृत नहीं। यह निज़ाम खुले आम स्वीकृत रहा। सब को इस बात का भान था।
सारे गोरे, भूरे, पीले समाज सब जानते थे इन अनहोनी-होनियों को सारे चिंतक,
समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, दार्शनिक जानते थे। सैंकड़ों साल ये होता रहा और वे
केवल मनुष्य की दूर दराज़ की नियति की बात लिखते सोचते रहे। जिस बात पर तलवार उठनी
चाहिए थी, कलम भी उस समय नहीं उठी। भुक्तभोगियों ने ही अपनी वेदना हर समय में सुनाई
और लिखी। बहुत बाद में बीसवीं सदी में औरों ने भी इस काली धारा को मिसीसिपी की
मुख्यधारा में शामिल होने दिया। पर यह इस काली धारा की अपनी शक्ति थी, मिसीसिपी की
उदारता नहीं। मिसीसिपी आज भी उदार नहीं है।
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अफ्रीकी समाज चौदहवीं पन्द्रहवी सदी में सिर्फ़ एक कबीलाई समाज जैसा ही था। अलग अलग
क्षेत्रों में कबीलों के शासक थे, आस पास के क्षेत्रों से कर वसूल करते थे। ये
कबीलाई राजा आपस में लड़ते रहते थे। हारी हुई फौजों को गुलाम बना लिया जाता था।
अपराधियों को भी गुलाम बना लिया जाता था। इन गुलामों को वे अरब और यूरोप के
व्यापारियों को बेच देते थे। बदले में उन्हें मिलती थीं - बन्दूकें, कपड़े, मोती और
खाने की चीज़ें । ये सब कुछ इन राजाओं को बहुत प्रिय था। यूरोपियनों से पहले भी
अरबी व्यापारी थे जो गुलाम खरीद कर अपने देश में और यूरोप के व्यापारियों को बेचते
थे। कुछ अफ्रीकी कबीलाई क्षेत्र ऐसे भी थे जो किसी के अधिकार में नहीं थे। छोटे
छोटे समूहों में रहने वाले ये अशासित लोग सब से ज़्यादा शिकार होते थे, इन
व्यापारियों के। इन क्षेत्रों में जाकर ये व्यापारी लोग बन्दूक के ज़ोर से जो मिले,
जितने मिले - पकड़-बाँध कर अपने अड्डों में ले आते थे। वहां जब काफ़ी मात्रा में
वे इक्ट्ठे हो जाते थे, तो इनके हाथ पैर ज़ंजीरों से बांध कर, गर्दनों पर जुए रख
कर, पैदल घसीटते उन्हें समुद्र तक ले जाया जाता। रास्ते में बहुतेरे लोग मर जाते
थे। उनके नरपिंजर उन्हीं रास्तों पर पड़े मिलते। इन लगभग नंगे गुलामों को दो फीट
चौड़े पट्टों से बांधकर लिटा दिया जाता था। इन में औरतें और बच्चे भी बिल्कुल नंगे
इसी तरह बंधे होते थे। मई 20, में Harper मैगज़ीन में एक पकड़ लिए जहाज़ पर पांच सौ
बन्दी गुलामों के वर्णन और चित्र प्रकाशित हुए थे। इस जहाज़ को पश्चिमी क्यूबा के
पास फ़्लोरिडा के तट पर पकड़ा गया था। कांगो नदी में इन गुलामों को जहाज़ में भरा
गया था। प्रेस ने इन की भीतर की स्थितियों का वर्णन किया और चित्र प्रकाशित किये।
यह इसलिए संभव हो सका कि 1807 में कानूनी तौर पर गुलामों को बाहर से आयात करना अवैध
हो गया था। 1860 का यह जहाज़ था। ये क्रूरताएं ऐसी हैं जो शायद कहीं अन्य जगह
पढ़ने, देखने, सुनने को नहीं मिलतीं। इतने बड़े पैमाने पर इतनी अधिक क्रूरता
बिल्कुल अविश्वसनीय हिस्सा है मानव इतिहास का।
दो सौ सालों तक ये अश्वेत इन्सान अफ्रीकी देशों - प्रमुखतः माली, सिनेगल, गाम्बिया,
गिनी, आईवरी कोस्ट, लाईबीरिया, घाना, टोगो, नाईजीरिया, कैमरून, अंगोला और कांगो
इत्यादि से लाकर अमेरिका की मंडियों में बेचे जाते रहे। अलग अलग शर्तें थीं बेचने,
खरीदने की। ज़्यादातर को उम्र भर के लिए खरीदा जाता था। वे इन का कुछ भी कर सकते
थे। हत्या तक हो सकती थी, मारते-पीटते। न्यायालय उन हत्याओं को दण्डनीय अपराध ही
नहीं मानते थे। ऐसे फैसले दर्ज़ मिलते हैं जहां जजों ने साफ़ कहा कि यह एक दुखद बात
है, लेकिन दण्डनीय नहीं है। पहले 50-60 वर्षों तक कुछ निश्चित समय के लिए गुलाम
खरीदे जाते थे। उस के बाद चाहे तो किसी और के पास बेच दिए जाएं या आज़ाद कर दिए
जाएं।
एक तरह से बंधुआ। लेकिन 1760 में ही अमरीकी राज्यों ने कानून बनाने शुरू कर दिए जिन
के तहत वे उम्र भर के लिए खरीद लिए जाते थे। उन के बच्चे हुए या जो होंगे, वे भी
मालिक की जायदाद होंगे। कई राज्यों में गुलामों को शादी करने की अनुमति नहीं थी।
लेकिन धीरे-धीरे इस कानून में ढील दी गई। क्योंकि बच्चे होंगे तो गुलामों की आबादी
बढ़ेगी। वे अपनी कोई ज़मीन जायदाद नहीं खरीद सकते थे। कहने सुनने में ये बात बड़ी
भली लगती है कि गुलाम अपनी आज़ादी खरीद सकते थे। दस हज़ार में से किसी एक गुलाम को
किसी ख़ास स्थिति में अगर उसके मालिक ने किसी और के पास उसे किराए पर दे दिया,
क्योंकि उसे पैसे की ज़रूरत है या उस के पास ज़रूरत से ज़्यादा गुलाम हैं तो वह
गुलाम अतिरिक्त मेहनत करके इतने पैसे जोड़ ले कि मालिक को अपनी कीमत चुका दे, तो वह
आज़ाद हो सकता था। लेकिन उम्र भर के लिए खरीद लिए गए गुलाम उस स्थिति में आने के
अधिकारी थे ही नहीं। आज़ाद होने वाले गुलामों को भी अक्सर अमरीकी गिरोह अगवा कर
लिया करते थे। उन्हें यातनाएं देकर दोबारा किसी को बेच दिया करते थे। कानून उन का
नहीं था। सरकार उनकी नहीं थी। क्या कानूनी है और क्या गैर कानूनी, इस बात का उस
समाज में अश्वेत लोगों के लिए कोई अर्थ ही नहीं था।
1861 में आज़ादी के ऐलान के बाद भी बीसवीं सदी के छठे दशक तक, रंग के आधार पर अलग
करने की नीति चलती रही। सौ साल बाद 1954 में कानून बना कि रंग के आधार पर बच्चों को
स्कूलों में दाखिले से मना नहीं किया जा सकता, उन्हीं बसों में अश्वेतों को बैठने
से मना नहीं किया जा सकता। रेस्तरां, शौचालय, पार्क इत्यादि सब के सांझे प्रयोग के
लिए होंगे इत्यादि। 1954 के इस कानून के विरोध में कई राज्यों ने उन स्कूलों को धन
देना बंद कर दिया, जो काले बच्चों को दाखिल करते थे। वर्जीनिया राज्य में पब्लिक
स्कूल इसी लिए बंद कर दिए गए। 1969 तक वर्जीनिया की एक काऊंटी में स्कूल पांच साल
तक बंद रहे। गोरे बच्चे प्राईवेट स्कूलों में जाते रहे। सारे अश्वेत बच्चे और कुछ
बहुत गरीब गोरे बच्चे किसी स्कूल में नहीं जा सके 1963 में मार्टिन लूथर किंग ने
राजधानी वाशिंगटन में दो लाख लोगों का जुलूस निकाला। वहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध
भाषण दिया - 'I Have a Dream' जो आज अमरीकी इतिहास और मानस का हिस्सा बना हुआ है।
लेकिन संघर्ष मात्र कानून बना देने से समाप्त नहीं होता और हर युग में मार्टिन लूथर
जन्म नहीं ले सकते। इन्सान भीतर से कैसे बदले जा सकते हैं, इस बात के लिए हिंसा कभी
कारगर नहीं हुई और अहिंसा को एक शक्तिशाली आंदोलन का रूप लेना पड़ता है प्रभावी
होने के लिए। देश की सरकारें ही अपने कानूनों को ईमानदारी और सख़्ती से लागू करती
रहें और मानवीय मूल्यों का हर संवैधानिक तरीके से लगातार प्रचार प्रसार होता रहे
तभी उम्मीद की जा सकती है कि लोगों के दैनिक आचरण का हिस्सा वे सब बातें बन जायें
जो सरकारें लागू करना चाहती हैं। सब से सक्षम तरीका फिर शिक्षा की तरफ ही मुड़ता
है। बालमनों को पूरी तरह संवेदित किया जा सकता है। बच्चे ऐसी स्थिति में आने चाहिए
कि उन्हें अलगाव का आभास ही न हो। शिक्षा के माध्यम से इस ऊँचाई को छुआ जा सकता है।
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काले अमरीकी समाज के हर हिस्से से उन के नेता अपने परिवारों को सुदृढ़ बनाने की
मुहिम में लगे हुए हैं। आज बिल कॉस्बी जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति जगह जगह जा कर अपना
संदेश काले अमरीकियों तक पहुंचाने में लगे हुए हैं।
पिछली गर्मियों में बिल ने डिट्राएट के सेन्ट पॉल चर्च में एक ऐतिहासिक भाषण दिया।
'हम गोरे आदमी से इस तरह हार गये' भाषण का मुख्य रेखांकन था। काले समाज के लिए एक
खुली चुनौती। 'दि एटलांटिक' के अप्रैल, 2008 अंक में थीम लेख की तरह प्रकाशित हुए
उनके भाषण का एक विवेचन तानेसी कोटेस द्वारा प्रकाशित हुआ। उन्होंने एक काली लड़की
के वेलेडिक्टोरियन (सर्वश्रेष्ठ छात्रा/छात्र) होने के नाते उस लड़की के वार्षिक
भाषण का ज़िक्र करते हुए कहा कि उस लड़की ने अपनी पांच वर्ष की उम्र में सारी शामें
अपने पिता के इन्तज़ार में खिड़की से बाहर देखते गुज़ारी। लेकिन उसके पिता नहीं आए।
वह हमेशा बे-बाप की रही। बिल कॉस्बी ने अफसोस के साथ कहा कि जिन की वजह से उस लड़की
का जीवन बना, उस मां का ज़िक्र उस ने नहीं किया, अपनी नानी का नाम उस ने नहीं लिया।
लेकिन लड़की की कहानी का आशय उस समाज से था, जिसमें बच्चे बिना बाप के बड़े होते
हैं उसी समाज को झकझोरने, बिल कॉस्बी उस दिन डिट्राएट पहुंचे थे। बिल कॉस्बी ने कहा
कि 'मैं गोरे लोगों से मात खाते-खाते थक गया हूँ। मैं कहता हूँ कि मैं उनकी परवाह
नहीं करता, तो शायद मेरा मतलब होता है कि उन्हें कहने दो वे जो भी कहना चाहते हैं,
वह सब उससे ज़्यादा बुरा तो नहीं हो सकता, जो उन्होंने हमारे साथ किया है, या उनके
दादा जो हमें पहले ही कह चुके हैं।'
देश के एक कोने से दूसरे कोने तक, चर्चों में, कालेजों में जा कर बिल हज़ारों काले
अमरीकनों को कहते हैं कि हालांकि नस्लवाद अमेरिका में सभी जगह है, लेकिन इसे हम
अपने प्रयत्न ढीले पड़ने का बहाना नहीं बना सकते। वे कहते हैं कि 'नस्लवाद का ज़हर
रैलियों, जलूसों और अपीलों से कम नहीं हो सकता। सिर्फ़ शक्तिशाली परिवार और अश्वेत
समाज की दृढ़ता ही इसे कम कर सकती है। हमें अपनी व्यक्तिगत और पारिवारिक
ज़िम्मेवारियों पर नज़र रखनी होगी।' मार्टिन लूथर का सपना इससे भिन्न था। उन की
पीढ़ी के लोग अब अपने जीवन की सांझ में हैं। वे गए वक्त की स्मृति में डूबने की
बजाय आज की उदासियों में डूबे हुए हैं, आज के ज़िद्दी नस्लवादी अमेरिका की उदासियों
में। बिल कॉस्बी का अनुशासन और नैतिक सुधार इस खत्म होती हुई पीढ़ी की उदासियों को
कम नहीं कर सकता, लेकिन आज के अफ्रीकी अमेरिकन समाज को उन के कॉलर से पकड़ कर
झिंझोड़ ज़रूर सकता है। बिल के इस आलोचनात्मक रवैये पर पुलिटज़र पुरस्कार विजेता,
एक प्रतिष्ठित अश्वेत नाटककार आगॅस्ट विल्सन ने कहा कि एक अरबपति इन गरीब लोगों को
अपनी गरीबी का दोषी ठहरा रहा है। पर बिल कहते हैं कि आज के हमारे तौर तरीके, रहन
सहन, गैर जिम्मेवार पुरुषों और यौन उच्छृंखलता को देख कर पता चल जाएगा कि गलत क्या
है।
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सब के लिए समान अवसरों का सरकारी कार्यक्रम क्या कर सकता है, जब अवसर, असमर्थ लोगों
की पहुंच से दूर हों? एक पब्लिक स्कूल में 25 बच्चों की क्लास में पांच अश्वेत
बच्चों का आत्मविश्वास इतना भी नहीं होता कि वे अध्यापक से प्रश्न भी पूछ सकें। एक
स्कूल में 100 अध्यापक हैं तो 95 प्रतिशत गोरे। वे अध्यापक उन पांच अश्वेत बच्चों
को अलग थलग रखने के अपने सांस्कृतिक बहाने ढूंढ लेते हैं। उन बच्चों से अपेक्षा का
स्तर भी इतना कम होता है कि बिना योग्यता के उन्हें एक दर्जे से दूसरे दर्जे में
चढ़ाते रहते हैं। जब तक वे हाई स्कूल में पहुंचते हैं और निर्णायक परीक्षाओं का समय
आता है, तो वे कहीं नहीं ठहरते। इसलिए अश्वेत बच्चों की हाई स्कूल से पहले ही स्कूल
छोड़ देने की संख्या भी बहुत अधिक है। समान अवसरों का खोखलापन बचपन से ही स्थापित
हुआ रहता है। खेलों में निपुणता पाकर किसी बड़े स्थान पर पहुंचना या संगीत और नृत्य
की दुनिया में नाम कमाना एक व्यक्तिगत उपलब्धि तो हो सकती है, लेकिन सारे अश्वेत
समाज को उनकी अन्धेरी खाईओं से निकालने के लिए ये दूर दराज़ जलती हुई मशालें
बिल्कुल कारगर नहीं होती। बल्कि बचपन से ही अपनी शुरू की पढ़ाई से विमुख करने का
बहाना ज़रूर बनती हैं। खुले अवसर के नाम पर इन बच्चों को कुछ भी करने या न करने की
खुली छूट मिलती है। एक यान्त्रिक छद्मता का ताना बाना चारों तरफ इस समाज में बुना
रहता है। जिन्हें सच्चाई दिखनी चाहिए, बस उन्हें नहीं दिखती।
कुछ भी करने या पाने की शक्ति राजनीतिक निर्णयों के हाथ में केन्द्रित होने की वजह
से हर जगह अल्पसंख्यकों का संघर्ष बना ही रहता है। विशेष रूप से जो अल्पसंख्यक
आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए हों, उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ते-लड़ते
कितनी अपमानजनक स्थितियों से गुज़रना पड़ता है। निर्वाचित सदस्य उन में से ज़्यादा
हो नहीं सकते। इस बार डैमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार एक
अश्वेत अमरीकी बराक ओबामा के चुने जाने की सम्भावना एक अपवाद ही होगा। बराक ओबामा
की मां एक श्वेत अमेरिकन थीं। आर्थिक या अन्य व्यवसायिक शक्ति का केन्द्र अगर कोई
अल्पसंख्यक समाज हो तो उस समाज से अपनी संख्या के अनुपात से अधिक निर्वाचित सदस्य
सरकार में पहुंच जाते हैं जैसे अमेरिका में यहूदी समाज है। जैसे अब भारतीय समाज
यहां कुछ पहचान बनाने लगा है। पर इस सारे वातावरण में अश्वेत समाज बिल्कुल पिछड़
गया है। बेशर्मी से कहा जाए तो इस महाद्वीप में काला रंग ही उन के रास्ते में सब से
ज़्यादा आया। संसार के बाकी हिस्सों में श्वेत-अश्वेत रंग अपने आप में कोई ख़ास
महत्व नहीं रखता (अगर काली बहू और गोरी बहू के उत्तर भारतीय संदर्भ को नज़रअंदाज़
कर दें तो)। अगर अमरीकी अश्वेत गुलाम न रहे होते और बाकी लोगों की तरह ही इस
महाद्वीप पर आए होते, तो आज अमरीकी इतिहास का यह काला पन्ना इतना काला न होता।
II.
अश्वेत तो पकड़ धकड़ कर, बांध जूड़कर एक दूर दराज़ धरती से यहां लाए गए थे। लाए ही
गए थे श्रम और जुल्म के लिए। उन का इस अमरीकी धरती पर आकर कोई और भाग्य होगा, ऐसा
आसानी से संभव नहीं हो सकता था। आज भी अभी तक पूर्ण संभव नहीं हो पाया है। लेकिन
चार सदियां इस कहानी को बिल्कुल लम्बा नहीं खींचती। ऐसा लगता है कि कल की बात है और
हम साक्षी रहे हैं इस महाविनाशी दुर्घटना के। लेकिन यह दुर्घटना अल्पकालीन, अल्पायु
लगती है, हमारी भारतीय धरती पर हज़ारों साल लम्बी दुर्घटना की तुलना में। उन्नीसवीं
सदी से लेकर आज तक के सुधारवादी, राजनीतिक स्वतन्त्रता और दलित आंदोलनों के बाद भी
अभी तक ऐसी स्थिति नहीं आई है कि समाज के बाकी पीड़ित वर्गों को दलित कहकर एक बृहत
एकीकरण किया जा सके। 'दलित' एक ऐसा शब्द है जो लगभग डेढ़ दो हज़ार वर्ष पहले इस
समाज की आत्मा पर गहरी काली स्याही से गोद दिया गया था। त्वचा से भी इस गोदन का कोई
सम्बन्ध नहीं है। सारे अस्तित्व पर फैला हुआ है ये गोदन। श्रम और पूंजी का असमान
विभाजन तो हर समाज में रहा है, हमेशा ही रहा है। लेकिन समाज के एक हिस्से को स्थाई
रूप से वंचितों की श्रेणी में रख दिए जाने का अनुभव केवल दलित अनुभव है। किसी भी
तरह के अवसरों से वंचित रहना दलित अनुभव है। हालांकि कई दलित चिन्तकों ने अपने
मानवीय उत्साह की उमंग में ऐसा कह भी दिया है कि सभी पीड़ित वर्ग दलित की श्रेणी
में आते हैं। पर, आज भी दलित अनुभव एक विशिष्ट अनुभव है, जो किसी और पर लागू नहीं
हो सकता। किसी अन्य पीड़ित समाज के हिस्से में यह अनुभव कभी नहीं आया।
पहले ज्ञान के सभी साधन धर्म के मार्ग से होकर आते थे। हमारे दलित ज्ञान से तब
अधिकृत रूप से वंचित थे, आज पूर्वाग्रही रूप से वंचित हैं। सब स्थितियां एक तरफ,
अस्पृश्यता का अकेला अनुभव एक तरफ। अब कोई अस्पृश्य नहीं है, यही दिखाई देता है,
यही सुनाई देता है। लेकिन आज भी अधिकतर सजातीयों के गले की फांस दिख जाती है अगर
किसी दलित से दीवार की सांझ हो जाए। तुम किसी सवर्ण को छू सकते हो, साथ बैठ कर खाना
खा सकते हो, थाली भी शायद सांझी कर सकते हो। तो क्या इतने भर से अस्पृश्यता का
अनुभव समाप्त हो जाता है? अन्तर केवल इतना हुआ है कि शरीर साथ बैठा खा रहा है, मन
वितृष्णा से भरा हुआ है। थाली की सांझ भी भीतर ही भीतर एक विरोध की स्थिति पैदा कर
रही है। साफ़ यह भी नहीं कह सकते कि इस हाथ में तलवार है, इस हाथ में लाठी। ऐसी
अदृश्य लड़ाई आज का दलित अनुभव है। ये लड़ाई आर्थिक मुद्दों को लेकर सामने भी आती
है, अवसरों की छीना झपटी में भी सामने आती है। उन मुद्दों पर आज की व्यवस्थाओं में
बहस की जा सकती है। लेकिन हाथों से अदृश्य लाठियां-तलवारें कोई कैसे छीने? दोहरी
घृणा आज दलित अनुभव है। बची हुई धार्मिक मानसिकता से उपजी हुई घृणा और कुछ अतिरिक्त
अवसर देने की मजबूरी से जन्मी घृणा। कहीं एक घृणा कम है तो दूसरी घृणा ज़्यादा है।
जो धार्मिक घृणा से ऊपर उठ चुके हैं, वे अपनी थाली से एक कौर भी अतिरिक्त देने को
तैयार नहीं हैं। सभी थालियां खाली हैं, सभी थालियां भरी जानी चाहिए का तर्क ही आज
आड़े आता है। सिर्फ़ एक ही थाली लोग देख रहे हैं। बचपन में स्कूल की खाली थाली कोई
नहीं देखता। हर बच्चा स्कूल जाकर बराबर पढ़ लिख सकता है, यह तर्क भी दिया जाता है।
कहां हैं वे स्कूल, जिन में दलित बच्चे समान अवसर पा सकते हैं? कितने दलित बच्चे आज
बचपन में शिक्षा के समान अवसर पाते हैं? दलित बच्चे स्कूल नहीं जाते, इस के लिए
समाज का कोई भी दूसरा हिस्सा अपने आप को ज़िम्मेवार महसूस नहीं करता। सरकार जब तक
दलित बच्चों के लिए विशेष शिक्षा का प्रबन्ध नहीं करती, उन के लिए स्तरीय स्कूल
नहीं बनाती, तब तक समान अवसरों की बात खोखली है, तब तक दलित बच्चों की थालियां खाली
हैं, बचपन से ही खाली हैं। आज के सरकारी स्कूल वैसे भी समान शैक्षिक अवसरों के स्थल
नहीं हैं। वहां जो भी जाता है, दलित हो या गैर दलित, उसे समान शिक्षा नहीं मिलती।
फिर दलित बच्चे एक सरीखे जूते कपड़े पहन कर भी अलग ही बने रहते हैं। गरीबों के समान
समाज में भी उन्हें कदम कदम पर नीचा देखना पड़ता है। उनको दी जाने वाली नाममात्र
सुविधाओं को बार बार ऊंची आवाज़ में उन के नाम ले ले कर घोषित किया जाता रहता है।
पहले ही दिन दलित बच्चे उस समानता से अपनी खंडित स्थिति में आ जाते हैं।
दलित होना वहां भी एक विशिष्ट दलित अनुभव बन जाता है। ऐसा दलित अनुभव जो किसी दूसरे
बच्चे को नहीं होता, चाहे वह कितना ही गरीब हो, कितना ही वंचित हो। वह अपनी
निर्धनता में भी ऊंचा उठा रहता है। इस ऊंचे उठे रहने को कौन दोषी ठहराए। दलित होकर
कुछ अतिरिक्त सुविधा पाने की छोटी सी सुविधा को भी एक अपराध बोध की तरह मासूम बच्चा
अपने स्कूली जीवन में ढोता रहता है, वह और किसी भी श्रेणी का अनुभव नहीं हो सकता।
किसी वर्ग का अनुभव नहीं हो सकता। वे नहीं समझते कि दस-बीस रुपये की सुविधा उनकी
अभिशप्त स्थिति का मुआवज़ा है। पहले उनके श्रम की कीमत भी उन्हें भीख की तरह दी
जाती थी, आज उनके बच्चों को ये सरकारी आयोजन भीख की तरह दिये जाते हैं। बाकी बच्चे,
वे सब निर्धन बच्चे जो उन भुतही सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों के साथ जाते हैं
अपने आप को समाज के दाता वर्ग की श्रेणी में ही महसूस करते हैं। कौन हैं वे जो इस
तरह के प्रबन्धन के जिम्मेवार हैं - अधिकतर सवर्ण अध्यापक! वे चाहें तो इस अन्तर के
अनुभव को बदल सकते हैं। वे एक समानता की स्थिति लाने में मदद कर सकते हैं। लेकिन उन
की शिक्षा उसी रस्सी से बंधी हुई है जिसका दूसरा छोर धर्म, जाति, संस्कार, समाज और
परम्परा से बन्धा रहता है। अपने इस आचरण के लिये दण्डित होने का कोई विधान नहीं है।
बचपन का यह अपमान, यह अवमानना और यह अनुभव कि वे पता नहीं किस चीज़ में दूसरों से
अलग हैं, नीचे हैं, दयनीय हैं उन के साथ साथ चलता रहता है। एक घनी परछाई की तरह।
बड़े होने पर यह परछाई भी बड़ी हो जाती है।
अगर उन में से कुछ बच्चे मेडिकल कालिज या किसी अन्य प्रोफैशनल कालिज में भर्ती हो
जाते हैं तो उन्हें हमेशा के लिए रिज़र्व कोटा से आये हुए होने का, यानी फिर वही
भिखारी होने का अहसास बाकी सब युवा छात्र उन्हें दिलाते रहते हैं। एक दिन भी उन की
आंखों में उस गर्व की चमक नहीं आने दी जाती कि वे भी डाक्टर बनने जा रहे हैं,
इंजीनियर बनने जा रहे हैं। वैसे भी इन पेशों में सिर्फ़ पैसा कमाने की क्षमता का
गर्व ही होता है, कुछ ऐसा इन्सानी गर्व नहीं होता कि वे एक अच्छे नागरिक बनने जा
रहे हैं, जो दूसरों के लिए कुछ कर सकने की क्षमता हासिल करेंगे। ऐसी जगहों पर दलित
युवकों-युवतियों का अनुभव अपने बचपन के स्कूलों में मिली उपेक्षा और दया जैसा अबोध
दर्द नहीं होता, जिसे खेल कूद के समय भुलाया भी जा सकता है, जिसे मां के पास
पहुंचते ही अपने मन से धकेल कर बाहर किया जा सकता है। यह युवा दलित अनुभव एक तेज़
आंच की तरह हर वक्त महसूस होता है। इस आंच का सिर्फ़ उन्हीं को अनुभव हो सकता है,
किसी और को नहीं। यहां भी संघर्ष गरीबी का नहीं है, अशिक्षा का नहीं है, बीमारी का
नहीं है। सिर्फ़ दलित होने का संघर्ष है। यहां भी हर समय हाथों में अदृश्य तलवारें
हैं। इस तरह के आरक्षण होने चाहिए या नहीं, यह दूसरी बहस का विषय हो सकता है। लेकिन
यह केवल आरक्षण के आयोजन से मिलने वाला अपमान नहीं है। गरीबों के लिए भी कई तरह की
सुविधायों का प्रबन्ध होता है। जैसे कि गरीब बच्चों की फीस माफ की जा सकती है।
आमदनी कम होने पर उन के माता पिता भी कई तरह की सहायता के अधिकारी हो सकते हैं।
लेकिन वहां अपमान नहीं है, दया नहीं है, भीख नहीं है, अलगाव नहीं है। वहां उन की
निर्धनता को समाज का अन्याय कहकर उज्जवल बना दिया जाता है। दलितों की निर्धनता कभी
उज्जवल नहीं बनती। उसे एक बीमारी या बोझ की तरह सहना सारे समाज के लिए मुश्किल बना
हुआ है। उन्हें कहीं से कुछ भी न मिले, कोई सरकारी सहायता न मिले, तब भी उन की
गरीबी ध्यान देने लायक नहीं बनती। सबको वह अपनी अलग बस्तियों में ही अच्छी लगती है।
आज आरक्षण एक समस्या है सवर्णों के लिए। कल जब आरक्षण नहीं था, तब क्या उन की गरीबी
ध्यान खींचती थी? यह समस्याएं दूर करने की समस्या नहीं है। यह उच्च वर्णों के लिए
एक ऐसा अधिकार था जो उन्हें कुछ न होकर भी ऊंचा होने की स्थिति में बनाए रखता था।
बिना वजह वे ऊंचे बने रहते थे। सिर्फ़ यही एक स्थान था जहां उन की इस ऊंच को कोई
छीन नहीं सकता था। बाकी सब तो अपनी छोटी से छोटी स्थिति से ऊपर उठ कर हमारे बराबर
या हम से ऊंचे हो सकते हैं। सिर्फ़ दलित ही कुछ भी कर के छोटे ही रहेंगे। हमेशा
क्षुद्र ही बने रहने के इस अनुभव को और संघर्ष को क्या नाम दिया जाए? इसे दलित
अनुभव भी कहना पर्याप्त नहीं है। भाषा इस अनुभव से टकरा कर वापिस लौट जाती है। धर्म
की ऊंची चोटियों से निकल कर यह क्षुद्रता की धार सभी तरह की गहराई और निचाईयों से
गुजरते हुए आज जिस स्थिति में पहुंची है वहां किसी विशालधारा में शामिल होने का
संघर्ष नहीं है, सिर्फ़ अपनी क्षुद्रता त्यागने मात्र का संघर्ष है।
आज धर्म दैनिक जीवन में उस तरह आड़े नहीं आता। धर्म की शक्ति से बौरा कर आज कोई
ब्राह्मण या गैर ब्राह्मण दलितों को उनके नाम ले लेकर गाली नहीं दे सकता। लेकिन
उन्हें अपनी स्थिति से, उबरने न देने की साजिशें सौ-सौ तरीकों से जारी रहती हैं।
धर्म आज बड़े दोगले रूप में काम करता है। गणेश जी की मूर्ति दलित के छूने से आज
शायद अपवित्र नहीं हो जाती। मन्दिर में जल भी किसी को अपवित्र नहीं करता। साथ खाना,
काम करना भी किसी को मैला नहीं करता। लेकिन धर्म इतना सतही नहीं है। हमारी भीतरी
कन्दराओं में आज भी, धर्म का नाद है। अपनी वातानुकूलित खोहों में पूरी तरह जीवित
है। यही वजह है कि हम अपने बेटे-बेटियां किसी निकम्मे, आवारा, शराबी के साथ भी
ब्याह देने की मानसिक स्थिति में आ सकते हैं, लेकिन एक दलित परिवार में बेटा या
बेटी ब्याह देने की स्थिति असाध्य है। कहीं ज़्यादा उग्र सामाजिक ईकाईयों में तो
हत्या का कारण यह बना हुआ है। यहां सीधे तौर पर धर्म का दंश है जिसे सवर्ण लोग
संस्कार का नाम देकर मुक्ति पा लेते हैं। परम्परा कहने पर अपने पिछड़े हुए होने का
बोध या दोष होता है लेकिन संस्कार एक निर्दोष शब्द है। इसलिए वे इस शब्द का सहारा
लेते हैं। संस्कार तो सभी के होते हैं, दलितों के भी।
धर्म पारिवारिक सम्बन्ध बनने नहीं देता, दूसरा कोई सम्बन्ध इतना गहन और निकट होता
नहीं। रक्त की इस सांझ में सिर्फ़ धार्मिक संस्कार ही आड़े आते हैं। शायद यही एक
ऐसी सांझ है, जो हमारे धार्मिक होने को कम नहीं करेगी, लेकिन धर्म की संर्कीणता को
ज़रूर कम करेगी। हम अपनी दलित बहू या दलित दामाद के साथ भी मन्दिर जा कर उतना ही
धार्मिक महसूस करेंगे। हम अपनी इस उदारता या मानवीयता को जो हमारे ज्ञान से या
हमारी व्यक्तिगत योग्यता से हमें प्राप्त हुई है, धार्मिक उदारता कहने की भूल नहीं
कर सकते। क्योंकि धर्म हमें कभी उदार नहीं होने देता। अपनी चारदीवारी के भीतर रह कर
ही सारी धार्मिक उदारता काम करती है। धर्म के भीतर रह कर ही उदार होने की आज्ञा
धर्म दे सकता है। ईसाई धर्म सब से अधिक उदारता दिखाने वाला धर्म माना जाता है।
लेकिन कोई ईसाई अगर हिन्दू या मुस्लिम बन जाए तो उन्हें लेकर ईसाई उदारता भाप बन कर
उड़ जाती है।
किसी भी तरह की आधुनिकता ने यह संघर्ष कम नहीं किया। विज्ञान के इस अति विकास की
अन्धता से यह व्याधि और उग्र हुई है। बड़े बड़े नगरों के उदय से एक सम्मिश्रण की
उम्मीद पैदा हुई थी। वहां सिर्फ़ दो वर्ग, या दो धर्म, या दो सम्प्रदाय या दो विचार
ही आमने सामने नहीं रहते। भांति भांति के लोग जगह जगह से आकर एक दूसरे के
व्यक्तित्व को विकसित भी करते हैं और सीमित भी करते हैं। कोई एक समूह दूसरे को
आसानी से दबोच नहीं सकता। निर्भीकता के वातावरण में अपनी पहचान बनाई भी जा सकती है
और खोई भी जा सकती है। इसी तरह का उपयुक्त वातावरण हमें शहरों के विकास से मिलने की
उम्मीद थी। वहां एक ही काम की परिधि में बन्धे रहने की मजबूरी भी कम है। गांवों में
वहीं अपना पुश्तैनी काम आसानी से छोड़ा ही नहीं जा सकता। इसलिए हमारे दलितों ने शहर
का रुख भी किया। शहरों में काम तो कुछ भी मिल सकता है। लेकिन शहरों में भी जाति पता
लगते ही आज भी असमानता का व्यवहार शुरू हो जाता है काम पर भी और आवास क्षेत्रों में
भी। यह अस्पृश्यता से पैदा होने वाला काला भेदभाव नहीं होता। यह सिर्फ़ धर्म और
जाति का संकट है जिसे ज्ञान, विज्ञान, आधुनिकता शहरीकरण और औद्योगिकरण, पेशा
परिवर्तन आदि सब मिलकर भी समाप्त नहीं कर पा रहे हैं। जाति छुपाने का संघर्ष हमें
क्यों बौना बनाए रखे? क्यों जाति बताते ही हम छोटे हो जाएं? और फिर जाति छिपाने की
आवश्यकता ही क्या है? या फिर जाति होनी भी चाहिए या नहीं? कितनी पाखण्डी और
हास्यास्पद स्थितियां हैं। एक तरफ आधुनिकता का मायाजाल! सारे विश्व को हर जगह एक
समय, स्थान और स्थिति में उपलब्ध करा सकने की क्षमता रखने वाला भूमण्डलीकरण और
वैश्वीकरण, एक ही तरह के जीव, उपजीव पैदा कर सकने की वैज्ञानिक क्षमता, बड़ी
विचारधाराओं को पुराना करती हुई सैद्घाँतकियां। स्थानीयता का इतना विस्तार कि सारे
विश्व को हम एक ही स्थान पर खड़े हो कर समग्रता में महसूस कर सकें। समाजीकरण जहां
गलत शब्द बनता जा रहा हो, सोसाईटी नाम की चीज़ का आभास ही जहां खत्म हो रहा हो,
वहां हमारे भारतीय समाज में जाति न केवल जीवित है बल्कि निर्णायक होने की स्थिति
में आई हुई है। एक तरफ धर्म तो दूसरी तरफ राजनीति ने जाति को और भी गहरी रेखाओं में
परिभाषित करना शुरू कर दिया है। धर्म और राजनीति यानी दोनों शक्ति स्त्रोत जाति का
लाभ उठाने पर तुले हुए हैं।
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कब शुरू हुई और कैसे शुरू हुई, यह अस्पृश्यता की ब्राह्मणमारी? इस बारे में बहुत
अटकलें लगाई गई हैं। अटकलें इस लिए कहना पड़ता है कि पक्के ऐतिहासिक साक्ष्य कोई
नहीं हैं। मुख्य तौर पर, यूरोपीय विद्वानों द्वारा प्रतिपादित आर्यों का भारत की
धरती पर आने और उनके मूलनिवासियों से संघर्ष इत्यादि कहानियों का कोई घटना साक्ष्य
ऐसा नहीं है कि इस बात को पूरी तरह सिद्ध कर सके। मुख्य रूप से चार आधार रहे इन
सारे ऐतिहासिक अनुमानों के। पेड़, पौधे और पशु एक आधार, भाषा दूसरा आधार, नस्ल
तीसरा आधार और हमारे प्राचीन ग्रन्थ चौथा आधार।
ये चारों सूत्र एक दूसरे से सम्बन्धित होकर ही एक ऐतिहासिक अनुमान कथा निर्मित करते
हैं। वैदिक साहित्य में जिन पशु-पक्षियों का ज़िक्र आता है - जैसे अश्व, हस्तीन,
खर, महिषा (भैंस), मयूर, ऊष्ट्र तथा भेड़-बकरियों के आदि संस्कृत नाम जैसे सरभा
इत्यादि, सभी भारतीय परिवेश से सम्बन्धित हैं। ये ईरान की आवेस्ता भाषा में भी हैं
जो ज़ोरोस्ट्रीयन मत वालों की भाषा थी। उस के आगे, यूरोप की तरफ बढ़ते हुए जो पेड़
और दूसरी वनस्पति जगत की शब्दावली है, उस का भी ध्वन्यात्मक स्वरूप वैदिक साहित्य
में है। इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण भाषाई समानता इण्डो-यूरोपियन भाषाओं में
मिलती है जिसका सबसे बड़ा भाषा समूह इण्डो-ईरानियन भाषाएं हैं। यह एक ऐसी तर्क लड़ी
है, जो सारे भूभाग को, मध्य एशिया, ज्योर्जिया, आरमेनिया, अज़रबाईजान, दक्षिणी रूस,
ईरान और पूर्वी और पश्चिमी यूरोप तक भाषाई और अन्य कई समानताओं से निर्मित होती है।
नस्ल (रेस) को यूरोपियन लोगों ने बड़ा महत्व दिया और उस आधार पर आर्यों को, पश्चिमी
जर्मनी इत्यादि के साथ जोड़ने की कोशिश की। लेकिन सप्तसिन्धु (आज का पंजाब) जिसे
वेदों की रचना भूमि माना जाता है, के निवासियों की सूरतें, सारे लोअर रूस के भागों
से लेकर ईरान तक के लोगों से मिलती हैं। जलवायु इस का एक बड़ा कारण है। मैक्समूलर
ने अपनी सैद्धांतिकी को सिर्फ़ भाषा तक केंद्रित रखा था। उन्होंने उस समूचे मानव
समूह को जो आर्य भाषा बोलता था 'आर्य' कहा। नस्ल या जाति से उस का कोई सम्बन्ध
उन्होंने नहीं माना। ये सभी साक्ष्य उन भाषाओं से लिए गए हैं, जो किसी तरह ऋग्वेद
में प्रयुक्त भाषा से सांझ रखती हैं। लेकिन ऋग्वेद तक आते आते उन भाषाओं के मौलिक
रूप केवल शब्द ध्वनियों की सांझ और अन्तः परिवर्तित स्वरूपों तक सीमित रह गए हैं।
किसी धरती के पशु पक्षी, वनस्पति, नदियां, पहाड़ एक चेतना के रूप में आत्मसात करने
में, उन्हें आत्मज की तरह मानने बखानने में पीढ़ियां नहीं, सदियां लग जाती हैं। इस
धरती पर आते ही तो ऋग्वेद जैसी रचना एकदम घटित नहीं हो गई होगी। जाहिर है, वे
सदियों तक धीरे धीरे यहां आते रहे या वे मूल रूप से थे ही यहीं के। आक्रमण जैसी
घटना बिल्कुल अस्वाभाविक है। जो पेड़, पौधे बाहर से सम्बन्धित किए गए हैं, हमारे
पर्वतीय ढलानों पर भी मिलते हैं। जो नहीं मिलते, उन की खोज आवश्यक है। लेकिन खोज की
प्रणाली यह नहीं होनी चाहिए कि नतीजा पहले निकालो और फिर उसके प्रमाण एकत्र करो।
भाषाई साम्य केवल स्थानांतरण से ही नहीं और भी पारस्परिक आदान प्रदान से संभव होता
है। हैरानी इस बात की है कि इस प्रश्न को क्यों नहीं उठाया गया कि जब इतने बड़े
पैमाने पर एक ही भाषा बोलने वाले लोग एक ही भूभाग के निवासी थे और जिन्होंने ऋग्वेद
जैसी विपुल धार्मिक-सांस्कृतिक ग्रंथ की रचना की (जो उस समय की किसी भी और रचना से
अधिक पुरानी और विकसित है), तो अधिक संभावना इसी बात की हो सकती है कि यहीं से वे
लोग अन्य दिशाओं की तरफ गए। अफ़गानिस्तान, ईरान होते हुए पूर्वी यूरोप यानी
ग्रीस-इटली इत्यादि के बाद पश्चिमी यूरोप पहुंचे। भाषाओं की सांझ का अन्तः साक्ष्य
और अन्तर्सम्बन्ध भी इस बात से खण्डित नहीं होता। यूरोप वाले शायद इस बात को एक
सम्भावना मान कर कभी चले ही नहीं। वे मध्य एशिया या पश्चिम से ही आर्यों का इधर आना
मानते हैं।
हमारे आज के इतिहासकारों ने इस बात को काफ़ी प्रामाणिक ढंग से कहा है कि आर्य कहीं
बाहर से नहीं आए। ख़ासतौर पर सरस्वती नदी (घग्गर-पंजाब, हरियाणा, राजस्थान) की खोज
और पुर्नस्थापना के बाद। वे यहीं के मूल निवासी थे और तरह तरह के रंगों, शक्लों और
धार्मिक विश्वासों वाले अन्य मूलनिवासियों के साथ रहते थे। आपसी युद्ध भी उन के
होते थे। किसी बृहत बाहरी आक्रमण और विजय की कहानी वेदों में वर्णित छुटपुट युद्धों
या शत्रुताओं से सिद्ध नहीं होती। बड़े पैमाने पर यहां के मूल निवासियों को युद्ध
में हरा कर बाहर से आए हुए आर्य लोगों ने उन्हें गुलाम बना लिया और फिर वही शूद्र
बना दिए गए, यह मत भी प्राचीन ग्रन्थों में कहीं प्रमाणित नहीं होता। इतनी बड़ी
विजय, पराजय, युद्ध, संघर्ष इत्यादि का कोई वर्णन इन प्राचीन ग्रन्थों, विशेषकर
प्राचीनतम ऋग्वेद में नहीं मिलता।
शूद्र पहले एक अन्तः संचालित सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा थे, जो एक निश्चित स्थिति
में ही बने रहने को बाध्य नहीं थे। वे वर्ण सीढ़ी पर ऊंच नीच के अधिकारी हो सकते
थे। शूद्र राजा या मंत्री भी हो सकते थे। इन सब के प्राचीन ग्रन्थों में साक्ष्य
हैं। महात्मा बुद्ध ईसा से लगभग छः सौ (563 बी.सी-484 बी.सी) साल पहले हुए।
मनुस्मृति के रचनाकार ईसा के सौ वर्ष पहले से सौ वर्ष बाद के बीच के समय के माने
जाते हैं। ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 बी.सी.-2500 ईसापूर्व के मध्य माना जाता है।
उपनिषदों का काल लगभग 700 वर्ष ई.पू. माना जाता है। यानी तब हिन्दू धर्म अपने
चरमोत्कर्ष पर था, ब्राह्मणों और बौद्घों का संघर्ष इस समस्या के मूल में
महत्वपूर्ण रहा। अशोक के समय तक यानी बुद्ध के चार सौ साल बाद ब्राह्मणीय कर्मकाण्ड
और प्रभुत्व बहुत ढीला पड़ता जा रहा था। मनुस्मृति में प्रतिपादित कड़ी व्यवस्था की
ज़रूरत उस समय के धर्म प्रमुखों को महसूस हुई। मनुस्मृति की रचना, वर्णव्यवस्था का
कड़ा विधान, धीरे धीरे शूद्रों के लिए अस्पृश्यता में बदलता चला गया। लेकिन यह
निश्चित है कि यह एकदम, एक ही समय में, किसी राजाज्ञा जैसी चीज़ द्वारा घटित होने
वाली घटना नहीं रही। एक ही ग्रन्थ से लिखे जाने के तुरन्त बाद यह सामाजिक परिवर्तन
हो गया हो, ऐसा भी संभव नहीं लगता। एक भयानक वैमनस्य, कट्टरता, घृणा, ग्लानि समाज
के एक हिस्से में प्रतिपादित होकर ब्राह्मण समुदाय द्वारा प्रचारित-प्रसारित होकर
राजाओं की छत्र-छाया में धीरे धीरे स्थापित हुई। ब्राह्मणवाद को और कड़ा होने का
स्वर्ण अवसर मिल गया जब ग्यारहवीं सदी तक आते आते मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इस देश
के धर्म को विशेष रूप से निशाना बनाया। धर्म की रक्षा एक बड़ा प्रश्न बन गया। धर्म
में जो कुछ भी है, उस की रक्षा। रीति रिवाज़ों की रक्षा। सामन्ती निज़ाम,
राजाओं-रजवाड़ों का ईश्वरीय स्वरूप, उनकी प्रजा के लिए बेख़बरी और मदमस्तता ने
धार्मिक शक्तियों को अपनी मनमानी करने की खुली छूट भी दी। पूरी क्रूरता के साथ
शक्तिसम्पन्न लोगों ने शक्तिहीनों का शोषण दमन किया। हमारे शूद्रों से अधिक
शक्तिहीन दूसरा कौन? बड़े पैमाने पर शूद्र अस्पृश्य बना दिए गए। जितनी अस्पृश्यता,
उतनी अधिक ब्राह्मणी पवित्रता। अपनी पवित्रता को प्रदर्शित करने का साधन बन गई
अस्पृश्यता। शरीर छूने से अपवित्र हो जाने में जब कोई प्रर्दशनकारी महत्व नज़र नहीं
आया तो छाया के छू जाने से भी अपवित्र होने का विधान रचा गया।
पवित्रता की एक मात्र कसौटी बन गई अस्पृश्यता। इसी का तरह तरह की क्रूरताओं में
विकास होता गया। हवा, पानी, मिट्टी सब कुछ अपवित्र हो जाता था। सभी लोगों को जिन
कामों की हर रोज़ ज़रूर पड़ती है लेकिन स्वयं कर सकना कठिन है, वे काम अस्पृश्यता
के हिस्से में आते चले गए।
मलमूत्र साफ़ करना, मृत ढोरों-जानवरों को ठिकाने लगाना, उन का चमड़ा उतारना इत्यादि
अत्यन्त अस्पृश्य, बाकी दूसरे कुछ काम कम अस्पृश्य। सो, अस्पृश्यता के भी स्तर बनते
चले गए।
इन्सान इन्सानों से अलग होते चले गए। गांवों बस्तियों से बाहर होते चले गए।
तालाबों, पोखरों, कुंओं, नदियों से अलग होते चले गए। पेड़ों, पौधों, छायाओं तक से
अलग कर दिए गए। अस्पृश्यता की कोई सीमा नहीं रही। उधर पवित्रता की कोई सीमा नहीं
रही।
पहली बार इन्सानी इतिहास में, धरती पर कहीं भी, इन्सानों को इस तरह अलग किया गया,
इस तरह छोटा किया गया, अपमानित किया गया, किसी भी गिनती से बाहर कर दिया गया। पूरी
तरह आत्महीन होकर, शरीर को कमान की तरह दोहरा झुका कर, स्मृतिहीनता और शरीरहीनता की
स्थिति में आकर कम से कम डेढ़ हज़ार वर्ष बने रहने का दूसरा उदाहरण धरती के किसी और
हिस्से में नहीं मिलता।
हालांकि कोरिया, जापान, बर्मा, थाईलैण्ड में भी अस्पृश्यता के क्रूर उदाहरण मिलते
हैं। लेकिन इतनी लम्बी देर और इतनी घनी और सारे अस्तित्व को विषाक्त करती हुई
अस्पृश्यता शायद वह नहीं थी। फिर भी, उन पर क्रूरता और अन्याय के वर्णन भी अपनी
असह्यता में कम द्रवित करने वाले नहीं हैं। वेकजियॉन, कोरिया में और बुराकुमीन,
जापान में पेशों से वही काम करते थे, रहते भी बस्तियों के बाहर थे और उसी तरह उच्च
जातियों के समक्ष झुकी कमर, प्रणामी वंदना सरीखा अभिवादन, रास्ता छोड़ कर नीचे
कच्चे में उतर जाना, ज़ुल्म सहना, काफ़ी कुछ वैसा ही था जैसा हमारे यहां था। बौद्ध
धर्म अपनी गहनता के समय में भी इन कुरीतियों को प्रश्रय दिए रहा। वैसे भी बुद्ध
धर्म हर स्थान पर परिवर्तित स्वरूप में मौजूद रहा। कोरिया इत्यादि में मांसाहार
बौद्ध वर्जनाओं के बावजूद भी प्रचलित था।
भारत में अस्पृश्यता की यह स्थिति मुस्लिम आक्रमणों से सदियों पहले ही पक्की हो
चुकी थी। लेकिन उस के बाद मुगल शासकों ने इन कमज़ोर वर्गों के ब्राह्मणीय/धार्मिक
शोषण के खिलाफ़ कुछ नहीं किया। धर्म परिवर्तन एक मात्र रास्ता था उस स्थिति से बाहर
आने का जिसे मुगलों के कारिन्दों ने खूब प्रोत्साहित किया। मुगल काल के कुछ साधु
सन्तों ने धर्म की कुरीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। लेकिन हिन्दू-मुसलमानों की आपसी
साम्प्रदायिक ईष्या-घृणा और धर्मों की आंतरिक संकीर्णता के नर्क को उन की आवाज़
कहां तक धोती। अंग्रेज़ी उपनिवेशकों का अपना तरीका रहा। उनकी कूटनीति एक तो यही रही
कि बांटो और राज करो। दूसरी यह कि समाज की कमज़ोरियों पर इतनी उंगली मत रखो कि लेने
के देने पड़ जाएं। थोड़ी बहुत उदारता, सहृदयता से काम चल जाता है। वरना कानून बनाए
जा सकते थे, उनका सख़्ती से पालन किया जा सकता था। अंग्रेज़ों ने वहीं थोड़ी उदारता
दिखाई, जहां हमारे समाज के कुछ दूरदर्शी लोगों ने कड़े विरोधों के बाद भी अपने
प्रयत्न जारी रखे।
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योरोपियन उपनिवेशकों का प्रयत्न हर देश में यही रहा कि ईसाई बनो तो अतिरिक्त
सुविधाएं देंगे। दूसरा उन का प्रयत्न हर देश में यही रहा कि नौकर चाकरों की फौज
खड़ी करो, बाबुओं की फौज खड़ी करो, सिपाहियों की फौज खड़ी करो ताकि वे अपना राज्य
सुचारू रूप से चलाते रह सकें। उन्हें केवल शासन करना था। भारतीय जनता के उत्थान से
उन का कभी कोई सरोकार नहीं रहा। कहने को तो उन्होंने हमारी जातपात से ऊपर उठ कर सभी
को बराबरी का स्थान दिया। लेकिन उन्होंने कभी कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं की जिससे
हमारे दलितों के आत्मसम्मान की रक्षा हो सके या वे सरकारी सुविधाओं का बराबरी से
प्रयोग कर सकें। उनके बनाए स्कूलों में दलित बच्चों को किसी ने घुसने नहीं दिया।
ऊंची जाति के लोग दलित बच्चों को उन स्कूलों में जाने नहीं देते थे। मारपीट हो जाती
थी। सरकार ने सख़्ती से, कानून की सख़्ती से कभी काम नहीं लिया। ऊंची जात वालों के
खिलाफ़ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं होती थी। पुलिस भेज कर वे दलितों की रक्षा का
प्रबन्ध नहीं करते थे। गांवों में जहां दलितों के प्रति ज़ुल्मों की कोई सीमा नहीं
थी, कभी सरकार ने ऊंची जाति वालों को धमकाया तक नहीं। उल्टा पिटाई अगर पुलिस ने की
भी तो दलितों की ही। भारत के हज़ारों गांवों में दलित वर्ग घोर दयनीय अंधकार की
जीवन जीते रहे। सरकार का ध्यान कभी उनकी तरफ नहीं गया। कमज़ोर वर्गों, ख़ासतौर पर
दलितों की अच्छी शिक्षा जैसी सुविधाओं के लिए अलग कानून बनाए जा सकते थे। पर
उपनिवेशक शासक कभी ऐसे कानून नहीं बनाते, जो उस समाज की कमजो़रियों को जड़ से
समाप्त करें। उन्हें केवल अपने हित पूरे करने होते हैं जो उनके इसी सामाजिक
स्थितियों के प्रति तटस्थता से ही पूरे होते हैं। कागज़ और लाठी का फ़र्क समझना
ज़रूरी है। छोटे मोटे कानून बनाना एक बात है, उन्हें लागू करना दूसरी बात।
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समाज को अपनी कुरीतियों, अन्यायों और क्रूरताओं के प्रति सावधान करने में उन्नीसवीं
सदी के सुधारवादी आंदोलनों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। उनकी भूमिका बहुत
महत्वपूर्ण रही। हालांकि उन्होंने समस्या के मूल पर प्रहार नहीं किया, फिर भी
उन्होंने एक उदार और सुहृदय वातावरण निर्मित करने में मदद की। एक बृहतर हिन्दू समाज
की संर्कीणता को चुनौती दी। एक ऐसी धरती और आकाश तैयार किया जिस में बाद के विस्फोट
के लिए जगह बने। लोग खुल कर अस्पृश्यता के खिलाफ़ बात करने लगे। उस समय के समाज
सुधारक 'हिन्दू धर्म खत्म करो, जात पात खत्म करो' जैसा नारा देते तो उन की बात ही
कौन सुनता? लेकिन हर सत्यशोधक, कल्पनाशील और जागरूक व्यक्ति इस बारे ज़रूर सोचता
होगा, ख़ास कर उस वातावरण में। लेकिन सोचना एक बात है, उसे कर पाने का सामाजिक साहस
दूसरी बात।
ज्योतिबा और सावित्री बाई फुले हमारे भारतीय इतिहास और मानस दोनों के लिए निष्ठा और
शक्ति का प्रतीक बने रहेंगे। उस समय के अंधेरे में उनका अंग्रेज़ों का पक्षधर होना
उनके प्रकाश को रत्ती भर कम नहीं करता। ब्राह्मणों की अति क्रूरताओं के समक्ष
अंग्रेज़ों का व्यक्तिगत व्यवहार और शिक्षा का सर्मथन कहीं अधिक मानवीय था। उस समय
तक भारत की स्वतन्त्रता का झुटपुटा सा प्रकाश भी हमारे क्षितिज पर उदय नहीं हुआ था।
ऐसे वातावरण में स्कूल खोलने का प्रयास सीधा ब्राह्मणवाद को जूता दिखाने जैसा था।
उनके स्कूल से पढ़ी एक छात्रा मुक्ताबाई ने चौदह वर्ष की आयु में एक लेख लिखा था
''ओ मूर्ख ब्राह्मणो, अपनी खोखली विद्वता को समेटो और मुझे जो कहना है, उसे
सुनो....?'' यह लेख 1855 में प्रकाशित हुआ, जब दलित आंदोलन अभी शुरू भी नहीं हुआ
था।
बाद में महाराष्ट्र ही दलित आंदोलन की जन्मभूमि भी बनी और अपने विकसित रूप में
विचारभूमि भी। महाड़ आंदोलन भारतीय समाज की अस्मिता को आईना दिखाने वाला आंदोलन रहा
जो वास्तव में फुले दंपति ने उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में ही शुरू कर दिया था।
बाद में बाबा साहेब आंबेडकर ने इन्हीं प्रयासों से प्रेरणा ली और ज्योतिबा फुले को
अपना गुरु भी माना।
आधी पौनी सदी बाद बाबा साहेब आम्बेडकर जैसे व्यक्ति को ही सामने आना था, सुधारवादी
धुन्ध को चीर कर। प्रकाश के रास्ते में आते हुए किसी भी मोटे या झीने परदे को बाबा
साहेब ने चीर कर रख दिया। काटकर फेंक दिया वह मायावी ताना बाना, वह जाल, जिस में
मकड़ी की तरह कितनी सदियां झूलती रहीं। वे नैतिक और सामाजिक साहस का ऐसा ज्योतिपुंज
थे, जिस की तरफ सीधा देखना अंधेरे की आदी हो गई मिचमिचाती आंखों के लिए संभव नहीं
था। गांधी जैसे व्यक्तित्व से सीधा टकराव भी इसी शक्ति का प्रमाण था। गांधी जी ने
भी जात पात समाप्त करने की बात नहीं की थी। लेकिन उनकी देन को किसी भी तरह छोटा
करके नहीं देखा जा सकता। वे एक समग्र राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक लड़ाई
के अगुआ थे। उपनिवेशक शक्तियों को बाहर निकाल फेंकना उनका उद्देश्य था। ऐसे में
अधिक से अधिक जनता का समर्थन पाना उनका लक्ष्य था और राजनीतिक मजबूरी भी। धर्म और
जाति उनकी भी कमज़ोरी बनी रही। लेकिन अस्पृश्यता के खिलाफ़ जैसी दूरदर्शी लड़ाई
गांधी ने शुरू की और अन्त तक जारी रखी, उस का योगदान आसानी से आंका नहीं जा सकता।
वह इतना व्यापक है कि एक जमाने में गांधी और हरिजन एक दूसरे के पर्यायवाची जैसे हो
गए थे। हालांकि हरिजन कोई उपयुक्त शब्द नहीं था। यहां फिर वही धर्मपरायणता थी। जो
कमी गांधी में रह गई या वे कर नहीं पाए, वह बाबा साहेब आम्बेडकर ने कर दिखाया। जिस
आक्रामक विश्लेषण और कार्यक्रम की आवश्यकता दलित समाज को थी, वह बाबा साहब की ही
देन है। दलित सामज के हर पहलू को अपनी लगभग पूर्णता में सिर्फ़ बाबा साहेब ने ही
देखा, परखा, विश्लेषित किया और दूरगामी उपाय हमारे समाज के सामने रखे।
इतनी पुरानी व्याधि को शुद्धिवादी या सुधारवादी आत्मशक्ति या आत्मशुद्धि से दूर
नहीं किया जा सकता। यह बात वे साफ़ साफ़ देखते थे। सारे भारतीय समाज की आत्मशुद्धि
बड़ा सीमित तरीका है दलितों की सभी समस्याओं से टकराने का। उन की अवमाननाओं,
अपमानों को दूर करने का और उन के सामान्य नागरिक अधिकारों के साथ साथ उन्हें कुछ
विशेष अवसर दिलाए जाने का। लेकिन एक बात स्पष्ट है, उन दोनों के संघर्ष के तरीके
अलग अलग भले ही हों, एक दूसरे के विरोधी तो नहीं ही थे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात
इस विरोधी परिदृश्य की यह रही कि - हमारे गांधी, तुम्हारे आम्बेडकर - जैसी बालहठ
वाली स्थिति बनी, जिसे आज तक भी दूर नहीं किया जा सका।
समन्वय और सामंजस्य कोई कमज़ोर समझौता नहीं होता, बल्कि वह ज़्यादा शक्तिशाली विचार
बन कर इस व्यापक लड़ाई के खिलाफ़ सांझा मोर्चा बन सकता है।
आज हम इस समस्या के बड़े नाज़ुक मोड़ पर आए हुए हैं। भारतीय प्रजातांत्रिक समाज की
अपनी राजनीतिक सीमाएं हैं। जहां बहुमत ही सभी निर्णयों का आधार बनता हो, वहां कई
ऐसे अन्याय बने रहते हैं जिन्हें सिर्फ़ बहुमत के आधार पर दूर नहीं किया जा सकता।
बहुमत केवल अधिक संख्यकों के पक्ष में ही हर बात होने की काफ़ी गुंजायश छोड़ देता
है। बिना लड़ाई के अल्पसंख्यक लोगों को अपने अधिकार मिलने मुश्किल हो जाते हैं।
हमारे सारे ज्ञान, विज्ञान धर्मों, दर्शनों, नीतियोंविचार प्रणालियों ने अभी भी
इन्सान की भीतरी दुनिया को इतना प्रकाशित नहीं किया है कि वे अपनी संख्या और शक्ति
को बिना देखे सिर्फ़ न्याय की बात सोचें। उदारता में कमज़ोरों के लिए कुछ करने में
तुष्टि का गर्व अधिक है, न्याय कम। इस लिए उदारता का दंभी स्वरूप कभी कोई समस्या हल
नहीं करता। केवल न्याय और उस का सख़्ती से पालन ही एक राजनीतिक तरीका हो सकता है
किसी समस्या को हल करने का। कई बार न्याय सिर्फ़ आज के ज़ुल्मों के खिलाफ़ ही नहीं
काम करता। पचास साल पहले के कुकृत्य की सज़ा भी आज के न्याय में शामिल है। पूरे
व्यक्ति ने एक कमज़ोर समाज पर यानी एक कमज़ोर व्यक्ति पर लगातार ज़ुल्म किये, तो
क्या उसे बहुत पुरानी बात कह कर विस्मृत कर दिया जाए? उस से जो लगातार क्षति हुई
है, उसे भी पूरा करना होगा। किस तरह पूरा करना होगा, उसे केवल एक न्याय प्रणाली ही
सुझा सकती है। इस बात को सिर्फ़ बहुसंख्यक समाज या राजनीतिक रूप से अधिक शक्तिशाली
वर्ग अपने बनाए तरीकों से हल नहीं कर सकते अगर उन में न्याय बुद्धि नहीं है। आज
हमें उदारता की दया नहीं चाहिए, न्याय का कठोर विधान चाहिए, चाहे उसे जैसे भी लागू
करना पड़े।
समान अवसरों की बात तभी की जा सकती है जब सभी वर्गों की स्थिति समान हो। असमान
स्थिति वाले वर्गों में केवल समान अवसरों की बात न्यायसंगत नहीं है। स्थितियां समान
बनने तक, कुछ असमान वर्गों को अधिक सुविधाएं देनी ही पड़ेंगी। इस के साथ साथ,
स्थितियों को समान बनाने के उपाय भी जारी रखने पड़ेंगे। यह भी ध्यान रखने की बात है
कि समानता और असमानता केवल आर्थिक ही नहीं होती। एक वर्ग में किसी की आर्थिक स्थिति
बदलने में पांच वर्ष लग सकते हैं तो किसी दूसरे वर्ग में जिस का पूरा ढांचा ही
कमज़ोर हो, वहां उसी स्थिति को दस वर्ष भी लग सकते हैं। और फिर समान अवसरों की बात
भी बिल्कुल खोखली है। सभी बच्चे स्कूल जाकर पढ़ लिख सकते हैं कहने मात्र से समान
अवसर नहीं मिल जाते। खाली हाथ स्कूल जाना और भरे बस्ते के साथ स्कूल जाना समान अवसर
नहीं है। अलग अलग तरह के स्कूलों में जा सकने की समर्थता और असमर्थता भी समान अवसर
नहीं है। स्कूल में बच्चों के साथ अलग अलग व्यवहार भी समान अवसर नहीं है। शुरू से
ही, कहीं भी समान अवसर नहीं है। सारा समाज मिल कर अगर सभी को समान अवसर दे सके तो
इस से अच्छी और कोई बात नहीं - लेकिन समान अवसर एक झूठ की तरह ज़बान पर आता है जिसे
बोलने वाला भी जानता है कि यह झूठ है और सुनने वाला भी बेबस होकर सोचता है कि एक
शक्तिशाली के झूठ का मैं कैसे उत्तर दूं, कैसे सामना करूं?
तो पहली बात यही है कि समान अवसरों की वास्तविक और सच्ची स्थितियाँ पैदा करो। दूसरी
बात यह कि समान अवसरों की पूरी उपयोगिता भी तभी होगी जब यह पिछली कमी किसी हद तक
पूरी हो जाएगी।
यह एक दोहरा संघर्ष है। इसीलिए एक न्यायपूर्ण तरीके से कुछ अतिरिक्त सुविधाओं के
साथ साथ समान अवसरों का आयोजन शायद एक लम्बी अवधि के बाद ऐसा वातावरण तैयार कर सके
जहां व्यवहार की बराबरी भी हमें मिल सके। इसके लिए धार्मिक, आर्थिक या परिस्थितक
आवेश की नहीं, संवैधानिक और राजनीतिक नियमों के तहत एक कठोर सांस्कृतिक और आर्थिक
न्याय की ज़रूरत है।
(जून 2008)