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निबंध


लड़की की पुनर्रचना
कृष्ण कुमार

Krishna Kumar
कृष्ण कुमार
हिंदीसमयडॉटकॉम पर उपलब्ध

निबंध

लड़की की पुनर्रचना



जन्म

:

1950, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

भाषा :

हिंदी, अंग्रेजी

विधाएँ : कहानी, निबंध, यात्रा वृत्तांत, बाल साहित्य
प्रमुख कृतियाँ : निबंध : विचार का डर, बच्चे की भाषा और अध्यापक, शैक्षिक ज्ञान और वर्चस्व, राज समाज और शिक्षा, शिक्षा और ज्ञान, स्कूल की हिंदी, गुलामी की शिक्षा और राष्ट्रवाद, Social Character of Learning, Political Agenda of Education, Learning from Conflict; What is Worth Teaching; The Child’s Language and the Teacher, Prejudice and Pride, Battle for Peace, Education and Social Change in South Asia (jointly edited with Joachim Oesterheld), A Pedagogue’s Romance.
कहानी संग्रह : त्रिकालदर्शन, नीली आँखोंवाले बगुले
यात्रा वृत्तांत : अब्दुल मजीद का छुरा
बाल साहित्य : आज नहीं पढ़ूँगा
 
सम्मान   पद्म श्री, शरद जोशी सम्मान

संपर्क

: 33-ए छात्र मार्ग, दिल्ली विश्वविद्यालय परिषद, दिल्ली-110007
फोन   011-27667714
ई-मेल  

anhsirk.kumar@gmail.com

चूड़ी की दुकान में प्रवेश करते समय लड़कियों की सामाजिक ढलाई का कार्यक्रम एक खास मुकाम पर पहुँच जाता है। जब कोई लड़की चूड़ियों के रंग और डिजाइन की विविधता देखती है, दुकान में रखी चूड़ियों की विपुल राशि में से अपने लिए चूड़ियाँ चुनती है, उन्हें पहनने के लिए अपने हाथ दुकानदार के हाथों के सामने पेश करती है, तो वह संस्कृति के एक लंबे एजेंडा की तामील कर रही होती है। जैसे एक पत्थर किसी इमारत की दीवार में लगाए जाने से पहले अपनी जमीन से हुमसाया जाता है, लोहे के मजबूत औजारों से तोड़ा और तराशा जाता है, कुछ वही हाल बचपन और किशोर वय में लड़की का होता है। लोहे के औजार उस पत्थर के लिए हथियार हैं जिसे दीवार में लगाया जाना है। संस्कृति की दीवार में लड़की को जमाया जाना भी लोहे जैसी निर्मम कठोरता की माँग करता है। इसके पहले कि लड़की परिवार और जाति की सुदृढ़ इमारत की मजबूती का माध्यम बन सके, उसे तोड़ा और तराशा जाना आवश्यक है। उसकी बाल्योचित स्वच्छंदता पर उतना ही निर्णायक प्रहार किया जाना जरूरी है जितना उसकी मानवोचित स्वाधीनता पर। यह काम ममता और स्नेह से नहीं हो सकता, मगर इस काम को अंजाम देने के वास्ते परिवार और समुदाय की चौहद्दी से बाहर की जगहें भी उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि संस्कृति का प्रजनन तो इन्हीं संस्थाओं में होना है। इस विवशता के चलते परदे की जरूरत पड़ती है, एक ऐसे परदे की जो कोमलता और परवरिश का नाटक सामने जारी रखते हुए, पीछे हथौड़ों के जरिए पत्थर को तोड़ने और उसे दीवार के लायक सपाट बनाने का अनवरत काम चालू रख सके। ऐसे उपयोगी परदे का विस्तार इतना होना चाहिए कि वह समाज की हर आँख में लटक जाए, हर कान में तन जाए ताकि तोड़ी तराशी जाती लड़की की चीखें और सिसकियाँ न दिखाई दें, न सुनाई। संस्कृति का जीवन तभी तक अक्षुण्ण है जब तक लड़की के स्वभाव के कुचले जाने और उसकी आत्मा की घुटन से कोई विचलित न हो, न पिता, न माँ। विचलन हो तो यदाकदा और क्षणिक, जैसा कन्यादान के समय होता है और उचित, अस्थायी व सहनीय बना रहता है। अंततः लड़की टूट जाए। उसकी पुनर्रचना हो जाए - एक बच्चे से बदल कर एक संज्ञाहीन मशीन में, जिसके कुछ उपयोग सामाजिक हों, कुछ जैविक। यह भी जरूरी है कि इस आमूल पुनर्रचना के बाद वह अपने वजूद की क्षणिकता को जेहन में उतार ले, एक समूची मनुष्य होने की स्वाभाविक स्मृति से उबर जाए। चूड़ी की तरह मायावी रंग और चमक का घेरा बन जाए।

कोई लड़की संस्कृति के हथियारों के आगे एक दिन में घुटने नहीं टेकती। उसे इस महासमर्पण के लिए धीरे धीरे तैयार किया जाता है। यह अभियान किस आयु से शुरू होता है, यह कहना कठिन है, क्योंकि भारत विविधताओं का देश है। लड़की के जन्म पर दुःख मनाने की परंपरा देश के अनेक भागों में प्रचलित है। जन्म के बाद उसकी हत्या कर देने का विकल्प अब जन्म से पूर्व मार डालने की टेक्नालाजी के रूप में उभरा है और तेजी से लोकप्रियता हासिल कर रहा है। बालिका को नारी बनानेवाले विधानों, रिवाजों और वयस्क व्यवहारों में व्याप्त विविधता के बीच स्थापित इस बात की अकाट्य एकाग्रता देखने लायक है कि लड़की के स्वभाव को आमूल बदलना जरूरी है। उसके स्वभाव को ले कर संस्कृति में गहरे गड़ा संशय कई पहलुओं से देखा-समझा जाने योग्य है। लेकिनइन पहलुओं को तीन वर्गों में रख कर देखा जा सकता है : पहला, स्त्री की अविश्वसनीयता से सम्बंध रखनेवाले विचारों का आयाम; दूसरा, उसकी अमिट अशुद्धता का, और तीसरे में शामिल है लड़की की यांत्रिक उपयोगिता का सुरक्षित दोहन करने की तरकीबें। इन तीन आयामों की पड़ताल करके भी यदि हम अपने बीच बड़ी होती बालिकाओं की पीड़ा न भाँप सकें, तभी यह सिद्ध होगा कि संस्कृति की धारा में हम कितना गहरे डूबे खड़े हैं, ऐसी समाधि की अवस्था में जिसे मात्र तार्किक विश्लेषण से कोई खतरा नहीं है। इस विश्लेषण का पाठक यदि पुरुष है तो उसे एक ऐसी संवेदना को अपने भीतर जन्म लेने देना होगा जो आसपास के माहौल में कोई सहारा या पोषण न तलाशे। यदि आप स्त्री हैं तो इस विश्लेषण को पढ़ कर आप सम्भवतः उस सुदूर भविष्य का सपना देख सकेंगी जब लड़कियाँ उस तरह की स्त्री बनने से इनकार कर देंगी जैसी आपको बनाया गया।

लड़की को बालिका से स्त्री बनाने के अभियान में निरंतर ऊर्जा देनेवाला संशय जिन अवधारणाओं में जड़ें पसारे है, उनमें सबसे पहले स्त्री के प्रति अविश्वास आता है जो दरअसल कई अवधारणाओं का गुच्छा है। स्त्री के प्रति अविश्वास का आधार उसकी सामान्य यौनिकता को पुरुष के लिए एक खतरे के रूप में देखने का विचार है। इस विचार की परंपरा लंबी और बुनावट जटिल है। परंपरा सिर्फ भारत की नहीं है, न ही उसका दायरा हिंदू मान्यताओं तक सीमित है। ब्रह्मचर्य जैसा शीर्षक हमें यह सोचने नहीं देता कि स्त्री के प्रति अविश्वास की बुनावट में निहित डर, घृणा, लालसा और हिंसा का तानाबाना पुरुष को किस कदर कसी हुई सामाजिक पोशाक पहनाता है। ये चारों भाव स्त्री की यौनिकता में केंद्रित हैं और पुरुष को यह छूट देते हैं कि वह स्त्री की यौनिकता को पूर्णतः अपनी दृष्टि और जरूरतों में लीन हो कर रचे और इस रचना के आधार पर स्त्री को जिंदा रखने के लिए सामाजिक विधानों का एक हाशिया बनाए। हाशिए के पार पुरुष स्वयं जब-तब मर्जी से जाता है, मगर स्त्री को इस पार आने की सुविधा नहीं है, इजाजत भी नहीं है, सिवाय एक शर्त के तहत, कि वह अपना आत्मसम्मान पुरुष के पास गिरवी रख दे।

स्त्री की अविश्वसनीयता सिद्ध करनेवाले आख्यान हमारे वातावरण का हिस्सा हैं और यह नितांत असंभव है कि कोई बालक या बालिका इनसे प्रभावित हुए बगैर वयस्क बन जाए। स्त्री पर संदेह करना वाजिब है, इस मान्यता का हर पीढ़ी में पुनरारोपण करने के लिए सीता की अग्निपरीक्षा की कथा ही काफी है। ऐसी कठोर परीक्षा देने के लिए सीता की पहल और राम की स्वीकृति की कथा समझने के लिए हमें उन तर्कसरणियों में उतरना पड़ेगा जहाँ राम के व्यक्तिगत व राजसी रूपों में फर्क करना जरूरी माना जाता रहा है। 'समझने' से आशय यहाँ आत्मसात करने से अलग है; भले आम तौर पर समझने का आशय आत्मसात करना माना जाता है। इस प्रसंग में समझने के रास्ते में मुख्य बाधा ही यह है कि हम सीता की अग्निपरीक्षा की कथा को आत्मसात कर चुके हैं अर्थात उसे अपनी मानसिक दुनिया का ढाँचा बना चुके हैं। इस ढाँचे की मजबूती और हमारे मानस में उसकी साँचे जैसी उपस्थिति हमें किसी प्रश्न या संदेह के पैदा होने से पहले 'समझा' देती है कि जब सीता जैसी महान स्त्री को अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए आग में घुसना पड़ा तो सामान्य स्त्रियों की क्या बिसात यानी उन्हें सर्वदा संदेह के घेरे में रहने की आदत होनी चाहिए। इस सरल सत्य को किसी पुष्टि की जरूरत नहीं है कि सीता के सामने अग्निपरीक्षा देने के सिवाय कोई चारा नहीं था। वाल्मीकि के शब्दों में राम ने सीता से कहा था :

कः पुमांस्तु कुले जातः स्त्रिायं परगृहोपितास्‌।

तेजस्वी पुनरादद्यात्‌ सुन्हल्लोभेन चेतसा॥

(कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को, केवल इस लोभ से कि वह मेरे साथ बहुत दिनों तक रह कर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा।)

रावणाङ्‌कपरिकिलष्टां दृष्टां दुष्टेन चक्षुषा।

कथं त्वां पुनरादद्यां कुलं व्यपदिशन्महत्‌॥

(रावण तुम्हें अपनी गोद में उठा कर ले गया और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में अपने कुल को महान बताता हुआ मैं फिर तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ?)

यदर्थे निर्जिता में त्वं सोत्त्यमासदितो मया।

नास्ति में त्वएयभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामिति॥

(अतः जिस उद्देश्य से मैंने तुम्हें जीता था, वह सिद्ध हो गया। मेरे कुल के कलंक का मार्जन हो गया। अब मेरी तुम्हारे प्रति ममता या आसक्ति नहीं है; अतः तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो।)

तद्द्य व्याहृतं भद्रे मयैतत्‌ कृतबुद्धिना।

लक्ष्मणे वाथ भरते कुरु बुद्धिं यथासुखम्‌॥

(भद्रे! मेरा यह निश्चित विचार है। इसके अनुसार ही आज मैंने तुम्हारे सामने ये बातें कही हैं। तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के संरक्षण में सुखपूर्वक रहने का विचार कर सकती।)

जब कोई दस ग्यारह बरस की बालिका यह आख्यान सुनती है (और प्रायः इस उम्र तक पहुँचने से पहले वह इसे किसी न किसी रूप में कई बार सुन चुकी होती है भले उतने विस्तार में नहीं जितना वाल्मीकि रामायण में मिलता है) तो बगैर समझाए मन ही मन समझ लेती है कि सीता ने अग्निपरीक्षा देने की जरूरत क्यों महसूस की होगी और उनके पास इसके क्या विकल्प थे।

इस दृष्टि से देखें तो अग्निपरीक्षा एक परीक्षा नहीं थी। परीक्षा उसे कहते हैं जिसमें भाग लेने के पीछे कोई विकल्पबोध हो। सीता के संदर्भ में इन दोनों शब्दों - परीक्षा और इच्छा - पर थोड़ा रुक कर विचार करना आवश्यक है। परीक्षा का एक अर्थ, जो इस शब्द की मुख्य प्रयोगभूमि है, अपनी योग्यता सिद्ध करने का अवसर है। दूसरा अर्थ, जो परीक्षा की व्यंजनाभूमि है, जाँच है। स्कूल में चोरी हो जाने पर अध्यापक हर बच्चे की परीक्षा इस नाते ले सकता है कि सच्चाई पता लग जाने तक हर बच्चे पर संदेह करना एक तार्किक जरूरत है। चोरी के बारे में पूछताछ या बच्चे द्वारा की गई मनाही के हर आयाम को टटोलना एक तरह की परीक्षा है जिसे निस्संकोच लेने का अधिकार शिक्षक को उसकी हैसियत के कारण मिला है। मुझे आशा है कि सीता की अग्निपरीक्षा को इस तरह की परीक्षा की श्रेणी में रखना चाहनेवाले पाठक विरल होंगे। भले ऐसे पाठकों की संख्या दो- चार ही हो, उनकी बात पर विचार करके ही हमें परीक्षा के पहले अर्थ पर लौटना चाहिए। इन पाठकों को लगा होगा कि सीता की अग्निपरीक्षा हो लेने-देने का निर्णय आखिर एक अपराध की आशंकावश लिया गया होगा। यह निर्णय सीतापति राम का था या अयोध्यापति राम का, इस बात से इतना ही फर्क पड़ता है कि निर्णय में कितने लोग भागीदार थे और क्या मौके पर मौजूद गवाहों को भी निर्णय में भागीदार माना जाए। मगर इस प्रश्न से परीक्षा के मूल विचार पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। यह एक सार्वजनिक परीक्षा थी जिसका, कम से कम, घोषित उद्देश्य जनमन में उठ सकनेवाली आशंकाओं का निवारण था। निरुपाय सीता की 'स्वेच्छा' से एक सार्वजनिक परीक्षा के आयोजन का निर्णय लेने से राम इस बात को ले कर निश्चिंत हो गए होंगे कि परीक्षा का परिणाम जो भी होगा, उनके पक्ष में होगा : यदि सीता अग्नि से सुरक्षित रहती हैं तो और जल जाती हैं तो भी, अर्थात दोनों ही स्थितियाँ राम की चिंता दूर करेंगी -- भले ही दूसरी स्थिति में उन्हें एक पति के नाते मानसिक कष्ट पहुँचे। अग्निपरीक्षा में अनुत्तीर्ण रहने की स्थिति में सीता राम के राजा रूप को और भी ज्यादा इस नाते निखारतीं कि पति रूप में उन्हें मानसिक क्लेश पहुँचा चुकी होतीं। उस कष्ट के स्वरूप का विश्लेषण हम न भी करें तो भी यह स्पष्ट है कि अग्निपरीक्षा होने देने का निर्णय प्रशासक राम के लिए एक सुरक्षित निर्णय था।

अब हम इस परीक्षा को 'देने' वाली सीता के नजरिS पर आते हैं। परीक्षा की अवधारणा का यह अपेक्षाकृत ज्यादा सामान्य अर्थ है जिसके अनुसार वह अपनी योग्यता का प्रमाण पा कर दूसरों की दृष्टि में एक सीढ़ी ऊपर चढ़ जाने का जरिया होती है। इस अर्थ में परीक्षा देने का फैसला यदि पूरी तरह परीक्षार्थी का न भी हो, तो भी एक हद तक अवश्य होता है। परीक्षा से डरनेवाले बच्चे को मानसिक रूप से तैयार करना माता-पिता या शिक्षक का काम होता है। बच्चे को परीक्षा देने के लिए राजी करने में उसे यह समझाना शामिल रहता है कि परीक्षा देना न केवल उसके हित में है, बल्कि परीक्षा दे कर और उसमें उत्तीर्ण हो कर वह आज के मुकाबले बेहतर माना जाएगा। बेहतर हो जाने का एक आयाम दूसरों की नजर में एक सीढ़ी ऊपर चढ़ जाना होता है। सीता के आख्यान में यह आयाम स्पष्ट ही प्रासंगिक है, यद्यपि वहाँ सवाल एक सीढ़ी चढ़ने का उतना नहीं, कई सीढ़ियाँ लुढ़कने से बचने का अधिक था। मगर यह अंदाजा लगाना व्यर्थ ही है कि परीक्षा 'देने' की इच्छा सीता ने किस उपलब्धि या प्रमाण की चाह में व्यक्त की होगी। यह प्रश्न बेमानी इस कारण है कि अग्निपरीक्षा देने को ले कर सीता के पास कोई विकल्प नहीं था। वाल्मीकि रामायण में दिए गए विवरण को आधार मानें तो स्पष्ट दिखता है कि सीता अपने पक्ष में संभव तर्क ही नहीं दे चुकी थीं, वे भावनात्मक रूप से चकित, विह्‌वल और विकल होने के बाद विवशता की अवस्था में पहुच चुकी थीं। वे अग्नि के परीक्षक रूप यानी स्त्री की अग्निपरीक्षा के विचार से जरूर पूर्वपरिचित रही होंगी। यह समूचा प्रसंग इस विचार की उस युग में सांस्कृतिक उपस्थिति सिद्ध करता है कि स्त्री की शुद्धता उतनी ही नाजुक है जितनी अग्नि की शोधक निर्ममता, अतः इस रहस्य का उद्घाटन कि कोई स्त्री पूर्णतः शुद्ध बनी हुई है या नहीं, अग्नि जैसा निर्मम परीक्षक ही कर सकता है जो स्त्री को छिपने या अपने अनुभव को छिपाने के लिए कोई स्थान न छोड़ता हो। ऐसे मान्य विचार पर आधारित परीक्षा से अपरिचय का भाव दिखाना एक तरह से उसमें बैठने से मना करने या डरने जैसा होता। यह रास्ता सीता के लिए बंद था। वे परीक्षा 'दे' नहीं रही थीं, उनसे यह परीक्षा 'दिलाई' जा रही थी। भले हम इसे जबरन कहें या 'आयोजित करने' जैसे नरम जुमले का प्रयोग करें।

यहाँ यह याद करना प्रासंगिक रहेगा कि आग के संदर्भ में स्त्री का परीक्षार्थी रूप हमारी सभ्यता के अन्य आख्यानों में इसी तरह की विवशता लिए उभरता है। सती हो या जौहर, स्त्री के संदर्भ में आग से जुड़े ये लोकाचार उसकी सहमति का मर्म लपेटे रहते हैं, पर उनमें सहमति या मति की गुंजाइश नहीं होती। स्त्री को विवश होता देखने की सामूहिक इच्छा का संस्कार उसे आग में झोंकने का दृश्य रचे या उसके कपड़े हटाने का (जैसा कि द्रौपदी के साथ हुआ), अंततः वह नारी को स्थायी और अनिवार्य रूप से निर्बल सिद्ध करने के प्राचीन अभियान का हिस्सा है। कोई स्त्री या बच्ची जब भी, छोटी से छोटी दैनिक पारिवारिक घटना में भी, सबल दिखने का प्रयास करती है तो वह एक पुरातन सामाजिक संस्कार को छेड़ने का खतरा मोल ले रही होती है। इस खतरे की गहराई में जाने का क्षण आ पहुँचा है और हम भाग्यशाली हैं कि इस दुर्गम, दर्दनाक यात्रा में जानकी जैसा महान चरित्र हमारे साथ है। मैं जानबूझ कर यहाँ सीता को उनके पैतृक नाम से याद कर रहा हूँ। जो विश्लेषण हम अब करने जा रहे हैं, उसका उद्देश्य सिर्फ उस सीता को समझना नहीं जो पत्नी की भूमिका निभा रही थीं, बल्कि उस बेटी को समझना भी है जिसे उसके पिता ने इस तरह बड़ा किया होगा कि वह पत्नी की भूमिका निभा सके।

कल्पना कीजिए कि सीता अग्निपरीक्षा का प्रस्ताव न रखतीं। इस संभावना के कम से कम तीन चरण हो सकते थे। एक, यह परीक्षा जिस संदेह का निवारण करती है, वह अनुचित है; दूसरा, ऐसा संदेह करने का अधिकार मैं किसी को नहीं दूँगी; तीसरा, परीक्षा मेरी ही क्यों ली जाए। इन तीन में से पहला कारण ही संभाविता के दायरे में आता है, शेष दो मात्र तार्किक कल्पनाएँ हैं क्योंकि संदेह और उसकी पुष्टि या निर्मूलन का अधिकार सीता के पास होना संभाविता के दायरे में नहीं था, वरना वे अग्निपरीक्षा जैसी खतरनाक यातना भोगती ही क्यों। पहला कारण इसलिए भी विचारणीय है क्योंकि इसमें निहित प्रश्न एक संवाद है जो अग्निपरीक्षा के वैकल्पिक परिणामों को ले कर चलाया जा सकता है -

विकल्प परिणाम

1. परीक्षा से गुजरना जल जाना

2. परीक्षा न देना बच जाना

3. परीक्षा से गुजरना बच जाना

परीक्षा से गुजरना अथवा न गुजरना यदि सीता के हाथ में होता, तो भी ऊपर दी गई तालिका में विकल्प संख्या एक और दो के परिणाम समान रूप में गंभीर होते। इतना तय है कि आग से किसी भी तरह का डर या उसमें प्रवेश करने से संकोच सीता को अग्निपरीक्षा लिए जाने योग्य सिद्ध करता। चुनौती शायद धधकती आग में प्रवेश करके बगैर जले निकल आने की नहीं थी; चुनौती तो आग से सामान्य मनुष्य को लगनेवाले भय से मुक्त दिखने की थी। यदि ऐसी निडरता स्त्री के उस अमानवीय या देवी रूप का लक्षण है जिसकी चर्चा महादेवी वर्मा ने 'श्रृंखला की कड़ियां' में जगह-जगह की है, तो हम इस रूप के मनोवैज्ञानिक निहितार्थों की कल्पना कर सकते हैं। वाल्मीकि ने सीता के अग्निप्रवेश के समय उठे सामूहिक कोलाहल का चित्रा खींचा है। आग की ओर बढ़ कर उसमें प्रवेश कर जाने में निहित उनकी निडरता को देख कर अग्निपरीक्षा के साथ उठे कोलाहल के चलते आग से सीता को पहुँची स्वाभाविक शारीरिक क्षति की ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो। वाल्मीकि रामायण का विवरण भी यहाँ हमारा सांसारिक साथ नहीं देता। अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण सीता आख्यान के धरातल से उठ कर मिथक की पूर्णता पा जाती हैं जहाँ समीक्षाकर्म आस्था का मोहताज हो जाता है, विश्लेषण की संभावना खो बैठता है :

तरुणादित्यसंकाशां तप्तकागचनभूषणाम्‌।

रक्ताम्बरधरां बालां नीलकुगिचतमूर्धजाम्‌।

अक्लिष्टमाल्याभरणां तथारूपामनिन्दिताम्‌

ददौ रामाय वैदेहमिङ्के कृत्वा विभावसुः॥

(सीता जी प्रातःकाल के सूर्य की भांति अरुण पीत कांति से प्रकाशित हो रही थीं। तपाए हुए सोने के आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। उनके श्रीअंगों पर लाल रंग की रेशमी साड़ी लहरा रही थी। सिर पर काले-काले घुँघराले केश सुशोभित होते थे। उनकी अवस्था नई थी और उनके द्वारा धारण किए गए फूलों के हार कुम्हलाये तक नहीं थे। अनिंद्य सुंदरी सती साध्वी सीता का अग्नि में प्रवेश करते समय जैसा रूप और वेश था, वैसे ही रूप सौंदर्य से प्रकाशित होती हुई उन वैदेही को गोद में ले कर अग्नि देव ने श्रीराम को समर्पित कर दिया।)

अव्रवीत्‌ तु तदा रामं साक्षी लोकस्य पावकः।

एषा ते राम वैदेही पापमस्यां न विद्यते॥

(उस समय लोकसाक्षी अग्नि ने श्रीराम से कहा - श्रीराम! यह आपकी धर्मपत्नी विदेह राजकुमारी सीता है। इसमें कोई पाप या दोष नहीं है॥)

इस सार्वजनिक कोलाहल का मुख्य भाव सीता के प्रति व्यक्त की गई शंका के निर्मूल सिद्ध होने से उत्पन्न राहत और खुशी का रहा होगा।

इस समूचे प्रसंग को अब यदि सीता के दृष्टिकोण से देखें तो अग्निपरीक्षा उनके लिए एक चुनौती नहीं, लाचारी रही होगी। वे कितने ही मनोबल की धनी रही हों, अग्निपरीक्षा का प्रस्ताव रख कर परीक्षा के दौरान जल जाने के डर का विचार उनके मन में जलने की यातना से भी ज्यादा भयानक परिणाम की आशंका लाया होगा। डर या संकोच का कोई भी लक्षण दिखा कर वे परीक्षा के पहले ही अनुनीर्ण हो जातीं! आग का मानवोचित डर किसी प्रकार अपने चेहरे पर आने देना उन्हें महँगा पड़ता, यह बात उनके मन में उस दिन एकाएक नहीं आई होगी, बचपन में हुए लंबे समाजीकरण की पूर्वनिश्चित परिणति रही होगी। लड़कियों को बालसुलभ गोपनीयता की इच्छा से मुक्त कराने का प्रयास परिवारों में आज भी उतनी ही एकाग्रता से किया जाता है जितनी उन्हें बड़ों की पैनी निगाह से बिंधने के डर को दबा लेने का अभ्यास कराने में देखी जाती है। इस तरह के प्रसंग भी जानकी ने अवश्य सुन रखे होंगे जिनमें कोई भेद पता न चल पाने पर आग से परीक्षा ली जाती है। आग में प्रवेश करते समय यदि कोई मानवोचित डर उठा भी हो तो वह आग के करीब जाने से लगनेवाले भय से कहीं ज्यादा वास्तव में जल जाने का रहा होगा क्योंकि जल जाने पर भी वे अपने चरित्र को ले कर उठ रहे प्रश्नों का औचित्य सिद्ध करतीं। सीता के सामने कोई विकल्प नहीं, एक स्थिति थी जिसकी सीमाएँ एकदम स्पष्ट थीं। आग में जल कर यानी क्षति -- भले वह सांकेतिक ही हो -- पा कर वे वही सिद्ध करतीं जो आग में प्रवेश करने से मना करके करतीं। वे एक ऐसे अर्थ में विवश कर दी गईं जो मनुष्य की मूलभूत स्वतंत्रता और गरिमा के खंडन से कम नहीं है। आखिर वह एक परिस्थिति विशेष में उन पर थोपी गई लाचारी नहीं थी, ऐसी विवशता थी जो उनके स्त्री होने को चरितार्थ करती थी। इस निष्कर्ष की अतिरिक्त पुष्टि हम एक साधारण-सा प्रश्न पूछ कर प्राप्त कर सकते हैं जिसका जवाब हर बच्ची भी जानती है। प्रश्न है कि सीता के स्त्री होने में वह क्या था जो उनके लंका में बिताए दिनों को प्रश्नों के घेरे में लाता था? यह एक बुनियादी प्रश्न है जिसके प्रकाश में हम लड़कियों के समाजीकरण का गहनतम अँधेरा देख सकेंगे। प्रश्न का उनर ढूँढ़ने का एक रास्ता सीता की परीक्षा के माध्यम को समझने का है।

आग विश्व की कई संस्कृतियों में मनुष्य की हिम्मत जाँचने, परखने का माध्यम मानी गई है। वैसे भी आग में कूद पड़ना एक मुहावरे के तौर पर निर्णय का बोध कराता है। मनुष्य के धैर्य का अंत हो जाना कठिनतम काम करने का फैसला लेने का रूप बन जाता है। आग की मदद से स्वयं को दोषमुक्त सिद्ध करने का यह आख्यान स्त्री के नारी रूप की सबसे सहज सीमा का बोध कराता है। सहज यह इसलिए है क्योंकि नारी होने के नाते 'शुद्धता' के अविजेय संघर्ष में रत रहने की हर स्त्री की अनिवार्यता इस अभियान से सीधे सीधे समझी जा सकती है। मेरा अनुमान है कि बालिका से किशोरी बनने की संक्षिप्त कथा में यह अभियान अवश्य एक विशेष भूमिका निभाता होगा। सीता के जीवन में और भी प्रसंग हैं जो बालिका को स्त्री बनाने में काम आते होंगे, पर नारी बनाने में अग्निपरीक्षा के अभियान जैसा सार्थक शायद ही कोई प्रसंग हो। 'स्त्री' और 'नारी' में फर्क करना उपयोगी है। यह प्रश्न किशोरावस्था के 'समाप्त' होने तक ज्यादातर लड़कियों को 'समझ' में आ जाता है कि सामाजिक एजेडा अर्थात्‌ उन्हें 'नारी' बनाने का प्राचीन अभियान, इतना विस्तृत है कि व्यक्तिगत अभिलाषाओं के लिए अर्थात 'स्त्री' का जीवन जीने की, जगह बहुत तंग है। (पिछले दोनों वाक्यों में इतने शब्दों को उल्टे अर्धविरामों से घेरना पड़ा है क्योंकि हमारी भाषा का कोई स्वीकृत स्त्री संस्करण उपलब्ध नहीं है; हर बात को नए सिरे से देखे जाने की जरूरत है। भारतीय अंतर्मन में इस अभियान का स्थान बहुत गहरा है। निश्चय ही हम इस स्थान का निर्धारण अचेतन, यानी सामूहिक मानस के शक्तिकेन्द्र में कर सकते हैं। इस शक्तिशाली हैसियत का कारण सिर्फ यही नहीं है कि अभियान सीता से जुड़ा है, बल्कि यह भी है कि इस अभियान के जरिए मनुष्य के नारी रूप को मानव होने के तहत मिली हैसियत नर के मुकाबले दोयम दर्जे की बन जाती है। आगे बढ़ने से पहले जरूरी है कि मैं अपनी एक दुविधा पाठकों के सामने रखूँ। सीता की कथा यद्यपि आस्था की परंपरा के अंतर्गत साहित्य का विषय बनी रही है, उसके प्रभाजगत को एक धर्मविशेष की परिधि में रखना ठीक न होगा, भले प्रभाव जगत की दृष्टि से ऐसा करना उचित हो। प्रभा और प्रभाव में अंतर यही है कि जहाँ प्रभा सामाजिक जगत के बाशिंदों के मन में फैली रहती है, प्रभाव उनके व्यवहारों में प्रकट होता है। मन की गहराइयों में झाकें तो मेरा अनुमान है कि स्त्री को ले कर भारत के बहुधर्मी समाज में दृष्टि की विविधता इतनी नहीं है कि सीता की कहानी को सिर्फ उस समाज के लिए प्रासंगिक माना जाए जिसे हिंदू कहते हैं।

सीता की परीक्षा के माध्यम अग्नि का मनुष्य के इतिहास में स्थान जमीन और जल तथा वायु से ज्यादा नाटकीय रहा है और विभिन्न सभ्यताओं में अलग- अलग ढंग से व्यक्त हुआ है। आग की नाटकीयता एक प्राकृतिक देन है क्योंकि हवा, जमीन और पानी की तरह आग हमेशा नहीं रहती, परिस्थिति विशेष के लिए आयोजित की जाती है। एक बार लग जाने पर वह अपने में पूर्णता ले कर ही अभिव्यक्त और शांत होती है, अर्थात उसे कितना ही नियंत्रित किया जाए, उसका बुनियादी रूप नहीं बदलता। हम एक दियासलाई जलाएँ या लकड़ियों का विशाल ढेर, आग का स्वरूप वही होगा; दोनों की आग में वैसा अंतर नहीं होगा जैसा कटोरी में रखे पानी और झील या सागर में होता है। कटोरी में रखे पानी से तालाब की लहरों या पारदर्शी गहराई की अनुभूति नहीं पाई जा सकती, लेकिन दियासलाई की ज्वाला में वही दीप्त गर्मी और अँधेरे के नाश की क्षमता होती है जो प्रेमचंद की 'पूस की रात' की आग में है। आग के स्वरूप या चरित्र में भी हम वैसी विविधता नहीं देख सकते जैसी पानी, जमीन या हवा में देखते हैं। कम या ज्यादा मात्रा में पानी और धीमी या तेज हवा का चरित्र व प्रभाव बहुत भिन्न होता है, मगर आग कितनी ही छोटी या बड़ी हो, उसका स्वभाव विनाशक ही होगा। जो भी उसके संपर्क में आएगा, जलेगा। ठंड से बचने के लिए आग का लाभ तभी तक मिलता है जब तक हम उसका ताप थोड़ी दूर बैठ कर लेते हैं। आग को छूने का अर्थ है जल जाना। यह बात एक बच्चा भी समझता है और यदि नहीं समझता तो एक बार के अनुभव से ही इतनी पूर्णता से समझ लेता है कि दुबारा स्पष्ट करने की जरूरत नहीं रह जाती। एक और बात आग के प्रकाश में छिपी है। आग छिपाई नहीं जा सकती; वह एक तरह की घोषणा है -- विद्रोह और समर्पण की संयुक्त घोषणा -- जो सांसारिक नैराश्य को नष्ट करने का वायदा करती है। घर के जिस हिस्से में आग की नियमित उपस्थिति सुनिश्चित है, वही हिस्सा अर्थात रसोई स्त्री की पारंपरिक दैनिक कर्मभूमि है। अग्नि से प्रतिदिन का रिश्ता बनानेवाली नारी यदि अपनी अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाए जाने के क्षण में आग की लपटों को समाज की निष्ठुरता के मुकाबले वरणीय पाए तो इसमें आश्चर्य कैसा?

इस संक्षिप्त विश्लेषण से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि अपनी अग्निपरीक्षा के माध्यम से दिखाने का लाक्षणिक अर्थ क्या है। अग्नि यदि निर्णय की नाटकीयता का प्रतीकार्थ लिए है तो उसे अपना परीक्षक नियुक्त करनेवाली नारी स्वयं इस सत्य का लक्षण बन गई कि संसार में अँधेरा ही अँधेरा है। उसका निर्णय यह संदेश है कि 'मैं स्वयं जल कर इस अँधेरे को, क्षण भर के लिए ही सही, दूर करूँगी।' जैसा यह संसार है, इसे पुरुष ने अपने को केंद्र में रख कर बनाया है। नारी के साथ यहाँ, इसकी मौजूदा संरचना में न्याय असंभव है। इस संरचना में नारी, महादेवी के शब्दों में, 'जन्म से अभिशप्त, जीवन से संतप्त' ही रहेगी। वह सती रूप में जीवित जला दी जाएगी या विधवा बना कर तिल-तिल गलाई जाएगी। ये विकल्प परिस्थिति की विविधता भर दिखाते हैं। वह जन्म के साथ ही अवगत हो जाएगी कि उसे बोझ की तरह देखा जाएगा। बालिका बन कर वह बाल्योचित स्वच्छंदता का अनुभव नहीं कर सकेगी और थोड़ा भी करेगी तो आलोचना और अपमान के पहले सबक सीखेगी। वह किशोर बनने तक सीख लेगी कि उसे केवल इसलिए जीना है कि वह माँ बन सके और यदि कुछ सुख से जीना है तो उसे चाहिए कि पुत्र की माँ बने। माँ बनने में ही उसे अपनी जिजीविषा के विविध रूपों की इतिश्री देखनी होगी और माँ बन कर भी स्वयं को एक शख्सियत देने की स्पृहा से बचना होगा। पुरुष की दुनिया में वह कभी एक संपूर्ण व्यक्ति नहीं बन सकती, मानसिक बल की जरूरत पूरी करने के लिए देवी भले बन जाए। अग्नि के सर्वनाशी बल के आगे स्वयं को अरक्षित प्रस्तुत कर देने में स्त्री जीवन की गहनतम दुविधा का समाधान छिपा है। यह दुविधा है एक ओर निरंतर भय में जीने और दूसरी ओर पूर्ण उत्सर्ग करने की सामर्थ्य के बीच। दुविधा के इन दोनों पहलुओं को शब्दों में पहचानना पर्याप्त नहीं है। भय के साथ उत्सर्ग की निडरता की पहेली हम तब तक नहीं सुलझा सकते जब तक हम भय के दैहिक स्रोत को उसके सामाजिक आवरण से अलग करके पहचान नहीं लेते। ऐसा करने पर ही हमें पता लगेगा कि भय में जीती हुई स्त्री शहादत के अभय का चुनाव कैसे कर लेती है और स्त्री बनने के विकासक्रम में लड़कियों का मानस अपनी सामाजिक भूमिकाओं के निर्वाह की साहसी चेतना पा कर भी देह सीमा से घिरा क्यों रहता है।

छोटी बच्ची को यह संज्ञान कब होता है कि वह असुरक्षित है, इतनी असुरक्षित कि उसे खुद अपने स्वविवेक से सुरक्षा की जरूरत है, सिर्फ दूसरों की दृष्टि और ताकत से नहीं? आम तौर पर माना जाता रहा है कि यह संज्ञान किशोरावस्था के आगमन से जुड़ा है क्योंकि तभी बालिका को उसकी माँ बन सकने की समझ की सूचना प्राकृतिक और पारिवारिक तथा सामाजिक स्रोतों से मिलती है। यह मान्यता एक बड़े प्रश्नचिह्न की मोहताज है। मनोवैज्ञानिकों ने छोटी बच्चियों के मानस का अध्ययन इस दृष्टि से नहीं किया है कि वे बड़ों की निगाह और प्रतिक्रियाओं में कब यह भाव पहली बार पढ़ती हैं कि उनकी सुरक्षा को ले कर बड़ों की चिंता छोटे लड़कों की तुलना में भिन्न है। ऐसे अध्ययनों के अभाव में हमें इस सामान्य अनुभव से काम चलाना होगा कि कम से कम आज की सामाजिक स्थिति में, पाँच-छह वर्ष की बच्ची को कुछ देर अपने आसपास न पाकर माँ, बाप की आँखों में घबराहट तैर जाती है। पहले या दूसरे दर्जे में पढ़नेवाली लड़कियाँ भी उस चौकसी की आदी हो गई दिखती हैं जो उनके दैनिक जीवन के क्षण क्षण के ब्यौरों की माँग करती है। यह चौकसी प्राइमरी स्कूल से गुजरने तक इतनी गहन हो जाती है कि थोड़ी देर के लिए भी गायब रही लड़की अपने भाई के मुकाबले कहीं ज्यादा कठोर डाँट की शिकार बनने लगती है। स्त्रीत्व के प्रतीकों से घिरना भी शैशव काल से शुरू हो जाता है। देश के लगभग किसी भी स्कूल में आप पहले दर्जे की लड़कियों को चूड़ी पहने देख सकते हैं। खेल के मैदान में नर्सरी के बच्चों का आधे घंटे अवलोकन करें तो आपको स्पष्ट हो जाएगा कि बालकों की शारीरिक स्वाधीनता और बालिका की शारीरिक पराधीनता का पाठ आरंभ हो चुका है। किशोर वय की चौकसी का स्वरूप अभी तक बढ़ती चली आई चौकसी से इस बुनियादी अर्थ में भिन्न होता है कि अब लड़की सिर्फ दूसरों के कारण नहीं, स्वयं अपने कारण भी असुरक्षित मानी और देखी जाने लगती है। उसकी असुरक्षा में यह बदलाव और नाटकीय वृद्धि इस गम्भीर सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के कारण होती है कि लड़की में स्वयं अपनी यौन कामना पर नियंत्रण रखने की समझ नहीं होती, न ही अपने हित की रक्षा का विवेक, इसलिए उसे सदा आशंकित रहना चाहिए, वरना वह हादसे की शिकार हो जाएगी। हादसा किसी लड़के या पुरुष के हाथों होगा पर उसका दोष उस तरह नहीं देखा जाएगा जिस तरह लड़की का देखा जाना अनिवार्य है क्योंकि लड़के की इच्छा और बेलगाम हो जाने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। युवक को ऐसे रूपकों से नवाजा गया है जो उसकी मस्ती और आक्रामकता को प्राकृतिक गुणों के रूप में चित्रिात करते हैं। ये रूपक सिर्फ फिल्मी गानों या लोक गीतों में नहीं, 'जूही की कली' जैसी साहित्यिक रचनाओं में भी मिलते हैं। वे हमारे नजरिए का अंग बन चुके हैं, अतः इतने सत्य लगते हैं कि अब उनका लैंगिक चरित्र हमें नजर नहीं आता।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में लड़की की प्राकृतिक सुरक्षा का पाठ शायद ही किसी फिल्म में छूटा हो। इधर के दशकों में इस पाठ की इबारत उपभोक्तावादी संस्कृति की तरह फूहड़ होती चली गई है। हाल की फिल्म 'जब वी मेट' (पाठक ध्यान देंगे कि हिंदी में लिखे जाने पर अंग्रेजी की क्रिया का अर्थ स्वयं कैसे बदल जाता है और फिल्म को अनिर्दिष्ट रूप से ललचानेवाले रूप में वल्गर बनाता है) में अकेली पड़ गई नायिका के आत्मविश्वास से कुछ-कुछ परेशान, सभ्य नायक उसे बाकायदा और निसंकोच 'रेप' किए जाने के डर की उपयोगिता बताते हुए समझाता है कि जवान लड़की खुली तिजोरी होती है। इस फिल्म को लोकप्रियता के अलावा प्रशंसा भी मिली।

स्त्री की इच्छाओं को अथाह और अपूरणीय मानने की दृष्टि के पीछे हमारे समाज में पुरुष की ताकतवर हैसियत और स्त्री संसर्ग से वीर्यनाश के भय का द्वंद्व छिपा है। स्त्री की सामान्य कामना एक चुनौती ही नहीं, खतरे के रूप में देखी जाती है। लड़के से पुरुष बनने के विकासक्रम में काम चेतना को ले कर शायद सबसे महत्वपूर्ण सीख यही होती है कि स्त्री से बच कर रहो, वरना बर्बाद हो जाओगे। किशोरावस्था के वर्षों में लड़के स्त्री के कुछ निश्चित सामाजिक रूपों को देखने के आदी हो जाते हैं। इनमें से कुछ रूप तो पूर्णतः कामवासना के इर्दगिर्द चित्रित होते हैं और इन रूपों में पुरुष की अनिवार्य भागीदारी को देख कर भी अनदेखा कर देना एक विशिष्ट प्रकार के सामाजिक प्रशिक्षण का परिणाम होता है जिसे लड़कियाँ समझ ही नहीं सकतीं। स्त्री का देह व्यवसाय रूप इस स्थिति का श्रेष्ठ उदाहरण है। देह व्यवसाय की विवशता में जी रही स्त्री पुरुषों की वासना की पूर्ति करती है, किंतु युवक हो रहे किशोर को स्त्री के इस रूप में भी नारी की कामुकता का प्रमाण ही नजर आता है, एक पुरुष केंद्रित संसार की बर्बरता नहीं। युवक बनते-बनते लड़के यह सीख लेते हैं कि स्त्री की कामाग्नि उन्हें भस्म कर देगी, अतः उसके निकट जाना खतरे से खाली नहीं है। बच्चन ने अपनी आत्मकथा में विवाह के पूर्व की यौन चिंता का जो थोड़ा-बहुत विवरण दिया, उसे हल्के-फुल्के ढंग से देखा जाना स्वाभाविक है, क्योंकि स्त्री से निपटने की फिक्र और तैयारी संस्कृति के इतने गहरे भय की तरह पुरुष में उतारी जाती है कि उसे किसी विकृति की तरह गंभीरतापूर्वक देखना संभव नहीं रह जाता, और इस मान्यता के चलते जरूरी भी नहीं लगता कि धीरे धीरे सब ठीक हो जाता है। हाँ, कई लोगों के जीवन में धीरे-धीरे सब 'ठीक' हो जाता होगा, मगर सभ्यता अपने ढर्रे पर चलती रहती है। महादेवी ने 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में इसीलिए एक बड़ी परिधि चुनी जिसमें वर ढूँढ़ने की दैनिक असभ्यता से ले कर लाठियों से ठेल ठेल कर नगाड़ों की आवाज के बीच स्त्री को जिंदा जलाए जाने की रस्म शामिल है। उनकी इस पुस्तक का दूसरा अध्याय 'युद्ध और नारी' इस बात का पर्याप्त संकेत देता है कि महादेवी का विषय नारी की वेदना नहीं है, एक ऐसी सभ्यता की समीक्षा है जिसने नारी के सामने इन दो में से एक विकल्प चुनने की सीमा बना दी है कि वह या तो पुरुष का अनुकरण करती जाए या फिर पुरुष का अनुसरण करे। अनुकरण करने पर नारी उस युद्धोन्मुख संस्कृति में शामिल हो जाएगी जिसे पुरुष केंद्रित समाज रोज जीता है तथा एक नई मानवीय संस्कृति के जन्म की संभावना बंद रहेगी। इस संभावना को वैचारिक स्तर पर खोलने के लिए हमें पुरुष के भीतर रहनेवाले स्त्री भाव और स्त्री के भीतर उपस्थित पुरुष भाव को स्वीकृति देनी होगी और स्त्री-पुरुष युग्म को परस्पर विरोधी प्रवृतियों का समास मानना छोड़ना होगा। यह मनोव्याकरणिक क्रांति सिर्फ शब्दों या कानूनों से नहीं लाई जा सकती, हालाँकि वे थोड़ी बहुत मदद कर सकते हैं।

युवकों के स्वीकृत आचार व्यवहार से लगातार पोषण पानेवाले स्त्री विरोधी वातावरण में रात-दिन साँस लेती लड़कियाँ अपनी कामचेतना की अभिव्यक्ति का संकेत पाते ही आत्मशंका से घिर जाती हों तो क्या आश्चर्य? अपराधबोध की वृत्ति लड़की के समाजीकरण का सामान्य पहलू है जिसके तहत किसी भी तरह की समस्या या कमी के लिए खुद को जिम्मेदार मानना लड़कियों को निरंतर एक असाध्य पूर्णता के लिए संघर्ष से पैदा होनेवाली थकान दिए रहता है। तीसरी तरफ वे अपने शरीर को ले कर लड़कों की अपेक्षा कहीं अधिक सचेत बनाई जाती हैं। वे कितनी ही लगन से स्कूल या कॉलेज की पढ़ाई करें, उनकी अस्मिता में स्वयं की बौद्धिक छवि के मुकाबले शारीरिक छवि कहीं ज्यादा मजबूत बनी रहती है। मैं सुंदर हूँ या कुरूप, यह प्रश्न उन्हें लगातार स्वयं को दूसरों की निगाह से देखने के लिए विवश करता रहता है। सुंदर दिखने पर अवांछितों को आकर्षित कर बैठने का डर और सुंदर न माने जाने पर अविवाहित रह जाने का डर किशोरावस्था से बहुत पहले शुरू हो जाता है, लेकिन किशोरावस्था के लक्षण प्रकट होने पर शरीर की सीमाओं में चेतना की गिरफ्तारी पहले से कहीं ज्यादा कठोर हो जाती है। बचपन में शिक्षा के ऐसे साधनों और अवसरों का अभाव, जो बुद्धि और कल्पना के दरवाजे खोल सकें, लड़कियों के जीवन की सामान्य कहानी है। इस कारण किशोर वय में देह को ले कर बनी रहनेवाली बेचैनी लड़कियों को कहीं ज्यादा सालती है। लड़कों के जीवन में इस समय तक रुझानों और रुचियों के कई आयाम खुल चुकते हैं और उनके व्यक्तित्व की बुनियादी पहचान मान लिए जाते हैं जबकि लड़कियों के लिए शरीर, और खासकर चेहरे, की सँभाल रुचि की प्राकृतिक सामान्यता की तरह मन और मानस की दैनिक खुराक बन जाती है। उनकी ऊर्जा का एक बड़ा भाग देह के हिस्सों की प्रचलित सामाजिक भाषा को अपने व्यवहार में उतारने और अपनी पहचान विकसित करने की स्वाभाविक इच्छा को पूरा करने के लिए शरीर को एक प्रकार की यांत्रिक एकता देने में खर्च हो जाता है।

देहकुंठित किशोरी को आत्मशंका की चक्की में पीसनेवाला एक और आयाम मासिक स्राव को गंदगी से जोड़ने का सांस्कृतिक आचार है। नृतत्वशास्त्री लीला दुबे ने स्त्री को स्थायी रूप से अशुद्ध मानने के जो दो आधार भारत के जाति व्यवस्थित समाज में पहचाने हैं, उनमें से एक है मासिक स्राव और दूसरा है शिशु जन्म। इस सम्बंध में प्रचलित प्राचीन मान्यताएँ विज्ञान की रोशनी में हटना शुरू हुईं हैं, पर उषा अभी बहुत दूर है। माहवारी का शुरू होना एक नाटकीय परिवर्तन लाता है -- लड़की के प्रति किए जानेवाले व्यवहारों में भी और उनसे प्रभावित होनेवाली उसकी आत्मछवि में भी। इस घटना की सामान्यता को रेखांकित करनेवाला संवाद आज भी पारिवारिक जीवन में दुर्लभ है, यह बात हाल में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान द्वारा किए गए सर्वेक्षण ने पुष्ट की है, वैसे तो सर्वविदित ही है। कुमारी पूजन के त्यौहार में घर घर से इकट्ठा की जानेवाली बच्चियाँ एक दिन जब इस अनुष्ठान के लिए अनुपयुक्त हो जाती हैं, तो उन्हें कैसा महसूस होता है, यह किसी की चिंता का विषय नहीं होता, एक नियति की तरह माना जाता है। नेपाल में तो बाकायदा देवी मानी गई बच्ची अपदस्थ की जाती है और नई बच्ची को तलाशा जाता है। मासिक धर्म की शुरुआत एक ऐसे गंभीर पारिवारिक और सामाजिक नाट्य की तरह देखी जाती है जिसमें परिवार के सभी संबंध इस कारण बदल जाते हैं कि अब से लड़की की दैहिक असुरक्षा एक सुस्पष्ट और निर्णायक आयाम ले लेती है। वह माँ बन सकती है, इस बात का अर्थ एक असुरक्षित और अनिश्चित सामाजिक माहौल में यह होता है कि वह 'माँ बनायी जा सकती है।' सहमा देनेवाला यह विचार सैकड़ों रास्तों से लड़की और उसके माँ, बाप व भाइयों तक पहुँचता है। टीवी और फिल्मों के वे आम दृश्य जिनमें लड़की को पहले खिलवाड़ी शैली में घेरा जाता है और घेर कर छोड़ दिया जाता है या यदि संदर्भ गवारा करे तो बलात्कार का खतरा उभार कर दर्शकों की साँस रोक ली जाती है, किसी लड़की के मन में गहरे उतरने से रह जाएँ, यह संभव नहीं लगता। हमें आश्चर्य इस बात पर नहीं हो सकता कि यह निर्दय खेल इतना खुलेआम और मनोरंजन बना कर कैसे खेला जाता है; आश्चर्य यह है कि लड़कियाँ इसे झेल कैसे लेती हैं।

उत्तर यही है कि वे ऐसे अनुभवों को झेलने के सतत् प्रयास में अपनी गरिमापूर्ण अस्मिता को, जो अभी तक तिल-तिल करके छीली गयी थी, अंततः बलि चढ़ा देती हैं। वे आतंक को आत्मा में उतार लेती हैं और अलग-अलग ढंग से बदलती हैं। यह कुछ उसी तरह की बात है जैसे आतंकवादी हिंसा के किसी प्रसंग में भीड़ भरे इलाकों में बम फटने पर बच जानेवाले लोग अलग-अलग तरह से घायल होते हैं। मैंने अपने अध्यापक जीवन में हजारों लड़कियों को पढ़ाया है; उनमें से ऐसी बहुत कम देखी हैं जिन पर किशोरावस्था के नाटकीय मोड़ पर लगे घाव साफ-साफ न दिखते हों। अपनी शख्सियत को ले कर आश्वस्त लड़कियाँ सैकड़ों में एक मिलती हैं। उनमें निहित क्षमताएँ विभिन्न संस्थाओं के वातावरण में किस हद तक थोड़ा-बहुत खिल पाती हैं, यह एक कठिन प्रश्न है। सामान्य तौर पर हम देखते हैं कि यदि ज्ञान के किसी क्षेत्रविशेष में एक लड़की विशेष सामर्थ्य व रुचि विकसित करने में सफल हो जाती है, तो भी एक लड़की होने के नाते उसे वही सब संदेह, पूर्वाग्रह और अपमान झेलने पड़ते हैं जो किसी भी लड़की के सामाजिक भाग्य के अंग हैं। किशोरावस्था के दौरान अपनी सामाजिक भूमिका को ले कर पैदा हुआ यह विचार, कि वह कितनी ही शिक्षा पा ले, गृहिणी और माँ बने बगैर उसका जीवन सफल नहीं हो सकता, अंततः इस निष्कर्ष की ओर ले जाता है कि ज्ञान या कौशलों के क्षेत्रा में ऊँची से ऊँची उपलब्धि भी अलंकारिक या आनुषंगिक ही है। यह एहसास आंतरिक रूप से कितना निराशाजनक होता होगा, इसका अनुमान ही लगा सकता हूँ। इस अनुमान के पीछे शादी या मातृत्व से वंचित लड़कियों की पराजित आत्मा की कई व्यक्तिगत कहानियाँ मैंने अपने अध्यापकीय जीवन में जानी हैं। ऐसी भी कई जिंदगियाँ मैंने करीब से देखी हैं जिनमें पढ़ाई अधूरी छोड़ देने का दर्द या फिर पढ़ाई मुश्किल से पूरी करने के बाद लगी नौकरी छुड़वा दिए जाने का दर्द कुछ वर्षों बाद दिखना बंद हो जाता है, पर साथ में उन आँखों की चमक भी ले जाता है जो मैंने पढ़ाते समय देखी थी।

लड़कियाँ जिन अनुभवों से असुरक्षा का जीवनदर्शन सीखती हैं, उनके उदाहरण देना कठिन नहीं है, पर इस दर्शन की विषयवस्तु का वर्णन करना और समाज की व्यवस्था और संस्कृति पर उसके प्रभाव की मीमांसा करना एक कठिन चुनौती है। निश्चय ही अभी हमारे पास ऐसी भाषा और संवेदी समझ नहीं है जो एक साधारण लड़की के असुरक्षाबोध को शब्दों में उतार सके, खासकर ऐसे शब्दों में जो उस जैसी लड़कियों को प्रामाणिक लगें एवं साधारण लड़कों को इतना संवेदित कर सकें कि वे अपने दिमाग व व्यवहार की समीक्षा करने के लिए भावनात्मक रूप से मजबूर महसूस करें। आज उपलब्ध भाषा और अवधारणाओं की सीमा का एक महत्वपूर्ण कारण लड़कियों की ऐतिहासिक चुप्पी है जिसे महादेवी वर्मा द्वारा चित्रित स्त्री की संज्ञाहीनता से जोड़ कर समझा जा सकता है। लड़कियों की चुप्पी को स्त्री की संज्ञाहीनता का आरम्भिक चरण मानना गलत न होगा। महादेवी ने स्त्री की संज्ञाहीनता को सभ्यता के हजारों वर्ष लंबे इतिहास की देन बताया है। इस इतिहास में स्त्री की भयानक पीड़ा और चीखें दफन हैं। अपनी समझ की सुविधा के लिए हम इस इतिहास को सती के रूप में जबरन जलाई जाती हुई अथवा घेर कर बलात्कार की जाती स्त्री की आखिरी चीखों की कर्णभेदी आवाज की मदद से रूपायित कर सकते हैं। 1988 में बागपत में माया त्यागी के साथ घटी घटना हमें इसी प्रकार की सहायता दे सकती है। यह कहना आवश्यक है कि ऐसी घटनाओं की तुलना किसी पुरुष के साथ की गई भयानक से भयानक जबर्दस्ती से नहीं की जा सकती। भागलपुर में कैदियों को अंधा बनाने या अपराध कबूल कराने के लिए पुलिस द्वारा दी गई यातना के बर्बरतम प्रसंग पति की चिता पर जिंदा जलाई जाती या सामूहिक रूप में बलात्कार किए जाने के प्रसंगों से एक बुनियादी अर्थ में भिन्न हैं। यह बुनियादी अर्थ बहुत गूढ़ नहीं है, इसलिए उसे विस्तार में जा कर समझने की जरूरत नहीं है। भिन्नता का कारण यह है कि बर्बर यातना दिए जाने का ऐसा एक भी प्रसंग नहीं ढूँढ़ा जा सकता जिसमें कष्ट सहनेवाला पुरुष इसलिए भीषण कष्ट सह रहा हो कि वह पुरुष है। इसके विपरीत सती के रूप में जिंदा जलाई गई या बलात्कार की जानेवाली स्त्री एक असह्य शारीरिक और मानसिक यातना मूलतः इस कारण सहती है क्योंकि वह स्त्री है। जो व्यथा द्रौपदी ने अनेक पुरुषों की उपस्थिति में दुःशासन के हाथों सही, उसे हम किसी पुरुष केंद्रित आख्यान में नहीं खोज सकते। भरी सभा में द्रौपदी के कपड़े उतार कर उसे अपमानित और विवश महसूस कराना इसीलिए संभव था क्योंकि वह स्त्री थी। युधिष्ठिर या भीम के वस्त्र जबरन उतार कर वैसा अपमान नहीं किया जा सकता था। यह इतनी मोटी बात है कि इसे इस प्रकार बता कर लिखना अनेक पाठकों को व्यर्थ लग रहा होगा। लेकिन इसे लिखना इसलिए उपयोगी है कि इसे समझ कर हम शायद द्रौपदी को अपमान सहने के लिए विवश कर दिए जाने की स्मृति और आज तक जारी लड़की और लड़के के मानसिक विकासक्रमों की भिन्नता का संबंध जानने के लिए उत्सुक महसूस कर सकें।

 

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