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बहादुर शाह ज़फ़र (1775 – 1862) ब्रज और फ़ारसी
क्यों मोपे रंग की मारे
पिचकारी
हर
कि
दस्त-अज़-जान बिशोयद
भाज सकूँ मैं कैसे मोसौं भाजो
नाहीं जात
वक़्ते-ज़रुरत चू नमानद
गुरेज़
मैंने तोसों का
कह्यौ जो तैं गारी दीन्ह
न गुफ़्ता न दादर कसे बातोकार
सबकों मुखतें देत है गारी भरी
सभा में आज
यके
करदा बे-आबरू-ए-बसे
जो कछु
कहनी तोते ना कही ह्वै भी मोहि कही
अगर नादॉं बवहशत
सख़्त गोयद
बहुत दिनन में हात लगे हौं
कैसे जाने दैऊँ
देर आमदी ऐ
निगारे-सरमस्त
'शौक़-रंग' ऐसे
ढीठ लँगर सों खेलै कौन अब होरी
हर कि बाफ़ौलाद
आजू पँज: कर्द
भाखा 1. बिरह-अगिन नित मोहि जराबै, याकौ भेद कहूँ कासे पी हो पास तो जी हो ठंडा, अपनी बिनत कहूँ वा रतिया गुजारूँ रोवत-रोवत दिन को गुजारूँ आहें खैंच मेरे मन की मोसों न पूछो, पूछो मेरी बिपता से याही बिरहा दुरजन होवे, याही बिरहा सुरजन होवे ना छूटे या बिरहा मोसौं, ना छूटूँ मैं बिरहा से नैन खुले कछु और ही देखूँ, मूँदूँ तो कछु और ही और कोऊ बाको सॉंच न जाने, देखी बात कहूँ जासे मन के अन्दर पीया कलन्दर, तेरे 'ज़फ़र' वह आन बसा काम परौ जब बासौं तिहारौ, काम रहा का दुनिया से 2. यह दुनिया है औघट घाटी पग न बहुत फैलाओ जी इतने ही फैलाओ कि जिससे सुख से दुख न पाओ जी इस दुनिया के जितने धंधे, सगरे गोरख-धंधे हैं इनके फंदे जा न पड़ो तुम, इनमें न मन उलझाओ जी ये मनुआ है मूरख-लोभी, सब ही पर उलझाये है चातुर हो तो इस मूरख को जैसे बने सुलझाओ जी जिस कारज का होना कठिन तुम मन में अपने जानते हो उसकी दया से सहज वह समझो, मत इतना घबराओ जी उमर अकारत तुमने खोई, कुछ तो उधर का ध्यान करो बहुत गयी और थोड़ी रही है, ये भी न योंही गँवाओ जी सुध-बुध दी करतार ने तुमको, सोच-समझकर करना कुछ ऐसी करनी मत करना जो कर-कर फिर पछताओ जी
कहिये न भूला उसको 'ज़फ़र' जो सुबह का
भूला साँझ को आये अशआर
ऐबो-हुनर न पूछो तुम, आदमी
में क्या है ख़ूब
ढूँढ़ा ख़ूब देखा कुछ नज़र आया नहीं चश्मे-ज़ाहिर-बीं से तो देखा नहीं जाता है यार!
शक्सत शीशए-दिल
क्या कहूँ, कि इक आवाज़
समझता बुतपरस्ती क़ुफ्र, नादानी इसी में है
जूँ बुए-गुल रफ़ीके-नसीमे-चमन हैं हम
समझकर जो बुरा मुझको, बुरा कहते हैं कहने दो
यह नक़्शा हो गया है मेरा, सौदाए-मुहब्बत में
दोस्त अपने हुए ‘ज़फ़र’ दुश्मन
ख़ुदा जाने कि हम दिल-सोख़्ता क्या-क्या कहें लेकिन
शाहों के मक़बरों से अलग दफ़न कीजियो
गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तमाशे गर्दिशे-दौराँ ने हमको
खूब दिखलाये
ऐतबारे-सब्रो-ताक़त ख़ाक मैं
रक्खूँ ‘ज़फ़र’
ग़ुरबत में अगर आबे-बक़ा भी हो तो इससे
‘ज़फ़र’ क्या पूछता है राह मुझसे, उसके मिलने की
मंजिले-इश्क़ बहुत दूर है अल्लाह-अल्लाह
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हम तो
चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़
ग़ज़लें 1. मेरी आँख बन्द थी जब तलक, वह नजर में नूरे-जमाल था खुली आँख तो न ख़बर रही, कि वह ख़्वाब था कि ख़याल था कहो इस
तसव्वुरे-यार को, कहूँ क्यों न खिज्रे-खुजस्ता पा मेरे
दिल में था कि कहूँगा मैं, यह जो दिल में रंजो-मलाल था वह है बेवफ़ा, वह है पुरजफ़ा, वहाँ लुत्फ़ कैसा, वफ़ा कहाँ फ़क्त अपना वह्यो-ख़याल था यह ख़याल अम्रे-महाल था पसे-परदा सुन के तेरी सदा मेरा शौक़े-दीद जो बढ़ गया ‘ज़फ़र’
उससे छुट के जो जस्त की, तो ये जाना हमने कि वाक़ई
जिस जहाँ से कि हम आये, वह
जहाँ कौन सा है?
3. या मुझे
अफ़सरे-शाहाना बनाया होता अपना दिवाना बनाया
मुझे होता तूने ख़ाकसारी के लिए
गरचे बनाया था मुझे नशए-इश्क़ का गर
ज़ौक़ दिया था मुझको था जलाना ही अगर
दूरी-ए-साक़ी से मुझे रोज़
मामूर-ए-दुनिया में ख़राबी है ‘ज़फ़र’ किसी को हमने याँ
अपना ना पाया जिसे पाया उसे बेगाना पाया उड़ा कर आशियाँ
सरसर ने मेरा किया साफ़ इस क़दर तिनका न पाया दवाए-दर्दे-दिल मैं किस से पूछूँ तबीबे-इश्क़ को ढूँढा न पाया
5. किसी ने उसको
समझाया तो होता कोई याँ तक उसे लाया तो होता न भेजा तूने लिखकर
एक परचा हमारे दिल को परचाया तो होता
6. तेरे जिस दिन से ख़ाक-पा हैं हम ख़ाक हैं एक कीमिया हैं हम हम-दमो मिसले-सूरते-तस्वीर क्या कहें तुमसे, बेसदा हैं हम हम हैं जूँ ज़ुल्फ़े-आरिज़े-ख़बाँ गो परेशाँ है खुशनुमा हैं हम ऐ ‘ज़फ़र’ पूछता है हमको सनम क्या कहें बन्द-ए-खुदा हैं हम
7. भली कहते बुराई
होती है मुँह से निकली पराई हाती है मर्ज़े-इश्क़ की
तबीबों से दोस्तो! कब दवाई होती है अपने मरने का ग़म
नहीं लेकिन हाय तुझ से जुदाई होती है
8. उस दर पै जो सर
मार के रोता कोई होता किसका
फ़लके-अव्वलो-हफ़्तम कि मेरा अश्क यह दिल ही
था नादॉं कि तेरी ज़ुल्फ़ से उलझा बुलबुल भी
थी जॉं-बाख़्ता, परवाना भी जॉंबाज़ तन्हाई में
इतना तो न घबराता ‘ज़फ़र’ मैं
9. रात भर मुझको
ग़मे-यार ने सोने न दिया शमा की तरह
मुझे रात कटी सूली पर ऐ दिलाज़ार!
तू सोया किया आराम से रात मैं वह
मजनूँ हूँ कि जिन्दॉं मैं निगहबानों की
यासों-ग़म
रंजो-अलम मेरे हुए दुश्मने –जाँ
10. वह मेरी जाँमेरे
पास आये तो क्या अच्छा हो नहीं मालूम
कि मैं कौन हूँ? अच्छा कि बुरा साग़रे-जम
में जो आती थी नज़र कैफियत कुचए-तंग है
दुनिया नहीं आराम की जा आये सब एक
नज़र, यह दुई का परदा
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