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इक़बाल सरमाया व मेहनत बंदा-ए-मजबूर को जाकर मेरा पैग़ाम दे। ख़िज्र1 का पैग़ाम क्या है, यह पयामे-क़ायनात2।।
ऐ कि तुझको खा गया सरमायादारे-हीलागर3। शाख़े-आहू4 पर रही सदियों तलक तेरी बरात5।।
कट मरा नादां ख़याली देवताओं के लिए। सुक्र6 की लज़्ज़त में तू लुटवा गया नक़्दे-हयात7।।
मक्र की चालों से बाज़ी ले गया सरमायादार। इन्तिहा-ए-सादगी8 में खा गया मज़दूर मात।।
उठ कि अब बज़्में-जहां[9] का और ही अंदाज़ है। मशरिक़-ओ-मग़रिब में तेरे दौर10 का आग़ाज़11 है।।
आफ़ताबे-ताज़ा12 पैदा बतने’गेती13से हुआ। आस्मां ! डूबे हुए तारों का मातम कब तलक।।
तोड़ डाली फ़ितरते-इन्सां ने ज़ंजीरें तमाम। दूरी-ए-जन्नत से रोती चश्मे-आदम कब तलक।।
1 एक पैग़म्बर (पथ प्रदर्शक) |
फ़ल्सफ़ा अफ़कार1 जवानों के ख़फ़ी2 हों कि जली3 हों। पोशीदा4 नहीं मर्दे-क़लंदर5 की नज़र से।।
मालूम हैं मुझको तेरे अहवाल6 कि मैं भी। मुद्दत हुई गुज़रा था इसी राहगुज़र से।।
अल्फ़ाज़7 के पेचों में उलझता नहीं दाना8। ग़व्वास9 को मतलब है सदफ़10से कि गुहर11 से।।
पैदा है12 फ़क़त हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-जुनूं13 में। वो अक़्ल कि पा जाती है शो’ले को शरर14 से।।
या मुर्दा है या नज़अ़ की हालत15 में गिरफ़्तार। जो फ़ल्सफ़ा लिक्खा न गया ख़ूने-जिगर से।।
फ़र्माने-ख़ुदा (फ़रिश्तों से) उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो। काख़-ए-उमरा16 के दरो-दीवार हिला दो।।
गरमाओ ग़ुलामों का लहू सोज़े-यक़ीं से। कुंजश्के-फ़रोमाया17 को शाहीं18 से लड़ा दो।।
सुलतानी-ए-जमहूर19 का आता है ज़माना। जो नक़्शे-कुहन20तुमको नज़र आये मिटा दो।।
जिस खेत से दहक़ां21को मयस्सर नहीं रोज़ी। उस खेत के हर ग़ोशा-ए-गंदुम को जला दो।।
मैं नाखुश-ओ-बेज़ार हूं मरमर की सिलों से । मेरे लिए मिट्टी का हरम22और बना दो।।
1 चिन्ता
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