ब्लू टरबन
टीवी पर न्यूज देखते हुए न
जाने अचानक बचपन की यादें ताजा हो गई। समाचार पत्र में भी वोही न्यूज
कुछ दिनों से सुर्खियों में चल रही थी। औफिस की भागादोडी में सुबह घर
से जल्दी निकल कर रात को देर से आना रूटीन बन गया था। यह मार्च का
बहुत ही जालिम होता है, अकांउन्टेंटों के लिए। दम भर की फुरसत नही
मिलती, सच कहा जाता है, कान खुजाने का भी समय नही होता। 31 मार्च को
वितीय वर्ष समाप्त होता है, सारा पेंङिग काम पूरा करना है.
मैनेंजमेंट को प्रोफिट लोस अकाउन्ट और बैलेंस शीट बना कर देनी है।
मैनेंजमेंट ने तो कह दिया, कंमप्यूटर है, देर किस बात की। कौन समझाए
कि काम तो आदमियों ने करना है। कम स्टाफ में इधर उधर के काम भी करने
है, और अकाउन्टस का भी। समय पर कैसे हो काम। खैर छोङिए हर औफिस की
यही कहानी। एक अप्रैल को काम समाप्त कर बैलेंस शीट मैनेंजमेंट को दी,
शाबासी तो कौन सुसरा देता है, बातें सुननी पङी, एक दिन लेट हो गए,
पूरी रात काम करते, तो 31 मार्च को तुम बैलेंस शीट बना सकते थे,
लेकिन रात को सोना जरूरी भी है न। एक दिन धर नही जाते तो क्या हो
जाता। जान तो नही चली जाती। तुम अकाउन्टेटों को यही बीमारी है, काम
समय पर खत्म नही करते। लटका कर रखने की बीमारी है। कौन जानता है
अकाउन्टेटों का दर्द। पिछले दस दिनों से घर नही गए, औफिस में ही
कुर्सी पर पसर कर आधा एक घंटा आराम किया न किया, एक बराबर। बाईस बाईस
घंटे काम किया, जिसका परिणाम सिर्फ डांट। खैर बैलेंस शीट सौंप कर दो
टूक कह दिया, अब तीन दिन की छुटी चाहिए, शरीर ने जवाब दे दिया है।
चाहे मैनेंजमेंट छुट्टी ही कर दे, लेकिन शरीर को भी आराम चाहिए।
चौबीस घंटों मशीन, कंमप्यूटर भी चले, तो वो सुसरे भी हैंग हो जाते
हैं। आदमी इस बात को नही समझता। उसका बस चले तो दिन के चौबीस घंटों
में अडतालीस घंटे काम करवाए।
घर आ कर जो बिस्तर पर लेटा,
तो चौबीस घंटे बाद भी नींद नही खुली। आंखें थोडी खुलती, लेकिन शरीर
जवाब नही देता। पूरे छतीस घंटों बाद भी अलसाई सी हालात में उठा,
टूथबस्र लेकर बाथरूम गया, दातों को साफ करने के बाद सोचा, नहा लिया
जाए, तभी फ्रेस हुआ जा सकता है, वरना तीन दिन की छुट्टी तो नींद में
ही गुजर जाएगी। वाकई नाहने के बाद एक दम तरो ताजा हो कर कमरे में
आया, जहां श्रीमती जी पहले से ही विद्यमान थी। चाय का कप एक हाथ में
था, और दूसरे हाथ में एक बिस्कुट। चाय की धीमी सी चुस्की लेकर मन्द
मुस्कुराहट के साथ कुछ व्यगंयात्मक अंदाज में बोली, “नींद से जाग ही
गए, कुंभकरण के खानदान से ताल्लुक रखने वाले।“
“भारतीय पत्नियों की
मानसिकता कभी बदल नही सकती।“ मैंने कुर्सी खींच कर बैठते हुए कहा।“
“इसमें भारतीय पत्नियों की बात कहां से आ गई। दो दिन खर्राटे मारते
हुए कुंभकरण की नींद सोए, मैंने न तो आपको जगाया, न ही तंग किया।“
“ताना मार कर भारतीय पत्नी
की मानसिकता तो दर्शा ही दी। यह न सोचा, बीस दिन रात की थकान कम से
कम दो दिन आराम के बाद ही तो खुलेगी।“
“ऐसी नौकरी का फायदा, जो घर
की शक्ल ही भुला दे। जीनत अमान ने रोटी कपडा और मकान में बिल्कुल सही
गाना गाया था, तेरी दो टकिया दी नौकरी, मेरा लाखों का सावान जाए। छोड
तो ऐसी नौकरी, ढूंढ लो कोई दूसरी नौकरी। चाहे कम पैसे मिले, चैन तो
हो, जब हम तुम दो पल सुकून से बैठ कर बातें कर सके।“
“कार लोन की किश्त अगले साल
खत्म हो जाऐगी, तब दूसरी ढूंढूगा। सर पर बोझ नही होगा।“
“अभी से ढूंढना शुरू करो, तब अगले साल तक मिल जाऐगी, वरना मेरा अकेले
इस मकान में दम घुट जाएगा। ये तो भारतीय पत्नियों का शुक्र करो, जो
ऐसे पतियों के साथ जन्म जन्म का साथ निभाती हैं। अगर अमेरिका या
यूरोप में रह रहे होते तो कब का तलाक हो गया होता।“ पत्नी ने
मुस्कुराते हुए कहा।
मैं थोडा खीझ सा गया। “अब इस
बात में अमेरिका, यूरोप किधर से आ गए।“
“बस आ ही जाते हैं, जब
पत्नियां चारों तरफ से हाताश हो जाती हैं, और कुछ भी नजर नही आता है।
तब सोचना ही पढता है और अमेरिका, यूरोप की पत्नियों की याद आ जाती
है।“
मैंने इस टॉपिक को बंद करना
ही बेहतर समझा और बात घुमाते हुए पूछा “चाय मिलेगी या उसके लिए
अमेरिका, यूरोप जाना पढेगा।“
“क्या हसीन सपने आ रहे थे,
अमेरिका, यूरोप के। सारे तोड दिये। चलो भारतीय पत्नी धर्म निभाते
हैं।” कहते हुए पत्नी रसोई की तरफ चल पडी।
पत्नी के रसोई जाने पर मैंने
अखबार उठाया और टीवी पर न्यूज चैनल लगाया। मुख्य पृष्ठ पर कुछ
पाकिस्तान से आए सिख परिवारों की थी, जो स्वात घाटी, जहां तालीबान के
कहर से बचने के लिए अमृतसर आ गए और भारत सरकार से भारत में बसने के
लिए अनुरोध कर रहे ङैं। टीवी न्यूज चैनल पर भी यही खबर दिखाई जा रही
थी। अपना घर छोड कर विस्थापितों की दशा मैं अच्छी तरह समझ सकता था।
अपना घर, अपना व्यापार छोड कर दूसरी जगह बसना कोई आसान काम नही हैं,
फिर भी हालात ऐसै हो जाते हैं, मजबूरी में घर छोड कर कहीं दूर अनजान
जगह बसना पडता है। विस्थापित परिवार गुरूद्वारे में शरणार्थित बने रह
रहे थे। खबर सुन और पढ कर अपना बचपन याद आ गया। उम्र उस समय लगभग
पांच या छः वर्ष रही होगी, लेकिन घटना अभी भी मस्तिषक पटल पर अंकित
है। वजह, कि माता पिता से बचपन में अनगिनत बार उस घटना को सुन चुका
हूं। साथ कुछ रह रह कर घटना मस्तिषक के किसी कोने से बार बार निकल
आती है। जब भी ऐसी कोई खबर सुनता हूं, तो वो घटना खुद ही ताजा हो
जाती है।
पिताजी किसान थे। भारत
पाकिस्तान सीमा के नजदीक गांव था। 1971 की जंग से पहले माहौल बहुत
गर्म था, हांलाकि सर्दियां शुरू हो चुकी थी। धम्म घम्म धम्म धम्म की
चारो तरफ से आवाजे आने लगी। साथ ही अड़ोस पडोस से आवाजे आई कि भागौ,
बम गिर रहे हैं। रात का समय था, लगभग आठ बजे का आसपास समय रहा होगा।
रात का भोजन समाप्त कर चुके थे। घर के बरामदे मे मैं खाट पर बैठा हुआ
आसमान में तारे निहार रहा था और माता पिता का इन्तजार तक रहा था, कि
वे भी घर का काम निबटा कर आ जाए तभी सोने के लिए खाट पर लेटुंगा।
अकेले सोने पर डर लगता था। नींद तो आ रही थी, लेकिन सो नहीं रहा था।
पांच साल की उम्र में घबरा गया, लेकिन अवाज नहीं निकल पा रही थी।
धम्म घम्म की आवाज के साथ ही बहुत धुंआ उठा, शायद आस पास ही बम गिरा
था। बिना किसी देरी के फटाफट मम्मी पापा तेजी से घर से निकल कर मेरा
हाथ पकड़ कर खाई की तरफ भागे और बिना किसी देरी के पास की खाई में छुप
गये।
“गोलू डर मत” मम्मी ने मेरा
हाथ पकड़ कर कहा।
तभी हमारे पड़ोसी भी खाई में आ गए। सात आठ बंदों को देख कर कुछ हिम्मत
हुई।
“कोई बात नहीं, मम्मी. आप
साथ हैं तो डर नहीं लगता है।“ मैंने कहा।
युद्ध के बादल मंडरा रहे थे,
इसीलिए गांव में कई स्थानों पर खाईयां बनाई गई कि संकट के समय खाईयों
में सुरक्षा के लिए छुप जाए। तभी मशीनगनों से लगातार गोलियों की धन
धना धन आवाजे आने लगी.
पड़ोसी को संमबोधित करते हुए
पापा ने कहा “कुलजीत लगता है कि हमारे जवानों ने फाईरिंग शुरू कर दी
है, अब जल्दी ही बमबारी खत्म होगी।“
“खांमखा हम निहत्ठों पर बम
फेंकते है, हमारे जवानों के जवाबी हमले पर डर के मारे भाग जाते हैं।“
कुलजीत ने गुस्से से जवाब दिया।
लेकिन उस रात फाईरिंग खत्म
नहीं हुई। पूरी रात जबरदस्त फाईरिंग होती रही। बीच बीच में दोनों तरफ
से तोपों से बम वर्षा भी होती रही। पूरी रात कोई नहीं सो सका। लगता
था जैसे कान के परदे फट जाएगें। हमने और पड़ोसी कुलजीत के परिवार ने
खाई में छुप कर रात गुजारी। सुबह के समय फाईरिंग बंद हुई। लेकिन काफी
देर बाद ही हम लोग खाई से बाहर निकले। खाई से निकलने के पश्चात पापा
मुझे और मां को घर छोड़ने के बाद गांव की चोपाल के लिए रवाना हुए।
गांव के सारे पुरूष चोपाल पर रात की दिल दहलाने वाली गोलीबारी पर
चर्चा कर रहे थे। शुक्र था, कि कोई हताहत नहीं हुआ। इतने में फौज के
दो अफसर आए। रात की भंयकर गोलीबारी के बाद सीमा पर तैनात बटालियन ने
गांव खाली कराने का निर्णय किया। बडे़ अफसर ने बच्चों और औरतों को
फौरन गांव छोड़ने की सलाह दी। सेना के दो ट्रक इस कार्य के लिए लगा
दिये, ताकि शाम से पहले सुरक्षित स्थान पर पहुंच सके। पुरूषों को
सलाह दी गई कि वे जरूरी सामान के साथ जितनी जल्दी संम्भव हों, गांव
खाली कर दें।
फौजी ट्रक में गांव के सभी
औरतों और बच्चों को बिठाया गया। मां के साथ जब मुझे ट्रक में बिठाने
लगे, तब में रोने लगा, कि मैं पापा के साथ जाउगा।
“गोलु बेटे, तुम मां के साथ
जाऔ, मैं पीछे पीछे अपनी बैलगाडी़ मे घर का सामान ले कर आता हूं।“
पापा मुझे पुचकारते हुए कहने लगे।
“नहीं मैं आपके साथ जाउंगा।“
कहते हुए मैं पापा से चिपक गया।
“गोलु जिद्द नही करते, देखो,
मैं तुम्हारे साथ साथ चलुंगा, तुम मुझे ट्रक में बैठ कर देखना।“. कह
कर पापा ने फटाफटा घर का जरूरी सामान बैलगाडी़ मे रखना शुरू किया।
फौजी ट्रक रवाना होने मे थोडी़ देर हो गई, तब तक पापा ने बैलगाडी़
में सामान रख लिया था। फौजी ट्रक रवाना हुआ और पापा ने पीछे पीछे
बैलगाडी़ रवाना की। पापा ने नीली पगड़ी पहनी हुई थी। गांव की कच्ची
सड़क पर धीरे धीरे ट्रक आगे बढ़ने लगा। पीछे फीछे पापा बैलगाडी़ में आ
रहे थे। मैं पापा को देखते हुए हाथ हिलाता रहा। थोडी़ देर में ट्रक
और बैलगाडी़ की दूरी बढ़ने लगी। पापा की शक्ल धुधंली दिखने लगी, लेकिन
उनकी नीली पगडी़ देख कर मैं हाथ हिलाता रहा। पापा की नीली पगड़ी मुझे
दिलासा देती रही, कि पापा मेरे आसपास हैं। धीरे धीरे ट्रक और बैलगाड़ी
के बीच दूरी बढने लगी और पापा की नीली पगड़ी भी दिखाई देना बंद हो गई।
ट्रक अब पक्की सडक पर फर्राटे लगाने लगा। दिन ढल चुका था, रात की
कालिमा छा चुकी थी। मेरा मन अभी भी पापा की सूरत देखना चाहता था, कि
कहीं से पापा की नीली पगड़ी दिखाई दे जाए। लेकिन फासला काफी हो चुका
था। एक रात फाईरिंग की वजह से और दूसरी रात पापा की जुदाई से सो नहीं
सका था। बार बार उचक उचक कर देखता कि कहीं से चाहे दूर ही हो, पापा
की नीली पगड़ी एक बार नजर आ जाए।
पौ फटने से पहले ट्रक ने हमें एक स्कूल में ला कर उतार दिया। सरकार
ने एक स्कूल में सीमा पास गांव वालों को ठहराने का बन्दोबस्त किया
था। धीरे धीरे स्कूल में एक मेला सा लग गया. एक के बाद एक करके बहुत
से फौजी ट्रक आए, जिनमें हमारे जैसे दूसरे गांवों के औरते और बच्चे
थे।
हमारे आने के कारण स्कूल बंद
कर दिया था। स्कूल मे दो तरफ लाईन लगा कर कमरे थे और बाकी खाली
मैदान।. स्कूल कमपाउन्ड के बाहर भी काफी खाली मैदान था, जहां टैन्ट
लगा कर हमारे रहने का इन्तजाम किया गया था। मेरी निगाहें हमेशा स्कूल
के गेट पर रहती और पापा के आने की आहट सदा लगी रहती। धीरे धीरे गांव
के पुरषों ने भी आना शुरू कर दिया था।
“पापा अभी तक नहीं आए।“ मैं
ने मां से पूछा।
“ तू फिक्र मत कर, आ जाएगें,
देख कुलजीत के घर वाले भी नहीं आए। एक साथ आएगें।“. मां ने जवाब मे
कहा। “बाकी बच्चे बाहर खेल रहे हैं, तू भी उनके साथ खेल। पापा आ
जाएगें।“ लेकिन मेरा मन खेलने मे नही लग रहा था। दो दिन बीत गये,
पापा नहीं आए। मैं रोने लगा। मां चुप कराने में लग गई, लेकिन मेरा
रोना और ज्यादा हो गया। मुझे इतना ज्यादा वयाकुल, अधीर हो रोते देख
बहुत सारी औरते आस पास जमा हो मुझे दिलासा देने लगी। एक औरत ने मुझे
गोदी मे उठा कर पुचकारते हुए कहा, “तू तो बड़ा बहादुर बच्चा है, क्यों
रोता है, देख मेरा गोगी तेरे से कितना छोटा है, बड़े मजे से खेल रहा
है, उसके पापा भी अभी नहीं आए।“ लेकिन मेरा रोना बंद नही हो रहा था।
“मेरे पापा” कह कर और जोरों से रोने लगा। रोते रोते भी मेरी निगाहें
स्कूल के गेट पर टिकी थी, मालूम नहीं, कब पापा आ जाए। तभी स्कूल गेट
पर हलकी सी परछाई उठी, नीले रंग की धुधली सी छाया दिखाई देने लगी,
मेरी उत्सुकता अधिक हो गई। “पापा की नीली पगड़ी” मैं चिल्ला पडा। हां
वो मेरे पापा ही थे। नीली पगड़ी के बाद पापा हल्के हल्के नजर आने लगे।
नजदीक आने पर मां ने चिल्ला कर कहा, “गोलु तेरे पापा आ गए।“
पापा ने आते ही मुझे गोद मे
ले लिया, “पागल रोता क्यों है।“
“इतनी देर से क्यों आए।“
“बैलगाड़ी ट्रक से रेस थोड़ी
कर सकती है। इसलिए देरी हो गई।“ पापा ने संतावना और दिलासा देते हुए
कहा।
मैं पापा से चिपक गया था।
पापा को पास पा कर ऐसा लग रहा था, जैसे पूरा जहां मिल गया है। उदासी
दूर हो गई थी, चित प्रसन्न हो कर छलागें लगाने लगा, कि फटाफटा दूसरे
बच्चों के साथ खेलने भाग जाउं।
“पागल कहीं का, मां को
परेशान किया। इतने छोटे छोटे बच्चे कितनी मस्ती से खेल रहे हैं। और
तूने यहां सबको परेशान कर दिया। अब खेलने नहीं जाएगा।“ पापा ने पूछा.
मैं फौरन पापा की गोदी से
उछल कर कूदा और जोर से चिल्ला कर गोगी की तरफ भागा। “गोगी मैं खेलने
आ रहा हूं।“
उस उम्र में बस खेल कूद से
ही मतलब होता था। खेल कर वापिस घर आए तो मां बाप का साथ। दीन दुनिया
से बेखबर।
युद्ध समाप्त होने के बाद
अपने गांव लौटे। बमबारी के कारण खेती लायक नहीं रहे थे खेत। जीविका
की तालाश में शहर आ गए। गांव में बडा खेत, बडा घर, जहां छलांगें
मारते खेला करते थे। शहर के एक कमरे के मकान में दम घुटता था। जीवन
का दूसरा नाम शायद यही है, यानी कि संघर्ष। हंसता खेलता पल कैसे
संकटों में घिर जाता है, कोई कल्पना नही कर सकता है। अन्शिचता से
जीवन का हर पल घिरा रहता है। हंसी जैसे गायब हो गई थी। किसान मां बाप
मजदूर बन गए। दो तीन संघर्ष करने के पश्चात गांव की जमीन बेच पाए औने
पौने दामों में जमीन बेच कर अनाज बेचने का काम शुरू किया। मां की
मजदूरी समाप्त हुई। मेरी शिक्षा शुरू हुई। वो गांव का आजाद बचपन शहर
की कठोर जिन्दगी में बदल चुका था। दूसरी अन्जान जगह जीवन को दुबारा
संवारना कोई आसान काम नहीं है। राजा रंक हो जाते हैं। जब भी ऐसी कोई
खबर सुनता हूं तो खुद का बचपन और परिवार की व्यथा याद आ जाती है। आज
भी वोही हुआ, पाकिस्तान से आए सिख परिवारों की व्यथा देख कर आंखों
में पानी आ गया।
इतने में पत्नी चाय बना कर
रसोई से आई। चाय बनाने के चंद पलों में चलचित्र की तरह मेरे मन पटल
में यादें छा गई। चाय का कप पकडाते हुए बोली “कुंभकरण के खानदानी
जश्ने चिराग, चाय बिस्कुट के साथ हाजिर हैं।“ चाय का कप मैंने हाथों
में लिया। उसने मेरी आंखों की नमी देख ली थी। पहले भी कई बार वह मेरी
आंखों की नमी देख चुकी थी। सामने टीवी पर न्यूज देख कर वह सब समझ
चुकी थी। मैं कुछ कह न सका। वह सब समझ चुकी थी।
(शीर्ष पर वापस)
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