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 दिनेश कुमार शुक्ल/ कभी खुलें कपाट
 

एक नींद - एक जागरण

एक नींद
जिसमें खुली रहती हैं आंखें
एक जागरण
जिसमें बन्द रहता है
एक-एक रंध्र

एक धड़कन
जिसके अन्तस् में
धड़कती है एक और धड़कन

सनसनाता धमनियों में
द्रुत से विलम्बित में खिंचता
एक प्रवाह
विलीन होता
पाताल में

बंधे हाथ-पांव एक कमल
जल में डूबा
खोलता है अपनी पंखुरियां
धीरे-धीरे

निगूढ़तम एक मौन
रेंगता खरखराता है कण्ठ में
ठीला करता हुआ
सारे कसाव को --
फैले हुये हाथ
खुला मुंह आवाक्

गूँजता है एक प्रश्न
कहां कहां कहां ....
और फिर से शुरू होती है
एक गाथा
बेहतर संसार की
संभावना के साथ

 

जल

सौ योजन
मरु भूमि पार कर
रचना के प्रान्तर में जाना
बिन छलकाये
मन के घट में
बूंद-बूंद जल भर कर लाना

उस प्रान्तर में
घनीभूत इतिहास की तरह
संचित-समूहिक-अनुभव की
चट्टाने हैं
काली-काई भरी-बड़ी बेडौल

जहां से बूंद-बूंद कर
टपक रहा है समय
उसी में संस्मृतियां हैं
और उसी में स्वप्न
उसी में धीरे-धीरे
निर्झर-निर्झर
धारा - धारा
नदी हमारी आशाओं की
कल-कल छल-छल
जन्म ले रही

चट्टानों की कठोरता की
पोर-पोर में
भरा हुआ जो अन्तर्जल है
बहुत सघन है
बहुत तरल है

इसी प्राक्जल में ही पहला
जीवन का अंकुर फूटा था
और आदि कवि का अन्तर्घट
भी इस जल में ही टूटा था

यही अमृत है
यही गरल है
इसको पाना
इसे समझना
इसको पीकर
तिरपित होना
कभी सुगम है
कभी जटिल है।
 

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