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 दिनेश कुमार शुक्ल/ कभी खुलें कपाट
 

अग्नि

सब कुछ था
बस अग्नि नहीं थी

राजा की रसोई में
जावत् सामग्री थी
लगे थे वहां अन्न फल
मसालों के भूधराकार ढेर

घेर-घेर सागर से घसीट कर
लाये गये पीन पाठीन मीन
घी दूध सोम और मधु के
लबालब भरे कुण्ड

जुटे देश-देश के
रसोइये चतुर-सुजान
किन्तु सभी हैरान
अग्नि कहां चली गई?

यज्ञ का प्रस्तुत था
सारा सामान
बलिवेदी बलिपशु मंडप
हवनकुण्ड ऋचायें सामगान

सारे पुरोहत यजमान
आशंकित आतंकित
बेचैन परेशान
अग्नि कहां चली गई?

राजा ने हुक्म दिया
दौड़े आये गुणीजन
अग्नि की खेज में
लगाये गये गुणीजन

गुणियों ने आते ही
पटक दिये पर्वत पर पर्वत
पर चिंगारी के बदले
उड़े सिर्फ दो छीटे खून के --
अग्नि नहीं थी वहां

ज्वालामुखियों में तब
कूद पड़े अन्वेषक
बजबजा रहा था वहां
कुंभीपाक तमस् का --
अग्नि नहीं थी वहां

गुणीजन उड़े
और गये सूर्यलोक तक
सिर्फ चौंधियाती हुई
बर्फ की मरीचिका थी सूर्य में --
अग्नि नहीं थी वहां

राजा और सेना के
प्रचण्ड क्रोध में भी
घुसे अन्वेषक
वहां सिर्फ डरी हुई
हिंसक कायरता थी --
अग्नि नहीं थी वहां

राजा दरबारी
सब परेशान हैरान
हतप्रभ थे गुणीजन
निष्फल था सारा विज्ञान
उनको
जरा भी नहीं था अनुमान
शताब्दियों से उन्हीं के आसपास
भूख बन कर
दहक रही थी अग्नि
लाखों उदर कन्दराओं में

राजा और दरबारियों के
बन्द थे कान
गरजती चली आ रही थी
उन्हीं को घेरती
दसों दिशाओं से

सचमुच चली आ रही थी अब
पतित पावन अग्नि ।
 

 

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