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 दिनेश कुमार शुक्ल/ कभी खुलें कपाट
 

घास-बंस-बिरुदावली

घरती की असीम करुणा-सी
सब जगह उपस्थित है घास,
गिरते घरों में
पनपती पुनर्जन्म-सी

प्रेयरी, सवाना और स्टेपीज़ के
अनंत विस्तारों में
लहराती सचेतन
हरे क्षीर सागर-सी

घास का ही उत्तरीय पहन कर
पृथ्वी जाती है
ब्रह्मांड की महासभा में

सृष्टियों के विखण्डन से
जो बच निकला बार-बार
वह था - घास का बीज,
जीवन की सरलतम कृति

इतना सरल
कि जितना था उतना था
नहीं संभव थे उसके टुकड़े
दाल या दूसरे बीजों की तरह

धरती पर जीवन के आये कई चक्र
कितने हिमयुग आये गये
नष्ट हुई कितनी जातियाँ
पर बची रही घास,
घास फैलती गई
गोचर भूमि में, तृणावर्तों में,
गायों के थन में

विविध रंग रूपों में
बढ़ता गया
उसका वंश-वृक्ष
घास बाँस कुश कास ...

वह थी भूतल पर फैलती
जीवन की सनसनी
नरकुल की लेखनी
कहीं थी वह कुश की
तलवार सी धार
व्याप्त थी जल में भी बन कर सिवार

यद्यपि किसी ने नहीं लिखी
घास वंश की विरुदावली,
क्षिति जल, पावक,
गगन और समीर से
सुने हैं मैंने
कुछ आख्यान

मसलन, घास की जिस प्रजाति के
हिस्से में आया क्षिति-पान
वह बनी दूब --
पृथ्वी के हठ जैसी अपराजेय
अमेय विक्रमा
और अमर,
गजब का जीवट
अर्जित किया था उसने तपस्या में

जिसे मिला जल
वह बनी ईख और हाथी घास
सजलता
और मिठास से ओत-प्रोत --
जिसके विस्तार में
हल्के फुल्के बादलों की तरह
तैरते हैं
हाथियों के भूघराकार झुंड --
अद्भुत सजलता
कि जसमें तैरते हैं पहाड़ !

और प्रेयरी के मैदानों में
जिसने पिया छक-छक कर
दावानल --
उसके हिस्से आई
अद्‌भुत सुनहरी कांति,
वह विकसित हुई गेहूं और जौ में --
यज्ञों की अग्नि
और उदर की अग्नि में
तृप्ति भरती हुई
यशवती हुई वह प्रजाति - इदमन्नम्....


और जिसने पी वायु
जिसने खेले पवन उन्वास
हिस्से में उसके थी
जीवन की एक-एक साँस,
वह बनी बांस,
जिसकी बाँसुरी की तान पर
नाचता रहा और नाचता है
त्रिलोक -
वाणी के
जितने भी स्वर हैं
सबकी अधिष्ठात्री बनी
घास की यही प्रजाति

और जिसने अर्जित की
आकाशवृत्ति
अब वह उन सबके
सपनों में भरती है हरियाली
जिनके जागरण में
सिर्फ रेत है मरुस्थल की,
कहते हैं वही है
घास की सबसे विकसित प्रजाति
और अब वह
पाई जाती है सिर्फ स्वप्न में।
 

 

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