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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

 

 

ब्रूनो की बेटियाँ
 


वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं
उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।


उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी
जिन्‍होंने उनकी हत्या की !


उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थीं धूप में।


गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृ‍थ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !


वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं और कौन कहता है ? कौन ?  कौन वहशी ?
 

कि उन्होंने बग़ैर किसी इच्छा के जन्म दिया ?


उदासीनता नहीं था उनका गर्भ
ग़लती नहीं था उनका गर्भ
आदत नहीं था उनका गर्भ
कोई नशा-
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ


कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री ?


उनके सनम थे
उनमें झंकार थी


वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी ह्वेल के भीतर नहीं - पूरी दुनिया में
पूरी दूनिया के नौ महीने !


दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का ?


तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आये
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी ?


किस देश की नागरिक होती हैं वे
 

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