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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/ब्रूनो की बेटियाँ(ii)
 

 

जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वीत की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें जिंदा जला दिया गया !


क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों को दुनिया ?


आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं


उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है !


कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी
और
अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी।


वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों का निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफ़ेद तने पर
 

बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर


उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर


वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थीं यहाँ तक।


उनके दरवाज़े थे


जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तंबाकू के पत्ते-
जो धीरे-धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी।


वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे


उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
 

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