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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/ब्रूनो की बेटियाँ(iv)
 

 

कैसे देखते हो तुम इस श्रम को ?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िंदगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है ?

कैसे देखते हो तुम श्रम को !


शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा


शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए


उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं !


शहर उनकी ज़िंदगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं !


उनकी हत्या की गयी
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !
 

वह क्या था उनके होने में
जिसके चलते उन्हें जिंदा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?


वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका


जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूक़ों के घेरे में ?


बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ !


मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर !


वह क्या था उनके होने में
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता !


पागल तलवारें नहीं थीं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अंधी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन लकड़ी का हल चलाने वाले

(...जारी)

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