12.मन्दी
चेयरिंग क्रास पर पहुँचकर मैंने देखा कि उस वक़्त वहाँ मेरे सिवा एक
भी आदमी नहीं है। एक बच्चा,
जो अपनी आया के साथ वहाँ खेल रहा था,
अब उसके पीछे भागता हुआ ठंडी सडक़ पर चला गया था। घाटी में एक जली हुई
इमारत का ज़ीना इस तरह शून्य की तरफ़ झाँक रहा था जैसे सारे विश्व को
आत्महत्या की प्रेरणा और अपने ऊपर आकर कूद जाने का निमन्त्रण दे रहा
हो। आसपास के विस्तार को देखते हुए उस नि:स्तब्ध एकान्त में मुझे
हार्डी के एक लैंडस्केप की याद हो आयी,
जिसके कई पृष्ठों के वर्णन के बाद मानवता दृश्यपट पर प्रवेश करती है—अर्थात्
एक छकड़ा धीमी चाल से आता दिखाई देता है। मेरे सामने भी खुली घाटी थी,
दूर तक फैली पहाड़ी शृंखलाएँ थीं,
बादल थे,
चेयरिंग क्रास का सुनसान मोड़ था—और
यहाँ भी कुछ उसी तरह मानवता ने दृश्यपट पर प्रवेश किया—अर्थात्
एक पचास-पचपन साल का भला आदमी छड़ी टेकता दूर से आता दिखाई दिया। वह
इस तरह इधर-उधर नज़र डालता चल रहा था जैसे देख रहा हो कि जो
ढेले-पत्थर कल वहाँ पड़े थे,
वे आज भी अपनी जगह पर हैं या नहीं। जब वह मुझसे कुछ ही फ़ासले पर रह
गया,
तो उसने आँखें तीन-चौथाई बन्द करके छोटी-छोटी लकीरों जैसी बना लीं और
मेरे चेहरे का गौर से मुआइना करता हुआ आगे बढऩे लगा। मेरे पास आने तक
उसकी नज़र ने जैसे फ़ैसला कर लिया,
और उसने रुककर छड़ी पर भार डाले हुए पल-भर के वक्फे के बाद पूछा, “यहाँ
नए आये हो?”
“जी
हाँ, “मैंने
उसकी मुरझाई हुई पुतलियों में अपने चेहरे का साया देखते हुए ज़रा
संकोच के साथ कहा।
“मुझे
लग रहा था कि नए ही आये हो,”
वह बोला, “पुराने
लोग तो सब अपने पहचाने हुए हैं।”
“आप
यहीं रहते हैं?”
मैंने पूछा।
“हाँ
यहीं रहते हैं,”
उसने विरक्ति और शिकायत के स्वर में उत्तर दिया, “जहाँ
का अन्न-जल लिखाकर लाये थे,
वहीं तो न रहेंगे...अन्न-जल मिले चाहे न मिले।”
उसका स्वर कुछ ऐसा था जैसे मुझसे उसे कोई पुराना गिला हो। मुझे लगा
कि या तो वह बेहद निराशावादी है,
या उसे पेट का कोई संक्रामक रोग है। उसकी रस्सी की तरह बँधी टाई से
यह अनुमान होता था कि वह एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है जो अब अपनी
कोठी में सेब का बग़ीचा लगाकर उसकी रखवाली किया करता है।
“आपकी
यहाँ पर अपनी ज़मीन होगी?”
मैंने उत्सुकता न रहते हुए भी पूछ लिया।
“ज़मीन?”
उसके स्वर में और भी निराशा और शिकायत भर आयी, “ज़मीन
कहाँ जी?”
और फिर जैसे कुछ खीझ और कुछ व्यंग्य के साथ सिर हिलाकर उसने कहा, “ज़मीन!”
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब मुझे क्या कहना चाहिए। उसी तरह छड़ी पर
भार दिये मेरी तरफ़ देख रहा था। कुछ क्षणों का वह ख़ामोश अन्तराल मुझे
विचित्र-सा लगा। उस स्थिति से निकलने के लिए मैंने पूछ लिया, “तो
आप यहाँ कोई अपना निज का काम करते हैं?”
“काम
क्या करना है जी?”
उसने जवाब दिया,
“घर
से खाना अगर काम है,
तो वही काम करते हैं और आजकल काम रह क्या गये हैं?
हर काम का बुरा हाल है!”
मेरा ध्यान पल-भर के लिए जली हुई इमारत के ज़ीने की तरफ़ चला गया। उसके
ऊपर एक बन्दर आ बैठा था और सिर खुजलाता हुआ शायद यह फ़ैसला करना चाह
रहा था कि उसे कूद जाना चाहिए या नहीं।
“अकेले
आये हो?”
अब उस आदमी ने मुझसे पूछ लिया।
“जी
हाँ,
अकेला ही आया हूँ,”
मैंने जवाब दिया।
“आजकल
यहाँ आता ही कौन है?”
वह बोला, “यह
तो बियाबान जगह है। सैर के लिए अच्छी जगहें हैं शिमला,
मंसूरी वग़ैरह। वहाँ क्यों नहीं चले गये?”
मुझे फिर से उसकी पुतलियों में अपना साया नज़र आ गया। मगर मन होते हुए
भी मैं उससे यह नहीं कह सका कि मुझे पहले पता होता कि वहाँ आकर मेरी
उससे मुलाक़ात होगी,
तो मैं ज़रूर किसी और पहाड़ पर चला जाता।
“ख़ैर,
अब तो आ ही गये हो,”
वह फिर बोला,
“कुछ
दिन घूम-फिर लो। ठहरने का इन्तज़ाम कर लिया है?”
“जी
हाँ,”
मैंने कहा,
“कथलक
रोड पर एक कोठी ले ली है।”
“सभी
कोठियाँ खाली पड़ी हैं,”
वह बोला, “हमारे
पास भी एक कोठरी थी। अभी कल ही दो रुपये महीने पर चढ़ाई है। दो-तीन
महीने लगी रहेगी। फिर दो-चार रुपये डालकर सफ़ेदी करा देंगे। और क्या!”
फिर दो-एक क्षण के बाद उसने पूछा, “खाने
का क्या इन्तज़ाम किया है?”
“अभी
कुछ नहीं किया। इस वक़्त इसी ख़्याल से बाहर आया था कि कोई अच्छा-सा
होटल देख लूँ,
जो ज़्यादा महँगा भी न हो।”
“नीचे
बाज़ार में चले जाओ,”
वह बोला, “नत्थासिंह
का होटल पूछ लेना। सस्ते होटलों में वही अच्छा है। वहीं खा लिया
करना। पेट ही भरना है! और क्या!”
और अपनी नहूसत मेरे अन्दर भरकर वह पहले की तरह छड़ी टेकता हुआ रास्ते
पर चल दिया।
नत्थासिंह का होटल बाज़ार में बहुत नीचे जाकर था। जिस समय मैं वहाँ
पहुँचा बुड्ïढा
सरदार नत्थासिंह और उसके दोनों बेटे अपनी दुकान के सामने हलवाई की
दुकान में बैठे हलवाई के साथ ताश खेल रहे थे। मुझे देखते ही
नत्थासिंह ने तपाक से अपने बड़े लडक़े से कहा,
“उठ
बसन्ते,
ग्राहक आया है।”
बसन्ते ने तुरन्त हाथ के पत्ते फेंक दिए और बाहर निकल आया।
“क्या
चाहिए साब?”
उसने आकर अपनी गद्दी पर बैठते हुए पूछा।
“एक
प्याली चाय बना दो,”
मैंने कहा।
“अभी
लीजिए!”
और वह केतली में पानी डालने लगा।
“अंडे-वंडे
रखते हो?”
मैंने पूछा।
“रखते
तो नहीं,
पर आपके लिए अभी मँगवा देता हूँ,”
वह बोला, “कैसे
अंडे लेंगे?
फ्राई या आमलेट?”
“आमलेट,”
मैंने कहा।
“जा
हरबंसे,
भागकर ऊपर वाले लाला से दो अंडे ले आ,”
उसने अपने छोटे भाई को आवाज़ दी।
आवाज़ सुनकर हरबंसे ने भी झट से हाथ के पत्ते फेंक दिये और उठकर बाहर
आ गया। बसन्ते से पैसे लेकर वह भागता हुआ बाज़ार की सीढ़ियाँ चढ़ गया।
बसन्ता केतली भट्ठी पर रखकर नीचे से हवा करने लगा।
हलवाई और नत्थासिंह अपने-अपने पत्ते हाथ में लिये थे। हलवाई अपने
पाजामे का कपड़ा उँगली और अँगूठे के बीच में लेकर जाँघ खुजलाता हुआ
कह रहा था,
“अब
चढ़ाई शुरू हो रही है नत्थासिंह!”
“हाँ,
अब गर्मियाँ आयी हैं,
तो चढ़ाई शुरू होगी ही,”
नत्थासिंह अपनी सफ़ेद दाढ़ी में उँगलियों से कंघी करता हुआ बोला, “चार
पैसे कमाने के यही तो दिन हैं।”
“पर
नत्थासिंह,
अब वह पहले वाली बात नहीं है,”
हलवाई ने कहा,
“पहले
दिनों में हज़ार-बारह सौ आदमी इधर को आते थे,
हज़ार-बारह सौ उधर को जाते थे,
तो लगता था कि हाँ,
लोग बाहर से आये हैं। अब भी आ गये सौ-पचास तो क्या है!”
“सौ-पचास
की भी बड़ी बरकत है,”
नत्थासिंह धार्मिकता के स्वर में बोला।
“कहते
हैं आजकल किसी के पास पैसा ही नहीं रहा,”
हलवाई ने जैसे चिन्तन करते हुए कहा,
“यह
बात मेरी समझ में नहीं आती। दो-चार साल सबके पास पैसा हो जाता है,
फिर एकदम सब के सब भूखे-नंगे हो जाते हैं! जैसे पैसों पर किसी ने
बाँध बाँधकर रखा है। जब चाहता है छोड़ देता है,
जब चाहता है रोक लेता है!”
“सब
करनी कर्तार की है,”
कहता हुआ नत्थासिंह भी पत्ते फेंककर उठ खड़ा हुआ।
“कर्तार
की करनी कुछ नहीं है,”
हलवाई बेमन से पत्ते रखता हुआ बोला,
“जब
कर्तार पैदावार उसी तरह करता है,
तो लोग क्यों भूखे-नंगे हो जाते हैं?
यह बात मेरी समझ में नहीं आती।”
नत्थासिंह ने दाढ़ी खुजलाते हुए आकाश की तरफ़ देखा,
जैसे खीज रहा हो कि कर्तार के अलावा दूसरा कौन है जो लोगों को
भूखे-नंगे बना सकता है।
“कर्तार
को ही पता है,”
पल-भर बाद उसने सिर हिलाकर कहा।
“कर्तार
को कुछ पता नहीं है,”
हलवाई ने ताश की गड्डी फटी हुई डब्बी में रखते हुए सिर हिलाकर कहा और
अपनी गद्दी पर जा बैठा। मैं यह तय नहीं कर सका कि उसने कर्तार को
निर्दोष बताने की कोशिश की है,
या कर्तार की ज्ञानशक्ति पर सन्देह प्रकट किया है!
कुछ देर बाद मैं चाय पीकर वहाँ से चलने लगा,
तो बसन्ते ने कुल छ: आने माँगे। उसने हिसाब भी दिया—चार
आने के अंडे,
एक आने का घी और एक आने की चाय। मैं पैसे देकर बाहर निकला,
तो नत्थासिंह ने पीछे से आवाज़ दी, “भाई
साहब,
रात को खाना भी यहीं खाइएगा। आज आपके लिए स्पेशल चीज़ बनाएँगे! ज़रूर
आइएगा।”
उसके स्वर में ऐसा अनुरोध था कि मैं मुस्कराए बिना नहीं रह सका। सोचा
कि उसने छ: आने में क्या कमा लिया है जो मुझसे रात को फिर आने का
अनुरोध कर रहा है।
शाम को सैर से लौटते हुए मैंने बुक एजेंसी से अख़बार ख़रीदा और बैठकर
पढऩे के लिए एक बड़े से रेस्तराँ में चला गया। अन्दर पहुँचकर देखा कि
कुर्सियाँ,
मेज़ और सोफ़े करीने से सज़े हुए हैं,
पर न तो हॉल में कोई बैरा है और न ही काउंटर पर कोई आदमी है। मैं एक
सोफ़े पर बैठकर अख़बार पढऩे लगा। एक कुत्ता जो उस सोफ़े से सटकर लेटा था,
अब वहाँ से उठकर सामने के सोफ़े पर आ बैठा और मेरी तरफ़ देखकर जीभ
लपलपाने लगा। मैंने एक बार हल्के से मेज़ को थपथपाया,
बैरे को आवाज़ दी,
पर कोई इन्सानी सूरत सामने नहीं आयी। अलबत्ता,
कुत्ता सोफ़े से मेज़ पर आकर अब और भी पास से मेरी तरफ़ जीभ लपलपाने
लगा। मैं अपने और उसके बीच अख़बार का परदा करके ख़बरें पढ़ता रहा।
उस तरह बैठे हुए मुझे पन्द्रह-बीस मिनट बीत गये। आख़िर जब मैं वहाँ से
उठने को हुआ,
तो बाहर का दरवाज़ा खुला और पाजामा-कमीज पहने एक आदमी अन्दर दाख़िल
हुआ। मुझे देखकर उसने दूर से सलाम किया और पास आकर ज़रा संकोच के साथ
कहा, “माफ
कीजिएगा,
मैं एक बाबू का सामान मोटर-अड्डे तक छोडऩे चला गया था। आपको आए
ज़्यादा देर तो नहीं हुई?”
मैंने उसके ढीले-ढाले जिस्म पर एक गहरी नज़र डाली और उससे पूछ लिया,
“तुम
यहाँ अकेले ही काम करते हो?”
“जी,
आजकल अकेला ही हूँ,”
उसने जवाब दिया,
“दिन-भर
मैं यहीं रहता हूँ,
सिर्फ़ बस के वक़्त किसी बाबू का सामान मिल जाए तो अड्डे तक दौडऩे चला
जाता हूँ।”
“यहाँ
का कोई मैनेजर नहीं है?”
मैंने पूछा।
“जी,
मालिक आप ही मैनेजर हैं,”
वह बोला, “वह
आजकल अमृतसर में रहता है। यहाँ का सारा काम मेरे ज़िम्मे है।”
“तुम
यहाँ चाय-वाय कुछ बनाते हो?”
“चाय,
कॉफ़ी—जिस
चीज़ का ऑर्डर दें,
वह बन सकती है!”
“अच्छा
ज़रा अपना मेन्यू दिखाना।”
उसके चेहरे के भाव से मैंने अन्दाज़ा लगाया कि वह मेरी बात नहीं समझा।
मैंने उसे समझाते हुए कहा,
“तुम्हारे
पास खाने-पीने की चीज़ों की छपी हुई लिस्ट होगी,
वह ले आओ।”
“अभी
लाता हूँ जी,”
कहकर वह सामने की दीवार की तरफ़ चला गया और वहाँ से एक गत्ता उतार
लाया। देखने पर मुझे पता चला कि वह उस होटल का लाइसेंस है।
“यह
तो यहाँ का लाइसेंस है,”
मैंने कहा।
“जी,
छपी हुई लिस्ट तो यहाँ पर यही है,”
वह असमंजस में पड़ गया।
“अच्छा
ठीक है,
मेरे लिए चाय ले आओ,”
मैंने कहा।
“अच्छा
जी!”
वह बोला, “मगर
साहब,”
और उसके स्वर में काफ़ी आत्मीयता आ गयी,
“मैं
कहता हूँ,
खाने का टैम है,
खाना ही खाओ। चाय का क्या पीना! साली अन्दर जाकर नाडिय़ों को जलाती
है।”
मैं उसकी बात पर मन-ही-मन मुस्कराया। मुझे सचमुच भूख लग रही थी,
इसलिए मैंने पूछा,
“सब्जी-अब्जी
क्या बनाई है?”
“आलू-मटर,
आलू-टमाटर,
भुर्ता,
भिंडी,
कोफ्ता,
रायता...”
वह जल्दी-जल्दी लम्बी सूची बोल गया।
“कितनी
देर में ले आओगे?”
मैंने पूछा।
“बस
जी पाँच मिनट में।”
“तो
आलू-मटर और रायता ले आओ। साथ ख़ुश्क चपाती।”
“अच्छा
जी!”
वह बोला, “पर
साहब,”
और फिर स्वर में वही आत्मीयता लाकर उसने कहा, “बरसात
का मौसम है। रात के वक़्त रायता नहीं खाओ,
तो अच्छा है। ठंडी चीज़ है। बाज़ वक़्त नुक़सान कर जाती है।”
उसकी आत्मीयता से प्रभावित होकर मैंने कहा, “तो
अच्छा,
सिर्फ़ आलू-मटर ले आओ।”
“बस,
अभी लो जी,
अभी लाया,”
कहता हुआ वह लकड़ी के ज़ीने से नीचे चला गया।
उसके जाने के बाद मैं कुत्ते से जी बहलाने लगा। कुत्ते को शायद बहुत
दिनों से कोई चाहने वाला नहीं मिला था। वह मेरे साथ ज़रूरत से ज़्यादा
प्यार दिखाने लगा। चार-पाँच मिनट के बाद बाहर का दरवाज़ा फिर खुला और
एक पहाड़ी नवयुवती अन्दर आ गयी। उसके कपड़ों और पीठ पर बँधी टोकरी से
ज़ाहिर था कि वह वहाँ की कोयला बेचनेवाली लड़कियों में से है।
सुन्दरता का सम्बन्ध चेहरे की रेखाओं से ही हो,
तो उसे सुन्दर कहा जा सकता था। वह सीधी मेरे पास आ गयी और छूटते ही
बोली, “बाबूजी,
हमारे पैसे आज ज़रूर मिल जाएँ।”
कुत्ता मेरे पास था,
इसलिए मैं उसकी बात से घबराया नहीं।
मेरे कुछ कहने से पहले ही वह फिर बोली, “आपके
आदमी ने एक किल्टा कोयला लिया था। आज छ:-सात दिन हो गये। कहता था,
दो दिन में पैसे मिल जाएँगे। मैं आज तीसरी बार माँगने आयी हूँ। आज
मुझे पैसों की बहुत ज़रूरत है।”
मैंने कुत्ते को बाँहों से निकल जाने दिया। मेरी आँखें उसकी नीली
पुतलियों को देख रही थीं। उसके कपड़े—पाजामा,
कमीज़,
वास्कट,
चादर और पटका—सभी
बहुत मैले थे। मुझे उसकी ठोड़ी की तराश बहुत सुन्दर लगी। सोचा कि
उसकी ठोड़ी के सिरे पर अगर एक तिल भी होता...।
“मेरे
चौदह आने पैसे हैं,”
वह कह रही थी।
और मैं सोचने लगा कि उसे ठोड़ी के तिल और चौदह आने पैसे में से एक
चीज़ चुनने को कहा जाए,
तो वह क्या चुनेगी?
“मुझे
आज जाते हुए बाज़ार से सौदा लेकर जाना है,”
वह कह रही थी।
“कल
सवेरे आना!”
उसी समय बैरे ने ज़ीने से ऊपर आते हुए कहा।
“रोज़
मुझसे कल सवेरे बोल देता,”
वह मुझे लक्ष्य करके ज़रा गुस्से के साथ बोली, “इससे
कहिए कल सवेरे मेरे पैसे ज़रूर दे दे।”
“इनसे
क्या कह रही है,
ये तो यहाँ खाना खाने आये हैं,”
बैरा उसकी बात पर थोड़ा हँस दिया।
इससे लडक़ी की नीली आँखों में संकोच की हल्की लहर दौड़ गयी। वह अब
बदले हुए स्वर में मुझसे बोली,
“आपको
कोयला तो नहीं चाहिए?”
“नहीं,”
मैंने कहा।
“चौदह
आने का किल्टा दूँगी,
कोयला देख लो,”
कहते हुए उसने अपनी चादर की तह में से एक कोयला निकालकर मेरी तरफ़
बढ़ा दिया।
“ये
यहाँ आकर खाना खाते हैं,
इन्हें कोयला नहीं चाहिए,”
अब बैरे ने उसे झिडक़ दिया।
“आपको
खाना बनाने के लिए नौकर चाहिए?”
लडक़ी बात करने से नहीं रुकी,
“मेरा
छोटा भाई है। सब काम जानता है। पानी भी भरेगा,
बरतन भी मलेगा...।”
“तू
जाती है यहाँ से कि नहीं?”
बैरे का स्वर अब दुतकारने का-सा हो गया।
“आठ
रुपये महीने में सारा काम कर देगा,”
लडक़ी उस स्वर को महत्त्व न देकर कहती रही,
“पहले
एक डॉक्टर के घर में काम करता था। डॉक्टर अब यहाँ से चला गया है...।”
बैरे ने अब उसे बाँह से पकड़ लिया और बाहर की तरफ़ ले जाता हुआ बोला,
“चल-चल,
जाकर अपना काम कर। कह दिया है,
उन्हें नौकर नहीं चाहिए,
फिर भी बके जा रही है!”
“मैं
कल इसी वक़्त उसे लेकर आऊँगी,”
लडक़ी ने फिर भी चलते-चलते मुडक़र कह दिया।
बैरा उसे दरवाज़े से बाहर पहुँचाकर पास आता हुआ बोला,
“कमीन
जात! ऐसे गले पड़ जाती हैं कि बस...!”
“खाना
अभी कितनी देर में लाओगे?”
मैंने उससे पूछा।
“बस
जी पाँच मिनट में लेकर आ रहा हूँ,”
वह बोला, “आटा
गूँथकर सब्जी चढ़ा आया हूँ। ज़रा नमक ले आऊँ—आकर
चपातियाँ बनाता हूँ।”
ख़ैर,
खाना मुझे काफ़ी देर से मिला। खाने के बाद मैं काफ़ी देर ठंडी-गरम सडक़
पर टहलता रहा क्योंकि पहाडिय़ों पर छिटकी चाँदनी बहुत अच्छी लग रही
थी। लौटते वक़्त बाज़ार के पास से निकलते हुए मैंने सोचा कि नाश्ते के
लिए सरदार नत्थासिंह से दो अंडे उबलवाकर लेता चलूँ। दस बज चुके थे,
पर नत्थासिंह की दुकान अभी खुली थी। मैं वहाँ पहुँचा तो नत्थासिंह और
उसके दोनों बेटे पैरों के भार बैठे खाना खा रहे थे। मुझे देखते ही
बसन्ते ने कहा, “वह
लो,
आ गये भाई साहब!”
“हम
कितनी देर इन्तज़ार कर-करके अब खाना खाने बैठे हैं!”
हरबंसा बोला।
“ख़ास
आपके लिए मुर्गा बनाया था।”
नत्थासिंह ने कहा,
“हमने
सोचा था कि भाई साहब देख लें,
हम कैसा खाना बनाते हैं। ख़याल था दो-एक प्लेटें और लग जाएँगी। पर न
आप आये,
और न किसी और ने ही मुर्गे की प्लेट ली। हम अब तीनों खुद खाने बैठे
हैं। मैंने मुर्गा इतने चाव से,
इतने प्रेम से बनाया था कि क्या कहूँ! क्या पता था कि ख़ुद ही खाना
पड़ेगा। ज़िन्दगी में ऐसे भी दिन देखने थे! वे भी दिन थे कि जब अपने
लिए मुर्गे का शोरबा तक नहीं बचता था! और एक दिन यह है। भरी हुई
पतीली सामने रखकर बैठे हैं! गाँठ से साढ़े तीन रुपये लग गये,
जो अब पेट में जाकर खनकते भी नहीं! जो तेरी करनी मालिक!”
“इसमें
मालिक की क्या करनी है?”
बसन्ता ज़रा तीख़ा होकर बोला,
“जो
करनी है,
सब अपनी ही है! आप ही को जोश आ रहा था कि चढ़ाई शुरू हो गयी है,
लोग आने लगे हैं,
कोई अच्छी चीज़ बनानी चाहिए। मैंने कहा था कि अभी आठ-दस दिन ठहर जाओ,
ज़रा चढ़ाई का रुख देख लेने दो। पर नहीं माने! हठ करते रहे कि अच्छी
चीज़ से मुहूरत करेंगे तो सीजन अच्छा गुज़रेगा। लो,
हो गया मुहूरत!”
उसी समय वह आदमी,
जो कुछ घंटे पहले मुझे चेयरिंग क्रास पर मिला था,
मेरे पास आकर खड़ा हो गया। अँधेरे में उसने मुझे नहीं पहचाना और छड़ी
पर भार देकर नत्थासिंह से पूछा, “नत्थासिंह
एक ग्राहक भेजा था,
आया था?”
“कौन
ग्राहक?”
नत्थासिंह चिढ़े-मुरझाए हुए स्वर में बोला।
“घुँघराले
बालों वाला नौजवान था—मोटे
शीशे का चश्मा लगाए हुए...?”
“ये
भाई साहब खड़े हैं!”
इससे पहले कि वह मेरा और वर्णन करता,
नत्थासिंह ने उसे होशियार कर दिया।
“अच्छा
आ गये हैं!”’
उसने मुझे लक्ष्य करके कहा और फिर नत्थासिंह की तरफ़ देखकर बोला, “तो
ला नत्थासिंह,
चाय की प्याली पिला।”
कहता हुआ वह सन्तुष्ट भाव से अन्दर टीन की कुरसी पर जा बैठा। बसन्ता
भट्ठी पर केतली रखते हुए जिस तरह से बुदबुदाया उससे जाहिर था कि वह
आदमी चाय की प्याली ग्राहक भेजने के बदले में पीने जा रहा है!
(शीर्ष पर वापस)
[संचयन-मुख्य सूची] |