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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4 सम्पादक - राघव शरण शर्मा किसान क्या करें
" He discovered the simple fact here to fore hidden beneath ideological
excrescences, that human beings must have food and drink, clothing and
shelter, first of all, before they can interest themselves in politics,
science, art, religion and the like." (Frederick Engles).
सेण्ट्रल जेल
पहला भाग (1) खाना-पीना सीखें
हमने देखा है कि किसानों को दिन-रात इस बात की फिक्र रहती है कि मालिक (जमींदार) का हक नहीं दिया गया, दिया जाना चाहिए, साहू-महाजन का पावना पड़ा हुआ है उसे किसी प्रकार चुकाना होगा, चौकीदारी टैक्स बाकी ही है, उसे चुकता करना है, बनिये का बकिऔता अदा करना है आदि-आदि। उन्हें यह भी चिन्ता बनी रहती है कि तीर्थ-व्रत नहीं किया, गंगा स्नान न हो सका, कथा वार्ता न करवा सके, पितरों का श्राद्ध तर्पण पड़ा ही है, साधु-फकीरों को कुछ देना ही होगा, देवताओं और भगवान को पत्र-पुष्प यथाशक्ति समर्पण करना ही पड़ेगा। वे मन्दिर-मस्जिद बनाने और अनेक प्रकार के धर्म दिखाने में भी कुछ न कुछ देना जरूरी समझते हैं। यहाँ तक कि ओझा-सोखा और डीह-डाबर की पूजा में भी उनके पैसे खामख्वाह खर्च हो ही जाते हैं। चूहे, पंछी, पशु, चोर बदमाश और राह चलते लोग भी उनकी कमाई का कुछ न कुछ अंश खा जाते हैं। सो भी प्राय: अच्छी चीजें ही। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बहुत ही हिफाजत से रखने पर भी बिल्ली उनका दूध-दही उड़ा जाती है। कौवों का दाँव भी लग ही जाता है। कीड़े-मकोड़े और घुन भी नहीं चूकते वे भी कुछ लेई जाते हैं। सारांश यह कि संसार के सभी अच्छे-बुरे जीव उनकी कमाई की चीजों के हिस्सेदार बनते हैं। किसान भी खुद यही मानते हैं कि उन सबों का भी हक उनकी कमाई में है। लेकिन क्या वे कभी यह भी सोचते हैं कि हमें और हमारे बाल-बच्चों को भी खाने का हक है? जरा इस प्रश्न की तह में जाकर देखना चाहिए। यह सही है कि वे और उनके परिवार के लोग खाते-पीते हैं। नहीं तो जिन्दा कैसे रहते। यह भी ठीक है कि किसान बराबर ही जीविका-जीविका चिल्लाते रहते हैं। मैं मानता हूँ कि हर किसान यही कहता है कि क्या करें गुजर-बसर के लिए खेती-बारी कर लेते हैं और दूसरा भी उपाय ढूँढ़ते हैं। वह पेट के ही नाम पर नौकरी चाकरी और दूसरे काम भी करता है। खेती मारी गई या रोटी का और जरिया गया तो बाल-बच्चे मर ही जाएँगे, यह भी सोचता रहता है इससे हमें इनकार नहीं। मगर इन सब बातों से जो निष्कर्ष निकाला जाता है उस पर जरा गौर करना होगा। केवल ऊपरी बातों से असलियत का पता नहीं लगता जब तक डूब के भीतर देखा न जाए। यह माना जाता है कि पेट के लिए ही सबकुछ किया जाता है। लेकिन क्या सचमुच यही बात है? यदि हाँ तो फिर किसान अपनी गाय-भैंस का दूध दुह के स्वयं पी क्यों नहीं लेता और बाल-बच्चों को पिला क्यों नहीं देता। उसे रोकता कौन है, यदि पेट के ही लिए सभी काम सचमुच करता है? पीने से जो बचे उसका दही बना के क्यों खा-खिला नहीं डालता? दही के बाद भी बच जाए तो घी निकाल के खाने में क्या रुकावटें हैं? दुहने के बाद फौरन खा-पी जाने में तो खैरियत है। घर जाने पर तो न जाने कौन-कौन से दावेदार खड़े हो जाएँ। मगर क्यों यह बात नहीं की जाती यही तो विचारणीय है। यदि कहा जाए कि सरकारी कर, जमींदारी लगान और साहूकार के पावने का खयाल और भय उसे ऐसा नहीं करने देता तो फिर पेट के ही लिए सब कुछ करते हैं यह कहाँ रहा? दिमाग में तो दूसरा भूत बैठा है। पेट की बात तो यों ही बकी जाती है। पुरानी पोथियों में मिलता है कि भूखे होने से विश्वामित्र ने कुत्तों का जंघा खा डाला। अजीगर्त वगैरह ने भी ऐसा ही निन्दित और धर्मवर्जित मांस खा लिया हालाँकि वे लोग पक्के ऋषि और धर्मभीरु थे। मगर पेट के सामने धर्म की भावना कुछ न कर सकी तो क्या सरकारी और जमींदारी पावने की भावना और धारणा धर्म भावना से भी ज्यादा बलवती है? जो लोग ऐसा समझते हैं वह भूलते हैं। हो सकता है, समाज का रूप बदले और भविष्य में इस धार्मिक भावना का स्थान भौतिक भावना ले ले। मगर आज तो धर्म भावना सौभाग्य या दुर्भाग्य से सर्वोपरि है। धर्म के नाम पर किसान सबकुछ गवाँ देने को तैयार हो जाते हैं। जरा और सोचें। कल्पना करें कि एक आदमी बहुत ही ज्यादा भगवान का भक्त है। भगवान का उसे दर्शन भी हो जाता है। वह नरसी मेहता या सूरदास के टक्कर का है। उसने भोजन बनाया और कई दिनों का भूखा होने के कारण जल्द खाना भी चाहता है। पेट में आग जो लगी है। मगर भगवान का भोग तो लगाएगा ही। भक्त जो ठहरा। अब अगर उसके साक्षात भगवान या गुरु महाराज उसकी परोसी- परोसाई समूची थाली उठा ले जाएँ, तो क्या होगा। दोबारा बनाने की कोशिश करेगा। लेकिन यदि थाल छीनने की यही प्रतिक्रिया बराबर जारी रही, तो क्या यों ही बर्दाश्त करता जाएगा? खुद छेड़खानी न करेगा? वह तो असम्भव है। दो-चार बार शायद बर्दाश्त करे। मगर अन्त में तो अपने भगवान या गुरु महाराज से भी उठा-पटक कुश्तम-कुश्ती करेगा ही। पकड़ के थाल भी छीन लेगा जरूर। आखिर कचहरियों में वेद, कुरान, बाइबिल और शालग्राम की झूठी कसमें खाने का मतलब क्या है? क्या वह जर और जमीन के लिए ही भगवान का पछाड़ा जाना नहीं है? क्या कचहरियों में ऐसे ही मौकों पर बराबर यह भगवान इस प्रकार प्रत्यक्ष पछाड़ पर पछाड़ नहीं खाते हैं? शायद कहा जाए कि जमींदार लूट लेंगे, सरकार छीन लेगी और उसे खाने न देगी। नहीं तो वह जरूर खा जाता। तो इसका सीधा उत्तर यही है कि जब छीना जाएगा तब देखा जाएगा। मगर जब तक छीनने वाले नहीं हैं तभी तक क्यों नहीं खा लेता? यदि छीनने का भय खाने नहीं देता तो क्या नर्क का भी ऐसा ही भय खाने से और चोरी-बदमाशी से रोक देता है? सभी जानते हैं, चोरी करने पर पकड़े जाएँगे और दुराचार-व्यभिचार करने पर थू-थू होगी। मगर क्या छोड़ देते हैं? और अगर सिर्फ खयाली और दिमागी भय ही उनके हाथ और मुँह को रोक देता है। तब तो मानना ही होगा कि असली चीज खाना नहीं। किन्तु पावना चुकाना ही है। एक बात और कंजूसी के मारे जो न खाता और खिलाता है उसका क्या मतलब है? अगर वह मानता रहता कि असली काम खाना ही है और सबसे पहला है, तो ऐसा काम वह कभी नहीं करता। मगर उसके माथे में असली काम कुछ और ही है। फिर क्यों खाये-पीये? आखिर लक्ष्य से क्यों हटे? यह भी तो पक्का है कि जो चीजें खा-पी ली जाएँगी उन्हें कोई छीन नहीं सकता, ले नहीं सकता। पेट से तो निकालेगा नहीं। हाँ जो बचा रखी जाती हैं उन्हीं के दावेदार होते हैं, हो सकते हैं। ऐसी हालत में किसान अगर पैदा की हुई चीजें खाता-पीता जाए तो कोई क्या करेगा? आखिर पागल आदमी भी तो आदमी ही होता है। वह पशु या पत्थर तो हो जाता नहीं। मगर उसके ऊपर कोई कानून लागू क्यों नहीं होता? यही न, कि लोग ऐसा करना बेकार समझते हैं और मानते हैं कि नतीजा कुछ नहीं होगा? ठीक उसी प्रकार यदि कानूनों और कानूनी माँगों की परवाह न करके किसान भी अच्छी-अच्छी चीजें खा-पी जाया करे, तो क्या होगा? आखिर पागल को भी तो कानून की फिक्र नहीं होती। इसीलिए कानून भी उसकी फिक्र नहीं करता। फिर वही काम किसान क्यों न करे और कानून भी उसी प्रकार उसका पिण्ड क्यों न छोड़ देगा? स्मरण रहे कि कानून सदा बनते-बिगड़ते रहते हैं। बहुमत ही उनके बदलने का कारण भी है। ऐसी दशा में तो किसान का यह काम अस्सी प्रतिशत का काम होगा। यह तो 'कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ' वाली बात होगी। वह तो कहने के बजाय कर डालेगा और उसका यह मत बड़ा ही पक्का होगा भी। इसे टालने की हिम्मत कोई भी सरकार या शक्ति कर नहीं सकती। फिर तो कानून खामख्वाह ऐसा ही बनेगा कि सबसे पहले किसान को ही खाना-पीना चाहिए। कानून का काम तो सिर्फ यही है कि जिसे हम सामूहिक रूप से करने लगें उसी पर मुहर लगा दे। कानून हमारे लिए हैं, न कि हमीं कानून के लिए हैं। यही सबसे पक्की बात है। किसान के पास बैल होता है, गाय, भैंसें होती हैं। उनकी क्या हालत है। बैल का पेट जब खाली होता है, खूब भरा नहीं होता, तो न तो 'भूखे हैं, रोटी दो' के नारे लगाता, न क्रान्ति और रेवोल्यूशन की बात ही करता और न भीख ही माँगता है। वह तो सत्याग्रह करता, हल और गाड़ी खींचने से साफ इनकार करता और चारों पाँव बैठ जाता है। वह तो अपने अमल से बता देता है कि हमारी जो खुराक है वही, न कि ऊलजलूल रद्दी चीजें, लाओ और पहले हमारा पेट भरो। उसके बाद ही हम हल या गाड़ी में जुतेंगे। वह तो दलील भी नहीं करता और वोट भी नहीं देता। मगर ऐसा करता है कि उसकी माँग उसकी इच्छा पूर्ण करनी ही होती है। तो क्या किसान अपने बैल से भी गया गुजरा है? जिसे अक्ल नहीं होती उसे बैल कहते हैं। मगर वह बैल तो अक्लवाले किसान से सौ दर्जे अच्छा है। यदि किसान को और कहीं अक्ल नहीं मिलती, तो अपने बैल से ही क्यों नहीं सीखता? बैल तो एक ही कानून जानता है और वह है पेट भरने का कानून। क्योंकि उसके बिना हल या गाड़ी खींचना गैर-मुमकिन है। यदि किसान भी वही एक कानून सीख ले तो क्या हो? आखिर उसे भी तो देह से कठिन श्रम करके खून को पानी करके ठीक बैल ही की तरह खटना तथा सभी पदार्थ पैदा करना पड़ता है जो अमीर और कानून बनाने वाले ही खाते-पीते हैं। कानून बनाने वालों को तो उस तरह खटना पड़ता नहीं। फिर वे क्या जानने गए कि पेट भरने पर काम हो सकता है या उसके बिना भी? और जब वे देखते हैं कि किसान तो काम किए चला जाता है, खेत जोतता, बोता और गेहूँ, बासमती, घी, दूध पैदा किये जा रहा है, तो फिर उसके पेट भरने की फिक्र क्यों करने लगे? उन्हें क्या गर्ज? यदि बैल बिना खाये-पीये ही गाड़ी और हल खींचे, खींचता रहे तो कौन किसान ऐसा बेवकूफ है कि उसे खिलाने की फिक्र करेगा ? गाय-भैंसों को लीजिए। यदि उन्हें खूब दाना, घास, खल्ली, भूसा न खिलाइए, पानी न पिलाइए, फिर भी दुहने का बर्तन लेकर जाइए तो क्या होगा? दूध मिलेगा? वे दुहने देंगी? दूध तो नहीं, उसकी जगह उनकी लत्ती (लात की चोट) मिलेगी और बर्तन भी फूटेगा। यदि थोड़ा-बहुत उसमें दूध रहा तो वह भी जाएगा। इतना ही नहीं। उन्हें खूब खिला-पिला कर रखिये। मगर रात में उनके बैठने-लोटने की जगह ठीक न हो, उसमें कीचड़ और पानी हो तो क्या होगा? अगर यह भी ठीक हो, मगर मच्छरों ने रात-भर काट खाया और आपने उनसे बचने का कोई यत्न नहीं किया, तो भी क्या वे दूध देंगी? वही उछलकूद और वही लात दूध की जगह। अगर आपने यह सब भी किया। मगर दूहने के पहले एक लाठी कसके जमा दी तो? ऐसी दशा में दूध की आशा आप कर ही नहीं सकते। आपको उनकी सींगों की चोट का सामना करना और जख्मी होना भले ही पड़े। मगर किसान को तो जरा देखिए। खाने बिना मर रहा है। तन पर न मांस है, न चमड़ा। हड्डियाँ भी नहीं हैं। मालूम होता है कमाते-कमाते घिस गईं। जठरानल ने, प्रचण्ड क्षुधा ज्वाला ने सबको जला दिया है। फिर भी लगान दिए चला जा रहा है, चौकीदारी समय पर अदा करता ही है, साहूजी का पावना सूद दर सूद के साथ एक का दस पैसे-पैसे चुकता करता ही है। वह तो सरकार की, जमींदार की और साहूकार की दुनिया की, कामधेनु है। वही घी, दूध, गेहूँ, चावल सबके लिए मुहय्या करता है। मगर कभी इस कामधेनु की चिन्ता सरकार ने, जमींदार ने, या दुनिया ने, मतवाली और अन्धी दुनिया ने, की है, कि क्या खाया-पिया इसने, या कतई खाया-पिया भी कि नहीं? फिक्र करें भी क्यों, जब इस कामधेनु को खुद इसकी, अपने खाने-पीने की परवाह नहीं? जब कि यह बिना खाये-पिये ही दूध देने को बराबर तैयार है, तो कौन नादान इसकी परवाह करे और इसे खिलाये-पिलाये। यदि ये शोषक, ये जमींदार वगैरह, कभी पूछने तक नहीं आया तुमने खाया-पिया भी है या क्या खाया है, तो इसमें उनका दोष ही क्या? इतना ही नहीं इसे खूब पीटते और मारते-मारते दम निकाल लेते हैं, जैसा कि बराबर ही होता है, और जेल में भी डाल देते हैं। फिर भी यह तो ऐसी बेहूदी कामधेनु है कि पूरा दूध दिये चली जाती है। नहीं-नहीं, पीटने से और पीटने के डर से तो और भी देती है। फिर वे क्यों न मौज करें और इसकी परवाह क्यों न छोड़ दें? वह इसके जैसे नादान और नालायक-पागल थोड़े ही हैं कि इस बला में फँसें। उनने तो अच्छा बेवकूफ फाँसा है। एक बात और। जब फसल खेतों में लगती है, तैयार होकर खलिहान में जमा की जाती है, या घर लायी जाती है तो चूहे, पक्षी, कीड़े-मकोड़े और राह चलते या चोर वगैरह उसे जरूर ही खाते हैं। आप हजारों कोशिश करें। मगर उन्हें रोक नहीं सकते। वह अपना हिस्सा ले ही जाते हैं। यही नहीं कि केवल पेट-भर लेते हैं। आगे के लिए जमा भी करते हैं। चूहों की तो खास बात है जमा करने की। ताकि जब फसल के दिन न हों तब खाएँ-पिएँ। ऐसा क्यों होता है। क्यों चूहे और दूसरे जानवरों को रोका नहीं जा सकता? क्यों घूमने-फिरने वाले जानवर भी खा जाते हैं? इसीलिए न कि वह खेत के मालिक से, किसान से पूछने नहीं जाते, आज्ञा लेने नहीं जाते कि खाएँ? वे आरजू-मिन्नत भी नहीं करते कि दया करके खाने दीजिए। वे कोई भी नियम-कानून या अपना-पराया वाला सवाल नहीं जानते। वह तो एक ही मन्त्र और एक ही सिद्धान्त जानते हैं कि पेट भर लो। जो सामने आए वही हमारा है। उदर में रख लो और उसी में से आगे लिए भी प्रबन्ध कर लो। अगर वे पूछने जाते या आरजू करते तो क्या कोई खेत वाला उन्हें खाने देता। वे खाने में आगा-पीछा करते, मेरा हक है या नहीं, यह मेरा है या और का आदि बातें भी यदि सोचते तो भी भूखे ही मरते। क्योंकि इतने ही में खेतिहर आकर रोक देता। इसलिए पेट के सवाल में वे उसे जैसे हो भर लेने के अलावे कुछ भी नहीं जानते। इसलिए मौज भी करते हैं। मगर किसान? इसे तो हजार फिक्र पड़ी है। यह तो लाख बार आगा-पीछा करता है। सामने आया घी, दूध और गेहूँ, चावल पेट में रखने के बजाय जमा करता है कि मालिक को देना है, साहूकार को देना है। मेरा हक नहीं है कि खाऊँ, यही मानता है। कानून और व्यवस्था के वाहियात पचड़े में पड़ जाता है। सैकड़ों तरह के खयाल और भय उसकी हाथ-मुँह और उसकी जबान रोक देते हैं। वह जमा करने में लग जाता है। फलत: जैसे मधुमक्षिका की जमा की हुई शहद गैरों के हाथ लगती है, न कि उसके या उसके बाल-बच्चों के; ठीक वही हालत किसान की भी होती है। पैदा करता और जमा करता है वह। खाते हैं दूसरे लोग। अगर चूहों और पशु-पक्षियों से भी खाने-पीने की यह अक्ल वह सीख लेता तो उसकी यह दुर्दशा नहीं होती। उसका उद्धार हो जाता। जो खाने-पीने के सामान स्वयं किसान पैदा करता है उसे ही मुफ्तखोर जमींदार, धनी और अधिकारी वर्ग खाते हैं। उनके लिए कहीं आसमान से कोई दूसरी चीज नहीं आती और न दूसरा कोई उनके लिए ये वस्तुएँ पैदा ही करता है। ताज्जुब है कि हजार इच्छा और प्रचण्ड भूख के रहते हुए भी ये नालायक किसान उनके लिए रख छोड़ता है उनके पास पहुँचाता है और खुद परिवार के साथ भूखों मरता है। यदि कहा जाए कि गंगा की धारा में एक प्यासा हुआ आदमी है, तो लोग आश्चर्य करेंगे। बात पर विश्वास न करेंगे। मगर अपार दूध, घी और गेहूँ, चावल पैदा करने वाले किसान का भूखों मरना और क्या है यदि गंगा के बीच प्यासे मरना नहीं है? घास खाने वाले जानवर के बच्चे के सामने घास रख दीजिए और उस जानवर को कहीं भूखा छोड़ दीजिए। आप देखेंगे कि अपने बच्चे के सामने की सब घास खा जाएगा और यह परवाह कतई न करेगा कि बच्चा भूखा है, वह बच्चा जिसकी रक्षा के लिए वह परेशान रहता और बड़े प्रेम से जिसे चाटता है। जिसे अपना दूध पिलाता है और शत्रुओं के आक्रमण से बचाता है। उसकी यह हरकत यदि किसान को इतना भी सिखा सकती कि अपने भूखे रह के गैरों के पेट भरने की कोशिश ठीक नहीं तो उसका निस्तार हो जाता। अपना पेट भर लेना सबसे प्रधन और पहला काम है। अगर वह इतना ही समझ जाता तो उसका कल्याण हो जाता। दुनिया में अनायास ही क्रान्ति हो जाती। अमीर और जमींदार लोग, कानून की पाबन्दी और उस पर अमल कराने वाले लोग और जो लोग कानून बनाते हैं उनसे, सभी से यदि कहा जाए कि भूखे रहकर यह काम कीजिए तो धीरे से सलाम करके चट हट जाएँगे। साफ कहेंगे कि बाबा, यह काम हमसे न होगा। लीजिए हमारा इस्तीफा। नहीं-नहीं, भूखे रहना तो दूर रहे। जरा चाय न मिले, एक समय नाश्ता और जलपान न मिले तो भी उनके माथे में चक्कर आता है और बीमार पड़ जाते हैं। फलत: उनकी सारी ऐंठ और सारा कारोबार ही रुक जाता है। लेकिन वही लोग उम्मीद करते हैं कि भूखों रहकर और दिन-रात खप-मर के किसान लगान और टैक्स चुकता करे सलामी और नजराना दे और सुन्दर-सुन्दर पदार्थ उन्हें भोग लगाने को मुहय्या करे? किसान उनके पूछता क्यों नहीं कि 'खुदरा फजीहत, दीगरे रा नसीहत?' आप लोग स्वयं तो जरा सी नाश्ते में देर बर्दाश्त नहीं कर सकते और घी-दूध के बिना काम ही नहीं कर सकते। तो फिर हमीं से वैसी आशा क्यों करते हैं? हम भूखों रहके सब-कुछ गैरों के लिए उपजावें ऐसा क्यों सोचते हैं? क्या आपका शरीर एवं दिल दिमाग खून मांस वगैरह से बना है और हमारा पत्थर और मिट्टी से कि हमारा काम यों ही चल जाएगा? हमारे साथ आप भी भूखों रह के काम कीजिए। तब तो पता चलेगा कि लेक्चर और हुक्म देना कितना आसान है और भूख कितनी बुरी है। ऊँट को तभी पता चलेगा कि जितना आसान बलबलाना है, उतना पहाड़ पर चढ़ना नहीं है। किसान का काम है कि वह कानूनी ढिंढोरा पीटने वालों से और उसका खून चूसने वालों से सीधा कह दे कि बिना कोयला-पानी के निर्जीव और लोहे का बना इंजिन भी काम नहीं करता और आगे नहीं बढ़ता, चाहे ड्राइवर मर जाए। यदि घोड़े को दाना और घास न दें और पानी न पिलाएँ। मगर पीठ पर सवार होकर कोड़े मारकर ही उसे चलाना और दौड़ाना चाहें तो यह असम्भव है। वह तो सिर्फ आगे बढ़ने से इनकार ही नहीं करता, किन्तु अगले पाँवों को उठाकर खड़ा हो जाता और अपना शरीर बुरी तरह झकझोर के सवार को नीचे गिरा देता है। तब सवार को अक्ल आती है। फलस्वरूप चाहे घोड़े को और कोड़े भले ही लगें। मगर सवार की हड्डियाँ तो चूर हो ही जाती हैं। हम भी अब यही करेंगे यदि हमें दिक किया गया। हम तो पहले खाएँ-पिएँगे। पीछे और कुछ करेंगे। एक आखिरी बात और भी इस सम्बन्ध में विचारणीय है। दुनिया में जीवन कायम रखने के लिए तीन पदार्थ सबसे जरूरी हैं और उनका भी क्रम है। वे हैं हवा, पानी और खाना। हवा बिना एक क्षण भी जिन्दा रहना गैर-मुमकिन है। इसलिए प्रकृति ने उसे सब जगह इफरात से बनाया है। बिना विशेष यत्न के ही वह सर्वत्र सुलभ है। सो भी जितनी चाहें उतनी। इस कदर सुलभ और ज्यादा है कि हम उसे यों ही गन्दा और खराब बनाते रहते हैं, बिना कारण के ही और प्रकृति को उसे शुद्ध बनाने के लिए न जाने कितने उपाय करने पड़ते हैं। मगर इतने से रंज हो के उसने हमारी जरूरत-भर हवा नहीं दी है और न जरूरत में कमी ही की है। जो जितना ही जरूरी है वह यदि उतना ही सुलभ और पर्याप्त हो, तभी काम चल सकता है। यही नियम इस बात से सिद्ध होता है। हवा के बाद स्थान है पानी का। यह हवा जितना जरूरी है नहीं। मगर भोजन से तो कहीं ज्यादा जरूरी है। पानी पीके कुछ दिन जिन्दा रह सकते हैं बिना खाये भी। इसीलिए पुराने लोगों ने पानी का नाम जीवन भी रखा है। यह पानी भी हवा जैसा सुलभ, सर्वत्र प्राप्य न होने पर भी जरूरत के लिए मिल ही जाता हैं। जहाँ ऊपर नहीं है वहाँ थोड़ी सी जमीन खोदने पर जितना चाहे पा सकते हैं। यों तो नदियाँ, तालाब, झरने और मेघ उसे पहुँचाते ही रहते हैं। सहारा के रेगिस्तान और बीकानेर के तालुकामय मरुस्थली में भी ऊँटों और जंगली लोगों के लिए प्रकृति ने ऐसा सुन्दर प्रबन्ध कर दिया है कि आश्चर्यचकित होना पड़ता है। जहाँ पानी का पता नहीं। मेघ भी शायद ही कभी भूल-चूक से थोड़ा कभी बरस जाए। दिन-रात लू चलती रहती है। वहीं पर जमीन के थोड़ा ही नीचे मनों वजन के तरबूजे (मतीरे) होते हैं जो बारह महीने पाए जाते हैं। उनमें खाना और पानी दोनों हैं। वह इतने मीठे होते हैं कि कहिए मत। उनकी खेती कोई नहीं करता जमीन के भीतर ही उनकी लताएँ फैलती और फलती हैं। वहाँ के निवासियों के लिए यह प्रकृति का खास (special-arrengement) है। तीसरा नम्बर भोजन का आता है। रोशनी, मकान, कपड़े आदि के बिना भी हम जिन्दा रह सकते हैं। मगर भोजन के बिना कितने दिन टिक सकते हैं। जैसे-तैसे मर-जी के कुछ ही दिन के बाद जीना असम्भव है यदि खाना न मिले। इसीलिए सहारा और राजपूताने में जहाँ पेड़ नहीं हैं, प्रकृति का खास इन्तजाम खाने-पीने के बारे में बताया है। यह भी तो देखिए कि जब किसान या दूसरा आदमी नन्हा-सा बच्चा था और माता के पेट से अभी-अभी बाहर आया था, तो उसके खाने-पीने का प्रबन्ध पहले से ही था। माता के स्तनों में इतना मीठा दूध बिना कोशिश के ही मौजूद था कि खाने और पीने दोनों ही, का काम करता था। पशुओं के लिए भी यही बात है। बच्चे कमा नहीं सकते और न हाथ-पाँव चला सकते हैं। इसलिए भगवान या प्रकृति ने खुद पहले से सुन्दर इन्तजाम कर दिया। जंगलों और पहाड़ों और सारी जमीन पर घास-पात और फल-फूल की, जड़ और मूल की इतनी बहुतायत है कि सभी पशु-पक्षी खा-पी सकते हैं। यहाँ तक कि किसान जब निरा बच्चा है तब तक वह अमृत जैसा माँ का दूध पीने को पाता है। मगर सयाना होने पर ? हाथ-पाँव चलाने और दिन-रात एड़ी-चोटी का पसीना एक करने पर? उसका पेट नहीं भरता और भूखों मरता है। क्या यह बात समझ में आने की है? लोग कहते हैं कबीर ने उलटी बातें बहुत कही हैं, जैसे 'नैया बीच नदिया डूबी जाए' मगर क्या यह नैया बीच नदिया का डूबना नहीं है? वर्तमान सामाजिक व्यवस्था ने अमन और कानून ने जो यह भूखों मरने की व्यवस्था कमाने वालों के लिए, किसानों के लिए, बना रखी है और जिसका समर्थन सारी शक्ति लगा कर किया जाता है, क्या वह प्रकृति को पसन्द है? प्रकृति ने तो हवा, पानी, दूध आदि प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत करके बता दिया है कि भोजन जैसी जरूरी चीज जरूरत-भर पाने का हर किसान को नैतिक अधिकार है, कुदरती हक है। मगर अभागा किसान समझे तब न?
(2) आदमी की जिन्दगी सीखें
लेकिन केवल इतने से काम पूरा नहीं हो जाता कि किसान खाना-पीना सीखें और अपना यह सर्वप्रथम अधिकार मानें कि पहले खाना-पीना, पीछे और कुछ। 'पहले आत्मा तो पीछे परमात्मा' यह बात तो उनमें प्रचलित जरूर है, खास इसी मानी में। मगर इसका ठीक-ठीक प्रयोग नहीं होता, वे लोग नहीं करते। अब ऐसा अक्षरश: करना सीखें, सो भी बिना विलम्ब से। बेशक उनके उद्धार की पहली सीढ़ी है। मगर उन्हें उससे भी आगे जाना होगा। खाते-पीते तो पशु-पक्षी भी हैं। खुद किसान भी अपने गाय-बैलों के खिलाने-पिलाने का प्रबन्ध करता है। यहाँ तक कि बहुत से परोपकारी और धार्मात्मा कहे जानेवाले लोग चींटियों की माँदों पर आटा या चीनी छिड़क देते हैं, ताकि वे खाएँ। मछलियों के लिए भी पानी में खाने की चीजें फेंक देते हैं। जब बकरा पालते हैं तो उसे खूब दाना और घास खिला के मोटा ताजा कर देते हैं ताकि काटकर खाने के समय खूब तृप्ति हो, मजा आए। देवी-देवताओं को भी खिलाने के नाम पर भोग लगाते हैं फिर खुद खा जाते हैं। सवारी और शिकार के भी जानवरों को खिलाया-पिलाया जाता है। इस प्रकार हाथी, घोड़े, कुत्तों मोटे ताजे होते हैं, बनाए जाते हैं। तो क्या किसान गाय-बैल है? बलिदान का बकरा है? सवारी का जानवर या शिकारी कुत्ता है? क्या चींटी और मछली है जो धर्मखाते खाता है? क्या देवी-देवता और भगवान है कि खिलाने और भोग लगाने के नाम पर घी, दूध, मलाई, हलवा, पूरी उसे दिखा के पुजारी कहे जाने वाले गैर लोग, जमींदार आदि, चट कर जाएँ और ठाकुरजी की तरह वह सपरिवार टुकुर-टुकुर देखता रह जाए। क्या उसे किसी जमींदार या सरकार की दया और साहूकार की कृपा से खाना-पीना है, कि अपने बाहुबल से, अपने गाढ़े पसीने की कमाई से? यह प्रश्न मामूली नहीं हैं जैसा कि ऊपर से देखने से प्रतीत होते हैं। ये तो मौलिक और बुनियादी हैं। अत: इनके ठीक-ठीक उत्तर पर ही किसानों का बहुत कुछ भविष्य निर्भर करता है। हमने व्यथित और फूटे दिल से, जीर्ण और विदीर्ण हृदय से, देखा और सुना है अनेक को, बड़े-बड़े किसान नेताओं को यह कहते हुए कि सरकार और जमींदार किसानों पर कृपा करें और लगान में कमी करें, उसकी माफी दें। क्योंकि किसानों को भूखों मरने की नौबत है। उससे तो साफ मालूम होता है कि किसानों को भूखों रख के भी उन्हें अपना 'कानूनी-पावना' वसूलने का हक है। इस बात को, उनके इस हक को, हम लोग, नेता लोग, इस प्रकार कबूल कर लेते हैं। इसीलिए तो उन्हें माफी देने के लिए प्रार्थना करते हैं। मगर क्या यह ठीक है? सही है? किसानों को यह बखूबी समझ लेना चाहिए यह बात अपने दिल और दिमाग में अच्छी तरह रख लेना चाहिए, कि वह मनुष्य हैं, आदमी हैं, इनसान हैं। इसीलिए उन्हें न सिर्फ जिन्दा रहने का हक है। किन्तु मनुष्य की जिन्दगी गुजारने का पूरा अधिकार है। आखिर यह कहने की हिम्मत तो कोई भी नहीं करता कि वे पशु हैं, हैवान हैं। आदमी तो उन्हें सभी मानते हैं, यहाँ तक कि उनके शत्रु और शोषक भी कबूल करते हैं। आखिर काश्तकारी कानून या दूसरे कानून जो उन पर लागू होते हैं, जो उन्हीं के लिए बने, ऐसा बताया जाता है, उन्हें पशु समझ के तो बने नहीं। पशुओं के लिए तो कोई कानून नहीं। पशुओं के मालिकों के लिए भले ही हैं। पशुओं को तो न चोरी की सजा होती है, न व्यभिचार की और न हत्या करने पर फाँसी की। उनसे किसी प्रकार का पावना भी तो सरकार, जमींदार या साहूकार वसूल नहीं कर पाते। मगर किसान के लिए तो ये सब बातें लागू हैं। तो क्या इन्हीं सब आफतों और तकलीफों को भोगने के ही लिए वह आदमी है या और चीजों के लिए भी? मनुष्य होने के नाते यदि ये बातें उस पर लागू होती हैं तो आखिर अच्छी बातें भी लागू होनी चाहिए। उसके कुछ अधिकार भी तो होने चाहिए। या कि वह सपने की कहानी होगी कि सोने के समय किसी ने स्वप्न देखा कि अशर्फियों से भरा एक बड़ा सा ताँबे का बर्तन कहीं गड़ा हुआ है और उसे वह खूब जोर से उखाड़ रहा है। उसने सोये-सोये बड़ा जोर लगाया तो पाखाना हो गया और नींद खुली तो देखता है कि जोर लगाने से उसे पाखाना तो ठीक हो ही गया है जो खाट पर पड़ा है। मगर अशर्फियाँ या उनसे भरा हंडा न तो उखड़ा ही है और न कहीं पास में गड़ा ही है। उसने उठ के बिस्तर साफ किया और अफसोस में कहा कि धत्तोरे सपने की। पाखाने के लिए तो सच्चा साबित हुआ, मगर अशर्फियों के लिए झूठा। लेकिन उसे कोई इनसान माने या न माने, आदमी समझे या न समझे। वह खुद तो अपने को आदमी समझे और माने। वह स्वयं तो अपने प्रति आदमी जैसा सलूक करे। पीछे तो गैरों को मजबूरन उसे ऐसा मानना और उसके प्रति ऐसा व्यवहार करना ही होगा। जब हम अपने लड़के का नाम खुद बखुद बसावन रखेंगे तो हमारे शत्रु भी उसे बसावन ही कहने को बाध्य होंगे। बसावन के बजाय उजारन हर्गिज कहने की हिम्मत न करेंगे। किसान अपने आपको इनसान माने और वैसा ही अमल करे। कहने की अपेक्षा करना ही ठीक है। रोज-रोज हम डंका बजाते फिरें, लेक्चर दें या दाँत निपोरें कि हमें आदमी मानो तो कोई सुनेगा भी नहीं। कहते हैं कि कमजोर की बेटी सभी की जोरू बन जाती है। बात सुन के लोग उपेक्षा से हँस देते और कह डालते हैं यह देखो, आदमी बनने चला है। मगर जब हम अपने कामों और तरीकों से उन्हें मजबूर करेंगे तो उनके लिए कोई चारा ही न रहेगा। सिंह न तो लेक्चर देता और न किसी को हाथ जोड़ता कि हमें सिंह कहो। वह तो अपने से सैकड़ों गुना वजनदार और पहाड़ जैसे ऊँचे हाथी पर बेखटके हमला करता है। यहाँ तक कि उसका चार दिन का बच्चा भी यही करता है। फलत: हाथी उसे देखते ही थर्रा उठता है। बस, इसी से लोग खामख्वाह सिंह कहते हैं। किसान तो न जाने युगों से अपने को आदमी समझना भूल गए हैं। वे अपने को इतना नाचीज तथा तुच्छ समझते हैं कि ताज्जुब होता है। हिम्मत नहीं, दबी जबान और झुका हुआ सिर। मालूम होता है, कभी के मरे हुए हैं। इस घृणित और पतनकारी मनोवृत्ति को तिलांजलि देनी होगी। उसे सदा के लिए निकाल फेंकना होगा। जो दुनिया को अमृत जैसे पदार्थ दे और सारा सामान मुहय्या करे वह छोटा क्यों? नीच और तुच्छ क्यों? जिसके हाथ में संसार का गला हो और जिसकी एक करवट में संसार में प्रलय मचे वही अपने को गया-गुजरा और गैरों का, समाज के कोटियों का, कृपा पात्र मानने में धन्य समझे, यह निराली बात है। असल में मानसिक पतन ही भौतिक अधोगति का मूल कारण है और किसान के दिमाग में ही घुन लग गया है। इसे ही अंग्रेजी में अपने में छोटेपन की भावना (inferiority complex) कहते हैं। यह बहुत बुरा मर्ज है। जितना जल्द इससे किसान का पिण्ड छूटे उतना ही अच्छा। इसी तुच्छत्व की भावना ने 'हम तो हुजूर की जूती हैं,' की भ्रान्त धारणा ने जमींदारों और उनके मामूली अमलों तक में यह हिम्मत ला दी है कि मनमाने अत्याचार करे। आखिर बकरी का ही गला काटने सभी दौड़ते हैं। बाघ पर तो किसी की हिम्मत नहीं होती। चाहे हम कुछ कहें, लेकिन किसान जब तक झटकार के उठ खड़ा न होगा और कड़क के मनुष्य की तरह भोजन, वस्त्र, औषधि, मकान, पढ़ने-लिखने और सुन्दर सलूक का दावा ठोंक न देगा, तब तक वह यों ही कराहता रहेगा। केवल दावा ही नहीं, किन्तु ललकार करने की जरूरत है। साफ-साफ यह कह देने की जरूरत है कि वह दिन लद गए जब हमें पशुवत समझ वैसा ही व्यवहार हमारे साथ किया जाता था। अब ऐसी हिम्मत करने वालों को लेने के देने पड़ेंगे और परिणाम सूद सहित भोगना पड़ेगा। और जहाँ तक कपड़े-लत्ते, मकान, दवादारू आदि का सवाल है उसे खुद ही हल कर लेना होगा। क्योंकि कमाता तो आखिर वही है। उसी की कमाई से बाकी लोग 'अन्य के धन पर लक्ष्मीनारायण' बनते हैं। फिर वही उसका मुँह इस मामले में क्यों ताके। हाँ, केवल इतना ही कह दे कि लूटने और छीनने की पहली आदत अब छोड़नी होगी, यदि भला चाहते हैं। लेकिन जो सलूक गैरों की ओर से होता है उसके बारे में तो साफ-साफ कह ही देना होगा। जो लोग गाली-गलौज और मारपीट के अभ्यस्त हैं और जिनके हाथ और जबान में कोई लगाम या बन्धन नहीं है उन्हें बेलगाम सुना देना होगा कि खबरदार। अब रास्ते पर आइए। नहीं तो याद रहे हमारी जबान गिर नहीं गई है और न हमारे हाथ-पाँव ही गल गए, या आपसे कमजोर हैं। कहीं ऐसा न हो कि आपको अस्पताल जाने और डॉक्टर वैद्य बुलाने की जरूरत हो जाए। लाठियाँ हैं और कहीं अगर वे उठ गईं तो बला होगी। जरा सोचिए तो सही। आखिर ये मालदार, जमींदार और कानून के ठेकेदार किसानों को पशु नहीं समझते तो और क्या मानते हैं? बैल से ही किसान खेती करता और गेहूँ, बासमती, चना वगैरह सुन्दर खाद्य पदार्थ पैदा करता है। घी, दूध, खोआ, मलाई भी गाय-भैंसों से वही पैदा करता है। मगर क्या उन्हें गेहूँ, बासमती, घी, दूध खिलाता है? यह बात तो भूलकर भी नहीं सोचता। यह तो सनातन धर्म नहीं है। सनातन बात तो यह है कि उन्हें पुआल, भूसा और घास खिलाए, ऐसी चीजें जो किसान के किसी काम की नहीं। वह पुआल या भूसा खाता थोड़े ही है। यहाँ तक कि जलाने में भी वह ज्यादा काम का नहीं। उसकी आग रद्दी और फौरन बुझने वाली होती है। पुआल का और खासकर भूसे का धुऑं, तो इतना कड़वा होता है कि बर्दाश्त भी नहीं होता। इसलिए जैसा 'उड़ा हुआ सत्तू पितरों को' ठीक इसी प्रकार ये चीजें अपने पशुओं के लिए रख छोड़ता है और उन्हें खिलाता है। और जमींदार या धनी ऐसे मामले में उसके साथ कैसे पेश आते हैं? ठीक उसी तरह। किसानों को वे लोग भी अपने पशु समझते हैं। फलत: अपने लिए जिस चीज को घास-भूसे से भी बदतर या रद्दी समझते हैं उसे ही किसान के लिए छोड़ शेष पैदावार को अपने लिए ले लेना चाहते हैं, ले लेते हैं। खेसारी, सावाँ, मंडुआ, कुर्थी, साठी वगैरह अन्न ऐसे हैं जिन्हें जमींदार छू नहीं सकते? उन्हें देखकर भी वे बीमार हो जाएँ। उनके कुत्तों तक भी जिन्हें सूँघते नहीं। फलत: उनके लिए ये बेकार और घास-भूसे जैसी ही हैं। यही किसानों के हिस्से में रहती है। कभी-कभी तो इन पर भी हमला हो जाता है यदि अच्छे गल्ले न मिलें। जिस प्रकार किसान पशुओं के हिस्से के पुआल, भूसे और घास को बेच भी देता है और पैसा न लेता है। पीछे तो पशुओं को चरने के लिए हाँक देता है। जमींदार भी खेसारी आदि को बेच के पैसा बना डालते और किसान को बिना मारे भूखों मरने को छोड़ देते हैं। यह आये दिन का व्यवहार है और दुनिया को इसमें कोई विचित्रता नहीं मालूम होती? लेकिन क्या यह बर्दाश्त के काबिल है? अगर सरकार और जमींदार वगरैह इन किसानों को पालतू पशु भी समझते तो भी एक बात थी। मगर वे तो उन्हें जंगली जानवर समझते हैं। हालाँकि यह भी कहना उतना सही नहीं है। आखिर जंगली जानवरों की भी तो फिक्र इसलिए की जाती है कि कहीं फसल को खा न जाएँ, या उसका नुकसान न कर दें। मगर ये लोग तो किसानों की कतई फिक्र नहीं करते। धोबी गधों को पालता है तो गो उसे घास-भूसा नहीं देता, फिर उसे ढूँढ़-ढाँढ़ कर लाता है और झोंपड़े में ही सही, उसे खूँटे में बॉंधता तो है। उसके लिए कम से कम एक झोंपड़े, रस्सी और खूँटे का प्रबन्ध तो करता है। इतना ही नहीं बीमार हो जाए तो उस गधो की दवा भी करता है। क्योंकि मर जाने पर उसका काम बिगड़ेगा और दूसरे गधों के लिए खर्च करना होगा। यही बात किसान भी अपने पशु के लिए करता है। खुद भले ही न खाए। मगर उसे खिलाने और हट्टा-कट्टा रखने की कोशिश तो करता ही है। परन्तु किसान तो ऐसा पशु या गधा है कि उसके धोबी को न तो इसके लिए झोंपड़े, खूँटे और रस्सी की ही फिक्र है और न बीमार होने पर दवा की ही। उसे तो उलटे इस बात से खुशी होगी कि यदि किसान और उसका सारा परिवार मर जाए तो उसका खेत उसके जमींदार, साहूकार आदि को अनायास ही मिल जाएगा। फिर तो उसी खेत का बन्दोबस्त दूसरों के हाथ करके भरपूर नजराना और सलामी लेगा। काफी लगान भी वसूल करेगा। पुश्त दर पुश्त से ये लोग किसान की कमाई पर ही गुलछर्रे उड़ाते हैं। मगर भूलकर भी कभी उससे नहीं पूछते कि खाना, कपड़ा, दवा या मकान है या नहीं। अतएव जब तक मजबूर न किए जाएँ वे कभी वैसा न करेंगे और उन्हें मजबूर कर सकता है किसान ही। जमींदार न सिर्फ अपनी चिन्ता और अपने परिवार के लिए गेहूँ तथा मलाई की फिक्र करता, महल और मखमल चाहता और फर्स्ट क्लास में चलने का प्रबन्ध करता, किन्तु अपने कुत्तों और पालतू जानवरों के लिए भी। वे भी घी मलाई खाते, मखमली गद्दे पर बैठते और फर्स्ट क्लास में चलते हैं। जिस मोटर पर जमींदार या मालदार चलते हैं उसी पर उनका कुत्ता भी चलता है। उनकी गोद में बैठता है। मगर किसान को गोद में बैठना तो दूर रहे, वह उनकी मोटर के पास फटकने तक नहीं पाता। फिर ठेठ धनियों के पास पहुँचने की क्या बात? हमने एक बार देखा कि महाराजा नेपाल के कोई बड़े अफसर मुजफ्फरपुर में रेल के फर्स्ट क्लास में बैठे हैं। उनके दो बड़े कुत्ते भी वहीं हैं। उनके सामने सुनहले कटोरे में पिसा पिसाया बादाम और दूध पड़ा है। मगर वे उसे छूकर-सूँघकर छोड़ देते हैं। सरकार जब अपना लेखा और बजट बनाती है तो जेल में रहने वाले डाकुओं और बदमाशों के लिए भी खाना, कपड़ा, मकान और दवा का प्रबन्ध करती है और उसके लिए पैसे रखती है। मगर एक से एक सुन्दर पदार्थ पैदा करके उन्हें और दूसरों को खिलाने वालों का पुर्साहाल कोई नहीं। सचमुच ही दुनिया दीवानी है। किसान अच्छे पदार्थों को पैदा करके अपने और अपने बाल-बच्चों का मुँह बाँध लेता है। उनका एक टुकड़ा भी मुँह में जाने नहीं देता। सिर पर लाद के धनियों के घर तक पहुँचा आता है। ऐसा गधा और नालायक तो वह है। गाय के बच्चों को बिना पिलाए आप चाहें कि उसका दूध दुह लें, तो असम्भव है। पीछे भी कुछ न कुछ दूध रह ही जाता है जो बच्चा पीता है। जो लोग फूका या प्रकारान्तर से यों ही दुह लेना चाहते हैं वह गाय-भैंसों से सदा के लिए हाथ भी धो बैठते हैं। मगर किसान ऐसी गाय है कि इसका सारा दूध, सारा गेहूँ, घी, दूध, दुहा चला जाता है और इसके बच्चे देख भी नहीं सकते। खूबी तो यह है कि यह ऐसा फूका है कि यह गौ कभी खराब भी नहीं होती। यह तो वंश परम्परा से बराबर यों ही दुही जा रही है। इसका दूसरा उपाय है नहीं, सिवाय इस प्रकार दुहे जाने से साफ इनकार करने के। जिस बात को पशु भी स्वीकार नहीं कर सकते उसे हम इनसान होके स्वीकार करें, इससे तो डूब मरना अच्छा है। जो गाय-भैंस बहुत सीधी होती और जब भी मर्जी हो दुही जा सकती है, उसके बच्चे दूध नहीं पाते और भूखों मरते हैं। दुहने वाले चाहते हैं कि उसका रत्ती-रत्ती दूध निकाल लें। मगर जो पाँव और सींग चलाने वाली होती है और कूद-फाँद करती है, न सिर्फ उसके बच्चे दूध पीते हैं, किन्तु उसे दुहने के समय का संकट भी कम ही भोगना पड़ता है। एक तो दुहने वाले बहुत सजग होके ही उसके पास जाते हैं, दूसरे बहुत चुचकार-पुचकार के जैसे-तैसे थोड़ा दुह-दाह के चटपट हट जाते हैं। क्योंकि देर करने में उछाल मारने, इससे दुहे दूध के भी गिर जाने और चोट खाने का भी खतरा रहता है। क्या सीधी गाय-भैंसों को भी कोई चुचकारता है? यही दुनिया का तरीका है। जब तक किसान सीधा बना रहेगा और सींग-पाँव चलाना न सीखेगा इसका दोहन रुक नहीं सकता। दोहन से साफ इनकार करने के सिवाय और कोई उपाय है नहीं । गाय को सभी दुह लेते हैं, दुहना चाहते हैं, मगर कुतिया-बिल्ली या चुहिया को नहीं, क्यों? इसलिए न कि वह दुहने वाले को फौरन काट लेंगी? यदि उनमें यह बात न होती तो उनका भी पिण्ड गाय की ही तरह नहीं छूटता। यह याद रहे। यदि हम खुद सत्तू खाएँ, खेसारी और मंडुआ खाएँ, तो हमें मलाई खिलाने की गर्ज किसे होगी? जब पशु घास खाने से इनकार करता है तो हजार कोशिश करके उसे अन्न, गुड़ आदि की मदद से खिलाया जाता है। मगर किसान ऐसा न करके जोई पाए उसे ही खा-पी लेता है। फिर कौन नादान उसे अच्छी चीजें देगा? जब चिथड़ा पहनना ही पसन्द है, तो मखमल क्यों मिलेगा? जब फूस की झोंपड़ी ही से सन्तोष है तो महल को क्या गर्ज पड़ी है कि किसान के पास आए? जब 'लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर' ही बनने की मर्जी है, तो फिर उसे पढ़ाने-लिखाने की चिन्ता नाहक कोई क्यों करेगा? अगर बीमारी की दशा में भी कराहते रहने ही की आदत है और ओझा-सोखा या खाक-भभूत से ही सब्र है तो डॉक्टर-वैद्य को क्या कुत्ता काटे है कि उसके पास आएगा? जब लड़का रोता है तो लाख काम छोड़ के माँ उसे पिलाती है। नहीं तो उसे यों ही छोड़ के काम करती रहती है। जब गाय का बच्चा चिल्लाता है तो लोग समझते हैं कि गाय दुह लीजिए, बच्चा भूखा है। जब किसान ही अपनी जरूरी चीजों के लिए पुकार मचाएगा, चिल्लाएगा तभी दुनिया फिक्रमन्द होगी और उसे वे चीजें मिल के रहेंगी। पेट में दर्द हो सही। मगर चुपचाप पड़े रहिए तो आपका परम प्रेमी भी दवा न करेगा। मगर यदि एक अजनबी भी कहीं दूर से आह भरे तो खामख्वाह लोग उसके पास पहुँचते और उसके लिए कुछ न कुछ करते ही हैं। किसान खुद अपने दु:ख-दर्द की पुकार नहीं मचाता है। इसीलिए उसे चूसनेवाले निश्चिन्त हैं। यदि वह एक बार सँभल के चिल्लाए तो उनके पेट में ऊँट कूदेगा। इसीलिए किसान का यह फर्ज है कि मनुष्योचित अधिकारों के अनुसार आदमी की जिन्दगी गुजारने के लिए जितनी चीजें जरूरी हैं उनके लिए दावेदार बने। मगर जरा जम के और मुस्तैदी से। दबी जबान से आवाज उठाने से काम नहीं चलेगा। अपमान सूचक कामों और व्यवहारों के सामने सिर झुकाने से वह साफ इनकार कर दे। अच्छा खाना खाने के लिए कमर बॉंध ले। सुन्दर कपड़ा पर्याप्त परिमाण में पहनने का संकल्प कर ले। अच्छे मकान में रहने का पक्का इरादा कर ले। कीड़े-मकोड़े की तरह मरने से साफ नहीं कर दे और स्वास्थ्य के सामान तथा औषधी के लिए फिक्र करे। पढ़ने-पढ़ाने और मनोविनोद के पूरे सामान मिलें इसका दावा ठोंक दे। इस प्रकार उसके पूर्ण विकास तथा सम्मानपूर्वक जीवनयापन का पूरा अवसर जरूर चाहिए। इसका निश्चय कर ले। साथ ही, यह अवसर अविलम्ब मिले यह दावा करे और उससे हरगिज न डिगे।
(3) हिसाब करें और हिसाब माँगें
अच्छा माना कि किसानों ने यह तय कर लिया कि वे खाएँगे-पिएँगे और मनुष्य की जिन्दगी गुजारेंगे। लेकिन इससे क्या? क्या चाहने और तय कर लेने मात्र से ही सारा सामान और सभी उपयोगी पदार्थ उन्हें मिल जाएँगे? छोटे-छोटे बच्चे मिट्टी का घरौंदा बनाते और उसमें बैठकर मनोराज्य के लड्डू खाते हैं। इनके निश्चय में कोई त्रुटि नहीं और उनकी तैयारी में भी कोई नुक्स नहीं होता। मगर इससे असली स्थिति बदल थोड़े ही जाती है। जब किसानों के पास चीजें हैं ही नहीं, तो लाख यत्न करें, गरजे, पुकारें, संकल्प करें। मगर कुछ होने जाने का नहीं। यह ठीक है कि अपमानपूर्ण परिस्थिति में जिन्दगी बिताने के लिए जो कारनामे औरों के द्वारा होते हैं वह उनके इस जागरण और अध्यवसाय से मिट जाएँगे जरूर। मिट गए हैं भी, बहुत अंशों में। किसी बड़े से बड़े की भी अब हिम्मत आसानी से नहीं होगी कि उन्हें मारें-पीटें या गालियाँ दें। जुर्माने और गैरकानूनी वसूलियाँ भी जरूर खत्म हो जाएँगी। उनसे हरी लेने और बेगार करवाने का खयाल भी जमींदारों तथा औरों के दिमाग से जाता रहेगा। साधारणतया जो उनके प्रति छोटेपन की धारणा कुछ लोगों में पाई जाती है वह भी खत्म हो जाएगी। वे मुर्गी और बकरी की तरह आसानी से जिबह किए जाने योग्य जो अब तक माने जाते रहे हैं वह बात भी नहीं रहेगी। मगर इतने से ही तो काम चलने का नहीं। यह तो एक प्रकार से नकारात्मक या निषेधात्मक (Negative) पक्ष हुआ। विधानात्मक (Positive) पक्ष ही तो असल चीज है। वह इससे कैसे पूरा हो जाएगा? जीवन को सुखमय और समुन्नत बनाने की सामग्री तो बहुत है। वह कुछ थोड़ी बहुत है नहीं कि मामूली उछल-कूद या कोशिश से हासिल हो जाए। आखिर 'बिलाई बाघ थोड़े ही जनेगी'। ऐसी दशा में तो अब तक की बताई सारी बातें 'मनमोदक नहिं भूख बुताई' को ही चरितार्थ करेंगी। जब तक असली कठिनाई का समाधान नहीं हो जाता इस कोरी शेखचिल्ली की गप्प से कुछ होने जाने का नहीं। बात तो ऊपर से देखने से सही मालूम पड़ती है। यही दशा आज है इसे कौन इनकार करेगा? आज का किसान तो सचमुच फटाहाल अपने करम को कोसता है। मगर इसे ही तो मिटाना है। और यह मिटाने की बात जितनी कठिन मालूम होती है, असल में उतनी है नहीं। इसीलिए सभी दिक्कतें अधिक अंशों में ऊपरी और दिखावटी ही हैं। बात असल यह है कि न तो हमने, ऐसे सवाल उठानेवालों ने, और न किसानों ने ही इस समस्या का विचार भीतर से किया है। इसीलिए मुश्किल का पहाड़ सहसा सामने खड़ा नजर आता है जिसे पार करना आसान नहीं। कुछ महज खयाली बातें हैं जिनके करते सारी बला आई है। वह महज खयाली है और खयाल के बदलते ही सारा नक्शा ही पलट जाएगा। जैसे सोनेवाले को सपने में उसका सिर कटता नजर आता है, या उसको पीछे कोई खूँखार जानवर आता दीखता है और उससे बचने के लिए वह बेतहाशा दौड़ता-हाँफता है। मगर नींद खुलते ही यह सारी आफत लापता हो जाती है। ठीक वही हालत किसान की है। अच्छा तो आइए जरा तह में घुसें और देखें कि बात असल में है क्या? यह तो निख्रववाद है कि कानून के ठेकेदारों, जमींदारों व साहूकारों के घर वह चीजें पैदा नहीं होती हैं जो मानवीय जीवन के लिए जरूरी हैं। वह तो किसान के ही खेत और खलिहान में, घर में, पैदा होती हैं। उन्हें पैदा करने की ताकत भी उसी में है। अमीर और शासन की ऐंठवाले उन्हें पैदा कर नहीं सकते। इतना ही नहीं, वह तो इतना भी बल नहीं रखते कि उठाकर किसान के घर से वह चीजें अपने यहाँ ले जाएँ। यह तो उसी किसान का काम है कि सिर पर लाद के उनके घर, गेहूँ, चावल, दूध, घी आदि पहुँचा देता है। यह ऐसा जादू है, यह ऐसा मेस्मैरिज्म है, कि हैरत में आ जाना पड़ता है। लोग कहते हैं कि वह जादू क्या जो सिर पर चढ़के न बोले? मगर यहाँ तो प्रत्यक्ष ही सिर पर चढ़ा जादू है। कमाते-कमाते पस्त है, भूखा है, बीमार है, कमजोर है, फिर भी सभी चीजें मालदारों के यहाँ पहुँचाने में परेशान है। तो क्या यह जादू उसके सिर से उतर नहीं सकता? यही तो असली सवाल है। हम तो मानते हैं कि उतर सकता है और बहुत आसानी से उतर सकता है। रूस के मजदूरों तथा किसानों पर तो इससे भी बड़ा जादू सवार था। वह तो अपने शोषकों के सरदार जार बादशाह को छोटे भगवान (Little god) मानते थे। वह पस्त इतने थे कि न तो उनमें किसानों का लाल झण्डा उठाने की हिम्मत थी, न स्वतन्त्र सभा करके उस भयंकर शोषण का विरोध करने की जुर्रत थी और न किसानों के असली नेताओं के साथ चलने की शक्ति ही थी। वे तो सिवाय हाथ जोड़ने और दाँत निपोरने के, आरजू मिन्नत करने के और कुछ जानते भी न थे। जिस प्रकार यहाँ पहले कभी-कभी देखते और सुनते थे कि जमींदार जूते से किसानों को पिटवा रहा है और जल्लाद का दबदबा बना है। फिर भी किसान कहता जाता है 'दोहाई सरकार के आप तो माँ-बाप हैं, आपका जूता सिर पर है, क्षमा करें' आदि-आदि। ठीक वही दशा उनकी थी। वह खूजीजार और उसके मुसाहबों की, संगी-साथियों की जय-जयकार के सिवाय दूसरा कुछ भी बोलना जानते ही न थे। इसीलिए तो जब कष्टों के ऊब कर फरियाद भी करनी हुई तो अपने पुरोहित नेता श्री पादरी गेपन, जिसे खुफिया पुलिस से सम्बद्ध भी बताया जाता है, के साथ जार का ही झण्डा लेकर और उसी की जय पुकारते हुए सन् 1905 ई. की 22 वीं जनवरी रविवार को महाराज के निवास स्थान, विण्टर पैलेस के पास गए। फिर भी परिणाम उलटा ही हुआ और गोलियों की वर्षा से जार ने उन्हें वहीं कई हजार की तादाद में, स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी को सुला दिया। सचमुच खून की धारा बह निकली। फलत: उसी दिन से 22 वीं जनवरी का रविवार वहाँ के इतिहास में 'खूनी रविवार' (Red Sunday) पुकारा जाने लगा। रोटी और कपड़ा माँगने गए थे। मगर मिलीं गोलियाँ। फिर भी बारह वर्ष बीतते न बीतते 1917 ई. की फरवरी के अन्त के साथ न सिर्फ उस खूनी जारशाही का खात्मा हुआ। किन्तु उसके आधार और दोस्त मालदारों, जमींदारों और अत्याचारियों की भी अन्तिम घड़ियाँ आ गईं। बारह वर्ष का दिन कोई लम्बी मियाद किसी भी देश के इतिहास में नहीं मानी जाती। मगर इसी के बीच हालत यह हो गई कि वहाँ किसान-मजदूर राज्य कायम होने का पूरा सामान तैयार हो गया। सन् 1917 के बीतने के पहले ही सचमुच किसान-मजदूर राज्य कायम भी हो गया। क्या हमारे मुल्क में भी वही बात नहीं हो सकती है? यदि उनके सिर से वह भीषण जादू छोटी सी मुद्दत में ही सोलहों आने उतर सकता है और वही मजदूर और किसान 'छोटे भगवान' की प्रार्थना के बजाय उनके खून के प्यासे बन सकते हैं तो क्या हमारे किसानों का जादू बना ही रहेगा? ये किसान तो आज रूसी किसानों से हर बात में कहीं आगे हैं। शायद इनमें कमी एक ही चीज की है और वह है वैसा ऊँचे दर्जे का नेतृत्व, ऐसे नेताओं की कमी जो उन्हीं के लिए दिन-रात मरते-जीते हों। मगर यह तो पूरी हो सकती है और होगी यदि किसानों को जिन्दा रहना है, यदि उन्हें आदमी की जिन्दगी गुजारनी है। बात असल यह है कि किसान सभी पदार्थ पैदा करता है सही। लेकिन न तो स्वयं उसका हिसाब करता है और न औरों से माँगता ही है। नतीजा यह होता है कि अमानत में खयानत हो जाती है। जब खुद हिसाब न करेगा और पता लगाएगा कि कौन सी चीज कितनी और किस काम की कहाँ जा रही है, तो फिर औरों से उसका हिसाब माँगेगा कैसे? हिसाब लगाने पर ही उसे पता चलेगा कि किसकी कितनी कीमत है। क्योंकि तभी जान सकेगा कि उसके पैदा करने में कितनी मेहनत लगी है, कितना खून पानी बना है। फिर तो हिसाब माँगने को मजबूर होगा। आखिर कीमती चीजें यों ही किसी को कोई देता है क्या? रूस के और अन्य देशों के किसानों की भी तो पहले यही हालत थी। जैसे यहाँ का किसान अपने को मशीन की तरह पदार्थों के उत्पादन का साधन मात्र मानता है। उसका हिसाब करने की न तो अपने आप में योग्यता मानता है और न जरूरत ही समझता है। असल में वह तो स्वार्थियों के द्वारा तरह-तरह के उपायों से मशीन बनाया गया है। ठीक यही दशा गैर-मुल्कों के किसानों की भी थी। जब भूख से तड़पते फ्रांस के किसानों ने शासकों और शोषकों से रोटियाँ माँगीं, तो उत्तर मिला घास चर लो। अधिकारारूढ़ मतवाले समझते थे कि यह तो मशीन है। स्वयं कुछ कर सकते नहीं। इसी से खून में आग लगाने वाला वैसा दर्पपूर्ण तथा घृणासूचक उत्तर दिया। मगर जिस प्रकार उस अन्धे उत्तर ने तथा जार की गोलियों ने मजदूरों एवं किसानों को बदल दिया और उनके दिलों में युगान्तर ला दिया, क्रान्ति ला दी। फलत: वे उनसे हिसाब माँगने लगे जिसके फलस्वरूप बाहरी क्रान्ति हुई। जिससे जालिम खत्म हुए। ठीक वही बात यहाँ क्यों नहीं होगी? यहाँ भी मशीन बने ये किसान भी क्यों न जाग्रत होके हिसाब माँगेंगे। उन्हें माँगना ही होगा। इस नारकीय जीवन से त्राण पाने का दूसरा रास्ता भी नहीं। संसार का इतिहास एक ही रास्ता इसके लिए बताता है और वह यह है कि कमाने वाले हिसाब करें और हिसाब माँगें। जब सरकार का लेखा (बजट) तैयार होता है तो बड़ी दौड़-धूप और उछल-कूद होती है। अच्छे से अच्छे दिमाग खर्च होते हैं, ताकि आमद और खर्च की पूर्ति हो। चाहे नए टैक्स लगें या पुराने ही बढ़ाएँ जाएँ, या और ही कोई उपाय सोचा जाए। मगर आमदनी पूरी हो ताकि पहले से ही बँधे बँधाए खर्च चल सकें। आमतौर पर ऐसा कभी नहीं होता कि आमदनी के ही अनुसार खर्च की मदें और उनकी मात्रा ठीक की जाती है। किन्तु खर्च की सारी बातें पहले तय कर ली जाती हैं। कहाँ कितना खर्च होगा यह पक्का कर लिया जाता है। उसके बाद आमदनी की फिक्र होती है और मौजूदा आय खर्च का काम नहीं चला सके तो उनके नए रास्ते ढूँढ़ निकाले जाते हैं। यही बात धनियों और जमींदारों के यहाँ भी होती है। उनके कुत्तों, खरगोश, चूहे, पालतू बाघ, हाथी, घोड़े और रण्डी, वेश्या तक के खर्च तय होते हैं। फिर उनकी पूर्ति की फिक्र की जाती है। मगर किसान की तो उलटी हालत है। वह तो आमदनी के ही अनुसार खर्च ठीक करता है। इसीलिए उसे अपना पेट काटने की नौबत आती है और चिथड़े लपेटने तथा बीमारियों में कीड़े-मकोड़े की तरह मरने की भी। हिसाब न रखने और बजट न बनाने से यही होता ही है। कहा जाता है कि जरूरत आविष्कारों की जननी है। इसका तो साफ अर्थ है कि जब हमने अपनी जरूरतों को निश्चय कर लिया तो उनकी पूर्ति का रास्ता तो खामख्वाह निकल ही आएगा। एक बात और भी है। सरकार अपना बजट पूरा करती है खामख्वाह। हालाँकि उसमें व्यय की कितनी ही ऐसी बातें रहती हैं जो उतनी जरूरी हैं नहीं जितनी कि किसान के द्वारा तैयार किए गए बजट की। उसमें तो जिन्दगी के लिए, अनिवार्य चीजें कपड़ा-लत्ता, खाना, दवा, मकान, पढ़ना-लिखना और आकस्मिक घटनाओं का प्रतिकार आदि ही मदें होती हैं। अब यदि किसी से भी पूछा जाए कि उनमें कौन सी मद हटाई जाए या किसमें कमी की जाए, तो क्या उत्तर देगा? क्या यही कहेगा कि जहाँ कुनाइन की चार गोलियाँ चाहिए, वहाँ दो ही रहें? तब तो उसके मानी कुछ भी नहीं। यदि आधा सेर की जगह पाव भर खाने की बात कहे तो यह कैसी होगी? रोज-रोज के भोजन का सवाल है न? वह घटेगा तो किसान परिवार मर ही जाएगा। धोती कपड़े या मकान में कमी करना भी असम्भव है। पढ़ने-लिखने का भी वही हाल है। आकस्मिक विपत्तियों के बारे में तो कुछ कह ही नहीं सकते। तो फिर कमी कहाँ होगी और किस मुँह से वही नेता कमी की बातें करेंगे जो अपनी बजट में वाहियात खर्च की गुंजाइश रखते हैं? जिनके कुत्तों, बिल्लियों के लिए भी दूध, घी का प्रबन्ध है? किसान की आय और उसके व्यय का पक्का हिसाब न रहने के कारण ही हजार अटकल लगाए जाते हैं और उनके रक्त से मोटे बनने वाले लोग बेहूदी दलीलें पेश करते हैं कि किसान की यह आमदनी है। उसके पास बहुत पैसे हैं। उसका परिवार यों आराम करता है क्यों करता है। वह खूब धनी और सुखिया है, आदि-आदि। इसीलिए उस पर यह इलजाम भी अकसर लगाया जाता है कि जानबूझकर कर और लगान या महाजन का पावना देना नहीं चाहता है। उसे कुछ बिगड़े दिमागवालों ने बहका दिया है। ये अटकलबाजियाँ और यह खयाली उड़ान तब तक रुक सकती है नहीं; ये बिना सिर-पैर वाले और बेबुनियाद आरोप और चार्ज तब तक बन्द होने के नहीं, जब तक किसान की असली माली हालत का आय-व्यय का कच्चा चिट्ठा सबके सामने रख नहीं दिया जाता। जवानी लड़ने और कठहुज्जत करने से काम नहीं चलेगा। हमें तो पहाड़ की चट्टान जैसी वास्तविक हकीकत को आईने में दिखा देना चाहिए। किसान सभा भी इस चिट्ठा और लेखा (बजट) के अभाव में केवल अटकलपच्चू बातें ही कर सकती है। फलत: उसका असर नहीं हो सकता है। किसान का बजट विस्तृत रूप में देखें तो दुनिया का माथा घूमने लगे और युगान्तर हो जाए। फिर तो सारी बतकही बन्द हो जाए। जो लोग दलील करने की हिम्मत करें कि गेहूँ की जगह जौ और खेसारी से भी तो किसान का काम चल सकता है और घी, दूध न भी हो तो कोई हर्ज नहीं, उनका तो मुँहतोड़ उत्तर उनकी बेहयाई को रोकने के लिए यही है कि यदि किसान जौ और खेसारी खा के जिन्दा रह सकता है तो राजे-महाराजों और साहूकारों के कुत्तों क्या उसे नहीं खा सकते। क्या वे बिना गेहूँ, बासमती और घी, मलाई के जिन्दा नहीं रह सकते? यदि नहीं, तो क्या किसान उन कुत्तों से भी गया गुजरा है? यदि हाँ, कहने की धृष्टता वे लोग करें तो उन्हें पागलखाने में भेजने का उपाय करना होगा। यह भी तो है कि यदि उनके कुत्ते और घोड़े आदि नहीं ही जिन्दा रहें या नहीं ही खाएँ तो हर्ज क्या होगा, न तो उन्हें हल ही खींचना है और न दूध-घी पैदा करना है जिससे दुनिया का काम चलता है और खामख्वाह उन्हें रहना ही है तो किसान के मत्थे क्यों रहें? क्या वे कुत्ते वगैरह किसान के खुदाया पूर्वज हैं? या कि उसने उनका कर्ज खाया है कि उन्हें घी, मलाई खिला के उस कर्ज का चुकता करे? सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब बच्चे पैदा होते हैं तो उनमें कोई विशेषता नहीं होती कि जमींदार के बच्चे घी, मलाई खाएँ और किसान के बच्चे सत्तू चाटें। वे तो समान ही होते हैं जो ही खिलाया जाए वही खा सकते हैं। मगर होता यह है कि किसान तो जन्म के बाद से ही केवल सत्तू वगैरह या सूखी रोटी भात ही पाता है। फलत: उसे ही खाने की आदत उसे हो जाती है। विपरीत इसके धनी लोग बचपन से ही हलवा, मलाई उड़ाते रहते हैं। इसीलिए उनका स्वभाव वैसा हो जाता है और उसके बिना उनका काम नहीं चलता ऐसा माना जाता है। जब यही बात है तो किसान को भी बचपन से ही क्यों न वही आदत डाली जाए, जिससे घी-हलवे के बिना उनका भी काम न चले? जब वह अच्छे पदार्थ खाने लगेगा तो खामख्वाह उसे उसकी जरूरत महसूस होगी और दुनिया भी कहेगी कि इसे तो यही पदार्थ मिलने चाहिए। वह खुद हजार कोशिश करेगा कि वही चीजें उसे प्राप्त हों। इसीलिए तो खाना-पीना सीखने की बात शुरू ही में कही गई है। इसीलिए भी वह जब अपने आय व्यय का स्वाभाविक चिट्ठा तैयार करेगा तो दुनिया को मजबूरन उसकी जरूरतों के सामने सिर झुकाना ही होगा। कहने वाले कहने की हिम्मत फिर भी कर सकते हैं कि किसान की गुजर तो दूध मलाई के बिना भी हो सकती है। वह तो मट्ठे तथा सत्तू से भी जिन्दा रह सकता है। इसी प्रकार और पदार्थों की भी उतनी जरूरत उसे नहीं है। किसान की संख्या भी बहुत है। फलत: यदि दुबले या कमजोर होके, बीमार और रोगी होके उनमें कुछ मरते भी हैं तो काम नहीं रुकता। मगर श्रीमान और राजेबाबू तो हलवा और पूड़ी के बिना मर ही जाएँगे। यदि उन्हें प्रतिदिन दूध-घी न मिले तो रोगी और आसक्त होके चल बसेंगे। यह भी नहीं कि वे अधिक हैं। वे तो केवल मुट्ठी-भर हैं। इसीलिए उनकी और किसानों की मौत बराबर नहीं है। इसलिए उनकी जरूरतों की फिक्र पहले की जाती है, पहले की जानी चाहिए और उसी के बाद किसान की खबर ली जानी चाहिए, न कि पहले ही। हाँ, यदि उन्हें खामख्वाह मार ही डालना हो तो बात ही दूसरी है। मगर तब तो यही बात साफ-साफ कह देना चाहिए। यों डूबके पानी पीना ठीक नहीं है। बात तो सुनने में अच्छी लगती है और मालूम होता है वकालत अच्छी की गई है। लेकिन यहाँ तो बुनियादी सवाल है कि किसान भी वैसा ही क्यों न बने कि बिना सुन्दर से सुन्दर पदार्थों के वह जिन्दा ही न रह सके? हम तो उसे भी वैसा ही बनाना चाहते हैं और इसमें छिपाने की कोई बात नहीं है। जो लोग उसी की कमाई के बल पर पैसे बनाना चाहते हैं उनके रास्ते में तो रुकावट भी हो सकती है। क्योंकि उन पदार्थों को वे पैदा नहीं कर सकते। फलत: दूसरों के आश्रित होके ही उन्हें रहना पड़ेगा। मगर किसान तो खुद बढ़िया से बढ़िया चीजें पैदा करता है। इसलिए उसका जीवन राजे-महाराजों जैसा बनने में कोई भी बाधा और हिचक नहीं है। अगर कोई बाधा है तो यही कि उसने सामूहिक रूप से ऐसा बनने का निश्चय नहीं किया है। और वही निश्चय हम करना चाहते हैं। लेकिन यह बात छोड़ भी दें तो भी एक और बात इसी सम्बन्ध में विचारणीय है। कहा जाता है कि पूरे आराम और विलास की सामग्री न होने से जमींदार और मालदार लोग जीवित न रह सकेंगे रोगी तथा आसक्त हो जाएँगे। बात तो सही है और न हमीं चाहते हैं कि उनकी यह हालत हो और न किसान ही चाहता है। फिर भी हम तो हिसाब करने और माँगने की बात बोल रहे हैं। तो क्या किसान के लिए यह जरूरी है कि वही उन धनियों के जिन्दा रहने की भी फिक्र करे? बल्कि क्या वह अपने आप जीवित रहने की चिन्ता छोड़ के भी उनकी चिन्ता करे? यदि हाँ, तो क्यों? यदि वे लोग किसान की जरा भी फिक्र नहीं करते, प्रत्युत उसके मर जाने से जैसा कि कह ही चुके हैं, उन्हें तो फिर खुशी ही होती है, किसान को ही क्या पड़ी है कि उनकी परवाह करता फिरे और इस प्रकार न केवल स्वयं मरे किन्तु सारे परिवार को भी घुल-घुल के मरने को विवश करे। इतना ही नहीं क्या वह इस प्रकार आनेवाली पीढ़ी के लिए भी यह मार्ग दिखा दे कि राजे-महाराजों की फिक्र करके मरते रहना? उचित तो यही है कि वह अपनी फिक्र करे और मालदार लोग अपनी। और अगर राजे-महाराजे मर ही जाएँ तो इसकी चिन्ता किसान को क्यों? उससे उसका या दुनिया का हर्ज ही क्या होता है? संसार में छोटे-बड़े, धनी-गरीब हजारों मरा करते हैं। मगर इसकी चिन्ता किसे होती है? जिसकी उससे हानि हो उसे यदि फिक्र हो तो यह बात समझ में आने की है। मगर यहाँ तो यह बात है नहीं। असल में तो उलटी बात होनी चाहिए। यहाँ तो किसान और हल चलाने वाले के मरने पर ही दुनिया को तथा राजे-महाराजों को भी फिक्र करनी चाहिए और उपाय ऐसा करना चाहिए कि वे मरने न पाएँ। क्यों? इसीलिए कि गेहूँ, चावल, घी, दूध वगैरह चीजें ऐसी हैं कि इनके बिना संसार का काम चल नहीं सकता, खासकर धनियों और श्रीमानों का, हाकिम-हुक्कामों का और इन चीजों को पैदा करता है किसान ही। इससे तो स्पष्ट है कि एक किसान मरा तो सैकड़ों और हजारों का अन्नदाता मरा, घी, दूध देनेवाला मरा, आराम पहुँचानेवाला मरा। अब यदि उसके लिए शोक न करें, चिन्ता और परवाह न करें, तो करें किसके लिए? पत्थर के लिए? यही तो अक्ल का तकाजा है कि हम उसके फिक्रमन्द हों, उसके लिए गम मनाएँ और ऐसी कोशिश करें कि वह मरने न पाए। यदि किसान ज्यादा हैं तो गेहूँ, घी, मलाई भी तो ज्यादा चाहिए। फलत: यदि एक भी मरा तो उसमें कमी तो होगी ही। लेकिन यदि कोई धनी मरा, जमींदार मरा, शासक और शोषक मरा तो क्या हुआ? यही न कि हजारों किसान की कमाई का गेहूँ, घी, दूध आदि हजम कर जाने वाला मर गया? यदि इसे और भी साफ शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि वर्तमान समय का कुम्भकर्ण मरा। हम किसी और अर्थ में यह बात नहीं बोल रहे हैं जिससे लोग बुरा मान जाएँ। हम तो दलील करने वालों की दलीलों की उधेड़बुन करके उनकी असलियत को सबों के सामने स्पष्ट रूप से रख रहे हैं। ताकि निष्पक्ष विचार किया जा सके। हाँ, तो यदि इस दृष्टि से देखें तो क्या पाते हैं? आखिर माल चखने वाले लोग ऐसी चीजें तो पैदा करते नहीं, जिनके बिना संसार का काम रुक जाए। यदि वे कोई औषधी का या वैज्ञानिक आविष्कार करते होते जिससे संसार का कल्याण होता तो एक बात भी थी। मगर सो तो होता नहीं। सभी पदार्थों को खा-पी के अपने शरीर से जो वस्तुएँ वे पैदा करते हैं, वह केवल बुरी ही बुरी हैं, हानिकारक ही हैं। एक भी काम की चीज वे पैदा करते तो कहा जाता कि उनकी बुनियादी उपयोगिता इस दुनिया में है। ऐसे लोग यदि कम हैं तो बुरा क्या? यह तो और अच्छा ही है। निरुपयोगी ही नहीं, प्रत्युत हानिकारक पदार्थ ज्यादा न रहें, सोई अच्छा। साँप और बाघ ज्यादा हों तो किसे खुशी हो और अगर वे खत्म हो जाएँ तो रंज करने वाला कौन होगा? जब हम बुनियादी और मौलिक बातों पर विचार करते हैं हमें स्पष्ट कहने के लिए माफी चाहिए। हम तो आगे बढ़कर यहाँ तक कह देना चाहते हैं कि वैज्ञानिक आविष्कार के द्वारा संसार की भलाई करने वाले और दवा-दारू आदि तैयार करने वालों की भी उतनी उपयोगिता नहीं है, जितनी गेहूँ, चावल, घी, दूध आदि पदार्थ पैदा करने वालों की। ये चीजें सबसे जरूरी और बुनियादी हैं। इनके होने के बाद ही दवा-दारू आदि की जरूरत पड़ती है, न कि पहले। भूखों मरनेवाले को तो कुछ नहीं चाहिए। यहाँ तक कि वह स्वर्ग और भगवान को भी नहीं चाहता। वह तो सिर्फ भोजन चाहता है। भोजन के बाद ही दिल, दिमाग और शरीर अपने-अपने काम करते हैं और आविष्कार या दवा आदि की ओर झुकते हैं। पेट खाली रहने और घी, दूध न मिलने पर ये सभी चीजें भूल जाती हैं। इसीलिए यदि ऐसा मौका आए कि ऐसे दिमागदारों और ऐसे शारीरिक श्रम करनेवाले किसान-मजदूरों में केवल एक ही दल को चुनना हो, तो हारकर किसान-मजदूरों को ही चुनना पड़ेगा। इसलिए इस संसार के लिए उनकी उपयोगिता असली, बुनियादी और इसीलिए सबसे ज्यादा है। यही कारण है कि उनकी हर प्रकार की फिक्र करना हम सभी का पहला और जरूरी फर्ज है और अगर आज यह बात नहीं हो रही है तो मानना होगा कि समाज का दिमाग ही बिगड़ा है। कहा जाता है कि हाकिम-हुक्काम और पुलिस वाले तो जनता को और इसीलिए किसानों को भी अमन और शान्ति पहुँचाने वाले हैं। वे कानून की पाबन्दी के ठेकेदार हैं। वकील, बैरिस्टर भी यही करते हैं। वे उनकी ही मदद करते हैं। कानून बनाने वाले अच्छे से अच्छे कानूनों को तैयार करते और न्यायाधीश निर्णय करते तथा फैसले लिखते हैं। ये सभी बातें किसानों के लिए जरूरी हैं। इसीलिए किसान की कमाई का गेहूँ, घी उन्हें लेने का हक है। नहीं तो वे सभी बातें रुक जाएँगी और अन्धेर मच जाएगी। बात तो ठीक है और अन्धेर मचेगी यह भी हम मानते हैं। पर प्रश्न यह है कि जो अन्धेर आज मची है उसकी अपेक्षा वह अन्धेर ज्यादा होगी, भयंकर होगी, या कम और हलकी? अगर इसका उत्तर ठीक-ठीक मिल जाए तो उस बात का भी समाधन हो जाए। आज तो यह दशा है कि कलेजा फाड़ के कमाने वाले दाने-दाने के लिए मर रहे हैं। लाखों मन गेहूँ, दूध, घी पैदा करनेवाले गेहूँ की एक टुकड़े रोटी और एक बूँद दूध के लिए तरसते हैं। उनके कलेजे के टुकड़े ये नन्हे-नन्हे बच्चे एक बूँद दूध के बिना अकाल ही कालग्रस्त हो जाते हैं। दवा के बिना सारा किसान संसार तेजी से मौत के मुँह में चला जा रहा है। न बदन पर वस्त्र हैं, न रहने के लिए शरण। जमीन पैदा की प्रकृति ने, या भगवान ने। मगर बीच में ही कुछ लोग उसके इकलौते पुत्र और उत्तराधिकारी बन के कहने लगे हैं कि जमीन किसान की नहीं है। वह उससे निकल जाए। नहीं तो कानून और लाठी के बल से निकाल दिया जाएगा। गोया उसे खुदा या प्रकृति ने नहीं पैदा किया ताकि जमींदार और सरकार की ही तरह वह भी माता-पिता की पैदा की हुई चीजों का उत्तराधिकारी बने। वह तो यों ही न जाने कहाँ से टपक पड़ा। दीनबन्धु और गरीब-परवर कहा जाने वाला भगवान भी आज बदल गया। वह तो अमीर परवर तथा अमीर बन्धु बन गया। छाती चीर के खून को पसीना बनाने और इस प्रकार अमीरों के लिए न्यायाधीशों और पुलिस के लिए, कमानेवालों के ही रक्तशोषकों के लिए अमूल्य पदार्थ पैदा करनेवालों का आज तो पुर्सा हाल नहीं। हम पूछना चाहते हैं कि यदि यह महान अन्धेर नहीं, यह सामाजिक और नैतिक अराजकता नहीं, यह राजनीतिक दिवाला नहीं तो और है क्या? यह तो निराले दर्जे की नादिरशाही और लूट है। इस चीज को कानूनी जामा पहना देने मात्र से ही इसकी असलियत तथा इसकी बीभत्सता मिट नहीं सकती, कम नहीं हो सकती। यों तो एक जबर्दस्त डाकू भी हमारे घर और हमारी सम्पत्ति पर, हमारे शरीर पर भी, बलात अधिकार करके हमारी ही भलाई के नाम पर ही विपरीत नियम-कायदे बना सकता है और आज्ञाएँ जारी कर सकता है। उसके लिए वही कानून है। मगर इससे क्या उस डकैती का रूप बदल जाएगा और वह अच्छी चीज हो जाएगी? हम जानते हैं कि ठीक उसी प्रकार किसनों और कमाने वाली असंख्य जनता की भलाई के नाम पर ही कानून बना के उसी की ओट में यह अनवरत चलने वाली लूट जारी है। मगर इससे उस लूट को रक्षा और उस शोषण को पोषण कदापि कह नहीं सकते। उन्हीं को लूटा जाए और सो भी उन्हीं के हित के नाम पर। और इस लूट के आधार या सहायक जो कानून हों वह भी ऐसे हों कि लूटी जाने वाली जनता की राय से ही बनाए गए बताए जाएँ। यही तो जले पर नमक डालना है। तो क्या इस अन्धेरखाते से भी कोई बुरी चीज हो सकती है? क्या वर्तमान आईनों और कानूनों की व्यवस्था न रहने और उनकी पाबन्दी कराने वालों के अभाव में जो अन्धेर और गड़बड़ी होगी वह इससे भी बढ़कर होगी? वह इसकी बराबर की भी होगी क्या? नहीं, नहीं वह इसके सामने गिनती के लायक भी होगी या नहीं, असली प्रश्न यह है। जरा हम सोचें भी तो कि यदि ये कचहरियाँ, ये हाकिम, यह पुलिस और सारी की सारी यह व्यवस्था न रहे, या मिट जाए तो क्या होगा? चोरी और डकैती होगी और जबर्दस्त लोग कमजोरों को लूट लेंगे, कोई भला आदमी राह चलने न पाएगा और न किसी की इज्जत बचेगी, चारों ओर अशान्ति मच जाएगी। मगर क्या मौजूदा अशान्ति से भी वह बुरी होगी? आखिर कौन लोग लुट जाएँगे? क्या भुखमरे किसान और मजदूर जिनके पास कुछ है ही नहीं? क्या इनकी और इनके स्त्री-बच्चों की इज्जत आज बची है कि वह तब मिटेगी? क्या जमींदार और उनके अमले आज भी मनमानी घर जानी नहीं करते? क्या कोई कानून उनके भी लिए सचमुच है? आखिर नब्बे प्रतिशत लोगों के पास घर बार, धन, इज्जत कुछ भी ऐसी चीज बची भी हो, जो लुट जाने के योग्य हो या कि यों ही खयाली पुलाव पकता ही है। जिस शान्ति का ढोल बराबर पीटा जाता है वह क्या श्मशान की शान्ति से दूसरी है जो कि सन्न-सन्न करती है, जो अत्यन्त डराऊ है? इस कानून तथाकथित शान्ति से तो सिर्फ अमीरों ने ही फायदा उठाया है और अपने को मजबूत किया है। गरीबों के लिए तो यह मौत से भी खतरनाक साबित हुई है। यदि ये कचहरियाँ, ये कानून और यह पुलिस न होती तो क्या जमींदार लोग किसानों से एक पैसा भी वसूलने की हिम्मत करते? क्या उन्हें एक गाली देने या एक तमाचा लगाने की भी जुर्रत उनमें होती है? आखिर किस बूते पर वे लोग ऐसा करते यदि किसान एक बार डाँट दे तो जिनका सर चकराने लगे और जिन्हें हैजा हो जाए, जिनके दोनों ही निचले रास्ते चलने लगें क्या वही बल प्रयोग करेंगे? इस अमन ने तो असली बलवानों को निर्बल और अत्यन्त अशक्तों को सबल बना दिया है। यही तो इसकी खूबी है। हम यह भी पूछना चाहते हैं कि किसानों को कानून और व्यवस्था, रेल और तार, डाक और कचहरियाँ आदि देने की जो बात कही जाती है, और इसीलिए वर्तमान शासन प्रणाली और उसके पोषकों की उपयोगिता सिद्ध की जाती है उसका क्या मतलब है? मोटरें हैं, रेलें हैं और सुन्दर सड़के भी हैं माना, चोर बदमाश अब पहले की तरह लूटपाट नहीं करते और इसका यद्यपि असली कारण यह है कि अब लोगों के पास है ही क्या कि लूटें? तथापि वर्तमान व्यवस्था के फलस्वरूप ही यह भी है, हमें यह भी कबूल है। लेकिन क्या खाने-पीने की अपेक्षा से ये सभी चीजें बढ़कर हैं। यदि हाँ, तो किसान की कमाई का गेहूँ चावल आदि किसान के पास ही छोड़ कर सरकार तथा वर्तमान प्रणाली के हामी लोग क्या उन चीजों से ही सन्तोष करेंगे? वे अपनी चीजें अपने पास रखें और किसान अपनी अपने पास। फिर देखिए कि प्रलय मचती है या नहीं, हाहाकार होता है या नहीं। यदि अमन कानून बड़ी सुन्दर चीज है तो क्यों नहीं उसी से सन्तोष करते? जब किसान हाथ जोड़ के माँगने जाए तो भी मत देना हम कहे देते हैं। देखें कि वे लोग इस कानून-कचहरी और रेल-तार से कितने दिनों तक जिन्दा रहते हैं; अगर किसान असहयोग कर ले और अपनी कमाई का गेहूँ, घी आदि उन्हें न दें। किसान का कर्तव्य है कि सामूहिक रूप से खूब डटके उनसे पूछे और अपने गेहूँ, चावल का हिसाब उनसे जरूर माँगे। उसी की कमाई वे लोग खाते-पीते और मौज करते हैं। फिर हिसाब क्यों न माँगेगा? जब एक पैसे का बैंगन या साग खरीदने के लिए किसान जाता है तो यह सूखा है, उसमें पील्लू हैं, फलां तो सड़ा-गला है, आदि दलीलें करता है। इस प्रकार उस पैसे का पूरा हिसाब चुकाना चाहता है। यदि एक पैसे का हड़िया या घड़ा खरीदता है तो पाँच बार ठोंक-बजा कर लेता है, ताकि ठगा न जाए। एक सेर दूध के चार पैसे मिलें और उनमें एकाधा भी घिसे, या खराब हों तो खूब गौर से देख के उन्हें वापस करता है, ताकि उस दूध के बदले में पूरी रकम ठीक-ठीक काम के लायक मिले। एक पैसा चन्दा देने में सौ बार पूछता है कि क्यों दें? किसलिए दें? किसे दें? लेने वाला कैसा है? कौन है? ऐसी दशा में लाखों-करोड़ों मन गेहूँ, बासमती, दूध, घी, मलाई आदि उसी के गाढ़े पसीने की कमाई की चीजें ये अमीर और जमींदार, ये हाकिम-हुक्काम और ये सेठ-साहूकार गटक जाएँ, मगर उसका परिवार कराह के रह जाए, फिर भी उनसे पूरा-पूरा हिसाब भी उन चीजों का वह न माँगे, यह कैसी बात? उनसे वह जवाब क्यों नहीं तलब करे कि खा के क्या करते हैं? जब अपनी गाय को किसान हरी या सूखी घास-भूसा-पुआल वगैरह खिलाता है और पानी पिलाता है, तो किसी मतलब से ही। घास वगैरह तो उसके खाने-पीने की चीजें हैं नहीं। ये तो एक प्रकार से उसके लिए बेकार-सी हैं। मगर उन्हें लाने, काटने और पशुओं को खिलाने में परिश्रम जरूर होता है। पैदा करने में भी होता है। कभी-कभी पैसे देकर भी खरीदना पड़ता है। इसीलिए उसका फायदा पहले से ही सोच लेता है। गाय या तो दूध देती रहती है, या देने वाली होती है। इसीलिए सेवा करता और उसे खिलाता-पिलाता है। वह दूसरी गाय और खेती के बैल भी अपने पेट से पैदा करती है। इसलिए भी उसकी सेवा करता है। बैलों को भी इसीलिए खिलाता है कि ये हल और गाड़ी खींचते हैं। वे खेती का असली काम चलाते हैं। लेकिन यदि गाय न तो दूध ही देती हो और न गाभिन ही हो, यदि वह बन्ध्या हो और उससे कोई आशा न हो तो? क्या तब भी उसे खिलाता-पिलाता ही रहेगा? हजार-लाख में कितने किसान ऐसा करेंगे? शायद ही कोई ऐसा निकले। अधिकांश, या सभी उसे मेले में किसी और के हाथ या हुआ तो कसाई के ही हाथ बेच के छुट्टी पाते हैं। यही दशा बैलों की भी है। यदि वह गरिया हो और हल या गाड़ी में बिलकुल ही न चलते हों तो उसके साथ भी वही सलूक होता है। यदि सब कुछ होने पर भी यदि हल-गाड़ी खींचने पर भी खूँखार हों, बहुत ज्यादा हमला करें और सींग चलावें तो उन्हें भी जैसे-तैसे हटा ही देते और अपना पिण्ड उनसे छुड़ा ही लेते हैं। चाहे और कुछ करें या न करें। मगर ऐसे गाय-बैलों को अपने खूँटे से खदेड़ जरूर देते हैं। फिर तो वह दूसरे के खेतों में जाकर चरने के कारण लाठी-डण्डे खाते रहते हैं। सारांश किसान उनसे कोई ताल्लुक नहीं रखते उन्हें देखना नहीं चाहते। जल्द से जल्द उनसे अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। मगर अमीर, जमींदार और अधिकारी लोग तो किसान की गाढ़ी कमाई के घी, दूध, मिश्री, गेहूँ, बासमती आदि सभी चीजें खा जाते हैं। तो फिर उनसे भी वह सीधा सवाल क्यों नहीं करें, और हिसाब क्यों न माँगें कि इन सभी चीजों के बदले में आप क्या देते हैं? आखिर वही किसान जो गौ को घास खिलाके दूध लेता है तो दूध पिलाके उससे कहीं सुन्दर चीज लेने का हक जरूर है। नहीं तो फिर दूध वगैरह का देना ही बन्द करेगा। आखिर सीधे-सादे निर्दोष पशुओं ने ही क्या बिगाड़ा है कि उनके साथ उस शक्ति के साथ पेश आए, मगर सब ऐबों के केन्द्र इन मालदारों को यों ही छोड़ दें, जो उसकी जड़ खोदते फिरते हैं? जो जिस पत्तल में खाते हैं उसी में सूराख कर देते हैं; उन्हीं पर रहम करने का कोई कारण तो चाहिए। आखिर ये लोग देवता, गुरु और पण्डे-पुजारी भी तो नहीं हैं कि भोग लगा के उसे स्वर्ग भेजेंगे, मुक्ति देंगे या श्राद्ध तर्पण वगैरह के समय उसके काम आएँगे। उसे कथा वार्ता भी तो नहीं सुनाएँगे। यदि तीर्थ के पण्डे होते तो कदाचित यह भी माना जाता कि भगवान के मुसाहिब हैं। फलत: खुश हो के किसान के लिए अच्छी सिफारिश उनके पास कर देंगे। जैसे गाय का बच्चा माँ का दूध पी के मोटा ताजा होने पर पीछे उसी पर चढ़ता है, ठीक वही हालत इनकी है। ये तो किसान की छाती पर ही बैठते हैं। अपनी कमाई की रोटी का एक टुकड़ा वही किसान अपने कुत्तों को खिलाता है। उसका परिणाम यह होता है कि वह कुत्ता दिन-रात उसके घर-द्वार माल-असबाब की हिफाजत करता है। क्या मजाल है कि कोई उसके घर पर फटके या उसकी चीजें छुए। उस मामूली टुकड़े के बदले में वह जानवर उसकी कितनी परवाह करता है। मगर यहाँ तो अजीब हालत है। किसान तो अमीर, हाकिम, जमींदार, साहूकार, साधु, फकीर, पण्डे, पुजारी, भगवान, देवता सभी की परवाह करे, सभी को भोग लगाने के लिए सुन्दर पदार्थ जुटाए और आराम की सामग्री मुहैया करे; मकान, महल, मन्दिर, मठ उनके लिए बनवा दें। मगर ये लोग उसकी रत्ती-भर भी फिक्र न करें। उसे याद तक न करें और बिलकुल ही भूल जाएँ। गोया उससे कोई भी वास्ता इनका नहीं। भूलना इस मानी में कि वह क्या खाता, पीता, पहनता और कैसे गुजर करता है इसकी खोज करेंई न। भला यह उलटी गंगा कब तक बहेगी? दुनिया के नियमों और कायदों के खिलाफ चलने वाला यह व्यवहार कब तक रहेगा? किसी ने किसी से पूछा कि भई, यह अन्धेर कब तक? उसने उत्तर दिया कि जब तक निभे तभी तक। ठीक यही बात यहाँ भी है। यह नाव तो डूबेगी। यह अब टिकने वाली नहीं। देखना सिर्फ यही है कि कब डूबती है। जरा भीषण हृदयहीनता तो देखिए। एक जमींदार या अमीर बीसियों प्रकार के जूते पहनने के लिए रखता है। आखिर पहनेगा तो कोई एक ही। मगर रखता है बीसियों। कोट, कमीज, धोती, अचकन आदि की भी यही हालत है। बक्स के बक्स भरे रहते हैं। उनमें कीड़े लग जाने का भी डर रहता है, खास कर बरसात में। इसलिए उनसे बचाने की फिक्र भी की जाती है। उनके लिए खास नौकर होते हैं, जो उन्हें सुखाया करें और दवाइयाँ देकर उसकी हिफाजत करें। फिर भी कीड़े खा ही जाते हैं। जैसे तीर्थ के कुण्डों में अलग-अलग पाँव और शरीर डालने तथा स्नान करने से स्वर्ग मिलता है, उसी तरह ये जूते और कपड़े, तीर्थ-कुण्ड भी तो नहीं हैं कि कभी इनमें और कभी उनमें पाँव और देह डाल कर स्वर्ग में सीढ़ी लगाएँगे। फिर इतने जूतों और कपड़ों की क्या जरूरत? उन पर व्यर्थ नौकर आदि के खर्च का क्या काम? व्यर्थ में ही जो पैसे उनमें खर्च होते हैं यदि वही किसानों के पास छोड़ दिए जाते तो कुछ बुरा हो जाता क्या? आखिर यदि कीड़े ही खा जाते हैं तो क्या किसान और उसके बाल-बच्चे उन कीड़ों से भी गए बीते हैं? उन्हें उन कीड़ों के जितना भी हक नहीं है? कोठियों में और खत्तियों में भरे गेहूँ और रखी बासमती में पुराना हो जाने पर घुन और दूसरे कीड़े लग जाते और सफाचट कर जाते हैं, जमींदार और धनी यह बात खुशी-खुशी बर्दाश्त कर लेते हैं। मगर उतने ही गल्ले की कीमत यदि किसान के पास छोड़ देने की बात उठे तो उन्हें मिर्गी आ जाती है। यह बात वे लोग सोच भी नहीं सकते। यह अन्धेर अभी तक चलती है इसी में आश्चर्य है। मगर मिटेगी और जल्द मिटेगी, यह ध्रुव सत्य है। कहा जाता है यदि कानून और अमन नहीं रहता तो किसानों के पास जो भी है वह भी नहीं रहने पाता। सरकार ने उन्हें बचा रखा है और इस काम में जमींदार वगैरह उसकी मदद करते हैं। पुलिस का काम ही है किसान परिवार की रक्षा करना। गाँव के चौकीदार और दफेदार आखिर और कौन सा काम करते हैं? फिर भी इस बात को न मानना कितनी बड़ी कृतघ्नता है। ठीक है। बकरे को भी तो आखिर पालते ही हैं। उसे दाना घास भी खूब ही खिलाते हैं। यदि कोई उसे मारने आए तो उसे रोकते भी हैं और मारनेवाले से लड़ाई भी करते हैं। बकरे को चुचकारते-पुचकारते भी हैं और उसकी देह भी कभी अपने हाथों पोंछते हैं। क्या किसान की उससे ज्यादा रक्षा और हिफाजत कानून के द्वारा की जाती है? क्या पुलिस उससे अधिक फिक्र किसान की करती है? मगर आखिर बकरे पर यह सारी ममता किसलिए है? इसीलिए न, कि एक दिन जब उसे काटेंगे और खाएँगे तो ज्यादा और अच्छा मांस मिलेगा? लेकिन हम यह बर्दाश्त ही नहीं कर सकते कि किसान की भी हिफाजत बकरे की तरह की जाए। यदि कोई दावा करे कि यह बात नहीं है, तो हम अदब से कहेंगे कि अभी तक तो यही होता है और आगे भी यही होगा, जब तक किसान खुद तैयार नहीं हो जाता और डट के हिसाब नहीं माँगता। वह तो चरी और घास है जिसे सींचते और बचाते सिर्फ इसीलिए हैं कि गाय-भैंस को खिलाके दूध दुहें, घोड़े को खिलाके सवारी करें और बैल को खिलाके हल खिंचवावें। घास और चरी का दूसरा प्रयोजन है ही नहीं। कानून-कानून चिल्लाने और अमन-अमन पुकारनेवाले इतने बेहया होते हैं कि दुनिया को बेवकूफ बनाना चाहते हैं। वह समझते हैं कि संसार में सबसे बड़ी और असल चीज कानून और अमन ही हैं। हालाँकि उनसे भी बड़ी चीजें हैं और वही बुनियादी हैं। कानून और शान्ति के ठेकेदारों का भी काम उन बुनियादी और मौलिक चीजों के बिना चल नहीं सकता है, कभी नहीं चलता है। आखिर कानून और शान्ति को न खाएँगे, न पिएँगे और न पहनेंगे। क्या इनसे भूख-प्यास मिटेगी? जाड़ा दूर होगा? क्या कभी किसी ने देखा है कि इनसे लोगों की लज्जा बचती है? जाड़े, बरसात और गर्मियों में ये कानून और ये अमन न तो आदमी को ही बचा सकते और न उसके सामान और गल्ले आदि को ही। मवेशियों को भी न तो उनकी छाया में ही रखते हैं और न उनमें बॉंधते ही हैं। उन्हें ही खिला के हैजा, प्लेग और ज्वर भी दूर नहीं करते। यहाँ तक कि मरने के बाद न तो वे कफन का काम देते, न अर्थी का और न श्मशान, चिता या कब्रिस्तान का ही। उनसे किसी का श्राद्ध, तर्पण और चेहलुम भी नहीं होता। लेकिन ये गेहूँ आदि सब चीजें तो जरूरी और बुनियादी हैं। इनका होना आवश्यक है। इस प्रकार जो शान्ति और जो कानून इतने बेकार और नाचीज हैं उन्हीं पर इतना नाज और इतनी उछल-कूद। जो न जीने में काम आएँ और न मरने पर ही, उन्हीं की इतनी तारीफ। आश्चर्य। यह कानून और न्याय भी इतना कमजोर है कि रोटी के बिना वह खुद अपने को बचा नहीं सकता। लोग समझते हैं कि पुलिस की बन्दूक और लाठी, फौज की गोली और तोप, सर के मशीनगन और हवाईजहाज, जेल, फाँसी, कचहरियाँ, न्यायाधीश और हाकिम यही कानून और शान्ति की रक्षा करते हैं। यही अमनचैन कायम रखते हैं। मोटर चलाने वाले और रेल के इंजिन के ड्राइवर दंगे-फसाद की जगह फौरन ही पुलिस और फौज को पहुँचा के शान्ति रक्षा करते हैं। मगर यह खयाल सिर्फ मोटा और ऊपरी है। इसीलिए जैसा सही और पक्का इसे समझते हैं दरअसल वैसी बात है नहीं। यदि रोटी, भात, दूध, घी न मिले तो भी क्या पुलिस और फौज की लाठी, बन्दूक, तोप चलेंगी? तब क्या जेल चालू रहेंगे? क्या न्यायाधीश फैसले लिखेंगे? भोजन न मिलने पर न तो हाथ ही काम करेगा, न दिमाग ही। फिर गोली कैसे चलेगी? किस हाथ से चलाई जाएगी? ड्राइवर मोटर और रेलगाड़ी कैसे चलाएगा? कागज अलग, स्याही जुदा और कलम फर्क है। जज साहब का हाथ उठता नहीं। दिमाग ने जबाव दे दिया है। जेल वाले मुर्झाए पड़े हैं। जल्लाद की ऑंखें बन्द हैं। अब पता चला कि खास अमन कानून की भी रक्षा कौन करता है? वही रोटी, वही भात, वही घी, दूध। न कि उनकी रक्षा कानून और अमन करते हैं। कहने को तो न्याय और आईन कहते हैं। मगर जरा देखिए तो सही कि वहाँ भी क्या उलटी दुनिया है? सरकार ने जेलखाने बनवाए हैं, जिनके मकान पक्के और साफ-सुथरे हैं। वहाँ पहरेदारों के सिवाय बीमारों की दवा के लिए डाक्टर रहते हैं। दवाइयाँ भी हो सकती हैं। कैदियों के ओढ़ने-पहनने के लिए और बिछाने के लिए भी कई-कई कम्बल, चटाइयाँ और काफी कपड़े होते हैं। भोजन भी चावल, गेहूँ मिलता है। दाल और साग भी। चटनी, मांस और कभी-कभी दही भी। और उन जेलों में जाते हैं कौन लोग? आमतौर से वह जेल बने ही हैं ऐसे लोगों के लिए जो कानून और अमन के दुश्मन हैं। जो चोर, बदमाश, डकैत हैं। देखा न? जो कानून और शान्ति की जड़ खोदने वाले चोर बदमाश हैं। उनके लिए सरकार और उसके कानून को, उसके न्याय को इतनी फिक्र है कि पहले से ही उनके आराम की तैयारी कर रखी जाती है । भला यह परस्पर विरोधी बात दिमाग में कैसे समाये । मगर यह तो कुछ नहीं। खूबी तो यह है कि एक ओर कानून की जड़ खोदनेवालों और समाज के शत्रुओं के आराम की यह फिक्र। दूसरी ओर जो किसान कानून और न्याय की जड़ पैदा करता है, समाज का रक्षक है। सबको घी, गेहूँ देता है वही भूखों मरता है। मकान और कपड़े के बिना तबाह है। दवा के बिना अकाल ही काल कवलित होता है। उसको पूछनेवाला कोई नहीं। न तो सरकार ही पूछती और न उसका न्याय या कानून ही। तो क्या वह भी गेहूँ, चावल, घी, दूध पैदा करना छोड़ के चोरी, डकैती आदि ही करे, तभी उसकी खबर ली जाएगी? प्रत्यक्ष रूप से न सही, मगर अप्रत्यक्ष रूप से उस व्यवस्था का तो यही अर्थ है। फिर भी कहते हैं कि यहाँ अन्धेर नहीं है। यहाँ तो न्याय है। वह व्यवस्था डूबेगी यह यकीन रहे। कहते हैं कि किसी साध्वी और पतिव्रता स्त्री का पति उसके ठीक उलटा, पूरा लम्पट था। वह बराबर ही रण्डी के कोठे पर पहुँचा करता था। साध्वी को मालूम हो जाने पर उसने बहुत प्रयत्न किए। हर तरह के उसे आराम पहुँचा के, उसकी सेवा करके उसे उस कुकर्म से रोकना चाहा। मगर सब बेकार। वह नहीं ही रुका। तब उसने सोचा कि शायद वेश्या के यहाँ इसे कोई खास आराम है, जो यहाँ नहीं मिलता है। इसीलिए इसका वहाँ जाना रुकता नहीं। वह सीधी तो थी ही। फिर और सोचती ही क्या? तब उसने विचारा कि यदि किसी प्रकार उस खास तरह के आराम या सलूक का पता लगा के वह भी स्वयं पूरा कर दूँ, तो शायद उसका वहाँ जाना रुक जाए। इसी खयाल से एक दिन जब वह हजरत उधर चले तो पीछे-पीछे वह खुद भी चली और वेश्या के कोठे के पास जब वह सीढ़ी पर चढ़ने लगे तो नीचे ही रुक के गौर से देखने लगी। अन्धेरा तो था ही। किसे पता था कि नीचे कौन है? जब वह आखिरी सीढ़ी पर पहुँचके कोठे पर वह पाँव देना ही चाहते थे कि वेश्या ने कड़क के पूछा कि क्या वह जेवर लाया है, जिसके लिए वचन दे गया था, हजरत ने ज्यों ही उत्तर दिया कि कल लाऊँगा, कि उसने अपने पाँव का जूता निकाल के उनके सिर पर तड़ाक से जमाया और कहा कि बिना जेवर के यहाँ क्या माँ-बहन के पास चला है? हजरत ने गिड़गिड़ा के कह दिया कि हुजूर के ये जूते तो फूल हैं और मैं धन्य हूँ। फिर कोठे पर चले गए। वह स्त्री यह दृश्य देख के लौट आई। और रात में जगी रही। बगल में एक जूता भी रखे रही। ज्यों ही वेश्या के पास से वह घर आए त्यों ही साध्वी ने उनकी खोपड़ी पर तड़ातड़ कई जूते लगाए। बोले हाँ, हाँ यह क्या? उसने उत्तर दिया कि और चीजें तो मेरे पास वेश्या की अपेक्षा ज्यादा और सुन्दर हैं ही। फिर भी आपका वहाँ जाना जो बन्द नहीं हुआ तो मैंने पता लगाया कि बात क्या है? अब मालूम हुआ कि वही जूते वहाँ मिलते थे जो यहाँ अप्राप्य थे। इसलिए मैंने सोचा कि वह भी आपको यहीं लगा दूँ ताकि आपका धर्म तो किसी प्रकार बचे और वहाँ न जाएँ। जैसे पति का धर्म और आचरण बचाने के लिए मजबूरन साध्वी पत्नी को उसे जूते लगाने पड़े, क्योंकि परिस्थिति ही वैसी थी, ठीक उसी प्रकार वर्तमान समाज और सरकार की परिस्थिति और उसका रवैया देख के यदि किसान भी चोरी, डकैती पर उतारू हो जाएँ और उनकी ऑंखें खुल जाएँ, तो उसका जवाबदेह कौन होगा? आखिर पेट का सवाल जो ठहरा और 'पाँचों कुतिया राम की करे भजन में भंग। इनको टुकड़ा देई के, तब जिय होय उमंग।' सब उपाय करके जब किसान थक गए और उन्होंने देखा कि कोई खबर नहीं लेता, तो क्या करें? बिना वैसा किए लोगों की ऑंखें भी तो शायद ही खुलें। देखिए न सही। क्या थोड़ी आफत और कम मजबूरी है? जिस कानून की पुकार इतनी मचाई जाती है वह आखिर क्या करता है यह देखें तो पता चले। किसान की पैदावार मारी गई। वह सपरिवार भूखों मरता है। पैदावार तो पैदावार गई। उसका बीज, परिश्रम और दूसरे खर्च भी डूबे। साहूकार का जो कर्ज उनके करते सर पर लदा वह तो जुदा ही है। पेट का ठिकाना नहीं। कपड़े लत्ते नदारद। महाजन भी कर्ज देने को तैयार नहीं। वह भी तो फसल देखकर ही देते हैं। किसान के पास फसल के अलावे और रहता ही क्या है? अब जले पर नमक छिड़कने के लिए जमींदार ने लगान माँगा। मगर वह दे कहाँ से? फलत: बाकी लगान की नालिस हो गई और पेशी की तारीख पड़ी। किसान मर-जी के वहाँ पहुँचा कि न्यायाधीश से सारी कहानी सुना के लगान से छुटकारा पा जाऊँगा। उसने वहाँ सब बातें साफ-साफ सुना भी दीं और हाकिम को विश्वास भी हो गया। मगर वह कहता है कि लगान तो देना ही होगा। क्योंकि कानून जो ठहरा। फसल मारी पड़ी यह बात न सुनी जाएगी। क्या गजब है। कानून है कि गधा है, जिसे कोई भी तमीज नहीं। यहाँ तक कि उसने हाकिम को भी वैसा बना डाला। क्या इसी कानून पर नाज है? क्या इसी कानून के लिए किसान अपना गेहूँ, दूध लुटाए? उसके बदले उसे यही मिला है? अच्छा, तो कानून अपने घर रहे।
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