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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4 सम्पादक - राघव शरण शर्मा किसान क्या करें दूसरा भाग डरना छोड़ दें किसानों की दुर्दशा से सम्बन्ध रखनेवाली सभी बातों को सुन के यह कहा जाएगा कि बातें तो सही हैं और जो चित्र सामने रखा गया है उसमें कोई बढ़ावा या अतिशय नहीं है, रोचकता नहीं है। वस्तुस्थिति ही ऐसी है और बेशक, यह शर्मनाक बात भी है। मगर किसान के कलेजे में भय का भूत इस कदर घर कर गया है और उसने उसे इतना दबा लिया है कि इन बातों के बारे में तो क्या, मामूली शिकायतों तक के सम्बन्ध में वे अपनी जबान खोल नहीं सकते। वे समझते हैं, उनकी जबान ही काट ली जाएगी। या यों कहिए कि उनकी जबान पर ताले हैं। किसानों की बात तो छोड़ ही दीजिए। क्या उनके नेता नामधारी भी ये प्रश्न छेड़ते हैं, छेड़ सकते हैं? यह तो ऐसा हिसाब माँगना है कि शोषकों की अंतड़ी ही ढीली कर दे। इससे तो उनके हवास ही उड़ जाएँ यदि व्यापक रूप से ये प्रश्न उठने लगें। मगर जब किसान नेता तक इनसे दूर हैं, तो किसान बेचारों की क्या हस्ती? इन बुनियादी बातों को उठाना और जारी रखना बड़ी निर्भयता और निराली हिम्मत का काम है, न नेताओं में है और न किसान समाज में ही। जो जमींदारों से, उनके अमलों से, उनके गुण्डे और लठधारों से, पुलिस से और न जाने किससे थर्राते रहते हैं; जमींदार के गुमाश्ते और चपरासी को, सिपाही को देख के जिनकी रूह काँपती हैं; जो पैदावार का बारह आना हिस्सा तक और कभी-कभी सोलह आने भी जमींदार के हवाले इसी डर के मारे करने को तैयार हो जाते हैं और जबान भी हिला नहीं सकते, क्या वही यह थर्रानेवाले उन्हीं शोषकों से हिसाब की माँग पेश करेंगे? इसलिए असली चीज तो है यह भय का भूत। जब तक इसकी दवा नहीं होती, कुछ होने-जाने का नहीं। बात तो अक्षरश: सही है। इसीलिए तो हिसाब माँगना सीखें या हिसाब माँगें यह बात कही जा रही है। अगर वे पहले से ही निर्भय और निडर होते तो यह हिसाब कब का न माँगा गया होता और सारा मामला ही खत्म हो गया रहता। हमें तो इसी माँग के सिलसिले में उनको निडर बनाना है, उनके भय को भगाना है। जब असली हालत का चित्र उनकी ऑंखों के सामने उसी प्रकार नाचने लगे, जैसा कि बताया गया है, तो अपने आप हिम्मत भी आएगी ही और वे निडर बनेंगे ही। इसलिए वह हिसाब ही उन्हें निडर बनाने का भी एक साधन है। मुल्क में आजादी की सीधी लड़ाई को शुरू करने के पहले अंग्रेजी सल्तनत से भी इसी प्रकार का हिसाब माँगा गया था और उसका कच्चा चिट्ठा जनता के सामने पेश किया था, जिसने जादू का काम किया। जनता तो मतवाली होके अपार शक्ति रखनेवाली सरकार से भिड़ी और पीछे न हटी उसका प्रधन कारण वही कच्चा चिट्ठा था। जनता तो ज्यादा दलील और वकालत करना जानती नहीं। वह सीधी बात समझती है और उत्तेजित हो जाती है। सो भी जब कि भावनात्मक और खयाली राजनीतिक बातों को, जो निराकार हैं, सुन के ही वह गर्म हो सकती, तो यहाँ तो साकार और ठोस बातें हैं, जो प्रतिक्षण और हर कदम पर किसान को चुभती हैं। इनकी याद तो उसके कलेजे में हूक पैदा कर देती है और वह सुध-बुध खो बैठता है, कम से कम कुछ समय के लिए तो अवश्य ही। मगर केवल इतना ही नहीं है। हमें तो किसान की भूलें उसे सुझानी हैं। उसे सजग भी करना है कि आइन्दा ऐसी भूलें न करें। उन्हीं भूलों में यह भय भी है, जो नाहक ही उसे पागल किए बैठा है। इसलिए आइए जरा उस डर का और उसके कारणों का विश्लेषण करें और देखें कि असलियत क्या है। पता लगाएँ कि क्या कोई वजह भी इस भारी भय का है, या यों ही सिर्फ खयाली और दिमागी मर्ज है। आखिर किसान, जमींदार, साहूकार या सरकार से डरता क्यों है? आखिर वह क्यों डरे? उसने चोरी की है? डाका मारा है? जना और व्यभिचार किया है? आग लगाई है? खून किया है? मारपीट की है? कोई भी कानूनी अपराध किया है? ये बातें तो उसमें हैं नहीं। यदि अपराध करे भी, तो इनसान या मनुष्य की हैसियत से कोई किसान भले ही करे, जैसा कि गैर किसान लोग भी करते हैं। फिर चाहे वह जमींदार या सरकारी अफसर ही क्यों न हों। और उसके करते यदि सभी डरते हैं और सजा पाते हैं तो किसान भी डरे और सजा पाए, डरता और दण्ड पाता है भी। मगर यह तो बात ही जुदा है। सवाल तो यह है कि किसान की हैसियत से तो वह अपराधी है नहीं। नहीं तो आसानी से किसान को सरकार जरायम पेशा कौमों में शुमार कर डालती। मगर ऐसा तो है नहीं। किसान का अर्थ भी है खेतिहर या खेती करनेवाला। इसका दूसरा मतलब है ही नहीं। तब यह बात समझ में आती ही नहीं कि खेती करनेवाला किसी से भी क्यों डरने लगा। उसका तो काम उलटे छाती तान के और सिर ऊँचा करके चलना होना चाहिए। क्योंकि संसार का गला उसी के हाथ में है। वह जब चाहे उस गले को खत्म कर दे। मगर वह तो अपनी जान पर खेल के अपना गला दे के भी दुनिया के गले को यहाँ तक कि अपने शत्रुओं और लूटनेवालों के गले को भी बचाता है। जो संसार की जिन्दगी के लिए सबसे जरूरी और बुनियादी चीजें पैदा करे वही दुनिया से जमींदार वगैरह से डरे। यह अजीब बात है। डरना तो हर घड़ी औरों को चाहिए कि कहीं किसान पैदा करना बन्द कर दे तो आफत होगी। आखिर, जमींदार, मालदार आदि के हाथ या सीने में यह ताकत तो है नहीं कि खुद अपने लिए गेहूँ, बासमती, घी, दूध प्रभृति वस्तुएँ पैदा कर लें। उन्हें तो जैसे लकवा मार गया हो जो अपनी धोती धो नहीं सकते, जो अपने लिए एक लोटा जल भी कुएँ से निकाल नहीं सकते और जो अपना भोजन तक खुद पका नहीं सकते, यदि कहा जाए कि उनके प्रत्येक अंग को लकवा मार गया है और वह कुष्ठी (कोढ़ी) बन गए हैं, तो इसमें अत्युक्ति क्या है? और अगर ऐसे लोग किसानों से न डरें तो और डरेगा कौन? ऐसे लोग तो अपनी जरूरतों को पैदा करने का स्वप्न भी नहीं देख सकते। दुनिया के गले की बात ही लीजिए और देखिए कि वह किसान के हाथ में है या नहीं। गेहूँ, बासमती, दूध, मलाई, घी तो किसान को शायद ही मिलता है। यही कहना ठीक है कि नहीं मिलता है। छठे-छह मास यदि किसी पर्व-त्योहार पर, या शादी-गमी में मिल ही जाए तो उसे मिलना नहीं कहते। यह चीजें तो अमीर ही खाते हैं और हाकिम हुक्काम ही। अब यदि किसान सामूहिक रूप से सिर्फ यही तय कर लें कि गेहूँ की खेती न करेंगे चाहे कुछ हो जाए तो नतीजा क्या होगा? यदि अमीरों और वैसी दुनिया के भोग की सभी चीजें, जो उन्हें खुद नहीं मिलती हैं, जिन्हें वह स्वयं खा-पी नहीं सकते हैं, वह पैदा करना बन्द कर दें तब तो कहना ही क्या? तब तो और भी कुहराम मचे। मगर यदि सिर्फ गेहूँ की खेती ही बन्द करने का निश्चय कर लें तो भी बला आ जाए और सब लोग सीधे हो जाएँ। किसान को तो खाना है नहीं कि उसका हर्ज होगा। उसके लिए तो मटर, मंडुवा और खेसारी रखी ही हैं। मगर अमीर तो मर ही जाएँगे एक-एक करके। यदि कोई ऐसा सोचे कि उससे जबर्दस्ती गेहूँ की खेती कराई जाएगी तो यह सिर्फ खयाली पुलाव होगा। अस्सी और नब्बे फीसदी लोगों से बल प्रयोग के द्वारा दस-बीस फीसदी लोग कुछ भी करवा लें यह असम्भव है, यदि उन 80-90 फीसदी लोगों ने निश्चय कर लिया है कि न करेंगे, यदि अमीरों से निपट लेने का उन्होंने आखिरी फैसला कर लिया है। यह भी नहीं कि यह फैसला हो ही नहीं सकता। दुनिया में इस प्रकार के सामूहिक निर्णय भी आखिर हुए ही हैं और उन्हीं के करते क्रान्तियाँ भी हुई हैं। ऊब जाने पर क्या नहीं होता? 'मरता क्या न करता?' भी तो है। जबर्दस्ती का तो कोई कानून भी नहीं है और अगर कोई कानून या आर्डिनेंस बने भी तो वह अमल में लाया जाएगा कैसे? कितने लोगों के हाथ पकड़ के गेहूँ बोने को विवश किया जा सकेगा और कैसे? गोली और मार्शल लॉ (फौजी कानून) ने यदि और भी उत्तेजित नहीं किया है तो किस दृढ़संकल्प समूह को, जनता को, विवश किया है? याद रहे कि पढ़े-लिखों की बात हम नहीं कर रहे हैं। हम तो अपढ़ों की बात करते हैं, जिनकी पकड़ ऊँट की पकड़ होती है, जो कभी आसानी से छूटती ही नहीं। यह वही जनता है जिसने राम-कृष्ण तक को भी नहीं छोड़ा और वेमुरव्वती से समालोचना की खराद पर कस दिया। नहीं तो कहाँ धोबी और कहाँ राम की शिकायत। सो भी कड़क के और बड़े गर्व से। वेदान्ती लोग कहते हैं कि 'अपने को आप भूल के, हैरान हो गया' यह बात किसान के बारे में अक्षरश: घटती है। वह अपनी पूर्वोक्त अपार शक्ति और अपार संख्या के बल को भूल कर ही आज परेशान है। हनुमान को जैसे अपने असीम पौरुष की विस्मृति बराबर ही रहा करती थी। जब कभी कोई याद दिलाता था तभी वह उसे याद कर पाते थे ठीक वही बात किसान की भी है। वह भी केवल याद कराने वाला चाहता है। वह भी मौके की ताक में है कि कोई कहे कि 'का चुप साधि रहे बलवाना?' फिर तो 'जो राउर अनुशासन पाऊँ कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊँ' की पुनरावृत्ति करके ही छोड़ेगा? हाथी आखिर कितना बड़ा और मोटा कितना शक्तिशाली जानवर है, यह सभी जानते हैं। वह हजारों को अपने पाँवों के तले बात की बात में रौंद दे इतना बल रखता है। उतना बड़ा जानवर दुनिया में और कोई है ही नहीं। मगर यह सब होते हुए भी उसकी क्या दशा है? उसकी असली लम्बाई-चौड़ाई आदि, उसका असली वजन और उसकी असली ताकत बेकार ही है। वह तो एक मामूली से पीलवान के सामने, एक पीलवान लड़के की डपट से थर्र-थर्र काँपता और उसी के इशारे पर चलता, रुकता, घूमता, उठता और बैठता है। उसकी शारीरिक शक्ति और जिस्मानी ताकत सब की सब बेकार है। उसे तो एक मामूली आदमी नचाता है। बाघ और भालू को भी नचाते हैं सही। मगर, उसके हाथ-पाँव और जबड़े को बॉंध कर, उसके नाखून और पंजों को काट-छाँटकर और उसे जबर्दस्त साँकल या रस्सी में बॉंधकर ही। इस प्रकार उसकी शारीरिक शक्ति पर सख्त से सख्त भौतिक और स्थूल बन्धन लगा कर ही उसे नचाया जाता है। मगर हाथी पर तो वैसा कोई बन्धन है नहीं। उसके हाथ, पाँव वगैरह भी ज्यों के त्यों दुरुस्त और खुले हैं। वह उनका इस्तेमाल बखूबी कर सकता है करता भी है जब चाहता है। बाघ और भालू तो अपने हाथ, पाँव, जबड़ों या नाखूनों का प्रयोग कर ही नहीं सकते। वह बेकार कर दिए गए होते हैं। फिर भी वह हाथी बेकार और मुर्दा-सा बना, पस्तहिम्मत और डरपोक होके जिन्दगी गुजारता है। क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है? क्या ठीक यही दशा किसान की भी नहीं है? क्या हाथी की सारी बातें और उसकी सारी की सारी दशाएँ किसान से नहीं मिलती हैं? उसमें भी अपार शक्ति, अपार जनसंख्या, अपार अन्नादि के उत्पादन की ताकत है और उस पर कोई बन्धन भी नहीं लगा है जिनसे बेकार हो गई हो, वह तो खुली है और उससे शोषकों और उत्पीड़कों की मर्जी के अनुसार ही काम भी होता है, जैसा कि हाथी शक्ति से पीलवान की इच्छा के अनुसार काम होता है। जिस प्रकार हाथी की पीठ पर वह बैठता है ठीक उसी प्रकार शासक और शोषक किसान के ऊपर बैठते हैं, बैठे हुए हैं, फर्क इतना ही है कि वह उसकी पीठ पर बैठता है और यह लोग किसान की छाती पर बैठे हुए हैं। जिस तरह उसी हाथी को बहुत ही अच्छा, सीधा और शान्त कहते हैं, जो झटपट महावत (पीलवान) के इशारे पर चलता रहता है। ठीक उसी तरह शासकों एवं शोषकों की मर्जी पर नाचने और चूँ न करने वाले किसानों को भी शान्त, कानून पसन्द (Law abiding) और भले आदमी कहके पुकारा जाता है। ठीक ही है। इसी में तो महावत का, हाथी पर सवारी करने वालों का और शासकों तथा शोषकों का भी फायदा है। इसीलिए तो उन्होंने ऐसा नाम रखा है। बाकी दुनिया भी बिना सोचे विचारे ही उन्हीं की हाँ में हाँ मिलाती है और 'ऊँट बिलाई ले गई, तो हाँ जी हाँ जी कहना' को चरितार्थ करती है। मगर कभी-कभी ऐसा होता है कि हाथी और जनता दोनों ही मस्ती पर आ जाते हैं और महावत (पीलवान) या शासकों की बात अनसुनी कर देते हैं। उनकी पीठ या छाती पर बैठे हुए टर्र-टर्र चिल्लाते रह जाते हैं। मगर न तो हाथी ही सुनता है और न कमाने वाली जनता ही किसान और मजदूर ही सुनते हैं। इतना ही नहीं। हाथी की पीठ पर चढ़ने की हिम्मत न तो महावत को ही होती है और न सवारों को, बाबुओं और राजे-महाराजाओं को। वे पस्तहिम्मत हो जाते हैं। शासक और शोषक भी पस्तहिम्मत हो जाते हैं ठीक वैसे ही। वे भी किसानों की छाती पर ठहर नहीं सकते। हाथी वास्तव में अपनी अपार शक्ति को और पीठ पर चढ़ने वालों की तुच्छता को जभी समझता है तभी यह दशा होती है। तभी उसकी भूल और उस पर चलने वाला जादू हट जाता है। तभी वह अपने को सँभाल लेता है। फिर तो चढ़ने वाले यदि हिम्मत करें तो सूँड़ और पाँवों से ही उन्हें रौंद देता या घुमा के दूर फेंक देता है कि हड्डियों का भी पता न चले। कदाचित किसी प्रकार कोई चढ़ गया भी तो देह को हिला के उसे ठीक वैसे ही गिरा देता है, बेलाग पटक देता है, जैसे पेड़ को झकझोर के पके आम नीचे गिरा देते हैं। वही हाथी जो एक मामूली आदमी से थर्राता था, अब हजारों को थर्राता है। वह जिधार ही चलता है, भगदड़ मच जाती है। उस समय हाथी को 'पागल और मतवाला' कहते हैं। ठीक ही है उसे भाले और बर्छे से भोंकने का बहाना भी तो चाहिए। यदि पागल न हो, तो उस पर भाले कैसे चलेंगे और उसे 'सर' करने की कोशिश क्यों कर होगी? पागल कहने में ही उसकी छाती पर चढ़नेवालों का मतलब निकलता है। क्योंकि अब वह चढ़ पाते नहीं। हाथी चढ़ाने से कतई इनकार करता है। लेकिन जबान से नहीं, अपने कामों से। वह तो 'कह सुनाऊँ' को अक्ल की ठेकेदारी और समझ की बदहजमी वाले हम मनुष्यों के लिए ही घृणा के साथ छोड़ के खुद 'कर दिखाऊँ' को चरितार्थ करता है। यही क्रान्ति है। फिर पागल न कहा जाए तो और क्या? यह बेहूदी दुनिया तो काम को न देख के बातों को ही ज्यादा पसन्द करती और उसी में भूल जाती है। कमाने वाली जनता भी कभी-कभी अपनी अपार शक्ति को महसूस करती है, याद करती है। उस समय उसके ऊपर से उन लोगों का जादू उतर जाता है, या यों कहिए कि वह उन लोगों का जादू उतार फेंकती है जो धर्म तथा विवेक के नाम पर, भाग्य और भगवान के नाम पर 'कर्म में वदा' और पूर्व जन्म की कमाई के नाम पर, सन्तोष के नाम पर, 'गरीबी से रहोगे तो बैकुण्ठ और स्वर्ग मिलेगा' इस प्रकार की स्वर्ग की मोहनी के नाम पर, 'जो इस जन्म में तकलीफ भोगेगा उसे अगले जन्म में आराम मिलेगा' इस प्रकार के खयाली और दिमागी भविष्य के नाम पर, उसे आगे बढ़ाने से रोकते और भ्रम में डाल रखते हैं। किसान-मजदूर अपने आप को सँभाल लेते हैं और 'आपन तेज सँभारो आपै। तीनों लोक हाँक से काँपै,' को सोलहों आना चरितार्थ करते हैं। वह उनकी छाती पर चढ़कर खून पीने वालों को न सिर्फ चढ़ाने से इनकार करते हैं, प्रत्युत यदि वे चढ़ना चाहें तो दूर से ही बेलाग झटकार देते हैं। यदि पहले से ही चढ़े हों तो हाथी की ही तरह या पकी जामुन की तरह झोरझार के नीचे पड़पड़ा देते हैं। तब संसार में आतंक छा जाता है और चारों ओर थर्राहट मच जाती है। शेष भगवान ने करवट जो बदली। फिर किसकी खैरियत? महारुद्र का तांडव नृत्य जो शुरू हो गया। फिर तो 'मही पादाघाताद्रव्रजति सहसासंशय पद्म' कहीं जमीन पीपल के पत्तों की तरह काँपती है, तो कहीं आसमान के तारे टूट-टूट के पके फल की तरह गिरने लगते हैं। कहीं चाँद और सूरज गेंद की तरह कहाँ से कहाँ जा पड़ते हैं, तो कहीं समुद्र में उत्ताल तरंगें उठने लगती हैं। कहीं आकाश अब गिरा तब गिरा मालूम पड़ता है। फिर तो शासक, शोषक और उनके दलाल कहने लगते हैं, बदअमनी हो गई। लोग पगला गए। अराजकता और अशान्ति फैल गई। बड़ी-बड़ी पोथियाँ इस समूचे वर्णन में तैयार की जाती हैं, और उनमें किसान मजदूरों को पागल 'मतवाला' की उपाधि दी जाती है। इसे ही प्रचलित भाषा में क्रान्ति के नाम से पुकारा जाताहै। असल में कमाने वालों, किसानों और मजदूरों ने भी हाथी से ही सबक सीखा और अन्त में थक-थका के माना कि 'कह सुनाऊँ' बेकार है। 'कर दिखाऊँ' ही ठीक है। उन्होंने अपनी समझ और अक्ल की बदहजमी विवेक का अजीर्ण मिटा दिया और खून पीनेवालों को छाती पर से उठा पटका। सैकड़ों, हजारों वर्षों तक प्रार्थना और अर्जी भेजते रहे। हम सरकार के फर्माबरदार और आज्ञापालक हैं, आपके चरणों की धूलि हैं, हम पर दया दृष्टि हो, हम दीन-हीन हैं, हुजूर की जय हो आदि आदि कहते जब जबान थक गई। गर्म स्पीच देते-देते और प्रस्ताव पास करते-करते जब बेहया हो गए। तब कहीं उन्हें सूझा कि 'भोंदू भाव न जानें, पेट भरे से काम' ही ठीक है। यही मन्त्र जपना चाहिए। उन्होंने यह भी बखूबी जान लिया कि सभी देवता एक-से नहीं होते कि सभी पर पुष्प, अक्षत आदि ही चढ़ाया जाए, सभी को झुक के प्रणाम ही किया जाए। कुछ ऐसे भी होते हैं। जिन्हें ढेले और ईंटों से मारें, तभी मतलब सिद्ध होता है, मनोकामना पूरी होती है। उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि प्रणाम और फूल माला से, झुकने से, नाखुश होते हैं और काम बिगड़ जाता है। जब उन पर सख्त चोटें पड़ती हैं तभी चोट करने वाले का काम बनता है। सारांश कुछ देवता, कुछ लोग तो इस दुनिया में सिर्फ लत्ती होते हैं। जो लात से सीधे होते और मानते हैं। हाँ कुछ बत्ती भी होते हैं, जो बात से मानते हैं इसलिए 'सब धन सोलहे पसेरी' के भाव से तौलना ठीक नहीं। कहते हैं कि फकीर बुल्लाशाह के गुरु ने उन्हें चलते चलाते यह उपदेश दिया कि अक्ल छाँटने और बहुत बनने से ही, भला कहाने का खयाल होने से ही, सारी तकलीफें होती हैं। अगर समझदारी का अजीर्ण मिटाके हम कुछ भी बनना छोड़ दें तो आराम होता है। बुल्लाशाह चले गए और एक मस्जिद में जा बैठे। जब मुसलमान नमाज पढ़ने आए तो उन्हें चुपचाप बैठा देख पूछने लगे कि तुम कौन हो? उन्होंने कहा 'मैं मुसलमान हूँ' मुसलमानों ने सोचा कि यह भी नमाज पढ़ेगा। मगर जब वक्त बीत गया और वह बैठे ही रहे तो मारपीट के उस मस्जिद से निकाल दिया कि यह तो कोई काफिर है। बुल्ला ने गुरुजी के पास पहुँच के शिकायत की कि मैं तो आज पिट गया, हालाँकि कुछ बना-वना नहीं। जब उन्होंने सारी घटना पूछी और बात जान ली, तो कह दिया कि आखिर मुसलमान तो बना ही अक्लमन्दी तो दिखाई ही। फिर पिट गया तो ठीक ही हुआ। बुल्ला को अब अक्ल आई और फिर उसी मस्जिद में ठीक वैसे ही जा बैठे। जब फिर नमाजी लोग आए और उन्हें देखा तो कहने लगे यह वही आदमी फिर आया। कइयों ने पूछा कि आखिर तू है कौन जो बराबर आता है और मार खाता है। मगर बुल्ला चुपचाप रहे। हजार पूछताछ हुई। मगर ऊँ-ऊँ के सिवाय कुछ न कहा। अन्त में मुसलमान लोगों ने कहा कि कोई पागल है, जाने दीजिए। इसे छेड़िए मत। किसी-किसी ने चलते-चलाते कुछ खिला-पिला भी दिया। जब बुल्ला पुनरपि गुरुजी के पास गए और उन्होंने अब की बार खैरियत पूछी, तो सब सुना के बोले कि आपका ही कहना ठीक है। कभी-कभी अक्ल और समझ को कतई भूल जाना ही सबसे बड़ी बुद्धिमानी होती है। ठीक इसी सिद्धान्त के अनुसार कभी-कभी जब विवेक, समझ और अक्ल को सोलहों आना ताक पर रख देने की सबसे बड़ी बुद्धिमानी किसान और मजदूर करते हैं तभी उनका उद्धार होता है, उनका सनातन शोषण बन्द होता है; उनकी निर्दयतापूर्ण लूट खत्म होती है। उनका हृदयहीन उत्पीड़न नेस्तनाबूद हो जाता है, वास्तविक आजादी की दुनिया में, सच्ची स्वतन्त्रता की हवा में, वे खुल के साँस लेते हैं और उनकी छाती हलकी हो जाती है। इसे ही इनकिलाब और क्रान्ति कहते हैं। मगर जिनका स्वार्थ इसमें सधाता नहीं, वरन चौपट होता है वह और उनके साथी इसे अशान्ति, खून खतरा वगैरह न जाने क्या-क्या नाम दे डालते हैं। अपना-अपना स्वार्थ ही तो ठहरा। वह तो जरूर उन किसानों को मतवाला और पागल कहेंगे। विवेक भ्रष्ट कहेंगे। मगर आइए जरा सोचें कि बात असल में है क्या? हमने हाथी से ही शुरू किया था। इसलिए पहले उसी का विचार करें। वह भी तो कभी सीधा और भला, तो कभी मतवाला और पागल कहा जाता है। मेरी समझ में तो यह उलटी दुनिया की विपरीत बात है। मैं तो मानता हूँ कि जिस हाथी को सीधा और भला कहते हैं वही पागल है, तवाला है और जिसे मतवाला और पागल कहते हैं, वही सीधा और भला है, अक्लवाला और समझदार है। इसका कारण भी सुनिए। पागल उसे कहते हैं जो समझदारी से काम न करे, जो ऐसा काम करे जिसे सभी विचारशील उलटा समझें। मान लीजिए कि एक आदमी खूब जबर्दस्त पहलवान है, जैसा कि गुलाम नामक पहलवान को कहा जाता है। जो उस गुलाम पहलवान की छाती पर चढ़े या उसे पटकना चाहे उसे यदि वह पास फटकने भी न दे तभी तो कहेंगे कि वह ठीक है और अपना काम ठीक करता है। मगर अगर मामूली लोग भी ताल ठोंक के उसकी मर्जी के खिलाफ उस पर चढ़ जाएँ, या उसे पछाड़ दें उसे क्या कहेंगे? यही न कि उसे सारी कुश्ती भूल गई,उसकी सारी दाँव-पेंच विस्मृत हो गई, उसका दिमाग ठीक नहीं है? और आखिर पागल कहते हैं और किसे? यदि कोई बड़ा सा प्रखर विद्वान किसी मामूली पढ़े-लिखे विद्यार्थी के सामने पाण्डित्य में बराबर हार जाए तो सभी उसे नालायक, सनकी और बेवकूफ कहेंगे और आश्चर्य करेंगे कि यह क्या हो गया? इसकी सारी बुद्धि कहाँ चली गई? यही पागल का लक्षण है। अब जरा हाथी को देखिए। उसके आकार और बल के बारे में तो कह ही चुके हैं कि दुनिया में उसका मुकाबला करने वाला कोई है ही नहीं। मगर वही हाथी पीलवान के छोटे से लड़के की डाँट-डपट पर थरथर काँपता है और जैसा वह चाहता है वैसा ही रुकता, चलता, घूमता और बैठता है। यह तो हुआ ऐसा ही कि राई की हाँक से पहाड़ काँपे। मच्छर की आवाज से बाघ की थर्राहट में और इसमें क्या फर्क है? ऐसी दशा में क्या वह बात अक्ल में आने की है कि हाथी का होश हवास दुरुस्त है? उसके दिल दिमाग पर कोई गड़बड़ी नहीं है? उसमें कोई फितूर नहीं पैदा हुआ है? यह तो रोज की ऑंखों देखी बात है। इसी से हम मान लेते हैं और ऐसा समझते हैं कि गोया कोई नायाब और आश्चर्यजनक बात होती ही नहीं। मगर हमारी नजरों के सामने से अगर कभी हाथी गुजरता नहीं या अगर गुजरता भी तो उस पर किसी को सवार नहीं देखते फिर कोई कितना ही विश्वास वाला आदमी आ के हमसे कहता कि महज एक लड़का हाथी पर सवार था और वह जिधार जैसे चाहता था उसे घुमाता था, तो या तो हम इस बात को असम्भव मिथ्या मानते या बहुत होता तो यही कह के सन्तोष करते कि वह आदमी न होगा। उसी के आकार का कोई देवता या शैतान होगा। इसीलिए मान लेना ही होगा कि जिसे हम सीधा और समझदार हाथी कहते हैं, वह असल में पागल और नासमझ है। मगर जिसे पागल कहते हैं वही असल में समझदार है। क्योंकि उसने अपनी ताकत को समझा और याद किया है, ठीक गुलाम पहलवान की तरह। अतएव मजाल नहीं कि कोई उसके पास में फटके भी। इसी प्रकार जब नब्बे और पचानबे प्रतिशत कमानेवाले किसान लोग, किसान और मजदूर, जिनकी अप्रतिम शक्ति का वर्णन पहले ही कर चुके हैं, हिजड़ों और नपुंसकों से, दस कदम भी पैदल चलने पर हाँफने वालों से,किसान की कड़ी आवाज पर ही जिनका माथा चकराने लगे ऐसे लोगों से, जिनके हाथ जैसे लकवा वाले हों ऐसों से, जो अपने लिए पैसे-भर दूध या छटाँक-भर गेहूँ न पैदा कर सकें ऐसे अमीरों से, मुफ्तखोरों से पनाह माँगते और काँपते हैं,जब उनके सामने दाँत निपोरते हैं, हालाँकि उनके दाँत और जबानें खींच लेने की शक्ति अपनी भुजाओं में रखते हैं, जब उनके तमाचे और लात-जूते भी बर्दाश्त करते और माँ-बाप कह के दोहाई देते हैं, हालाँकि उनके हाथों और पाँवों को जड़ से ही उखाड़ फेंकने का सामर्थ्य रखते हैं तो उन्हें मतवाला और पागल न मानें तो और मानें क्या? कौन ऐसा दुरुस्त दिमाग वाला होगा जो उन्हें समझदार और अक्ल वाला कहने की हिम्मत इतने विचार के बाद भी करेगा? आखिर पागलों को सींग-पूँछ तो जम जाती नहीं है। वह कहीं आसमान से तो आ टपकते नहीं हैं। विचार कर देखें तो दूसरे पागलों से ये किसान कहीं ज्यादा पागल हैं। मगर जब अपनी वह अपार शक्ति याद कर के तांडव नृत्य करने लगते हैं ठीक महारुद्र की तरह तब? जब उनके भय से ब्रह्माण्ड काँपता है और शोषकों की अँतड़ी ढीली हो जाती है तब? तभी तो वह ठीक समझदार बनते हैं। तब वह जो काम करते हैं वह किसी को अच्छा भले ही न लगे। मगर वही तो समझ में आता है। वही तो स्वाभाविक और उचित जान पड़ता है, यदि खूब गौर करके देखें। इससे हम इसी निष्कर्ष पर खामख्वाह पहुँच जाते हैं कि जैसे हाथी का डरना गलत और बेबुनियाद है केवल उसकी नासमझी और पागलपन के कारण ही है। सिर्फ उसकी आत्म विस्मृति के चलते ही वैसा होता है। ठीक वैसे ही किसान का डर बेबुनियाद है। वह इसकी भारी भूल है। वह अपने आप को और अपनी सामूहिक शक्ति को, अपनी अपार महिमा को भूलकर ही ऐसा करता है। यह उसका पागलपन है। दूसरा कुछ नहीं। जिस प्रकार हाथी अपनी ताकत और अपना स्वरूप कभी-कभी पहचान के आजाद होता है और डरना छोड़ता है। ठीक किसान को भी वैसा ही करना चाहिए, वैसा करना होगा, करना पड़ता है। अन्तर सिर्फ इतना ही है कि हाथी को उसकी शक्ति की याद दिलाने वाला कोई सामान तो है नहीं। कभी-कभी दैवात उसे अपनी ताकत याद आ जाती है। मगर किसान को तो अब ऐसे सामान मिल गए हैं और जमाना ऐसा बदल गया है कि एक बार याद करके फिर अपने उस महान प्रभाव को न कभी भूलना होगा और न किसी से डरना होगा। चोरी से, बदमाशी से, डकैती से, गुनाह से, पाप से डरें तो समझ में आता है। उनसे डरना चाहिए भी। साँप, बिच्छू, कुत्ते, चीते, शेरादि से डरें तो भी यह एक बात है। क्योंकि उनके पास फौरन डँसने, काटने या मार डालने की ताकत है। मगर जमींदार, साहूकार, हाकिम हुक्काम से क्यों डरें? क्या वे भी खूँखार जानवर हैं कि उनके लिए कोई नियम और कानून नहीं है? साँप वगैरह पर न तो जाब्ता फौजदारी लागू है और न दण्ड विधन की और धाराएँ ही। मगर जमींदार वगैरह पर तो वही नियम कानून लागू हैं जो किसानों पर। फिर डरने की क्या बात? यह ठीक है कि वे लोग बन्दर घुड़की जरूर दिखाते हैं। अगर उसी में किसान आ गए तो चलो ठीक। मगर उस घुड़की की परवाह न की तो सारी आई बाई हजम ही समझिए। आखिर जमींदारों, उनके मददगारों को और पूँजीवालों को भी अपना कुकर्म और जोर जुल्म, अपना अत्याचार तो बराबर याद रखता ही है। वह तो बखूबी समझते हैं कि उनकी खैरियत तभी तक है जब तक किसान जग जाते नहीं, जब तक अपनी शक्ति को भलीभाँति समझ पूर्ण संगठन के द्वारा उसे काम में लाना सीख लेते नहीं। उन्होंने गत डेढ़ वर्षों के भीतर जो धाँधली और जुल्म किए हैं, जो मनमानी घरजानी की है और जिसका साक्षी इतिहास है, सर्वे के कागजात हैं जो अंग्रेज अफसरों के हाथों बहुत छानबीन के बाद लिखे गए हैं, उन्हीं अंग्रेजों के हाथों जो पहले और आज भी अच्छे से अच्छे पदों पर रह चुके हैं, उन्हीं पापों से उनकी तो आत्मा ही काँपती है। क्योंकि वे पद पद पर याद आते रहते हैं। फिर उन्हीं से डरना। एक तो बकरी, दूसरे जुलाहे की। फिर वह भी डरवायें। उससे भी हम डरें। किमाश्चर्यत: परम्। जिस प्रकार आत्मविस्मृति किसानों के अकारण भयभीत होने का एक जबर्दस्त कारण हमने अभी-अभी बताया है ठीक उसी प्रकार आत्मरक्षा की विस्मृति, या यों कहिए कि आत्मरक्षा के लिए जो हरेक को प्राकृतिक, नैतिक और कानूनी हक है उसके न जानने या भूल जाने से भी किसान सभी से डरने लगा है। प्रकृति ने जो हाथ-पाँव, नाखून, कान, ऑंखें सब को दी हैं उनका तो प्रयोजन ही यही है कि ठीक-ठीक चीज को समझें, खतरे को देखें-सुनें तथा पहचानें और उससे भाग कर बचें या उसका मुकाबला करें। साँप,बिच्छू या दूसरे जानवरों के सम्बन्ध में हम सदा ऐसा करते हैं। चोर-बदमाश या इस तरह के लोगों से भी अपनी जान और अपने माल को बचाते हैं। यदि नीति को देखें तो भी 'शठे शाठयं समाचरेत' 'जैसे को तैसे मिले' के अनुसार लाठी का जवाब लाठी से ही देना चाहिए। जो जिस प्रकार पेश आए उसके साथ वैसा ही सलूक करें। यह नहीं कि लाठी और जूते से यों ही बिना वजह के कोई पीटने लगे। मगर हम या तो उसके सामने हाथ जोड़ें या भाग के जैसे-तैसे जान बचावें। खतरे के सामने से भाग जाना तो हिजड़े और नामर्द का काम है। जब तक खतरा न आए और उसका सामना न हो तभी तक उससे बचने की कोशिश होनी चाहिए। मगर जब आ गया तब तो डट के मुकाबला ही करना चाहिए। यही बात पुराने लोगों ने इस तरह कह डाली है, तावभयस्य भेतव्यं यावभय मनागतम्। आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रतिकुर्याद्यथोचितम्॥ भागने से भी तो जान छूटेगी नहीं, जब तक सतानेवाले से बहुत दूर न चले जाएँ। बाघ के सामने से भागें तो आसानी से पकड़कर लाद तो निकाल लेगा। लेकिन यदि आमने-सामने डट जाएँ तो उसकी हिम्मत नहीं होती कि हमला करे। ऐसा ही देखा गया है। कानून भी ऐसा ही कहता है। यदि दण्ड विधन और जब्ता फौजदारी की 99 से लेकर 105, 106 धाराओं तक को देखें तो उनमें बहुत बातें मिलती हैं। वहाँ यह लिखा गया है कि किन-किन हालतों में हम हथियार उठा सकते हैं और शत्रु पर वार कर सकते हैं। अपने शरीर, अपने माल-असबाव, अपनी घर-गिरस्ती और अपने बाल-बच्चों की हिफाजत के लिए और माताओं-बहनों तथा स्त्रियों की इज्जत बचाने के लिए हमें बल प्रयोग करने का पूरा हक कानून में बताया गया है। स्त्री के साथ कोई बलात्कार करता हो या करने पर तुला हो और किसी प्रकार न माने तो वह स्त्री खुद या उसके रक्षक उस आततायी की जितनी भी बने खिदमत कर सकते हैं, अगर कोई और रास्ता उससे बचने का न हो। यदि ऐसा अधिकार नहीं होता तो क्या जालिमों और लुटेरों से कोई भी बच सकता? पुलिस कहाँ-कहाँ जाएगी और किसे बचाएगी यदि सभी नपुंसक और नामर्द बनें और अपनी रक्षा खुद करने को तैयार न हों। प्राय: दो-तीन साल पहले चोरी की शक में एक चौकीदार को रावलपिण्डी में पुलिस ने पकड़ा। फिर उससे अपराध स्वीकार करवाने के लिए उसे हद से ज्यादा मारा पीटा और नाकोंदम कर दी। फलत: ऊबकर मौका देख के एक चाकू से एक पुलिसवाले का तो पेट ही फाड़ डाला जो सौभाग्य से ही बच गया। मगर दूसरा तो, जहाँ तक याद है, मर ही गया। बाद में उस पर खून का केस चला और नीचे की अदालत ने फाँसी की सजा भी दे दी। मगर लाहौर हाईकोर्ट ने यही कहके उसे छोड़ दिया कि उसके पास कोई चारा न था। उस पर इतनी ज्यादती की गई थी कि उसने आत्मरक्षार्थ ही, चाकू चलाया था। ऐसे ही और भी केस हुए हैं। हमें सख्त अफसोस यह है कि किसान अपने इस कानूनी हक को जानता ही नहीं। लेकिन वह चौकीदार भी तो नहीं जानता था। मगर जब ऊबकर उसने वैसा किया तो उसी कानून ने उसकी जान बचाई। आप लोगों को यह बात मालूम नहीं है। देहातों में कानून की इन बातों का प्रचार किया गया है नहीं। सरकार ने ही यह कानून बनाया है उसी का काम था इसका खूब प्रचार करना। मगर उसने तो किया नहीं। शायद उसे गर्ज भी नहीं। वह अपनी हो तब न? वह तो विदेशी है। अगर स्वदेशी भी हो, तो पराये की, जमींदार-मालदारों की, होने पर वह भी क्यों प्रचार करेगी? यह तो काम असल में उस सरकार का है और वही ठीक-ठीक कर भी सकती है, जो किसानों और मजदूरों की, आम जनता की, सरकार हो। जमींदार वगैरह भी क्यों इसका प्रचार करके अपने लिए बला पैदा करें? यदि किसान जानकार हो जाएगा, तो मारपीट रुक जाएगी। वह तो फौरन उठेगा। फिर किसकी हिम्मत कि ज्यादती करे। अब बचे नेता और कार्यकर्ता लोग, जो आजादी के लिए लड़ते हैं और कहते हैं कि किसानों को स्वराज्य दिलाएँगे, मुक्ति दिलाएँगे। उनका काम है कि गुलामी से और विदेशी शासन से तो पीछे मुक्ति दिलाते। पहले इस आएदिन के जुल्मों से तो मुक्ति दिलाते, इन मारपीटों और बेइज्जतियों से तो बचाते। मगर वह लोग तो शान्ति और अहिंसा की बला में फँस गए हैं उन्हें तो इस बात में बिलकुल हिंसा और अशान्ति दीखती हैं कि किसान बिगड़े दिल-दिमाग वाले जमींदारों, उनके बिगड़ैल अमलों और गुण्डों से अपनी और बाल बच्चों की रक्षा में लाठी और डण्डे से हड़कम्प मचाते रहें। मगर उसमें तो हिंसा उन्हें नजर आती नहीं। सारी की सारी हिंसा तो किसान के द्वारा चलाई गई आत्मरक्षार्थ लाठी में ही है। फोड़े और भीतरी घाव से घुल-घुल के मरीज मर जाए, तो हिंसा नहीं। मगर जर्राह और सर्जन, डॉक्टर और वैद्य, यदि नस्तर लगा के फोड़ों को अच्छा करना और मरीज को बचाना चाहें,तो इसमें भारी हिंसा है। क्योंकि खून जो बहता है। इस अहिंसा से खुदा ही खैर करे। न जाने यह बला हमारे सिर क्यों लगी? मगर किसान का तो फर्ज है और पवित्र कर्तव्य है, सबसे पहला काम है कि आत्मरक्षा का यह पाठ पढ़े और अपने बाल-बच्चों, सगे-सम्बन्धियों, पड़ोसियों और दूसरे किसान को भी अच्छी तरह पढ़ाए। इसके बिना कार्य चलने का नहीं। यही पाठ न पढ़ने और यही बात न जानने का आज यह नतीजा है कि सबकुछ होते हुए भी और अपनी बखूबी हिफाजत करने की सब ताकत के रखते हुए भी वह भीगी बिल्ली बन गया है। इस प्रकार बदमाशों के सामने काँप कर जुल्म के लिए उनकी हिम्मत और भी बढ़ती है। अपनी और अपनों की रक्षा कर सकता ही नहीं। असल में इस मन्त्र के और पाठ के पढ़ने की ही देर है। ज्यों ही किसान समुदाय ने इसे अच्छी तरह कंठस्थ कर जपना और इस पर अमल करना शुरू किया कि मनचले जमींदारों और उनके लाड़लों की आई बाई ही हजम हो जाएगी। वे लोग तकुवे की तरह सीधे हो जाएँगे जो आज बिना ऐंठे चल ही नहीं सकते। फिर तो डर का कारण ही खत्म हो जाएगा। मुझे हजारों ऐसे मौके मिले हैं जब किसानों का; जिनमें हलवाहे-चरवाहे आदि भी शामिल हैं, बड़ा सा दल काँपता हुआ मिला है और बेहोशी की-सी हालत में मारपीट और लूटपाट की दर्दनाक दास्तान उन्होंने मुझे सुनाई है। जमींदार के एक या दो, मुश्टण्ड नौकर लाठी लेकर गाँव में घुसे कि किसानों में, खासकर तथाकथित 'रैयान' और 'छोटी कौमों' में हड़कम्प मच गई, और या तो दरवाजा बन्द करके घर में जा घुसे या अगर दरवाजे में किवाड़ नहीं है, और कितने घरों में यह होता ही है, तो जान लेकर भाग निकले। फिर तो उन लठैतों की बन आई और जो चाहा किया। किसी की लोटा-थाली उठा ली, किसी का बकरी-बकरा ले लिया, किसी के छप्पर से कद्दू-कोहड़ा तोड़ लिया, यहाँ तक कि कभी-कभी कोई जवान स्त्री भी मिल गई तो उसकी इज्जत भी उतार ली और बेखटके चलते बने। यदि किसी ने रोक-टोक की तो उसकी मरम्मत भी बखूबी कर दी। यह नाटक या कहानी नहीं है। यह तो बिहार में और दूसरी जगह भी बराबर होता रहा है और अभी-अभी किसान सभा के चलते बन्द हो गया है। फिर भी कहीं-कहीं कभी-कभी चलता ही है। आखिर इस गुण्डाराज और नादिरशाही का जवाब सिवा किसान के संगठित डंडे और लाठी के और हो ही क्या सकता है? देहात में डंडे को दुखहरन कहते हैं और उसका नाम उसी प्रकार सार्थक हो सकता है। हमने ऐसा ही किया-करवाया है उसका एक दृष्टान्त भी दिए देते हैं। गया जिले के बेला थाने में एक घटना कुछ दिन पहले खास बेला में ही हुई। नयामतपुर में किसान सभा का आफिस तथा आश्रम है। और श्री यदुनन्दन शर्मा का केन्द्र है। वह बेला से निकट ही है। जब वहाँ के कोइरी लोगों ने मुफ्त में शाक, तरकारी वगैरह अमावां टेकारी राज्य के अमलों को देना बन्द कर दिया तो उनमें बेचैनी हुई। जमींदार की कचहरी भी वहीं ठहरी। बराबर मुफ्त शाक-तरकारी उनके अमले खाते थे। उनका एक खास दल ही वहाँ प्लेग के कीटाणुओं की तरह रहता है। कुछ लठैत भी समय-समय पर किसानों की 'सेवा' के लिए रखे जाते हैं। सभी के सभी गुस्से से लाल थे। फिर धमकी दी गई कि अच्छा तो हम तुम्हारी किसान सभा की गर्मी उतारेंगे। कल इसका पता चलेगा। बेचारे कोइरी शर्मा जी के पास दौड़े गए। सब बातें उन्हें सुना दीं। उन्होंने राय दी कि घबड़ाने की बात नहीं। डरने से ही तो काम खराब होता है, हिम्मत से डटे रहो। साथ ही, कल घर से बाहर कोई न जाए। सभी घर में बन्द रहें, दरवाजे की किवाड़ भी मजबूत रहें। वे कुछ-कुछ खुले-से रहें। एकाध मजबूत रस्सी भी पास में रहे। दरवाजे के पास ही सभी बैठे भी रहें। ज्यों ही लठैत पहले की तरह घर में घुसने, मारपीट करने तथा स्त्रियों को बेइज्जत करने की कोशिश करें त्यों ही सब सजग हो जाएँ और ज्यों ही उनमें एक घर में घुसे तो फौरन कई आदमी एक ओर से कस के पकड़ें और दूसरी ओर भीतर से किवाड़ कस के बन्द कर दिया जाए, जिसमें दूसरे घुस न सकें। इसके बाद उसी मजबूत रस्सी से उसे बॉंध के खूब पीटना और दुरुस्त करना, पीछे बँधा ही छोड़ के अलग हो जाना और थाने में खबर देना कि ऐसी बात है। किसानों ने हूबहू ऐसा ही किया। वे पूरी तैयारी के साथ बराबर बैठे रहे। जब गाली-गलौज करते मस्ती के साथ एक के बाद दीगरे वे गुण्डे उधर चले तो उन्होंने खबर देने वालों के द्वारा पहले ही यह जान लिया। फिर तो कमर बन्द होके डँट गए। ज्यों ही घर में एक हजरत घुसे कि एक ने चट किवाड़ खूब कस के भीतर से बन्द कर दिया और बाकियों ने उन्हें पछाड़ा। फिर कस के मुसुक चढ़ा दी और हाथ-पाँव मजबूती से बॉंध दिया। उधर बाहर से और गुण्डे दरवाजे का किवाड़ पीटते थे। इधर ये लोग आगत अतिथि महाशय की भरपूर खिदमत कर रहे थे। इधर इनका काम पूरा हुआ। उधर पीटने वाले डर से भाग गए। क्योंकि दाल में काला मालूम हुआ। अतिथि महाराज तो अशक्त ऑंख मूँदे पड़े थे। बाद में उन किसानों की एक औरत थाने में गई। वहाँ उसने पुलिस को सारी दास्तान सुनाई। यह भी कहा कि उसे बॉंध रखा है। नहीं तो बेइज्जत भी करता। पुलिस दौड़ी गई और उसी रस्सी में बँधे-बँधाये हजरत को थाने लाया गया। उसके बाद कानून के अनुसार सारी कार्यवाही की गई और अन्त में शायद कुछ समय के लिए वह सरकार के भी अतिथि बनके श्रीकृष्ण जन्मस्थान को अलंकृत करते रहे। तब कहीं उन्हें छुट्टी मिली। लेकिन उसका यह फल तो हो ही गया कि आगे के लिए उस जमींदार और जमींदारों के लाड़ले ने यह हरकत बन्द ही कर दी, जिन्हें इसका पता लग सका। इस प्रकार दो ही चार किसानों की हिम्मत और निर्भयता ने उन्हें और दूसरों को सदा के लिए इस जुल्म से बचा दिया। किसानों के दिल-दिमाग पर भय और आतंक का जो राज्य छाया रहता है और अपनी रक्षा का यह अधिकार जो वह नहीं जानते उसी से यह सबकुछ होता है। फलत: जरा एक बार दबे कि फिर बराबर दबते ही चले जाते हैं। उनकी यह दशा मेरी ऑंखों के सामने नाचती है। क्योंकि इस ढंग से उन्होंने उस भय का समय-समय पर वर्णन किया है कि वह भूलता नहीं। डर से चेहरा उड़ा हुआ और कोई सुधा-बुधा नहीं, ऐसे किसानों ने आके बड़ी बेचैनी और घबराहट में, जैसे किसी बाघ ने उनका पीछा किया हो। मुझसे हाथ जोड़ कर प्राय: कहा है कि 'सरकार, लुट गए, मिट गए, हाय, हाय, मालिक के अमलों ने नाश कर दिया। भाग के जान बचाई, किसी प्रकार। वह बड़ा जबरदस्त है, बड़ा जबरदस्त है' आदि। मैंने जब पूछा कि आखिर बात भी तो कहो कि क्या है, तो फिर वही अन्तवाला वाक्य दुहरा दिया कि 'बड़ा जबरदस्त है'। मैंने पूछा के बाघ है? सिंह है? भालू है? हाथी है? कुत्ता है? अजगर है? आखिर वह क्या है कि यह बेचैनी? मगर फिर भी वही रट,कि बड़ा जबरदस्त है, बड़ा जबरदस्त है। इसे ही आतंक राज्य कहते हैं और जिस अमन और कानून का इतना ढिंढोरा आज पीटा जा रहा है उसी की ऑंखों के नीचे यह आतंक राज्य। असल में सन् 1793 ई. की 22 वीं मार्च को लार्ड कार्नवालिश ने जब जमींदारी को जन्म दिया तो उसके बाद ही यह आतंक राज्य कानून के ही रूप में शुरू हुआ। सन् 1805 ई. जो खासतौर से 5 वाँ फतवा या रेगुलेशन सरकार ने जारी किया और जिसे हाईकोर्ट के न्यायाधीश श्री फिल्ड महोदय ने 'खूँखार पंजुम' (Notorius Panjum) नाम दिया है, उसी ने तो जमींदारों को यह अधिकार दे दिया था कि उनके मामूली अमले भी लगान बाकी रहने पर बिना अदालत गए ही या कोई सरकारी हुक्मनामा हासिल किए ही किसानों के जनाने घरों तक वे भीतर घुस सकते हैं। उस सिलसिले में वे आसानी से आतंक पैदा कर सकते थे। सिर्फ गल्ला और सामान का पता लगाने के बहाने। किसी पड़ोसी के द्वार पर अन्न या पशु हो और यदि कोई कह दे कि यह उसी किसान की चीजें हैं जिसका लगान बाकी है, तो वे चीजें बेखटके जब्त कर लेने का भी उन अमलों को अधिकार दिया गया था। फिर तो वे खूब ही खुल के खेलते रहे। वही होली आज तक जारी है। हाँ, अब किसान सभा ने उसे बहुत कुछ खत्म किया है। आज तो कानून बदला है सही अब वैसा करने का हक भी किसी को नहीं है, यहाँ तक कि हाकिम भी अपने मन से वैसा नहीं कर सकता। मगर बहुत दिनों तक चालू रहने के बाद वह बन्द थोड़े ही हो सकता था। इसलिए तो सूरदास ने कहा है 'जाकी जैसी टेव परीरी। सो तो टेरे जीव के पीछे'। मगर, आखिर में जब मैंने उन्हें ढाढस दिया और समझाया कि जैसा कानून तुम्हारे लिए है वैसा ही उनके लिए भी है। हाँ, यदि वे बाघ, हाथी वगैरह होते तो बात दूसरी थी। मगर सो तो है नहीं। इसलिए तुम भी उनका मुकाबला लाठी और डण्डे आदि से डट के कर सकते हो। तब कहीं उनकी ऑंखें खुलीं। फिर तो उनने पूछा कि ऐं हम भी लाठी और डण्डे से उनका सामना कर सकते हैं? सच? मैंने कहा कि जरूर-जरूर। ऐसा करने का तुम्हें कानूनी हक है। किसी को भी किसी दूसरे के घर में घुसने, उसका सामान, या शरीर छूने और मार-पीट वगैरह का हक नहीं है। कानून ही ऐसा कहता है। अगर उसे कुछ भी करना है और वह जायज है, तो कचहरी और पुलिस के पास सिर्फ कानूनी कार्यवाही करने का उसे हक है। घर में घुसने या ऐसा काम करने पर उसे कानून ही दण्ड देता है। कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को भी नहीं है। ऐसा करनेवाले चोर, बदमाश, डाकू हैं। बल्कि उनसे भी खराब हैं। क्योंकि वे लोग जानबूझकर शरारत से ही कानून को तोड़ते हैं। इसलिए उनके साथ वैसा ही सलूक करना चाहिए जैसा चोर-बदमाशों के साथ। मैंने उनसे पूछा, अगर चोर घर में घुसें या मारें, पीटें तो पहले मेरे पास आओगे? पुलिस के पास जाओगे? या कि पहले यथाशक्ति लाठी-डण्डे आदि से उनके साथ निपट के पीछे पुलिस के पास जाओगे? उन्होंने उत्तर दिया कि नहीं पहले तो सारी शक्ति लगा के उनसे खूब निपटेंगे। पीछे पुलिस के पास जाएँगे। यदि जरूरत समझी तो। 'लाठी-डण्डे वगैरह लेकर उनसे निपटने पर क्या कोई आदमी या पुलिस वाला तुम्हें अपराधी बताएगा, या बुरा कहेगा क्या?' मैंने फिर पूछा। उत्तर मिला कि हरगिज नहीं। सभी तारीफ करेंगे। बल्कि कभी-कभी इनाम भी मिलेगा। यदि चोरों को पकड़ लिया तो। हाँ ऐसा न करने पर ही और डर से भाग जाने पर ही सभी लोग, पुलिस भी, धिक्कारते और बुरा कहते हैं। मैंने कहा कि बस, इन गुण्डों और लठैतों या अमलों के सम्बन्ध में भी ठीक यही समझो। जरा भी उसमें फर्क नहीं है। इस बातचीत ने उनके दिल और दिमाग पर का पर्दा हटा दिया। पहले जहाँ वे लोग घोर अन्धकार में पड़े थे वहाँ अब उन्हें पूरा प्रकाश मिल गया। उनमें अपार बल आ गया। कहने लगे कि अब तो हम उन्हें दुरुस्त ही कर देंगे और सदा के लिए उनकी आदत ही छुड़ा देंगे। हम तो जानते थे कि हमें उनसे भिड़ने और उन्हें पछाड़ने का कोई कानूनी हक है नहीं। हम तो समझ बैठे थे कि वे तो हमारे घरों में घुस के सबकुछ कर सकते हैं। मगर हम चूँ भी नहीं कर सकते असल में हम अन्धेरे में थे इसी से अपने को असहाय और कमजोर समझते थे। अब तो हमने देख लिया और हम में बल आ गया। बल तो पहले भी था। पर भूल के चलते बेकार हो गया था। अब भूल मिट गई। अब वह बल मौके पर पूरा काम आएगा। इस प्रकार इधर हमारी बातचीत हो रही थी। उधार जमींदारों के खुफिया भी सुनते थे। उन्होंने जा के सभी बातों की रिपोर्ट की। फिर तो जिन-जिन ने सुना उनके होश फाख्ता हो गए और उनने कसम खा ली कि अब ऐसा कभी न करेंगे। नहीं तो खैरियत नहीं। इस तरह किसानों को कुछ करना ही न पड़ा। सिर्फ निश्चय करते ही वे इतने सबल बन गए कि शत्रु लोग काँप उठे और शैतानियत को तिलांजलि दे दी। यह है, हमारा 'डण्डावाद' और यह है महाराज दु:खहरण जी की अपार महिमा कि उनके स्मरण मात्र से ही संकट दूर हो जाते हैं, 'यस्यस्मरण मात्रोण मुच्यते भव बन्धनात्'। एक बार ऐसा हुआ कि जमींदार और उनके अमलों के द्वारा बुरी तरह सताए, अतएव संत्रास्त, किसान एक सभा में आए और मेरी बात सुन के कहने लगे कि सबकुछ तो सही है। मगर जब वह मारपीट शुरू करते हैं और लूटने लगते हैं तब क्या करें? मैंने कहा कि यदि शरीर और जीविका को बचाना है, तो अच्छी तरह भिड़ना ही होगा। दूसरा उपाय है नहीं। मगर ऐसा करने की उनकी हिम्मत न हुई। बोले कि बाप रे, बाप। वह तो हड्डियाँ तोड़ डालें। वे तो जान से ही मार डालेंगे, यदि भिड़ने का नाम भी लिया। यों तो थोड़ा-बहुत पीट-पाट के छोड़ भी देते हैं। और जब हम मर ही जाएँगे, या बेकार ही हो जाएँगे, तो चीज-वस्तु बच के ही क्या करेगी? इससे तो अच्छा है कि यदि हाथ-वाथ जोड़ने और गिड़गिड़ाने पर भी वे न मानें तो जान बचा कर भाग ही जाएँ और उन्हें लूटने दें। और क्या करेंगे? जीवित रहेंगे तो भीख माँग के गुजर करेंगे या कहीं मजदूरी करके। हम तो आए थे आपका नाम सुन के कि कोई आसान रास्ता बताइएगा। मैं उनकी पस्ती पर तरस खा गया। फिर कहा कि अच्छा, शरीर और चीज वस्तु की बात छोड़ दो। क्योंकि उसके बचाने में अपने को कमजोर और असमर्थ समझते हो। मगर अगर वही लोग तुम्हारी जवान स्त्री या लड़की या माँ के ऊपर हमला करें तब क्या करोगे? क्या जान लेकर भाग जाओगे? या कि उनका हाथ-पाँव जोड़ के ही काम खत्म करोगे और ऑंखों के सामने ही माँ-बहनों की इज्जत उतरती देखोगे? या अपनी ऑंखें फोड़ लोगे? बस, इतना सुनना था कि उनका चेहरा तमतमा गया और कहने लगे कि आपने हमें क्या समझ लिया महाराज? हम आदमी हैं, मर्द हैं, या हिजड़े? हम तो दूसरा कुछ न करेंगे। किन्तु जान पर खेल के उन बदमाशों से भिड़ेंगे और चाहे खुद मरेंगे या उनका खून पीएँगे। मगर जीते जी ऐसा होने न देंगे। खबरदार, ऐसा बोलिए मत। इस पर मैंने हँस के कहा कि इस बार कमजोरी और असमर्थता कहाँ चली गई? आप तो वही हैं न,जो अभी पहले बोलते थे। फिर यह क्या हो गया कि एक बार निडर और बलवान हो गए और दूसरी बार डरपोक और कमजोर? आप अपना होश सम्भालिए, असल में आप कमजोर और डरपोक नहीं हैं। आपका खयाल और दिमाग ही ऐसा है जो और मौकों पर आपको जबर्दस्ती कमजोर बना देता है। मगर जब माँ, बहनों की इज्जत का मौका आता है तो दिमाग की यह कमजोरी और दिल की यह दुर्बलता भाग जाती है। लेकिन याद रहे जीविका और शरीर ही इज्जत के आधार हैं। जब आपको खाना मिलेगा और जिन्दा रहेंगे तभी इज्जत बचा सकेंगे। फलत: कमजोरी हटते ही आपका स्वाभाविक बल काम करता है, आप आततायियों से भिड़ते हैं और नतीजा क्या होगा इसकी परवाह नहीं करते हैं। अन्त में जीतते भी हैं क्योंकि 'मरता क्या न करता ?' मैं आपकी इस दिल और दिमाग की, विचार की, कमजोरी को जानता हूँ। मैं आपका वैद्य हूँ, यकीन रखें मैं दिल से चाहता हूँ कि वह कमजोरी आपसे हटे और आपका दिल और दिमाग सबल बने, निडर बने, हिम्मतवर बने। फिर तो आप शत्रुओं और शोषकों को पछाड़ के ही दम लेंगे, यह मेरा पक्का विश्वास है। इसके बाद तो वे किसान समझ गए और उनके साथ दूसरे भी। फिर सबने जोर से 'इन्कलाब जिन्दाबाद' का नारा लगाया। मानो, बहुत दिनों की खोई कोई कीमती चीज उन्हें मिल गई। सचमुच ही इन्कलाब हो गया। क्रान्ति हो गई। असल क्रान्ति तो किसानों और मजदूरों के, कमानेवालों के, दिलों और दिमागों में ही होगी। उसी के बाद बाहरी क्रान्ति होगी और बहुत आसानी से होगी। कुछ समझदार किसानों और किसान कार्यकर्ताओं ने एक बार बहुत ही मुस्तैदी और लगन के साथ मुझसे प्रश्न किया कि जमींदारों तथा उनके अमलों के द्वारा बहुत ज्यादा और कभी-कभी पुलिस के भी द्वारा मगर बहुत ही कम, मारपीट, लूटपाट, घर में घुस जाने, चीजें लूट लेने और हुआ तो माँ-बहनों की इज्जत उतारने तक की नौबत आती ही रहती है। हम तो किसानों को डट के मुकाबला करने को कहते हैं और कहीं-कहीं वे लोग ऐसा करते भी हैं। मगर यह बीमारी तो पुरानी है। साथ ही, किसानों में पस्ती भी बेहद है। इसलिए उतनी सफलता नहीं मिलती दीखती और मिलेगी भी तो समय लगेगा। इसलिए कोई आसान रास्ता बताइए। मैंने उत्तर दिया कि आसान रास्ते में खतरा है। क्योंकि यदि वे खुद न डटेंगे तो कमजोर के कमजोर ही रह जाएँगे, और हो सकता है, आगे चल के यह मारपीट वगैरह फिर जारी हो जाए, यद्यपि आज बन्द हो सकती है। हमें तो किसानों में बल लाना है और वह उन्हीं के लड़ने और भिड़ने से ही होगा। यही उनके लिए शक्तिवर्धक, चूर्ण और वटी है। दवा तो उसे ही खाना चाहिए जो बीमार हो, कमजोर हो। दूसरों को दवा खाने से औरों को कैसे लाभ होगा? मगर आप लोगों को घबराहट है और जल्दी में यह मरहला खत्म करके आगे बढ़ना चाहते हैं। इसलिए दूसरा नुस्खा बताता हूँ। किसानों के भीतर से ही कुछ ऐसे जवानों को चुन-चुन के तैयार कीजिए जो धुनी और लगनवाले हों; जिनका काम ही हो किसानों का उद्धार करना; इसलिए जो निर्भीक और निडर हों चाहे जो हो जाए, मगर जो अपने मार्ग से डिगें नहीं; जो तय कर लें, संकल्प कर लें कि जमींदारों और दूसरों का यह आतंकवाद और उनकी यह मनमानी घरजानी, उनका अपने ही हाथ में कानून ले लेने का यह पुराना चस्का दूर किए बिना चैन न लेंगे। ऐसे युवक बहुत ज्यादा न चाहिए। मगर फिर भी यदि उनकी एक अच्छी संख्या हो तो काम जल्दी हो जाए। यों तो यदि दस-बीस या दस पाँच भी हों और लगन के पक्के हों तो भी काम हो ही सकता है। वे हिम्मतवर हों, धमकियों में न पड़ें और बड़े से बड़ा भी प्रलोभन उन्हें डिगा न सके। या तो हम ही खत्म होंगे या यह गुण्डेबाजी और शैतानियत ही मिटा छोड़ेंगे, यही संकल्प उनका होना चाहिए। उसके बाद कुछ खास जमींदारियों को या कुछ ऐसी जगहों को चुन लिया जाए जहाँ सबसे ज्यादा ऐसे जुल्म और ऐसी मारपीट होती हो, जहाँ के लोगों पर ज्यादा आतंक हो। वहाँ जाकर साफ घोषणा कर दें, या हो सके तो एक छोटी सी नोटिस भी बाँट दें। नहीं तो जालिमों से ही साफ-साफ कह दें कि अब तक तुमने कानून को हाथ में खूब ही लिया और काफी होली खेली। मगर यह बात हो चुकी। अब उसे खत्म करो और उसका नाम मत लो। नहीं तो खैरियत नहीं। उसे बन्द करवाने की प्रतिज्ञा हमने कर ली है। हमारा नाम दुष्टदलन है। हम बदमाशी करनेवालों को सीधा करते हैं। यदि हमें पता लगा कि किसी किसान या गरीब के साथ आपने वैसी हरकत भविष्य में की तो आप जानें और आपका काम जाने। हम तो घूमकर खबर लेते ही रहेंगे। और पता लगते ही आप पर चढ़ बैठेंगे। जो भी ऐसा करेगा उसे मजा चखाएँगे। हमारा यही काम है, दूसरा नहीं। आप लोग यह न समझें कि जिस प्रकार जमींदारी और महल मकान आपके पास हैं, धन-सम्पत्ति आप रखते हैं, मगर किसान के पास ये सब चीजें नहीं हैं, वैसे ही लाठी, जूते और हाथ, पाँव भी आप ही के पास हैं, किसान के पास नहीं। यह गलत समझ है। हमारे पास भी डण्डे, लाठियाँ, जूते और हाथ-पाँव हैं। उन्हें लकवा का मर्ज या कुष्ठ रोग भी नहीं है। इसीलिए हम 'सेर के बाप सवा सेर' जरूर ही बनेंगे और अब इसमें हमारा कसूर नहीं। भला इसी में है कि अब आप इसे रोक दें। दूसरों को भी समझा दें। यदि चाहें तो हफ्ते-दो हफ्ते की मीयाद भी दे सकते हैं, जिसके अन्दर वह लोग अपने आप को और अपने मनचलों को भी सँभाल लें। किसानों में भी मुनादी करवा देनी होगी कि जिस पर मारपीट पड़े, जिसके घर में वे लोग घुसें, जिसकी चीजें छीनने की कोशिश वे करें, या जिसकी माँ-बहनों की इज्जत पर धावा बोला जाए वह हमें या तो पहले से ही, या फौरन ही खबर दे। देर न करे। यदि इस बात का काफी प्रचार हो जाए और हाकिम-हुक्काम भी जान जाएँ तो और भी अच्छा। हमें यकीन है कि इतने से ही ये बातें सदा के लिए बन्द हो जाएँगी। लेकिन यदि दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ और किसी हजरत ने फिर शरारत की, तो उनकी खूब खिदमत वही जवान ऐन मौके पर ही करें। भरसक देर न होने दें। हर हालत में उन्हें खूब दुरुस्त करें और जरूर करें। जहाँ एक बार उनकी खासी मरम्मत हुई और उन्हें अपनी देह में सेंक करवाने या हल्दी-गुड़ पीने की नौबत आई कि फिर वे तो उस हरकत का नाम भी न लेंगे। औरों में भी उन्हीं को देख के हड़कम्प पड़ जाएगी। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि कुछ लोग हिम्मत करें और उन जवानों तथा किसानों को उसके बाद किसी बनावटी मुकदमे में फँसा के हैरान करना चाहें ताकि डर जाएँ, तो भी ठीक ही है। मुकदमे की तारीख पर जा के वे जवान लोग हाकिम से साफ कह दें कि यह मुकदमा तो निरा जाली और झूठा है, असल में मुकदमा चलानेवाले या उनके मददगार अमुक-अमुक आदमी यों ही किसानों को पीटते और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत उतारते रहना चाहते हैं। हम से रहा न गया तब उन्हें चेतावनी दी कि अब यह हरकत कतई बन्द कर दें नहीं तो हम बिना पीटे न छोड़ेंगे। मगर उन्होंने नहीं माना और फिर वही बदमाशी की थी। फलत: हमने उनकी खूब ही खबर ली। उसी का बदला लेने के लिए यह जाली केस चला रहे हैं। अब आपकी मर्जी जो करें। मगर अगर हमें कोई सजा हुई तो परवाह नहीं। हमने तो तय कर लिया है कि ये बातें बन्द करके ही छोड़ेंगे यदि आपकी पुलिस कानून और अमन की रक्षा नहीं कर सकती, तो मत करे। मगर हमने तो तय कर ही लिया कि हमीं करेंगे। इसलिए सजा भुगतने के बाद भी हम यही करेंगे और यदि हमने किसी को ऐसा करते पाया, तो उसकी देह का दर्द जरूर छुड़ाएँगे। इतना बयान देना ही काफी होगा। सारी कचहरी में और उसके बाहर भी सनसनी फैल जाएगी। लोग आश्चर्य में आ जाएँगे कि यह क्या बात है? हाकिम भी भरसक बात समझ के कुछ न करेगा। शरारती लोगों और उनके मददगारों के कलेजे भी काँप उठेंगे। कुछ ही ऐसे केसों की नौबत भी शायद ही आए। फिर तो यह धाँधली सदा के लिए बन्द हो के ही रहेगी। ऐसे बयानों से कमजोर और डरपोक लोगों को भी हिचक होगी। फलत: उन जवानों के साथी एवं मददगार बहुत हो जाएँगे। हमने अनुभव किया है कि धनिकों और सत्ताधारियों की तड़क-भड़क और साज सामान को देख दिखाकर ही उनका रोब किसानों पर जमाया जाता है। लोग कहते हैं कि वह बड़े जबर्दस्त हैं। देखिए न, उनका प्रभाव, उनका चेहरा, उनकी सकल सूरत, उनके महल, उनकी मोटरें और दूसरे सामान? इससे गरीब और चिथड़े में लिपटा किसान सचमुच धोखे में पड़ के डरने लगता है। वह उन्हें अच्छा, बड़ा और आदरणीय समझ बैठता है। गुरु, पण्डित, पीर और मौलवी भी अमीरों की ही वकालत करते और कहते हैं कि उनसे दबना चाहिए, डरना चाहिए। उन्हें भगवान ने बड़ा और तुम्हें छोटा बनाया है।
यही
पुराना दकियानूसी सिलसिला सब खुराफातों की जड़ है। इसे बन्द ही कर देना
होगा। बेवकूफी भरी इन बातों को सुनना भी न होगा। यदि कोई वेश्या देखी जाए
तो वह अमीरों से भी चिकनी-चुपड़ी,
ठाटबाट वाली और शानदार मालूम होती है। मगर सिवाय घृणा के और वह किसी भी चीज
का पात्र नहीं समझी जाती। एक चिथड़ेवाला किसान उसकी तरफ ऐसा ही खयाल करता
है। एक साध्वी
यह भी तो सोचें कि जब आज तक जमींदारों और सत्तावालों से बराबर डरते रहे, तो नतीजा क्या हुआ। यही न कि लात-जूते खाने पड़े, लुटे, बेइज्जत हुए और अन्त में भीख माँगने की नौबत तक आई? सारांश एक भी दुर्दशा बाकी नहीं रही। फलत: जितना ही डरेंगे उतनी ही दुर्दशा होगी। इसलिए अब कम से कम कुछ समय के ही लिए सही, जरा निर्भीक और निडर होकर भी तो देख लें। आखिर इससे बुरी हालत और होगी क्या? अब नीलाम से नीलाम तो होंगे नहीं। प्रत्युत शत्रु और सतानेवाले डरेंगे और कदर करेंगे। जब तक डरते रहे तब तक दुर्दशा रही। इसलिए जब निडर होंगे, तभी सँभलेंगे। यह तो मोटा हिसाब है।
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