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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें

खेत-मजदूर

प्रवेशिका

यों तो खेत-मजदूरों, खेती के मजदूरों यानी हलवाहे, चरवाहे वगैरह का सवाल शोषित एवं पीड़ित जनता, मजलूम जनता के सवाल का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है, बड़ा हिस्सा है। इसलिए जब कभी यह प्रश्न उठे ठीक ही है। इसका ठीक-ठीक हल हो जाना भी निहायत जरूरी है। इसीलिए जो लोग कमाने वाली जनता के हामी हैं और जो इसकी सभी समस्याओं एवं गुत्थियों को सुलझाने में दिन-रात लगे हैं उन्हें इन खेत-मजदूरों के प्रश्नों का स्वागत करने को तैयार ही रहना चाहिए, बल्कि खुद भी उनकी दिक्कतों और तकलीफों को ढूँढ़ निकालना चाहिए। अगर वे लोग सचमुच किसानों का उद्धार करना चाहते हैं, मजदूरों का निस्तार करने पर तुले बैठे है, तो उनकी ईमानदारी की परीक्षा और जाँच सिर्फ इसी बात से हो जाएगी कि वे इन खेत-मजदूरों की बातों को किस नजर से देखते हैं और इनमें उन्हें काफी दिलचस्पी है या नहीं। अगर किसानों का ताल्लुक खेती और उसके सवालों से है तो खेत-मजदूरों का तो और भी ज्यादा है। वही तो खेती की जड़ हैं, मूलाधार हैं, हाथ-पाँव हैं। इसीलिए खेती और किसानों की बात उठते ही उनकी समस्या सबसे पहले आ खड़ी होती है। ऐसी हालत में उसे अच्छी तरह हल किए बिना ही यह समझ बैठना कि खेती से सम्बन्ध रखने वाले प्रश्न हल हो गए, निरी नादानी और बेईमानी है।

    मगर आज की बात कुछ निराली-सी है। जहाँ एक ओर सचमुच गरीबों के लिए चौबीसों घण्टे मर मिटने वाले और उनकी सारी तकलीफों को मार भगाने की धुन वाले मस्तानों की टोली इन खेत-मजदूरों से सम्बन्ध रखने वाले सभी मसलों की उधेड़बुन कर रही है, तहाँ दूसरी ओर शोषक और शासक या यों कहिए कि मेहनतकशों तथा श्रमजीवियों के खून पीने वाले और उनके पिट्ठू भी परेशान हैं। उनकी नींद हराम है। इसलिए वे लोग भी इन खेत-मजदूरों के प्रश्नों को उठाते हैं इसलिए नहीं कि इन गरीबों की तकलीफों को दूर करें या उन्हें कुछ आराम दें-दिलाएँ। बल्कि केवल इसलिए कि शोषितों एवं पीड़ितों के भीतर ही आपस में लड़ाई लगवा दें। जिससे दलबन्दी की दलदल में फँस जाने पर शोषकों के खिलाफ लड़ी जाने वाली उनकी लड़ाई का संयुक्त मोर्चा खत्म हो जाए और वह लड़ाई इस तरह खटाई में पड़ जाए। क्योंकि मजलूमों और पीड़ितों का तो एक ही बल है और वह है उनकी सम्मिलित शक्ति या मजमूई ताकत। फलत: इसमें गड़बड़ी हुई कि सारा मामला चौपट हुआ, सारी लड़ाई हवा हुई।

    असल में किसान सभा की बढ़ती हुई ताकत और किसान आन्दोलन की तेजी को देख के जमींदारों और उनके भाई-बन्धुओं के होश ठिकाने रही नहीं गए हैं। उनके दिल दिमाग में कुछ ऐसा खौफ और आतंक छा गया है कि उसका बयान किया नहीं जा सकता है। नतीजा यह हुआ कि वे सभी तरह की बन्दिशें किसान आन्दोलन को कुचलने के लिए करने लगे हैं। कानूनी और गैर-कानूनी एक भी उपाय काम में लाने से चूकते नहीं। बिहार में खासकर तथा अन्य प्रान्तों में भी कानून और शान्ति के नाम पर किसानों एवं किसान कार्यकर्ताओं का जो दमन इधर कुछ वर्षों के भीतर हुआ है वह निराला है। सच्चे और झूठे मुकदमों की जो लड़ी लग गई थी वह किसान सभा के इतिहास में पहली बात थी। इसी के साथ जो गुण्डेबाजी, जो लाठीराज, जो बेतहाशा मारपीट और लूटपाट जमींदारों ने जगह-जगह की, कराई वह भी सोलहों आने नई बात थी। मालूम होता था, कोई सरकार हई नहीं। मजलूमों का पुर्सांहाल कोई भी नजर न आता था सिवाय किसान सभा वालों के।

    एक ओर तो यह किया गया। दूसरी ओर जमींदारों के पैसे, उनकी कोशिश, पैरवी और उन्हीं के बल पर खेत-मजदूरों में आन्दोलन किया गया। बिहार में तो यह बात खूब ही की गई। मगर एकाध और प्रान्तों में भी यही चीज पाई गई। जहाँ किसान आन्दोलन तेज था वहीं यह बात देखी गई। जमींदारी के अलावे कुछ ऐसे चलते पुर्जे लोगों ने भी यह काम किया जो सस्ती लीडरी और नामधाम कमाने की इच्छा के साथ ही नगद नारायणा के जमा करने की भी फिक्र रखते हैं। उन्होंने देखा कि यही तो मौका है। चूकने से पछतावा होगा। उन्हीं को पक्के अवसरवादी कहते भी हैं जो मौके से फायदा उठाने से कभी बाज नहीं आते। नतीजा यह हुआ कि खेत-मजदूरों के बरसाती नेताओं की भरमार हो गई, जगह-जगह। उनकी सभाएँ होने लगीं, उनमें बड़े-बड़े प्रस्ताव पास होने लगे, किसानों के सामने असम्भव माँगें भी पेश होने लगीं, कुछ उचित माँगों के साथ ही, और उनके पूरा न होने पर हल वगैरह का काम बन्द कर देने की धमकी भी दी जाने लगी। कई जगह तो काम बन्द भी करवा दिया गया।

    इसी के साथ-साथ एक बात और भी हुई। बिहार में जब किसानों के विराट प्रदर्शन पटने में तथा हजारों अन्य स्थानों पर होने लगे तो देखा-देखी खेत-मजदूरों के प्रदर्शन की भी नकल की गई। पटने में एक प्रदर्शन जैसे-तैसे किया भी गया। बिहार प्रान्तीय किसान कॉन्फ्रेंस के समय मोतिहारी में भी एक छोटा सा दल ऐसा कर रहा था। इसमें कुछ उन महानुभावों का भी हाथ था जो अपने को गाँधीवादी कहते हैं। या यों कह सकते हैं कि जितने लोग और जितने दल किसी कारण से किसान सभा और उसके आन्दोलन के विरोधी हैं और उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते उन सबों का किसी न किसी रूप में इस खेत-मजदूर आन्दोलन में हाथ रहा है। यहाँ तक कि किसी वजह से जो इसमें कुछ भी हाथ बँटा नहीं सके वह दिल से इसका समर्थन तो करते ही रहे। इसे देख-देख के खुश भी होते रहे। जब हमने अंग्रेजी में छपी एक पुस्तिका देखी जिसके ऊपर लिखा था कि खेत-मजदूर आन्दोलन की यह रिपोर्ट है, तो हमारे ताज्जुब का ठिकाना न रहा। यह तथाकथित रिपोर्ट जहाँ तक हमारी जाँच से पता चला हिन्दी में या और भाषाओं में न छापकर सिर्फ अंग्रेजी में ही छपी थी। गोया खेत-मजदूर अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाएँ या तो जानते ही नहीं, या उनके बिना इनके काम में हर्ज नहीं होता। या अपना काम सिर्फ अंग्रेजी से ही चला लेते हैं।

    इस रिपोर्ट से पता चला कि असल में बाहरी दुनिया की ऑंखों में धूल झोंकने के ही लिए इस आन्दोलन का रूप खड़ा किया गया है। खेत-मजदूरों की सेवा से इसे कोई मतलब नहीं है। यह केवल प्रचार और प्रोपेगैण्डा के लिए एक नया जरिया बनाया गया है। इसीलिए तो सिर्फ अंग्रेजी में ही रिपोर्ट छापी गई, ताकि बाहरी दुनिया पढ़ सके। इतना ही नहीं। हरिपुरा में जो कांग्रेस का अधिवेशन 1938 में हुआ था उसी समय आल इंडिया खेत-मजदूर सम्मेलन के अधिवेशन की बार-बार खबर अखबारों में छपी थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल ही उसके सभापति होंगे यह भी प्रकाशित हुआ था। मगर कुछ बातें ऐसी हो गईं जिससे न तो वह कॉन्फ्रेंस ही हो सकी और न सरदार वल्लभ भाई सभापति ही बने। मगर इससे साफ हो जाता है कि खेत-मजदूर आन्दोलन के पीछे कौन हैं और इसका मकसद (लक्ष्य) क्या है। कौन नहीं जानता कि सरदार वल्लभ भाई से बढ़के शायद ही कोई किसान सभा का दुश्मन हो?

    यह भी बात है कि कौंसिल, असेम्बली आदि के चुनाव में सफलता का साधन भी यह आन्दोलन बनाया गया है। इसीलिए तो ऐन उसी मौके पर इसमें तेजी आती है और चुनाव के आगे-पीछे कुछी समय तक वह कायम रहती है। बाद में कुछ पता ही नहीं चलता कि आया वह जिन्दा है या मर गया। यह भी देखा गया है कि अकसर वही लोग उसमें ज्यादातर शरीक होते हैं जिन्हें चुनाव की गर्ज है। हमने खुद देखा है कि जिन लीडरों और उनके साथियों के रोजमर्रा के कामों से खेत-मजदूर तबाह और बेइज्जत होते रहते हैं, भूखों मरते रहते हैं, उजड़ जाते हैं वही लोग उनकी सभाओं में प्राय: शरीक होते रहते हैं। आखिर उन्हें अमली तौर पर तो कुछ करना है नहीं। बल्कि उलटे ही करना है। मगर बातें बनाने और रस्म अदाई की तौर पर बाहरी हमदर्दी दिखाने में वे क्यों चूकने लगे?

    इसका मतलब कतई नहीं कि जो लोग इस आन्दोलन में शामिल हैं वे सौ फीसदी सभी के सभी ऐसे ही हैं, उनमें एक-दो-चार भी ईमानदारी के साथ इस काम में नहीं पड़ते। जरूर ईमानदार लोग भी यह काम करते हैं। मगर उन्हें हम उँगलियों पर गिनने लायक भी शायद ही पाते हैं। वे एकाध ही होते हैं, बिरले होते हैं। उनकी नीयत भी दुरुस्त रहती है। उनका यकीन है कि ऐसा करके वे वाकई खेत-मजदूरों को असली फायदा पहुँचा रहे हैं। मगर यहीं उनकी भारी भूल है। जिस फायदे के खयाल से वे उसमें पड़ते हैं वह तो होता नहीं। क्योंकि उस आन्दोलन के असली चलाने वाले दिल से नहीं चाहते कि वैसा हो और खेत-मजदूरों को जल्द से जल्द कुछ आराम मिले। उन्हें तो अपना उल्लू सीधा करना है। फिर उन गरीबों का काम हो तो कैसे? लेकिन उनके हजार न चाहने पर भी इस आन्दोलन के चलते धीरे-धीरे जब इन सारी विपदा और तकलीफों, उनकी बेइज्जतियों और अपमानों, उनकी भूख और बीमारी के असली कारण हैं कौन और वे दूर होंगे कैसे, तब उनका असली लाभ हो के ही रहेगा। इसे कोई रोक नहीं सकता। इसलिए इस दृष्टि से हरेक आदमी को, जो शोषितों और पीड़ितों की सेवा और मदद करना चाहता है, इस आन्दोलन का दिल से स्वागत ही करना चाहिए। उनके जगने में यह भी कुछ न कुछ मदद देगा ही और बिना जगे कुछ हो सकता नहीं।

    तब तो इन यारों की भी ऑंखें खुलेंगी और ये अपने किए पर पछताएँगे भी। मगर इससे क्या? तब तो वह काम रुक न सकेगा। बल्कि वे लोग तो इस खतरे से आज भी सजग हैं। इसीलिए वो इस आन्दोलन को हर तरह से अपने ही हाथों में रखना चाहते हैं और इसमें तेजी भी आने देना नहीं चाहते। मगर उन्हें याद रखना चाहिए कि इससे कुछ होने जाने का नहीं। यह उनकी या किसी की भी ताकत के बाहर की चीज है कि मजलूमों और पीड़ितों के आन्दोलन को शुरू करके आखिर में उसे अपने कब्जे में रख सकें, चाहे उसका आरम्भ कितनी ही होशियारी और चालाकी से क्यों न किया जाए और चाहे वह कितना ही धीरे-धीरे या फूँक-फूँक के क्यों न चलाया जाए। असल में ऐसे आन्दोलनों का जन्म तो इसी तरह प्राय: होता ही है। अकसर इन्हें आरम्भ करते हैं वही लोग जो पीछे चलकर इनसे घबराने लगते हैं, यहाँ तक कि मिटा देना चाहते हैं। मगर तब उन्हें केवल कलेजा मसोसना ही हाथ लगता है। ये आन्दोलन तो मर सकते नहीं, जब तक वे शोषितों और पीड़ितों का पूरा उद्धार न कर लें। यह दूसरी बात है कि बीच-बीच में परिस्थितिवश से दब जाया करें।

    यह भी बात है कि बहुत से किसान किसान सभा और उसके आन्दोलन में शरीक होकर भी मन ही मन यह समझे बैठे हैं कि किसान सभा से फायदा उठा लें। मगर खेती के मजदूरों के साथ अपना रवैया न बदले उनके साथ सख्ती और बेमुरव्वती से ही पेश आते रहें। उन्होंने शायद यह समझ लिया है कि किसान सभा एक खास जमात की चीज है, ठीक उसी तरह जैसे जमींदार सभा। मगर उन्हें जान लेना चाहिए कि किसी बँधी बँधाई जमात की चीज न हो के यह सभा खेती से सम्बन्ध रखने वाली और उसी के जरिए गुजर करने वाली शोषित एवं पीड़ित जनता की चीज है। इसीलिए जो जितना ही ज्यादा पीड़ित और दुखिया है उतना ही ज्यादा वह किसान सभा के नजदीक है किसान सभा भी उसके उतना ही निकट है। जुल्म और अत्याचार चाहे किसान करे या जमींदार या और ही कोई। मगर सभी बराबर हैं और किसान सभा उसे हर्गिज बर्दाश्त नहीं कर सकती। खेत मजदूर सबसे अधिक दुखिया होने के कारण किसान सभा की नजर सबसे पहले उन्हीं पर जाती भी है।

    ऊपर लिखित बातें तथा इन जैसी ही और भी कितनी ही हैं जिन पर प्रकाश डालना और जिन्हें अच्छी तरह समझा देना निहायत जरूरी है। खेत-मजदूरों का मसला मामूली न होकर बड़ा ही पेचीदा है। इन्हें किसान समझें या मजदूर यह भी एक बड़ा सा सवाल है और इसके हल कर लेने पर ही इस ओर हम बहुत कुछ आसानी से पाँव बढ़ा सकते हैं। इस सम्बन्ध में आगे लिखी गई पंक्तियों का यही मतलब है कि सारी बातों का स्पष्ट विवेचन हो जाए।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
सेण्ट्रल जेल, हजारीबाग
महाशिवरात्रि 
24.2.1941

  
 
नोट : स्वामी जी खेत-मजदूर को जोतविहीन किसान समझते थे और जर्जर जोतदार किसान से इनका सश्रय संभावित किसान क्रान्ति में चाहते थे। यह बात आज भी समीचीन एवं संगत है तथा समय की माँग है। --सम्पादक 
 

 

(1)

खेत-मजदूर... तब और अब
आज जब जिधर ही देखिए सदियों से पद-दलित तथा युगों से शोषित जनता न सिर्फ अपने सवालों को ही मुस्तैदी से संसार के सामने पेश कर रही है, किन्तु उन्हें अपने अनुकूल हल करने के लिए भी या तो कमर बॉंध चुकी है या बाँध रही है, तो खेती के मजदूरों की समस्याएँ और उनके बहुत ही पेचीदे मसले, जिनके करते वे पिस रहे हैं, घुल-घुल के मर रहे हैं, न उठें न उठाए जाएँ यह बात तो दिमाग में आने की ही नहीं। जब किसानों और मजदूरों की रोटी, कपड़े वगैरह के सवालों को हमेशा के लिए एक ही बार ठीक कर डालने के खयाल से हजारों नहीं, लाखों जन सेवक युवक और वृद्ध, स्‍त्री तथा पुरुष कमर बाँधे मैदानेजंग में कूद चुके और कूद रहे हैं, तो फिर खेती में काम करने वालों का इसी सम्बन्ध का प्रश्न यों ही खटाई में पड़ा कैसे रह सकता है? इस पहेली को हमें सुलझाना ही होगा और इसीलिए सबों के सामने इसे अपने असली रूप में ला के खड़ा करना पड़ेगा ही। ताकि इस पर पूरा प्रकाश पड़े। और अगर हमने यह काम नहीं भी किया, या इससे मुँह मोड़ लिया तो सिर्फ बदनामी और पछतावा ही हमारे हाथ लगेंगे। ये प्रश्न और ये सवाल तो खुद ब खुद उस हालत में हमारे सामने क्या, सर पर आ खड़े होंगे। हम इनसे भले ही भागना चाहें, मगर ये तो हमसे भागने के बजाए जबर्दस्ती हमारा पल्ला पकड़ेंगे, हमारा पीछा करेंगे। और नहीं तो इन खेत-मजदूरों के दिली दुश्मन ही इनको ला धमकाएँगे। समय की गति जो ठहरी।
    और आखिर यह सवाल उठें क्यों न? यही नहीं कि खेती में काम करनेवाले ये लोग अत्यन्त दीन-दुखिया और सताए हुए हैं और न सिर्फ यही कि वर्तमान समाज में कल-कारखानों के मजदूरों या किसानों की ही तरह वे एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ये कारण तो हईं और उनकी समस्याओं को हमारे सामने जबर्दस्ती ला धकेलने के लिए ये दोनों ही वजहें काफी भी हैं। मगर सबसे बड़ी बात है कि उनकी तादाद बहुत बड़ी है जो कल-कारखाने के मजदूरों की संख्या से कहीं जबर्दस्त है। इसी के साथ बहुत बड़ी खूबी यह है कि इनकी यह संख्या शैतान की अँतड़ी की तरह बराबर ही बढ़ रही है। सो भी जमीन रखने वाले किसानों को हटाकर उन्हीं की जगह जहाँ एक ओर मुफ्तखोर जमींदार नामधारियों की तादाद बेतहाशा बढ़ रही है तहाँ दूसरी ओर इन खेत-मजदूरों या यों कहिए कि बिना जमीन वाले किसानों का नम्बर ऊपर सर उठाए चला जा रहा है। हम अच्छी तरह देख रहे हैं कि किसानों के हाथ से जमीनें धड़ाधड़ निकली जा चली जा रही हैं। वे या तो निर्दयता के साथ ज्यादा से ज्यादा लगान वसूलने और उसी पर सदल-बल गुलछर्रे उड़ाने वाले जमींदारों के हाथों में चली जाती हैं जो उन किसानों से बहुत ही दूर और खासकर बड़े-बड़े शहरों में ही ज्यादातर रहते हैं, या सूदेखोर बनियों और महाजनों के कब्जे में, जो उन जमीनों को उन्हीं के साथ बन्दोबस्त करते हैं जो अधिक से अधिक लगान देते हैं। सो भी यह बन्दोबस्त अधिकांश में अस्थायी या चन्दरोजा ही होता है। ताकि उनने जभी चाहा ये जमीनें निकाल के फिर दूसरों को दे दीं जो और भी ज्यादा पैसे दे सकें या जिनसे कुछ ज्यादा काम निकल सके। इसका यह भी नतीजा होता है कि किसान इन जमीन वाले बनियों या जमींदार-साहूकारों से हर घड़ी थर्राते रहते हैं। उनके खिलाफ चूँ कर सकते नहीं। यह बात अभी-अभी साफ हुई जाती है।
    असल में खेतों में कमाने या काम करनेवालों की संख्या तो उस समय भी बहुत ज्यादा थी जब पहले खेती करने की विद्या और तरकीब मानव समाज ने जानी और धीरे-धीरे इस काम को खूब फैला दिया। मगर उस दशा में और आज की हालत में जमीन-आसमान का फर्क था। जहाँ खेतों की तरक्की और उसका व्यापक विस्तार होने के साथ-साथ पहले जमाने में खेती में काम करने वालों की तादाद क्रमश: घटने लगी और लोग धीरे-धीरे दूसरे प्रकार की जीविकाओं और कामधन्धों में जाने लगे, तहाँ आज इनकी तादाद फिर बढ़ने लगी है। दूसरे कामधन्धों से ये लोग जबर्दस्ती बाहर निकाले जाने लगे हैं और अपने पुराने खेतों से भी। इस तरह आज तो उलटी गंगा बहने लगी है। वह न जाने क्या गजब ढाएगी और किसे-किसे उजाड़े बसाएगी। कमा के खुद खाने तथा गैरों को खिलाने वाले और इस प्रकार अपने खून को पानी बना डालने वाले इन लोगों की जीविका के सभी साधनों से होने वाली आहिस्ता-आहिस्ता की यह बेदखली बहुत ही खतरनाक है। हमें बहुत ही ठण्डे दिल-दिमाग से इस भीषण परिस्थिति पर न सिर्फ विचार ही करना होगा, बल्कि बहादुरी के साथ इसका सामना भी करना पड़ेगा। नहीं तो यह सभी को ले बैठेगी।
    आइए जरा इस हालत की और भी सफाई कर लें। ताकि इसका असली और विकराल रूप हमारी ऑंखों के सामने अच्छी तरह नाचने लगे। तभी इस बात की हम बखूबी जरूरत भी महसूस करेंगे कि इसका सामना खामख्वाह करना चाहिए। तभी हममें सामना करने की पूरी हिम्मत भी आएगी। हम उसी के मुताबिक अपनी तैयारी भी तभी कर सकेंगे। अभी तो हालत यह है कि जोई उठता है, सोई इस समस्या के सुलझाने के लिए कुछ न कुछ बातें बोल ही देता और कुछ उपाय सुझाई देता है। आगा-पीछा वह सोची नहीं सकता। क्योंकि सारी बातें तो उसे मालूम नहीं हैं। उसके सामने इस गहन समस्या के सभी पहलू आए ही नहीं हैं। इसीलिए वह सोच भी नहीं सकता कि उसके इन उपायों का असर दूसरों पर क्या होगा, ये उपाय कारगर हैं या नहीं आदि-आदि। यदि पूरी बातें उसे मालूम हों तो वह खुद सोचेगा कि उसके ये रास्ते शायद स्थिति को और भी बदतर बना देंगे। अतएव जल्दी में बिना अच्छी तरह छानबीन किए ही वह कोई बात इनके मुतल्लिक उस दशा में बोल सकेगा नहीं।
    हाँ, तो हम उस बात को लें। यह तो सभी मानते हैं कि जब धीरे-धीरे मनुष्यों की संख्या इस भूमण्डल पर बढ़ने लगी तो उनकी जीविका का प्रश्न जटिल होने लगा। फलत: मुस्तैदी से खोज शुरू हुई कि जंगली जीवों या घास-पात और फल-फूल आदि के सिवाय क्षुधानिवृत्ति का कोई और भी जरिया है या नहीं। इस माथापच्ची तथा जाँच-पड़ताल में पड़े लोगों को जब पहले पहल खेती करने की सूझी, जब यह बात दिमाग में आई कि जमीन के भीतर बीज के रूप में जौ, गेहूँ आदि के दाने डालकर उनसे दस-बीस गुना पैदा किया जा सकता है, तो मानना होगा कि जीविका के उपाय के सम्बन्ध में एक बड़ी क्रांति हो गई। जमीन तो लम्बी और पैदावर थी ही। फिर चाहे जितनी दूर में फसल बोओ। केवल जंगलों को काट-कूट के साफ करने की जरूरत थी। परिणामस्वरूप, एक बार खेती का खूब ही विस्तार हुआ। प्राय: सभी प्रजा, सभी जनता इस काम में लग गई। आज की तरह न तो जमीन पर कोई बन्धान था और न जमींदार या सरकार की तरह लगान या माल वसूलने वाले ही थे। तब रुकावट कैसी? जिससे जितनी बन पड़ी उतनी जमीन जोतता-बोता था। एक बार तो सभी लोग प्रधानतया खेती में ही काम करने लगे, उसी के द्वारा प्रधान रूप से जीविका चलाने लगे। वेदों, वैदिक ग्रन्थों और महाभारत आदि इतिहासों में जो 'विश:', 'विशांपति' आदि शब्द पाए जाते हैं वे इसी बात के सूचक हैं।
    बेशक पीछे चलके 'विंश' या 'वैश्य' शब्द एक खास जाति या श्रेणी का वाचक बन गया और उसी के जिम्मे खेती का कारबार सौंपा गया। बाकी लोग दूसरे-दूसरे कामों में लग गए। यह बात तब हुई जब समाज के विकास के साथ उसकी रक्षा एवं समुन्नति के लिए वर्ण और आश्रम के विभाग बनाए गए। सारांश यह है कि जब समाज के कई दल बना के उन्हें अलग-अलग जवाबदेही सौंपी गई उसी समय वैश्य नाम का एक वर्ण खासतौर से खेती में लगा दिया गया। अब तो यह भी बात लापता है। पता ही नहीं चलता कि कौन वैश्य है, कौन नहीं। क्योंकि खेती सभी करते हैं। पहले यह बात न थी कि दूसरे वर्ण बिलकुल ही खेती करते ही न थे। थोड़ी बहुत खेती तो ब्राह्मण तक भी करते थे। इसीलिए तो वेदों में भी यह बात मिलती है। मनु ने तो अपनी स्मृति के चौथे अध्‍याय के शुरू में ही 'अमृतकर्षणामृतम्', 'तेनचैवापिजीव्यते' आदि के द्वारा ब्राह्मण के लिए भी खेती बताई है। दूसरे स्मृतिकारों ने भी ऐसा ही किया है। फिर भी यह प्रधान काम तो वैश्य का ही माना गया है। यह उसी का काम बताया गया है कि खेती के जरिए सबों के लिए अन्नादि पैदा करे।
    मगर शुरू में ये 'वैश्य' या 'विंश' शब्द प्रजा या जनतामात्र का ही वाचक मात्र माना जाता था। दरअसल प्रजा शब्द का वही अर्थ है जो जनता या जनसमूह का। 'विशांपति' शब्द का अर्थ है प्रजापति या राजा। मालूम होता है जमीन में बीज का सामूहिक रूप में प्रवेश कराने के कारण ही यह 'विंश' शब्द पहले पहल प्रचलित हुआ। उस समय सभी लोग यह काम करते भी थे। क्योंकि एक तो यह नई बात थी, दिलचस्प थी। दूसरे इस प्रकार खेती करने से घर के पास ही खाने-पीने के लिए अन्न हो जाता था। फलत: जीविका के लिए दूर-दराज के देशों में जाना न पड़ता था। फिर तो सबों का खेती में लग जाना स्वाभाविक ही था। इसीलिए विंश या वैश्य नाम सभी लोगों का, जनसमूह का, प्रजा या जनता का ही पड़ गया।
    खेती में काम करने वालों की या यदि कहें तो कह सकते हैं कि खेती के मजदूरों खेत मजदूरों की यह पहली दशा थी। हाँ, इस दशा में आज के उनके सम्बन्ध के प्रश्न ही उठी नहीं सकते थे। इनकी तब गुंजाइश थी ही कहाँ? 'नविशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वं स्टष्टंहि कर्मभिर्वर्णतां गतम्' (मोक्षधर्म अध्‍या. 188/10), महाभारत के इस कथन का भी कि 'ब्रह्मा की पैदा की हुई सृष्टि में कोई भेद या दल न था। सभी बराबर थे। यह तो पीछे चलकर विभिन्न कामों के करते ही वर्णों की जुदा-जुदा रचना हुई।' यही मतलब है कि शुरू में वे लोग एकी तरह के काम करते थे।
    इस प्रकार कुछ समय यों ही गुजर जाने के बाद ऐसा भी मौका आया कि नए-नए उद्योग धान्धों की खोज हुई। जनसंख्या की वृद्धि के साथ ही उनकी जरूरतें भी बढ़ने लगीं। परस्पर संघर्ष और शत्रुओं के हमले भी होने लगे। ज्ञान की वृद्धि के साथ ही उसके लिए खास विभाग बनाने की भी जरूरत समाज ने महसूस की। लड़ाई-दंगे होने पर भी खेती-बारी का काम न रुके और न अन्वेषण या खोज का। नहीं तो आफत होगी और सभी लोग यों ही तबाह हो जाएँगे। इसीलिए जहाँ लड़ने-भिड़ने का काम एक खास दल, विशेष वर्ण को सौंपा गया, तहाँ पढ़ने-सोचने और खेती-बारी का काम भी ब्राह्मण और वैश्य वर्ग को क्रमश: दे दिया गया। इस प्रकार अब विश या वैश्य शब्द प्रजा या जनता के मानी में न बोला जाकर मानव समाज के एक खास दल, वर्ण या विभाग के अर्थ में प्रयुक्त हो गया।
    हाँ, एक चौथा दल भी बनाया गया जिसे संरक्षित दल या शूद्र कहने लगे। इसका यही काम तय पाया कि जरूरत पड़ने पर हर शेष तीन दलों की सहायता हर तरह से करे। ज्यादातर दौड़-धूप और शारीरिक काम ही इस दल के जिम्मे था। तभी तो सभी दलों को इससे सहायता सम्भव थी। मगर यह बात न थी कि यह चौथा दल दिमागी काम करता ही न था। अनेक प्रकार के कारीगर और मिस्‍त्री भी प्राय: इसी दल में होते थे। स्मृतियों में इन्हें भी शूद्र नाम से पुकारा गया है। इस प्रकार समाज के लिए शूद्र वर्ण एक रक्षित सेना का काम करता था। एक ओर तो कला-कौशल और कारीगरी के सम्बन्ध के जितने काम समाज के लिए जरूरी होते थे उनकी पूर्ति शूद्र ही करते थे। यहाँ तक कि रसोई बनाने का काम भी शूद्रों का ही माना जाता था। ऐसा स्पष्ट लिखा है। इसीलिए पाचक (रसोइया) का काम करने वाले ब्राह्मण को शूद्र के समान ही माना है, जैसा कि 'पाचकश्चैव षडेते शूद्रवद् द्विजा:' से स्पष्ट है। दूसरी ओर शेष तीन वर्णों में जहाँ जिसे आदमी की जरूरत हुई कि इसी रक्षित सेना ने उसकी पूर्ति  की। बिना दिमागी काम किए ही वे लोग कारीगरी आदि के ज्ञाता कैसे हो सकते थे? और अगर शूद्र शब्द का यही अर्थ न माना जाता रहता तो छान्दोग्योपनिषद् (4/2/3/5) में जनाश्रुति नामक क्षत्रिय राजा को रैक्व ऋषि बार-बार शूद्र क्यों कहके पुकारते, जैसा कि 'अरेत्वा शूद्र', 'आजहारेमा: शूद्र' आदि वाक्यों से स्पष्ट है? उस ऋषि के द्वारा बोले गए इस शब्द का जो भी अर्थ भाष्यकारों ने किया है उससे ही साफ है कि शूद्र शब्द का पहले वह संकुचित अर्थ नहीं था जो दुर्भाग्य से आज माना जाता है।
    यही बात वैश्य के बारे में भी शुरू में जरूर थी जबकि वर्णों की रचना नहीं हुई थी। बेशक उस रचना के बाद वह शब्द प्रजा या जनता के अर्थ में प्रयुक्त न होकर उसके एक अंश मात्र का बोधक रह गया। लेकिन उसी के साथ शूद्र वर्ग की भी रचना हुई जो व्यापक अर्थ में प्रचलित था। साथ ही एक बात और भी हुई। जब खेती का अधिकार आमतौर से सबके लिए न होकर एक हद तक सीमित हो गया, तो दूसरों के द्वारा खेती करवाने का भी श्रीगणेश हुआ। कही चुके हैं कि वैश्य वर्ण के साथ खेती का आम अधिकार सीमित हो जाने पर भी दूसरे वर्ण इससे सोलहों आने वंचित न किए गए। खासकर ब्राह्मणों को तो यह अधिकार था कि वह खुद अपने काम के लिए खेती से भी अन्न पैदा कर सकते हैं, करें। मनुस्मृति का उल्लेख हो चुका है। दूसरी स्मृति ने भी इस पर काफी जोर दिया है। इस बात का विस्तृत विवेचन मैंने 'ब्रह्मर्षिवंश विस्तर' नामक पुस्तक में किया है।
    लेकिन खेती की आज्ञा देने पर भी ब्राह्मणों के लिए यह नियम था कि भरसक वे अपने हाथों खेती न करके औरों से ही कराएँ। हाँ, जब वे इस बात के लिए समर्थ न हों और या तो उन्हें खेती के लिए मजदूर तथा काम करने वाले मिले ही न, या अगर मिलें भी उन्हें उचित मजदूरी वगैरह वे किन्हीं कारणों से दे के सन्तुष्ट न कर सकें, तो खुद अपने हाथों भी खेती कर सकते हैं, ऐसा नियम बनाया गया। इन दोनों प्रकार की खेतियों को क्रमश: अस्वयंकृता और स्वयंकृता कहते थे। 'स्वयंकृता' के मानी हैं अपने हाथों की गई और 'अस्वयंकृता' का अर्थ है दूसरों से कराई हुई। जिन पुरानी पोथियों में ब्राह्मणों को खेती करने का अधिकार मिलता है उन्हीं में ये ब्यौरे भी लिखे गए हैं।
    चाहे इसका मतलब शुरू में कुछ भी क्यों न रहा हो। फिर भी यहीं से खेती के मजदूरों का श्रीगणेश उस मानी में होता है जिस मानी में आज हम यह शब्द बोलते हैं। भारत से बाहर के मुल्कों में जो सर्फ या खेतों में काम करनेवाले गुलामों का जिक्र पहले जमाने में पाया जाता है वह कुछ इसी ढंग की बात है। व्यवहार में अमली तौर पर चाहे उसमें और भारत की व्यवस्था में प्रारम्भ में बहुत ज्यादा फर्क क्यों न रहा हो, फिर भी सिद्धान्त के रूप में दोनों बातों, दोनों व्यवस्थाओं को एक ही स्थान मिलता है। आखिर खेती में काम करने वालों तथा दूसरे गुलामों में, जो उनसे पहले पाए जाते थे और इन 'सर्फ' लोगों के समय में भी जहाँ-तहाँ थे, मगर विलुप्त हो रहे थे और उनकी जगह ये खेती के काम करने वाले ही ले रहे थे, अन्तर तो था ही। सो भी महान अन्तर। जहाँ गुलामों की देह और आत्मा सर्वथा उनके स्वामियों के अधीन थी कि जब चाहे जो करें, वहाँ 'सर्फ' या खेत-मजदूर ऐसे न थे। वे तो कुछ समय तक अपने ही लिए मालिक के द्वारा दिए गए खेतों में काम करते थे, और कुछ निश्चित समय तक मालिक के खेतों में उसके लिए भी। मालिक जब जो चाहे उनसे करवा नहीं सकता था। कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि मालिक के खेतों पर काम न करके अपनी कमाई का एक निश्चित अंश ही मालिक को नजर या भेंट के रूप में वे लोग दिया करते थे। फलत: गुलामों की अपेक्षा उन्हें आंशिक स्वतन्त्रता, कम से कम बाहरी तौर पर, तो थी ही। ठीक इसी प्रकार देश-भेद से इन खेत-मजदूरों में और उनकी दशा में भी भेद होना स्वाभाविक था। शोषितों और पीड़ितों के मसीहा श्री कार्ल मार्क्‍स ने 'पेट के लिए मजदूरी और पूँजी' नामक ग्रन्थ में बहुत ही विशद रूप से इसका वर्णन यों किया है :
    'जिस प्रकार खेती का बैल किसान के हाथ अपनी श्रम-शक्ति को नहीं बेचता, ठीक उसी तरह गुलाम लोग अपनी श्रम-शक्ति को मालिकों के हाथ बेचते न थे। किन्तु सदा के लिए एक ही बार अपनी उस शक्ति के साथ ही वे लोग उसके हाथ बेच दिए जाते थे। किसी भी पण्य या विक्रय वस्तु की तरह वे एक मालिक के हाथ से दूसरे के पास चले जाते थे। वे स्वयं तो खरीद-बिक्री के पदार्थ माने जाते थे। मगर उनकी श्रम-शक्ति ऐसी मानी जाती न थी। विपरीत इसके खेती में काम करने वाले 'सर्फ' अपनी श्रम-शक्ति का केवल एक अंश बेचते थे। जमीन के मालिक के हाथ से इन्हें मजदूरी नहीं मिलती थी। बल्कि जमीन के मालिक लोग ही उलटे उन्हीं से एक तरह की भेंट पाते थे। असल में 'सर्फ' लोग जमीन के मातहत थे और उसकी पैदावार उसके मालिक को पहुँचाते थे।'
    इस वर्णन में खेत-मजदूरों की आंशिक स्वतन्त्रता साफ दिखाई गई है। जहाँ गुलामों के भरण-पोषण आदि की सारी जिम्मेदारी मालिक पर ही थी, वहाँ खेत-मजदूर उलटे मालिक को ही खिलाते-पिलाते थे। मालिक उस जिम्मेदारी से बरी था।
    इस प्रकार हम देखते हैं कि खेती में काम करने वालों की खेत-मजदूरों की यह दूसरी दशा हुई। इसमें जहाँ एक ओर पहले की अपेक्षा खेती के काम करके जीविका करनेवालों की संख्या अपेक्षाकृत कम हो गई और समाज में कुछ लोग अन्यान्य कामों में जा लगे, तहाँ दूसरी ओर ऐसे लोग भी पैदा हो गए जो दूसरे के खेतों पर काम करते थे, जिसके बदले में या तो उन्हें जमीन ही मिलती थी, या निर्वाह योग्य मजदूरी ही। यद्यपि खुद अपने खेतों पर काम करने वालों को आज की भाषा में मजदूर कहने की परिपाटी नहीं है। तथापि हम तो उससे पूर्व की दशा के मुकाबले में उन्हें खेती के मजदूर या काम करने वाले ही कहते हैं। यही ठीक भी है। वे सचमुच ही मजदूर या श्रमजीवी थे। लेकिन जिस मानी में आज मजदूर शब्द बोला जाता है उस मानी में भी तो आखिर कुछ लोग उसी समय पैदा हुए।
    इसके बाद तीसरी दशा में ये खेती पर काम करने वाले पहुँचे। मगर इस हालत में पहुँचने में बहुत लम्बी मुद्दत लगी। असल में अब प्रवाह उलटने की बारी आई। पहले जो खेती पर निर्भर करने वालों की संख्या क्रमश: घट रही थी अब उसके क्रमश: बढ़ने की नौबत आ पहुँची। इसीलिए इस हालत की शुरुआत को, आरम्भ को एक प्रकार से खतरे की घंटी समझना चाहिए। पहली दो हालतों का जो संक्षिप्त वर्णन ऊपर आया है उससे साफ है कि उनकी तादाद घटने लगी थी। इस कमी के दो मानी होते हैं। एक तो सर्वथा या हर सूरत से कमी; दूसरी अपेक्षाकृत कमी। खेतों पर कमाने वालों की यह कमी दूसरी प्रकार की या अपेक्षाकृत ही थी। क्योंकि जनसंख्या तो धीरे-धीरे बढ़ती ही थी। इसलिए जितने लोग हजारों वर्षों के दरम्यान खेती छोड़ के और धान्धों में लगे उनकी तादाद समूची जनसंख्या के मुकाबले में जरूर ही बहुत ही कम या सिर्फ उसका एक टुकड़ा थी। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि यदि यही बात हजारों साल पहले होती तो जो संख्या खेती वालों की इस प्रकार होती उससे तो कहीं ज्यादा हजारों वर्ष बाद होई गई होती। आखिर कम और ज्यादा जनसंख्या को एक ही प्रकार के टुकड़ों में बाँटने पर ज्यादा संख्या का टुकड़ा बड़ा तो होगा ही। मगर फिर भी समूची संख्या के मुकाबले में छोटा ही होगा। इसीलिए इसे अपेक्षाकृत कमी ही कह सकते हैं। मगर यह ठीक है कि इससे लोगों की भीड़ खेती पर ही नहीं रह गई। फलत: जीविका में दिक्कतें न आईं। मगर जब तीसरी हालत में आई तो बात कुछ और ही हो गई। एक तो धीरे-धीरे खेती लायक सभी जमीनें प्राय: जोती जा चुकीं। बच रही सिर्फ वे जिन पर आसानी से खेती करना गैर-मुमकिन था। जब तक किसी वैज्ञानिक तरीके से काम न लिया जाए और बहुत ज्यादा पूँजी न लगाई जाए तब तक जिन जमीनों में खेती न हो सकती थी वही बच रही। इसलिए जो दल, वर्ण या कौमें खेती के लिए मुकर्रर की गई थीं उनकी भी जनसंख्या बढ़ते-बढ़ते अब खेती के लायक जमीन की कमी महसूस होने लगी। दूसरे, कुछ लोगों ने अनेक तरकीबों से अपने कब्जे में ज्यादा जमीनें कर लीं। क्योंकि सभ्यता के विकास के साथ छीना-झपटी की भी उत्पत्ति हुई, उन्नति हुई। व्यक्तिगत सम्पत्ति जमा करने की होड़-सी लग गई। सभी जमीनें कब्जे में आ जाने पर ऐसी जमीन जो बिना खेती की बची हो रही न गई। फिर तो जिनके पास पहले से जमीनें हों उन्हीं से छीना-झपटी करना लाजिम हो गया। नतीजा यह हुआ कि कुछ के पास जहाँ जरूरत से ज्यादा जमीन हो गई तहाँ बहुतों के पास या तो थी ही नहीं या बहुत ही कम। फलत: वे लाचार हो कर ज्यादा जमीनवालों के या तो हलवाहे वगैरह बन के गुजर करने लगे, या सख्त से सख्त शर्तों और ज्यादा से ज्यादा लगान पर उनसे जमीनें लेने लगे। इस प्रकार आज के मानी में खेत-मजदूरों की तादाद बढ़ी और उत्तरोत्तर बढ़ने लगी।
    तीसरी और सबसे बड़ी बात हुई कि जहाँ पहले नए-नए और आसान उद्योग धन्धो या गुजर-बसर के रास्ते निकला करते थे, वहाँ अब नयों की तो बात ही छोड़िए, जो पहले से भी थे वह भी बन्द होने लगे। आधुनिक ढंग के कल-कारखानों की उत्पत्ति और वृद्धि का जो गत चार-पाँच वर्षों का इतिहास जिनने पढ़ा है वह इस बात को बखूबी समझ सकते हैं। इंग्लैंड वगैरह सभी मुल्कों में किस तरह चरखे और करघे चलाने वाले या दूसरे पेशेवर लोगों को मजबूरन उन कामों से भाग के या तो खेती का लाचार सहारा लेना पड़ा या चोरी, डकैती, भिखमंगी वगैरह का। हिन्दोस्तान में भी किस तरह जुलाहों ने अपने अँगूठे काटे-कटवाए, उनके तथा औरों के धन्‍धे कैसे तबाह हुए, तबाह किए गए यह बात सभी जानते हैं। आज भी तेल पेरने वाले, आटा पीसने वाले, चीनी बनाने वाले और इसी प्रकार के हजारों पेशे वाले कल-कारखानों के मुकाबले में दिवालिए बनके धीरे-धीरे उनसे भाग निकले हैं, भागे जा रहे हैं। गुजस्ता चार-पाँच सौ सालों से जो यह नए ढंग से छीना-झपटी पुराने धन्धों के बारे में नए कल-कारखाने कर रहे हैं वह रोज-रोज बढ़ती ही जा रही है। उस छीना-झपटी के नए-नए रूप खड़े हो रहे हैं। यह सवाल आज हमारी ऑंखों के सामने नाच रहा है। पहले तो हाथ से किए जाने वाले उद्योग-धन्‍धों को कल वाले छीन लेते हैं। फिर छोटे-मोटे कल-कारखानेदारों को बड़े-बड़े भगा देते हैं। अन्त में मुट्ठी-भर बड़े-बड़े मालदारों का गुट बड़े-बड़े हजारों कारखाने खोल के बाकियों को बेकार बना देता है। इस प्रकार आज एकाधिकार का एच्छत्र राज्य या तो हो चुका, या होने जा रहा है।
    अब सोचना यही है कि जिनके धन्‍धे और रोजगार छिन रहे हैं वे आखिर करेंगे क्या? अपने तथा अपने बाल बच्चों के पेटों पर पत्थर तो बॉंध लेंगे नहीं। हवा पी के भी गुजर कर सकते नहीं। नौकरी-चाकरी भी आखिर कितने पाएँगे। ये कारखाने सभी को नौकर तो रख सकते नहीं। यह भी बात है कि जो लोग पढ़े-लिखे न हों, निपुण न हों उन सबों को काम मिल भी नहीं सकता। और गरीबों के लिए पढ़ने का सामान कहाँ? उन्हें पूछे कौन? आज तो यह हालत है कि या तो बड़ी कला वाले विशेषज्ञों की पूछ है या स्त्रियों और बच्चों की। कलों ने कुछ ऐसा कर दिया है कि लड़कियाँ, लड़के या ज्यादे से ज्यादा औरतें ही काम कर सकती हैं जो पुष्ट मर्दों के बिना पहले हो नहीं सकते थे। लड़के-बच्चे वगैरह सस्ते मिलते भी हैं। उन्हें ज्यादा मजदूरी देनी नहीं पड़ती। नतीजा होता है कि मर्दों को कम काम मिलता है। सिर्फ बच्चों या औरतों की कमाई से गुजर भी होती नहीं। ऐसी दशा में वे कहाँ जाएँ, क्या करें यह बड़ा सवाल उनके सामने चौबीसों घंटे खड़ा रहता है। दूसरा रास्ता मिलता भी नहीं। इसलिए हार के खेती की ही शरण लेना चाहते हैं, लेते हैं। खेत भी मिलते नहीं कि जोतें। वे भी तो बहुत महँगे हो गए हैं। यह महँगी भी आए दिन बढ़ती ही जाती है। फिर भी इतना जरूर है कि महँगी से महँगी कीमत या अधिक से अधिक मालगुजारी दे के खेत तो मिली जाते हैं। मगर नौकरी-चाकरी या दूसरे धन्‍धों का तो दरवाजा उनके लिए सदा के लिए बन्द है। जिस तरह महान समुद्र, जिसके आर-पार का कुछ अन्दाज ही न हो, के बीच में पड़े जहाज के मस्तूल पर बैठे कौवे के लिए कोई चारा नहीं, सिवाय इसके कि उसी मस्तूल पर खामख्वाह बैठे, चाहे हजार बाधाएँ हों और अन्त में मरना भी पड़े। आखिर मस्तूल छोड़ के जाएँ तो कहाँ जाएँ? ठीक वही हालत किसानी करने वाले इन गरीबों की है। हार के खेती का ही सहारा लेते हैं। फिर चाहे वह कितनी भी महँगी क्यों न हो।
    जमीन वाले भी कैसे भले होते हैं। उन भलेमानुसों को तो मौका ही मिल जाता है कि खूब ही कसके कीमत, लगान या मालगुजारी वसूलें। मैं तो खूनी और रक्त पीने वाले जमींदारों को जानता हूँ जो जमीन की पैदावार का तीन-चौथाई खुद ले के सिर्फ एक-चौथाई ही किसान के लिए छोड़ते हैं। खूबी तो यह है कि उसी चौथाई में उसे खेती का समूचा खर्च भी चुकाना पड़ता है जो सरासर असम्भव है। यह तो सभी जानते हैं कि कुल पैदावार का प्राय: एक-तिहाई खेती के खर्च में चला जाता है, और उन्हें मिलता है केवल एक-चौथाई ही। ऐसी दशा में वे खुद अपने परिवार के लिए क्या बचाएँगे? नतीजा होता है कि उन्हें अपनी मजदूरी भी हासिल नहीं होती। फलत: वे बनिए-महाजनों या सूदखोरों के चंगुल में रोज-रोज फँसते जाते हैं, ऐसे ही किसान सूदखोरों के क्रीतदास बन जाते हैं। यों तो कहने के लिए वे किसान हैं। किन्तु खेतों में बैलों से भी ज्यादा मेहनत करते रहते हैं। इतने पर भी जब पूरी मजदूरी भी उन्हें नहीं मिलती तो वे खेत-मजदूर से भी गए गुजरे हैं। यह भी नहीं कि थोड़े हैं। ऐसे किसान करोड़ों हैं और उनकी संख्या बेतहाशा बढ़ रही है, जैसा कि आगे बताएँगे।
    एक बात और होती है। खेती करने वाले किसानों के परिवारों की जब वृद्धि होने लगती है और इसी के साथ सम्मिलित परिवार की जगह उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं तो इसका परिणाम खेतों पर बुरा पड़ता है। जो खेत पहले बड़े-बड़े थे वही अब बँटते-बँटते बहुत ही छोटे हो जाते हैं गोया पानी पटाने की क्यारियाँ हैं। जहाँ एक ओर परिवार बड़े होते हैं तहाँ दूसरी ओर ये खेत छोटे। यह छुटाई कहाँ जाके टिकेगी कोई कह नहीं सकता। इसके परिणामस्वरूप कम से कम अस्सी फीसदी किसानों की जमीनें अब ऐसी हो गई हैं कि उनसे उनके परिवार के भरण-पोषण की तो बात ही दूर रहे, आधा या चौथाई पेट भी नहीं भरता, सो भी मोटे से मोटे अन्न को खाकर। इस प्रकार की जमीनों की यह बीमारी किसानों को मटियामेट करने पर तुली बैठी है। फिर भी उसके रोकने का कोई उपाय हो नहीं रहा है। ये प्राय: अस्सी फीसदी किसान और कहीं-कहीं तो नब्बे फीसदी भी, इतने गरीब और तबाह हैं कि उन्हें मजदूर कहने में भी शर्म आती है। क्योंकि मजदूर होने पर कम  या बेश एक बँधी-बँधाई मजदूरी तो मिलती है। मगर यहाँ तो वह भी नहीं है।
    यह इतनी प्रत्यक्ष और सभी जानकारों की मानी हुई बात है कि इसमें किसी भी शंका की गुंजाइश नहीं। फिर भी खून पीने वाले जल्लाद लोग दलील कर बैठते हैं कि तो फिर किसान ऐसी खेती के पास जाते ही क्यों हैं? वे खामख्वाह क्यों खेती में पड़ते हैं जब मजदूरी भी नहीं पाते? उसे वे छोड़ बैठते क्यों नहीं? बिना फायदे के तो कोई भी काम इनसान कभी करता ही नहीं। तो क्या किसान पागल हैं जो ऐसा करते हैं? आदि-आदि। इन सवालों के जरिए ये भलेमानस यह दिखाना चाहते हैं कि नन्हे-नन्हे खेतों के टुकड़ों के पीछे अपने खून को पानी बना डालने वाले ये किसान परिवार जरूर फायदे में रहते हैं। ये लोग दूर की कौड़ी लाते हैं। इसे ही कहते हैं असम्भव को सम्भव साबित करने की हिम्मत और कोशिश। ये लोग अपने को काफी चतुर समझते हैं। मगर इनकी हालत उन बड़े हिसाबी मुंशी जी जैसी ही है, जिन्होंने नदी की गहराई का इसी तरह की दलील और अक्लमन्दी से ऐसा हिसाब लगा लिया था कि उनके छोटे-छोटे बच्चे आसानी से बेखटके पार हो जाएँ। उनने लड़कों को इसी के बूते पर नदी पार कर जाने को कह भी दिया था। मगर जब बीच में ही सभी लड़के डूब मरे तब कहीं जाकर मुंशी जी को अपने हिसाब की गलती का पता चला। ठीक यही बात ये लोग करना चाहते हैं। जब किसानों की हड्डियाँ तक लापता हो जाएँगी तब ये लोग चेतें तो चेतें। मगर पहले नहीं। इन्हें क्या मालूम कि मिट्टी या बालू से आदमी की न तो भूख जाती, न वह जिन्दा रहता और न वह उसका खाद्य है? मगर भयंकर अकाल वाले प्रदेशों में सैकड़ों-हजारों ऐसे आदमियों और जानवरों की लाशें मिली हैं जिनने भूख से व्याकुल हो के बालू या मिट्टी खा ली थी। फलत: मर जाने पर उनके पेटों में वही चीजें पड़ी निकलीं। मस्तूल के कौवे की बात तो कही चुके हैं। कोई और उपाय न देख के लाचार किसान ऐसी दिवालिया खेती का सहारा लेते हैं यही सोचकर कि पीछे जो कुछ होगा देखा जाएगा, तत्काल तो काम चले। इसे ही कहते हैं, 'डूबते को तिनके का सहारा'। फायदे का हिसाब लगा के वे इस काम में हर्गिज नहीं पड़ते। वे तो हिसाब लगाना जानते भी नहीं। वे यही सोचते हैं कि चलो और नहीं तो मेहनत करने के लिए एक साधन तो मिला इससे और नहीं तो मजदूरी तो मिलेगी। मगर उन्हें क्या पता कि यहाँ मजदूरी तक को पहले से ही लूट लेने की बन्दिश करके यार लोग ताक में बैठे हैं। उन्हें कफन खसौटी करने वालों से ही पाला पड़ा है। इस बात पर आगे और भी प्रकाश डाला जाएगा।
    किस प्रकार किसानों की जमीनें लुट रही हैं और उसी के फलस्वरूप किस प्रकार खेती के मजदूरों की, जिनमें पूर्वोक्त किसान नामधारी भी शामिल है, संख्या शैतान की अँतड़ी की तरह बढ़ रही है इस बात की सफाई कुछ और भी करने की जरूरत है। तभी इसका नग्न चित्र हमारी ऑंखों के सामने आएगा। यदि कोई भी आदमी सेन्सस (मनुष्यगणना) की तथा दूसरी सरकारी रिपोर्टों को, जिनमें इस बात की छानबीन की गई है, देखे और उसी के साथ प्रामाणिक गैर-सरकारी आंकड़ों की भी मिलान करें तो उसे आसानी से पता लग जाएगा कि किस तेजी से खेती-मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है और उसी के साथ सिर्फ लगान वसूलने वाले जमींदारों की भी। सन् 1911 ई. की मनुष्यगणना में समूचे देश में लगान पर मौज मारने वाले जमींदारों या जमीन के मालिकों की तादाद 28 लाख लिखी गई है। फिर दस वर्ष बाद सन् 1921 में वही बढ़ के 37 लाख और सन् 1931 में पूरे 41 लाख हो गई। यानी कुल बीस ही साल में ये डयोढ़े हो गए। यह प्राय: पचास फीसदी की वृद्धि इतनी थोड़ी मुद्दत में गजब की है। इसी के साथ-साथ सन् 1921 में खुद खेती करने वाले किसानों की संख्या, जिनकी अपनी जमीन हो, जो सन् 1921 में 7 करोड़ 46 लाख थी वही घट के सन् 1931 में 6 करोड़ 55 लाख पहुँच गई। यानी दस साल में पूरे 91 लाख किसानों की जमीन छिन गई। इसका सीधा अर्थ यह है कि हर साल 9 लाख से ज्यादा किसानों की जमीनें छिनी गई। यह तेज चाल साफ बताती है कि अगर यही हालत रही तो कमोबेश सत्तर साल बीतते न बीतते सभी किसान बिना जमीन के हो जाएँगे। इनमें 14-15 वर्ष तो बीत भी चुके हैं।
    अब देखना यह है कि किसानों की जमीनें जब यों तेजी से छिनी जा रही हैं तो जैसे एक ओर मुफ्तखोर लगान चट्ट जमीन वाले (जमींदार) बढ़ेंगे उसी तरह दूसरी ओर खेती के मजदूर भी बढ़ेंगे ही। यानी ऐसे लोग जिनकी अपनी जमीनें तो होंगी नहीं। इसलिए या तो जमीन वालों से शिकमी, बटाई वगैरह के रूप में बहुत ज्यादा लगान दे के ये लोग जमीनें लेंगे और खेती करेंगे, या दूसरे के खेतों पर सिर्फ बहुत ही थोड़ी मजदूरी पर काम करके जैसे तैसे आधा-चौथाई पेट खाके और चिथड़े लपेट के गुजर करेंगे। हर हालत में वे खेत-मजदूर ही होंगे। दूसरे हो सकते नहीं। इस बात पर ज्यादा विचार अगले प्रकरण में करेंगे। यहाँ यही जान लेना है कि सरकार की ही रिपोर्टों के मुताबिक इन खेत-मजदूरों की तादाद किस तेजी से बढ़ती-बढ़ती आज कहाँ तक जा पहुँची है। सचमुच एक बार तो यह बात दिल दहलाए देती है।
    श्रीयुत आर. पामदत्ता ने सन् 1940 ई. में प्रकाशित अपनी पुस्तक आज का भारत के 218 वें पृष्ठ में इसके बारे में इस प्रकार लिखा है कि
    'सन् 1842 ई. की मनुष्यगणना के कमिश्नर सर टामस मुनरो ने लिखा था कि भारत में बिना जमीन का किसान एक भी न था (बेशक यह अत्युक्ति कही जा सकती है। मगर इससे स्पष्ट होता है यदि ऐसे किसान थे भी तो उनकी संख्या इतनी कम थी कि उसे लिखना फिजूल समझा गया)। फिर सन् 1882 की मनुष्यगणना में बिना जमीन वाले खेत-मजदूरों की तादाद 75 लाख ऑंकी गई। सन् 1921 ई. की गणना ने तो उनकी कुल तादाद पूरे 2 करोड़ 17 लाख, या खेती में लगे लोगों का पाँचवाँ हिस्सा ठहराई। सन् 1931 में वह बढ़के 3 करोड़ 35 लाख, या यों कहिये कि खेती में लगे कुल लोगों की तिहाई हो गई। उसके बाद से लेकर आज तक (1940 में) यह कूता गया है (जैसा कि सन् 1938 में बंगाल असेम्बली में काश्तकारी कानून के संशोधन के बहस मुबाहसे और पहले बताए गए मद्रास प्रान्त के आंकड़ों से भी सिद्ध हो जाता है) कि बिना जमीन के खेत-मजदूरों की कुल संख्या खेती में लगे सब लोगों की आधी हो गई है।' स्थानान्तर में यह संख्या पूरे पाँच करोड़ ऑंकी गई है, जिसका मतलब है कि खेती में लगे हुए किसान परिवारों की संख्या प्राय: दस करोड़ है। ऊपर केवल परिवारों की ही संख्या से मतलब है या ज्यादे से ज्यादा कमाने वाले व्यक्तियों से ही, न कि सभी व्यक्तियों से। परिवार के आश्रित बूढ़े, बच्चे आदि उस संख्या में शामिल नहीं हैं। किन्तु केवल कमाने वाले ही लिये गए हैं। नहीं तो किसानों की संख्या 80 फीसदी होने के कारण कुल तादाद 28 और 32 करोड़ के बीच में होगी। इस प्रकार खेत-मजदूर बाल बच्चे सहित दस से लेकर चौदह-पन्द्रह करोड़ के बीच में पहुँच सकते हैं। कम से कम दस करोड़ तो जरूर ही। क्योंकि उनके तो बच्चे वगैरह भी कमाते ही हैं। केवल बहुत ही नन्हे बच्चे और निहायत बूढ़े वगैरह छूटते हैं।
    जिस मद्रास प्रान्त के आंकड़ों का जिक्र ऊपर आया है उसकी हालत यों है कि सन् 1901 में जहाँ सिर्फ लगान लेने वालों की तादाद फी हजार आदमियों में सिर्फ 20 ही थी, तहाँ तीस ही साल के बाद बढ़ के पूरी 50 यानी ढाई गुनी हो गई। इसी के साथ बिना जमीन वाले खेती के मजदूरों की संख्या 345 से 429 तक यानी एक-तिहाई से प्राय: आधी हो गई। इसी प्रकार यदि बंगाल की हालत का मुकाबला सन् 1921 और 1931 में करते हैं तो दस साल के भीतर ही भयंकर परिवर्तन पाते हैं। जहाँ बंगाल में 1921 में सिर्फ 390562 ही लगान वसूलने वाले जमीन के मालिक थे तहाँ 1931 में पूरे 633834 हो गए। यानी 61 फीसदी बढ़ गए। ठीक इसके उलटा अपने खेतों में खेती करने वाले किसान परिवार घट के 9274924 से 6079717 रह गए। अर्थात् 50 फीसदी की कमी हो गई। खेत-मजदूरों की संख्या भी 1805502 से 2718939 तक जा पहुँची, जिसका मतलब है कि 34 फीसदी की बढ़ती हुई। इसी तरह यदि पंजाब की ओर नजर डालते हैं तो भी इसी तरह की बात पाई जाती है। संयुक्त प्रान्त तथा मध्‍य प्रान्त और बरार भी कुछ ऐसे ही पथ के पथिक नजर आते हैं। पंजाब में लगान पर ही गुलछर्रे उड़ाने वाले सन् 1911 और 1921 के दरम्यान 626000 से बढ़ के 1008000 हो गए। पूरे 62 प्रतिशत की वृद्धि हुई। मध्‍य प्रान्त में भी इसी मुद्दत में 52 प्रतिशत की और युक्त प्रान्त में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह दशा बेशक निहायत ही खतरनाक है। इस सम्बन्ध में ज्यादा ब्योरा और विस्तार देना फिजूल है। ऊपर लिखी बातें काफी हैं।
    खेती पर अधिकाधिक लोग क्रमश: किस प्रकार निर्भर होते जा रहे हैं इसका पता इसी से लग जाता है कि भारत की जनसंख्या की 61.1 फीसदी 1891 में खेती से गुजर करती थी। वही बढ़के 1901 में 66.5, 1911 में 72.2 और 1921 में 73 हो गई। बेशक 1921 की मनुष्यगणना में खेती से जीने वालों की तादाद में गोलमाल हुआ है। इससे पूर्व की तीन गणनाओं के आंकड़े 61.1, 66.5 और 72.2 ही इसके सबूत हैं और संकेत करते हैं कि यह संख्या 78 के करीब होनी चाहिए। फिर भी वृद्धि तो मानी ही गई है। अगर इसी हिसाब से आगे के बीस वर्षों का भी हिसाब लगाएँ तो मानना पड़ेगा कि आज 80 से लेकर 85 फीसदी तक जनसंख्या का आधार एकमात्र खेती है। दूसरी ओर पुराने उद्योग-धन्‍धों और दस्तकारी के क्रमश: खत्म हो जाने से खेती के अलावे दूसरे उद्योग-धन्धों से गुजर करने वालों की तादाद क्रमश: घटती ही जा रही है। हालाँकि नए ढंग के कल कारखाने और बड़ी-बड़ी मिलें इधर ज्यादा खुली हैं। इसका साफ मतलब यही है कि दस्तकारी वगैरह के चौपट हो जाने से जो लोग बिना जीविका के हो गए हैं नए ढंग के कारखाने उन सबों को काम देने में असमर्थ रहे हैं। इसीलिए जो लोग दलील करते हैं कि लोगों की एक जीविका यदि छूटती है तो दूसरी नए ढंग की मिल जाती है नए कारखानों में, वे गलत रास्ते पर हैं और पूँजीवाद की असलियत को समझते ही नहीं। हाँ, तो उद्योग-धन्‍धों से जीने वाले इस देश में जहाँ 1911 में 5.5 प्रतिशत थे, वहाँ 1921 में 4.9 ही रह गए और 1931 में तो और भी घट के 4.3 प्रतिशत हो गए।
    हमने पहले हिसाब लगाया है कि अगर यों ही लोगों की जमीनें छिनती रहीं तो कमोबेश अगले सत्तर सालों में ही सारी जमीनें उनके पास चली जाएँगी जो खुद खेती करते नहीं। फलत: खेती करने वाले सोलहों आने बिना जमीन के हो जाएँगे और जमीन वालों की मनमानी शर्तों पर ही उनसे जमीनें लेके या तो खेती करेंगे, भूखों मरेंगे, कहीं मजूरी करेंगे या चोरी-डकैती आदि। मगर हमें यह न भूलना चाहिए कि वैज्ञानिक ढंग से लंबे पैमाने पर खेती का युग है। इसलिए एक ओर तो हजार उपाय करके किसानों की सारी जमीनें जल्दी ही छिन जाएँगी और भय है कि इस काम में सत्तर साल की आधी मुद्दत भी शायद ही लगे। दूसरी ओर वे जमीनें शिकमी ढंग से भी किसी को फिर मिल न सकेंगी जैसा कि अभी तक होता रहा है। नतीजा यह होगा कि बाकी लोगों को ठीक वैसे ही खेत-मजदूर बन जाना होगा जैसे कि आसाम वगैरह के चाय बागानों एवं कहवा या रबर की खेती में काम करने वाले करीब-करीब दस लाख मजदूर बन गए हैं, जिन्हें मोटी भाषा में कुली कहते आते हैं। सब लोग तो वैसे मजदूर भी बन न सकेंगे। कारण, सबको काम तो मिल न सकेगा। इसलिए कुछ या तो भूखें मरेंगे या दूसरे रास्ते में जाएँगे। मगर बाकी लोग बड़े-बड़े फार्मों पर मजदूरी करेंगे, जैसा कि अमरीका आदि देशों में होता है। वहाँ एक ओर मुट्ठी-भर करोड़पति लोग बड़ी-बड़ी मिलों और बड़े-बड़े फार्मों के मालिक हैं। दूसरी ओर असंख्य जनसमूह उनका गुलाम है और मजदूरी के नाम पर उन्हीं के दिए टुकड़ों पर दिन काटता है।
    इस प्रकार अब तक के बयान से यह साफ हो गया है कि खेती के मजदूरों-खेत-मजदूरों का सवाल पेचीदा है। उनकी न तो कोई बँधी-बँधाई तादाद ही है, और न यही बात है कि किसी एक ही तरीके से उनका नम्बर बढ़ता है। उसके बढ़ने के तो अनेक रास्ते हैं। खूबी तो यह है कि कल जमीनें पास होने से किसान थे और आराम से गुजर करते थे, तो आज एकाएक उनके छिन जाने से मुहताज बन गए। कल किसी धन्‍धे में लगे थे तो आज कोई पूछने वाला नहीं है, पुर्साहाल नहीं है। हर जाति, कौम और मजहब के लोगों को आए दिन इसी घाट उतरना पड़ रहा है। जो लोग माने बैठे हैं कि खेत-मजदूर तो हरिजन या पिछड़ी जातियों के ही लोग हैं उनने देखा कि यह बात गलत है। इस दल में तो सभी लोग लाचारी से धड़ाधड़ शामिल हो रहे हैं, सबों को शामिल होना है।

 

(2)

मजदूर या किसान?

खेत-मजदूरों की हालत का जो नक्शा अब तक खींचा गया है उससे उनकी असलियत की बहुत कुछ जानकारी हो जाने पर भी उनके बारे में एक निहायत ही जरूरी बात का जान लेना बाकी ही है और इसके बिना उनसे सम्बन्ध रखने वाली उनके दु:ख-सुख की बातों का ठीक-ठीक समझना या उनका कोई हल सुझाना आसान हो नहीं सकता। इसीलिए आगे बढ़ने से पहले उस बात का विचार कर लेना आवश्यक है।

    खेत-मजदूर या खेती के मजदूर कहने से ही यह बात एकाएक दिमाग में घुस जाती है कि ये लोग भी ठीक वैसे ही मजदूर हैं जैसे कल-कारखानों और खानों वगैरह में काम करने वाले। इसीलिए लोग समझने लगते हैं कि दूसरे मजदूरों के उद्धार की जो तरकीबें हैं उन्हीं को अमल में लाने से खेत-मजदूरों की भी भलाई होगी और वे अपना मकसद-अपना लक्ष्य हासिल कर लेंगे। ऐसा खयाल हो आना स्वाभाविक है। सिर्फ खयाल ही नहीं, बल्कि उसी के मुताबिक कुछ नए-नए मजदूर-नेता अमल भी करने लगे हैं। नतीजा यह हुआ है कि एक तो इसके चलते खुद खेत-मजदूरों की, और किसानों की भी दिक्कतें बढ़ गई हैं। दूसरे उन्हें कामयाबी भी नहीं मिली है। आमतौर से आगे बढ़ने के बजाए ऐसे कामों से वे लोग पीछे चले गए हैं। यह ठीक है कि कुछ ने तो अनजाने में ही ऐसा किया है। क्योंकि मजदूर नाम से ही वे धोखे में पड़ गए हैं। मगर ज्यादातर ऐसे भी लोग उनका नेतृत्व करने आए हैं जिन्हें अपना उल्लू सीधा करना था। बस, उनने एक रास्ता यही पा लिया। फलत: सारा गुड़ गोबर कर मारा। पता नहीं कि उनका मतलब भी सधा या नहीं। हाँ, इतना तो जरूर देखा कि कुछ दिनों बाद वे मौन हो गए।

    दिक्कत यह है कि लोगों ने मजदूर शब्द का निराला मानी मान लिया है। इसी की जगह जो श्रमजीवी तथा मेहनतकश शब्द बोले जाते हैं उनका मतलब बहुत ही साफ है कि परिश्रम करके या हाथ-पाँव चलाके जो अपनी जीविका करे। अंग्रेजी में इसी अर्थ में 'वर्कर' और 'लेबर' शब्द आते हैं। उनका अर्थ है काम करने वाला या मेहनत करने वाला। यही अर्थ ठीक-ठीक मेहनतकश या श्रमिक शब्दों का है। ये शब्द यह बताते हैं कि निठल्ले बैठे हुए माल उड़ाने वालों की तरह ये लोग नहीं हैं कि दूसरों की कमाई पर भरपूर हाथ साफ करें। यह काम तो जमींदार, साहूकार और पूँजीपति या सरमाएदार ही करते हैं। श्रमिक या श्रमजीवी तो अपनी मेहनत की ही कमाई खुद खाते या औरों को भी खिलाते हैं। यही ठीक भी है और यदि इसी मानी में मजदूर शब्द लिया जाए जैसा कि चाहिए, तब तो खेत-मजदूर का अर्थ समझने में धोखा या गड़बड़ की गुंजाइश ही न रह जाए।

    मगर गड़बड़ होती है इसीलिए कि मजदूर के मानी में ही एक शब्द अंग्रेजी में और भी आता है जिसे 'वेज-वर्कर' कहते हैं। 'वेज-लेबर' शब्द भी इस अर्थ में प्रयुक्त होता है। इन दोनों शब्दों का अक्षरार्थ है 'मजदूरी या वेतन के लिए काम (मेहनत) करने वाला'। प्राय: नौकर और भृत्य शब्द इसी माने में बोले जाते हैं। हालाँकि भृत्य शब्द का असली अर्थ है कि जिसका भरण-पोषण किया जाए। किसी कमाने वाले के आश्रित जितने लोग होते हैं उन सबों को भृत्य कहते हैं। मनु ने अपनी स्मृति के ग्यारहवें अध्‍याय में 'भृत्यानामुपरोधेन' श्लोक में भृत्य शब्द का यही अर्थ लिया है। हाँ, तो 'वे-वर्कर' के माने में ही मजदूर शब्द को समझ के लोग ऐसा मानने लगे हैं कि जो मजदूरी के लिए खेतों पर काम करे वही खेत-मजदूर हैं। जो अपने खेत को जोते-कोड़े, जैसाकि शुरू में सभी करते थे और आज भी बहुतेरे करते हैं, उसे खेत-मजदूर अब न कह के सिर्फ गैर के ही लिए उसी के खेतों को जोतने-कोड़ने आदि का काम जो करता है और उसके बदले में अन्न या पैसे पाता है उसे ही खेत-मजदूर मानने से बहुत सी भूलें हो जाती हैं। अंग्रेजी के 'एग्रीकल्चरल-लेबर' या 'एग्रीकल्चरल प्रोल्तारियत' का भी ऐसा ही अर्थ माना जाता है।

    बात असल में यह है कि आज संसार में, जिस मानी में मजदूर शब्द बोला जा रहा है उसके अर्थ को 'वेज-लेबर' शब्द भी ठीक-ठीक जाहिर कर नहीं सकता। इससे तो सिर्फ इतना ही पता चलता है कि कोई आदमी गैरों के खेत या कारखाने वगैरह में इसीलिए काम करता है कि उसके बदले में एक बँधी-बँधाई रकम या गल्ला वगैरह मिल जाए। इससे यह कतई मालूम नहीं होता कि काम करने वाले के पास खुद भी खेत, काम के दूसरे साधन, घर बार वगैरह, या कुछ सम्पत्ति है या नहीं। आज तो इस प्रकार काम करने वालों का एक बड़ा दल बन गया है जो बाबू कहलाता है और जिसे निम्न-मध्‍यमवर्गीय भी कहते हैं। ऑफिसों के किरानी वगैरह इसी श्रेणी में आ जाते हैं। जिनके पास कुछ भी नहीं है और जो कमाएँ तो खाएँ, नहीं तो भूखों मरें ऐसे लोग भी 'वेज-वर्कर्स' हैं।

    लेकिन आज तो आमतौर से मजदूर शब्द इसी मानी में बोला जाता है कि जिसके पास 'न तो तर धरती और न ऊपर बज्जर' हो, जो हर प्रकार की छोटी-बड़ी सम्पत्ति से सर्वथा रहित हो, जो दूसरों के खेतों या कल-कारखानों में काम करके गुजर करे और पराए के मकानों में ही रहे, जिसे मकान मालिक या कल कारखानेदार जभी चाहे निकाल बाहर करे। ऐसे लोगों को आजकल 'फ्री लेबर' या स्वतन्त्र श्रमिक कहते हैं। इसके मानी हैं कि हर चीज से उनका सम्बन्ध टूटा हो। क्योंकि सम्बन्ध बन्धन का कारण होता है। उसके चलते पूरी आजादी नहीं रहती। इसलिए उनके पास केवल श्रम-शक्ति ही रहती है। उनकी यही एक सम्पत्ति रह जाती है। बाकी सभी गायब। हाँ, स्‍त्री, बच्चे, पिता आदि ऐसे व्यक्ति भी हो सकते हैं जिनकी जीविका का दारोमदार उसी एक कमाने वाले पर ही हो। हालाँकि पूँजीवादी व्यवस्था अमली तौर पर आज यह भी नहीं मानती कि श्रमशक्ति या काम करने की ताकत के सिवाय  मजदूर के पास या उसके सम्बन्धी स्‍त्री बच्चे आदि भी हैं। सिद्धान्त के रूप में भले ही यह बात मानी जाती हो कि यदि स्‍त्री, बच्चे उसे न होंगे तो उसके मरने या अशक्त हो जाने पर फिर मजदूर मिलेंगे कैसे? इसीलिए काम के बदले में उसे इतनी मजदूरी जरूर मिलनी चाहिए कि वह खुद सशक्त रहे, सन्तान उत्पन्न कर सके और स्‍त्री, बच्चों का भरण-पोषण कर पाए। मगर व्यवहार में तो यही देखा जाता है कि जहाँ तक हो सके कम से कम मजदूरी ही उसे दी जाती है जिससे उस अकेले की भी गुजर असम्भव है।

    आज के कल-युग (कल-कारखानों के युग) में वह एक प्रकार से खरीद-बिक्री की चीज माना जाता है। जिस प्रकार कपड़े लत्ते वगैरह बाजार भाव पर बिका करते हैं और उनकी कीमत कभी घटती और कभी बढ़ती है, कभी-कभी तो ऐसा होता है कि उनका पूछने वाला कोई होता ही नहीं, जिससे वे पड़े-पड़े सड़ा करते हैं। ठीक यही दशा उस मजदूर की या यों कहिए कि उसकी श्रमशक्ति की है। वह भी 'कमोडिटी' ही है। उसकी भी कीमत घटती-बढ़ती रहती है। कभी-कभी तो उसे कोई पूछता भी नहीं। गुलाम लोग तो बिक जाते थे और जिसके पास वे जाते वही उनके खान-पान वगैरह का प्रबन्ध सदा के लिए करता था उसके लिए जवाबदेह बन जाता था। अगर उसने कदाचित् गुलाम को बेचा भी तो कोई खरीदता वही उसके खान-पान आदि के लिए उत्तरदायी बन जाता। यह बात पहले प्रकरण में ही कही जा चुकी है। मगर वर्तमान के 'वेज-लेबर' (मजदूर) की तो अजीब हालत है। यह तो मारा फिरता है, कारखानेदार उसे आदमी समझते ही नहीं। उन्हें उसकी गर्ज नहीं है। यदि वे एक मजदूर चाहते हैं तो दस दौड़े आते हैं। फिर गर्ज क्यों रहे? जिस प्रकार बाजार में चीजों की कीमत आपस की चढ़ा-बढ़ी के कारण बहुत ज्यादा गिर जाती है, वही हालत मजदूरों की, उनकी श्रमशक्ति की है। आपसी चढ़ा-बढ़ी के चलते उसकी कीमत नाममात्र को ही मिलती है। इसीलिए मजदूर का उचित और असली नाम 'वेज-लेबर' न होकर प्रोल्तारियन माना गया है। इस शब्द का अर्थ है 'सर्वहारा' अर्थात् जिसका सबकुछ छिन गया है, हर लिया गया है। कार्ल मार्क्‍स ने अपनी पूर्वोक्त पुस्तक में इस सर्वहारा की उपमा रेशम की कीड़े से दी है जैसे रेशम के कीड़े को खाना इसलिए खिलाते हैं कि वह मालिक के लिए रेशम पैदा करते हैं। ठीक सर्वहारा को भी खाना देते हैं केवल इसलिए कि काम कर देता है। कीड़े को जिन्दा रहना है तो रेशम पैदा करे और सर्वहारा को कायम करना है तो काम करे।

    मार्क्‍स उसी किताब में आगे और भी लिखता है कि 'इस स्वतन्त्र श्रमिक (मजदूर) की तो यह हालत है कि इसे अपनी आत्मा, अपनी हस्ती को ही बेच देना पड़ता है। सो भी एक बार नहीं, किन्तु टुकड़े-टुकड़े करके। अपने जीवन के 8, 10, 12 या 15 घंटे एक दिन वह उसके हाथ नीलाम कर देता है जो सबसे ज्यादा बोली बोलता है दाम देता है। अर्थात् जिसके पास उत्पादन के (काम करने के) साधन कच्चे माल, औजार हथियार वगैरह तथा जीवनोपयोगी अन्न-वस्‍त्रादि होते हैं और जिसे पूँजीपति कहते हैं। यही बात फिर अगले दिन और उसके बाद बराबर होती रहती है। यह श्रमजीवी या सर्वहारा न तो किसी एक पूँजीपति के और न किसी जमीन के मातहत होता है। सिर्फ उसकी रोजाना जिन्दगी के 8, 10, 12 या 15 घंटे उस आदमी के हो जाते हैं जो उन्हें खरीदता है।'

    अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कैपिटल में मार्क्‍स इसी बात को संक्षेप में यों लिखता है कि 'उसके पास साधनों में एक भी नहीं रहना चाहिए जिस पर उसकी श्रमशक्ति का प्रयोग हो सके।' ऐसे लोग जिनके पास श्रमशक्ति के अलावा और कुछ हई नहीं।

    मि. जॉन स्ट्रेची ने अपनी पुस्तक समाजवाद सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक में यही बात यों लिखी है कि 'मजदूर वर्ग ऐसे लोगों का बना होता है जिन्हें मजबूरन अपनी जिन्दगी कायम रखने के लिए अपने काम करने की शक्ति को कारखानेदारों या खेतवालों के हाथ काम करने के लिए बेच देना पड़ता है।'

    अब हमें इसी कसौटी पर कसके देखना है कि हमारे देश के खेत-मजदूर कहे जाने वाले इसमें खरे उतरते हैं या नहीं, या उनमें यह बात पाई जाती है या नहीं। बेशक यहाँ खेतों में काम करने वाले मजदूरों के दो टुकड़े कर सकते हैं। एक दल तो उनका है जो वैज्ञानिक ढंग से की जाने वाली खेती के लिए हजारों एकड़ों फार्मों में काम करते हैं। ऐसे मजदूर दार्जिलिंग एवं आसाम के उत्तरी जिलों के चाय बागानों में तथा नीलगिरी आदि स्थानों में कहवा या रबर के बड़े-बड़े फार्मों में पाए जाते हैं। इनके बारे में पूर्वोक्त पुस्तक में श्री पामदत्ता ने लिखा है कि 'साहूकारों के गुलाम बनके जो लोग मजदूरी करते हैं, अनेक बातों में ठीक उन्हीं की-सी हालत उन दस लाख से ज्यादा मजदूरों की है जो गुलामों की तरह बड़े-बड़े चाय, कहवा और रबर के बागानों में काम करते हैं। इन बागानों में 90 प्रतिशत के मालिक यूरोपीयन ही हैं जो बहुत ज्यादा मुनाफा कमाते हैं।'

    प्रान्तीय सरकारों और भारत सरकार के बड़े फार्मों में तथा कुछ गैर-सरकारी फार्मों में भी इसी प्रकार के मजदूर मिल सकते हैं। मगर एक तो इनके बारे में कोई पक्की जानकारी है नहीं। दूसरे पूर्वोक्त बागानों के मजदूरों की बात निराली है। वे एक-एक स्थान पर कई-कई हजार की तादाद में आज युगों से बस गए हैं। इस प्रकार वे सचमुच सर्वहारा बन गए हैं। यह बात इन फार्मों में काम करने वालों में अभी तक आमतौर से है नहीं। इसीलिए बागान वालों के बारे में श्री पामदत्ता लिखते हैं कि 'संगठित मजदूर आन्दोलन को चलाने की शक्ति की दृष्टि से हमें दस लाख से ज्यादा उन श्रमजीवियों को भी गिनना होगा जो बागानों में काम करते हैं। ये लोग पूर्ण रीति से वैज्ञानिक तरीके पर गुलाम बना कर रखने वाले चाय वगैरह के बागानों में काम करते हैं। यद्यपि वे लोग अब तक सभी प्रकार के संगठनों से वंचित रह गए, उन्हें किसी से मिलने-जुलने नहीं दिया जाता और पूर्णतया मालिकों के अधीन कर दिए गए हैं। तथापि बेचैनी और गड़बड़ी के समय उनने बहुत ऊँचे दर्जे के संघर्षात्मक काम किए हैं।'

    अतएव ऐसे खेत-मजदूरों को मजदूर या सर्वहारा श्रेणी में दाखिल करने में किसी को भी आनाकानी हो नहीं सकती। वे तो उसी दल के हैं। ऐसे बागानों या फार्मों में, जो आज मौजूद हैं या आगे कायम होंगे, जो भी खेत-मजदूर होंगे वे तो दरअसल उन मजदूरों से जरा भी भिन्न नहीं हो सकते जो खानों, बड़े कारखानों या ऐसे उद्योग-धन्‍धों में काम करते हैं। उन दोनों की दशा, रहन-सहन, लड़ाई और परिस्थिति प्राय: एक ही ढंग की होती है। शायद ही तफसीली या ब्योरे की बातों में कुछ अन्तर होता है। मगर असलियत एक ही होती है।

    खेत-मजदूरों के दो दल होते हैं इस बात की पुष्टि लेनिन के उस भाषण के एक अंश से हो जाती है जो उसने कम्युनिस्ट पार्टी की दसवीं कांग्रेस के अवसर पर सन् 1921 ई. की गर्मियों में दिया था। खेत-मजदूरों के जिस सर्वहारा नामक अंश का उल्लेख अभी किया गया है उसे लेनिन ने खुद उसी भाषण में स्वीकार किया है। उसका एक अंश यों है 'जिन देशों में पूँजीवाद की काफी तरक्की हो गई है वहाँ कुछ मुद्दत से बनते-बनते अब खेत-मजदूरों का एक वर्ग तैयार हो गया है जो केवल पैसे या मेहनताने के लिए काम करता है। जिन मुल्कों में यह वर्ग काफी मजबूत और बड़ा बन गया है वहाँ पूँजीवाद से सीधे समाजवाद की स्थापना हो सकती है। लेकिन हमने तो अपनी लम्बी लेखमालाओं, सभी भाषणों और सभी अखबारों के द्वारा इस बात पर पूरा जोर दिया है कि रूस की परिस्थिति ऐसी नहीं है। रूस में तो अपेक्षाकृत अल्पसंख्यक मजदूर ही कल-कारखानों में काम करते हैं। यहाँ तो अधिकांश लोग छोटे-छोटे खेतिहर हैं, जो अपनी जमीनों में खेती करते हैं।'

    लेनिन के इस कथन से जहाँ एक ओर यह बात सिद्ध होती है कि लम्बे पैमाने पर ही खेती करने पर खेत-मजदूरों का सर्वहारा वर्ग तैयार होता है और उसके लिए पूँजीवाद के भरपूर विकास की जरूरत है, साथ ही उस दशा में भी इस वर्ग के तैयार होने में कुछ मुद्दत लगती है, तहाँ दूसरी ओर दूसरे खेत-मजदूरों का नाम उसमें लिया ही नहीं गया है। खेत-मजदूरों के सर्वहारा वर्ग के सिवाय बाकियों को लेनिन ने टुटपुँजिए खेतिहर वर्ग में ही गिना है। यह तो कह नहीं सकते कि बड़े-बड़े फार्मों के सिवाय बाकी जो छोटे-मोटे किसान थे उनके खेतों पर मजदूर काम करते ही न थे। रूस का इतिहास ही इस बात का साक्षी है कि ऐसे लोग थे बहुत। इतना ही नहीं। खेती सम्बन्धी गुलामी प्रथा जब सन् 1861 ई. की 19 फरवरी को रूस में कानून के जरिए खत्म की गई तो हालत यह हो गई कि कहने के लिए वे गुलाम आजाद बन गए और उन्हें जमीनें भी मिल गईं। मगर श्री लांसलाट ओयन के अनुसार जिनने सन् 1906 और 1917 के बीच किसान आन्दोलन के सम्बन्ध की अपनी किताब के छठे पृष्ठ में यह बात यों लिखी थी कि असलियत यह थी कि इस आजादी और जमीन की प्राप्ति के लिए सरकार को हर साल उन्हें जो रकम चुकानी पड़ती थी वह उन जमीनों की पैदवार की कीमत से कहीं ज्यादा होती थी। यह बात प्रोफेसर वाई. ई. यानसन ने लिखी है। यद्यपि हारकोव सरकारी वकील ने प्रोफेसर की सभी बातें अक्षरश: नहीं मानी हैं, तथापि उसने कबूल किया है कि बहुत से इलाकों में तो साफ ही जमीन की कमी ऐसी थी कि उसकी उपज से अपनी प्रतिदिन की सख्त जरूरतों को पूरा करना और सरकारी पावना चुकाना ये दोनों बातें किसानों के लिए असम्भव थीं। इसीलिए श्री ओयन अपनी उसी किताब के 7वें पृष्ठ में साफ ही लिखते हैं कि 'इस जमीन की कमी के चलते किसानों को मजबूरन या तो जमींदारों से लगान पर जमीन लेकर अपनी जरूरत को पूरा करना पड़ता था, या उन जमींदारों के खेतों में उन्हें मजदूरी करनी पड़ती थी, या गाँवों से दूर जा के कहीं नौकरी करके काम चलाना पड़ता था।'

    उसके बाद श्री ओयन की पूर्वोक्त पुस्तक के 65-66 पृष्ठों के अनुसार सन् 1906 ई. के 9 नवम्बर की घोषणा के द्वारा जो गाँवों की पंचायती जमीनों को टुकड़े-टुकड़े बाँटने की आजादी किसानों को जार के प्रधानमंत्री स्टालिपिन ने दी उसका भी नतीजा यही हुआ कि गाँवों में दो प्रकार के किसान हो गए। एक तो वे जिन्हें पंचायत से बाहर जमीन मिलने पर भी, जमीन की अल्पता या खेती का और सामान पास में न होने के कारण, वह जमीन मजबूरन बेच देनी पड़ी। दूसरे थे धनी और सम्पन्न लोग, जिन्हें जमीन खरीदने की आजादी अब प्राप्त थी। सन् 1907 और 1910 के भीतर कुल मिला के प्राय: एक करोड़ एकड़ जमीन इस प्रकार बिक गई।

    इनके सिवाय बालटिक प्रदेश में 'बतराकी' कहे जाने वाले ऐसे लोग थे जिनकी अपनी जमीनें न होने पर भी दूसरे के खेतों पर काम करते थे। पैदावार का एक निश्चित भाग जमीन के मालिक को देने की शर्त पर जमीनें लेकर खेती करने वाले तो थे ही। इस प्रकार जैसे हमारे देश में हलवाहे आदि के नाम से प्रसिद्ध खेत-मजदूर हैं वैसे ही रूस में भी थे। फिर भी यह सोचने की बात है कि लेनिन ने उन्हें खेत-मजदूर न कहके टुटपुँजिए किसानों के ही नाम से पुकारा है और खेतिहरों में ही जिन्हें शामिल कर लिया है। आखिर स्टालिपिन की व्यवस्था ने ही तो रूस में कुलक नामक धनी किसानों की वृद्धि को प्रश्रय दिया था। इसीलिए उनके यहाँ खेतों में काम करने वालों की कमी रूस में थी नहीं। यह ठीक है कि लेनिन के कथनानुसार उन्हें 'जमीन वाले छोटे-छोटे किसान' भी नहीं कह सकते। लेकिन उनका पृथक् उल्लेख ऐसे महत्त्वपूर्ण अवसर पर जो लेनिन ने नहीं किया, उससे साफ है कि जहाँ तक जनता की क्रान्ति का ताल्लुक था, किसानों से अलग उन खेती के मजदूरों की गिनती न थी। लेनिन ने उन्हें कारखानों या बड़े-बड़े फार्मों के सर्वहारा की श्रेणी के योग्य न समझ किसानों की ही श्रेणी में समझा।

    लेनिन के इस कथन का और मतलब है। असल में क्रान्तिकारी शक्तियों का विश्लेषण करते हुए ही उसने ऐसा कहा था और असली क्रान्तिकारी शक्ति तो गाँवों में केवल सर्वहारा श्रेणी में ही हो सकती है। क्योंकि वह दल कारखानों के सर्वहारा जैसा ही है। बाकी लोग तो उसके पीछे आते हैं। सो भी शुरू में नहीं। किन्तु आगे चलकर जब वे देखते हैं कि उनका मतलब सिद्ध होने वाला है। सर्वहारा श्रेणी को भी क्रान्ति की सफलता के लिए मजबूरन उनसे समझौता करना पड़ता है। लेनिन का तात्पर्य यही है कि केवल सर्वहारा श्रेणी को ही सर्वशक्तिमान समझ उनसे ही क्रान्ति की सफलता का खयाल करना भारी भूल है। वे तो देहातों में हई नहीं है। देहातों में तो टुटपुँजिए किसान ही अत्यधिक संख्या में पाए जाते हैं और यदि उनसे सुलह न की जाएगी तो क्रान्ति की सफलता मिल नहीं सकती। बनी बनाई क्रान्ति मटियामेट हो जाएगी। नई आर्थिक नीति की जरूरत बताते हुए ही उनसे यह बात कही थी और इस नीति में टुटपुँजिए या साधारण किसानों के साथ काफी रिआयत करके समाजवाद के सिद्धान्त का पूर्ण पालन न किया गया था। फलत: उन किसानों के साथ सर्वहारा वर्ग का एक प्रकार से समझौता हुआ था। यदि खेती के मजदूरों को सर्वहारा श्रेणी में मानते तो क्रान्ति की सफलता में धोखा होता। क्योंकि उनकी मनोवृत्ति किसानों जैसी ही होती है। इसलिए उस कथन के बाद ही उसी भाषण में यही बात लेनिन ने कही थी।

    हाँ, तो बड़े-बड़े बागानों और फार्मों में काम करने वाले दस-बारह लाख मजदूर तो सर्वहारा श्रेणी में ही आते हैं जैसा कि अब तक के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है। सर्वहारा की सबसे बड़ी और असली पहचान यह है कि उनमें संगठित रूप से मिलकर लड़ने और अपना हक हासिल करने की शक्ति होती है, जिसे अंग्रेजी में कलक्टिव बारगेनिंग पावर कहते हैं। इन फार्मों और बागानों के मजदूरों में भी यह बात पाई जाती है।

    इस बात को यों देखें तो काम चले। किसी भी मिल या कारखाने को लीजिए। वहाँ हजारों मजदूर काम करते पाए जाएँगे। एक तो वे एक ही साथ एक ही समय उठते-बैठते और सोते-जागते हैं। गिरोह बॉंध के एक ही साथ काम पर जाते और वहाँ से लौटते हैं। समय की पाबन्दी पर पूरी नजर रखने की मजबूरी के करते उनका जीवन फौजी जवानों की तरह हो जाता है। एक प्रकार की कवायद उन्हें सीखनी ही पड़ती है आने-जाने आदि के रूप में। साथ ही, बराबर सम्मिलित जीवन बिताने का भी उन पर असर पड़ता है, जैसे बैरकों के सिपाही हों। यदि वे एक राय से काम बन्द कर दें तो कारखाने वाले को अपना काम चलाना गैर-मुमकिन हो जाता है। एक तो उनके कामों को आमतौर पर से सभी लोग कर नहीं सकते कि छोड़ देने पर सँभाल लें। दूसरे हजारों आदमियों को जमा करना आसान नहीं। तीसरे काम छोड़नेवाले मजदूर पिकेटिंग आदि के जरिए बाहरी लोगों को रोक देते हैं। चौथी बात यह होती है कि उनकी यूनियन (सभा) आसानी से उनका पथप्रदर्शन कर सकती है। क्योंकि वे लोग एक ही जगह रहते जो हैं, जिससे जब चाहें सबों से मिलजुल सकते हैं। पाँचवीं बात यह होती है कि दूसरे-दूसरे कारखानों के मजदूर भी उनकी सहानुभूति में काम बन्द कर देते हैं। क्योंकि यह हालत तो एक के बाद दीगरे सभी की होती है। इसलिए यदि एक कारखाने वालों ने दूसरे मिलवालों से हमदर्दी दिखाई, तो दूसरे भी मौका पड़ने पर पहले वालों से दिखाते ही हैं। सबसे बड़ी बात यह होती है कि एक स्थान पर रहने के कारण समाचार-पत्रों, सामयिक किताबों, सभाओं वगैरह से फायदा आसानी से उठाया जा सकता है। इसके सिवाय जहाँ ऐसे कारखाने या बागान होते हैं वहाँ रेल, तार, बेतार, वगैरह की आसानी रहने के कारण दुनिया की खबर वहाँ और वहाँ की दुनिया में आसानी से पहुँच जाने के कारण बाहर की जनता भी उनके साथ सहानुभूति का प्रदर्शन करती है। अतएव इन सभी बातों के फलस्वरूप उन मजदूरों को अपनी लड़ाई में आसानी होती है और सफलता भी प्राय: मिलती ही है। ये सभी बातें मिलों और फार्मों या बागानों में समान रूप से पाई जाती हैं। रेल तार वगैरह के बिना दोनों का ही काम नहीं चल पाता। बाकी बातें भी पाई जाती हैं।

    इस प्रकार खेत-मजदूरों के एक भाग का विचार हो चुका। वे सोलहों आने मजदूर वर्ग में आ जाते हैं। अतएव उनकी लड़ाइयाँ, उनके संगठन, उनके काम ठीक वैसे ही होने चाहिए, जैसे दूसरे मजदूरों के होते हैं उनके जो मिलों वगैरह में काम करते हैं। मगर यह याद रखना होगा कि खेत-मजदूरों की संख्या पाँच करोड़ या ज्यादा बताई गई है उसका एक महज नन्हा सा हिस्सा ऐसे मजदूरों का है। मुश्किल से दो प्रतिशत भी शायद ही हो। इसलिए अब जो 98 प्रतिशत बच गए हैं उन्हें किस श्रेणी में गिना जाए यह सवाल उठता है अर्थात् उन खेत-मजदूरों के दूसरे और महत्त्वपूर्ण भाग का विचार भी कर लेना जरूरी है। असल में तो हमें इन 98 फीसदी से ही काम पड़ता है। 2 प्रतिशत तो कहाँ दूरदराज खोह और प्रदेश में पड़े हैं कौन बताए? उन तक कौन पहुँचे? जैसा कि रूस के बारे में लेनिन का वचन उद्धृत कर चुके हैं वह भारत में तो और भी अक्षरश: लागू है। यहाँ तो छोटे-छोटे खेत नन्ही-नन्ही क्यारियों जैसे सर्वत्र नजर आते हैं और उनमें कहीं एक, कहीं दो, कहीं चार इसी प्रकार खेत-मजदूर हल चलाते या दूसरे काम करते पाए जाते हैं। कोई गाँव ऐसा है जहाँ खुद किसान ही अपनी खेती का काम कर लेते हैं। उन्हें हलवाहे आदि की जरूरत नहीं होती। फिर ऐसा भी गाँव है जहाँ दो ही चार किसान हैं। जिन्हें खेत-मजदूरों से काम लेने की जरूरत है। जहाँ ज्यादा खेत-मजदूर हैं ऐसे भी गाँव पाए जाते हैं। कहीं गाँव पास-पास में हैं, तो कहीं एक से दूसरे का फासला मीलों और कोसों है। तात्पर्य यह है कि खेती के मजदूर दाने की तरह बिखरे पड़े हैं और इनका परस्पर मिलना आसान नहीं है। यदि चाहें तो भी अकसर मिल सकना प्राय: असम्भव है। न तो सबों के काम के घंटे तक निश्चित हैं और इतनी ही देर काम करेंगे, ज्यादा देर नहीं यही तय है। फलत: काम के बाद पस्त और मुर्दे हो जाते हैं। गधो की तरह दिन-रात खटना जो पड़ता है। ज्यादातर किसानों और उनके मजदूरों की दोनों की ही यही हालत है। फिर हिम्मत कहाँ कि काम के बाद मीटिंग करें?

    जाति-पाँति और धर्म-मजहब का भेद भी इन्हें एक-दूसरे से जुदा रखता है। ऊँच-नीच के पुराने खयाल और संस्कार उनके दिल में यह बात आने ही नहीं देते कि सभी खेत-मजदूर हैं। फिर मिलके लड़ने की बात कैसे और क्यों कर उठ सकती है? यदि कहीं लड़ने की हिम्मत भी इनने की तो किसान आसानी से एक की जगह दूसरे से काम ले सकता है। हर किसान को तो एक, दो-चार ही की जरूरत होती है और उतने ही आसानी से उसे मिल सकते हैं। यदि न भी मिलें तो किसान खुद भी खेती का काम कर सकता है। कल-पुर्जे चलाने या मशीन का काम तो है नहीं कि गँवार किसान चला नहीं सकता। लकड़ी के ये पुराने दकियानूसी हल तो सभी के हाथों बखूबी चल सकते हैं। असल में थोड़ा सा सम्मान की मिथ्या धारणा या धर्म का गलत खयाल ही उसे हल वगैरह चलाने से रोकता था। मगर जब भूखों मरने या झुकने की नौबत आएगी तो ये खयाल टिक नहीं सकते। ऐसा सैकड़ों जगह हो भी चुका है। सिर्फ कयास या अन्दाज की बात नहीं है। ऐसी दशा में मिलके लड़ना या कलेक्टिव बारगेनिंग की गुंजाइश भी यहाँ कैसे हो सकती है? और अगर कहीं-कहीं खेत मजदूरों के द्वारा काम छोड़ देने (हड़ताल) की धमकी या खास हड़ताल को ही सफलता मिली है तो ज्यादा जगह विफलता भी हाथ लगी है। यह भी याद रहे कि किसानों के सजग न होने से ही यह बात हुई है। लेकिन जब यह हड़ताल संगठित रूप से चलाने की कोशिश होगी तो किसान भी सामूहिक रूप से सजग हो जाएँगे और नतीजा बुरा होगा।

    मजदूरों की सम्मिलित लड़ाई की योग्यता के सम्बन्ध में पहली जितनी बातें कही गई हैं उनमें एक भी इन खेत-मजदूरों के सम्बन्ध में लागू नहीं हो सकती हैं। दूर-दराज की देहातों में रेल, तार वगैरह का ही अभाव ही समझिए। अखबार और सामयिक साहित्य की प्राप्ति भी नहीं के बराबर ही है। मीटिंगें भी शायद ही कभी कहीं हो पाती हों। उनका संगठन तो और भी कठिन है। परस्पर हमदर्दी तो शायद ही कहीं हो। उसका प्रदर्शन का मौका भी तो नहीं होता। परिणाम भी कुछ हो नहीं सकता। एक किसान का दूसरे के साथ वैसा नाता नहीं है जैसा कि एक मिल का दूसरी के साथ। अतएव इन्हें मजदूरों की श्रेणी में गिनना ठीक नहीं है। इसके लिए कोई भी कारण नहीं है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन खेत-मजदूरों के मकान या झोंपड़े तो होते ही हैं। एकाध बकरी, गाय या सूअर वगैरह भी रहते ही हैं। और नहीं तो दो-चार कट्ठे जमीन भी होते ही हैं। ज्यादा नहीं तो मकान वाली ही जमीन इनकी होती है। यह भी बात तो है कि कल तक किसान थे, मगर जमींदार या साहूकार ने सारी जमीन नीलाम करवा ली तो एकाएक आज बिना जमीन के हो गए खेत-मजदूर बन गए। मगर सर्वहारा इतनी जल्दी कैसे बन जाएँगे? कही तो चुके हैं कि खेत-मजदूरों की संख्या इतनी बड़ी तेजी से बढ़ रही है। हर साल लाखों इस दल में शामिल हो रहे हैं। अतएव इन्हें किसान ही मानना ठीक है। ये उसी वर्ग में शामिल किए जा सकते हैं, किए जाने चाहिए।

    लेकिन इस गोलमोल कथन से काम नहीं चल सकता। इस बात की थोड़ी और सफाई होनी चाहिए। किसान कहने से बहुत तरह के लोग आ जाते हैं। ऐसे भी लोग अपने को किसान कहते हैं, कहने की हिम्मत करते हैं जिनके पास बीसों हजार बीघा जमीन केवल रैयती है। लेकिन यदि सच पूछा जाए तो वे जमींदार ही हैं भयंकर जमींदार हैं। क्योंकि किसान के नाम लोगों को आसानी से धोखा दे सकते हैं। साधारणतया किसान उसी को कहना चाहिए जिसकी प्रधान जीविका खेती हो। इसका आशय यही है कि प्रधानरूप में खेती के बिना जिसकी जीविका चल न सके वह किसान कहने का दावा नहीं कर सकता। ऐसी दशा में जो लोग बहुत ज्यादा रैयती जमीनें रखते और कुछ में खेती करके बाकी को दूसरों को बन्दोबस्त कर देते हैं। उनकी जीविका जो खेती के बिना भी चल ही जाती है। विपरीत इसके जिसके पास जरा-मरा अपनी जमीन हो, या न भी हो, मगर दूसरों से ही बँटाई वगैरह के रूप में ही कुछ जमीन ले के, खेती करे और मौका पाकर गैरों के खेतों पर मजदूरी करे, वह किसान कहा जा सकता है। लेकिन जिसके परिवार के लिए जीविका का प्रधान साधन मजदूरी ही हो वह साधारणतया किसान न समझा जाने पर भी किसान श्रेणी के बाहर तब तक माना जाना नहीं चाहिए जब तक छोटे-मोटे खेतिहरों के खेतों पर काम करके ही जीविका करता है और बड़े बागानों या बड़े फार्मों में काम नहीं करता। तात्पर्य यह है कि जब तक उसे जमीन हासिल कर उसमें खेती करके गुजर करने की आशा है और जब तक इस आशा की पूर्ति  की सम्भावना है तभी तक उसे किसान कह सकते हैं। मगर जहाँ आधुनिक ढंग के फार्मों में मोटर के हलों से खेती होने लगी और पूँजीवाद का खेती में भी पदार्पण हो गया वहाँ यह सम्भावना नहीं रह जाती। इसलिए वहाँ का खेत-मजदूर जरूर ही किसान न होके मजदूर या सर्वहारा बन जाता है। फलत: जैसे-जैसे ये फार्म बढेंग़े तैसे असली खेत-मजदूर बढ़ते जाएँगे।

    असल में किसान तीन दलों में बाँटे जा सकते हैं (1) गरीब किसान(2) मध्‍यम श्रेणी के किसान, और (3) धनी किसान। वर्तमान रूस के विधाता श्री स्तालिन ने लेनिनवाद नामक सुन्दर किताब लिखी है। या यों कहिए कि स्तालिन के लेखों, भाषणों आदि का संग्रह स्वरूप ही वह पुस्तक बनी है। उसके पृष्ठ 308 में टिप्पणी इस बात पर सुन्दर प्रकाश डालती है। रूस की उस समय की दशा भारत से मिलती-जुलती थी जहाँ तक किसानों का ताल्लुक था। इसीलिए वह टिप्पणी हमारे बड़े काम की है। वह यों है 'रूसी किसान प्रधानतया तीन तरह के हैं (1) धनी किसान, जिन्हें कुलक कहते हैं। इनके खेत बड़े-बड़े होते हैं और ये लोग मजदूरी पर मजदूरों से काम करवाते हैं। ये लोग 'देहाती सम्पत्ति जीवी या पूँजीपति' हैं। जारशाही के समय के गाँवों के सूदखोर और शराब बेचने वाले भी कुलक कहे जाते थे। (2) मध्‍यम किसान, जो अपने खेतों में अपने घर वालों की ही मदद से अपने ही हाथों खुद खेती करते हैं। ये लोग साधारणतया मजदूरों से काम नहीं करवाते। (3) गरीब किसान जिनके पास या तो बहुत ही थोड़े खेत होते हैं, या बिलकुल ही नहीं होते। ये लोग प्रधानतया मजदूरी के लिए ही खेतों में काम करते हैं। इन्हें अर्द्ध किसान या अर्द्ध सर्वहारा कह सकते हैं। ये लोग गाँवों में काम न रहने पर यानी खेती का मौसम न होने पर शहरों में मजदूरी करते हैं।'

    ऊपर के इस बयान में कई महत्त्वपूर्ण बातें हैं। एक तो यह है कि यह जो रूस के किसानों का वर्णन दिया गया है वह प्राय: भारत के किसानों की दशा से सोलहों आने मिलता-जुलता ही है। जिन धनी और गरीब किसानों का उल्लेख इसमें है वे तो हमारे यहाँ भी ठीक-ठीक पाए जाते हैं। जरा भी अन्तर नहीं है। रूस में खेत-मजदूरों को गरीब किसानों में ही गिना है। हमारे यहाँ भी यही बात है। हम इसे न समझें या न मानें, तो बात ही दूसरी है। मगर हालत तो दोनों जगह बराबर ही है। हाँ, मध्‍यम किसानों का जो वर्णन वहाँ के लिए है उसमें और यहाँ के मध्‍यम किसानों की हालत में कुछ-कुछ अन्तर है। हमारे यहाँ धर्म-वर्म का मिथ्या बखेड़ा होने के कारणा मध्‍यम किसान बहुतेरे मजदूरों से काम करवाते हैं। ज्यादातर ब्राह्मण लोग ही ऐसा करते हैं और कुछ क्षत्रिय लोग भी। इस धर्म के बखेड़े के करते ही गरीब ब्राह्मण किसान भी खुद हल नहीं चलाते। यहाँ के भी मध्‍यम किसान कमाते खाते ही हैं। उनकी पैदावार बेचने के लिए शायद ही कभी होती हो। पैदावार से मेरा मतलब गल्ले से है। ईख, मिर्च, तम्बाकू आदि किराना चीजें तो बेची ही जाती हैं। मगर धनी बनने के लिए इनकी बिक्री वे नहीं करते, किन्तु केवल अपना खर्च चलाने के ही लिए।

    दूसरी बड़ी बात इसमें यह है कि गरीब किसानों का जो तीसरा दल है वह प्रधानतया खेती के मजदूरों से ही बना है। ज्यादे से ज्यादा वे आधे किसान और आधे मजदूर हैं, यानी कुछ समय खेती का काम करते हैं और यह काम न रहने पर कुछ समय शहरों में जाकर कमाते हैं। यह बात हमारे यहाँ भी अक्षरश: पाई जाती है। उसमें यह भी कोष्ठक में लिखा है कि मजदूरी के लिए खेतों में काम करने वाले, जिससे प्रतीत होता है कि खेत-मजदूर उन्हें भी कहते हैं जो मजदूरी के लिए काम नहीं करते। यह बात मैंने पहले ही लिखी है विस्तार के साथ।

    तीसरी बात यह है कि जिनके पास खेत बिलकुल ही नहीं हों वे भी गरीब किसानों में गिने जाते हैं। हम तो कही चुके हैं कि खेत पास में रहना जरूरी नहीं है। जहाँ तक खेत मिलने की गुंजाइश या आशा है तहाँ तक खेतों के मजदूरों को किसान ही कहना चाहिए। रूस में भी यही माना जाता था। हाँ, बड़े-बड़े फार्मों के खेत-मजदूरों को खेत मिलने की कोई भी आशा न होने के कारण वही असली मजदूर हैं वहाँ भी और यहाँ भी। बाकी तो अधिक से अधिक अर्द्ध-मजदूर हैं।

    जिन्हें इस बात का यकीन न हो हमारे यहाँ के भी गरीब किसान एक प्रकार के मजदूर ही हैं उनके लिए आगे बहुत सी बातें लिखी जावेंगी। मगर इस मौके पर बम्बई के एक सरकारी कर्मचारी अंग्रेज डॉक्टर हैरोल्ड मान की जाँच-पड़ताल का नतीजा हम यहाँ उद्धृत कर देते हैं। डॉक्टर मान सरकार के कृषि विभाग के डाइरेक्टर थे। उनने पूना जिले के एक गाँव के किसानों की आर्थिक दशा की जाँच सन् 1914-15 ई. में की थी। जब जाँच के किसानों का नतीजा बहुत ही दर्दनाक निकला जिसके लिए वे तैयार न थे तो उन्हें विश्वास न हुआ। अतएव सन् 1921 में एक और गाँव की जाँच उनने की। मगर जब उसका नतीजा पहले से भी भयंकर साबित हुआ तो लाचार उन्हें मानना ही पड़ा। जहाँ पहले गाँव में कुल 103 परिवारों में सिर्फ 8 ही खेती से अच्छी तरह गुजर कर सकते थे, तहाँ दूसरे में पूरे 147 में केवल 10 ही ऐसे थे। एक बात और थी। पहले मौजे में कुल 103 में से 8 परिवारों को निकालने के बाद शेष 95 में 28 ऐसे थे जो खेती की आमदनी और बाहर की नौकरी की आमदनी को मिला के किसी प्रकार गुजर कर लेते थे। मगर दूसरे में तो 147 में 10 के अलग करने पर बाकियों में केवल 12 ही ऐसे थे। इस प्रकार जहाँ पहले गाँव में पूरे 67 परिवार कुल परिवारों के 65 प्रतिशत भूखों रह जाते थे। और किसी भी तरह भर पेट खा-पी न सकते थे, तहाँ दूसरे में कुल 125 परिवार या कुल के 85 प्रतिशत की यह भयंकर दशा थी। दूसरे गाँव की एक और भी दर्दनीय बात उनने लिखी है। वहाँ कुल 732 आदमियों में 664 प्राणी भुक्खड़ थे यानी कुल जनसंख्या के पूरे 91 प्रतिशत। पहले गाँव के पास में एक एल्यूमिनियम की फैक्टरी होने के कारण गाँव के 30 प्रतिशत लोग उसमें कमाते थे और इस प्रकार गुजर करते थे। मगर दूसरे गाँव के नजदीक ऐसी कोई चीज न होने के कारण उसकी और भी तबाही थी।

    यदि पूर्व लिखे इस बयान के साथ यह भी बात जोड़ दी जाए कि डॉक्टर मान ने गाँव वालों की गुजर का क्या अर्थ लगाया था तो हम और भी अचम्भे में पड़ जाएँगे किसानों की गरीबी की भयंकरता को देख के। उनने किसी प्रकार कामचलाऊ पेट भरने की गई-गुजरी चीज को भोजन और जैसे-तैसे काम चलाने मात्र वस्‍त्र को कपड़े में गिना है। यही दो जरूरी चीजें हैं। यहाँ तक कि चिराग या लालटेन की रोशनी भी उनने निकाल दी है और सिर्फ सूर्य, चाँद की रोशनी से ही काम चलाना स्वीकार किया है। श्री पामदत्ता की पूर्वोक्त पुस्तक के 222-223 आदि पृष्ठों में इस बात का पूरा वर्णन है।

    श्री पामदत्ता ही 347 पृष्ठ में लिखते हैं कि सन् 1927-28 ई. में ब्रिटेन की ट्रेड यूनियन कांग्रेस का जो प्रतिनिधि मण्डल भारत में आया था उसने लिखा है कि संगठन योग्य मजदूरों की संख्या यहाँ ढाई करोड़ है। मगर इस ढाई करोड़ में कम से कम 2 करोड़ 15 लाख तो सिर्फ खेत-मजदूर ही हैं जिनमे चाय बागानों आदि के प्राय: 10 लाख को छोड़ बाकी 2 करोड़ 5 लाख सिर्फ छोटे-छोटे खेतों में ही काम करते हैं। उन्हें काम भी बराबर नियमित रूप से नहीं मिलता। ज्यादातर वे लोग अत्यन्त भुक्खड़ किसानों के ही यहाँ काम करते हैं। फलत: नियमानुसार बनाई जाने वाली ट्रेड यूनियनों के जरिए उनका संगठन हो नहीं सकता। हालाँकि किसान आन्दोलन में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण भाग ले सकते हैं।

    सन् 1938 ई. में अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर कार्यालय ने भारत के बारे में एक रिपोर्ट छापी है। उसके 30वें पृष्ठ में लिखा है कि 'खेत-मजदूरों की कुल तादाद जो सन् 1921 में 2 करोड़ 15 लाख बताई गई थी, 1931 ई. में वह 15 लाख से भी ज्यादा हो गई। मगर इनमें 2 करोड़ 30 लाख के बारे में सन् 1931 ई. की भारतीय मताधिकार समिति ने लिखा था कि वे बिना जमीन के हैं। 'बिना जमीन' कहने का अर्थ यही है कि उनकी अपनी रैयती या मालिकी कोई भी जमीन नहीं है। भले ही बँटाई या शिकमी जमीन लेकर खेती वे लोग करते हैं या न भी करते हैं। मगर मताधिकार कमेटी ने भी तो आखिर इतना कबूल ही किया है कि कम से कम 58 लाख ऐसे भी परिवार खेत-मजदूरों के उस समय थे जिनकी निजी जमीनें (रैयती या मालिकी) थी। क्यों 3 करोड़ 15 लाख में 2 करोड़ 30 लाख ही बिना जमीन के बताए गए हैं। इससे तो हमारे उसी कथन की पुष्टि होती है कि खेत-मजदूर किसान ही हैं।

    शायद कुछ लोगों को फिर भी कुछ झिझक हो कि खेत-मजदूरों को किसान कैसे मानें, इसलिए जरा भीतर प्रवेश करके किसानों की हालत को देख लेना चाहिए। बम्बई सरकार के अफसर मिस्टर कीटिज का हवाला देते हुए भारतीय कृषि कमीशन की रिपोर्ट के 132 पृष्ठ में लिखा गया है कि 'बम्बई हाते के किसानों की हो¯ल्डगें बहुत ज्यादा ऐसी हो गई हैं जिनमें सफलतापूर्वक खेती करना असम्भव है।' मद्रास के डॉक्टर स्लेटर इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि वहाँ भी बहुत हिस्से में यही हालत है। दूसरे प्रान्तों की भी प्राय: यही दशा है।

    इन्हीं मिस्टर कीटिज के लेख का हवाला देते हुए पूर्वोक्त डॉक्टर मान ने दक्षिण के दो गाँवों की दशा जाँची थी। उसके बारे में श्री पामदत्ता अपनी पूर्वोक्त किताब में लिखते हैं कि 'जिस जमीन में सिंचाई का प्रबन्ध नहीं है वैसे खूब अच्छी जमीन के 10 से लेकर 15 एकड़ तक की हो¯ल्डग को ही आर्थिक दृष्टि से लाभकर या भारतीय किसान परिवार के गुजर योग्य कह सकते हैं।'

    अब जरा पुनरपि भारतीय कृषि कमीशन की रिपोर्ट के 133 पृष्ठ को देखिए। वहाँ लिखा है कि 'पंजाब के बारे में जो ऑंकड़े हासिल हैं उनसे सिद्ध है कि 22.5 फीसदी किसान सिर्फ एक एकड़ या उससे कम ही जमीन जोतते हैं, 15.4 प्रतिशत एक और ढाई एकड़ के बीच में, 17.9 प्रतिशत ढाई और पाँच के बीच में, और
20.5 प्रतिशत पाँच और दस के बीच में। बम्बई की भी प्राय: यही हालत है। बर्मा की शायद कुछ अच्छी हो। मगर भारत के अन्य प्रान्तों की तो और भी बुरी हालत है।'

    इससे स्पष्ट है कि पंजाब, जो सबसे सम्पन्न प्रान्त माना जाता है, के 76.3 प्रतिशत किसान ज्यादे से ज्यादा दस एकड़ तक ही जोतते हैं और परिवार के गुजारे के लिए, जैसा कहा गया है, दस से लेकर 15 एकड़ चाहिए। फलत: वे भूखे ही रहते हैं। यों तो सन् 1921 ई. की मनुष्य गणना के अनुसार प्रान्तों के हर परिवार के जिम्मे औसतन जो जमीनें पड़ती हैं वह और भी कम हैं। उसके अनुसार तो सिर्फ बम्बई की ही औसत 10 एकड़ से ज्यादा है। बाकियों की कम ही है, जैसा कि '(1) बम्बई 12.2 (2) पंजाब 9.2, (3) मध्‍यप्रान्त और बरार 8.5, (4) बर्मा 5.6, (5) मद्रास 4.9, (6) बंगाल 3.1, (7) बिहार 3.1 (8) आसाम 3.0, (9) युक्त प्रान्त 2.5। कृषि कमीशन के उक्त उद्धरण से भी यही स्पष्ट है कि बम्बई के सिवाय अन्य सभी प्रान्तों के 76.3 प्रतिशत से कहीं ज्यादा किसान 10 एकड़ तक ही या उससे भी कम जोतते हैं।

    और जब हम इस बात पर गौर करते हैं कि जमीन के मालिक और उसे जोतने वाले किसान के बीच में दो-चार से लेकर पूरे पचास तक ऐसे लोग एक के ऊपर एक हैं जो लगान वसूलते और उससे मुनाफा करते हैं तब हमें पता लग जाता है कि खेती करने वाले को कितना बचता है। वह तो सचमुच ही लुट जाता है। हाल में प्रकाशित बंगाल के फ्लाउड कमीशन की रिपोर्ट में भी यह बात मानी गई है और साइमन कमीशन की रिपोर्ट के प्रथम भाग के 340 पृष्ठ में भी इन पचासों लुटेरों की बात लिखी है कि वे कुछ जिलों में पचास से ज्यादा तक पाए जाते हैं।

    जब एक प्रकार से दूसरा आदमी जमीन लेकर तीसरे के हाथ बन्दोबस्त करता है और वह चौथे के साथ...और जब इस प्रकार ताँता बँध जाता है तो असली किसान में और मजूरी करने वाले खेत-मजदूर में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता। इसीलिए मद्रास की बैंकिंग जाँच कमेटी ने सन् 1930 ई. में यों लिखा था : 'खेत-मजदूर रखके उनके हाथों खेती करवाने या दर रैयत की खेती में साफ-साफ भेद करना हमारे लिए कठिन है। दर रैयत तो शायद ही नगद लगान पर जमीन पाता हो। आमतौर से उसे बँटाई पर खेत मिलता है जिसमें पैदावार का काम 40 से लेकर 60 तक, और कभी-कभी 80 हिस्से तक भी, जमीन का मालिक लेकर बाकी किसान (दर रैयत) के लिए छोड़ता है। किसान साल ब साल इसी प्रकार किसी तरह जिन्दा रहता है। उसे जमींदार से कर्ज लेना पड़ता है। जमींदार ही उसे बीज, खेती के औजार और बैल भी देता है। विपरीत इसके हलवाहे आदि खेती के मजदूरों को मालिक समय-समय की छोटी-मोटी जरूरतों के लिए नगद पैसे देता है, जमींदार के बीज, औजार और पशुओं से खेती करता है और फसल तैयार होने पर या तो उसे एक ही बार बँधी-बँधाई गल्ले की रकम मिल जाती है, या फसल का एक निश्चित भाग। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हलवाहे आदि को निश्चित गल्ले के साथ ही कुछ नगद भी मिल जाता है। किसान चाहे अपने ही पशुओं और हल आदि से भले ही खेती करे। मगर व्यवहार में दोनों के बीच कोई साफ अन्तर नजर नहीं आता और अगर जमींदार खेती के मुकाम से दूर रहता है तब तो यह पता ही नहीं चलता कि खेती करनेवाला आया उसका नौकर है या दर रैयत किसान।'

    अपनी पुस्तक के 220 पृष्ठ में श्री पामदत्ता ने भी लिखा है कि 'लेकिन दरअसल नन्हे खेतों में खेती करने वाले अधिकांश टुटपुँजिए किसानों, दर रैयतों या शिकमी किसानों की जो हालत है उसमें और खेत-मजदूरों में कोई विशेष अन्तर नहीं है और इन दोनों दलों का भेद सिर्फ बनावटी है।'

    कृषि कमीशन की रिपोर्ट के द्वितीय भाग में जो गवाहियों का पहला हिस्सा है उसके 292 पृष्ठ में कुछ ऑंकड़े दिखला के कि किस प्रकार 15 एकड़ तक के जोतने वाले किसानों की ही संख्या तेजी से बढ़ रही है, एक सरकारी अफसर का बयान यों दिया है 'केवल पाँच ही वर्ष के भीतर होने वाले परिवर्तन के सूचक इन आंकड़ों से साफ पता लगता है कि पन्द्रह एकड़ तक जोतने वालों की वृद्धि किस खास तरह से हो रही है। चन्द ही जमीनों को छोड़ बाकी दशा में ये 15 एकड़ तक के खेत ऐसे नहीं होते कि जिनमें एक जोड़े बैलों से भी नफा के साथ खेती की जा सके।'

    अब तक जो कुछ लिखा गया है उससे यह बात साफ हो जाती है कि जो असल किसान हैं, जिन्हें गरीब या मध्‍यम किसान कहते हैं, उनकी हालत और 98 प्रतिशत खेत-मजदूरों की दशा में कोई भी महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। जहाँ तक इन दोनों की आर्थिक दशा और माली हालत का ताल्लुक है, खेत-मजदूरों और गरीब किसानों में जिनकी संख्या 80 फीसदी से कम नहीं है, कोई भेद किया जा नहीं सकता किसी भेद की गुंजाइश नहीं है। यदि कुछ किसान भर पेट खा-पी लेते हैं तो कुछ खेत-मजदूर भी ऐसे जरूर हैं। ज्यादे से ज्यादा अगर कह सकते हैं तो इतना ही कि जैसे किसानों की दशा बदतर होते-होते जो उनमें सबसे नीचे आ जाते हैं वही गरीब किसान हैं, ठीक वैसे ही आमतौर से उनकी दशा कुछ और गिर जाने से उन्हें खेत-मजदूर कहने लगते हैं। मगर यह बताना कठिन है कि कहाँ से किसान कहना छूट के मजदूर कहने का श्रीगणेश होता है। ऐसी कोई सीमा खींची जा सकती नहीं। इसलिए खेत-मजदूरों को, जिनसे आमतौर से हमारा ताल्लुक है, किसान ही मानना उचित है।

    मगर इस मानने का प्रयोजन केवल उनके संगठन और आन्दोलन से है। उन्हें किसान इसलिए मानना है कि उनका आन्दोलन मजदूरों की तरह न किया जाकर किसानों की ही तरह, उनके साथ मिल कर ही किया जाए।

(3)

उनकी समस्याएँ

खेत-मजदूरों की तादाद वगैरह जान लेने और उन्हें किस वर्ग में शामिल किया जाए वे किस श्रेणी के हैं ऐसा समझने के बाद यह सवाल स्वभावत: उठता है कि आखिर इस उधेड़बुन की जरूरत क्या है, ऐसा खोद विनोद क्यों किया जाता है? सवाल तो सही है। इसीलिए जरा अब हमें उस मतलब पर भी गौर कर लेना चाहिए जिसके लिए अब तक की सारी जाँच-पड़ताल की गई है। असल में हमें खेत-मजदूरों की समस्याओं पर, उन्हें आए दिन जिन दिक्कतों का मुकाबला करना पड़ता है उन पर गौर करना है। उनकी तह में पहुँच के उनकी असलियत को पहचानना है। तभी उनका ठीक-ठीक उपाय किया जा सकता है। रोग का निदान और मर्ज की तफतीश यदि बखूबी न हो सके तो इलाज कैसा होगा? ऐसी हालत में मुनासिब दवा का पता भी कैसे लग सकता है?

    एक बात यह भी है कि खेत-मजदूरों के नाम पर मिथ्या और गलत समस्याएँ भी खड़ी की जाती हैं। इनके सवालों को बहुतेरे लोग गलत नजर से देखते हैं। इन सवालों तक पहुँचने का उनका तरीका ही गलत होता है। फलत: उन्हें सुलझाने के उपाय भी गलत ही बताए जाते हैं। यह निहायत ही खतरनाक और बुरी बात है कि इनके बारे में हमारी पहुँच ही सरासर गलत हो। तब तो हम न सिर्फ खुद धोखा खाएँगे, बल्कि औरों को भी धोखे में डालेंगे। इसीलिए जब हम खेत-मजदूरों के प्रश्नों को खासतौर से उठाते हैं तो इसका यह भी प्रयोजन है कि उन्हें मिथ्या दृष्टिकोण और गलत नुक्ते निगाह से देखने वाले भी सँभल जाएँ। यदि वे न भी सँभलें, तो कम से कम दूसरे लोग तो आगाह हो जाएँ और धोखे में न पड़ें।

    हमने अच्छी तरह देखा है कि लोगों ने अब तक खेत-मजदूरों के आन्दोलन को दलित जातियों के आन्दोलन के साथ मिला देने की कोशिश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से की है। वे ये समझे बैठे हैं, समझते रहे हैं कि दलितों या हरिजनों तथा खेत-मजदूरों में कोई अन्तर नहीं है। यही कारण है कि हरिजन सभाओं के लीडर ही इस आन्दोलन में अगुवा बनके अब तक आए हैं। बेशक उनके पीछे दूसरे लोग भी दीखे हैं, मगर जैसे गाय की पूँछ पकड़ के वैतरणी पार करने की बात मानी जाती है ठीक उसी प्रकार हरिजन नेताओं का पल्ला पकड़ के ही दूसरे सज्जन खेत-मजदूरों के नेता बनने की हिम्मत अब तक कर सके हैं।

    इसका एक बुरा नतीजा यह हुआ है कि खेत-मजदूरों की मौलिक समस्याएँ और उनके बुनियादी सवाल हमारी ऑंखों से ओझल हो गए हैं और सिर्फ चन्द मोटे-मोटे प्रश्न ही खड़े हो सके हैं एक तो हमने इस समस्या को केवल गिनी-चुनी जातियों की ही चीज मान लिया है। दूसरे इस पर धार्मिक रंग भी चढ़ जाने का अवसर मिल गया है। हमारी बदकिस्मती से मुल्क में हरिजनों के प्रश्नों को खामख्वाह धार्मिक रूप दे दिया गया है और जब खेत-मजदूरों के प्रश्न भी उन्हीं के प्रश्न माने गए तो इन पर भी खामख्वाह धार्मिक रंग कुछ न कुछ आ ही जाता है, गो उतना तेज नहीं। मगर यह निहायत ही गलत और खतरनाक बात है। असल में तो हरिजनों का सवाल भी धार्मिक न हो के आर्थिक ही है और यह बुनियादी बात है। मगर खेत-मजदूरों के प्रश्न तो सोलहों आने आर्थिक ही हैं। इनमें तो हमारे मुल्क की सभी जातियों और धर्मों के गरीब और दुखिया लोग आ जाते हैं। यह बात हमने पहले ही सिद्ध कर दी है।

    मगर खेत-मजदूर का सवाल आर्थिक होते हुए भी उनके सम्बन्ध की असल बुनियादी बात उस प्रश्न का यह पहलू नहीं है। वास्तविक बुनियादी बात तो यह है कि यह प्रश्न किसी-किसी नियत या मुकर्रर दल का नहीं है। हमारी सबसे बड़ी भूल यही होगी अगर हमने यह मान लिया कि खेत-मजदूर कुछ खास जाति बिरादरी के लोगों को ही मिलाकर बने हैं और उनकी तादाद एक तरह से निश्चित-सी है। तब तो इस सवाल के असली हल तक हम पहुँची न सकेंगे। खेत-मजदूरों की जमात तो रोज-रोज तेजी से बढ़ने वाली जमात है और इसमें ऐसे लोग बराबर शामिल होते रहते हैं जो कल तक सुखी-सम्पन्न किसान थे। हमने ज्यों ही ऐसा मान लिया किहम इस बड़े मर्ज की तह में जा पहुँचे। इसकी ठीक-ठीक दवा भी हम उस हालत में आसानी से समझ सकेंगे, या यों कहिए कि ढूँढ़ निकालेंगे। किसानों की बड़ी जमात से बाहर इनकी जमात नहीं है, नहीं हो सकती है यह एक दूसरा मौलिक प्रश्न, बुनियादी सवाल, इनके मुताल्लिक है। क्योंकि ऐसा मान लेने पर हम उन गलतियों से बच जाएँगे जो खेत-मजदूर आन्दोलन के सिलसिले में हम कर सकते हैं, यदि इन्हें किसानों से जुदा मान लिया। इस प्रश्न को धार्मिक रूप न दे के सोलहों आने आर्थिक मानना यह भी एक तीसरी बुनियादी बात हो सकती है, हालाँकि यह सिर्फ इन्हीं से ताल्लुक न रख के हरिजनों के प्रश्नों से भी रखती है। मगर यदि हमने धार्मिक रूप से इसे कहीं भूल से दे दिया तो इस आन्दोलन का प्राण ही निकल जाएगा। तब तो यह एक तरह से बेकार-सा हो जाएगा। इसीलिए हमें इन तीनों बुनियादी बातों का पूरा-पूरा खयाल रखना होगा।

    लेकिन यह तो दूर की बातें हैं जिनका असर खेत-मजदूरों के आन्दोलन पर पड़ेगा और खतरे से बच के अच्छी तरह चलाया जा सकेगा। दूरअंदेशी की ही ये बातें हैं जिन्हें मामूली खेत-मजदूर समझ नहीं सकते। उनके नेता नामधारी भी आमतौर से इन्हें समझते ही नहीं। वे इनका महत्त्व हृदयंगम कर नहीं सकते। फिर भी इनकी तात्कालिक प्रश्नों के समाधान को लेकर ही ये दूर की बातें सोची जाती हैं उन्हीं को सामने लाना जरूरी है। अगर खेत-मजदूरों की आए दिन की मुसीबतें और यंत्रणाएँ नहीं होतीं तो कौन सोचने जाता कि ये किसानों की जमात में ही हैं या बाहर? कौन इस बात का खयाल भी करता है कि इनका दल बराबर तेजी से बढ़ रहा है, या एक प्रकार से निश्चित-सा है? किसके दिमाग में यह बात समाती कि इनकी तकलीफों की वजहें आर्थिक हैं, न कि धार्मिक? तब ऐसा सोचने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती? यह तो तब होती है जब हम चलते हैं इन्हें आफतों से बचाने और सुखी बनाने जब हम इनके दु:ख निवारण के रास्ते ढूँढ़ने बैठते हैं। तभी तो यह बात सामने आ खड़ी होती है कि किस रास्ते और उपाय से इन्हें आसानी से अच्छी तरह अपना लक्ष्य मिल सकता है। इसीलिए उन्हीं तात्कालिक तथा प्रतिदिन होने वाले संकटों पर विचार करना निहायत जरूरी है कि वे कौन-कौन से हैं और कैसे हैं।

    दिमाग में यह बात लाते ही सबसे पहला प्रश्न पैदा होता है इनकी मजदूरी का। खेती के मजदूरों को मासिक या वार्षिक तनख्वाह तो दी जाती नहीं। उन्हें तो रोजाना मजदूरी मिलती है। जब काम किया तो मिली, न किया तो न मिली। मोटी तौर पर तो यह बात ठीक ही जँचती है कि काम करें तो मेहनताना पाएँ, न करें तो न पाएँ। मगर जरा भी भीतर प्रवेश करके सोचने पर इसकी असलियत का पता लग जाता है कि कितनी बुरी चीज है। इसका तो सीधा अर्थ यही होता है कि बीमारी या कमजोरी आदि की दशा में उसे सपरिवार भूखों मरना पड़ता है, यदि परिवार उसी पर आश्रित हो। मजदूरों की जो माँगें हैं उनमें सबसे पहली तो यही है कि बीमारी, बुढ़ापे आदि के समय उनके गुजर की गारंटी होनी चाहिए। मगर खेत-मजदूर तो असल में मजदूर श्रेणी में हैं नहीं। इसीलिए अब तक लोगों का ध्‍यान इस ओर नहीं जा सका है। व्यापारी या किसान का बैल जब बोझा नहीं ढोता या हल नहीं खींचता जब उसे कोई काम नहीं रहता तो क्या खाना नहीं पाता और भूखों करता है? यदि नहीं, तो फिर दूसरे काम करने वाले, सो भी इनसान, क्यों भूखों मरें यदि वे बीमार या कमजोर हो जाएँ, यह बात समझ में नहीं आती। इसीलिए स्वभावत: यह कहा जा सकता है कि खेत-मजदूरों के लिए भी यह गारंटी चाहिए कि अस्वस्थता, बुढ़ापा या हाथ-पाँव आदि खराब हो जाने की दशा में उनकी गुजर होती रहे।

    मजदूरी के बारे में ही दूसरा सवाल उठता है कि वह कितनी हो। यह तो सभी स्वीकार करेंगे कि आश्रितों के सहित खेत-मजदूर का खाना, कपड़ा, दवागीरी आदि का काम जितने से चलता रहे उतनी मजदूरी तो होनी ही चाहिए। दिक्कत इसमें यही है कि न तो सरकार ने ही और न ही किसी और ही सर्वमान्य संस्था ने अब तक यह बात मुकर्रर की है कि कितने से यह काम चल सकता है। देहाती लोगों के लिए कम से कम कितने रुपए या अन्नादि से गुजर बसर जरूरी है यह किसी को मालूम ही नहीं है। इसीलिए कम से कम वेतन या मजदूरी जो गुजारा करने के लिए जरूरी हो उसे तय करने में यह भारी अड़चन है। फिर भी यह प्रश्न तो अपनी जगह पर जैसा का तैसा है कि गुजर योग्य मजदूरी मिलनी ही चाहिए। हाँ, इस सवाल के साथ ही, वह कितनी हो, इसकी भी पूरी जाँच-पड़ताल करनी होगी और यह काम उन्हीं का है, जो खेत-मजदूरों के पेशवा और लीडर हैं। क्योंकि इसकी जाँच न होने के कारण बे सिर-पैर की बातें माँगें पेश की जाती हैं, जा सकती हैं जो कथमपि पूरी नहीं हो सकती हैं। जब तक किसानों की आर्थिक दशा में भारी परिवर्तन नहीं हो जाता हमें केवल आदर्शवादी न बनके व्यावहारिक बनना चाहिए। यह बात भूलनी न चाहिए कि अधिकांश गरीब और साधारण किसानों के यहाँ ही के खेत-मजदूरों से हमारा मतलब है। अधिक संख्या उन्हीं की है और उन्हीं की मजदूरी को ठीक करना सबसे जरूरी है। इसलिए हम कहीं ऐसी माँग न पेश कर दें कि घर-बार और खेत बेच कर भी उसे किसान पूरा कर न सकें। फलत: सिर्फ कलह और वैमनस्य ही हमारे हाथ लगे।

    मजदूरी के सिलसिले में हमें यह बात भी देखनी है कि पहले क्या हालत थी और अब क्या है। दोनों दशाओं का मुकाबला करने पर ही हम मौजूदा परिस्थिति में कोई उचित दावा पेश कर सकते हैं। यों तो सर्वे सेट्लमेण्ट की रिपोर्टों और दूसरे कागजों में अलग-अलग जिलों के बारे में कुछ न कुछ बातें दी गई हैं जिनसे इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि खेत-मजदूरों की मजदूरी क्या रही है। मगर डॉक्टर राधाकमल मुखर्जी ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी है लैंड प्राब्लम ऑफ इंडिया भूमि सम्बन्धी भारत की समस्या। उसके 222वें पृष्ठ में, उन्होंने ढूँढ़ खोज के प्राय: सौ साल के भीतर किस प्रकार भारत में खेत-मजदूरों की मजदूरी घटी-बढ़ी इस बात के ऑंकड़े दिए हैं। उनने सन् 1842 ई. से शुरू किया है। घटने-बढ़ने का ठीक-ठीक पता लगाने के लिए मजदूरी के साथ ही उस समय चावल किस भाव से एक रुपए का मिलता था यह भी उनने लिखा है। मजदूरी रोजाना सूखे पैसे के रूप में दी गई है। उसके साथ किसी प्रकार का खाना-पीना मिलने की बात नहीं है। सन् 1842 में जब चावल फी रुपया 40 सेर मिलता था उनकी मजदूरी एक आना थी। दस साल बाद सन 1852 में चावल का भाव 30 सेर हो गया। मगर मजदूरी डेढ़ आने हो गई। जब 1862 में भाव 27 सेर था तो दो आने थी। फिर सन् 1872 में तीन आने हुई जब चावल की दर 23 सेर थी। सन् 1911 में चावल 15 सेर का मिलने पर चार आने और सन् 1922 में चावल 5 सेर का रहने पर 4 से 6 आने तक रही। उनने यह भी लिखा है कि सन् 1934 में युक्त प्रान्तीय सरकार ने जो पाँच साला मजदूरी की रिपोर्ट प्रकाशित की उसमें प्रान्त की औसत मजदूरी तीन ही आने लिखी है। बल्कि 326 गाँवों में तो डेढ़ ही आने बताई गई है।

    डॉक्टर मुखर्जी ने जो कुछ लिखा है उससे यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे चावल या यों कहिए कि खाद्य पदार्थ की महँगी होती गई है तैसे-तैसे मजदूरी बढ़ती गई है, जिससे खाना-पीना चल सके और गुजर हो सके। यानी मजदूरी बढ़ाने में इस बात पर पूरा ध्‍यान दिया गया है। उससे यह भी पता लगता है कि खेत-मजदूरों की मजदूरी में क्रमश: कुछ वृद्धि होती गई है जिससे उनका आराम थोड़ा-थोड़ा बढ़ता चले। सन् 1842 से लेकर सन् 1911 तक यह बात बराबर देखी जाती है कि पूरे पचास साल तक। क्योंकि सन् 1911 में जब मजदूरी चौगुनी हो गई तो चावल 15 सेर मिलता था। हालाँकि इस हिसाब से दस ही सेर चाहिए। यही बात कमोबेश 1852, 62 और 72 में भी पाई जाती है। यह तो ठीक ही है। मगर सन् 1922 ई. में यह बात नहीं पाई जाती। चावल तो 40 की जगह 5 सेर हो गया। मगर मजदूरी एक आने से बढ़ के आठ आने या ज्यादा होने की बजाए ज्यादे से ज्यादा 6 आना और कहीं-कहीं तो चार ही आना रह गई। यह पहेली समझ में नहीं आती कि ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ। ऐसा लगता है कि सन् 1911 के बाद जो पहला साम्राज्यवादी युद्ध यूरोप में हुआ और जिसमें प्राय: दुनिया के सभी देश कूदे थे, उसने हर बात में उलट-फेर कर दी। फलत: जो स्वाभाविक रीति मजदूरी बढ़ाने की थी वह भी जाती रही और ऑंख मूँद के लोगों ने काम करना शुरू किया। जैसे मिलों के मजदूरों के सम्बन्ध में सिद्धान्त तो यह माना जाता है कि उनके तथा उनके आश्रितों के भरण-पोषण योग्य वेतन दिया जाना चाहिए, जैसा कि पहले कह चुके हैं। मगर इस सिद्धान्त का पालन अब साम्राज्यवादी युग में कतई नहीं होता। क्योंकि मजदूरों की तो अब इफरात है। इसीलिए कम से कम तनख्वाह दी जाती है। ठीक उसी प्रकार इधर साम्राज्यवादी युग में खेत-मजदूरों के बारे में भी शायद होने लगा है। क्योंकि उनकी संख्या बेतहाशा बढ़ने के कारण एक के खोजने पर चार मिलते हैं। फिर किसी को गर्ज ही क्या होगी कि मजदूरी की कमी बेशी और भरण-पोषण का विचार करे? चाहे जो भी कारण हो, मगर यह हालत शोचनीय है और किसी भयंकर बात का सूचक है। इस पर विचार करेंगे आगे चलकर।

    मजदूरी से ही सम्बन्ध रखने वाली बात यह भी है कि जहाँ किसान लोग पैसा और अन्न दोनों को सम्मिलित रूप में मजदूरी की जगह देते हैं वहाँ एक तो दोनों मिलाकर भी मजदूरी कामचलाऊ शायद ही होती है। कुछ स्थानों का तो मेरा निजी अनुभव है कि हर्गिज कामचलाऊ नहीं होती। इसी के साथ दूसरी बुरी बात यह होती है कि जो अन्न दिया जाता है वह अच्छा तो होता ही नहीं। हाँ, बुरा कदन्न जरूर होता है। गोया खेत-मजदूरों को हम इनसान समझते ही नहीं। मैं मानता हूँ कि निहायत गरीब किसानों की इस बात में मजबूरी होती है। वह खुद भी जो कुछ खाते-पीते हैं कुछ ऐसा ही होता है। फिर भी यह एक प्रणाली-सी पड़ गई है। इसीलिए देखा-देखी अच्छे और खाते-पीते किसान भी वैसा ही करते हैं। वे किस अक्ल से ऐसा करते हैं ऐसा समझना गैर-मुमकिन है। खेत-मजदूरों की मजबूरी से अनुचित लाभ उठाना इसे ही कहते हैं। मजदूरों के नाश्ते का सवाल भी इसी के भीतर है।

    जहाँ फसल कटने के समय ही खेत या खलिहान में बोझों और बंडलों के ही हिसाब से मजदूरी दी जाती है, और यह बात बहुत से प्रान्तों में व्यापक रूप से पाई जाती है, वहाँ भी कुछ विचित्रता देखी जाती है। कहीं तो धान या रबी की फसल के बारह बंडलों (बोझों) में एक मजदूर का हिस्सा होता है तो कहीं सोलह या बीस में और कहीं-कहीं चौबीस में। बेशक यह चौबीस वाला हिसाब बहुत कम पाया जाता है और उससे ज्यादा बीस का मिलता है। मगर बारह और सोलह की बात तो ज्यादातर पाई जाती है। यह चीज समझ में नहीं आती। यह विषमता कब और कैसे चल पड़ी यह पता नहीं चलता। यह ठीक है कि यह एक प्रकार के ठीके की तरह की चीज है और जहाँ बहुत ज्यादा काटने ढोने वालों की जरूरत थी वहीं पहलेपहल चालू हुई होगी। मगर अब तो व्यापक-सी हो गई है। हर हालत में एक तो ठीके वाली बात ही नाजायज है। तिस पर उसका एक तरह का न होना और भी खटकता है।

    मजदूरी के बाद दूसरा प्रश्न है कर्ज का। यह तो निहायत ही पेचीदा बात है और इसने जगह-जगह में विभिन्न रूप धारण कर लिया है। इसे कहीं हलवाही, कहीं कमिऔती और कहीं दूसरे ही दूसरे नाम भी दिए गए हैं। जाने कब से यह चल पड़ी कोई ठीक-ठीक कह नहीं सकता। मगर है यह व्यापक। साथ ही, प्राचीन गुलामी प्रथा का ही रूपान्तर मालूम पड़ती है। क्योंकि इसके करते हलवाहा या खेत-मजदूर किसान का गुलाम बना रहता है। कहीं-कहीं तो बनिए साहूकार का ही गुलाम हो जाता है। सो भी बाल बच्चों के सहित पुश्त दर पुश्त के लिए। यह भी नहीं कि इस कर्ज की प्रणाली को खामख्वाह कानूनी रूप दिया जाता हो। बहुत जगहों में तो इसकी लिखा-पढ़ी भी नहीं रहती कि कितना कर्ज उसे दिया गया है। शायद किसान के घर कहीं लिखा हो। मगर दस्तावेज या हैंड नोट वगैरह नहीं होते। केवल जबानी ही मामला रहता है। फिर भी उन गरीबों की छाती पर भारी चट्टान की तरह बैठा रहता है, जिससे वह उठ नहीं पाते। उसके लिए यह ऐसा बन्धन है कि भाग नहीं सकता जब तक चुकता न करे और चुकता करने की शक्ति उसमें होती ही नहीं। फलत: जिस किसी से रुपए लेकर चुकाएगा उसी का गुलाम बनेगा। यह ऐसा कर्ज है कि हजारों वर्ष में भी चुकता होता नहीं। किन्तु ज्यों का त्यों बना रहता है, चाहे मजदूर कर्जदार के लिए खून को पानी बहा के भी काम करता-करता मर मिटे। हाँ, इस पर सूद नहीं चढ़ता। यह उतने का उतना ही बना रहता है, यही इसकी खूबी है। सूद वाला कर्ज तो दूसरा ही होता है और वह तो जैसा औरों का वैसा ही खेत-मजदूरों का भी होता है।

    किसी जमाने में मजदूर के बाप-दादों ने किसी किसान से किसी ब्याह-शादी वगैरह सख्त जरूरत में कुछ नगद रुपए या अन्न लेकर काम चलाया होगा। बस, वही हमेशा बना रहता है वंश परम्परा के लिए। जिस हलवाहे ने कभी इस प्रकार कुछ भी कर्ज अपने किसान से लिया कि वह इस कीचड़ में जा फँसा। यदि कोई दूसरा किसान चाहे कि उस हलवाहे को अपने यहाँ रख ले तो उसे खामख्वाह पहले किसान का वह कर्ज चुकाना होगा। और पहला भी उस मिले हुए रुपयों को किसी और को देके अपना खेत-मजदूर बनाएगा। जिस गरीब पर कोई आफत आई और कुछ खास खर्च की जरूरत हुई कि वह इस बला में फँसा। अब तो यह बात धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है और इसका स्थान मामूली कर्ज लेने की प्रणाली ले रही है। मगर पहले तो खूब ही चालू थी और आज भी बहुत जगह है। विवाह-शादी या गमी में तो भाई बन्धुओं को भोज देना और कुछ ताड़ी शराब पिलाना अन्ध परम्परा के अनुसार कुछ खास जातियों के लिए जरूरी है और वही नए सिरे से इसमें आ फँसती हैं। यही बिहार कमिऔती या यू.पी. की हलवाही प्रथा का रहस्य है।

    गुजरात वगैरह प्रान्तों में जो हाली और दुबला कहे जाते हैं वे भी खेत-मजदूर ही हैं, हालाँकि पहले जमाने में वहाँ के असली किसान वही लोग थे। हाली का मतलब ही है हल चलाने वाला अर्थात् खेती करने वाला। सिन्ध में जिसे हारी कहते हैं वह तो पक्का किसान है। यह हारी उसी हाली का ही रूप है। गुजरात की तो हालत यह है कि साहूकार और शराब बेचने वाले पारसी लोग इन हालियों तथा दुबला लोगों को खामख्वाह चढ़ा-बढ़ा के विवाह आदि में उनसे भोज और शराब में पैसे खर्चवाते हैं जिसे वही लोग देते हैं। इस प्रकार हालियों और दुबलों को अपने अधीन (गुलाम) बना लेते हैं। जब तक उनके पास जमीनें थीं तब तक तो रुपए दे के सस्ती जमीनें लिखवा लीं और इस प्रकार हालियों को बिना खेत का कर दिया। फिर पैसे दे के उन्हें स्‍त्री बच्चों के साथ गुलाम बना डाला। सो भी इन गरीबों की पीठ ठोंक के और 'बाप-दादों का नाम डूब जाएगा यदि विवाह में तुमने भाइयों को शराब न पिलाई' आदि बातें बार-बार सुना के ही उन्हें फँसाया जाता है। स्वार्थी मनुष्य शैतान से भी खूँखार बन जाता है।

    इस प्रकार उनसे पैसे ले के खर्चने का नतीजा यह होता है कि विवाह के बाद ही पति और पत्नी दोनों ही इन साहूकारों का क्रीतदास जीवन-भर के लिए बन जाते हैं। कुछ रात रहते ही उसके घर आ जाते, स्नान के लिए जल गर्म करना, नहलाना, कपड़ा साफ करना, सभी कामों के लिए जल भर देना, पशुओं को खिलाना, खेती का काम कर देना आदि सभी काम करके रात होने पर घर जाने की इन्हें फुर्सत मिलती है। यही प्रतिदिन की दिनचर्या है। यदि कभी जरा सी देर हुई तो गालियाँ मिलतीं और तमाचे लगते हैं। यदि ऊब कर भागना चाहें तो कहीं गुजर नहीं, कोई पूछनेवाला नहीं। जहीं जाते वही पूछता है कि तुम किसके यहाँ से भागे आ रहे हो। गोया हाली और दुबला नाम पड़ते ही गुलामी की छाप लग गई। वह तो आजाद होई नहीं सकता। कहीं न कहीं किसी की गुलामी करता ही होगा, ऐसा सभी मानते हैं। इतना ही नहीं। ये पारसी और साहूकार दो-एक मुस्तण्ड पठान नौकर रखते हैं जो बीसियों मीलों तक ढूँढ़ के इन्हें फिर पकड़ लाते हैं। मारना-पीटना तो मामूली सी बात है। खूबी तो यह कि जब और प्रान्तों से कमिया आदि प्रथाएँ स्वयं मिट रही हैं तब हाली प्रथा तेज हो रही है। हाँ, अब किसान आन्दोलन के चलते गुजरात प्रान्तीय किसान सभा ने इसकी बहुत कुछ जड़ खोद डाली है।

    एक बार एक जवान दुबला ने अपनी कहानी मुझे हरिपुरा के इलाके में सुनाई। उसने कहा कि मैं एक पारसी के घर में गुलाम की तरह काम करता था। चार बजे सवेरे ही जाना पड़ता था। पानी गर्म करके गुसलखाने में पारसी को नहलाना पड़ता था। वह भी ऐसा था कि स्नान-घर में नंगधडंग़ जा बैठता और साबुन लगा के मुझे उसका शरीर मलना धोना पड़ता था। रूखड़े हाथ से देह रगड़ने में जरा सी उसे तकलीफ हुई कि चट तमाचे जड़ देता। मैं कराह के रह जाता और कुछ कर न सकता। मगर किसान सभा का उपदेश सुन के मुझे भी हिम्मत हुई और एक दिन जब पारसी ने मुझे तमाचा मारा, तो मैंने भी उलट के कई तमाचे कस के लगाए। फिर वहाँ से भाग निकला और अब स्वतन्त्र हूँ।

    इन दुबला लोगों को गुलाम बनाने वालों की शरारत ऐसी है कि काम के बदले इन्हें मामूली जलपान और दिन का मोटा खाना देते हैं। रात के लिए कुछ अन्न या दो-चार पैसे दे दिया करते हैं। बीमारी की हालत में दवादारू या कपड़े लत्ते कुछ नहीं देते। इन चीजों के लिए इन बेचारों को उनसे नया कर्ज लेना पड़ता है और इस तरह ऐसे फँस जाते हैं कि कभी उद्धार की आशा रही नहीं जाती, सिवाय बगावत के। बाकी बन के ही तो वे लोग अब अपनी आजादी प्राप्त करने में लगे हैं।

    तीसरा सवाल खेत-मजदूरों का यह है कि उन्हें बीमारी की हालत में भी, जब तक किसी प्रकार का हो सके, काम करना ही पड़ता है। नहीं तो खाएँगे क्या? इतना ही नहीं। गर्भवती स्त्रियों की भी यही हालत होती है। यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी बचने नहीं पाते। हमेशा किसान के काम में या किसी और के ही सही, जोते जाते हैं। यदि पास में एकाध बकरी आदि पशु हुए तो उन्हीं की रखवाली और खिलाने-पिलाने का काम ये बच्चे करते हैं। नहीं तो चक्की के बैल की तरह किसी के यहाँ काम में पिसते रहते हैं। असल में उनके गुजर और खाने-पीने की कोई गारंटी तो रहती नहीं। काम न करें तो भूखों मरें। फिर और क्या करेंगे सिवाय इसके कि बुखार और तकलीफ की हालत में भी काम में जुटे रहें? यदि स्‍त्री, बच्चे, बूढ़े सभी न कमाएँ तो खाएँ-पिएँ क्या? रहें कैसे? दिन कैसे कटे?

    इसीलिए देखा जाता है कि उनके दिलों में यह चाह बराबर बनी रहती है कि किसी प्रकार उन्हें कुछ खेत मिल जाए कि उसमें फसल उपजा के गुजर बसर का पक्का उपाय कर लें। यह ठीक है कि हर हलवाहे को किसान लोग प्राय: थोड़ी बहुत जमीनें देते ही हैं। बिहार और युक्तप्रान्त में तो यह बात आमतौर से पाई जाती है। किसान के ही हल बैल से प्राय: उसमें खेती भी हो जाती है। मगर उतने से ही काम चलता नहीं। वह जमीन तो थोड़ी होती है। अलावे इसके वह तो किसान की मर्जी की बात ठहरी। यह ठीक है कि यह एक प्रकार की रूढ़ि-सी हो गई है कि हलवाहों को जमीन जरूर दी जाए। फिर भी न देने पर कोई दंड तो होगा नहीं। इसीलिए कोई मजबूरी नहीं है कि खामख्वाह दी जाए। और जब खेत-मजदूरों की तादाद बहुत बढ़ रही है तो जैसे मजदूरों में कोई विचार नहीं रह गया है कि कितना देना उचित है। वह तो मनमानी दी जाने लगी है। ठीक उसी प्रकार जमीन का हो सकता है और उसे देना किसान बन्द कर दे सकते हैं। इसीलिए खेत-मजदूरों की यह लालसा बराबर ही रहती है कि उन्हें काम चलने-भर ऐसी जमीन मिले कि जिसे वे अपनी समझें और जो आसानी से छीनी जा न सके। मौका पाते ही ऐसी जमीन वे लोग कहीं-कहीं थोड़ी बहुत हासिल भी कर लेते हैं। मगर बड़ी फजीती के बाद। इस बात में आसानी हो यही उनका चौथा सवाल है। अपनी जमीन और उसमें अपना घर बार न होने के कारण ही जमींदार लोग या इसी प्रकार के चलते पुर्जे आदमी उनसे बेगार करवाने या न करने पर डाँट-डपट की हिम्मत भी रखते हैं। क्योंकि न करें तो मकान या झोंपड़ा छोड़ना पड़ जाए। इसीलिए कम से कम उनके रहने के लिए तो जमीन चाहिए ही और समाज के लिए यह मजबूरी हो कि इसका प्रबन्ध खामख्वाह करे।

    सबसे आखिरी और जरूरी बात है सलूक और बर्ताव की। खेत-मजदूरों के भीतर कुछ जातियाँ तो ऐसी हैं कि उन्हें समाज खामख्वाह तुच्छ और नीच समझने की भारी भूल करता आया है। उन्हें अपने जैसा समझना तो हमने सीखा ही नहीं। इसीलिए आत्मसम्मान नाम की चीज उनके बारे में मानी ही नहीं जाती। यह क्या अन्‍धेर है कि समाज के लिए जो सबसे जरूरी हों और जिनके बिना उसका खाना-पीना या सारा आराम ही मिट्टी में मिल जाए, उन्हीं मनुष्यों को हम मनुष्य ही न समझें, या छोटा समझने की नादानी करें। यह तो पागलपन की पराकाष्ठा है। नतीजा यह होता है कि जो ही हलवाहा बना वही हलका बन गया। वही छोटा समझा जाने लगा। यहाँ तक कि हलवाहे का मतलब ही माना जाने लगा मूर्ख और निरक्षर, असभ्य और बेअक्ल। इसीलिए उनके बच्चों के पढ़ने-लिखने की जरूरत कौन समझे? ऐसी दशा में उनके लिए किसके दिल में आदर सम्मान का भाव पैदा हो सकता है? वे सभ्यता की रोशनी में आएँ यह कौन सोचेगा? कीड़े-मकोड़ों की तरह घुल-घुल के बिना मौत मरने से उन्हें बचाने की फिक्र किसे हो सकती है? इस बला में कौन पड़े? उनकी माँ-बहनों की इज्जत को कौन समझ सकता है? जब कुएँ में ही भांग पड़ी है तो फिर खैरियत कहाँ? इसीलिए तो उन्हें स्‍त्री-पुरुषों को मजबूर किया जाता है कि सर पर लाद के जमींदारों के पास घी, दूध, साग तरकारी वगैरह पहुँचाएँ। इसी तरह की और भी छोटी-मोटी बातें होती हैं जो इन्हीं के पूर्वोक्त पाँच बातों में ही आ जाती हैं।

    इस प्रकार प्रधान रूप से पाँच समस्याएँ उनके तथा सभी जन-सेवकों के समक्ष मुँह बाए खड़ी हैं। जितनी ही जल्दी इनका समाधान हो जाए उतना ही अच्छा। इसी में सबका कल्याण है।

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उनका समाधा

तो फिर उनका समाधान कैसे हो, उनका क्या उपाय किया जाए, यह विकट प्रश्न अब आ खड़ा होता है। चाहे पुराने दकियानूसी दिमाग वाले इस का महत्त्व, इसकी अहमियत समझें या न समझें। मगर जिन्हें ऑंखें हैं वह साफ देखते हैं, उन्हें देखना ही पड़ता है कि दुनिया में क्या हो रहा है। यह बात किसी भी दूरअंदेश आदमी से छिपी नहीं है कि जालिमों और शोषकों के वे दिन लद गए जब उनकी मनमानी को पीड़ित और मजलूम लोग कमाने वाले बिना जबान हिलाए ही और बगैर आह निकाले ही चुपचाप बर्दाश्त कर लेते थे। चाहे कुछ दिन और भी यह धींगामुश्ती चले। मगर यह बात नहीं हो सकती कि तूफान बरपा न हो, लोग तड़पें न, चिल्लाहट न मचाएँ। अन्याय के बल पर मौज करने वालों की जिन्दगी को नर्क और दोजख बना देने वालों का जमाना आ गया है यह पक्की बात है। यह शोषितों और पीड़ितों का युग है, उनके आगे बढ़ने का जमाना है। उनमें आत्मसम्मान आ गया है, आ रहा है। वे जग गए हैं, जग रहे हैं। उन्होंने हक और अधिकार समझ लिया है, वे इसे समझने में लगे हैं। ऐसी हालत में यह चोरी, यह सीना जोरी कब तक टिक सकती है। यदि समय रहते हमने इसे बन्द न किया तो वे हमारी बोलती बन्द करके ही छोड़ेंगे और इन जुल्मों के साथ ही हमें भी, जुल्म करने और चुपचाप देखने वालों को भी उठा फेंकेंगे।

    इसीलिए ठण्डे दिमाग से हमें उनकी सभी बातों पर विचार करना और उनकी तकलीफों को समझना होगा समझने की कोशिश करनी होगी। यदि हमें या किसानों का यह उनके हमदर्दों को इस बात में झल्लाहट हो तो ठीक नहीं। न तो यहाँ शान की बात है और न सिर चढ़ाने की। यह भी नहीं कि जानबूझ के परेशानियाँ पैदा की जाती हों और उन्हीं में फँसाने की कोशिश इस रूप में की जा रही हो। आखिर असलियत को समझना ही होगा। नहीं, नहीं, इतना ही नहीं। किसानों को भी समझाना होगा हिम्मत और मुस्तैदी के साथ। यदि वे पहले पहल झिझकें और सुनने को तैयार न हों, या जली-कटी भी सुना दें तो भी घबराने की कोई बात नहीं है। वे नासमझी से ही ऐसा करेंगे और जब तक उनमें नासमझी है तभी तक उन्हें हमारी जरूरत भी है। क्योंकि जब इन बातों को वे समझने लगेंगे तब तो खुद वही लीडर बन जाएँगे। फिर हमें क्यों पूछेंगे? इसलिए मुस्तैदी और खुले दिमाग से ये बातें हम सोचें- विचारें और किसानों को भी बखूबी सोचने-विचारने का मौका दें। तभी सबका कल्याण है। तभी हम खेत-मजदूरों को विश्वास दिला सकेंगे कि हम जो कुछ कहते-करते हैं वह ईमानदारी से उनकी और दूसरों की भलाई के खयाल से ही। हमने सहानुभूति और हमदर्दी के साथ उनकी दु:ख-दर्द वाली दास्तानें सुननी शुरू कीं, कि हवा ही पलट गई। हम उनके दिलों तक यदि अपनी इन हरकतों से पहुँचने की कोशिश करते ही परिस्थिति पर अपनी छाप लगा देंगे। आखिर खेत-मजदूर लोग अन्धे नहीं हैं और न बेगाने। वे भी किसान ही हैं, किसानों के महत्त्वपूर्ण अंग ही हैं। फिर उन्हीं से घबराहट, या उन्हीं को अपना शत्रु समझ लेना? उनकी दिक्कतें किसान समझें और किसानों की वे। बस, बेड़ा पार समझिए। हमारा-किसान सभा के कार्यकर्ताओं और नेताओं का यही काम होना चाहिए कि दोनों को एक-दूसरे की स्थिति समझने में मदद करें और तटस्थ हो के काम करें।

    अब आइए जरा उनकी समस्याओं के भीतर घुस के उन्हें समझें और उन्हें सुलझाने की कोशिश करें। कुछ समस्याएँ तो ऐसी हैं जिनके बारे में विशेष कहने या सुनने की गुंजाइश ही नहीं है। उन्हें तो साफ स्वीकार कर लेने और सारी शक्ति से शीघ्र सुलझाने में ही भलाई है। दृष्टान्त के लिए कमियाँ लोगों के कर्ज की बात (कमिऔती) या हाली की यही बात ले सकते हैं। खुशी की बात है कि यह चीज अब खुद ही मिट रही है। समय अपना काम कर रहा है। मगर जहाँ कहीं यह चीज नाममात्र को भी पाई जाए, या छिप-लुक के भी कोई इसे अमल में लाते पाए जाए, तो वहाँ फौरन ही हमें इसका भंडाफोड़ करके ऐसे लोगों को विवश करना चाहिए कि फौरन अपनी भूल कबूल करें और इस चीज को सदा के लिए तिलाजंलि दे दें। समझाने-बुझाने या प्रोपैगंडा और प्रचार के जरिए यह बात की जाए। इसके लिए खास मीटिंगें भी जरूरत देख के की जाएँ। तभी तो अनुकूल वायुमंडल पैदा होगा।

    मगर एक बात याद रहे कि कहीं ऐसा होने से खेत-मजदूरों को सूदखोरों के हाथ में फँस जाना पड़े। तब तो और भी बुरा होगा। क्योंकि वे तो सूद दर सूद के जरिए पाँच रुपए के पचास बात की बात में बना डालते हैं। किसानों की कमिऔती में सूद तो नहीं लगता। इसलिए प्रबन्ध ऐसा हो कि अनिवार्य आवश्यकता के ही लिए किसान ही दो-चार रुपए दे दिया करें और बिना सूद के ही असल रुपयों को धीरे-धीरे दो-चार पैसे या आने के रूप में वसूल करते जाएँ। ज्यादा रुपए तो देंगे नहीं। ताड़ी-शराब के लिए तो देना हई नहीं। केवल अनिवार्य आवश्यकताओं के ही लिए देना होगा। जब सूद का रास्ता बन्द हो जाएगा तो सूदखोर लोग भी इन्हें न देंगे। फलत: शराब वगैरह का काम यों ही रुक जाए। तात्पर्य यह है कि उनका जरूरी काम रुके भी न और गैर-जरूरी में खर्च भी न हो यही करना है। साथ ही सूदखोरी और गुलाम बनाने का खयाल लोगों के दिल से मिटा देना है। नहीं तो केवल कमिऔती बन्द करके सन्तोष कर लेने से इन गरीबों की हानि हो जाएगी।

    इसी प्रकार मनुष्यता के बर्ताव तथा सहृदयतापूर्ण सलूक की बात को भी ले सकते हैं। इसमें बहस या विवाद की गुंजाइश ही कहाँ है? यदि किसानों को बर्बाद नहीं होना है, अगर वे अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना नहीं चाहते, यदि वे नहीं चाहते कि उनके असली शत्रु उन्हीं के घर में लड़ाई लगा के उन्हें तबाह करें, तो खेत-मजदूरों से समानता और भाईचारा का सलूक बिना विलम्ब करना होगा। उनसे कोई यह नहीं कह सकता कि उनके संग खान-पान या ब्याह शादी की बिरादरी बना लें। यह तो बिलकुल ही जुदा बात है। इससे और भाईचारा या समानता के बर्ताव से कोई भी ताल्लुक नहीं। बर्ताव तो इनसानियत की चीज है। सहृदयता का व्यवहार तो पशु-पक्षियों तक के साथ भी किया जाता है। कुत्तों-बिल्लियों को पालने पर उनसे कितनी मुहब्बत होती है। लेकिन किसानों के हाथ-पाँव स्वरूप ये खेत-मजदूर प्रेम के पात्र न हों यह कम ताज्जुब की बात नहीं है। आखिर उनमें कमी क्या है जिससे उनसे नफरत या उनमें नीचता की भावना होती है? बाकी लोगों से वे किस बात में कम हैं? जिनके बिना न गेहूँ उपजे और न बासमती और जो अपने खून को पानी बना के फसल उपजाएँ, फिर भी अच्छी चीजें जिन्हें मयस्सर न हों, ऐसे तपस्वियों और त्यागियों के साथ हृदयहीनता का व्यवहार खुद किसान करें? तब तो आसमान फट जाना चाहिए। हमने देखा है कि इन फटे दिल खेत-मजदूरों को मिला लेने का मौका जमींदारों को अच्छा लगा है और उन्हें किसानों का विरोधी बना के उन्हीं के द्वारा किसानों को जमींदारों ने सर किया है, या करना चाहा है। आखिर जो आपके लिए मरें उन्हीं से पशु का-सा व्यवहार आप करें तो नतीजा क्या होगा? वह भी तो आदमी है। उनका दिल इसी से कट जाता है। फिर भी वे इतने भले हैं कि ज्यों ही किसान उनसे प्रेम से मिले या आरजू-मिन्नत करने लगे कि फौरन पसीज गए। इसी से कहना पड़ता है कि इन मजदूरों के साथ मनुष्यता और प्रेम का व्यवहार न करके किसान अपना ही पाँव काटते हैं।

    खेती के लिए किसान बैल वगैरह पशुओं को पालते हैं। उनके प्रति काफी मुहब्बत होती है। जब तक पशुओं को खिला-पिला न लें खुद खाते-पीते तक नहीं। सवेरे उठ के अपने जलपान की परवाह न करके पहले उन्हें खिलाते हैं। खुद भूखे रह जायँ तो रह जाएँ मगर उनके ये पशु भूखे रह नहीं सकते, भूखे रहने दिए जाते नहीं। यदि दैवात् पशु बीमार हो जाएँ या खाना छोड़ दें तो किसान की नींद हराम हो जाती है। उसकी बेकली का ठिकाना नहीं रहता। हजार उपाय करके जब तक पशुओं को निरोग नहीं कर लेता चैन नहीं लेता। जब वे खाने-पीने और जुगाली करने लगते हैं तब कहीं जा कर उसे होश आता है। तो क्या इन पशुओं जितना भी हक उसका हलवाहा या खेत-मजदूर नहीं रखता? क्या किसान के लिए डूब मरने की बात नहीं यदि खेत-मजदूरों की उतनी भी परवाह नहीं करता जितनी पशुओं की करता है? किसान खुद अपने दिल टटोल के देखें और अपने आपसे पूछें कि मजदूरों को दरअसल किस नजर से देखते हैं। और अगर कुछ भी कसर पाई जाए तो न सिर्फ उसे पूरी करें, प्रत्युत आज तक की इस कसर का प्रायश्चित्त कर डालें। तभी खैरियत है।

    असल में तो खेत-मजदूरों और उनके बाल बच्चों को जब तक किसान अपने परिवार के व्यक्ति मान कर वैसा ही सलूक न करेंगे तब तक इस पुरानी कसर, इस पुराने पाप का असली और उचित प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। मजदूर, उसके बच्चे, उसकी स्‍त्री या बूढ़ा बाप किसान की खेती के लिए ज्यादा जरूरी है बनिस्बत उसके अपने बाप, बच्चे और स्त्रियों के। हल चलाने, खेत की निकाई करने, धान के बीज को उखाड़ने और रोपने में बहुत से किसानों का अपना परिवार कतई काम नहीं आता। किन्तु खेत-मजदूरों का परिवार ही वह काम करता है। और बिना धान या दूसरे गल्ले की खेती के किसान कायम कैसे रहेगा? ऐसी दशा में उनके परिवार को अपने परिवार की अपेक्षा यदि ज्यादा न मान के अपने परिवार जैसा ही माने तो इसमें किसान कोई आश्चर्य या उपकार की बात तो करता नहीं। हाँ, सिर्फ दूरदर्शिता और अक्लमंदी से काम जरूर लेता है। उनकी माँ-बहनों की इज्जत उतनी ही करता है जितनी अपनी माँ-बहनों की। यदि उनकी बेइज्जती कोई करना चाहे तो बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर उनमें कोई बीमार या कष्टग्रस्त हो तो उसकी पूरी चिंता करता तथा उनके आराम न होने तक चैन नहीं लेता। बीमारी आदि की दशा में उनसे कोई काम नहीं करवाता। उन्हें भूखे देख नहीं सकता। जैसे खुद साग सत्तू खाता है तैसे उन्हें भी खिलाता है। बस, इतना करने से ही सब मामला ठीक हो जाएगा ठीक रहेगा।

    इस प्रकार जहाँ तक सामाजिक व्यवहार या आदर सत्कार का सवाल है वहाँ तक तो उनकी माँगों पर नाहीं या ननुनच करने की कोई गुंजाइश रही नहीं जाती। उन्हें तो फौरन से भी पेशतर पूरा कर देना ही उचित है। इसमें दो राय की जगह हई नहीं। अब रहीं असली और महत्त्वपूर्ण समस्याएँ वे प्रश्न जिनका जमीन की चाह और मजदूरी से ताल्लुक है। यही तो असली सवाल हैं और इन्हीं को हल कर लेने से बाकी बातें आगे या पीछे खुद हल हो जाएँगी। मगर इनका हल होना आसान नहीं, कठिन है। इनमें भी मजदूरी की जड़ जमीन ही है। यदि जमीन का सवाल हल हो जाए तो मजदूरी का प्रश्न अपने आप खत्म हो जाएगा। अधिक कोशिश करने की जरूरत ही न होगी। हमने जो खेत-मजदूरों को किसान श्रेणी में ही माना है वह भी इस जमीन के सवाल को देख कर ही।

    इस सवाल के उठते ही हमें ऑंखें मूँद के चट कुछ न कह के जरा इस पर गंभीरतापूर्वक गौर करना होगा। यह पेचीदा पहेली है। सबसे पहले तो हमें यही देखना है कि इस मुल्क में कुल जमीन है कितनी और कितनी जमीन खेती के काम आ रही है। भारत सरकार ने सन् 1936 ई. में इसका हिसाब लगा के बताया है कि करीब-करीब 66 करोड़ 74 लाख एकड़ जमीन कुल है। इसमें 8 करोड़ 95 लाख एकड़ तो जंगल है। 14 करोड़ 50 लाख एकड़ ऐसी मानी जाती है जो खेती के लिए मिली नहीं सकती। खेती के योग्य होने पर भी अब तक गैर आबाद 15 करोड़ 36 लाख एकड़ है। परती है 5 करोड़ 10 लाख एकड़। इस प्रकार कुल जमीन जिसमें खेती होती है सिर्फ 22 करोड़ 79 लाख एकड़ ही बच जाती है। यह भी बात है कि जमीन तो रबर की तरह फैलती नहीं। मगर जनसंख्या तो बराबर बढ़ रही है। आज भारत की 40 करोड़ जनता में यदि 80 प्रतिशत भी खेतिहर मान लें तो फी आदमी पौन एकड़ भी नहीं पड़ती है। क्योंकि 32 करोड़ के लिए सिर्फ 22 करोड़ 79 लाख एकड़ में ही बँटवारा करना है। मगर इसका तो सीधा अर्थ है सभी का भूखों मरना।

    सर टामस होल्डरनेस नामक एक अंग्रेज सज्जन ने सन् 1911 ई. में अंग्रेजी में एक पुस्तक पीपल्स एण्ड प्राब्लम्स ऑफ इंडिया लिखी थी। उसके 139वें पृष्ठ में कुछ मजेदार बातें उनने लिखी हैं। याद रहे कि तब जनसंख्या आज की अपेक्षा बहुत कम थी। फिर भी उनकी बातें हृदयविदारक हैं। वे लिखते हैं कि देशी रजवाड़ों को मिलाकर कुल भारत की जनसंख्या साढ़े एकतीस करोड़ है। इसके तीन-चौथाई आदमियों की गुजर खेती से होती है। रजवाड़ों के ऑंकड़े ठीक-ठीक न मिलने के कारण यह ठीक कहा नहीं जा सकता कि कितनी जमीन में खेती होती है। लेकिन सीधे खेती पर निर्वाह करने वालों के सम्बन्ध में यदि हम कहें कि फी आदमी औसतन सवा एकड़ से भी कम जमीन पड़ती है, तो हम ज्यादा गलती न करेंगे...

    'भारत की जमीन न सिर्फ इस बड़ी जनसंख्या को खाना देती है, प्रत्युत इस जमीन के एक खासे हिस्से में केवल वही चीजें पैदा की जाती हैं। जो विदेशों को जाती हैं। ...सच बात तो यह है कि बाहर से आने वाले मालों का दाम और अन्तर्राष्ट्रीय ऋणों को यह देश इसी प्रकार चुकाता है। इस प्रकार की पैदावार के लिए जो जमीनें मुकर्रर हैं उन्हें अगर खेती वाली समूची जमीनों में से निकाल दें तो जितनी जमीन बचेगी सबके लिए खाना पैदा करने को, वह समस्त जनसमूह में प्रत्येक के हिस्से दो-तिहाई एकड़ से ज्यादा न होगी। इसलिए मानना पड़ेगा कि इसी दो-तिहाई एकड़ की पैदावार से भारत के प्रत्येक प्राणी का खाना और बहुत अंशों में कपड़ा चलता है। संसार में शायद एक भी ऐसा देश नहीं है जहाँ की जमीन से इतनी ज्यादा उम्मीद की जाती हो।'

    यह तो फी आदमी करीब सवा एकड़ मानकर हिसाब दिया गया है। मगर हम तो बताई चुके हैं कि असल में अब तो पौन एकड़ का भी परता शायद ही पड़ता है। इसलिए अब तो किसानों या खेती पर गुजर करने वालों की दयनीय दशा का पता और भी आसानी से लग जाता है। मगर हमें यह भूलना न चाहिए कि व्यवहार में तो यह पौन एकड़ की औसत काम नहीं करती। आखिर हर व्यक्ति इसी औसत के हिसाब से तो खाता-पीता नहीं। ऐसे लोग तो लाखों हैं जो हजारों एकड़ की पैदावार खुद हजम कर जाते हैं, हड़प जाते हैं। फलत: करोड़ों के पास जमीन या उसकी पैदावार का एक अन्न भी नहीं पहुँचता। इसीलिए तो अधिकांश अत्यन्त निर्धन और गरीब हैं, तंग और तबाह हैं। फिर वे अपने खेत-मजदूरों को कहाँ से जमीन दें? यह तो 'खुदरा फजीहत दीगरे रा नसीहत' हो जाएगी। किस हिम्मत और समझ से उनसे जमीन का मुतालबा खेत-मजदूरों की ओर से किया जाएगा? आखिर कोई आधार भी तो इस मुतालबे का होना चाहिए। जब खुद किसान ही मरा जा रहा है और इसीलिए न सिर्फ अपनी इंच-इंच जमीन को दाँतों तले पकड़े हुए है, बल्कि और जमीन की चाह और खोज में बेहाल है, तो फिर वह मजदूरों को देने की बात सुनेगा भी कैसे? यह बात उसे सुनाई भी कैसे जाएगी? इसकी हिम्मत कौन पत्थर का कलेजा, संगदिल करेगा? जब उसकी पैदावार खुद किसान के लिए ही बहुत ही नाकाफी है तो उसमें दूसरा साझीदार बनके और क्या करेगा। सिवाय अपनी और उसकी भूख बढ़ाने के? हाँ, यदि पैदावार बढ़ जाए, आबापाशी आदि का पूरा प्रबन्ध हो जाए और खेती के लायक जमीन बढ़ जाए तो बात दूसरी है। मगर ऐसी दशा में हमारा ध्‍यान सबसे पहले इन्हीं बातों की ओर जाना चाहिए, न कि जमीन के मुतालबे की ओर।

    अच्छा तो आइए जरा इस बात का भी अच्छी तरह विचार कर लें कि जमीन बढ़ सकती है या नहीं। उसकी पैदावार इतनी बढ़ सकती है या नहीं कि सभी लोगों को खिला-पिला सकें। हमने जो पहले समूची जमीन को लिख के उसका ब्योरा देते हुए 15 करोड़ 36 लाख एकड़ खेती-योग्य मगर अब तक गैर आबाद और 5 करोड़ 10 लाख परती लिखा है उन दोनों को मिला देने से 20 करोड़ 46 लाख एकड़ हो जाता है। यानी आज जितनी जमीनों में खेती हो रही है करीब-करीब उतनी ही जमीनें और भी मिल जाती हैं। क्योंकि करीब साढ़े बीस करोड़ यह जमीन तो खेती के लायक हुई। सिर्फ कुछ दिक्कतें हैं और उन्हें दूर करने के लिए ज्यादा पूँजी चाहिए जो किसानों के पास नहीं है। मगर आखिर सरकार किस मर्ज की दवा है यदि यह भी नहीं करती? यदि सरकार पैसा लगा के इन जमीनों को आबाद करा दे तो बात की बात में खेती की जमीन प्राय: दूनी हो जाती है। यानी पूरे तैंतालीस करोड़ 25 लाख एकड़ हो जाएगी।

    लेकिन इतना ही नहीं। भारतीय कृषि कमीशन ने अपनी रिपोर्ट के 605 पृष्ठ में एक बहुत ही मार्के की बात लिखी है। पूर्व लिखे जमीन के ऑंकड़ों से पता लगता है कि साढ़े चौदह करोड़ एकड़ जमीन ऐसी है जो खेती के लिए मिल ही नहीं सकती है। यह अजीब बात है कि कुल जमीन का एक-तिहाई से भी ज्यादा 22.5 प्रतिशत यों सदा के लिए खेती से वंचित रह जाए। कमीशन का कहना है कि 'इस बात पर विश्वास करना कठिन है कि 15 करोड़ एकड़ जमीन का यह लम्बा भाग जो कुल जमीन का साढ़े बाईस प्रतिशत है और जिसके बारे में कहा जाता है कि या तो खेती के लिए मिली नहीं सकता, या उसमें खेती होई नहीं सकती, सचमुच ही ऐसा है।'

    इसका साफ अर्थ यही है कि अब तक खेती से अछूत, मगर खेती के लायक,जो करीब साढ़े बीस करोड़ एकड़ जमीन बताई गई है और जो कुल जमीन का 35.5 प्रतिशत है, वह और भी बढ़ जाएगी और जानकार लोगों का कहना है कि वह 40 प्रतिशत से कम नहीं हो सकती। यानी प्राय: तीन करोड़ एकड़ और भी मिल जाएगी। इसका मतलब यों समझें कि अब जितनी जमीन है उतनी ही नहीं, किन्तु उससे भी कुछ ज्यादा एकड़ और भी मिलेगी। इस प्रकार फी आदमी डेढ़ और दो एकड़ के बीच में पड़ेगी। करीब नौ करोड़ एकड़ जंगल की जमीन में से भी कुछ मिली सकती है। यदि ठीक-ठीक प्रबन्ध किया जाए। जंगलों के बीच में जगह-जगह खाली जमीन के बड़े-बड़े टुकड़े लाखों मिल जाएँगे और अगर रुपए-पैसे खूब खर्चे जाएँ तथा दिमाग भी लगाया जाए तो प्रति मनुष्य दो एकड़ तक जमीन मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़े-बड़े चौर और दलदली जमीनें खेती के योग्य बनाई जा सकती हैं। ऊसर जमीनें भी ऐसी हो सकती हैं। विज्ञान और पूँजी इन दोनों की मदद चाहिए जो सरकार ही कर सकती है।

    और भी देखिए। श्री आर. के. दास नाम के भारतीय विज्ञ ने भारत की उद्योग- धन्‍धों की योग्यता नामक अंग्रेजी पुस्तक सन् 1930 ई. में प्रकाशित की थी। वे उसके 13वें पृष्ठ में लिखते हैं कि, 'कुल असल जमीनें, जिनमें फसलें बोई जाती हैं, 22 करोड़ 80 लाख एकड़ हैं, या यूँ कहिए कि खेती योग्य जमीनों की 53 प्रतिशत। लेकिन यदि दो फसला जमीनों की दूसरी फसल पैदा करने की जमीन को जुदा मान लें (अर्थात् जमीन में एक ही फसल मानें) तो सब मिलाकर 26 करोड़ 20 लाख एकड़ हो जाएगी। मुल्क में बहुत जगह की जलवायु के प्रताप से बहुत सी जमीनों में एक से ज्यादा भी फसलें होती हैं। लेकिन इसी के साथ-साथ कुछ जमीनों में एक से ज्यादा भी नहीं होतीं और कुछ समय तक तो ऐसी जमीनें रहेंगी ही जिनमें एक भी फसल न होगी। फिर भी कुल मिलाकर इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि सभी जमीनें औसतन दो फसला हैं। इस प्रकार खेती की योग्यता रखने वाली जमीनों का रकबा 86 करोड़ 40 लाख एकड़ हो जाता है। मगर इसमें केवल 26 करोड़ 20 लाख एकड़ में ही खेती होती है, यानी सिर्फ 30 फीसदी में ही और 60 करोड़ 20 लाख एकड़ यानी पूरे 70 प्रतिशत यों ही बेकार पड़ी रह जाती है।'

    यह लेख कई दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मगर इसकी खूबियों को जानने के पहले इसका मतलब समझ लेना चाहिए। हमने जो पहले 22 करोड़ 79 लाख एकड़ लिखा है उसे ही यहाँ 22 करोड़ 80 लाख दिया गया है। इसी प्रकार सब जोड़ के जो हमने 43 करोड़ 25 लाख बताया है और कहा है कि इतनी जमीन खेती के लायक है उसे ही यहाँ दूना करके 86 करोड़ 40 लाख लिखा है। क्योंकि हर जमीन में आमतौर से औसतन दो फसल मान के दोनों की जमीनों को दो अलग-अलग कर दिया है। इस प्रकार असल जमीन दूनी हो जाती है। यह बात हिसाब समझने की आसानी के लिए की गई है। किसी जमीन में तीन फसलें भी होती हैं और किसी में एक ही। कुछ दिनों तक, काफी पूँजी और विज्ञान के बल से सारी योग्य जमीनों में खेती होने नहीं लगती तब तक, कुछ जमीनें खामख्वाह ऐसी रहेंगी ही जिनमें खेती होई न सकेगी। फिर भी सब मिलाकर औसतन दो फसलें हर जमीन में मान लेने में कोई हर्ज नहीं है।

    हाँ, तो श्रीयुत दास ने एक तो यह दिखलाया है कि यदि सरकार पूर्णतया तत्पर हो जाए और सिंचाई वगैरह का पूरा इन्तजाम करने के साथ ही इंच-इंच खेती के लायक जमीनों में उसका प्रबन्ध कर दे तो आज के मुकाबले में तीन गुने से भी ज्यादा खेती हो सकती है। सौ प्रतिशत में सिर्फ 30 ही खेती होती है और 70 फीसदी बाकी ही है। इस प्रकार यदि बीघे में पैदवार न भी बढ़े तो भी तीन मन की जगह पूरे दस मन पैदावार हो जाए, और अगर पैदावार भी फी एकड़ बढ़ाई जाए तब तो कहना ही क्या? उन्होंने ही यह बात भी सुझाई है कि भारत की हर जमीन में दो फसलें प्रतिवर्ष हो सकती हैं, और अगर शायद कोई जमीन ऐसी न हो तो उसके बजाए तीन फसलों वाली भी जमीनें बहुत हैं। उनका मतलब इस कथन से यही है कि ज्यादा से ज्यादा फसलें जितनी भी साल में हो सकती हैं पैदा की जाएँ। इसके लिए केवल आबपाशी और मुस्तैदी चाहिए। कहाँ कब कौन फसल हो सकती है इसकी छानबीन भी होनी चाहिए। आज हमारी भूमि की उत्पादन शक्ति का कितना अपव्यय हो रहा है यह बात भी उनके लेख से सिद्ध होती है। आमतौर से शायद ही कोई यह समझता हो कि इतनी जमीन बेकार-सी पड़ी है जितनी उनने सिद्ध की है। हम जो निराशा के अथाह समुद्र में गोते लगा रहे थे कि जमीन तो खेती के लिए काफी हुई नहीं उससे उनने बचा लिया है और आशा की सुनहली किरण झलका दी है।

    यही बात श्री राधाकमल मुखर्जी ने अपनी हाल वाली किताब चालीस करोड़ लोगों के लिए खुराक का प्रबन्ध के 26 पृष्ठ में लिखी है। उसी का हवाला देते हुए श्री पामदत्ता इण्डिया टुडे के 191 पृष्ठ में लिखते हैं कि 'ऐसा हिसाब लगाया गया है कि खेती का मौजूदा ही तरीका रहने पर भी यदि खेती के योग्य सारी जमीनें काम में लाई जाएँ और सिंचाई का समुचित प्रबन्ध हो तो इतनी ही जमीन से 44 करोड़ 70 लाख लोगों का काम बखूबी चल सकता है यानी आज की अपेक्षा 7 करोड़ अधिक लोगों को खुराक मिल सकती है।'

    लेकिन यदि खेती के आधुनिक वैज्ञानिक तरीके काम में भरपूर लाएँ, वैज्ञानिक खादों का काफी इस्तेमाल हो और सिंचाई का तरीका भी आधुनिक ढंग से किया जाए संक्षेप में खेती सोलहों आने आधुनिक ढंग से की जाने लगे तो कहीं ज्यादा अन्नादि पैदा होंगे और सभी लोगों की जिन्दगी आनन्द से कटेगी। इतना ही नहीं। ऐसा होने पर तो एक खेत-मजदूर अनेक का काम कर लेगा और इस प्रकार पैदावार की तरक्की के साथ ही खेती का खर्च भी अपेक्षाकृत कम होगा। यह बात और मुल्कों में पाई जाती है। ज्यादे से ज्यादा कितनी उपज खास-खास मुल्कों में एक एकड़ में होती है यह बात राष्ट्रसंघ की सालाना रिपोर्ट में सन् 1932-33 में इस प्रकार दी गई है। हमें याद रखना होगा कि पैदावार पौंडों में दी गई है और 82 पौंड का एक मन पक्का होता है। वह यों है :

    (1) भारत (धान 1357, गेहूँ 652), (2) जापान (धान 2267, गेहूँ 1508), (3) मिस्र (धान 2356, गेहूँ 1688), (4) संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (धान 2112, गेहूँ 973), (5) इटली (धान 4601, गेहूँ 1241), (6) जर्मनी (गेहूँ 1740), (7) ब्रिटेन (गेहूँ 1812)

    इन ऑंकड़ों से साफ हो जाता है कि सभी प्रकार से और मुल्कों की अपेक्षा बहुत ही उपजाऊ जमीन और अत्यन्त अनुकूल जलवायु तथा मौसम होने पर भी हमारे देश की खेती कितनी पिछड़ी है। कहाँ तो और देशों से हमारी पैदावार फी एकड़ बढ़ जानी चाहिए और कहाँ हम सबों से पीछे हैं, सो भी बुरी तरह। जापान और मिस्र भारत की अपेक्षा एक एकड़ में करीब पौने दो गुना धान पैदा करते हैं, अमेरिका डयोढ़े से ज्यादा और इटली पूरे साढ़े तीन गुना। और जब गेहूँ की हालत देखते हैं तो जहाँ अमेरिका प्राय: डेढ़ गुना पैदा करता है, तहाँ जापान सवा दो गुने से ज्यादा और मिस्र ढाई गुना। इटली भी प्राय: दो गुना, जर्मनी करीब तीन गुना और ब्रिटेन तीन गुना उपजाते हैं। क्या हमारी जमीन ऐसा नहीं कर सकती? कर तो सकती है इससे भी ज्यादा। मगर सामान तो है नहीं। पूँजी तो हमारे किसानों के पास हई नहीं और सरकार ऑंखें मूँदे बैठी है। उसके कान में तेल डाल रखा है। अगर सरकार ऐसा कर दे तो करीब-करीब आज से तीन गुनी पैदावार यहाँ होने लगे। यहाँ की खास गल्ले की तो दोई फसलें हैं, गेहूँ और धान। तब तो हालत यह हो जाएगी कि आज जितनी पैदावार हो रही है उसकी नौ-दस गुनी हो जाएगी। क्योंकि जैसा कि पहले कह चुके हैं तीन गुनी से ज्यादा तो मामूली पैदावार से ही होगी। फिर उसकी तीन गुनी आधुनिक ढंग से खेती से हो जाने पर 9-10 गुनी होने में कोई भी शक नहीं।

    इस विषय में हम खुद भारत सरकार के अफसर की ही राय उचित समझते हैं जो भारतीय बैंकिंग जाँच कमेटी के सामने उसने पेश की थी और जिसे उस कमेटी की रिपोर्ट के 13वें परिशिष्ट के 700 पृष्ठ में हम देख सकते हैं। उस अफसर का नाम है मैक्डोगल। उसी सिलसिले में श्री पामदत्ता ने अपनी पूर्वोक्त पुस्तक के 198 पृष्ठ में उस वक्तव्य को उद्धृत करते हुए उसके पूर्व खुद भी एक पैराग्राफ में यह दिखाया है कि भारत में परिश्रम किस प्रकार व्यर्थ जाता है। जिस काम को और देशों में एक मजदूर कर सकता है उसे ही यहाँ 7-8 करते हैं। वह वक्तव्य यों है : 'अगर खेत-मजदूरों की संख्या का खयाल किया जाए, तो और मुल्कों की बनिस्बत भारत की पिछड़ी हालत और भी साफ हो जाती है। जहाँ भारत में एक आदमी केवल 2.6 एकड़ की ही खेती कर सकता है वहाँ ग्रेट ब्रिटेन में एक ही मजदूर 17.3 एकड़ की और जर्मनी में 5.4 की कर सकता है।' (श्री पामदत्ता)

    'कहा जाता है कि भारत की जमीन स्वभावत: ही कम उपजाऊ है। मगर यह बात सही नहीं है। असल में यहाँ की जमीन कमजोर हो गई या बन गई है। बड़ी-बड़ी नदियों के कछार की जमीनें किसी समय संसार की सबसे ज्यादा पैदावार जमीनों में होंगी। डेनमार्क और जर्मनी में तो शुरू-शुरू में जमीनों का अधिकांश केवल रेतीला रेगिस्तान था जिसमें झौआ जैसी झाड़ियाँ थीं।'

    'यदि यहाँ के खेतों की पैदावार फ्रांस जैसी होने लगे तो यहाँ की आमदनी 66 करोड़ 90 लाख पौंड बढ़ जाएगी और अगर इंग्लैंड जैसी हो जाए तो एक अरब पौंड बढ़ेगी। हालाँकि इंग्लैंड की खेती भी अभी उतने ऊँचे दर्जे की नहीं है। आमदनी बढ़ने के इस हिसाब से हमने दो फसला जमीनों का खयाल किया ही नहीं है (सबों की एक ही फसल मानी है)। इसलिए इसी अनावृष्टि के करते फसल मारी भी जाए तो भी कम से कम एक अरब की वृद्धि तो होगी ही। यदि यहाँ की पैदावार डेनमार्क जैसी हो जाए तो डेढ़ अरब पौंड की आय बढ़ जाएगी। इसीलिए भारत के किसानों की गरीबी का कारण, यहाँ की जमीन की उर्वरा-शक्ति की कमी नहीं कहीं जा सकती।'

    यहाँ जो पौंड लिखा है वह तेरह रुपए पाँच आने चार पाई के बराबर है। अब तक मोटा-मोटी खेती से सारे मुल्क की आमदनी करीब बारह अरब रुपए मानी जाती है जो एक अरब पौंड से भी कम है। मगर खेती में सुधारने से डेढ़ अरब पौंड और भी होगी यानी आज की ढाई गुनी से भी ज्यादा होगी। मगर जैसा कि पहले कहा गया है, यदि सभी जमीनें दो फसला हो जाएँ और जमीन भी बढ़ के प्राय: दूनी हो जाए, तब तो आज से दस गुनी आय जरूर ही होगी। श्रीयुत आर. के. दास के वक्तव्य से भी यही बात सिद्ध की गई है। इस वक्तव्य में तो यह भी माना है कि यहाँ की जमीनें दुनिया की सबसे पैदाऊ जमीनों के टक्कर की हैं और अगर वे अनुर्वरा हो गई हैं तो इसीलिए कि किसान खाद दे सकता नहीं और सरकार को इसकी फिक्र ही नहीं है।

    हमारे देश में बेकार ही ज्यादा खेत-मजदूर भी लगते हैं इंग्लैंड के साढ़े सात गुने और जर्मनी के तीन गुने से अधिक। यह मानवशक्ति का नितान्त अपव्यय है। इधर पैदावार कम होती है उधर आदमी ज्यादा लगते हैं। फलत: किसानों पर दोहरी मार पड़ती है और वे खेती से फायदा कर नहीं पाते। यदि वैज्ञानिक ढंग से खेती की जाए तो थोड़े ही खेत-मजदूर ज्यादा पैदा करेंगे। लेकिन उसका यह नतीजा जरूर होगा कि जिन 7-8 आदमियों में एक ही की जरूरत खेती के लिए रह जाएगी उनमें बाकी बेकार हो जाएँगे। लेकिन खेती तो काफी लाभदायक हो जाएगी इसमें कोई शक नहीं। रह गई इन मजदूरों की बेकारी। सो तो यों जाएगी कि जब आज से तीन गुनी से भी ज्यादा जमीनें खेती की हो जाएँगी तो बेकार मजदूरों में आधे तो उन जमीनों में जा लगेंगे। रह गए बेकारों के बचे-बचाए आधे। सो उनके लिए नए-नए कल-कारखानों में जगह होगी। क्योंकि वैज्ञानिक तरीके से पूरी-पूरी खेती होने का अर्थ है यहाँ आधुनिक कारखाने भरपूर खुल जाएँगे। नहीं तो वैज्ञानिक खेती के सभी सामान मिलेंगे कहाँ? विदेशों से ला के तो करना असंभव है। किसी भी मुल्क में ऐसा नहीं होता। जब तक मुल्क में उद्योग-व्यापार अत्याधुनिक ढंग से पूरा होने लगे नहीं, तब तक आधुनिक खेती पूर्ण रूपेण हो सकती नहीं, यह मानी हुई बात है।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि जब सारे मुल्क के लिए काफी पैदावार का प्रबन्ध होगा तभी किसानों की जमीन-सम्बन्धी भूख मिटेगी और तभी खेत-मजदूरों को भी जमीन मिल सकेगी। दूसरा रास्ता कोई नहीं। वर्तमान दशा में किसानों के साथ खेत-मजदूरों द्वारा की गई लड़ाई सिर्फ कफन खसोटी होगी। यही होगा कि दोनों दल भुक्खड़ों की तरह आपस में कफन के लिए, टुकड़ों के लिए लड़ेगा सही, मगर नतीजा कुछ न होगा। इसलिए हमने इस दिक्कत की जड़ को ही पकड़ा है। इसके जरिए हमने किसानों को जिनमें खेत-मजदूर भी आ जाते हैं असलियत तक पहुँचा देने की कोशिश की है। हम चाहते हैं कि जड़ को पकड़ें ताकि काम चले। फूल-पत्तों से कुछ होने-जाने का नहीं।

    मगर जमीन होने पर जो यह दिक्कत है कि लाखों जमींदारों के पास जिरात और बकाश्त या खुदकाश्त के नाम पर करोड़ों एकड़ जमीनें पड़ी हैं। वे या तो खुद खेती करते नहीं, और अगर करते भी हैं तो दौलत जमा करने के ही लिए, न कि खाने के लिए। उन्हें खाने की कमी तो है नहीं। ये लोग करोड़ों की जमीनें छीन के अपने पास रखते हैं और मनमाना लगान वसूलते रहते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार उन जमींदारों की सारी जिरात और बकाश्त की जमीनें छीन ले जो खेती से गुजर नहीं करते। जमींदार से हमारा मतलब उन लोगों से हैं जो अपनी जमीनें भावली या नगदी लगान पर गैरों को देते हैं। उनकी ऐसी जमीनें लेकर उनमें से सबसे पहले उन लोगों को दी जाएँ तो खेत-मजदूर या इसी प्रकार के लोग हैं, जो खेती से भी गुजर करते आ रहे हैं और करना चाहते हैं। बचने पर ही वह जमीन और काम में आ सकती है। जिनके पास या तो जमीन है नहीं या नाममात्र को ही, ऐसे ही किसान और खेत-मजदूर इन जमीनों के हकदार हैं। कुछ लोग तो दौलत करें जमीनों से ही और करोड़ों भूखे मरें यह नाजायज बात बन्द हो जानी चाहिए। ऐसी जमीनें जब दी जाएँगी तो इन गरीब किसानों को, जिनमें खेत-मजदूर भी आ जाते हैं, पंचायती खेती का अच्छा मौका मिल जाएगा। सरकार और समाज का फर्ज है कि जमीनों को देने के साथ ही भरसक पंचायती खेती का भी इंतजाम कर दें। इसी शर्त के साथ जमीनें दें।

    इस प्रकार जमीन का सवाल हल हो जाने पर मजदूरी का प्रश्न खुद-ब-खुद हल हो जाएगा। लेकिन जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक तो वह सवाल उठता ही रहेगा। इसलिए उस पर भी थोड़ी रोशनी डाल देना जरूरी है। इतना ही नहीं। जमीनें मिलने पर भी वह समस्या बनी रहेगी। मजदूरी का प्रश्न सिर्फ पेट भरने का प्रश्न न होकर इससे कहीं बड़ा है। इसकी ठीक-ठीक व्यवस्था हो जाने पर ही खेती-बारी आदि सभी काम ठीक-ठीक चल सकते हैं। नहीं तो उनमें बराबर गड़बड़ी होती ही रहेगी। मजदूर का प्रश्न हक का प्रश्न है। इसलिए उस पर काफी ध्‍यान जाना चाहिए।

    सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि जो धनी किसान हैं उनके यहाँ तो खेत-मजदूर काम करते ही हैं। मगर गरीबों के यहाँ भी करते हैं, जैसा कि पहले कह चुके हैं। ऐसी हालत में अगर गरीबों को उचित मजदूरी देने में यदि दिक्कतें हों भी तो धनियों को तो होती हैं नहीं। वे तो काफी और पूरी मजदूरी देई सकते हैं। फिर भी गरीबों की देखा-देखी वह भी नहीं देते। मजदूरी की दर जो बँध गई वही वह भी देते हैं। ज्यादातर तो गरीब ही होते हैं। इसलिए वह जो देते हैं वही मजदूरी की दर मान ली जाती है। मगर यह गलत है और इसके खिलाफ लड़ना पड़ेगा। उनके साथ तो जरा भी मुरव्वत नहीं हो सकती। आखिर उनकी भी तो मजबूरी है। वे खुद तो खेती अपने हाथों कर सकते नहीं। एक तो शान और दूसरे ज्यादा खेतों में खेती अकेले कैसे करेंगे। इसीलिए ज्यादा मजदूरी की उन्हें जरूरत होती है। इसी से उन्हें विवश करना होगा कि पूरी मजदूरी दें।

    मगर गरीब लोग तो जरूरत होने पर खुद भी खेती का सारा काम कर ले सकते हैं। उनके सामने शान का सवाल तो वैसा होता नहीं। खेत भी ज्यादा नहीं होते। सिर्फ पुरानी प्रथा और धर्म-वर्म के खयाल से ही नहीं करते हैं। लेकिन जब मजबूरी होगी तो खामख्वाह करेंगे। नतीजा यही होगा कि ज्यादा दबाव देने पर वे न मानेंगे और उनके खेत-मजदूर भूखों मरने लगेंगे। इसीलिए उनके साथ रिआयत की जा सकती है। क्योंकि दोनों की मजबूरी होने से समझौता हो सकता है होना चाहिए। खासकर जब तक जमीनों का सवाल हल हो नहीं जाता। आखिर किसी प्रकार जिन्दा तो रहना ही है। दोनों की हालत दोनों देखें और बीच का रास्ता निकालें।

    बात असल यह है कि जिस प्रकार ग्राह ने गज को करीब-करीब ग्रस ही लिया था ठीक उसी तरह गरीब किसान जो कुछ पैदा करते हैं उसे जमींदार, साहूकार वगैरह ग्रस लेते हैं। उनके पास बचने पाता है कहाँ? और जो बचता भी है वह तो कथमपि गुजर लायक होता ही नहीं। दूसरे उस पर ग्राहों की दृष्टि लगी ही रहती है कि कब कैसे उसे भी हड़पें। यही कारण है कि गरीब किसान अपने मजदूरों को भरपेट खिला सकता नहीं। कारण, खुद भी तो भूखा ही रहता है। इसलिए पहला काम तो यही है कि दोनों ही मिलके इन ग्राहों के पेट से उस पैदावार को बचाएँ। तभी पेट भरने की आशा है। मगर जब तक दोनों बराबर लड़ेंगे और एकमत होके ग्राहों से न भिड़ेंगे कुछ होने-जाने का नहीं। इसीलिए पारस्परिक समझौता होना जरूरी है। इसीलिए उसी दृष्टि से हमें उनकी मजदूरी का प्रश्न लेना होगा।

    हमने खुद इसी खयाल से अनेक स्थानों में जाँच की है और परस्पर मेल भी कराया है। कहीं-कहीं तो ऐसा हुआ है कि सिर्फ मामूली जलपान की ही माँग रही है और किसानों ने उसे पूरा ही कर दिया है। कहीं पाव-आधा सेर मजदूरी बढ़ाने की बात भी मान ली गई है। मगर समझा-बुझा के ही यह काम हुआ है। इसके लिए हड़ताल जैसी भारी भूल नहीं की गई है। उससे तो किसान संगठन के मूल में ही कुठाराघात हो जाता है। गरीब किसानों का, जो हमारे संगठन की रीढ़ हैं, हमसे विश्वास ही उठ जाने का उसमें खतरा है। इसलिए वहाँ तक बढ़ जाना भूल है, भारी भूल है।

    कई जगह तो किसानों ने हमसे खुद प्रस्ताव किया कि नपी-तुली मजदूरी की क्या बात? खेत की पैदावार की प्राय: आधा तो जमींदार ही लेता है। बचे आधे में आधा मजदूर ले लें। हम सिर्फ चौथाई में ही गुजर करेंगे और खेती का सारा खर्च भी चलाएँगे। मगर मजदूर इस पर तैयार न हुए। यह प्रस्ताव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और इससे किसानों की सद्भावना और नेकनीयती पर पूरा प्रकाश पड़ता है। इसी में झगड़ा मिट जाने और सुलह का बीज छिपा हुआ है। किसानों का भविष्य उज्ज्वल है इसकी आशा भी हमें इसी से है। इसमें सफलता का विश्वास भी है।

(5)

यह हो कैसे

अब एकाएक सवाल उठता है कि खेत-मजदूरों की समस्याओं का जो समाधान बताया गया है, उनके सुलझाने में जो कुंजी सुझाई गई है वह है तो बहुत ही सुन्दर। उससे न सिर्फ खेत-मजदूरों का ही भला है, प्रत्युत किसानों का भी। मगर आखिर यह होगा कैसे? देखने में यह बात जितनी सीधी और आसान मालूम पड़ती है अमल में उतनी ही कठिन है, बीहड़ है। जमीन का प्रश्न यों देखने से तो सुन्दर जान पड़ता है। मगर उसे क्या जमींदार या सरकार पसन्द करेंगे? वे न सिर्फ नाक-भौं सिकोड़ेंगे, बल्कि सारी शक्ति से उसका विरोध करेंगे। सरकार तो हजार दिक्कतें और अड़चनें पेश करेगी, और जमींदार तो जल भुन के खाक ही हो जाएँगे। ऐसी हालत में उन्हें मजबूर करने का कोई रास्ता होना चाहिए। इसी प्रकार धनी किसानों को पूरी मजदूरी देने के लिए विवश करने का भी उपाय चाहिए। क्योंकि वे लाग भी आसानी से मानने वाले जीव हैं नहीं।

    यह सवाल तो ठीक ही है कि इसका जवाब भी मौजूद ही है। वह है लोकमत एवं प्रचंड आन्दोलन का प्रभाव। असल बात है सरकार को मनवाने की, और वह तो बिना लोकमत के दबाव के दूसरी तरह सुन सकती नहीं। इसीलिए हमें तो अपने प्रस्ताव के अनुकूल जबर्दस्त लोकमत बनाना ही होगा। इसके सिवाय चारा नहीं। इसीलिए तो हमने पहले ही कह दिया है कि किसानों और खेत-मजदूरों की संगठित तथा सम्मिलित शक्ति से ही यह काम करना होगा। यही कारण है कि दोनों के समझौते की बात हमने कही है। आखिर दोनों के स्वार्थ जब एक ही हैं तो फिर मिल के काम क्यों न किया जाए? जमींदार तो चाहेंगे ही, साहूकार भी चाहेंगे और सरकार भी, कि ये दोनों आपस में ही लड़ें और पारी-पारी से दोनों के कान ऐंठे जाएँ। मगर इन दोनों को, और हमें भी, तो इस खतरे से सदा सजग रहना है।

    अब प्रश्न हो सकता है कि इन दोनों के संगठन दो हों या एक ही रहे। इस प्रश्न का उत्तर तो पहले ही दिया जा चुका है। मगर शायद वह काफी नहीं है। एक महान संगठन के भीतर ही दोनों का रहना निहायत जरूरी है यह बात बताई जा चुकी है। यह मौलिक सिद्धान्त है। हम इससे हर्गिज विचलित हो नहीं सकते। मगर हम यह बात नहीं भूल सकते कि खेत-मजदूरों में प्रधानत: कुछ ऐसी जातियाँ हैं जो सदियों से दबी पड़ी हैं, जिनकी रीढ़ ही टूट चुकी है और इसलिए जो आसानी से उठ नहीं सकती हैं उनमें परस्पर भी ऊँच-नीच का भाव है। समाज ने उन्हें पशु से भी बदतर बना रखा है यद्यपि धीरे-धीरे यह बात मिट रही है। वर्तमान समाज का निर्माण ही ऐसा है, जब तक इसका समाज का आमूल परिवर्तन न हो जाए। जब तक इसका आधार बदल नहीं दिया जाता तब तक छोटे-बड़े सबों में ही शोषण की भावना कमोबेश रहेगी ही। अब तक इसका आधार ही है व्यक्तिगत सम्पत्ति। इसलिए शोषणा इसकी नस-नस में समाया है। इस आधार को मिटाके जब सम्मिलित सम्पत्ति को आधार बना दिया जाएगा तभी यह बात मिटेगी। मगर इसमें देर है।

    तब तक शोषण चलता ही रहेगा। जैसे साँप के मुँह में पड़ा मेढक जब तक जिन्दा है, तब तक कीट-पतंगों को, यदि वे पास आ जाएँ, खुद भी खा जाने की कोशिश करता ही है। उसकी यह मजबूरी है। ठीक उसी प्रकार जमींदार, साहूकार के चंगुल में फँसा मजलूम किसान मजबूरन खेत-मजदूरों का थोड़ा शोषण करना चाहेगा ही। खूबी तो यह है कि इस बात का उसे अनुभव भी न होगा कि शोषण कर रहा है। यही तो वर्तमान समाज में प्रविष्ट जहर की खूबी है। खेत-मजदूरों में जो पिछड़ी जातियों के हैं वह भी एक-दूसरे को ऊँच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य मानते ही हैं और इससे उन्हें कोई हिचक भी नहीं होती। क्या वे लोग अपने नाई, धोबी वगैरह को पूरी मजदूरी देते हैं? देना चाहते हैं? हर्गिज नहीं? तो क्या यह बात वे समझते हैं कि शोषण कर रहे हैं? कदापि नहीं । क्यों? इसीलिए न कि उनकी गरीबी, उनकी मजबूरी से ही वे ऐसा करते हैं? मगर समाज की मनोवृत्ति ही ऐसी है कि वे समझ पाते ही नहीं कि वे भी सचमुच शोषण करी रहे हैं। हालाँकि गैरों के द्वारा होने वाले अपने शोषण के विरुद्ध वे खुद चिल्लाते हैं। यही बात दूसरे किसानों की है जो गरीब हैं। जो धनी हैं उनका तो कहना ही नहीं।

    इसीलिए जहाँ एक ओर हमें खेत-मजदूरों को किसानों के संगठन से, किसान सभा से हर्गिज बाहर जाने देना नहीं है और सारी शक्ति से एक ही साथ मिला के रखना है, तहाँ शोषण के इस खतरे से बचने का भी उपाय करना है, ताकि इसके विपरीत मौके-मौके पर वे जबर्दस्त आवाज उठा सकें। किसान सभा के भीतर से ही यह आवाज उठ सकती है। मगर शायद उतनी जबर्दस्त और प्रभावशाली न हो सके, शायद उनके ऐसी होने में अड़चनें आएँ। साथ ही समय की गति के करते इस बात का खतरा है कि उनके स्वतन्त्र संगठन बना के उन्हें किसानों से फोड़ने की कोशिश हो। कुछ लोग तो नासमझी से इस बात को करेंगे, ईमानदारी के साथ ही। मगर ज्यादातर स्वार्थी और स्थिर स्वार्थों के दलाल ही ऐसा कर सकते हैं। वे इस प्रकार इन मजदूरों की जागरण वाली मनोवृत्ति से अनुचित लाभ उठाना चाहेंगे। एक बात और भी होगी। जैसा कि पहले कह चुके हैं जब सरकार जिरात वगैरह जमीनें जमींदारों से ले लेगी, या अब तक बेकार पड़ी जमीनों को खेती योग्य बनाएगी तो चालाक लोग हो -हल्ला करके खुद ले लेंगे या लेने की कोशिश करेंगे। ऐसे मौके पर यदि खेत-मजदूरों की आवाज बुलन्द न हुई और वे मुस्तैदी से न बोले तो घाटे में रह सकते हैं। उन्हें या तो जमीन कतई न मिलेगी या बहुत ही थोड़ी। औरों और खासकर चलते पुर्जे किसानों की आवाज में उनकी आवाज विलीन हो सकती है। अभी तक डट के बोलने की न तो उनकी हिम्मत ही है और न आदत ही। इससे उन्हें घाटा हो सकता है।

    तो क्या उनका अलग ही संगठन किया जाए? यह सवाल उठता है सही। मगर अलग ही संगठन का अर्थ है कि वे किसान संगठन से पृथक् हो जाएँ और यह सरासर गलत रास्ता होगा जैसा कि कह चुके हैं। और अगर कहा जाए कि उनका अलग भी संगठन हो तो यह बात विचारणीय है। क्योंकि किसी संगठन के भीतर रहना और स्वतन्त्र संगठन में रहना कुछ विचित्र बात है। ये दोनों विरोधी बातें हैं। क्योंकि दोनों संगठनों की तनातनी या विरोध होने पर वह किसी एक में ही रह सकता है, जब तक एक-दूसरे के अधीन न हों। मगर अधीन होने पर स्वतन्त्रता कैसी? तब तो यह बात केवल हवाई ही होगी। एक बात और भी है। जो लोग किसान संगठन से बाहर या उसके विरोधी हैं वह तो जुदा संगठन करके झगड़ा लगाना चाहेंगे ही। उसका उपाय क्या होगा? वह तो हमारी मर्जी की बात है नहीं।     यहाँ थोड़ा रुक के हमें इधर-उधर ढूँढ़ना है। जब हम दृष्टि फैलाते हैं तो लेनिन और उसकी पार्टी की कई बातें याद आती हैं। पहली बात तो यह कि उसने और पार्टी ने 'मजदूरों के एकतन्‍त्र शासन' का अर्थ बताया है 'सर्वहारा और अत्यन्त गरीब किसानों के हाथ में शासन सूत्र का आ जाना' जैसा कि पार्टी की छठी कांग्रेस के प्रस्ताव से जो सन् 1917 ई. की जुलाई में हुई थी, स्पष्ट है। खयाल रहे कि अत्यन्त गरीब किसान से मतलब साफ है कि मध्‍यम या धनी किसान नहीं लिये जाएँगे।

    इसी प्रकार पेज आरनाट ने रूसी क्रान्ति के इतिहास में लिखा है कि 'मजदूरों का एकतन्‍त्र शासन अधिक गरीब किसानों के साथ मिल कर ही होता है, बोल्शेविक लोग देहातों में गरीब किसानों का संगठन करते थे।' यहाँ ज्यादा गरीब और गरीब किसानों का उल्लेख है। लेनिन के लेखों में ये तीनों शब्द सहस्रों बार आए हैं। उसने अपने प्रसिद्ध अप्रैल के मन्तव्यों के 5वें और 6ठें मन्तव्यों में रूस में पार्लियामेण्टरी प्रणाली की जगह 'सर्वहारा, खेत-मजदूरों और किसानों की पंचायतों के सम्मिलित गणतन्‍त्र शासन' कह के आगे लिखा है कि 'हमारे खेती सम्बन्धी प्रोग्राम का केन्द्र बिन्दु या प्रधान लक्ष्य होना चाहिए खेत-मजदूरों की पंचायत जिसका तात्पर्य है कि खेत-मजदूरों को प्रधानतया लक्ष्य करके हमारा वह प्रोग्राम बनना चाहिए। मगर उसके बाद ही फिर लिखता है कि सभी जमीनों को समाज के हाथ में करके उसका प्रबन्ध खेत-मजदूरों तथा किसानों की स्थानीय पंचायतों को सौंप देना चाहिए।' फिर इसी के साथ यह भी कहता है कि बड़ी-बड़ी जमींदारियों की जमीनों के आदर्श फार्म सौ से लेकर तीन सौ देसियातिन तक के बनाए जाकर वे खेत-मजदूरों की पंचायत को ही सुपुर्द किए जाएँ। वहीं उसने यह भी कहा है कि गरीब किसानों की पंचायतों (सभाओं) का अपना संगठन करना होगा। खूबी तो यह है कि खेत-मजदूरों की पंचायत का जिक्र किसानों की पंचायत से जुदा करके भी गरीब किसानों के ही संगठन की बात वह कहता है।

    इन बातों के अलावे लेनिनिज्म में स्टालिन ने 313 पृष्ठ में लिखा है 'धनी किसान (कुलक) खामख्वाह खेत-मजदूरों या अर्द्ध-मजदूरों का साफ-साफ शोषण
करते हैं। इसलिए यदि हमने उनके साथ होने वाले संघर्षों को नरम या धीमा किया तो यह अनुचित होगा। हमारा तो फर्ज यह है कि हम गरीबों किसानों को कुलक लोगों के विरुद्ध संगठित करके खुद उस लड़ाई का नेतृत्व करें।' एक बात और भी है। लेनिन ने अपने अप्रैल वाले मन्तव्यों में पहले में यह लिखा है कि जब तक किसानों और मजदूरों के हाथ में शासन की बागडोर नहीं आ जाती तब तक हम साम्राज्यवादी युद्ध में पड़ी नहीं सकते। यह बागडोर आने और दो और शर्तें पूरा होने पर यह लड़ाई क्रान्ति के रक्षार्थ मानी जाएगी और हम उसमें पड़ सकते हैं। लेकिन मजदूरों और किसानों के हाथ में शासनसूत्र देने की बात कहते हुए उसने लिखा है कि किसानों से हमारा मतलब उन गरीब किसानों से है जो करीब-करीब मजदूरों जैसे हैं। इन्हीं को विदेश से लिखे गए पत्रों में उसने भी लिखा है। इन बातों से स्पष्ट है कि लेनिन गरीब किसानों और खेत-मजदूरों की एक ही श्रेणी किसान श्रेणी मानता है।

    इन सब उद्धरणों को एक साथ लिख देने से कई बातें साफ हो जाती हैं। एक तो यह कि धनी और मध्‍य किसानों के सिवाय जो गरीब किसान हैं वह तीन तरह के हैं, (1) गरीब, (2) ज्यादा गरीब, (3) अत्यन्त गरीब। मगर व्यवहार में यह भेद नहीं मानकर गरीब किसानों के ही लिए समय-समय पर तीनों शब्द बोले जाते हैं। इन उद्धरणों को गौर से पढ़ के कोई भी यह कह सकता है। दूसरी यह कि गरीब किसान ही खेत-मजदूर या अर्द्ध खेत-मजदूर हैं। आखिरी उद्धरण में स्तालिन इन मजदूरों का ही शोषण लिखता है। मगर उसे मिटाने का जो रास्ता अन्त में लड़ाई के रूप में बताता है उसके लिए संगठन करना गरीब किसानों का ही बताता है। इससे स्पष्टता और क्या चाहिए? लेनिन के मन्तव्यों से जो उद्धरण दिए गए हैं उनसे भी यही बात स्पष्ट हो जाती है। किसान संगठन से जुदा गरीब किसानों का संगठन करने को पहले पहल उसने अप्रैल सन् 1917 ई. में कहा था। किसान संगठन में तो मध्‍यम और धनी किसान भी आ सकते हैं, खासकर मध्‍यम तो जरूर ही। उस समय के रूस में किसान संगठन में तो धनी भी थे ही। बल्कि उन्हीं की और मध्‍यम किसानों की तूती उस सभा में बोलती थी। इसलिए गरीबों की आवाज वहाँ सुनाई न पड़ती थी। फलत: उनका जुदा संगठन जरूरी था। मगर जहाँ एक ओर गरीबों का संगठन कर्तव्य माना गया है तहाँ यह भी वहीं लिखा है कि खेती या किसान सम्बन्धी प्रोग्राम प्रधानतया खेत-मजदूरों की ही दृष्टि से बनना चाहिए। इससे भी स्पष्ट है कि लेनिन गरीब किसानों और खेत-मजदूरों को एक ही समझता है। क्योंकि यदि दो होते तो खेत-मजदूरों का संगठन न होने पर उनकी दृष्टि से प्रोग्राम क्यों कर बनता? पहले तो एक लम्बा उद्धरण दिया है। उससे भी लेनिन का यही अभिप्राय प्रकट होता है वह वहीं लिख चुके हैं। हाँ, यह सही है कि अकसर खेत-मजदूर कहने से बिना जमीन वाले ही किसान समझे जाते हैं। इसीलिए आदर्श फार्मों को उन्हीं की पंचायतों के हवाले करने की बात लेनिन ने लिखी है। उनके पास खेती के साधन तो होते नहीं। फलत: बड़े जमींदारों की जिरात और बकाश्त छीनकर उन्हीं के साधनों से उसी जमीन में सम्मिलित खेती खेत-मजदूर करें तो ठीक हो यही लेनिन का मतलब था। इससे साम्यवाद का रास्ता साफ हो जाने का था।

    फरवरी की क्रान्ति के बाद लेनिन ने जो पत्र विदेश से अक्तूबर वाली क्रान्ति के पहले उसी की तैयारी की दृष्टि से लिखे थे उनमें भी खेत-मजदूरों के संगठन से जुदा, किसानों के संगठन की बात यद्यपि झलकती है। तथापि यदि गौर से पूरा प्रकरण पढ़ा जाए तो साफ हो जाता है कि वह धनी और मध्‍यम किसानों से गरीब किसानों को जुदा करने के ही लिए उसकी कोशिश है, न कि उन किसानों को खेत-मजदूरों से जुदा करने का उसका खयाल है।

    जब धनी किसानों के शोषण के विरुद्ध खेत-मजदूरों को लड़ना ही है और उसका नेतृत्व हमें जरूर ही करना है तब तो उनका संगठन होई जाएगा। लड़ाई होगी आखिर कैसे? स्तालिन भी तो यही कहता है। इस प्रकार खेत-मजदूरों का संगठन इस लड़ाई के दौरान में ही हो सकता है, होना चाहिए। तभी वह पक्का और यथार्थ होगा। संघर्ष के मध्‍य जो संगठन शोषितों का होता है वही असली होता है। बिना संघर्ष के संगठन करने पर तो उसमें ऊलजलूल लोगों के भर जाने का खतरा रहता है। इसीलिए तो रूस में जो सोवियत बनी वह लड़ाई के ही दौरान में 1905 ई. में। उसके बाद लड़ाई खत्म हो जाने पर वह भी खत्म हुई। फिर 1917 की फरवरी क्रान्ति के समय बनी। अतएव यों उनका जुदा संगठन हम न करेंगे। गरीब किसानों से लड़ने के लिए तो कभी भी न करेंगे यह याद रहे।

    यह ठीक है कि दूसरे लोग यों भी उनका संगठन करेंगे, करते हैं। उन्हें रोकना भी असम्भव है। हमारा यही काम होना चाहिए कि उसमें भी रहके उसे सीमा के बाहर न जाने देकर रास्ते पर चलने दें। ऐसा करें कि वह किसान सभा का विरोधी बनने न पाए। यदि उसमें जाने में ऐसी बाधाएँ हों कि जाने ही न पाएँ तो बाहर से ही उस पर नजर और निगरानी रखना जरूरी है। लेकिन हर हालत में ऐसे संगठनों पर हमारा जोर न होकर सिर्फ उनसे जिन खतरों की सम्भावना है उन्हें बचाना ही हमारा धयेय होना चाहिए। मगर यह बात भी तभी होगी जब हम धनी किसानों के विरुद्ध उनके संघर्षों को मुस्तैदी के साथ संगठित रूप से चलाते रहें। यही असली और आवश्यक काम है। इसी प्रकार उनका निजी संगठन सुन्दर रूप में खड़ा हो जाएगा। इसमें साधारण किसानों को नाक-भौं सिकोड़ने का मौका भी न मिलेगा। बिना संघर्ष के यों ही खेत-मजदूरों की संस्था खड़ी कर देने पर स्वभावत: उनके कान खड़े हो सकते हैं, वे चौंक सकते हैं।

    किसान सभा और खेत-मजदूरों के इस प्रकार के संगठन में परस्पर विरोध भी नहीं हो सकता। क्योंकि जब किसान सभा के नेता ही यह काम करेंगे, सो भी संघर्ष के जरिए ही, तो ऐसा मौका आने ही न देंगे। संघर्ष के करते बनने वाले संगठन में बनावटी और कलह कराने वाले नेताओं की तो गुंजाइश होगी ही नहीं। वे तो इससे दूर ही रहेंगे। फिर मतभेद करावेगा कौन? यह संगठन तो अत्यन्त शोषितों का ही होगा। किसान नेताओं के लिए तो गौरव की बात होगी कि किसान संसार में जो सबसे ज्यादा दुखिया हैं और सबके नीचे दबे हैं उन्हें वे मजबूती के साथ उठाएँ। वही तो असल किसान हैं। फलत: एक तो हमारी नीयत का पता दुनिया को लग जाएगा। दूसरी यही सभा, यही संगठन किसानों की वास्तविक चीज कुछ दिनों बाद हो जाएगी। जो किसान खुद शोषित हैं और जो दूसरों का शोषण खुद करना नहीं चाहते। प्रत्युत जो शोषण और जुल्म को संसार से मिटा देना चाहते हैं वह सभी इस नए संगठन में ही धीरे-धीरे शरीक हो जाएँगे। वर्तमान किसान सभा में जो लोग शोषण को किसी न किसी रूप में कायम करने के लिए शामिल हैं या रहेंगे वह धीरे-धीरे इससे कालान्तर में खिसकेंगे। फलत: दोनों सभाएँ एक ही प्रकार के लोगों की होने के कारण अन्त में एक हो जाएँगी। मगर अभी यह सम्भव नहीं है। अभी परिस्थिति ही कुछ ऐसी है कि यह बात हो नहीं सकती।

    गरीब किसानों के साथ जब कभी इन मजदूरों का झमेला मजदूरी वगैरह को लेकर होगा तो वहाँ भी दोनों संगठन आपस में बातें करके आसानी से मामला तय करा देंगे। मध्‍यम किसानों के साथ भी निपटारा करा देंगे। क्योंकि अभी तो सभी किसान किसान सभा में शरीक हईं। फिर उसके सामने अपनी बातें कह के अन्त में उसका फैसला तो उन्हें मानना ही होगा। जो लोग ऐसा रूस के इतिहास से ही समझते हैं कि खेत-मजदूरों का किसी भी प्रकार का अलग संगठन या उसका श्रीगणेश भी अभी नहीं किया जाना चाहिए, वह परिस्थिति को समझते ही नहीं। रूस के इतिहास से हमें फायदा जरूर है। मगर उसकी सभी बातें अक्षरश: ज्यों की त्यों यहाँ लागू की जा सकती हैं नहीं। 20-25 वर्षों में परिस्थिति बहुत बदल चुकी है। हमें इसी के अनुसार कुछ न कुछ रद्दोबदल करना ही होगा। स्मरण रहे कि यह साम्राज्यवाद का पेचीदा युग है। इसमें यदि हम मौके पर पीछे न हटें, इधर-उधर न घूमें तो मिट जाएँगे। इसे ही लेनिन ने कहा है। हर हालत में हमें तो परिस्थिति का सामना करना ही होगा।

    इस प्रकार हमने जिन-जिन बातें का वर्णन किया है जो पहलू सुझाए हैं और जो रास्ते दिखाए हैं अगर उन सबों पर ठीक-ठीक गौर करके मौके-मौके से उन पर अमल किया जाए, और जरूरत समझ के उनमें थोड़ी-बहुत तरमीम (संशोधान) भी कर लिया जाए तो न सिर्फ खेत-मजदूर की, बल्कि समूचे किसानों की समस्याएँ बखूबी हल हो जाएँगी। हमें कम से कम दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। इस प्रकार हम आसानी से इस बड़े देश की कायापलट का रास्ता साफ कर लेंगे और जब मौका आएगा तो उस कायापलट में पूरा भाग ले सकेंगे। संकुचित या पहले से बने-बनाए खयालों को छोड़ हमें मुस्तैदी और ईमानदारी से आगे बढ़ने की जरूरत है।

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