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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें


 झारखंड के किसान

यह काम किसलिए ?

बिहार प्रान्त को असल में 'बिहार और छोटानागपुर' के नाम से ही पुकारा जाता है। यों कभी-कभी संक्षेप में केवल 'बिहार' भी कह देते हैं। जब उड़ीसा का सम्‍बन्‍ध बिहार से था तब तो 'बिहार और उड़ीसा' अकसर कहा जाता था। मगर उड़ीसा के अलग हो जाने के बाद केवल 'बिहार' के बजाए 'बिहार और छोटानागपुर' कहना ही उचित प्रतीत होता है। यों तो उड़ीसा के मिले रहने पर भी कभी-कभी केवल 'बिहार' ही कहते थे। चाहे जो भी हो, छोटानागपुर का महत्‍व काफी है और जान या अनजान में इसकी याद हमेशा बनी रही है।

    बात असल यह है कि इस प्रान्त के कुल सोलह जिलों में सिर्फ सारन, चम्पारन, दरभंगा, मुजफ्फरपुर और पूर्णिया यही पाँच ऐसे हैं जहाँ पहाड़ नहीं हैं। शेष ग्यारह में तो कमोबेश पहाड़ पाए ही जाते हैं। यह ठीक है कि छोटानागपुर के पाँच जिलोंपलामू, राँची, हजारीबाग, मानभूम और सिंहभूमतथा संथाल परगना, इन छह जिलों की भूमि जिस प्रकार पार्वत्य या पहाड़मयी है वैसी गया, मुंगेर आदि की नहीं है। ये छह तो पहाड़ों और जंगलों से घिरे हैं। मगर गया वगैरह के कुछ ही हिस्से पहाड़ी हैं। फिर भी यह बात सही है कि ये जिले भी अपने भीतर कुछ न कुछ जंगल और पहाड़ रखते ही हैं। पटना जिले में ही सबसे कम पहाड़ और जंगल हैं। इस प्रकार जंगलों की प्रधानता का खयाल करके ही पलामू आदि छह जिलों को बहुत पहले से झारखंड कहते चले आते हैं। बाकी जो ग्यारह जिले बच जाते हैं उनमें या तो जंगल पहाड़ ही नहीं, या बहुत ज्यादा नहीं हैं। यह भी बात है कि उनमें बौद्धकाल में बौद्ध भिक्षुओं के रहने और पढ़ने आदि के लिए जगह-जगह मठ या मकान प्राय: बने रहते थे जिन्हें बौद्ध सम्प्रदाय में विहार कहते हैं। इसीलिए वे ग्यारह जिले विहार कहे जाने लगे। असल में तो इस लम्बे सूबे को दो भागों में बाँटकर जैसे जंगली भाग को झारखंड कहते थे वैसे ही दूसरे भाग को विहार खंड ही कहना उचित था। मगर जाने क्यों केवल 'विहार' ही कहा जाता था।

    इस प्रकार बिहार या विहार खंड और झारखंड के नाम से दो भागों में बँटे इस सूबे में विहार खंड के किसानों की दशा सुधारने की कोशिशें तो इध्‍यानर बहुत हुई हैं। मगर यह बात झारखंड के बारे में नहीं हुई है। बिहार प्रान्तीय किसान सभा ने भी उतना ध्‍यान इस ओर नहीं दिया है जितना विहार खंड की ओर। फलत: और तो और, बाहरी लोगों को यहाँ के किसानों की समस्याओं तथा मुसीबतों की जानकारी तक प्राय: हुई नहीं! थोड़ी बहुत टूटी-फूटी बातें ही लोग जानते हैं। कभी-कभी कोई उथल-पुथल हो जाने पर ही कुछ नई बातें मालूम हो पाती हैं। जिसे पक्की और ब्यौरे की जानकारी कहते हैं वह तो फिर भी नहीं होती। वहाँ के असली निवासी, जिन्हें आदिवासी भी कहते हैं, आमतौर से मूक जैसे हैं। पढ़ने-लिखने की तो बात ही जाने दीजिए। उनकी भाषा ऐसी है कि दूसरे लोग समझी नहीं सकते। उनके रस्मोरिवाज भी निराले ही हैं। वे सीधे भी हद से ज्यादा हैं

    यह प्रान्त तो बड़ा है नहीं। कुल सोलह जिले हैं। जनसंख्या भी प्राय: साढ़े तीन (36340000) करोड़ ही है। मगर जहाँ तक किसानों की बात है, यहाँ तीन तरह के काश्तकारी कानून लागू हैं। बिहार काश्तकारी कानून Bihar Tenancy Actसिर्फ विहार खंड के दस जिलों में ही लागू है। उसका ताल्लुक झारखंड से ही नहीं। झारखंड में भी दो कानून हैं। संथाल परगनाको छोड़ बाकी पाँच जिलों में छोटानागपुर काश्तकारी कानून Chotanagpur Tenancy Act—प्रचलित है और उसी के अनुसार वहाँ काम होता है। मगर संथाल परगनाकी तो बात ही निराली  हलत मुरारेस्तृतीय: पन्था: है। इन दोनों में एक भी वहाँ लागू नहीं है। उस जिले के लिए एक तीसरी ही कानूनी व्यवस्था है जिसे संथाल परगना मैनअल Santhal Pargana Manualकहते हैं। उसी के अनुसार वहाँ का इन्तजाम होता है। यह मैनुअल भी बना है ज्यादातर 1872 और 1886 के नियम कायदो(Regulations) के आधार पर ही। झारखंड की पेचीदगी इसीलिए और भी बढ़ जाती है।

    बदकिस्मती की बात यह भी है कि वहाँ के मूल निवासियों का नेतृत्व दूसरों के ही हाथ में है। ईसाइयों के जाने कितने ही मिशन वहाँ बहुत दिनों से काम करते हैं। उनने ईसाइयत का प्रचार भी वहाँ काफी किया है। अतएव एक तो वही लोग वहाँ के किसानों का नेतृत्व करते आए हैं। उनके सिवाय समय-समय पर सूबे के उत्तारी भाग या विहार खंड से भी पढ़े-लिखे सूदखोर बनिए या व्यापारी लोग वहाँ समय-समय पर बसते गए हैं। वकील, मुख्तार या और तरह के पढ़े-लिखे लोग, या तो वही हैं या बंगाली। अबरक, कोयला, लोहा वगैरह के कारबार और लाह या लकड़ी के रोजगार के सिलसिले में भी सभी तरह के लोग भारत के कोने-कोने से ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों से भी आके वहाँ बस गए हैं। इसलिए स्वभावत: ऐसे लोग उन गरीबों के अगुवा बनने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस जैसी प्रभावशाली संस्था के जितने प्रमुख नेता झारखंड में हैं वे सभी बाहर वाले ही हैं।

    आदिवासी आन्दोलन के रूप में आज एक संस्था वहाँ खड़ी हो गई है सही और उसका नेतृत्व भी आदिवासियों के हाथ में ही बताया जाता है। कई ऐसे लोग भी हैं जो आदिवासी ही हैं और किसान सभा के नाम पर उनने एक संस्था भी बना ली है। मगर उनका नेतृत्व निहायत लचर और अवसरवादी है। वे किसानों को उठाना नहीं चाहते। किन्तु अपना काम निकालना चाहते हैं। आदिवासी आन्दोलन की कमी यह है कि शुद्ध मध्‍यमवर्गीय ढंग से ही चालू हो रहा है। यदि वह किसानों के वर्ग स्वार्थों के ही आधार पर चालू होता तो उसमें अपार शक्ति आ जाती और वह सचमुच झारखंडवासियों का निस्तार ही कर देता।

    यही कारण है कि असलियत का पता नहीं लग पाता और घपले बढ़ गए हैं। मैं शुद्ध किसान हित के खयाल से ही वहाँ की स्थिति पर प्रकाश डालना चाहता हूँ ताकि उस अन्‍धेरीगुफा की झाँकी हमें मिले। हमें और हमारे कार्यकर्ताओं को सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वहाँ के निवासियों के अभाव-अभियोगों को जानते ही नहीं। वहाँ के काश्तकारी कानून की खास बात क्या है और उसमें क्या कमी है यह बात हमें मालूम नहीं। फिर उसके सुधार का आन्दोलन भी किया जाए तो कैसे? बाहरी लोगों की दृष्टि से वहाँ के काश्तकारी कानून में पेचीदगियाँ हैं। कांग्रेसी मंत्रिायों के समय वहाँ का कानून भी बहुत कुछ सुधारा गया ठीक बिहार के काश्तकारी कानून के ही ढंग पर। मगर कितने मेम्बरों ने असेम्बली में उसे समझा भ, यह एक सवाल है। सिर्फ रस्मअदाई के खयाल से या दो-चार लोगों के कहने से ही जो कानून बने उससे हम लोगों का फायदा कहाँ तक कर सकते हैं? बिहार के कितने कांग्रेसी नेता हैं जो उन कानूनों को समझते हैं

    जब तक हम वहाँ की असली परिस्थिति न जानें, लोगों की सबसे चुभने वाली माँगों की हमें पूरी जानकारी न हो, सरकारी महकमे वहाँ कैसे काम करते हैं, कचहरियाँ कहाँ तक किस तरह उन गरीबों के साथ मौजूदा कानून के अनुसार भी न्याय कर पाती हैं, इत्यादि बातें हम न समझें उनके लिए कुछ भी कर सकते हैं क्या और कैसे? आदिवासियों की भाषा न तो हाकिम समझते और न दूसरे ही लोग। बाहरी वकील, मुख्तार भी सिर्फ कामचलाऊ बातें ही जानते हैं। नतीजा यह होता है कि वे बेचारे बहुत बार नाहक लद जाते हैं। अंग्रेजी कानूनों की पेचीदगियाँ वे क्या जानने गए? यदि जानते तो बचाव का रास्ता भी निकालते। इधर तो उन्हें पता ही नहीं है उधर सख्त से सख्त सजाएँ उन पर लद जाती हैं। जेल में रहके उनसे बातें करने और उनके साथ बार-बार हिलने-मिलने पर पता चलता है कि वे किस बला में फँस गए हैं। अपने पक्ष का सबूत उनके पास मौजूद है सही। फिर भी ठीक समय पर या कायदे के मुताबिक वे हाकिम के सामने पेश न कर सके और लद गए! मगर वे इन कायदे-कानूनों को जानने क्या गए? उन्हें किसने ये बातें सिखाने की कोशिश कीं? कानून बनते हैं अंग्रेजी में और आदि जनता की तो बात ही नहीं, उनके जो खास सदस्य असेम्बली में चुने गए हैं उनमें शायद ही एकाधा अंग्रेजी जानते हैं। बाकियों की तो हालत ज्यादातर 'लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर' जैसी ही है। थोड़ी-बहुत हिन्दी जानने से भी काम तो नहीं चलता।

    ऐसी दशा में आगे जो कुछ लिखा जाएगा वह सबों की जानकारी के ही लिए। किसी दल या पार्टी या सम्प्रदाय के खंडन-मंडन से हमारा मतलब नहीं है। हमें तो अपना काम करना है। यदि हम झारखंड की जनता की और खासकर वहाँ के किसानों की कुछ भी सच्ची सेवा करना चाहते हैं तो सबसे पहले उस क्षेत्र की, उस अन्‍धेरी गफा no man's land की झाँकी लगाना और परिस्थिति समझ लेना जरूरी है। नहीं तो भटक जाने की पूरी सम्भावना है। वैसी हालत में केवल दो-चार ऊपरी बातों से ही हम सन्तोष कर के तह में घुसने की कोशिश करी नहीं सकते हैं। कहा नहीं जा सकता कि हमें इसमें सफलता कहाँ तक मिलेगी।

 

सेण्ट्रल जेल, हजारीबाग   स्वामी सहजानन्द सरस्वती

नवम्बर दिवस, शुक्रवार 7.11.41

 

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 (1) झारखंड की भूमि

 

24.11.41A बिहार और छोटानागपुर सूबे का दक्षिणी हिस्सा ही झारखंड कहा जाता है। यह पुराना नाम है। संस्कृत में वनखंड या वनषंड शब्द जंगली या पहाड़ी भूभाग के लिए बार-बार पुरानी पोथियों में आया है। आज भी चलती भाषा में झाड़ शब्द पेड़ों के ही मानी में आता है। 'झार' और 'झाड़' इन दोनों में कोई फर्क नहीं है। 'झाड़' की ही जगह पहले 'झार' बोलते थे। इस प्रकार संथाल परगना और छोटानागपुर के पाँच जिले इस प्रान्त के जंगल प्रधान भूभाग को लेकर ही बने हैं। शाहाबाद के सहसराम  सब-डिविजन के कुछ हिस्से, गया का अधिाकांश दक्षिणी हिस्सा, मुंगेर और भागलपुर के भी दक्षिणी भाग का बहुत कुछ अंश इसी झारखंड से मिलकर इसे और भी विस्तृत बनाता है। इसी झारखंड के सिंहभूम जिले के पश्चिमी हिस्से से एक ओर उत्कल के गांगपुर स्टेट का मेल हो जाता है और दूसरी ओर दक्षिणी भाग में उत्कल या उड़ीसा के सूबे के मयूरभंज, बोनाई, क्योंझर रियासतों का। पलामू के साथ युक्तप्रान्त के मिर्जापुर का भी गंठजोड़ा है। और सरगुजा स्टेट का। राँची के साथ सरगुजा, जशपुर और गांगपुर राज्यों का सम्बद्ध हो जाता है। सिंहभूम तथा मानभूम के पूर्वी हिस्से बंगाल से जुट जाते हैं। संथाल परगना तो दक्षिण और पूर्व में बंगाल से जुटा हुआ ही। खूबी तो यह है कि बंगाल, उत्कल, मध्‍यानप्रान्त या युक्तप्रान्त के जिन हिस्सों से इस झारखंड का सम्‍बन्‍ध् जुटा है वे सभी इसी तरह पर्वत तथा जंगल मय हैं। फलत: चारों ओर अपने जैसे ही भूभागों से घिरे होने के कारण यह झारखंड अत्यन्त विस्तृत हो जाने के साथ ही दुष्प्रवेश और अगमno man's landबन जाता है।

    यही कारण है कि यहाँ के निवासियों की अपनी निराली दुनिया मानी जाती थी। जैसे अथाह समुद्र के भीतर के जीव-जंतु अपने आपको सुरक्षित समझते हैं वैसे ही ये लोग अपने को कम सुरक्षित नहीं मानते थे। इनने ठेठ प्रकृति माता की गोद में ही बसेरा समुद्री मच्छ-कच्छपों की तरह लिया था। इन भयंकर काँटों-कुशों से घिरे, निबिड़ और दुष्प्रवेश प्रदेश में उन्हें सताने के लिए जाने की हिम्मत किसे होती? अगर काँटे-कुशों की परवाह कोई न भी करता तो भी भयानक सिंह-व्याघ्रों और भालू-भेड़ियों की याद से तो दुश्मनों के देवता ही कूच कर जाते। प्रकृति माता ने अपने इन पुत्रों की रक्षा के लिए अपने हाथों बनाए इस गढ़ के भीषण सन्तरी के रूप में इन खूँखार जानवरों को काफी तादाद में चारों ओर रख छोड़ा था, ताकि उसमें घुसने की हिम्मत करनेवालों से दूर से ही ये चिंघाड़ मार के कह दें, डाँट दें कि खबरदार कौन आ रहा हैwho comes there ? इसीलिए तो दिन-रात इनका पहरा पड़ता रहता है।

    मगर क्या इतने पर भी इनकी जान बच सकी है? क्या इस अभेद्य दुर्ग के भीतर भी शत्रु लोग घुस नहीं आए? उनने इनकी लूटपाट क्या खूब ही नहीं की? क्या अब भी नहीं कर रहे हैं? इसी का कुछ-कुछ पता तो आगे मिलेगा। इस वर्णन में और तो कुछ है नहीं सिवाय इस लूट के संक्षिप्त वर्णन के। जैसे अथाह और अतल सागर के गर्भ में क्रीड़ा करने वाले जीव-जंतुओं को फँसाने के लिए मनुष्य के दिमाग ने महाजाल तैयार किया है; जिस प्रकार गहरे पानी के बीच रहने वाली मछलियों को फँसाने के लिए बंशी तैयार की गई है, ठीक उसी प्रकार इन झारखंडवासियों को फँसाने और इनका रक्त-माँस वगैरह सभी कुछ चाट जाने के लिए सैकड़ों उपाय चतुर खिलाड़ियों और काइयाँ यारों ने ढूँढ़ निकाले हैं। ऐसे-ऐसे जाल बिछाए गए हैं कि यदि एक से बचे तो दूसरे, नहीं तो तीसरे, चौथे में तो खामख्वाह फँसेगे ही। ज्यादातर तो ऐसा होता है कि एके बाद दीगरे कई जालों में ये बेचारे सीधो-सादे लोग फँसके छट्ट-पट्ट करते और तिलमिला के मरते रहते हैं। खूबी तो यह है कि जितना ही दक्षिण बढ़ते जाइए उतना ही शोषण ज्यादा मिलेगा, हालाँकि उसी तरफ अपार धानराशि है कोयला है, अबरक है, लोहा है और क्या-क्या नहीं है।

    ऐसा क्यों होता है यह जानने के पूर्व इस झारखंड के दक्षिणी या यों कहिए कि दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों की रचना पर थोड़ा ध्‍यान देना जरूरी है। इसके लिए नक्शे को देखना होगा। उड़ीसा की रियासतों का जिक्र तो पहले किया ही है। उन रियासतों ने समूचा दक्षिणी हिस्सा तो घेरी लिया है। वह पश्चिमी हिस्से का भी अधिाकांश घेरे पड़ी है और मध्‍यप्रान्त के सरगुजा ने भी कुछ पश्चिमी हिस्से को छेंक लिया है। उत्कल की सरायकेला, करायकेला और खरसवाँ इन तीनों रियासतों की तो यहाँ तक हालत है कि सिंहभूम के पेट में घुस गई हैं। या यों कहिए कि इस जिले को ही काट के ये तीनों बनी हैं। सिंहभूम जिले के पूर्वी सब-डिविजन दलभूम (धाल या ढलभूम भी कहते हैं) को पश्चिम के सदर या चाईबासा सब-डिविजन के बीच में ही सरायकेला है और उसी से मिली उससे छोटी रियासत खरसवाँ है जो उससे पश्चिम है। इस प्रकार जिले को दो हिस्सों में बेलाग बाँट देने (क्योंकि सिंहभूम में तो दोई सब-डिविजन हैं) के बाद भी सन्तोष नहीं हुआ और चाईबासा के उत्तारी हिस्से को काट के एक नन्ही सी रियासत करायकेला नाम की उसकी छाती पर बिठा दी गई है।

    इसके बाद दलभूम के दक्षिण पूर्व से बंगाल की सीमा शुरू होती है। जिसका पहला जिला मिदनापुर उसके दक्षिण-पूर्व और पूर्व में है। मानभूम के पूर्व में बांकुड़ा और बर्दवान का कुछ हिस्सा है। संथाल परगनाके पूर्व-दक्षिण् कुछ हिस्से में बर्दवान और उसके पूर्व वीरभूम, मुशदिाबाद और मालदा का कुछ भाग पड़ता है। इस प्रकार समस्त छोटानागपुर का पूर्वी हिस्सा बंगाल के अनेक जिलों से घिरा है। यही कारण है कि छोटानागपुर (झारखंड के पूर्वी) जिले या उनके पूर्वी हिस्से बंगालियों की भूमि जैसे बन गए हैं और उनमें या तो सीधो बंगाली लोग या बंगलाभाषी दूसरे लोग बसते हैं ये हिस्से बिहार की अपेक्षा बंगाल से ज्यादा मिलते और उसी के भाग मालूम पड़ते हैं। वहाँ जो आदिवासी लोग हैं उनकी भाषा भी खिचड़ी-सी हो गई है और उनकी अपनी तथा बंगला भाषा की खिदमत मिदमत के करते अजीब-सी मालूम पड़ती है। उसे अकसर खोरठा बोली भी कहा करते हैं।

    अब जहाँ तक सरगुजा या उत्कल की रियासतों का ताल्लुक है, उनमें तो निरंकुश शासन टाँगें तोड़ के बैठ गया है। उनके लिए तो बीसवीं सदी मालूम होता है, आई ही नहीं है। मध्‍यानयुग के अन्धाकाराच्छन्न समय से ही वे रियासतें गुजरती हैं जहाँ तक जनता के अधिकारों और लोकशासन का ताल्लुक है। उनके राजे खुद तो मोटर, रेडियो वगैरह सभी अपटुडेट चीजें रखते हैं। मगर जनता को पशु की जिन्दगी बिताने पर ही विवश करते हैं। उत्कल राज्य-परिषद के मंत्री श्री शार्र्धार दास ने जो जाँच कमिटी की रिपोर्ट छपवाई है उसे पढ़के तो पता लगता है कि वहाँ दूसरी ही दुनिया है। जहाँ विवाह-शादी, सभा-सोसाइटी, पंचायत और मृतक जलाने तक पर भी कर लगते हों या सरकारी आज्ञा की जरूरत हो और जहाँ पान वगैरह की बिक्री पर टैक्स लगे हों उन राज्यों की जनता का तो खुदा हाफिज। तीन-चार साल पूर्व उत्कल की कई रियासतों में जो गोली कांड हुआ था और सिंहभूम के पड़ोसी राज्य गांगपुर में ऐसी ही घटना हुई थी उसका चित्र तो हमारी ऑंखों के सामने ताजा ही है। और जब वही रियासतें न सिर्फ झारखंड को बहुत दूर तक घेरे हुए हैं, बल्कि उसके पेट तक में घुस गई हैं तब यहाँ के लोगों की दशा यदि अत्यन्त पिछड़ी न हो और इनका यदि कोई सच्चा पुर्साहाल न हो तो इसमें आश्चर्य होई क्या सकता है? पड़ोसी का असर तो होना ही चाहिए।

    बंगाल से घिरे होने के कारण भी इनकी अजीब दशा इसलिए है कि यहाँ रोज खींच-तान बनी रहती है कि यह बंगाल में रहे या बिहार में। जमशेदपुरए राँची, पुरूलिया आदि शहरों में तो इसकी धूम बराबर ही रहती है। बदकिस्मती से बिहार में बंगाली-बिहारी झमेला उठ खड़ा हुआ है। उसका सबसे बुरा नतीजा इस झारखंड को ही भोगना पड़ता है। यह साझे का खेत जो ठहरा। बिहार के बाकी जिले तो ऐसे हैं नहीं। मगर यहाँ कुछ ऐसी बात है कि कई लोग इन पर दावेदार हैं। नतीजा यह है कि प्रगति का असली काम हो पाता नहीं। साझे की जमीन तो हमेशा परती ही रहा करती है। उसमें उपज कोई हो कैसे? इधार एक तीसरे दावेदार हो गए हैं आदिवासी आन्दोलन वाले मध्‍यमवर्गीय लोग। जिस प्रकार बंगाली बिहारी समस्या मध्‍यमवर्गीय बाबुओं और पढ़े-लिखों की है, ठीक वैसी ही यह भी है। इनने देखा कि हमीं क्यों चूकें जबकि हमारे दो प्रतिद्वन्द्वी आपस में लड़ते हैं तो हम उससे फायदा क्यों न उठा लें। क्योंकि 'जबकि दो मूजियों में हो खटपट। अपने बचने की फिक्र कर झटपट।' इस तरह इस तेहरी लड़ाईtriangular fightके बीच यह झारखंड पिस रहा है।

           25.11.41A झारखंड के संथाल परगना जिले की तो यह हालत है कि वह प्राय: सब ओर से सभ्य कहे जाने वाले लोगों से घिरा है। बंगाल के जिलों के सिवाय बिहार के भागलपुर और मुंगेर ने दूसरी ओर से घेर लिया है। यह ठीक है कि जो भाग भागलपुर और मुंगेर का संथाल परगना या हजारीबाग से मिलता है उसमें बहुत कुछ आदिवासी भी रहते हैं। मगर वे एक तो दूसरों से मिले-जुले हैं। दूसरे सभ्य लोग नजदीक ही तो हैं जो आसानी से सर्वत्रा घुस जाते हैं। यही बात बाकी हिस्से की है जो गया, पटना और शाहाबाद आदि जिलों से सटे हुए हैं। उनसे मिला हुआ इन जिलों का हिस्सा पहाड़ी और जंगली जरूर है और उसमें कुछ असभ्य या अर्धअसभ्य कहे जाने वाले लोग बसते हैं। मगर सभ्य बाबू लोग भी वहाँ तथा नजदीक में ही पड़े होने के कारण भीतर घुस गए हैं, घुसते जाते और इन भोले-भाले लोगों को हर तरह लूटते हैं। इस प्रकार चारों ओर से उनकी जमीनें और कमाई लुट रही है और वे तबाह हो रहे हैं। इस बात की ज्यादा जानकारी आगे होगी कि लूट के तरीके कौन-कौन से हैं।

    मगर इतना तो साफ है कि इन झारखंडवासियों के साथ दूसरे शोषक लोग महाजन, सूदखोर आदि के रूप में मिल के इन्हें तबाह करते आ रहे हैं। यदि इस तरह के सभ्य कहे जाने वाले इलाकों से इनका सम्‍बन्‍ध् ‍नहीं होता, तो यह दुर्दशा तो हर्गिज नहीं होती, और अगर होती भी तो थोड़ी-थोड़ी, सो भी बहुत धीरे-धीरे। यह विस्तार और तेजी उस तबाही की हर्गिज नहीं होती। पहले तो संथाल परगनाके बारे में ही ऐसा खयाल किया जाता था कि सभ्य लोग उसके भीतर घुस के वहाँ के मूल निवासियों को तबाह करते हैं। सरकार का तो कम से कम ऐसा ही कहना है। इसीलिए उस जिले के लिए खासतौर की शासन व्यवस्था बनाई गई बताई जाती है। हो सकता है, हिन्दुओं का एक प्रधान तीर्थ स्थान होने के कारण यह बात वहाँ पहले ज्यादा रही हो और भक्ति के बहाने भगवान को ठगने वाले वहाँ ज्यादा संख्या में पहुँच के इन भोले-भाले लोगों को भी बहुत पहले ठगने लगे हों। मगर अब तो यह बात कमोबेश सभी जिलों में एक ही तरह की पाई जाती है। सर्वत्रा जमीनों पर दूसरे लोग काबिज हो गए और होते जा रहे हैं धाड़ाधाड़। इसलिए कांग्रेसी मंत्रिायों के जमाने की जाँच कमिटी की रिपोर्ट के चौथे पृष्ठ में जो बात इस सम्‍बन्‍ध्  में कही गई है वह सर्वत्र लागू है। वहाँ लिखा है कि, 'The system was designed and created to meet the needs of an area which contains a large proportion of somewhat primitive aboriginals and semi-aboriginals intermingled in varying proportions with a more advanced population.  The problems arising out of this mixture of population are intensified by the fact that, unlike the other large aboriginal tracts in the province, the district is almost surrounded by areas inhabited by more advanced people and suffering from an excessive pressure of population on the soil.  This has throughout the last century produced a steady tendency for the surrounding population to encroach upon the land of the aboriginals and to exploit that population.*

    'खास ढंग जो की शासन प्रणाली यहाँ बनाई गई वह इस इलाके की जरूरतों को पूरा करने के ही लिए बनी। क्योंकि यहाँ एक खासी तादाद मूल आदिवासियों तथा अर्ध-आदिवासियों की है जिसके साथ कहीं कम, कहीं ज्यादा इस तरह प्रगतिशील लोग मिले हुए हैं। इस तरह की खिचड़ी जनसंख्या को लेकर जो समस्याएँ खड़ी हुई हैं वह और भी पेचीदा इसलिए हो गई हैं कि इस प्रान्त के और आदिवासियों के निवास स्थान स्वरूप बड़े हिस्सों के विपरीत यह जिला प्राय: चारों ओर ऐसे इलाकों से घिरा है जहाँ ज्यादा प्रगतिशील और सभ्य लोग बसते हैं और उनकी आबादी घनी होने के कारण जमीन जोतने पर ज्यादा जोर देते हैं। इसी का फल है कि गत समूची शताब्दी में इर्द-गिर्द के लोगों ने यहाँ के आदिवासियों की जमीनों को दबाया है और इनका शोषण करने पर वे ज्यादा झुके हैं।'

    यह कहना कि यह बात केवल संथाल परगनाके लिए है, बेबुनियाद है। हजारीबाग या मानभूम की जनसंख्या का विश्लेषण करने से पता लग जाता है कि वहाँ भी बहुसंख्य ऐसे लोग पाए जाते हैं जो आदिवासी नहीं हैं और किसी न किसी रूप में वहाँ के मूल निवासियों के शोषक के रूप में ही वहाँ जा बसे हैं। आज भी उनका शोषण अविच्छिन्न रूप से जारी है। अधिाकांश जमीनें उनने हथिया ली हैं। पारसनाथ पहाड़ और उसके पास की जमीनों तथा जंगल-झाड़ियों की कहानी यदि आज सुनाई जाए तो सहृदय लोगों के खून के ऑंसू बह निकलें। जैसे वैद्यनाथ धाम हिन्दुओं का तीर्थस्थान है वैसे ही वह जैनियों का। मगर जीव हिंसा से भागने वाले तथा जीव दया के बडे हामी कहे जाने वाले जैनी मालदारों ने वहाँ के संथालों तथा दूसरे निवासियों को जितना सताया है, आज भी वे उन्हें जितना सता रहे हैं वह वर्णनातीत है। उनने पहाड़ और पास के जंगल, झरने खरीद लिए हैं और सर्वे में सब पर अपना पूरा कब्जा लिखवा लिया है। भोले-भाले गरीब लोग सर्वे क्या जानने गए? मगर उसी के बल पर कानून की छत्रछाया में संथाल लोग पानी, घास, पात, लकड़ी, जलावन, फल, फूल आदि वहाँ के सभी पदार्थों से बुरी तरह वंचित कर दिए गए हैं। उनकी दुर्दशा ऐसी है कि उनकी खबर लेने वाला कोई दीखता नहीं। यहाँ तक कांग्रेसी मंत्रिामंडल के जमाने में भी उनकी सुनवाई नहीं हो सकी! ऐसे बहुतेरे दृष्टान्त हैं। इसलिए अब संथाल परगना को छोटानागपुर के और जिलों से इस मामले में जुदा बताया जा सकता है नहीं। ऐसा कहना सरासर गलत है। टाटा  की लूट तो आगे बताएँगे।

    एक बात जरूर हुई है कि बंगाली-बिहारी झमेले के चलते और बिहारखंड तथा झारखंड की सीमा पर सर्वत्रा पहाड़ी इलाके दूर तक फैले रहने के कारण बिहार से भी आदिवासियों तथा झारखंड के किसानों एवं जनता की जागृति का काम ठीक-ठीक हो नहीं सका है। जब हम खुद गया, पटना, मुंगेर, भागलपुर आदि के दक्षिणी पहाड़ी हिस्सों में ही पूरा काम नहीं कर पाते जिससे और भागों की अपेक्षा वे पिछड़े हुए हैं तो और आगे बढ़ के झारखंडवासियों में जन-जागरण कैसे कर सकते हैं? मेरा तो निजी अनुभव है कि इन दक्षिणी भागों में ज्यादा जा नहीं सका हूँ। कुछ स्थान तो ऐसे हैं जहाँ एक बार भी जाना हो नहीं सका है, हालाँकि ऐसे स्थान इने-गिने ही हैं। इनके दक्षिण जाके आदिवासियों में विशेष काम मैं खुद नहीं कर सका हूँ। जोकि मेरे दौरे प्राय: सर्वत्र हुए हैं। मगर वे तो बहुत ही नाकाफी हैं। उनसे काम करने का रास्ता ही तैयार हो सका है, न कि ज्यादा कुछ। खैर, यह तो एक बात है।

    झारखंड की भूमि, जैसा कि कही चुके हैं, जंगल और पर्वत की ही भूमि है। पलामू के कुछ हिस्सों में और हजारीबाग, मानभूम के भी कुछ भाग में समतल जमीन मिलती है। समतल के मानी सिर्फ इतना ही कि पहाड़ों की श्रेणियाँ नहीं मिलती हैं। सिर्फ कहीं-कहीं पहाड़ियाँ खड़ी मिलती हैं। संथाल परगनाकी भी कुछ ऐसी बात है। फिर भी बिहार की तरह उपजाऊ और समतल भूमि कहीं भी क्यों मिलने लगी? नदी-नाले तो सर्वत्र मिलते ही हैं जो न सिर्फ जमीन को ऊबड़-खाबड़ बना देते हैं, बल्कि उसे धोधा के साथ और प्राय: निर्जीव कर देते हैं। इसीलिए जमीन में पैदावार बहुत ही कम होती है। पलामू की तो यह दशा है कि जमीन बहुत ही रद्दी है। पहाड़ों के बीच की ही जमीनें कुछ अच्छी और पैदावार हैं। पहाड़ी इलाके तो पैदावार के लिहाज से बहुत ही चौपट हैं। फिर चाहे वह झारखंड में हैं, या दूसरी जगह। जिस प्रकार चीन की जमीनें धान की उपज के लिए बहुत ही अच्छी मानी जाती हैं वह बात यहाँ नहीं है। इसलिए यहाँ के किसान बहुत ही गरीब और भूखे हैं।

    हजारीबाग और राँची जिले के कुछ हिस्से काफी ऊँचे और ठंडे भी हैं। इसीलिए गवर्नर वगैरह गरमियों में राँची में रहने और नेतरहाट भी चले जाते हैं। नेतरहाट तो पलामू के महुवाडांड थाने के सिवाने पर ही है। इसीलिए पलामू का वह हिस्सा भी ठंडा है। बिहार की अपेक्षा छोटानागपुर तो ठंडा ही। क्योंकि यह समस्त भूखंड कछुवे पीठ की तरह ऊँचा है। इसी ठंडक और यहाँ की पिछड़ी दशा ने शोषकों को मौका दिया कि वे इसके भीतर हजार बहानेबाजी से घुस के मूक जनता का वस्त्रामोच करें और उन्हें जिबह करें।

    लेकिन यह भूमि देखने के लिए ऊपर से जितनी ही रूखी, नीरस और रद्दी प्रतीत होती है, भीतर से उतनी ही सरस, बहुमूल्य, सरस तथा वांछनीय है। यहीं कोयले का अपार भंडार है। जिसके बिना आज के कल-कारखाने, हमारी रेलें और सारा का सारा शासन यंत्रा ही रुक जाए। इस कोयले को काला सोना (Black Gold) कहते हैं और यह अक्षरश: सही है। इस दुनिया का तो सारा कारबार ही आज बन्द हो जाए यदि यह अमूल्य पदार्थ न हो। वर्तमान पूँजीवाद की नींव इसी कोयले, पेट्रोल, लोहे और रबर आदि से ही बनी है। अबरक भी उनमें एक है। इसीलिए इस दृष्टि से इस भूभाग को अमूल्य कह सकते हैं। यह सारे सूबे का प्राण है यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं है। संथाल परगना, मानभूम, हजारीबाग और राँची के कुछ भाग में यह बहुतायत से पाया जाता है। कतरास, झरिया की कोयले की खानें तो संसार में प्रसिद्ध हैं।

    लोहा भी यहाँ काफी है। टाटा का जो जमशेदपुर में बड़ा भारी लोहे का कारखाना है और उसी के साथ जो और भी दर्जनों कारखाने हैं वह आखिर इस झारखंड में ही तो हैं। सिंहभूम जिले के दलभूम सब-डिविजन का ही हेडक्वार्टर जमशेदपुर है। वहाँ लोहे के सिवाय दूसरी चीजें भी तैयार होती हैं। ताँबा और पीतल ये दो चीजें भी उसी सब-डिविजन के जमशेदपुर और घाटशिला के इलाके में तैयार होती हैं।लोहे का यह कारबार तो भारत में सबसे बड़ा है। ऐसा कारखाना और कहीं नहीं है।

    अबरक भी यहाँ बहुत है। ज्यादातर हजारीबाग जिले के उत्तारी हिस्से में इसकी खानें जगह-जगह पाई जाती हैं। वह सारी की सारी भूमि अबरक को ही अपने गर्भ में रखे पड़ी है। कोडरमा अबरक का बड़ा सेण्टर माना जाता है। यहाँ से वह देश-विदेश भेजा जाता है। असल में हजारीबाग का गिरिडीह सब-डिविजन इस अबरक के लिए काफी प्रसिद्ध है। उसकी जमीन के भीतर यह अमूल्य पदार्थ बहुतायत से पाया जाता है। उस इलाके में हमने कदम-कदम पर इसकी खानें और कारखाने देखे हैं। अमेरिका आदि देशों के लोगों ने भी यहाँ खानें ले रखी हैं। गिरिडीह में तो कोयले की भी बड़ी भारी खान है।

    यह तो हुई जमीन के भीतर की बात। मगर जमीन के ऊपर जो साखू वगैरह की लकड़ियों की अपार राशि है वह कम मूल्य की चीज नहीं है। सभी तरह के जंगल यहाँ हैं और तरह-तरह के काष्ठएँ उनमें पाए जाते हैं। आजकल बाँस से कागज बनता है और उन बाँसों की बहुतायत यहीं पर है। पत्थरों का तो पूछिए मत। तरह-तरह के पत्थर यहाँ भरे पड़े हैं। जिस लाख (लाह) की बड़ी कीमत है वह भी तो यहीं पैदा होती है। पलास, कुसुम और बेर इन तीन वृक्षों पर ही खासतौर से यह चीज पैदा होती है और ये वृक्ष मानभूम, पलामू, राँची, संथाल परगना आदि सभी जिलों में बहुतायत से पाए जाते हैं। यहाँ लाह की यह उपज काफी है। इसके चलते किसानों की कम परेशानी नहीं होती। जमींदार लोग लाह के पेड़ों पर जबर्दस्ती अपना कब्जा किए बैठे हैं। खेत है किसान का। मगर उसी खेत में जो पलास है और जिस पर लाह के कीड़े लगते हैं वह जमींदार का माना जाता है! सिर्फ जबानी ही यह हिसाब नहीं है। सर्वे खतियान में भी दर्ज है! यह बात अक्ल में तो आने की नहीं। मगर कागज में तो आई गई है। फलत: हाकिमों के दिमाग में भी आसानी से आ जाती है। इस कागज के मुकाबले में सोचने की कोई कीमत वे नहीं करते और ऑंख मूँद के फैसला देते हैं! फिर तो किसान की खुदा ही खैर करे! उसे पूछता कौन है?

           26.11.41A इस तरह हमने देखा कि झारखंड की भूमि तो सोना पैदा करती है, अपार सम्पत्ति देती है। इसका अबरक, इसका कोयला, इसका लोहा, इसकी लाह इसकी बहुमूल्य लकड़ियाँ और इसके रंग-बिरंगे पत्थरों के चलते देश-विदेश के लोग करोड़पति बन बैठे हैं, बनते चले जा रहे हैं। तमाम खानें दूसरों के हाथों में हैं। बम्बई से टाटा ने असंख्य धन कमाया है, लूटा है। मगर पाँव तले अंधेरा है। खुद इसी इलाके के लोग दरिद्र के दरिद्र हैं। कहते हैं कि महादेव झारखंडी कहलाते हैं, झाड़ों और जंगलों में रहते जो हैं। वे स्वयं तो दरिद्र हैं। मगर सेवकों को कुबेर बनाते हैं। ठीक यही बात इन झारखंडियों की है। खुद दरिद्र हैं। मगर गैरों को मालामाल बना दिया है।

 

(2)जनसंख्या, भाषा आदि

 

इस झारखंड का विस्तार करीब उतना ही है जितना बिहार खंड का। कोई भी नक्शा देख के ही यह बात बता दे सकता है। समूचे बिहार छोटानागपुर का क्षेत्रफल है 70181 वर्गमील, जिसमें बिहार खंड का है 37560 वर्गमील और झारखंड का 32621 वर्गमील। दोनों के विस्तार या क्षेत्रफल में पाँच हजार वर्गमील का भी तो अन्तर है नहीं। इसीलिए हमें यह कहने में क्यों संकोच हो कि दोनों का विस्तार प्राय: समान ही है। जाने क्यों संथाल परगना की जाँच कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कैसे लिख दिया है कि आदिवासियों का इलाका समूचे सूबे के एक-तिहाई से ज्यादा है। ऐसा कहने में तो भारी अन्याय हो जाता है जबकि दोनों ही इलाके करीब-करीब बराबर हैं।

    जनसंख्या की हालत यह है कि जहाँ समूचे सूबे के लोगों की तादाद 1931 में 32371000 थी, हाँ 1941 में बढ़कर 36340000 हो गई है। इसमें झारखंड की संख्या बहुत ही कम है। दोनों का विस्तार बराबर देख के खयाल हो सकता है कि जनसंख्या भी कमोबेश वैसी ही होगी। मगर यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। संथाल परगना को मिलाकर इन कुल छह जिलों की जनसंख्या सिर्फ 9750000 यानी पूरी एक करोड़ भी नहीं है। ढाई लाख की उसमें भी कमी रह जाती है। इसका सीधा मतलब यही है कि सारे सूबे की जनसंख्या की एक-चौथाई से कुछ ही ज्यादा तादाद  यहाँ के कुल लोगों की है। इसी में आदिवासी और दूसरे सभी शामिल हैं! इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ का जीवन कष्टमय होने के कारण ही ज्यादा लोग यहाँ रह नहीं सके हैं। जहाँ की जमीन पैदावार हो वहाँ खामख्वाह जनसंख्या ज्यादा होती ही है।

    बिहार प्रान्त के चार ही जिले ऐसे माने जाते हैं जिनकी जनसंख्या प्रति वर्गमील साढ़े सात सौ से ज्यादा मानी जाती है। ये हैं मुजफ्फरपुर, दरभंगा, सारन और पटना। अब अगर इनके क्षेत्रफल और जनसंख्या को देखें तो यहाँ यह बात यों भी साफ हो जाती है। मुजफ्फरपुर का विस्तार है 3444 वर्गमील और जनसंख्या 3244651; दरभंगा की संख्या 3457070 और क्षेत्रफल 3451 वर्गमील; सारन की संख्या 2860537 और क्षेत्रफल 2613 तथा पटना की संख्या 2162008 और 2079 है। इन जिलों की जमीनों की हालत यह है कि सबसे ज्यादा पैदावार दरभंगा और मुजफ्फरपुर हैं। दरभंगे में तो वागमती और कमला नदियों के चलते बहुत ज्यादा जमीन खराब हो जाती है। यह बात मुजफ्फरपुर में नहीं है। इसीलिए मुजफ्फरपुर की आबादी दरभंगा  भी घनी है जैसा कि संख्याएँ बताती हैं। इन दोनों की अपेक्षा सारन कम पैदावार है। यहाँ ज्यादा जमीन माट या दोरस है और उसकी उत्पादन शक्ति जाती रही है पटना की हालत सारन से शायद कुछ अच्छी है। यहाँ दाल और धान की जमीनें काफी पैदावार हैं और नहरों के करते भी इसमें बहुत कुछ मदद मिलती है। मगर एक बात यह है कि पटना शहर और दानापुर की जनसंख्या बहुत ज्यादा है और ढाई और तीन लाख के बीच है। यदि इसे निकाल दिया जाए तो साफ हो जाता है कि सारन से भी कम पैदावार पटना है। ठीक भी यही है। क्योंकि आमतौर से उत्तार बिहार, जो गंगा से उत्तार है, ज्यादा पैदावार माना जाता है। पटने में नहरें भी बहुत ही थोड़े हिस्से में हैं। चार सब-डिविजनों में केवल दानापुर में ही नहरें हैं। सो भी समूचे में वहाँ भी नहीं हैं।

    मगर हमें तो सिर्फ झारखंड के ही जिलों पर अलग-अलग विचार करने से यही बात सिद्ध हो जाती है। इनमें संथाल परगना की आबादी कुल 2234497 और क्षेत्र 5512 वर्गमील है; मानभूम की 2032146 और 4204; हजारीबाग की 1751339 और 7059; राँची की 1675413 और 7099; सिंहभूम की 1144717 तथा 3879 और पलामू की 912734 तथा 4868 है। ये ऑंकड़े साफ बताते हैं कि कौन जिला कैसा है। पलामू की जमीन सबसे रद्दी है। सिवाय धान की थोड़ी सी जमीनों के बाकी टांड या बारी है और उपज उसमें बहुत ही कम होती है। सर्वे की रिपोर्टों ने यह बात कबूल की है। नतीजा यह है कि उसकी जनसंख्या सबसे कम है , प्रति वर्गमील 100 से 200 तक ही है। बाकी बचे पाँच जिले इनमें राँची, हजारीबाग और सिंहभूम इन तीनों की पैदावार प्राय: समान है और जनसंख्या भी 200 के ऊपर से 350 तक ही प्रति वर्गमील है। बाकी दो जिलों मानभूम और संथाल परगना की हालत यह है कि इनकी जनसंख्या 351 से 500 तक प्रति वर्गमील है। संथाल परगनाकी जाँच कमिटी ने यही बात अपनी रिपोर्ट में स्वीकार की है। उसने हर जिले की धान और रबी वगैरह की सभी तरह की जमीनों की उपज का मुकाबला करके भी यही बात दिखाई है। यों तो जरा-मरा फर्क रहता ही है इसीलिए संथाल परगना और मानभूम बाकियों (तीनों) से आबादी में कुछ घने हैं।

    बेशक बिहार खंड का एक ही जिला है जो इन मानभूम और संथाल परगना नामक दो जिलों जैसी ही आबादी वाला है और वह है शाहाबाद। यदि वहाँ गंगा के दियारे की जमीनें न होतीं तो शायद वह इनसे भी नीचे जा पड़ता और पलामू के ही टक्कर का या उससे बहुत कुछ हिलता-मिलता हो जाता। मगर दियारे की जमीनों के करते और बहुत से हिस्सों में नहरों के हो जाने से क्योंकि एक भबुआ को छोड़ शेष तीन सब-डिविजनों में नहरें पाई जाती हैं उसकी पैदावार कुछ अच्छी है। इसीलिए जनसंख्या प्रति वर्गमील 351 से लेकर 500 तक है। उसका कुल क्षेत्रफल 4372 वर्गमील और जनसंख्या 2328581 है।

    रह गए बिहार के मुंगेर, भागलपुर, चम्पारन और गया ये चार जिले। सो तो इनकी दशा प्राय: एक-सी ही हैं। इनकी आबादी समान रूप से प्रति वर्गमील 501 से लेकर 750 तक है। हाँ, पूर्णिया भी शाहाबाद जैसा ही है और उसकी जनसंख्या भी 351 से लेकर 500 तक ही वर्गमील के हिसाब से है। पूर्णियामें पैदावार है सही। मगर कोसी और दूसरी नदियों के करते उसकी तबाही ऐसी है कि पूरी तरह आबाद होई नहीं सकता। इसीलिए गंगा के दक्षिण सूबे का पश्चिमी जिला शाहाबाद और गंगा के उत्तार पूर्वी जिला पूर्णियाये दोनों ही जनसंख्या में भी मिल जाते हैं। पूर्णिया की आबादी भी 2390105 है। मगर क्षेत्रफल थोड़ा ज्यादा, यानी 5175 वर्गमील है। फिर भी इस मामूली अन्तर के चलते प्रति वर्गमील जनसंख्या में कोई महत्‍वपूर्ण अन्तर नहीं आता। दोनों ही समान हैं।

    भागलपुर की आबादी कुल 2408879 और क्षेत्रफल 4226 वर्गमील है। मुंगेर की संख्या 2564544 और क्षेत्रफल 4089; चम्पारन की 2397569 और 3422 तथा गया की 2775361 और 4689 है। यों देखने से कुछ-कुछ अन्तर मालूम होता है सही। फिर भी सभी बातें मिलाकर देखने से इनमें एक तरह की समानता है। सरकारी रिपोर्टों ने यही बात मानी है। इन चार जिलों को एक ही साथ जनसंख्या के लिहाज से रखा है। कहीं जमीनें अच्छी हो जाने से आबादी बहुत ज्यादा है तो कहीं बहुत ही कम। इसीलिए सब जगहों की औसत प्राय: मिल जाती है।

    इस प्रकार बिहार के सभी जिलों की संक्षिप्त आबादी आदि का मुकाबला करने से पता चल जाता है कि गरीबी के पलड़े में झारखंड ही सबसे नीचे है। इसका एक जिला, पलामू तो सबसे ज्यादा गरीब है। और उसके बाद ही स्थान है इसी के हजारीबाग, राँची और सिंहभूम का। केवल इसके दो ही जिले मानभूम और संथाल परगना ऐसे हैं जो बिहार खंड के सबसे निचले जिलों शाहाबाद और पूर्णिया से मिलते-जुलते हैं। फलत: बिहार तो इस छोटानागपुर की अपेक्षा हर तरह से सुखी सम्पन्न है। हालाँकि असली सम्पत्ति का केन्द्र स्थान छोटानागपुर ही है। यदि इसे बिहार से जुदा कर दिया तो उसकी मौत ही समझिए। यह ठीक है कि झारखंड की सम्पत्ति ज्यादातर दूसरे ही लूटते हैं। वह तो आज बिहारियों को बहुत ही नाममात्र को मिलती है। मगर समय आने वाला है जब यह बाहरी लूट रुकेगी जब टाटा और दूसरे यह धन लूट के बम्बई, पंजाब, गुजरात या देश के बाहर ले जा न सकेंगे। किन्तु उन्हें अपनी आय का तो बहुत कुछ अंश बिहार को ही देना ही पड़ेगा,या अपना बिस्तर यहाँ से बाँधाना होगा। क्योंकि बिना ऐसा हुए बिहार की गरीबी दूर होगी ही नहीं। उस समय यदि कहीं यह झारखंड बिहार से अलग हो गया, जिसके लिए आज सख्त आन्दोलन चालू है, तब तो बिहार की मौत होई जाएगी। लेकिन यदि यह बात हो गई तो बिहार ने आज तक झारखंडियों के प्रति जो उपेक्षा अपने कर्तव्य की की है उसी के फलस्वरूप यह बात होगी। अभी भी समय है कि यह बात होने न पाए। मगर इसके लिए बहुत कुछ करना होगा।

    यह तो हुआ यहाँ के जनसंख्या का साधारण दिग्दर्शन। मगर इतने से तो काम चलेगा नहीं, जब तक इसका कुछ विशेष ब्योरा मालूम न हो जाए। जोकि यहाँ की आबादी बिहार के शेष इलाके की आबादी की प्राय: तिहाई है। फिर भी यहाँ के लोग तो एक प्रकार से मूक हैं, गूंगे हैं। इन्हें जबान नहीं कि अपना दु:ख-दर्द सुना सकें। आज के तरीके से अपने अभाव अभियोगों के सुनाने तथा अपने दावे पेश करने का माद्दा इनमें ही नहीं। नहीं तो कम होते हुए भी सारे सूबे को अपनी पुकारों तथा हलचलों से गुँजा देते, थर्रा देते। असल में ये इतने पिछड़े हैं, इतने अन्धाकार में पड़े हैं कि नए ढंग के प्रदर्शन, नई तरह की मीटिंगें ये खुद कर नहीं सकते करना जानते ही नहीं। इसीलिए जो मीटिंगें होती हैं,जो प्रदर्शन किए जाते भी हैं उन पर इनके असली अभाव-अभियोगों की दर्द की छाप नहीं होती। वे मीटिंगें किसानों या शोषित-पीड़ितों की चुभती हुई माँगों और बेधाती हुई पुकारों को प्रकट कर सकती हैं नहीं, प्रतिबिम्बित कर नहीं सकती हैं। इसीलिए इनकी दृष्टि से उनमें कृत्रिमता ही कृत्रिमता नजर आती है। उनमें इनका दर्द, इनकी चीख पुकार सुनाई नहीं पड़ती है। वहाँ तो मध्‍यमवर्गीयों के झमेले ही दीखते हैं वही नौकरियों की बात, वही अलग प्रतिनिधित्व की चर्चा, वही बोर्डों और असेम्बली की सीटों की हाय-तौबा और वही राजभक्ति की उफान!

    यदि यहाँ के आदिवासियों में जागृति होगी, वर्गचेतना होगी, अपने अधिकारों तथा हकों की जानकारी के साथ ही उन्हें निर्भयतापूर्वक सफाई के साथ पेश करने की योग्यता होती और अगर ये लोग अपनी माँगों को प्रभावशाली बनाना जानते तो यह बात नहीं होती। यद्यपि बिहार के भी किसानों की और दूसरे प्रान्त वालों की भी अभी कुछ ऐसी ही हालत है कि वे खुद अपने पाँवों बखूबी खड़े हो सकते नहीं। फिर भी वे बहुत कुछ कर सकते हैं। बहुत आगे बढ़ चुके हैं। मगर यहाँ वाले तो अवनति के गढ़े में ही पड़े हैं। इन्हें जानबूझ कर ऐसे ही रहने देने की कोशिश की गई है, गुटबन्दी हुई है ऐसा मालूम पड़ता है। नहीं तो इन्हें शिक्षित क्यों नहीं बनाया गया? जहाँ इसी झारखंड की रहने वाली प्रगतिशील जातियों की शिक्षा-वृध्दि की भरपूर कोशिश की गई है, तहाँ आदिवासियों के प्रति भयंकर उपेक्षा से काम लिया गया है। इस सम्‍बन्‍धमें ज्यादा बातें तो आगे कहेंगे। मगर संथाल परगना की सरकारी जाँच कमिटी की रिपोर्ट का ही एक अंश यहाँ लिख देना जरूरी है। उसके 44 वें पृष्ठ में लिखा है, 'There has been no development of aboriginal schools in recent years; in fact the position is now worse than it was 15 years ago.  There is not a single school for the 60,000 Paharias in the Damin Hills. In fifteen years the number of Santhal children attending school has risen only from 12020 to 13448.  The number of Santhal primary schools has actually decreased from 465 to 403.  This was largely due to the financial straits of the District Committee during the period of economic depression which affcted all classes of schools.  But the salient fact emerges that while between 1922 and 1937 the total number of schools have been reduced by 73,62 of these were Santhal schools.  In fact, the most of the education retrenchment of the District Committee has been at the cost of the Santhal *

           27.11.41A 'इधर कुछ साल के भीतर आदिवासियों के स्कूलों में वृद्धि नहीं हुई है। दरअसल, 15 साल पूर्व की अपेक्षा आज की हालत खराब है। दामिन पहाड़ों के साठ हजार पहड़िया लोगों के लिए तो एक भी स्कूल है नहीं। पन्द्रह साल के भीतर स्कूल जाने वाले संथाली लड़कों की तादाद सिर्फ 12020 से 13448 ही हुई है। संथालों के प्राइमरी स्कूलों की संख्या 465 से 403 हो गई है। अर्थसंकट के जमाने में जिला कमिटी जो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की जगह थी की आर्थिक दशा खराब होने से ही अधिकांश यह बात हुई है, जिसका सभी तरह के स्कूलों पर असर हुआ। लेकिन एक बात साफ हो गई है कि 1922 और 1937 के दरम्यान जो कुल 73 स्कूल इस तरह बन्द हुए उनमें 62 तो केवल संथालों के ही थे। असलियत तो यह है कि जिला कमिटी ने जो शिक्षा में कमी की है उसका अधिक हिस्सा संथालों के ही माथे पड़ा है!'

    यह कहने से तो काम चलने का नहीं कि अंग्रेजी सरकार और उसकी कमिटी ने ही ऐसा किया है। आखिर अंग्रेजी सरकार को हमेशा यहाँ रहना है नहीं। जल्द या देर से अब जो सरकार इस प्रान्त में बनेगी वह तो बिहारियों की इसी सूबे वालों की ही होगी। फलत: नतीजा उसे ही भुगतना होगा। अपने ही शरीर के किसी अंग को रोगी, कमजोर या लकवा-ग्रस्त रहने देने का नतीजा क्या किसी और को भोगना होता है? हमने इन पिछड़े भाइयों की जो खबर अब तक प्राय: नहीं ली है उसी का नतीजा यह है कि एक ओर छोटानागपुर को बंगाल में मिलाने की कोशिश होती है, तो दूसरी ओर अलग प्रान्त बनाने ही की। इन कोशिशों के लिए मसाला आखिर आया है कहाँ से ? अब तक की गई लापरवाही को ही तो सामने रख के भोले-भाले लोगों को समझाया जाता है कि जब तक बिहार के पुछल्ले बने रहोगे कोई न पूछेगा। क्या यह दलील पेश नहीं की जाती है कि सारा खजाना यहीं होने पर तथा विस्तार में बिहार के बराबर रहने पर भी आदिवासियों का एक भी आदमी कांग्रेसी जमाने में मंत्री नहीं बनाया गया? क्या बिहारी लोग बराबर इस बात का विरोध नहीं करते रहे कि बिहार सरकार राँची में कतई जाए ही नहीं? और क्या इसी बात को लेके उनके माथे दोष लगाया नहीं जाता? क्या कांग्रेसी मंत्रियों के समय में एक पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी साहब ने, जो छोटानागपुर में ही रहते हैं, राँची में असेम्बली की बैठक का विरोधा नहीं किया था?

    हाँ, तो हम झारखंड के लोगों की बात कह रहे थे कि ये पिछड़े हैं। इसका एक जो बहुत पक्का सबूत है वह यही है कि यद्यपि ब्राह्मण, क्षत्रिाय, बनिया, महाजन, कायस्थ वगैरह आगे बढ़ी जातियों के लोग भी यहाँ लाखों की तादाद में पाए जाते हैं। फिर भी एक करोड़ की जनसंख्या में ऐसे लोग बहुत ही कम हैं। कहें तो कह सकते हैं कि दाल में नमक की तरह हैं। हम इस झमेले में नहीं पड़ते कि आदिवासी कौन है, कौन नहीं। हमें बाल की खाल नहीं खींचनी है और नुक्ताचीनी के लिए बारीकियाँ ढूँढ़नी है। हम तो इतना ही जानते हैं कि जो लोग पिछड़े हुए हैं और अपनी आवाज बिहारियों या बंगालियों की तरह खुद उठा नहीं सकते उनकी संख्या अस्सी फीसदी से कम नहीं है। हमें तो असली किसानों से मतलब है जो छोटानागपुर में पाए जाते हैं। जो लोग आगे बढ़े हुए हैं वे तो बाहर से यहाँ लूटने आए हैं। यदि और लोगों से मिलके वे भी गुजर करते, तो हमें कुछ कहना नहीं था। तब तो इन्हीं जैसे वे भी खामख्वाह न जाते। तब शोषण की बात ही क्यों उठती? कहा जाता है, उराँव लोग रोहतासगढ़ से यहाँ पीछे आए। यह भी माना जाता है कि संथाल परगनामें पहले तो पहड़िया लोग ही रहते थे। संथाल तो पहले-पहले 1810 में ही आए। मगर यह तो नहीं कहा जाता है कि ये लोग शोषक बनके आए। चाहे जब जैसे आए गुजर करने के ही लिए आए और हिल-मिल के एक हो गए।

    भारत में शक, हूण आदि भी आए, मुसलमान भी पहुँचे और अंग्रेज भी। मगर शक, हूण और मुसलमान वगैरह यहीं हिल-मिल के रह गए। उन्हें बाहरियों की तरह शोषण करना न था, किन्तु गुजर करना। लेकिन अंग्रेज तो शोषक बन के ही आए। इसीलिए कभी हिले-मिले नहीं। ठीक यही दशा उन सभ्य, शिक्षित और ऊँची कहे जाने वाली जातियों की है जो केवल शोषक बन के ही झारखंड में आईं और बसीं। भले ही अंग्रेजों की तरह उनका बाहर ताल्लुक अब न भी हो। फिर भी उनका शोषण तो अखंड रूप से जारी ही है। बाहर भी विवाह-शादी आदि के जरिए सम्‍बन्‍ध सभी का ही। मगर जिनने अपने को यहाँ के आदिवासियों जैसा बना लिया वे शोषक न होके इन्हीं जैसे पिछड़े हुए हैं। ऐसे लोगों में ग्वाले और कुर्मी आदि लोग यहाँ  गाय-भैंसें पालने के लिए या खेती करने के ही लिए ये लोग यहाँ आए। मगर यहीं के हो गए। कुर्मी लोगों के बारे में तो और भी बातें कही जाती हैं कि वे बिहारी कुख्रमयों से निराले ही हैं। मगर हमें इससे कोई मतलब नहीं। हम यह मानते भी नहीं। चाहे वे यहीं के हैं या बाहर से आए। मगर हर हालत में आदिवासियों से हिल-मिल गए। यही कारण है कि सब मिलाके पिछड़े लोगों की संख्या अस्सी से लेकर नब्बे फीसदी तक हो जाती है।

    सरकार ने इस बारे में एक और ही रास्ता निकाला है और आदिवासियों की बात को लेके झगड़ने वाले दोनों दलों को खुश करते हुए अपना काम निकाल लिया है। साथ ही कुछ झमेला भी खड़ा कर दिया है। यहाँ की पिछड़ी जातियों की जमीनें दूसरी जाति के लोग इजारा ले या खरीद न सकें इसके लिए काश्तकारी कानून में कुछ धाराएँ जोड़ी गई हैं। छोटानागपुर काश्तकारी कानून (Chhotanagpur Tenancy Act) की 48, 208 तथा 240 और 242 धाराओं में यह बात पाई जाती है। ये जातियाँ कौन-कौन सी हैं इनकी एक सूची सरकार ने खुद तैयार की है। बिहार के काश्तकारी कानून में भी कुछ ऐसी धाराएँ हैं और कुछ जातियों की सूची वहाँ भी दी गई है। वह सूची आदिवासियों तथा पिछड़ी जातियों के ही कहके पर बनी है। इनमें आदिवासियों में ये जातियाँ लिखी गई हैं : (1) असुर, (2) बनजारा, (3) बठुड़ी, (4) बेंटकार, (5) विनझिया, (6) बिरहोर, (7) बियाजिया, (8) चेरो, (9) चिक बरैक, (10) गोड़ाबा, (11) घटवार, (12) गोंड, (13) गोड़ाइत, (14) हो, (15) जुआंग, (16)करमाली, (17) खरिया, (18) खरवार, (19) खेतौरी, (20) खोंड, (21) किसान, (22) कोली, (23) कोड़ा, (24) कोड़वा, (25) महली, (26) मलपहड़िया, (27) मुंडा (28) उराँव (29) पढ़िया, (30), संथाल, (31) सौरिया पहड़िया, (32) शबर, (33)थारू।

    पिछड़ी जातियों की जो तालिका दी गई है वह यों है : (1) चमार, (2) चौपाल, (3) धोबी, (4) दुसाध,  (5) डोम, (6) हलखोर, (7) हारी (8) कंजर, (9) कुड़रियार, (10) लालबेगी,(11) मोची ,(12)मुसहर, (13) नट, (14) पासी, (15) बौरी, (16)भोक्‍ता, (17) भुइयां, (18) भूमिज, (19) घासी, (20) पान, (21) रजवार, (22) तूड़ी।

    बेशक कोइरी, ग्वाला, कुर्मी वगैरह को इसमें नहीं गिनाया है और शायद इन जातियों के कुछ पढ़े-लिखे लोग इसमें अपनी शान समझते हों कि हम पिछड़ी जातियों के नहीं हैं। शायद उन्हें शर्म भी मालूम होती हो कि पासी, चमार आदि के साथ ही कैसे अपनी जातियों को गिनाएँ। मगर यह तो भूल है। असलियत को छिपाने से क्या लाभ? जब शिक्षा आदि का विचार किया जाए तो ऑंखें खुल जाती हैं। अगर असेम्बली और बोर्डों की सीटों का सवाल उठे या नौकरियों की बात आए तो वे लोग भी खामख्वाह रिआयतें चाहते और पिछड़ी जाति वाले कहके खास सलूक चाहते हैं। तब इस तरह की बात के लिए गुंजाइश है कहाँ?

    इस जनसंख्या के साथ ही उनकी बोली और भाषा का भी प्रश्न आता है। यह तो ठीक ही है कि जो बंगाली और बिहारी यहाँ बस गए हैं उनकी भाषा बंगला और हिन्दी ही है। यह ठीक है कि बिहार के विभिन्न जिलों से आकर बसने के कारण मगही और भोजपुरी भाषाएँ वे लोग बोलते और कैथी अक्षरों में चिट्ठी-पत्री वगैरह लिखते हैं। यहाँ की सर्वे खतियान तो कैथी अक्षरों में ही लिखी गई है। इसका साफ मतलब है कि बिहार की छाप झारखंड पर लगा दी गई है। हालाँकि ऐसा करने का हक किसी को भी न था। जो यहाँ के मूल निवासी हैं और जिनका बहुमत है वे कैथी क्या जानने गए? मगर जो मूक हैं, बोल नहीं सकते उनकी परवाह करने जाता है कौन? मुट्ठी-भर पढ़े-लिखों की ही तो परवाह सर्वत्र की जाती है। क्योंकि वे बोलना और तूफान मचाना जानते हैं। जब इसकी याद उन गरीबों को होती है तो उनके कलेजे पर साँप लोट जाता जरूर है। वे कोई बात समझ नहीं पाते और आह मार के रह जाते हैं। इन्हीं कैथी की खतियानों के आधार पर उनके जंगल के सभी हक छिन गए! ये खतियानें वेद, बाइबिल और कुरान से भी बढ़ के प्रामाणिक मानी जाती हैं जहाँ तक जमीन वगैरह के हक का सवाल है! क्या अन्‍धेर है!

    लेकिन उनकी अपनी भाषा और बोली तो कुछ और ही है। संथाल, उराँव और मुंडा अपनी निजी भाषा रखते हैं। यों तो 'हो' लोगों की भी अपनी जुदा भाषा है। फिर भी उराँव और हो की भाषा न जानके भी किसी कदर काम चलाया जा सकता है यदि संथाली और मुंडारी भाषा का ज्ञान हो। उराँव भाषा का या हो भाषा का भी ज्ञान होने पर भी उनसे किसी तरह का काम चल जाता है। ये दोनों भाषाएँ थोड़ी बहुत उनसे मिलती-जुलती है ऐसा कहा जाता है। मगर सच बात तो यह है कि संथाली, मुंडारी, उराँव की और हो लोगों की ये चारों भाषाएँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती हैं और जब इन भाषाओं के बोलने वाले किसान ठेठ अपनी भाषा में ही परस्पर बातचीत करते हैं तो एक भाषा वाले भी दूसरी वाले की बातें समझ नहीं पाते। यों तो एकाध शब्दों के मेलजोल से हिन्दी या बंगाली भाषा के जानकार भी दस-बीस बातों में शायद एकाधा को अन्दाज से समझ लें। मगर किसी प्रकार काम चलाना और बात है और भाषा को समझना दूसरी। जब साधारण लोग एक-दूसरे की भाषा न समझ सकें तो मानना ही होगा कि उनकी भाषाएँ जुदा हैं।

    यद्यपि मुंडा और उराँव दोनों को ही कोल शब्द से पुकारा जाता है। तथापि ये दोनों दो जुदा जातियाँ हैं और इन दोनों का परस्पर कोई मेल नहीं है। इसी प्रकार संथाल इन दोनों से ही निराले और हो इन तीनों से जुदे हैं। उनकी भाषाएँ इतनी जुदी हैं और रस्मोरिवाज भी बहुत कुछ ऐसे भिन्न हैं कि ये लोग ज्यादातर जुदे-जुदे अंचलों में पाए जाते हैं। संथालों की ही तरह पहड़िया लोग भी निराले हैं। उनकी भाषा भी भिन्न ही है। वे तो ज्यादातर संथाल परगनाके दामिने कोह या दामिन इलाके में, जो खासमहाल या सरकारी जमींदारी है, पाए जाते हैं। गोड्डा, राजमहाल, पाकुड़ और दुमका इन चार सब-डिविजनों के जो हिस्से एक-दूसरे से मिल जाते या बीच में पड़ जाते हैं उन्हीं को एक जगह मिला के यह दामिन की सरकारी इलाका है। यह बिलकुल ही पर्वतों की तराई में उन्हीं से घिरा हुआ इलाका है। कोह कहते हैं कि फारसी में पहाड़ को और दामन नाम है उसकी कोख या बगल या तरीका। इसी से दामिने या दामने कोह का मतलब है पहाड़ की तरी या तराई। दामन को ही दामिन कह देते हैं। दामन और कोह के बीच जो 'इ' या 'ए' है उसका अर्थ फारसी में होता है 'का'। इसी से कोह का दामन मतलब लगाते हैं। फारसी में उलटे ही 'का' का सम्बन्ध जुटता है 'दामन' के बजाए 'कोह' से ही 'का' जोड़तेहैं।

    संथाल लोग संथाल परगना में तो ही। हजारीबाग के उत्तार-पूर्वी हिस्से में और उसी से मिलते-जुलते मानभूम के भागों में भी ज्यादातर पाए जाते हैं। यों तो प्राय: सारा का सारा हजारीबाग जिला भी संथालों का ही है। पार्श्वनाथ पहाड़ की तली में वही लोग हैं और धानबाद के इलाके में भी। दक्षिणी हजारीबाग के कुछ भाग में कहीं-कहीं और उससे मिले राँची के बहुत बड़े हिस्से में बीच से और पश्च्मि में उराँव लोग ज्यादातर पाए जाते हैं। मुंडा लोग रांची के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में ज्यादा हैं और उससे मिले सिंहभूम के भागों में। बाकी सिंहभूम में और खास कर दलभूम सब-डिविजन में हो लोगों की बस्ती अधिक है। पहड़िया लोग तो ज्यादातर दामिन इलाके में ही हैं। पलामू और राँची की सरहदें जहाँ मिलती हैं वहाँ दोनों ही जिले में उराँव लोग ही ज्यादातर हैं और दूसरे भी पाए जाते हैं। पलामू का महुवाडांड़ थाना और राँची के लोहारदागा ये दोनों इलाके जहाँ मिलते हैं वहीं पर 'किसान' कहे जाने वाले भी कुछ लोग पाए जाते हैं। मैंने उनसे महुवाडांड़ में खुद बातें की हैं। पलामू के पश्चिमी, दक्षिणी, पूर्वी, दक्षिणपूर्वी, दक्षिण पश्चिमी भागों में और पूर्वोत्तर तथा पश्चिमोत्तर के भी कुछ अंशों में आदिवासियों की ही आबादी है। हजारीबाग से मिले मानभूम के बहुत हिस्सों में और हजारीबाग में भी कुर्मी लोग ज्यादातर मिलते हैं। यों तो जहाँ-तहाँ सभी जातियाँ एक-दूसरे के संगम स्थान पर हिल-मिल के भी रहती हैं।

    एक बात जो सबसे ज्यादा जरूरी लिखने की है वह यह है कि यद्यपि झारखंड के आदिवासी लोग पिछड़े हुए हैं। तथापि इनकी दशा बिहार खंड या दूसरे स्थानों के पिछड़े हुए लोगों जैसी नहीं है। और जगह के ऐसे लोग निरे खेत-मजदूर जैसे ही हैं सिवाय उन जगहों के जहाँ उनकी संख्या ज्यादा है और जमीनें रखते हैं। मगर मुंडा, उरांव वगैरह सबके सब पक्के किसान हैं। ये लोग जन्म से ही पुश्त दर पुश्त से ऐसे ही हैं। इन्हें जमीन से बड़ी मुहब्बत है वैसी ही जैसी जंगल से। इन दोनों के बिना ये रह नहीं सकते। इनके पास जो काश्तकारी जमीनें हैं उनकी अनेक किस्में इस बात का पक्का सबूत हैं। उनके बारे में आगे लिखा गया है।

    इसीलिए 'किसान' नाम की एक जाति ही यहाँ पाई जाती है। झारखंड के सिवाय हमें एक ही जगह और भी 'किसान' जाति मिली है जो युक्त प्रान्त के फर्रुखाबाद में पाई जाती है। संथाल परगना में 'कृशानी' शब्द कुछ इसी अर्थ में बोला भी जाता है। वहाँ भावली या बँटाई की ही तरह की खेती को 'कृशानी' कहते हैं। इसका जिक्र वहाँ की जांच कमिटी की रिपोर्ट में आया है। यही कारण है कि हमने 'झारखंड के निवासी' की जगह इस पुस्तक का नाम भी 'झारखंड के किसान' लिखा है। यहाँ के निवासी तो दूसरे ही नहीं। कुर्मी या ग्वाले लोग भी पक्के किसान ही हैं। यहाँ के आदिवासियों की नाड़ियों में अभी गर्मी भी काफी है। वे हरिजनों की तरह कुचले जा सके हैं नहीं। इसीलिए यदि इनका वर्ग हित के आधार पर संगठन किया जाए तो एक अपूर्व शक्ति ये लोग बन जाएँगे जिसे कोई दबा नहीं सकता। इनकी आजादी भी अभी-अभी छिनी है। इसीलिए इनके खून में उसका अंश शेष है।

  

(3) शिक्षा का सवाल 

इन लोगों की शिक्षा की बात पहले कुछ कही गई है। मगर उस पर कुछ ज्यादा विचार करना निहायत जरूरी है। वस्तुस्थिति पर पूरा प्रकाश पड़ने के लिए यह आवश्यक है। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि बिहार के दूसरे जिलों और बिहार खंड समूचे का भी मुकाबला शिक्षा के बारे में इस झारखंड के साथ किया जाए। हम इस सम्‍बन्‍ध में और ज्यादा बातें नहीं कह के कांग्रेसी मंत्रियों के जमाने में 1938 में प्रकाशित ऑंकड़ों को ही पेश करेंगे और उन्हीं के आधार पर विचार करके अपना काम पूरा करेंगे। उन ऑंकड़ों के ऊपर कुछ कहना जरूरी होगा। नहीं तो असलियत पर पूरा प्रकाश पड़ नहीं सकता।

           28.11.41A सबसे पहली बात जो इस सम्‍बन्‍ध में कहने की है वह यही कि जहाँ बिहार खंड में कुल मिला के 173 इंग्लिश हाईस्कूल, 630 मिडल स्कूल, 2502 अपर प्राइमरी और 13219 लोअर प्राइमरी स्कूल हैं जहाँ झारखंड में सब मिलाके सिर्फ 40 हाईस्कूल, 167 मिडल स्कूल, 690 अपर और 4344 लोअर प्राइमरी स्कूल है। वहाँ के मिडल स्कूलों और यहाँ के अपर प्राइमरी स्कूलों का तादाद प्राय: बराबर है। 630 और 690 में कोई ज्यादा फर्क तो है नहीं। यह याद रखना चाहिए कि बिहार की अपेक्षा यहाँ की जनसंख्या आधी से कम और तिहाई से ज्यादा आधी और तिहाई के बीच में है जैसा कि पहले कहा जा चुका है। मगर सिवा लोअर प्राइमरी स्कूलों के जिनकी संख्या यहाँ-वहाँ से प्राय: एक-तिहाई है, शेष सभी हाई, मिडल या अपर स्कूलों की तादाद यहाँ-वहाँ के मुकाबले में आमतौर से करीब-करीब चौथाई है। हाई स्कूल तो यहाँ चौथाई से भी कम हैं! वहाँ पूरे 173 और यहाँ सिर्फ 40 हैं! यह इतनी साफ बात है कि इस पर ज्यादा टीका टिप्पणी बेकार है।

    अब अगर जिलेवार यह बात देखी जाए तो और भी मजेदार है। बिहार का सिर्फ एक ही जिला चम्पारन ऐसा है जो यहाँ के शिक्षा में सबसे बड़े तीन जिलों राँची, मानभूम और संथाल परगना के साथ करीब-करीब टक्कर लेता है। फिर भी बहुत अंशों में कहीं बढ़ा-चढ़ा है। उसके बाद ही पूर्णिया का नाम आता है, जो चम्पारन से कहीं अधिाक बढ़ा हुआ है। बिहार के ये दो अभागे जिले भी यहाँ के सर्वोन्नत जिलों से बहुत ज्यादा आगे हैं, यही सबसे बड़ी खूबी है। राँची में हाई स्कूल 10, मिडल 44, अपर 146 और लोअर 1094 है; मानभूम में ये क्रमश: 11, 41, 161 और 981 हैं; संथाल परगनामें क्रमश: 10, 31, 168 और 947 हैं। खूबी तो यह है कि जहाँ लोअर स्कूल बढ़े हैं वहाँ बाकियों में उसी हिसाब से कमी आ गई है और जहाँ लोअर स्कूल नहीं बढ़े हैं वहाँ बाकी भी प्राय: सभी ज्यादा हैं। रांची के साथ बाकी दो के ऑंकड़ों को मिलाने से यह बात साफ हो जाती है। मगर जब क्षेत्रफल और जनसंख्या की मिलान करते हैं तब तो कुछ और ही बात दीखने लगती है। रांची की जनसंख्या इन दोनों से कम होने के कारण इनकी अपेक्षा वह प्रगतिशील प्रतीत होता है। क्योंकि विस्तार तो उसका इन दोनों से ज्यादा है। मगर आबादी कम है उसकी प्रगति की बात पर आगे विचार करेंगे।

    लेकिन बिहार के उन दोनों जिलों को भी तो जरा देख लें। चम्पारन में हाई स्कूल 10, मिडल 49, अपर 220 और लोअर 866 हैं और पूर्णिया में इनकी संख्या क्रमश: 9, 43, 173 और 1136 है। यद्यपि जनसंख्या दोनों की ही बराबर ही है और वह है 23 लाख से कुछी ज्यादा। मगर क्षेत्रफल में बहुत ज्यादा फर्क है। इस दृष्टि से तो चम्पारन से भी गया-गुजरा प्रतीत होता है। क्योंकि चम्पारन से इसका विस्तार डयोढ़ा होने पर भी यहाँ लोअर को छोड़ सभी तरह के स्कूलों में चम्पारन से कमी है। हाँ, लोअर स्कूल कुछ ज्यादा हैं।

    यह तो हुई उन दो पिछड़े जिलों की बात जिन्हें गाँधीजी के अनुयायी होने का सबसे ज्यादा दावा और फक्र होते हुए भी यह नहीं सूझता कि आम लोगों को शिक्षित तो बनाएँ। केवल चर्खा चलाना यदि गाँधी-भक्ति की पहचान है तब तो खुदा हाफिज! अब हमें बिहार के शेष आठ जिलों की भी दशा का सिंहावलोकन कर लेना है। यहाँ दरभंगा जिला सबसे आगे है। उसके बाद गया वगैरह जिले आते हैं। मगर यह बात केवल लोअर आदि स्कूलों की संख्या की ही दृष्टि से है। यों तो यदि क्षेत्रफल और आबादी का विचार करके स्कूलों की संख्या पर गौर करें तो पटना ही सबसे बढ़ा-चढ़ा है। जनसंख्या और क्षेत्रफल तो पहले ही बता चुके हैं। पटना में हाई स्कूल 26, मिडल 59, अपर 249 और लोअर 1400 हैं; गया में क्रमश: 15, 41, 162 और 1701; शाहाबाद में 17, 58, 249 और 1129; मुंगेर में 17, 77, 244 और 1437; भागलपुर में 18, 53, 270 और 1210; सारन में 25, 88, 238 और 1125; मुजफ्फरपुर में 19, 77, 306 और 1470, दरभंगा में 17, 85, 388 और 1745। यह याद रखना होगा कि चम्पारन में प्राइमरी शिक्षा मुफ्त दी जाती है।

    हमें अब और पहलुओं से भी यह बात देखनी है। पहली बात तो यह है कि झारखंड में जो जर्मन, इंग्लिश और रोमन कैथलिक मिशनों के मुख्य अड्डे हैं और एकाध और भी हैं उनने अपने खयाल से बहुत ज्यादा खोल रखे हैं। जर्मन मिशन के प्राय: दो सौ, इंगलिश मिशन के प्राय: डेढ़ सौ और कैथलिक तथा औरों के मिलाके भी करीब सैकड़ों स्कूल यहाँ खुले हैं। इस तरह चार-पाँच सौ स्कूलों का श्रेय तो इन ईसाई मिशनों को ही है। हजारीबाग, राँची, संथाल परगना में इनके अधिक स्कूल हैं। कालिज भी तो जो जहाँ केवल हजारीबाग में एक है वह मिशन का ही है। यही कारण है कि राँची सबसे बढ़ा-चढ़ा है। खूबी तो यह है कि इनने तो इतने ज्यादा स्कूल खोले हैं। मगर जमशेदपुर से टाटा और दूसरे पूँजीपति साल में आठ-दस करोड़ के लगभग रुपए ढो ले जाते हैं और उदारता की दम भी खूब ही भरते हैं। मगर उनने एक भी कालिज वहाँ नहीं खोला है। ये लोग आखिर हिन्दुस्तानी किस बात के हैं? उनसे तो ये पादरी, ये मिशन, ये चर्च अच्छे निकले जो यहाँ तब आए जब किसी भी हिन्दू पण्डित या मौलवी की हिम्मत भी न थी कि यहाँ आता। सैकड़ों साल पहले 1845 में यहाँ आके इनने अपना काम शुरू किया। फलत: ये पादरी, ये मिशन टाटा वगैरह से कहीं अच्छे हैं जो यहाँ से कमाते तो एक कौड़ी नहीं। लेकिन शिक्षा, औषधालय आदि में लाखों रुपए हर साल खर्च करते हैं। यह ठीक है कि उनका उद्देश्य है ईसाइयों की संख्या बढ़ाना और इस प्रकार साम्राज्यवाद और विदेशी पूँजीवाद को मजबूत करना। मगर टाटा  और उनके दोस्त लोग भी क्यों नहीं उन्हीं देखा-देखी स्वदेशी पूँजीवाद को मजबूत करते हैं? ये पादरी और मिशन यहाँ के लोगों को ईसाई बनाते हैं सही। मगर उसी के साथ आदमी भी तो बनाते हैं ! हमने तो इन्हें पशु से भी बदतर बना रखा था और इन्हें रखा है। ईसाइयों और मिशनों से हमें इस बात में कोई झगड़ा नहीं है और अगर कोई झगड़ा है तो वह दूसरी ही बात में है जिसका जिक्र आगे करेंगे। यदि हिन्दुओं या औरों को यह बात बुरी लगती है तो अपने कामों के जरिए उन मिशनों से बाजी क्यों नहीं मार ले जाते? सिर्फ धर्म-धर्म चिल्लाने से कोई न सुनेगा। वह जमाना लद गया।

    हाँ, यहाँ जो भी शिक्षा है उसका बहुत हिस्सा तो मिशनों के चलते है न कि बिहारियों या बिहार सरकार के चलते। सरकार का क्या यह काम न था कि जमशेदपुर, राँची और हजारीबाग में तो जरूर ही कालिज खोल देती। आज बीसियों साल से यहाँ सरकार के शिक्षा सचिव तो हिन्दुस्तानी ही होते आए हैं। मगर उनने यहाँ के मूक किसानों की ऑंखें खोलने के लिए क्या किया? कितनी कोशिश उनने की? कितने रुपए खर्चने के लिए सरकार को मजबूर किया। मेम्बर तो ज्यादातर बिहारी ही रहे कौंसिलों के। उनने क्या इधर दृष्टि डाली? दृष्टि से मेरा मतलब है उचित और जैसी चाहिए वैसी दृष्टि से। कसम खाने के लिए कुछ कर देने से मेरा मतलब नहीं है।

    दूसरी बात यह देखने की है कि जो भी स्कूल यहाँ हैं उनसे कितना लाभ यहाँ के पिछड़े लोगों का होता है उनमें उनके कितने लड़के पढ़ते हैं, लड़कियों की तो बात ही दूर रहे। यदि झारखंड के मुख्य-मुख्य शहरों और बड़े-बड़े गाँवों का, जहाँ ज्यादातर बाहरी या प्रगतिशील लोग, शोषक लोग ही बसते हैं हिसाब लगाया जाए तो पता चलेगा कि जो भी स्कूल खुले हैं इनसे ज्यादा फायदा बहुत अधिक लाभ वही लोग उठाते हैं। आदिवासी या दूसरे पिछड़े लोग तो बहुत ही कम पढ़ते हैं। इनमें से यदि ईसाइयों को निकाल दें तो और भी कमी हो जाए। क्योंकि इनके पढ़ाने का श्रेय तो हमें प्राय: है ही नहीं। उन्हें तो मिशन वाले ही पढ़ाते हैं। हमने तो थाने के हिसाब से देखा है कि प्रधान शहरों में ही बहुत ज्यादा स्कूल हैं या बाजारों में। इससे साफ हो जाता है कि आदिवासियों और उनके साथियों के प्रति यहाँ के असली किसानों के प्रति कितनी लापरवाही शिक्षा के मामले में की जाती है। संथाल परगना के बारे में जो जाँच कमिटी की बात पहले लिखी गई है उससे तो स्पष्ट हो जाता है कि पिछड़े लोगों की शिक्षा पर ही छुरी चला के बाकियों की शिक्षा का यहाँ प्रबन्ध किया जाता है।

    सबसे ज्यादा खटकने वाली तो तीसरी बात है जिससे बखूबी पता लग जाता है कि यहाँ के सच्चे किसानों और मूक जनता की शिक्षा पर हम लोग कितना ध्‍यान देते हैं। हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आज तक संथाली, उराँव, मुंडा और हो की भाषाओं के एक भी स्कूल नहीं खोले गए हैं! हिन्दी भाषा जाननेवालों के लिए कलक‍ता और बम्बई में भी स्कूल होने ही चाहिए। नहीं तो तूफान होगा। मुसलमान लोग और नहीं, तो धर्म के नाम पर ही उर्दू के स्कूल खुलवा के ही छोड़ते हैं। बंगालियों का तो पूछिए मत। उनने तो अपना प्रबन्ध सर्वत्र किया ही है। झारखंड में जिन जिलों में उनकी संख्या ज्यादा है वहाँ बंगला पढ़ने-पढ़ाने का प्रबन्ध है। मानभूम के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ से तो बंगला पढ़ाने का ही प्रबन्ध है। अब धानबाद वगैरह में कुछ हिन्दी भाषा-भाषियों की बात ले के हिन्दी के लिए बावेला मचा है। इसी प्रकार हजारीबाग के रामगढ़, गोला, पेटरबार वगैरह इलाकों में भी बंगला पढ़ाई जाती है और जब हजारीबाग का बोर्ड उसकी जगह हिन्दी करना चाहता है तो भी बावेला खड़ा होता है। ठीक ही है। बच्चे-बच्चियों को तो खामख्वाह मातृभाषा में ही शिक्षा देना ठीक है। जो ऐसा नहीं करते वे घोर अन्याय ही नहीं करते, बल्कि चाहते नहीं कि दूसरे भाषा के बोलने वाले उठ सकें ही न। आखिर यहाँ अंग्रेजी के बजाए मातृभाषा को ही माध्‍यम बना के जो अंग्रेजी की तालीम देने का आन्दोलन बहुत दिनों से चालू है और उसे सफलता भी मिल रही है उसका भी तो यही मतलब है न?

    आखिर जब प्रगतिशील और सभ्य कहे जाने वाले लोग अपनी मातृभाषा में बच्चों की शिक्षा के लिए और तो और इस झारखंड में ही कुश्तम कुश्ता कर रहे हैं, जैसा कि बंगाली और हिन्दी के सम्‍बन्‍ध के हाल के कोलाहलों और झमेलों से मालूम होता है, तो इन गरीब आदिवासियों ने ही क्या बिगाड़ा है कि इनके बच्चों की या तो शिक्षा का प्रबन्ध ही नहीं, या अगर थोड़ा बहुत है भी तो हिन्दी या बंगला में ही? एक तो ये यों ही पिछड़े हैं। फलत: इनके बच्चे कुछ भी जानते ही नहीं। दूसरे उन्हें वैसी भाषा में पढ़ाना जिससे उन्हें कोई भी संसर्ग जन्म से हुआ ही नहीं, कितनी अंधेर है ! ऐसी शिक्षा तो इनके लिए जहर का ही काम करती है। इसके फलस्वरूप एक तो इनका दिमाग कुन्द हो जाता है। बहुत ज्यादा महनत जो करनी पड़ती है। दूसरे वे अधकचरे बन के रह जाते हैं। वह शिक्षा इनके किसी भी काम की नहीं होती। व्यवहार में तो काम आती नहीं और ज्यादा दूर तक पढ़ने का इन्हें सौभाग्य नहीं कि आगे काम दे सके। इस तरह ये न तो घर के रह जाते और न घाट के।

    सोवियत रूस में भारत की सरहद पर ही कई छोटे-छोटे प्रजातन्त्रा हैंµबहुत ही नन्हे-नन्हे। उनमें ऐसी जातियाँ हैं जो ताजिक आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके न तो अक्षर थे और न लिखी पुस्तकें उनके पास थीं। मगर आज सोवियत शासन के चलते उनके लिए नई वर्णमाला तैयार हो के उसी में सभी तरह कि किताबें उनकी अपनी भाषा में ही लिखी जा चुकी हैं। उनके स्कूल-कालिजों में वही किताबें पढ़ाई जाती हैं। उनका शासन भी अपनी भाषा में ही चलता है और कारबार भी। सोवियत ने देखा कि इनकी अपनी भाषा का प्रसार हुए बिना न तो ये जिन्दा रह सकते और न आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए उसने सबसे पहले यही काम किया। आखिर वह सचमुच ही जनता कीµकिसानों और मजदूरों कीµअपनी सरकार जो ठहरी। अतएव वैसा करती क्यों नहीं?

    मगर यहाँ तो हम बेगाने ठहरे और ये झारखंडवासी दूसरे ही हैं। हम तो इन्हें जबर्दस्ती सभ्य बनाने पर तुले बैठे हैंµठोंक-पीट के वैद्यराज बनाने पर कटिबद्ध हैं। फिर हमें परवाह क्या कि किस भाषा में इनकी पढ़ाई होती है? इनकी तो अपनी भाषा असभ्य है और हमें बनाना है इन्हें सभ्य। इसीलिए हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी कोई भी सभ्य भाषा इन्हें पढ़ना ही पड़ेगा! यही है हमारी नीच मनोवृत्तिा का गया गुजरा नमूना और इसी के बल पर हम बाबू जयपाल सिंह के आदिवासी आन्दोलन का मुकाबला करना और छोटानागपुर को अपनी दुम से बाँधा रखना चाहते हैं! निश्चय ही यदि बंगला की पढ़ाई न रहती तो न तो मानभूम वगैरह में ही उतने स्कूल होते और न बाकी जिलों में ही हिन्दी के रहने पर उतने मिलते, जितने पाए जाते हैं! तब तो बिहारियों और बंगालियों को यहाँ की शिक्षा में और भी कोई दिलचस्पी रही नहीं जाती! ये इतने भी स्कूल तो सिर्फ इसलिए पाए जाते हैं कि बंगला, हिन्दी और अंग्रेजी ही इनमें पढ़ाई जाती है। अत: हम तो निस्संकोच यही कह सकते हैं यहाँ के असली निवासी किसानों और मूक जनता को पढ़ाने का कोई भी यत्न नहीं किया गया है और जो कुछ किया गया है वह निरी धोखेबाजी है।

    अकेले दामिने कोह में केवल पहड़िया हैं पूरे साठ हजार। मगर उनके बच्चों के लिए एक भी स्कूल नहीं है! हम नहीं कहते हैं। यह तो सरकारी कमिटी के सरकारी रिपोर्ट कहती है। खूबी तो यह कि दामिन का इलाका सरकारी जमींदारी है। दूसरा जमींदार वहाँ है नहीं और उसी की यह हालत है! चिराग तले ऍंधोरा और क्या हो सकता है? रिपोर्ट ने यों तो हिसाब दिखाने के लिए यहाँ तक कह डाला है कि सरकारी जमींदारी या खासमहाल की कुल आय का एक प्रतिशत और पूरे अठारह हजार रुपए सालाना शिक्षा में खर्च होते हैं! मगर किनके लिए? जो खुद भी पढ़ सकते हैं उन्हीं के लिए? यदि नहीं तो जब वही रिपोर्ट खुद कबूल करती है कि दामिन के बाशिन्दे तो 85 फीसदी कोरे आदि और अत्यन्त पिछड़े हैं'In which is 85 percent aboriginal, which is very primitive.' (page 64). मगर यह हिसाब तो वही मुंशीजी वाला हिसाब है जिसके अनुसार, 'नापे जोखे थाहे। लड़के डूबे काहे?' जरा उसी रिपोर्ट की एक बात और सुनिये जो मजेदार है और जो कही गई है संथालों को ही लक्ष्य करके। मगर वह कमोबेश समस्त छोटानागपुर और संथाल परगना पर ही लागू है। वह यों है'The first essential for the aboriginals is more education.  Until they have advanced in this respect they cannot hope to compete with their Dikku neighbours or improve their own conditions.  The percentage of literacy recorded in the district at the last census of 1931 is very low indeed, being only 2.90 against a provincial average of 5.2.  The figures for aboriginals are even lower. While the percentage of literacy among Dikkus is 4.72 it was only 0.40 among the aboriginals.  The wastage is also abnormal.  For, although the educations returns show that an average of over 13,800 Santal children have attended school annually during the last 15 years the census figures show that there were in 1931 only 3490 literate Santals.' (page 44).

    'आदिवासियों के लिए सबसे पहली जरूरी चीज है वह है अधिक शिक्षा। जब तक वे इसमें प्रगति नहीं कर लेते, न तो अपनी दशा सुधारने की ही आशा कर सकते हैं और न अपने पड़ोसी दिक्कू (प्रगतिशील) लोगों से मुकाबला ही कर सकते हैं। 1931 की मर्दुमशुमारी में जिले में पठितों की संख्या बेशक बहुत ही कम यानी केवल 2.9 प्रतिशत बताई गई जबकि समूचे प्रान्त की 5.2 है। लेकिन आदिवासियों के ऑंकड़े तो और भी नीचे हैं। जहाँ दिक्कुओं में पढ़े-लिखों की संख्या प्रतिशत 4.72 है तहाँ आदिवासियों की सिर्फ .4 यानी ढाई सौ में एक है! बेकार खर्च भी असाधारण है। क्योंकि यद्यपि शिक्षा सम्‍बन्‍धी रिपोर्टों के ऑंकड़ों से पता चलता है कि गत 15 साल के भीतर औसतन 13800 संथाल लड़के हर साल स्कूल में जाते रहे हैं। तथापि 1931 की मनुष्य गणना के अंकों से पता चलता है कि उस साल सिर्फ 3490 संथाल ही कमोवेश पढ़े-लिखे थे!'

    जैसा कि पहले कहा जा चुका है, संथाल परगना शिक्षा में झारखंड के और जिलों से पीछे नहीं है। किन्तु उनके मुकाबले का ही है। यदि राँची और मानभूम से कुछ पीछे है, तो सिंहभूम, हजारीबाग और पलामू से कहीं आगे है। इसलिए सब मिला के औसतन उनसे कुछ न कुछ आगे ही माना जा सकता है। उनके बराबर तो हर हालत में ही है। ऐसी दशा में यदि यहाँ आदिवासियों के अक्षर ज्ञान (literacy) की यह हालत है कि पूरे ढाई सौ में से केवल एक ही पढ़ा हैअक्षर कट्टू अक्षरज्ञ है तो छोटानागपुर की औसत तो इससे भी गिरी यानी प्राय: तीन सौ में एक ही अक्षर कट्टू मिलेगा! विपरीत इसके बिहार की औसत करीब सवा पाँच प्रतिशत बताई गई है। यह तो जमीन आसमान का अन्तर हो जाता है! बिहार की अपेक्षा छोटानागपुर (झारखंड) पढ़ने-लिखने इस हिसाब से पन्द्रहवाँ हिस्सा है झारखंड से बिहार पन्द्रह गुना बढ़ा है! यह है शिक्षा की असलियत!

    पहले जो चौथाई वाला ऑंकड़ा दिखाया गया था उसकी असलियत का पता अब चल जाता है। हमने तो वहाँ भी कहा था कि प्रगतिशील जातियों को निकाल देने पर आदिवासी किसानों की दशा बहुत पीछे पड़ जाएगी। उसका रहस्य अब मालूम हो गया। हमने जो अभी बिहार को झारखंड से पन्द्रह गुना आगे बताया है वह सूमूचे प्रान्त की बात है। क्योंकि समूचे सूबे की, जिसमें झारखंड भी शामिल है, औसत 5.2 है। मगर अगर सिर्फ बिहार के दस जिलों से ही शेष इन छह का मुकाबला करें और इनमें से भी बढ़ी जातियों को उन दस जिलों में ही शामिल करके केवल आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के ही साथ शेष सबों का मिलान करें तो बहुत ज्यादा फर्क हो जाएगा और शेष सबों की अपेक्षा ये लोग पच्चीसवाँ भाग ही पढ़े-लिखे या अक्षर कट्टू सिद्ध होंगे! यह है कठोर और अप्रिय सत्य।

    देखने से चौथाई के करीब और असलियत में पच्चीसवाँ हिस्सा! ऐसा क्यों? इसका उत्तर कहा जा चुका है कि और जातियों के साथ मिला देने पर चौथाई प्रतीत होता है। मगर दरअसल इन्हें जो अपनी मातृभाषा में शिक्षा नहीं दी जाती है उसी का यह भयंकर नतीजा है कि स्कूल जा के भी इनके बच्चे कुछ पढ़-लिख नहीं सकते। उनके माथे पर पहाड़ पड़ जाता है। एक तो अस्वाभाविक चीज में उनका मन नहीं लगता। दूसरे बहुत ज्यादा परिश्रम करने की जरूरत होती है। तीसरे ये खुद पिछड़े हैं और इनमें उसके लिए पढ़ने के लिए लगन और रुचि पैदा करने की जगह विदेशी बेगानी भाषा पढ़ने के लिए इन्हें मजबूर किया जाता है। यही बात संथाल परगना की कमिटी की रिपोर्ट में बेकार खर्च या बरबादी (wastage) कहा है। यह न सिर्फ पैसे की ही बरबादी है, बल्कि उनके देह, दिमाग और सबों के परिश्रम की भी। सारी चीजें बेकार चली जाती हैं और नतीजा होता है निहायत ही हानिकारक। क्योंकि इसका बुरा असर उन बच्चों पर पड़ता है। अफसोस है कि इस मोटी सी बात को हमने आज तक नहीं समझा। रिपोर्ट के लेखकों ने भी, जिनमें बहुतेरे जबावदेह कांग्रेसी हैं, यह बात लिख के भी ठीक समझी नहीं। नतीजा सामने है।

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