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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें

(7) कमिया के कष्ट और सूदखोरी की लूट 

झारखंड के खेतों के मजदूरों की, जिन्हें कमिया भी कहते हैं, भी बड़ी दुर्दशा है। पलामू जिले में इन्हें बहुत जगह सेवकिया कहते हैं। सेवकिया शब्द 'सेवक' से बना है और सेवक का अर्थ है आमतौर से गुलाम। कमिया भी 'काम' से बना है। काम के मानी हैं वही सेवा या सेवकाई। बिहार में तो आमतौर से कमिया शब्द ही प्रचलित है। मानभूम और हजारीबाग में अकसर कमिया की जगह मूनिस और घरभतुआ भी कहा जाता है। मगर मूनिस और घरभतुआ में थोड़ा फर्क है। दोनों सोलह आना एक-से नहीं हैं। जो लोग थोड़े ही समय के लिए (temporary) रखे जाते हैं उन्हें आमतौर से मूनिस कहते हैं। लेकिन जो ज्यादा दिनों के लिए रखे जाते हैं उन्हें आमतौर से घरभतुआ कहा जाता है। मुनिस शब्द कैसे बना पता नहीं चलता है। मगर घरभतुआ तो साफ है। उन्हें अपने यहाँ रखनेवाले घर पर ही भात खिलाते होंगे। इसी से घरभतुआ कहाए। क्योंकि रात में चाहे सोने के समय घर भले ही चले जाते हों। मगर दिन-भर तो मालिक के यहीं रहना जरूरी था। इसलिए वहीं भात खाते थे। अब चाहे यह बात न भी हो। मगर शुरू में यही रही होगी। दूसरे-दूसरे नाम भी प्रचलित होंगे। सबों की जानकारी हमें है नहीं। उसकी जरूरत भी नहीं है। हमें तो नमूने के तौर पर कुछ नाम कह देने हैं। चीज तो सर्वत्रा एक-सी है। क्योंकि कमिया की प्रथा, जिसे कमिऔती कहते हैं, बिहार में और दूसरे नामों से अन्य प्रान्तों में भी है। इसका ज्यादा विचार हमने 'खेत-मजदूर' में किया है।

    अब जरा सेवकिया की बात पहले सुनिए। यह ठीक है कि झारखंड में जो जमींदार, बनिए या दूसरे सभ्य कहे जाने वाले बाहरी लोग हैं उन्हीं के यहाँ सेवकिया, कमिया, मूनिस, घरभतुआ वगैरह पाए जाते हैं। यहाँ के असली किसानों या आदिवासियों के यहाँ एक भी कमिया न मिलेगा। हाँ, जो अब सभ्य हो रहे हैं और जमींदार या भारी खेतिहर बने हों उनकी बात हम नहीं कहते। वे हैं तो कहीं-कहीं एकाधा ही। वे लोग ऐसा पाप कर सकते हैं। आखिर सभ्य जो हो गए हैं!

    हालत यह है कि विवाह शादी या किसी भोज वगैरह के मौके पर किसी गरीब को जमींदार, बनिया या ऐसे ही लोगों ने कुछ थोड़े से रुपए कर्ज दिए जो भोजभात में खर्च हो गए! मगर उन्हीं रुपयों के लिए वे जन्म-भर के लिए गुलाम बन गए। खाना कपड़ा पाते हैं और जीवन-भर गुलामी करते हैं। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि बाप के मरने पर बेटा भी गुलाम बना लिया जाता है। जिन्दगी-भर कमाते रहने पर भी यह दस-बीस रुपए का मामूली कर्ज चुकता नहीं होता! यदि कहीं पचास साठ हुआ, तब तो आफत ही समझिए! यह तो खामख्वाह बेटे-पोते के सर पर भी चढ़ता ही है। हाँ, पाँच, दस-बीस हो तो शायद जिन्दगी-भर में फारखती हो जाए! सो भी कर्जदाता की नजरे इनायत पर ही यह बात निर्भर है। उसका सूद वह नहीं लेता यही गनीमत है! जिन्दगी-भर में फारखती हो गई तो उसे धान्यवाद दीजिए! बड़ा ही उदार आदमी ठहरा! अगर न हुई तो मरिए! कमिया को रद्दी खाना-कपड़ा ही देते हैं। यह ठीक है कि घोर देहातों में और जंगलों में ही सेवकिया या कमिया पाए जाते हैं। क्योंकि वहाँ आवाजाही का साधान न होने के कारण कोई छेड़छाड़ जो नहीं करेगा और सेवकिया पशु की तरह चुपचाप पड़ा रहेगा।

    मूनिस तो मामूली मजदूर की तरह रहता है और काम न रहने पर चला जाता है उसे टरका देते और जवाब दे देते हैं। उसकी मजदूरी क्या है एक सेर कच्चा चावल और तीन सेर धाान या दूसरा अन्न! बस! बड़ी तकलीफ से उसका और बाल-बच्चों का काम चलता है। चावल की जगह कभी चिउड़ा भी देते हैं। यह है तो नाश्ता के लिए और धान या दूसरा अन्न होता है भोजनार्थ। एक के ही भोजन से दूसरों की भी गुजर कैसे हो?

    हाँ, घरभतुआ को रोज खाना-कपड़ा के अलावा दस से चौदह मन तक धाान भी साल में देते हैं। आषाढ़ से माघ तक ही ज्यादातर उसे रहना पड़ता है। बीच में जब कहीं कोई काम नहीं रहता तो उसे भी कभी-कभी छुट्टी मिल जाती है। असल में ये घरभतुआ और मूनिस तो खेती के ही मजदूर और गुलाम हैं जिन्हें पहले सर्फ (serf) कहते थे। ये लोग तो मामूली गुलाम या बिहार के खवास हैं नहीं। इसीलिए खेती का काम न रहने पर इन्हें छुट्टी मिल जाती है और शुरू होते ही घरभतुआ फिर आ जाता है। उसके साथ ऐसा ही तय रहता है। मगर मूनिस तो खामख्वाह आएगा नहीं। दिल चाहा तो आया और काम मिला तो रह भी गया। यदि और जगह मिला तो वहीं चला गया। जहाँ जरा भी ज्यादा आराम मिलता है वहीं चला जाता है। इसीलिए मूनिस और घरभतुवा को आमतौर से कोई कर्ज नहीं रहता है। मगर सेवकिया और कमिया तो कर्ज में ही फँसा रहता है। वही तो पक्का गुलाम है। बेशक कमिया सर्फ है। मगर सेवकिया तो पक्का स्लेव (slave) है। इन सबों की भारी दुर्दशा है इनका जीवन नारकीय है।

    अब जरा सूदखोरी की बला तो देखिए। सीधो-सादे किसानों से काइयाँ सूदखोर शुरू में ही पूछते हैं कि 'कै सूद देवहीं?' कितने सूद साल में देगा? दो या तीन? वह कहता है कि ''कतै लेबहू सरकार।' आप कितना लेंगे? यदि बड़ी दया हो गई तो दो, नहीं तो तीन तो खामख्वाह और हो सका तो ज्यादा भी। हर तीसरे-चौथे महीने सूद जोड़ के उसे मूल में मिला देना और इस मिले हुए पर सूद चालू करना यही दो सूद के मानी हैं। यदि तीन हुआ तो हर तीसरे-चौथे महीने सूद को मूल में मिलाते जाएँगे। जब तक साल के भीतर ही दो बार मिलाके उस पर तीसरी बार सूद चढ़ाने न लगें। चार होने पर साल के भीतर ही चौथी बार चढ़ने लगता है! यह है चक्रवृध्दि या सूद दर सूद का यह कितना भयंकर तरीका और प्रचार है! क्या ऐसी लूट झारखंड के सिवाय कहीं और भी आज सम्भव है? ऐसे भी नमूने देखने को पलामू वगैरह में मिले हैं, जहाँ नन्हे-नन्हे बच्चे बाप के मरने पर कर्ज देने वाले के यहाँ दिन-रात काम करने और डाँट-डपट सहने या मारपीट तक करवाने को मजबूर किए जाते हैं। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक बिना जमीन वाले किसान को एक ने पाँच पसेरी मकई और आठ पसेरी जटंगी दी। दोनों की कीमत कुल तीन रुपए होती थी। उसके लिए उसने लगातार तीन साल उस पापी सूदखोर के यहाँ काम किया। मगर कर्ज चुकता होने के बजाए बढ़के पूरा सोलह रुपया हो गया ! जोड़ने वाले जोड़े कि साल में कितने सूद उसने लिये और दर क्या थी? शायद महीने-महीने ही सूद जोड़ा गया और दर थी कई सौ फीसदी! तभी तो काम करवाने पर भी तीन के सोलह हो गए? उसने तो काबुली सूद की भी नाक काट ली! खैर, पता लगने पर हमारे साथी ने डाँट-डपट के उस पिशाच से किसान का पिंड किसी तरह छुड़वाया।

    ये सूदखोर होते हैं यों तो गाँवों और शहरों के बनिए। मगर शोषक गृहस्थ और टुटपुँजिए जमींदार भी यही पेशा करते हैं। इनके अलावा काबुली, गोसाईं, मुसलमान, पंजाबी, कान्यकुब्ज, भूमिहार, मारवाड़ी और अग्रवाल बनिए भी यह काम झारखंड के विभिन्न जिलों में यही कारबार करते हैं। राँची जिले में तो बिहार से गोसाईं और ब्राह्मण भैंसा (काड़ा) बेचने आते हैं। क्योंकि भैंसे हल में जोते जाते हैं। वही लोग उन्हीं रुपयों को सूद पर लगा के चले जाते और फिर समय पर आके सूद दर सूद के साथ वसूलते हैं। ये लोग घर-घर घूम के दो-चार रुपए ही कर्ज देते हैं। ज्यादा देने में वसूली में खतरा रहता है। सूद भी कस के नहीं मिल सकता। दो-चार रुपयों का तो जितना भी सूद चाहे वसूल कर सकते हैं। आदिवासी किसान ज्यादा रुपए लेते भी नहीं। बीज आदि के लिए समय-समय पर दोई चार से इनका काम निकलता है। गोसाईं और ब्राह्मण लोग उन्हीं के यहाँ खाते-पीते भी हैं और रुपए लेके भिखमंगे के रूप में माँगते-खाते वापस जाते हैं। धरना देके और डरवा धामका के भी जल्दी ही वसूल कर लेते हैं। भोले-भाले किसान इनसे डरते भी हैं। वे ईमानदार भी पूरे होते हैं और वचन के भी पक्के। इसलिए वसूली में देर तो यें भी नहीं होती।

    हाँ, गोसाईं, काबुली और पंजाबी तो बड़ी सख्ती और बेमुरव्वती से वसूली करते हैं। ये पापी ताक में रहते हैं। ज्योंही मजदूरों को वेतन मिला, मजदूरी मिली, या किसान के गल्ले वगैरह बिके कि इनने छापा मारा और बेरहमी से छीन ही के छोड़ा। छप्परों पर लाठियाँ पीटते भी हैं। मार-पीट भी कर डालते हैं। इनकी वसूली तो निरी लाठियों के ही बल से होती है। पंजाबी कपड़े बेचने आते और काबुली हींग वगैरह भी बेचते हैं। उधाार बेच के एक के तीन कुछी महीनों में बना लेते हैं! बेचारे किसान को क्या मालूम कि ऐसा होगा। इसीलिए जब वसूली में देर होती तो मार-पीट, लट्ठबाजी, छप्पर पीटना जारी होता है।

    सूद की दर आमतौर से महीने में एक से दो आना होती है। यह बात सभी जिलों में पाई जाती है। यों तो चार, छह और आठ आने तक भी हो जाया करता है। किसान की गरीबी और गर्ज के मुताबिक ही सूद की दर तय पाती है और वसूलने वालों की ताकत भी इस दर का फैसला करने में काफी मदद करती है। क्योंकि लिखा-पढ़ी तो कुछ होती नहीं। जितना वसूल कर सके उतना ही समझिए। कानून और कचहरी की बात तो है नहीं। हाँ, राँची और पलामू में ज्यादातर गल्ले के बारे में और रुपए के बारे में भी बढ़ी या बाढ़ी और डेढ़ी का तरीका है। बढ़ी का अर्थ है मूल का दूना और डेढ़ी की मानी है उसका डयोढ़ा। ज्यादा से ज्यादा छह महीने में, नहीं तो उससे कम तीन चार में सूदखोर एक का डेढ़ जब वसूलते हैं तो उसे डेढ़ी कहते हैं। और अगर उनने एक का दो वसूल कर लिया तो बढ़ी या बाढ़ी समझिए। डेढ़ी मालूम होता है, आम चीज है। इसीलिए उससे बढ़ जाने के कारण ही दूने को बढ़ी या बाढ़ी कहते हैं।

    हजारीबाग, मानभूम वगैरह में मारवाड़ी, दुकानदार, अग्रवाल बनिए और पंजाबी तीनों ही चीजें बेचते और पैसे कर्ज पर लगाते हैं। सौ में पंजाबी 10, अग्रवाल 60 और मारवाड़ी 30 हैं। पंजाबी, गोसाईं और काबुली का अनुपात 40:40:20 है। मारवाड़ी और अग्रवाल खेती भी करने लगे हैं। बाकी तीन खेती नहीं करते। यही आम बात है। मगर मारवाड़ी वगैरह छोटे-छोटे खेतिहर। बड़े-बड़े खेतिहर कान्यकुब्ज और भूमिहार हैं। ये दुकानदारी नहीं करते। गल्ला और रुपया सूद पर देते हैं। ज्यादातर गया जिले के मुसलमान सौदागर के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये खेती तो शायद ही करते हैं। कपड़ा बेचते और रुपया सूद पर देते हैं। कहीं-कहीं यजुर्वेदी या और लोग भी यह काम करतेहैं। यही है संक्षेप में यहाँ के सूदखोर। अब जरा इनकी करतूतों का संक्षिप्त ब्योरा सुनिए।

    जो लोग कपड़े या अन्न आदि की दुकानें करते हैं और उनके पास संथाल वगैरह खरीदने जाते हैं तो बिना पैसा चीजें देते हैं और दो या तीन सूद की बात तय करके बही में असली दाम का डयोढ़ा लिख लेते हैं। मूल और सूद वसूली के लिए कहते हैं कि अन्न ही देना। डेढ़ रुपए में आठ आने के तीन अन्न तय कर देते हैं कि जनेरा (मकई), मड़घवा और कोदो बीस-बीस सेर देना। यह बीस सेर मनमाना ही होता है, न कि कोई बाजार दर के अनुसार। संथाल बेचारा क्या समझे? आषाढ़ में यह बात तय पाई तो पहली वसूली अश्विन में, दूसरी पूस-माघ में और तीसरे फागुन-चैत में होती है। जिन वसूली के समय कुछ न मिला उसी में सूद और मूल को मिलाके मिले हुए पर आगे सूद चलेगा। अश्विन में न मिलने पर मूल डेढ़ और सूद डेढ़, कुल तीन रुपए हो गए। इसी तरह माघ में तीन के छह और चैत में बारह बने। सूद बढ़ाने के लिए ही किसान के देने पर भी नहीं लेते! फागुन-चैत के बाद जो सूद लेते हैं उसे धाुरिकारी कहते हैं। हाँ, जो लोग कर्ज पर रुपए देते हैं वे हर महीने मारपीट से, छप्पर पीट के या जैसे हो सूद वसूल करी लेते हैं। क्योंकि यह तो गैर-कानूनी है। अदालतें तो ऐसा सूद दिलाएँगी नहीं।

    कान्यकुब्ज और भूमिहार वगैरह की यह हालत होती है कि कर्ज देने के बाद दो-चार साल चुप रहते हैं। छोड़ देते हैं। पीछे दस-बीस गुना हो जाने पर सारी जमीन लिखवा के किसान को कमिया या मूनिस बना लेते हैं। एक ही जमा को बही पर भी सूदखोर लोग लिखते हैं और हैंडनोट भी बनवाते हैं। फलत: एक ही जमा दो हो जाती है। जिसका खेत नीलाम करवाया उसी के हल बैलों से उसी के हाथों जोतवाते बुवाते हैं। अपने पास तो दोई चार हल रखते हैं। यदि बेगार में काम करवाते एक वक्त सिर्फ खाना दे देते हैं हल बैल सभी के बदले में, और अगर कमिया बना के करवाते तो कही चुके हैं कि एक सेर चावल और दो सेर धान बहुत है। कमिया को यदि बीच में एक मन धान फिर कर्ज दिया तो वही धान दस वर्ष में पचास- साठ बन जाता है! यों भी मैंने किसानों के मुँह से डुमरी (हजारीबाग) में सुना कि एक मन का पूरा अस्सी मन बन गया! यदि उसे थोड़ी सी बँटाई जमीन दी, तो जमीन वाले का आधो से लेकर दस आने तक उपज में हिस्सा हो गया और किसान का छह आना! यों भी जमींदार लोग धान की खेती जगह-जगह खूब करते हैं। मौजों पर उनकी कचहरियाँ होती हैं जिन्हें भंडार कहते हैं। किसानों के हल बैलों से पहले जमींदार की खेती हो लेती है। पीछे किसान की होती है या यों कहिए कि चौपट होती है। पटाने का जल भी पहले जमींदार ही लेते हैं। पीछे बचने पर ही किसान पाते है! दृष्टान्त के लिए कतरास के पास नवागढ़ के जमींदार राजा नीलकंठ नारायण सिंह का भंडार लालूडीह में है। वहाँ किसानों की खेती पहले हो पाती नहीं। ऐसा ही सर्वत्रा होता है।

    सूदखोर लोग किसानों को कैसे उजाड़ते हैं इसके दो-चार प्रसिद्ध दृष्टान्त हजारीबाग और मानभूम के सरहदी इलाकों से दे के यह दु:ख गाथा खत्म करेंगे।

    (1) पीरटांड (हजारीबाग) थाने के खुखरा मौजे के दुलारचन्द साहू ने उसी थाने के गम्हरा मौजे के खांडेमाझी को कुछी रुपए कर्ज दिए। पीछे गम्हरा और जितपुर गाँवों की तीन सौ मन सालाना धान उपजाने वाली सारी जमीन साहू ने नीलाम करवा लीं। खांड़े के मरने पर उसकी स्‍त्री से झूठ-मूठ कह के जमीनें नीलाम कराई। अब स्‍त्री और तीन बच्चे मारे-मारे फिरते हैं।

    (2) दुलारचंद ने ही गम्हरा के जीतू मांझी की ढाई सौ मन धान वाली जमीन भी नीलाम करवा ली यों ही मामूली रुपयों के लिए। वह जीतू तीस साल का है। मारा फिरता है।

    (3) दुलारचंद ने ही गम्हरा के मंगर महतो से 60 रुपए लेके एक जमीन जोतने को दी। कुछ दिनों बाद जमीन ले ली और रुपए भी वापस नहीं देता। वहीं की दो मुसमातों के साथ भी उसने ऐसा ही किया है।

    (4) मानभूम जिले के तोपचांची में कपड़े और चावल की दुकान करने वाले श्री त्रिालोक सिंह पंजाबी उसी तोपचांची थाने के गनेसपुर के मंगरामांझी की डेढ़ सौ मन धान की जमीन नीलाम करवा ली। मांझी तो भाग के पीरटांड के केंहुवारी मौजे में ससुराल में चला गया। बूढ़ी माँ मारी फिरती है।

    (5) गनेसपुर के ही चूनुमांझी, झरीमांझी और दरबनमांझी की 84 एकड़ लाखिराज जमीन थी। गोविंदपुर थाने के खरनी मौजे के बाबू मनभरन सिंह ने तीन-चार साल हुए सभी जमीन केवल सौ रुपए मूल में ही नीलाम करवा ली। पहले तो इजारा लिखाया। पीछे नालिश और डिग्री कराके नीलाम करवा ली। सिर्फ डेढ़ रुपया शेष उस सारी जमीन का देना होता है। हजार कहने पर भी किश्त करके लेने को राजी नहुए।    यह भी होता है कि यदि माझी किसी से मजदूरी करवाते हैं तो उसे कुछ जमीन भी दे देते हैं और वही एक सेर चावल तथा तीन सेर धान मजदूरी देते हैं। दूसरे लोग तो जमीन देते ही नहीं। सिर्फ दो सेर धान और एक वक्त का खाना देते हैं!

 

(8)काश्तकारी  कानून की दिक्कतें

 संथाल परगना की तो बात ही निराली है। वहाँ तो कोई बाकायदा काश्तकारी कानून अभी तक ही नहीं। कुछ नियम-कायदे और रेगुलेशन पुरानी या फरमान हैं और उन्हीं के आधार पर जो बातें तय पाई हैं उन्हीं के अनुसार वहाँ की जमीनों का इन्तजाम होता है। यह कितनी अन्‍धेर है कि अब तक वहाँ कोई निश्चित काश्तकारी कानून बना ही नहीं। इस कमी को जाँच कमिटी ने भी महसूस किया है और छोटानागपुर के ही ढंग का वहाँ के लिए भी काश्तकारी कानून बनाने की सिफारिश उसने कीहै।     रह गई छोटानागपुर काश्तकारी कानून की बात। उसकी एक ही चीज हमें पसन्द आई। जहाँ बिहार के कानून में खड़ी फसल की जब्ती कुर्की की घृणित धाराएँ मौजूद ही नहीं हैं। किन्तु कांग्रेसी मंत्रियों ने उनकी धार ऐसी पैनी कर दी और उनका प्रयोग इतना आसान बना दिया कि जमींदार लोग किसानों का गला आसानी से साफ कर दें। तहाँ छोटानागपुर में उनने ऐसी दया नहीं की। पहले से भी ऐसी धाराएँ नहीं थीं और उनने भी नये सिरे न जोड़ीं। एतदर्थ उन्हें अनेक धान्यवाद!

    मगर इसी के साथ यहाँ के कानून में जो सर्टीफिकेट या जब्ती कुर्की की खतरनाक धाराएँ पड़ी हैं वह नहीं निकाली गईं! बिहार के कानून से तो वे धाराएँ मंत्रियों को मजबूरन निकाल फेंकनी पड़ी। किसान सभा ने उनकी नाकों दम जो कर दी थी। पर हमें उस समय पता न था कि छोटानागपुर से वे निकाली ही नहीं गईं। असल में यहाँ के जो आदिवासी मेम्बर असेम्बली में हैं वे तो कुछ अजीब-से हैं। वे कांग्रेसी होने के नाते चुप्पी मारे रहे। हमें भी नहीं बताया! या कि, वे यह बात समझी न सके कि यह सर्फीकेट  कौन सी बला है? इसी घपले में यह जहर का प्याला रही गया! ये धाराएँ किसानों की छाती पर बैठी कोदों दल रही हैं। शायद खड़ी फसल की जब्ती-कुर्की की ही जगह सर्टीफीकेट या जब्ती कुर्की को रख के प्रायश्चित्ता किया गया है! जमींदारों को भी तो आखिर खुश करना था!

    मगर इनसे भी बुरी जो चीज हमारी समझ में आई न सकी वह है उस कानून का एक लम्बा 13वाँ परिच्छेद ही, जिसे जमीन सम्‍बन्‍धी शर्तों का अध्‍याय कहते हैं और जिसमें कुल सत्राह धाराएँ हैं। इसे अंग्रेजी में चैप्टर ऑफ प्रीडियल कंडीशंस (Chapter of Praedial Conditons) कहते हैं। इस कानून में जगह-जगह इन शर्तों का जो जिक्र है और इस लम्बे प्रकरण में जो उनका पूरा विवरण दिया और मत्रोच्चार किया गया है उससे स्पष्ट है कि हरी, बेगारी वगैरह गैर-कानूनी काम कह के जिन्हें और जगह पुकारा जाता है और जिनके मिटाने के लिए बड़ा तूफान मचाया गया है वही सब चीजें झारखंड में 'जमीन सम्‍बन्‍धी शर्तों' या 'प्रीडियल कंडीशंस' के नाम से कानूनी करार दे दी गई हैं। अजीब बात है। जिन बातों को अब अबवाब और गैरकानूनी काम कहके और जगह रोका गया है वही यहाँ कानूनी ठहराए गए हैं और उन पर कांग्रेसी मंत्रिायों ने मुहर लगा दी है! जैसे भावली लगान को कानून के जरिए नगद बनाया जा सकता है। ठीक उसी तरह इन शर्तों के बदले जमींदार को नगद रुपए दे सकते हैं और ऐसा करने के लिए डिप्टी कमिश्‍नर के यहाँ भावली की ही तरह दरख्वास्त देनी पड़ती है। ये बातें उन्हीं धाराओं में लिखी हैं और नगद बनाने का लम्बा-चौड़ा तरीका तथा अदालती कार्यवाही विस्तार से वहीं लिखी गई है!

    जैसे संथाल परगना में अभी तक दामिन इलाके में रोड सेस के बदले सड़कों वगैरह की मरम्मत के लिए किसानों से बेगारी करवाने का तरीका था, मालूम होता है यहाँ भी जमींदार लोग पहले किसानों को कुछ खासतौर से ऐसी जमीनें दे देते थे जिनके बदले आहर, पैन, नहर आदि खोद खुदवाने का काम किसानों को ही करना पड़ता था। ताकि उनकी और जमींदारों की भी खेती के लिए पानी वगैरह का पूरा-पूरा इन्तजाम हो सके। जैसा कि बेठखेता की बात पहले कही चुके हैं, उसी तरह और भी जमीनें किसानों को इसीलिए दी जाती होंगी कि जमींदार की खेती में वे लोग मदद कर दें। लगान के बदले उनसे इसी तरह का काम लिया जाता होगा। इसी तरह ये जमीन देने के लिए कुछ खास शर्त तय होंगी, जिन्हें पूरा करने वाले जमीन पाते होंगे। धारा 101(अ) से भी ऐसा ही प्रतीत होता है। सभी जगह पहले ऐसा ही होता था। सामन्त युग की तो यही रीति ही थी मगर आज तो नगद या गल्ले का लगान ठीक करके इस तरह के काम खत्म कर दिए गए हैं। जहाँ जमींदार लोग फिर भी करवाते थे वहाँ कानून के जरिए ये रोक दिए गए हैं। मगर छोटानागपुर में लगान के अलावा ये अभी तक पड़े हैं। हाँ, यदि किसान चाहे तो इनकी जगह नगद रुपए देने की बात तय करके इनसे पिंड छुड़ा ले! खूब है! छोटानागपुर में पुरानी सामन्त युग वाली बेगार (feudal levies) अभी जारी है! यहाँ के एम.एल.ए. लोगों को क्या यह भी नहीं सूझा कि इसे तो खत्म करवा दें? याकि उन पर कोई दबाव था?

    इसी सिलसिले में मुझे एक बात याद आ गई! इस बार जेल में दो झारखंडी एम.एल.ए. लोगों से मेरी बात होते-होते प्रसंग छिड़ा कि यहाँ भावली में अठारह और बाईस के हिस्से की बात कैसी मानी गई! उनने उत्तार दिया दोनों ने ही कि इस बात का कानून बिहार के ही लिए बना था। छोटानागपुर में तो बना नहीं! मैं भौचक में आ गया! पर विश्वास न कर सका और छोटानागपुर के काश्तकारी कानून के पन्ने उलटने लगा! बहुत हैरानी के बाद मेरी नजर 79(अ) और 79(ब) धाराओं पर पड़ी। उनमें तो साफ-साफ वही बातें मिलीं जो बिहार के काश्तकारी कानून में हैं। मैंने उन्हें दिखाया और कहा कि कायमी जमीनों में दानाबंदी का हक अब जमींदार को है नहीं। वह तो पैदावार में से एक मन में 18 सेर से ज्यादा ले सकता नहीं! ऐसा करने पर उस पर केस चल सकता है! वे बेचारे ठक्क से रह गए और कुछ बोल न सके! बोलते भी क्या? जब उन्हीं को यह मालूम नहीं, तो फिर जमींदार क्यों इसके मुताबिक काम करने लगा? फलत: जैसा कि मुझसे कहा गया, छोटानागपुर में कहीं भी जमींदारों ने 18 और 22 का हिस्सा नहीं लिया! उनकी तो 'वही रफ्तार बेढंगी, जो पहले थी से अब भी है।' इसे ही कहते हैं अंग्रेजी कानून का इनसाफ और इसी का दमामा बजाया जाता है।

    इससे किसानों की कितनी हकतलफी हुई इसका एक नमूना सुनिए। ताजे ऑंकड़े तो मेरे पास नहीं हैं। मगर मैं 1917 वाला हजारीबाग का गजेटियर देखता था तो उसके 127वें पृष्ठ में उस जिले की उन जमीनों का ब्योरा मिला जिनका लगाननकद नहीं वसूल होके गल्ले के रूप में मिलता है। वह ब्योरा एकड़ों में यों है :µ(1) खुटकट्टीदार (धानी) 29.15 और (भीठ या बारी) 25.86, (2) सेट्ल रैयत (धानी) 9331.90 और (बारी) 7934.30, (3) कायमी 452.89 और 694.94,
(4) गैरकायमी 815.97 और 1278.60, (5) शिकमी 2084.51 और 3233.37। इस तरह देखा कि धानी और बारी जमीनें कुल मिला के करीब बीस हजार एकड़ निकलीं जिनकी दानाबंदी बन्द हो जानी चाहिए। अब तो बहुत ज्यादा बढ़ी होगी। सिर्फ सात ही हजार एकड़ के करीब गैरकायमी या शिकमी थीं जिन पर 18 और 22 लागू नहीं होता। हो सकता है, वह भी बढ़ी हों। इस तरह किसानों की कितनी हानि और जमींदारों की धाधली होती है कानून की ठीक जानकारी नहीं होने के कारण!

    जमींदार की जिरात या प्राइवेट जमीन के बारे में भी जो 118 धारा है वह ठीक नहीं है। जिस तरह बिहार वाले कानून में यह धारा दी गई है उसी तरह की यहाँ भी क्यों नहीं दी गई? एक तो इस धारा की उपधारा 1(ब) में जो मझिहस और बेठखेता को भी जिरात जमीन करार दिया है, वह ठीक नहीं है। वह तो ज्यादे से ज्यादा बकाश्त हो सकती थी। या नहीं तो किसान की रैयती। उसे जिरात करार देने का कोई उचित कारण नहीं दीखता। इस ढंग की जमीनें बिहार में भी 'जागीर' वगैरह के रूप में मिल सकती हैं जैसा कि पहले कहा है। और अगर वहाँ इन्हें जिरात का कामत नहीं लिखा, तो यहाँ भी लिखा जाना उचित नहीं है।

     दूसरी बात है उपधारा 1(अ) की और यह तो खतरनाक है। उसमें भी पहले वही था जो बिहार के कानून में है। मगर 1920 में जो सुधार किया गया वही खतरनाक है। बिहार के कानून में लिखा है कि वह जमीन पट्टे पर चाहे एक या कई साल के लिए भी दी जाए, फिर भी जमींदार की जिरात ही रहेगी ज्योंही पट्टे की मीयाद पूरी हो जाए। और पट्टे के मानी ही हैं, रजिस्टरी के जरिए लिखा गया पट्टा। जबानी या बिना रजिस्टरी किए कोई भी पट्टेदार कहा जा सकता नहीं। मगर इस कानून में जो 1920 में संशोधान किया गया है कि 'या जो लिखा या जबानी पट्टा एक साल से कम के लिए दिया जाए।' इसमें सबसे बड़ा धोखा यही है कि जबानी या बिना रजिस्टरी के भी पट्टेदार हो सकते हैं और इससे सारा मामला खटाई में पड़ सकता है। उपधारा (2) में जो यह कहा गया है कि सरकार एक तारीख मुकर्रर कर देगी, जिसके बाद एक से ज्यादा साल का पट्टा जबानी नहीं हो सकता, उससे यह बात और पक्की हो जाती है कि जबानी भी पट्टा हो सकता है। इस तरह एक से ज्यादा साल तक जो लोग जमींदार की जिरात को बिना रजिस्टरी पट्टे के ही सिर्फ जबानी ही लेके जोतते रहे हैं उन्हें इस जमीन में इसी कानून की 19वीं धारा के अनुसार कायमी हक नहीं मिल सकता, जबकि शुरू में बनी 118वीं धारा के अनुसार मिल सकता था। दूसरी दिक्कत यह हो गई कि एक साल या कम के लिए जब जबानी या बिना रजिस्टरी का ही पट्टा हो सकता है तो जमींदार किसी को ज्यादा दिन के लिए क्यों रजिस्टरी से देने जाए? ज्यादा से ज्यादा एक-एक साल के लिए देता जाएगा और उसका जिराती हक बना रहेगा। जब रजिस्टरी की शर्त थी तब वह ऐसा कर नहीं सकता था। ऐसा करने पर उसी 19वीं धारा के अनुसार किसान को कायमी हक जो मिल जाता है। इससे साफ है कि जमींदारों के ही फायदे के लिए यह संशोधान किया गया है, जो अनुचित है और कम से कम कांग्रेसी युग में तो यह कलंक मिट जाना चाहता था।

    यह बात जरा पेचीदा है। इसलिए इसका कुछ स्पष्टीकरण जरूरी है। बिहार कानून की 20वीं और छोटानागपुर की 17वीं धाारा के अनुसार मोटा-मोटी यह बात मानी गई है कि किसी मौजे में जो किसान लगातार बारह साल तक खेती करता रहे वह उस मौजे का सेट्ल्ड रैयत या देही किसान माना जाता है। यह जरूरी नहीं है कि वह एक ही जमीन में बारह साल करता रहे, या कायमी में करे। किसी तरह बँटाई वगैरह के जरिए भी किसान के परिवार में बारह साल तक लगातार खेती होती रहना जरूरी है। चाहे एक ही पीढ़ी ने 12 साल किया या दो-तीन ने भी। इससे कोई फर्क नहीं होता। उस परिवार की खेती से ही मतलब है।

    इसके बाद बिहार की 21वीं और यहाँ की 19वीं धारा के अनुसार उस देही रैयत के जोत में जोई जमीन आ जाएगी, चाहे वह जिरात हो या बकाश्त, उस पर उसका कायमी हक हो जाएगा और जमींदार अपनी मर्जी से उसे बेदखल नहीं कर सकता। केवल उचित लगान ले सकता है। जमींदार लोग इसी धारा से बचने के लिए हजार उपाय करते हैं और जालफरेब, धोखाधाड़ी सब कुछ कर डालते हैं। उससे बचने का कानूनी उपाय किसी हद तक जिरात जमीन में होता है और यही बात बिहार की 120वीं तथा यहाँ के कानून की 118वीं धारा में की गई है।

    यह भी जान लेना चाहिए कि जमींदार की जिरात जमीन तो तय है। वह बढ़ नहीं सकती। काश्तकारी कानून पहले पहल बनने के बाद जो पहला सर्वे हुआ था उसमें जाँचने पर जब पता चला कि लगातार बारह साल से जमींदार अपने ही हल बैल से अपनी ही जमीन में खेती करता आ रहा है तभी वह जमीन जिरात लिखी गई। मगर जिसमें जरा भी गड़बड़ी मालूम हुई वह बकाश्त या खुदकाश्त लिखी गई। उसके बाद जो भी जमीन किसी तरह जमींदार के कब्जे में आई है या आती है वह जिरात न हो के बकाश्त ही बनती है।

    अब 19वीं धारा (बिहार की 21वीं) के अनुसार बकाश्त जमीन पर तो देही किसान का हल गया और वह उसकी कायमी हुई। यह ठीक है कि चोरी या बिना पूछे जमीन पर हल नहीं जाना चाहिए और कोई किसान ऐसा करने की हिम्मत भी कैसे कर सकता है। जमींदार मजबूरी से या किसी और कारण से जब किसान को या तो हुक्म देता है, या कम से कम इतना ही करता है कि नीलाम करवाने पर भी किसान के ही कब्जे में छोड़ देता है तभी तो किसान जोतता है। इसलिए उसका कायमी हक हो जाता है।

    लेकिन जिरात जमीन में जरा सी गड़बड़ी है। देही किसान उसे भी जोतते ही कायमी बना लेता है। मगर अगर जमींदार ने रजिस्टरी पट्टे के जरिए किसान के साथ जिरात का बन्दोबस्त कर दिया तो उस पर कायमी हक न होगा और पट्टे की मीयाद के पूरा होते ही जमींदार का उस पर फिर जिरात के रूप में ही कब्जा हो जाएगा। और आमतौर से होता यही रहा है कि बिना रजिस्टरी के ही यों ही जमींदार ऐसी जमीन दे देते रहे हैं। पूछने कौन जाता था? मगर ऐसा करने पर तो खतरा यही है कि किसान की रैयती हो जाएगी। इसी खतरे को बचाने के लिए छोटानागपुर के कानून में ऐसी तरमीम (संशोधान) कर दी गई कि बिना रजिस्टरी वाला या जबानी भी पट्टा माना जाए। नहीं तो कायदा यही है कि पट्टा उसे ही कहते हैं जिसकी रजिस्टरी की जाए। दूसरे ढंग की चीज को पट्टा कह नहीं सकते। हम चाहते हैं कि यह चीज न रहे और यहाँ के तथा बिहार के कानून जिरात के बारे में समान ही रहें।

    हमें यह देखके ताज्जुब हुआ कि जहाँ बिहार के कानून में किसानों को अपनी कायमी जमीन में पेड़, बाँस वगैरह लगाने और इसे काटने का तथा मकान, ईंट, खपड़ा, कुऑं, तालाब घरगिरस्ती के कामों के लिए बनाने का पूरा हक दिया गया है तहाँ यहाँ के कानून में यह बात है नहीं। और संथाल परगनामें तो और भी गड़बड़ है। क्योंकि वहाँ तो कोई काश्तकारी कानून है नहीं। यही कारण है कि बाग वगैरह के लगाने पर जमींदार यहाँ के किसानों को बहुत परेशान करते हैं और न सिर्फ जमीन छीन लेते हैं, किन्तु हर्जाना भी वसूलना चाहते हैं। संथाल परगना के गोड्डा इलाके में तो कांग्रेसी मंत्रिायों के समय में भी ऐसी दिक्कत हुई थी और आखिर पीछे लड़ते-लड़ते हाईकोर्ट से किसान हार भी गए।

    इन चीजों के हकों के लिए बिहार में हमें बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी हैं। यह तो बहुत ही प्रसिद्ध बात है। तब कहीं जाके यह हक हासिल हो सका है। बिहार प्रान्तीय किसान सभा का जन्म ही इसी बात को लेकर हुआ था। मगर अफसोस कि सूबे के एक हिस्से के किसानों को जहाँ यह हक मिला है तहाँ उसके दूसरे पूरे आधो हिस्से को अब तक इस हक से महरूम रखा गया है। यह तो निहायत ही अनुचित है। हमने इस कानून को अच्छी तरह पढ़ा न था। इसी से हमें इसका पता ही न था। यह नहीं कि छोटानागपुर वालों को या संथाल परगनाको इसकी जरूरत ही नहीं है। जरूरत तो ऐसी है कि कुछ पूछिए मत।

    मनीआर्डर से लगान भेजने की बात में भी यहाँ दिक्कत है। बिहार के और यहाँ के भी कानून में पहले भी यह बात मानी गई थी कि किसान मनीऑर्डर से भी जमींदार के पास लगान भेज सकता है। कभी-कभी जमींदार लगान लेते ही नहीं और किसान को दिक करना या चुपके से बाकी लगान की नालिश और डिग्री कराके जमीन ही छीनना चाहते हैं। लेते भी तो रसीद नहीं देते। इसीलिए मनीऑर्डर से भेजने का हक किसान को दिया गया था।

    मगर फिर गड़बड़ी चली। ऐसा होता कि वे मनीऑर्डर लौटा देते और नालिश ठोक देते। यदि किसान मनीऑर्डर का कूपन पेश करता तो उसे जाली ठहराते। फलत: डाकिए या पोस्टमैन की गवाही की जरूरत होती और यह काम किसान के लिए असम्भव सा हो जाता। पोस्टमैन कौन है, कहाँ है, आए न आए, उस पर जमींदार दबाव डाले, कहीं दूर बदल के चला गया, वगैरह दिक्कतें थीं। इसीलिए आन्दोलन हुआ। जिसके फलस्वरूप बिहारी कानून में तो 54वीं धारा में उपधारा (3) जोड़ दी गई। मगर यहाँ की 53वीं धारा में, जिसमें मनीऑर्डर की बात है, कुछ नहीं जोड़ा गया! यह अजीब बात है! उसके जोड़ने से यह हो गया कि कूपन पेश करने से ही काम चल जाता है! पोस्टमैन की गवाही साखी की जरूरत नहीं होती।

    बकाया लगान की तमादी के लिए जो 231वीं धारा में एक साल की ही मीयाद रखी गई है वह तो अच्छी है। बिहार में भी भावली के लिए ऐसा ही है। मगर नगदी के लिए जो वहाँ तीन साल की मीयाद है वह ठीक नहीं है। संथाल परगनाकी जाँच कमिटी ने जो दलीलें, वहाँ के प्रधानों और उन्हीं के द्वारा किसानों की तबाही बचाने के लिए, एक ही साल के बाद तमादी होने बारे में 56वें पृष्ठ के 150वें लम्बे पैराग्राफ में दी हैं वही सर्वत्रा लागू हैं और हम सरकार तथा जमींदारों से कहेंगे कि फिर से सोचें और हमारी बातें ठीक गुजरेंगी। इसलिए इस मामले में यहाँ का कानून अच्छा है। मगर अफसोस यह कि कुछ दूर बाद 234वीं धारा में मुंडारी खुटकट्टीदार के लिए न जाने क्यों तीन साल की मुद्दत कर दी गई है। हमारे जानते यह बात गलत है और मिट जानी चाहिए।

    यहाँ के कानून की 60वीं धारा में लिखा गया है कि किसान के खेत की पैदावार में सबसे पहले (first charge) लगान ही का हक होता है। यही बात बिहार के कानून की 64वीं धारा में भी है। मगर इससे क्या? हम इस चीज के सख्त दुश्मन हैं। यह तो सिध्दान्त ही गलत है। मुनासिब तो यह है कि पैदावार में सबसे पहले खर्च कटे और उसके बाद किसान परिवार के खाने-पीने वगैरह की बात आए। लगान का सवाल तो उसके बाद ही उठना चाहिए। कोई भूखे-नंगे रहके लगान चुकाएगा नहीं और न सरकार या जमींदार ही यह बात साफ-साफ स्वीकार करने की हिम्मत कर सकते हैं। मगर खेती का खर्च तो उससे भी पहले आता है। वह तो अनिवार्य है। वह तो पैदावार के पहले से ही शुरू हो जाता है। ऐसी दशा में जो वस्तुस्थिति है उसी को कानून में भी कबूल क्यों नहीं किया जाता? और अगर नहीं, तो साफ-साफ वहीं लिख क्यों नहीं दिया जाता कि भूखे, नंगे और दवा के बिना मरके भी लगान चुकाना ही होगा? बात बोलना दूसरी। मगर मतलब उसका यही हो। यह बात यह तरीका धोखे का है। इसी से छोड़ना पड़ेगा।

    यह ठीक है कि झारखंड के असली किसानों आदिवासियों तथा पिछड़े लोगों के बारे में काश्तकारी कानून में शर्त दी गई हैं जिनके करते दूसरे लोग आमतौर से इनकी जमीनें खरीद नहीं सकते और न इजारा या रेहन वगैरह में ही ले सकते हैं। इनकी अपनी बिरादरी और दल के ही लोग, सो भी उसी थाने के ही ले सकते हैं और वह भी पाँच, सात या ऐसे ही सीमित समय के ही लिए। उसके बाद ज्यादातर जमीनें पुनरपि किसानों के पास लौट जाने का भी नियम है। यह बात तो ठीक ही है। मगर क्या इन शर्तों का जो लक्ष्य है वह पूरा होता है? उद्देश्य तो यही है कि जमीनें किसानों के हाथ से बनियों या धानियों के पास या बाहरियों के पास जाने न पाएँ। मगर क्या ऐसा होता है? इस समय मेरे कागजात नहीं हैं कि ऑंकड़े पेश करके बताऊँ कि यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है, नहीं हो रहा है।

    बीसवीं सदी के शुरू में ही इसी खयाल से पंजाब में किसानों की जमीनें बेचने का कानून (Land Alienation Act) बना। उसमें भी कुछ ऐसी ही शर्त लगाई गईं ताकि किसानों की जमीनें गैर-किसान खरीद न सकें। मगर नतीजा क्या हुआ? क्या मकसद पूरा हुआ? हर्गिज नहीं। जाल फरेब और बेनामी तरीकों से एक तो गैर-किसानों ने फिर भी जमीनें हड़प ली हीं। दूसरे किसान ही दूसरों की जमीनें खरीद-खरीद करके बनिए-महाजनों से भी खतरनाक बन गए। आखिर बनिए-महाजनों के सींग-पूँछें तो होती नहीं। वे भी तो यही करते हैं और ऐसा करते ही करते पीछे चलके खतरनाक बने, बनिए-महाजन बने। शुरू में तो कोई भी बनिया-महाजन था नहीं। फिर किसान भी क्यों न वैसे ही बन जाय? इसीलिए तो अब इधार फिर चार-चार कानून पंजाब में हाल में बनाए गए हैं जिससे जाल फरेब रुके। मगर उनसे भी कुछ होगा क्या?

    असल में जड़ को तो पकड़ा जाता नहीं। किसान जमीनें बेचता है क्या शौक से? जो ऐसा समझते हैं वह भूलते हैं? जिन जमीनों पर उसकी पुश्तें मरखप गईं, जिनके खून को उनने पानी बना डाला, क्या उनसे ही उन्हें मुहब्बत नहीं होती? होती तो है ऐसी कि एक इंच के जाने पर उनका कलेजा कट जाता है। मगर करें क्या? मजबूरी जो ठहरी। माली हालत उन्हें मजबूर करती है। आखिर पेट और तकलीफ से मजबूर हो के कलेजे के टुकड़े निजी बच्चों को भी तो लोग बेचते ही या मार डालते ही हैं। बस यही बात यहाँ भी समझिए। उनकी माली हालत सुधार दीजिए, उसे सुधारने की मुनासिब तरकीब कर दीजिए। फिर देखिए कि जमीनें बिकती हैं या रुकती हैं। उसके बाद जरूरत देख के बेचने वगैरह पर पख लगाइए तो ठीक होगा। इसे ही जड़ को पकड़ना कहते हैं।

    लेकिन इधर तो फिक्र है कि जमींदार को खामख्वाह लगान मिले चाहे फसल मारा ही क्यों न पड़े, किसान परिवार भूखा नंगा ही क्यों न मरे (लगान तो फर्स्ट चार्ज होगा)। तब तो हजार करने पर भी जमीनें चली ही जाएँगी। जब जमींदार को फिक्र होगी कि पैदावार बढ़े तभी लगान पाएगा तो वह खुद अच्छे बीज, सुन्दर खाद और काफी पानी वगैरह का प्रबन्ध करेगा। उसे और सर को भी तभी चिन्ता होगी कि किसान के लिए खेती के सिवाय दूसरी आय का भी प्रबन्ध हो, ताकि उसकी माली हालत सुधारे और लगान चुकता करे। यही है जड़ को पकड़ना। क्या सरकार ने, जमींदारों ने या नेताओं ने ईमानदारी से यह बात कभी सोची है? क्या उनने इसकी कोशिश तहे दिल से की है? जमीन तो नीलाम न हो। मगर सारी की सारी खड़ी फसल जब्त हो जाए, नीलाम हो जाए यह तो और भी बुरा है। इसीलिए न तो पंजाब में सफलता मिली और न दूसरी जगह। फसल का खाने-पीने भर का हिस्सा तो कभी नीलाम या जब्त होना ही नहीं चाहिए। इस ओर थोड़ा सा ध्‍यान यू.पी. में गया है और जब्ती के कानून कुछ ऐसी पंख लगी है। मगर वह भी अधूरी है। देखते हैं झारखंड में भी पैदावार से ही लगान चुकता करने की बात बार-बार कही गई है। यह नहीं सोचा गया है कि किसान परिवार खाएगा क्या? असल में जिन चीजों से परिवार की गुजर हो उन्हें तो खुदा भी ले नहीं सकता, यही नियम-कानून बने तभी काम चल सकता है। दूसरा उपाय है नहीं।

    यहाँ के कानून की 58वीं धारा में एक सुन्दर बात है। मगर उनमें जो थोड़ी सी कमी है वह यदि पूरी कर दी जाए तो वह बहुत ही अच्छी चीज हो जाए। उसमें लिखा है कि यों तो बकाया लगान पर आमतौर से रुपए में एक आना सूद साल में देना होता है। मगर अगर साल खत्म होने के पहले ही किसान लगान चुका दे तो किस्त बीतने के बाद जो सूद उससे लिया जाएगा वह रुपए में दोई पैसा सालाना की दर से होगा। बिहारी कानून में यह दो पैसे वाली बात नहीं है। इसी से यह उससे अच्छा है। मगर असल में होना यह चाहिए कि साल के भीतर चुका देने पर सूद एक पैसा भी नहीं लगेगा। सूद लगेगा साल के बाद ही। हमारा मतलब साफ है। साल-भर तक किसान को मौका दिया जाना चाहिए कि लगान चुकता कर दे। उसके बाद केस से या जैसे हो वसूली का यत्न होना चाहिए। कम में तो करना ही नहीं चाहिए। देर भी नहीं होने दी जाए। क्योंकि दो-तीन साल के बकाया में वह तबाह हो जाता है। क्योंकि रकम बहुत बड़ी हो जाती है जिसे वह आसानी से चुकता कर नहीं सकता।

    हमने जो कुछ छोटानागपुर के काश्तकारी कानून के बारे में या यों कहिए कि समूचे झारखंड के ही कानून के सम्‍बन्‍ध में लिखा है वह खास-खास बातों को ही लेकर है। ये बातें ज्यादा मोटी हैं और आमतौर से सबों को खटकती हैं। यों तो बहुत सी बातें हैं जिन पर लिखने और जिन्हें सुधारने की जरूरत है। मगर हमारा काम उस कानून की पूर्ण समालोचना नहीं है।

(9)किसानों  की दूसरी तकलीफें 

जितनी दिक्कतें और तकलीफें अब तक दिखाई गई हैं उन्हीं से इस दु:खगाथा की समाप्ति हो नहीं जाती। किन्तु बहुत सी और भी दिक्कतें और मुसीबतें हैं जिन पर ध्‍यान देना जरूरी है। उनसे किसानों की परेशानी और तबाही भी काफी होती है और सबों का सम्मिलित परिणाम उसके लिए बड़ा ही भयंकर होता है, हो रहा है। इसलिए यदि सबों का नहीं तो उनमें कुछ अहम मसलों और चुनी चुनाई विपदाओं की जानकारी जरूरी है।

    जब इस दृष्टि से हम देखते हैं तो सबसे पहले जो मसला हमारे सामने आता है वह है सिंचाई या आबपाशी का। पहाड़ों और पहाड़ी नदी-नालों की तो कमी यहाँ है नहीं। यों भी वर्षा में पहाड़ का पानी बह के नीचे जाता ही है। इसलिए जगह-जगह बड़े-बड़े आहर होने उनमें बरसात में इतना पानी जमा हो सकता है कि धान और रबी दोनों ही फसलों के लिए काफी हो। यदि आहरों की संख्या काफी हो और मुनासिब स्थान देख-देख के ही वे बनाए जाएँ तो यह मतलब जरूर पूरा हो सकता है। मगर नये तो क्या बनेंगे। पहले के भी बने बनाए खत्म हो गए और हो रहे हैं। न सरकार को इसकी परवाह है और न जमींदारों को। क्योंकि इनके बिना भी तो लगान वसूल होई जाता है।

    जहाँ आहर न हों या उनसे काम चलने वाला न हो वहाँ नदी-नालों और झरनों को बाँध के और उनसे नाली या पैन निकाल के सिंचाई का काम बखूबी हो सकता है। हमने कई जगह ऐसा खुद देखा है। मगर इसमें भी दिक्कत है पैसे और खर्च की। किसान तो तबाह है। वह कहाँ से खर्च लाए? और जमींदार को गर्ज ही नहीं है। आमतौर से झारखंड की जमीन पैदावार नहीं है। सिर्फ पहाड़ों की तली की जमीनें ही ऐसी हैं जिनकी पैदावार अच्छी होती है। मगर ये जमीनें ज्यादा हैं नहीं। ज्यादातर जमीनें मामूली दर्जे की हैं और जब तक सिंचाई का इन्तजाम पूरा न हो पैदावार अच्छी हो नहीं सकती। हजारीबाग के उक्त गजेटियर के 72-73 पृष्ठों में इस सम्‍बन्‍ध में ऐसा लिखा गया है, 'It is, however, certain that the soil is for the most part inherently unfertile. Extensive irrigation works of a character beyond the means and equipment of local agriculturists might render some of the waste land cultivable.  But the poverty of the soil and the irregularity of the surface make the chances of profit very doubtful.*

    'यह बात पक्की है कि यहाँ की ज्यादातर जमीन स्वभावत: ही उपजाऊ नहीं है। हाँ, बहुत विस्तृत रूप में सिंचाई का इन्तजाम हो तो मुमकिन है कि कुछ उजड़ जमीनें आबाद हो जाए। मगर यह बात तो किसानों की ताकत के बाहर की चीज है। लेकिन जमीनों की अनुर्वरता और बेढंगी ऊँचाई-निचाई के करते खेती से नफा करने का शायद ही अवसर हो।'

    इसमें कई बातें महत्‍वपूर्ण हैं। एक तो अधिाकांश जमीन अनुर्वर और रद्दी मानी गई है, ऊसर जैसी है। तिस पर तुर्रा यह कि समतल नहीं है। हाँ, सिंचाई का खूब अच्छा इन्तजाम हो तो कुछ ज्यादा जमीनों में खेती हो सकती है। लेकिन किसान के बूते से बाहर की यह चीज है। इसीलिए यहाँ की खेती में उसका खर्च ही सध जाए तो गनीमत! फिर भी जमींदारों के मुनाफे की बात पहले ही कही जा चुकी है। तब उन्हें गर्ज क्यों हो कि आहर और नहर बनाएँ? यह काम है तो यहाँ के किसानों की भूख मिटाने के लिए निहायत जरूरी सबसे जरूरी। गमियो और जाड़ों में उनके मवेशियों के लिए पीने का पानी भी तभी रह सकता है मिल सकता है और किसानों को मिल सकता है। क्योंकि वे खुद कुएँ बना सकते हैं नहीं।

    पानी के ही सिलसिले में एक दूसरी बात आ जाती है। हर हालत में जगह-जगह कुएँ काफी संख्या में बनाए जाएँ यदि इनकी प्यास बुझानी हो और इन्हें बीमारी से बचाना हो। हमने देखा है कि पहाड़ी जमीन के खेतों में जो पसेई होती है, पसीज के पानी थोड़ा-थोड़ा निकलता है बहुतेरे किसान मजबूरन उसे ही पीते हैं। उसे राँची में पझरा भी बोलते हैं और वहाँ तथा और जगह दूसरे-दूसरे नाम भी उसके हैं। कहीं-कहीं दोन का पानी भी कहते हैं, जो ज्यादातर बरसात में ही निकलता है। मगर उसमें बीमारी का खतरा तो हजार रहता है। लेकिन किसान गरीब क्या करें? पहाड़ों में कुऑं तो हजारों रुपए लगने पर ही बन सकता है। पत्थर काटे बिना कैसे बनेगा? इसीलिए कहीं-कहीं खेतों में कच्चा कुऑं और बालुकामय भूमि में बालू हटा के भी पानी निकालते और प्यास बुझाते हैं।

    तीसरी भारी दिक्कत है कानूनी मदद की। हमें जेलों में हजारों ऐसे झारखंडी कैदी मिले हैं जिन्हें ठीक-ठीक कानूनी मदद मिलने पर वे जेल नहीं आते और उनकी जमीन-जायदाद बच जाती। हमें वकील, मुख्तारों को अपमानित नहीं करना है और न उसे पेशे को खामख्वाह गाली देना हमारा मतलब है। मगर जो अनुभव हमें हुआ है उसके बल पर हम यह कह सकते हैं कि बहुत अंशों में वकीलों की गड़बड़ी से ही यह काम बिगड़ता है। धीरे-धीरे यह पेशा ऐसा होता जा रहा है कि लोग इसमें भरते जा रहे हैं। मगर सबों का काम तो चलना ही चाहिए। इसलिए तरह-तरह के तरीके निकलते हैं, निकाले जाते हैं। बेईमानी, शैतानी और जालसाजी भी होती है। दलाल भी रखे जाते हैं जो चालाकी से सीधो-सादे मुवक्किलों को फँसाते हैं। कई केस हमें ऐसे भी मिले हैं जिनके देखने से पता चला है कि वकील ने ही गरीब किसान को धोखा दिया। कठिनाई यह होती है कि यहाँ के किसान वकीलों की भाषा ठीक समझ पाते नहीं और न वकील ही इनकी समझते हैं। इसलिए भी धोखा होता है। कभी तो ऐसा हुआ कि मुवक्किल का सबूत लेके भी वकील ने पेश ही न किया। इसी तरह की और भी बातें हुई हैं। संथाल परगना की जाँच कमिटी ने यह बातें कबूल की हैं और रिपोर्ट के 55वें पैराग्राफ में लिखा गया है कि 'Unrestricted recruitment would probably lead to touting, the fostering of litigation and other malpractices.' 'वकील, मुख्तारों की संख्या पर रोक न होने पर सम्भवत: दलाली, मुकदमेबाजी बढ़ाना और दूसरी बुरी बातें पैदा होंगी।'

    और जिलों में भी ऐसी बातें कभी-कभी हो जाती हैं। मगर यहाँ के किसान तो निरे सीधो हैं। वे कुछ समझते ही नहीं। सबों पर विश्वास करते हैं। शिक्षा का विस्तार यहाँ है नहीं। इसीलिए यहाँ वे बुराइयाँ बहुत ज्यादा पाई जाती हैं। मेरे जानते तो बहुत बड़ी देश की सेवा इस एक बात से हो जाए, अगर सभी कचहरियों के स्थानों पर एक-एक, दो-दो भी ऐसे वकील मुख्तार रखे जाएँ जो खासकर यही काम करें। उन्हें फीस की उतनी फिक्र न हो, दरअसल भीतर से त्यागी हों, केवल गुजर कर लें और गरीबों की सहायता करें। बेशक, यहाँ के किसानों में बहुतेरे फीस न दे सकने के कारण भी हारते और कष्ट भोगते हैं।

    चौथी बात है देशी या पहाड़ी शराब की जिसे हंड़िया कहते हैं। यहाँ के लोगों का परम्परागत स्वभाव है हंड़िया तैयार करना और पीना। यह चीज इनके जीवन का एक अभिन्न अंग हो गई है और इसके बिना ये लोग अपनी मौत समझते हैं। मगर एक तो कानूनी अड़ंगे के चलते उस पर बाधा खड़ी हुई है। दूसरे देहात-देहात में सरकारी शराब की दुकानें खुल जाने से उसी का प्रचार बहुत ज्यादा होता है। जैसे सस्ती और अपने हाथों बन सकने वाली भी खादी मिल के कपड़ों के सामने खत्म हो गई थी और आज भी हजार यत्न करने पर भी उसका सँभलना असम्भव है। ठीक यही बात हंड़िया के बारे में भी है। देशी शराब या सरकारी शराब ने भी उस पर हमला किया है। फलत: वह खत्म होने चली है। जब तक उस पर आजादी नहीं हो जाती और शराब की सरकारी दुकानें देहातों से हटा दी नहीं जाती हैं तब तक इनका यह दु:ख दूर नहीं होगा। केवल शहरों में भी अंग्रेजी शराब और शराब की सरकारी दुकानें रहें तो रहें। मगर जहाँ भी रहें, पीने वालों की गणना (census) करके उन्हीं को सर्टीफिकेट रहे। तभी खरीद सकें। दूसरे खरीदने न पाएँ। आदिवासियों और पिछड़े लोगों को इसकी सर्टीफीकेट हर्गिज न दी जाए। तभी काम चलेगा।

    इससे हमारा मतलब यह नहीं है शराबबन्दी का प्रचार न हो। हो और जरूर हो। मगर गला दबा के नहीं जैसा कि सरकार कहती है कि वह शराब रोकना चाहती है। शराब की रोक रुपया पैदा करने का साधान न बने। रोक के बहाने रुपया न कमाया जाए। दूसरी बात यह है कि पहले उन्हें इसका निर्बाध अधिाकार हो जिनके जीवन का यह अभिन्न अंग है। यह से हमारा मतलब हंड़िया जैसी ही चीजों से। जो आसानी से चावल वगैरह से बनती हैं या तैयार हो जाती हैं। हंड़िया या ताड़ी का हक उन्हें दीजिए और समझा-बुझा के रोकिए। लाठी के बल से या तलवार के बल से हर्गिज नहीं। तभी तो चोरी से और हजार कुकर्म से भी लोग पीते ही हैं। नैतिक बल और समझाने-बुझाने की बात दूसरी है। दृष्टान्त के लिए टाना आन्दोलन को लीजिए। यह इसी झारखंड का है। मगर र्भामक ढंग से या प्रचार से ही होने के कारण टाना लोग शराब, मांस आदि सभी चीजों से अलग हो गए और इनकी संख्या यहाँ काफी है। मांस भी यहाँ के लोगों का प्रधान खाद्य है। मगर  ताना लोगों ने कतई छोड़ दिया। कानून के जरिए ऐसा कभी नहीं हो सकता था। इसलिए इस बारे में हम कानून बनाने के विरोधी हैं।

    जो भी कानून किसानों के फायदे के बनते हैं उनका प्रचार व्यापक रूप से नहीं होता। केवल रस्म अदाई कर दी जाती है। एक ओर तो सरकार झारखंड को पिछड़ा हुआ प्रदेश मानती है। दूसरी ओर इस बात की भरपूर कोशिश नहीं करती कि गाँव-गाँव, घर-घर में उन कानूनी बातों का प्रचार हो जाए जिनसे किसानों का लाभ हो। दृष्टान्त के लिए पहले बताया गया 18 और 22 वाले कानून को ही लीजिए। इसका कहाँ प्रचार हुआ? जब एम.एल.ए. तक नहीं जानते कि कानून बना है तो औरों का क्या कहना?

 

(10)सहयोग समितियों का रवैया

 झारखंड में सहयोग समितियों (Cooperative credit societies) के बारे में भी कुछ कहे बिना काम नहीं चलता। हमने देखा है कि यहाँ के काश्तकारी कानून में उन समितियों के लिए खास रिआयतें रखी गई हैं। दृष्टान्त के लिए हमें पहले बताई गई काश्तकारी कानून की 46(2अ) धारा को ही लेंगे। जहाँ औरों के साथ सिर्फ सात ही साल के भुगुतबन्धा लिखने का हक आदिवासी किसानों को है तहाँ इन समितियों के लिए वे पन्द्रह साल तक के लिए लिख सकते हैं। इसी तरह के और भी अनेक दृष्टान्त दिए जा सकते हैं, जिनसे सिद्ध हो जाता है कि सरकार और कानून बनाने वालों की नजर में ये समितियाँ बहुत ज्यादा महत्‍व रखती हैं। सो भी न केवल सिध्दान्त की दृष्टि से। किन्तु व्यावहारिक और अमली दृष्टि से। क्योंकि सहयोग समितियों का सिध्दान्त तो बहुत ही उत्ताम और ऊँचा है। मगर मतभेद है केवल इस बात में व्यवहार में वे आया किसानों को लाभ पहुँचाती हैं या नहीं।

    हमें तो बिहार खंड के दरभंगा, मुंगेर पटना आदि जिलों का कड़घवा अनुभव इनके बारे में है। ये जिले तो झारखंड की तरह पिछड़े नहीं हैं। मगर वहाँ के किसानों पर इन समितियों और सोसाइटियों के करते जो गुजरी है उसे याद करके भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बिहार प्रान्तीय किसान सभा ने अपने अनुभव के ही आधार इन समितियों की कड़ी समालोचना भी कई बार की है, जिसके चलते इन सोसाइटियों के कर्णधार न सिर्फ रंज हुए हैं। बल्कि प्रतिवाद भी किया है कि इल्जाम सरासर गलत हैं। मगर हम तो कच्चे धागा ठहरे नहीं कि टूट जाते, या उनकी बन्दर घुड़की से दबक जाते। इसलिए अपनी जगह हमारी सभा डँटी रही।

    हमारे साथियों को इन समितियों के अत्याचारों से जमुई वगैरह में बचाने में जो करारे अनुभव हुए हैं और जिस धाधाली का पता वकील वगैरह की हैसियत से उन्हें हुआ है उसका हृदय विदारक वर्णन उनने किया है। यही बात पटना तथा दूसरे जिलों के सम्‍बन्‍ध में भी समय-समय पर हमें मालूम होती रही है। दरभंगे की आपबीती सुनाता हूँ। गिरिजा स्थान धानुषा की मीटिंग करके हम लौट रहे थे। जहाँ तक याद है, कुछ किसान ही हमें एक गाँव में, जो मोटर के रास्ते पर ही सड़क पर है और जिसका नाम भूलता हूँ, हमें अपने घर लिवा ले गए। और बातों के सिवाय उनने एक मुश्तण्ड आदमी को दिखाया जो डण्डा लिये खड़ा था। मालूम हुआ, यह सोसाइटी का आदमी है और बकाया वसूलने आया है। जब तक वसूल न होगा रोज आएगा और खाएगा! सिर्फ एक रुपए के बकाए में यह बात थी। ज्यादा रुपए के बकाए में, पता लगा, पाँच आदमी आते हैं और छह आने के हिसाब से उनकी खुराक चार्ज होती है! यह तो कानूनी चीज कही जाती है। मगर वे मुश्तण्ड जबर्दस्ती कुछ खा-पी भी लेते हैं। किसान गरीब क्या करे? यह गजब का छह आना तलबाना की तरह उनकी छाती पर चढ़ता जाता था!

    चौपट भी आखिर ये समितियाँ क्यों हुईं? कुछ यार और पढ़े-लिखे वकील या दूसरे घुस आए और उनका अपना काम चल गया, उनका पेशा जम गया! एक-एक आदमी आठ-आठ समितियों तक का ग्रुप सेक्रेटरी बना दिया गया! किसानों और जनता को तो पता ही न चला कि यह कोआपरेटिव सोसाइटी (देहात में तो सुसाइटी कहते हैं) क्या बला है। उनने समझा कि कर्ज देने वाले नए महाजन या एक नई संस्था खुली! बस! और इसी से वे लुट गए। सोसाइटियाँ भी चौपट हुईं! जनता को इनका महत्‍व बताया न गया, समझाया ही नहीं गया। यह बात समझाने की दरअसल कोशिश हुई नहीं। रस्म अदाई को कोशिश नहीं कहते। अपढ़ देहाती जनता को समझाने के लिए आकाश-पाताल एक करना होता है। यही नहीं किया गया! गर्ज किसे थी? देहातों की आर्थिक दशा सुधारने की खूब व्यवस्था हो रही है ऐसी लम्बी-लम्बी रिपोटर् निकाल के दुनिया को धोखे में रखा गया! यारों ने समझा, चलो अच्छा मौका है। कुछ बन जाओ। और नहीं तो चुनाव में वोट ही मिलेगा! फिर तो दिवाला जरूरी था!

    जब प्रगतिशील लोगों में ऐसा हुआ तो झारखंड के पिछड़े और असभ्य कहे जाने वाले प्रदेश में क्या हुआ होगा यह बात आसानी से समझी जा सकती है। यहाँ तो 'अन्धो की गैया, राम रखवैया' वाली बात ठहरी। फलत: जो न हुआ हो उसी में आश्चर्य है। यहाँ जब किसानों के लिए दी गई कानूनी सुविधाएँ तक हजम हो जाती हैं और पता ही नहीं चलता, तो फिर दूसरी बातों का क्या कहना? और तो और खुद सरकारी जाँच कमिटी ने ही इस ओर काफी इशारा किया है। संथाल परगना की जाँच कमिटी ने इसके बारे में जो कुछ लिखा है वह सारे झारखंड के लिए ही है।

           5.12.41A उस कमिटी की रिपोर्ट के 36-37 पृष्ठों में (93 पैराग्राफ में) यह बात यों लिखी गई है, 'Cooperative societies do not exist in many parts of the district, and even where they do, they do not seem to have helped very much.  We were struck by the amount of criticism of the cooperative societies that we received.  It was not possibe for us to investigate the working of these societies and the evidence that we have heard came mainly from those who have complaints to make, but many people feel that the rates of interest are too high and that they are nearly as oppressive in realising their debts as the mahajans themselves.  This is largely inevitable, since land is inalienable and the only method of recovering debts is by attachment of crops.  The Santal law does not allow attachment of standing crops for mahajan's debts. Even in the case of rent decrees attachment of standing crops is restricted to the amount sufficient to cover one year's rent, but under section 35 of the Cooperative Societies Act there is no limit to the extent to which standing crops can be attached to recover a society's debts.  Since the cooperative societies must recover their loans if they are to function at all, and since they have had to resort increasingly to this procedure, borrowers feel that they are being as harshly treated by the cooperative societies as they would have been by the mahajans.  There is also much complaint that in the Rajmahal subdivision where the right of transfer exists too little care and discrimination is used when putting property to sale for the recovery of cooperative dues, and that excessive areas are sold.  The movement is distrusted.  If it is to make further progress in the district, it will require remodelling.  At present it is identified with all the oppressions of the mahajan and there is no constructive side to its work.  If it is to succeed it will be necessary to reduce the rates of interest, to insure that much more care is taken in the granting of loans and to develop the constructive side of cooperation.*

    'जिले के बहुत हिस्सों में तो सहयोग समितियाँ ही नहीं। जहाँ हैं भी वहाँ भी उनने कुछ ज्यादा मदद नहीं की है ऐसा मालूम होता है। इन समितियों के सम्‍बन्‍ध में हमें इतनी ज्यादा शिकायतें मिलीं कि अवाक् हो जाना पड़ा! इनके कामों की जाँच करने की बात मुमकिन न हो सकी और हमें जो गवाही (सबूत) मिले हैं वह प्रधानत: उन्हीं से जिन्हें इन समितियों के खिलाफ शिकायतें थीं। लेकिन बहुत लोग ऐसा मानते हैं कि इनकी सूद की दर बहुत ही ज्यादा है और कर्ज की वसूली ये समितियाँ प्राय: वैसा ही जुल्म करती हैं जैसा कि खुद महाजन करते हैं। अधिकांश में ऐसा होना अनिवार्य है। क्योंकि जमीन तो बिक सकती नहीं। इसलिए कर्ज की वसूली का सिर्फ एक ही तरीका है कि फसलें जब्त की जाएँ। संथाली कानून के अनुसार महाजनों के कर्ज में खड़ी फसल भी जब्त की जा सकती नहीं। बाकी लगान की डिग्री में भी सिर्फ एक ही साल के लगान की वसूली भर खड़ी फसल जब्त हो सकती है। लेकिन सहयोग समितियों के कानून की 35वीं धारा के मुताबिक तो किसी भी सहयोग समिति के कर्ज की वसूली के लिए चाहे जितनी भी खड़ी फसल जब्त कर ली जा सकती है! यदि इन समितियों को कायम रहना है तो इन्हें अपनी देन (कर्ज) को वसूल करना ही होगा। इसीलिए तो ज्यादातर फसल जब्ती पर ही अधिकाधिक ये जोर देती हैं। यही कारण है कि कर्ज लेने वाले महसूस करते हैं कि हम लोगों के साथ तो उतनी ही बेरहमी से सहयोग समितियाँ भी पेश आती हैं जितनी महाजन कर सकते थे। यह शिकायत भी बहुत ज्यादा है कि राजमहल सबडिविजन में जमीन बेचने का हक होने पर भी जब सोसाइटी के कर्ज में किसी जायदाद को नीलाम करवाने का मौका आता है तो जरा भी परवाह और विचार से काम नहीं लिया जाता और बहुत ज्यादा जमीनें नीलाम करवा ली जाती हैं! सहयोग आन्दोलन पर ही अविश्वास हो गया है। यदि इसे इस जिले में कुछ भी तरक्की करनी है तो इसे नए सिरे से ढालना होगा। फिर तो महाजनों के सभी जुल्मों के साथ इसका नाता जुट गया है और इसका कोई रचनात्मक काम ही नहीं। यदि इसे सफल बनाना है तो सूद की दर घटाना जरूरी है। पक्का इन्तजाम करना होगा कि कर्ज देने के समय खूब देखभाल के दिया जाए और रचनात्मक कामों को भी प्रगति देनी होगी।'

    हमें इस पर कुछ भी टीका टिप्पणी करना है नहीं। जितनी जानकारी हमारी किसान सभा को थी और जिसका जिक्र हमने शुरू में ही इशारे से किया है वह सब की सब इसमें आ गई है। आखिर बात दूसरी हो तब न आए? सर्वत्र तो एक ही बेढंगी रफ्तार है एक-सा जुल्म है। मामूली-सी रकमों के लिए इतनी ज्यादा जमीनें बेदर्दी से नीलाम करवा ली गई हैं कि किसान का कलेजा फट गया है! तब उनकी ऑंखें खुली हैं कि यह कौन सी बला है। रचनात्मक काम तो है इन समितियों की असलियत और इनके असली कामों की जानकारी लोगों में कराना और बताना कि ये कैसे चलाई जाएँ तभी सफलता होगी और तभी चल सकती है। नहीं तो बर्बादी अनिवार्य है। मगर ऐसा करने की गर्ज किसे थी? प्रत्युत यारों की तो इसमें हानि थी। कर्ज देने में भी ऑंख मूँद के काम होता था। मगर जवाबदेही समूह की थी जिसे अंग्रेजी में कलेक्टिव लायबिलिटी (collective liability) कहते हैं। नतीजा यह हुआ कि कइयाँ लोगों ने कर्ज लिया और बिक गए सीधो लोग। यह भी नहीं कि ज्यादा से ज्यादा सूद की दर रखने और सख्ती से अन्धाधुन्ध वसूली और नीलामी के करते ये समितियाँ बच सकीं। अन्त में तो इनका दिवाला निकल ही गया और यह बात सर्वजन प्रसिद्ध है।

    यह भी याद रखना चाहिए कि संथाल परगना जाँच कमिटी को जो सबूत और गवाहियाँ मिलीं उनमें एक भी किसान सभा की न थी। उसने लिखा ही है कि 230 लिखित उत्तर और 111 गवाहों में सभी सरकारी अफसर, वकील, जमींदार, घटवाल, इनकी सभाएँ, एम.एल.ए., प्रधान, सिरदार, परगनैत आदि ही थे।

 

(11) झारखंड की अनुकरणीय  बातें

यहाँ पर झारखंड की दो-चार ऐसी बातें भी लिखनी हैं जो दरअसल अनुकरणीय हैं। सबसे सुन्दर बात तो यह है कि संथाल परगना में गाँव की जमीन किसी एक की या व्यक्तियों की जुदा-जुदा नहीं मानी जाती है। वह तो गाँव के समूचे समाज की सम्पत्ति समझी जाती है। यही बात पहले बाकी जिलों में भी होगी। मगर शेष पाँच में लापता हो रही है और केवल एक ही जिले में है। इसीलिए जो आदमी लावारिस मरता या कहीं चला जाता है उसकी जमीन समूचे गाँव के समाज की हो जाती है और जिसके पास जमीन न हो या कम हो उसके ही साथ उसका बन्दोबस्त होता है। बन्दोबस्त होने और लावारिस पड़ जाने के बीच में उस गाँव के मुखिया को ही, जिसे प्रधान कहते हैं, उस पर अधिकार मिलता है। तब तक वही उसे जोतता- बोता है।

    सहयोग समितियों के सिलसिले में अभी-अभी कहा गया है कि वहाँ जमीन बेचने का हक नहीं है। फलत: यदि किसी ने चुपके अपनी जमीन किसी महाजन के हाथ बेची, तो पता लगते ही कानूनन महाजन तो बेदखल होता ही है साथ ही बेचने वाला भी बेदखल हो जाता है और वह जमीन भी सारे समाज की हो जाती है। इसी तरह गाँव के किसी किसान का लगान बाकी पड़ने पर सिर्फ उसी पर नालिश नहीं होती, किन्तु सभी किसानों पर और सभी के ऊपर जवाबदेही आती है। यों तो लगान का जवाबदेह होता है सिर्फ प्रधान और जमींदार उसी पर नालिश करता है। मगर प्रधान सब किसानों पर ही नालिश करता है। इस प्रकार देखते हैं कि संसारव्यापी पुरानी पंचायतों या कम्यूनों (communes) की प्रथा यहाँ अब भी है। हाँ, धीरे-धीरे दूषित हो रही है।

    दूसरी चीज है यहाँ की प्रधानी प्रथा। प्रधान के तीन काम माने गए हैं। जाँच कमिटी के ही शब्दों में उसके तीन कर्तव्य हैं। एक तो वह स्वायत्ताशासन प्राप्त गाँव के समाज का मुखिया या प्रधान माना जाता है। जो कि वह पुरानी स्वतंत्रता प्राय: खत्म हो चुकी है। वही पंचायत का सभापति होने के नाते सामाजिक और धारमिक‍ कामों को पूरा करता है और छोटे-मोटे झगड़ों को निपटाता है। दूसरी बात यह है कि समूचे गाँव की ओर से केवल प्रधान ही जमींदार के साथ व्यवहार करता है, लगान देता है। जमींदारों का कोई ताल्लुक किसानों से सीधो न होने के नाते उसका न तो रोब-दाब होता है और न वे या उनके अमले ही हरी, बेगारी, अबवाब वगैरह का नाम ले सकते हैं। अमले तो होते ही नहीं। गैरमरुवा या लावारिस वगैरह जमीनों पर उसी का कब्जा रहता है और एस.डी.ओ. की देख-रेख में वही उन्हें पीछे बन्दोबस्त करता है। प्रधान का तीसरा काम है मजिस्ट्रेट के साथ गाँव की बातों के बारे में सरोकार रखना। सेस, चौकीदारी आदि वही वसूल करता है। मारपीट या चोरी आदि की खबर देना और फरारों को पकड़वाना उसी का काम है। गाँव के जंगल वगैरह की देख-रेख वही करता है और सबके हकों की निगरानी करता है। सड़क, नहर आदि की देखभाल भी वही करता और मरम्मत करवाता है।

    इसके लिए उसे एक तो लगान की वसूली में उसे एक आना फी रुपया जमींदार देता है और एक ही आना किसान। वसूल न होने पर यह कमीशन कट जाता है। साथ ही उसके पास दो तरह के जोत होते हैं। एक तो प्रधान की हैसियत से खास जोत की जमीन होती है जिस पर लगान नहीं देना पड़ता है। वह इसीलिए होती है कि यदि किसान बाकी रखें तो उसी की पैदावार से चुकता करके पीछे वसूल करे। कमिटी ने गाँव के कुल लगान के बारहवें हिस्से के लिए जितनी जमीन जरूरी हो उतनी ही यह खास जमीन प्रधान को दी जाने की सिफारिश की है। क्योंकि कम हो गई है। और जब तक उतनी पूरी न हो जाए तब तक उसी हिसाब से उसके किसानी जोत में लगान की माफी हो। किसान जोत पर उसे औरों की तरह ही लगान देना होता है। किसानी जोत तो उसका अपना है। मगर अगर वह प्रधानी से किसी कारण से हट जाए, हटाया जाए तो प्रधानी जोत चला जाएगा और जोई प्रधान होगा वही उसे पाएगा। यह प्रधानी प्रथा संथालों और दूसरे मूलवासियों में ही है। अब इसकी वह बात नहीं रही।

    प्रधानों के सिवाय संथालों के मुखिया एक प्रकार के और हैं जो केवल दामिल इलाके में ही हैं। इन्हें परगनैत कहते हैं, मालूम होता है कि गाँव के लिए प्रधान और परगना के लिए पहले परगनैत थे। अब भी वे लोग वहाँ हैं। दामिन के प्रबन्धा के लिए वह अनेक टुकड़ों में बाँटा गया है, जैसे तहसीलदारी या थाने होते हैं। एक इलाके में एक सरकारी ऑफिस या बँगला (bungalow) होता है और बँगले के ही इलाके का एक परगनैत होता है। वह भी माल की वसूली के सिवाय पुलिस के कामों में भी मदद करता है। माली और फौजी मुकदमों का भी फैसला वही करता था। अब मजिस्ट्रेट और पुलिस का सिर्फ मददगार है। मजिस्ट्रेट को हाकिम कहते हैं। उसके साथ ही उसका नाता रहता है। उसी के द्वारा गाँव में सरकारी खबरें पहुँचती हैं। ये परगनैत जमींदारियों में नहीं होते हैं। प्रधान और परगनैत खानदानी होते हैं। मगर यह जरूरी नहीं है और बदले भी जा सकते हैं यदि योग्य आदमी न मिलें। असल में खानदानी होने से ही इनका पतन हो गया है। प्रधानों की तरह परगनैतों को सरकार माल की वसूली पर पहले दो रुपया सैकड़ा देती थी। मगर पीछे कुछ बढ़ा है और कम या वेश वसूली पर उसकी दर घटती-बढ़ती है। इसके सिवाय हर गाँव से साल में उसे एक रुपया दस आना मिलता है। प्रधान की तरह उसे परगनैती जमीन नहीं होती। पुलिस के दारोगा की ही जगह वह परगनैत समझे जाते हैं। वहाँ बाकायदा पुलिस के थाने वगैरह नहीं हैं।

    दुमका और जामतारा में तथा गोड्डा में भी सिरदार पाए जाते हैं। यह भी पुलिस का ही काम करते हैं। गोड्डा में तो चौकीदारी सरपंच का भी काम यही करते हैं। महीने में बारह रुपया वेतन इन्हें दिया जाता है। ये भी आदिवासियों के ही लिए होते हैं। अब तो बात बदल रही है। फिर भी आदिवासियों और संथाल वगैरह के साथ जब काम पड़ता है तो सिरदारों के बिना नहीं चलता। पहड़िया लोगों में भी सिरदार होते हैं। असल में पहले तो परगनैत, प्रधान और सिरदार उन्हीं में से चुने जाते थे। मगर अब तो दूसरे लोगों में से भी सिरदार चुने जाते हैं। हालाँकि परगनैत अभी वही हैं। प्रधान भी वही हैं। असल में दूसरे लोगों की आबादी बढ़ने और मेल-हेल या मिश्रित जनसंख्या हो जाने से ही यह बात होती है। संथाल वगैरह आदिवासियों के सिवाय जो प्रगतिशील या सभ्य लोग वहाँ हैं उन्हें संथाली भाषा में दिक्कू कहते हैं। यदि प्रधान वगैरह की प्रथा का ठीक-ठीक उपयोग और प्रबन्धा हो तो यह बड़े काम की चीज हो जाए।

    यों तो प्रधान, मानकी वगैरह शेष पाँच जिलों में भी हैं। मगर वे लोग बिहार के जेठरैयत या चौकीदारी सरपंच से ज्यादा महत्‍व अब नहीं रखते। अब तो चौकीदारी पंच चुने भी जाते हैं। इसी प्रकार छोटानागपुर में जो पाहन और देवकली होते हैं उनका भी कोई आधुनिक उपयोग नहीं है। पाहन तो पुरोहित की तरह के होते हैं जो मंतर-तंतर भी जानते हैं और भूत-प्रेत भी झाड़ते हैं। मगर देवकली तो ओझा को ही कहते हैं। वह तो खास-खास भूत-प्रेतों को ही हटाता और बुलाता है। इनके लिए गाँव वाले ही खान-पान वगैरह का प्रबन्धा करते हैं। हाँ, प्रधानों के कुछ खास कानूनी हक जमीन वगैरह के हैं।

    प्रधान युग के लिहाज से यहाँ की नई और सब से काम की परिस्थिति यह है कि प्राय: सभी जिलों में लोहे, अबरक, कोयले आदि की खानें और कारखानें हैं और सीमेंट वगैरह की भी फैक्टरियाँ हैं। पलामू में तो जपला की सीमेंट फैक्टरी प्रसिद्ध ही है। फलत: लाखों मजूदर काम करते हैं। सो भी गिरोह के गिरोह। उनका ताल्लुक यहाँ के गाँवों से काफी रहता है। गाँव वाले भी बहुत से काम करते हैं। ऐसी दशा में यहीं पर तो किसानों और मजदूरों के संगठन एक-दूसरे के साथ पूरा-पूरा सहयोग कर सकते हैं और एक-दूसरे की लड़ाई में काफी मदद पहुँचा सकते हैं। दोनों का पूर्ण सहयोग, जिसकी नितान्त आवश्यकता आज के युग को है और जो इस युग की खास चीज है, यहीं तो सम्भव है और वह हो सकता है न केवल कागजी, किन्तु क्रियात्मक। जहाँ खानें हैं वहाँ भी ऊपर की जमीन में किसानों को कष्ट है। दूसरी जगह तो ही। मजदूरों के कष्ट तो सभी को विदित हईं।

 

(12)टाटा  और होमी

 झारखंड की बात अधुरी ही रह जाएगी यदि टाटा  का विशेष वर्णन न किया जाए। पारसनाथ पहाड़ के सिलसिले में जैनी सेठों की करतूतों का जिक्र तो होई चुका है। मगर टाटा  का महत्‍व उनसे कहीं ज्यादा है। टाटा  का यहाँ जमींदार और पूँजीपति दोनों ही हैसियत से प्रभाव है। लाखों मजदूरों पर उसकी हुकूमत चलती है। जाने कितने नेताओं और कार्यकर्ताओं को टाटा  ने अपने पाकेट में रख लिया है। ऐसा जादू चलता है कि सबों की बोलती ही बन्द हो जाती है और छोटे-बड़े सभी नेता वहीं जमशेदपुर में ही हजम हो जाते हैं। टाटा  की ही कृपा का फल है कि अब तक जाने कितने नेता जमशेदपुर के मजदूरों का संगठन करने गए और नाकामयाब रहे। नेताओं के प्रति जितना अविश्वास वहाँ के मजदूरों में है उतना और कहीं शायद ही है। फलत: वहाँ जोई जाता है उसी पर अविश्वास किया जाता है। 'धारी न काबू धीर सबके मन मन सिज हरे' वहीं चरितार्थ होता है। यह टाटा  की चातुरी और व्यवहार कुशलता का ज्वलन्त प्रमाण है।

    मगर मुझे तो किसान सभा के कार्यकर्ता की हैसियत से सिर्फ टाटा  की वही बातें लिखनी हैं जिसका ताल्लुक किसानों और सर्व साधारण से है। कारखाने और मजदूरों की दशा के बारे में लिखना इस पुस्तक का लक्ष्य भी नहीं है जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है। मैं उस विषय की विशेष जानकारी भी नहीं रखता। कांग्रेस की स्वराज्य पार्टी जब केन्द्रीय असेम्बली में थी तो टाटा  को सरकारी सहायता देने का प्रश्न उठा था। उसने इसका समर्थन किया। जब वहाँ के मजदूरों के हक में यह शर्त पेश की गई कि टाटा  कम्पनी उन्हें आराम पहुँचाने की गारंटी करे तभी सहायता दी जाए, तो इसका विरोध स्वराज्य पार्टी ने किया था और बिना शर्त ही सहायता का समर्थन किया। जब मजदूरों के सम्‍बन्‍ध में बड़े-बड़ों और ऐसी संस्थाओं की कार्यवाहियाँ पहेली की तरह खड़ी हो जाती हैं तो हमारे जैसा आदमी घबराता है और उस झमेले से अलग रहके किसानों का ही सवाल हल करने की कोशिश करता है। इसीलिए यहाँ भी वही सवाल है। जमशेदपुर के पुराने मजदूर लीडर कहे जाने वाले मिस्टर होमी को भी हम किसानों के ही सिलसिले में याद रखना चाहते हैं। इसीलिए उनका भी थोड़ा उल्लेख होगा। मगर इस सम्‍बन्‍ध में सिंहभूम जिला किसान कान्फ्रेंस, घाटशिला में 3, 4 जुलाई 1939 को हमने जो भाषण दिया था उसे ही यहाँ उध्दृत करके सन्तोष कर लेना चाहते हैं। ज्यादा कहने की जरूरत नहीं प्रतीत होती है। वह इस तरह हैµ

    'बाहरी दुनिया की नजरों में तो आमतौर से टाटा  का काम है जमशेदपुर में केवल इस्पात वगैरह तैयार करना और इस तरह टाटा  कम्पनी सबसे बड़ी पूँजीवादी है। टाटा  से ताल्लुक रखने वाले और किसानों के लिए दिल रखने दूसरे लोगों में भी चन्द लोग ही ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि टाटा  कम्पनी जमींदार भी है और प्राय: बीस छोटे-बड़ें गाँवों से, जो जमशेदपुर में और इर्द-गिर्द शामिल हैं, बीस-पच्चीस लाख लगान वसूलती है। इन गाँवों के नाम हैं उलियान, भाटिया, गोभरोगोड़ा, सोनाड़ी, खुटाड़ी, बेलड़ी, जोजाबेरा, साकची, बारा, बारीडीह, महरड़ा, मुड़कटी, निलदी, कालीमाटी, सुसनिगड़िया, गोलमुड़ी, सिद्धगोड़ा वगैरह। इनके कष्ट वर्णनातीत हैं। टाटा  के लिए सरकार ने इन मौजों को 1919-20 में ले लिया। आगे इन गाँवों के कुछ भयंकर कष्टों का वर्णन वहीं के लोगों के शब्दों में किया जाता है। उनने मेरी जमशेदपुर की अप्रैल वाली उसी साल की यात्रा के समय मुझे जो कुछ लिख के दिया था वही यहाँ लिख दिया जाता है। उनका कहना है कि 'जमशेदपुर और आसपास के जो गाँव पहले दलभूम के राजा के मातहत थे हम उन्हीं के शुरू के ही बाशिन्दे हैं। कम्पनी के लिए सरकार ने इन्हें तथा और गाँवों को 1919-20 में ही राजा से हासिल किया था। कम्पनी ने हमें कहा कि आप लोग पूर्ववत् पड़े रहें। क्योंकि हमें अपने ही लिए आपकी सेवाओं की मजदूर, गाड़ीवान, साग-तरकारी उपजाने वाले आदि के रूप में जरूरत है। इसलिए गाँवों का राजा से लिया जाना तो केवल कागजी लिखा-पढ़ी है। स्थिति में अन्तर न होगा।

    1906-09 के सर्वे में जो लगान ठीक था उसे इस कम्पनी ने इन गाँवों को बाकायदा दखल करने के बाद, धीरे-धीरे बढ़ाना और हमारी जमीनों से भारी लगान वसूलना शुरू कर दिया। उस समय तो हमने यह चीज किसी तरह बर्दाश्त की। क्योंकि उस समय चावल, साग, तरकारी वगैरह की कीमत काफी ऊँची थीं।

    'चन्द साल के बाद, जब कि बिना हमारी मदद के भी कम्पनी का कारबार चलने लगा, उसने हमें अपने झोंपड़ों और घरों वगैरह से निकाल के अपने काम के लिए सबकुछ कब्जाना चाहा। फलत: तरह-तरह से हमें परेशान किया जाने लगा। 1932 में लगान न देने के बहाने हमारी बेदखली के केस किए गए। मगर हम लोग सभी केस जीत गए। तब बल प्रयोग शुरू हुआ और इसके चलते कम्पनी का जो प्रधान रूप से इस शहर का प्रबन्धक है। वही नोटिफाइड एरिया कमिटी का चेयरमैन भी है। वह कुछ औरों के साथ नाजायज दूसरे के घर आदि में घुसने के लिए फौजदारी में भी फँसा था और हाईकोर्ट तक सजा बहाल रही। उसके बाद हम लोगों के विरुद्ध 145 धारा के अनुसार फौजदारी के बहुत ज्यादा मुकदमे चलवाए गए। मगर उनमें भी हम जीते।

    'अब जमशेदपुर एरिया कमिटी की ही मदद से हमें तंग करने लगे हैं। कहा जाता है कि इस कमिटी के इलाके के भीतर हैं। मगर इस म्यूनिसिपलिटी का कोई भी फायदा तो पहुँचता नहीं। हाँ, इससे हमारी दिक्कतें जरूर बढ़ गई हैं।

    'अपने छप्परों को फिर से छाने में भी हमें प्लान बनवाने और कमिटी से मंजूरी लेने को कहा जा रहा है। हमें साफ पीने का पानी तो मिलता नहीं। गंदा पानी हममें बीमारियाँ फैला रहा है। मगर कुऑं खोदने की हमें इजाजत नहीं! हमारे न तो सड़कें हैं, न रोशनी और न मेहतरों का प्रबन्ध। हमारे गाँवों में पढ़ाने के प्रबन्ध की तो बातें ही मत पूछें।

    'हमारे यहाँ जो पड़ती जमीनें चरागाह के काम आती थीं वे गत साल से जोत-जात के ईंटों के बनाने के लिए कम्पनी के द्वारा ठेके पर दी जाने लगी हैं। इसका तो सीधा अर्थ है कि हम खेती के जानवरों को खत्म कर दें। क्योंकि अड़गड़े में डाले जाने के डर से उन्हें बाहर तो निकाल सकते नहीं। कम्पनी की इस करतूत ने हमें सबसे ज्यादा परेशान किया है। क्योंकि पशुओं के बिना तो खेती हो नहीं सकती। फलत: हमें गाँव छोड़ के भागना पड़ेगा। इन कारणों से और लगान की कड़ाई के चलते भी हम उसे चुकता कर पाते नहीं। फलत: हमारी बहुत सी जमीन नीलाम हो रही है। आज जो लगान है वह दलभूम के मौजूदा लगान से चौगुना और सर्वे के लगान से पूरा दस गुना है। यह बात नीचे की तालिका से साफ हो जाती है। धानी (धान की जमीनों) और बारी या भीठे (गोड़ा) जमीनों के लगान की दर अलग-अलग दी गई है।

दलभूम का लगान फी बीघा   कम्पनी का लगान फी बीघा

धानी अव्वल नम्बर एक रुपया   चार रुपया, तीन रुपया, दो रुपया और

धानी दोयम नम्बर आठ आना   तीन रुपया क्रमश: इन्हीं चारों जमीनों का।

धानी सोयम नम्बर छह आना    साग तरकारी वाली का तो आठ रुपया है।

गोड़ा जमीन दो आना     सभी गाँवों में कम्पनी की दर एक-सी नहींहै।

    ''साकची तो जमशेदपुर शहर का ही हिस्सा है। इसीलिए वहाँ के लोगों को बाजार, आबपाशी और सड़क वगैरह की आसानी भी है जो अन्य गाँवों को नहीं है। मगर वहाँ का लगान कम है और कम्पनी के ही एक अफसर ने कबूल किया है कि दूसरे गाँवों के किसानों को सभी दिक्कतें बढ़ी-चढ़ी हैं। देखिए न

साकची की धानी अव्वल का उल्यान, मांटिया, गोभरागोड़ा का

लगान तीन रुपया        चार रुपया।

साकची की धानी दोयम का उल्यान, मांटिया, गोभरागोड़ा का

लगान करीब सवा दो।     तीन रुपया।

साकची की धानी सोयम   उल्यान, मांटिया, गोभरागोड़ा का दो रुपया

साकची गोड़ा अव्वल डेढ़ रुपया    इन तीन गाँवों की सभी तरह की गोड़ा

साकची गोड़ा दोयम सात आना   जमीनों का लगान तीन रुपया फी बीघा।

साकची गोड़ा सोयम सवा दो आना साग तरकारी का आठ रुपया फी             बीघा

    'टाटा  कम्पनी के मिल का निकला हुआ पानी नदी को गन्दा करता है। मगर क्या मजाल कि किसान उससे अपना खेत पटा लें? गाड़ी पर टैक्स है और जानवरों के मरने पर उन्हें हटाने के लिए जो पाँच रुपया टैक्स है वह तो हमें तबाह कर रहा है।

    'सिंचाई की सुविधा पहले थी। मगर अब नहीं रही। लगान की बाकायदा रसीद नहीं मिलती। छह मास हुए हम बिहार के अर्थमंत्री से और बाद में प्रधानमंत्री के पास भी लिखित प्रार्थना ले के पहुँचे थे। मगर नतीजा अब तक कुछ मालूम नहीं हुआ!' इस लम्बी दास्तान पर टीका-टिप्पणी बेकार है।

    अब जरा मिस्टर होमी की बात सुनिए। अब तक तो यही सुना जाता था कि मिस्टर होमी यहाँ के मजदूरों की लीडरी का दावा करते हैं और दूसरे लोग इसका विरोध करते हैं। यह तो उन्हीं का काम है जो मजदूर हैं कि फैसला करें कि किसे वे अपना लीडर मानते हैं। हमें तो उनके बारे में पड़ोस के ही मानभूम जिले के पोटम्बा थाने के गाँव माँगों के जमींदार या मुकर्ररीदार के रूप में ही यहाँ सामने लाना और कुछ सुनाना है। मानगो गाँव सुवर्ण रेखा नदी के उस पार ही यहीं है। पिछली बार जो मैं वहाँ गया था और पता लगाया तो मालूम पड़ा कि उस गाँव पर जो उनने मुकर्ररीदार का दावा ठोंक दिया है उसके चलते वहाँ के किसानों और कमिया लोगों को बड़ा कष्ट है। श्री मानिक होमी के भाड़े वाले आदमी किस तरह वहाँ के लोगों को सताते और जलील करते हैं इसकी दर्दनाक कहानी वहाँ के स्‍त्री-पुरुषों और श्री क्रिस्टो गौड़ प्रधान ने रो-रो के कह सुनाई। उस जुल्म के बारे में अपनी ओर से कुछ न कह के न्यायालय के दो फैसलों के कुछ अंश उध्दृत कर देता हूँ और मामला साफ हो जाएगा। यह गाँव मानभूम जिले के किनारे पर थाने से सोलह मील पर पड़ता है। इसलिए चालाक और चलते पुर्जे यार लोग यहाँ के हो और भूमिज आदि निवासियों को खूब ही सताते हैं। पहला फैसला पुरुलिया के एस.डी.ओ. मिस्टर एस.के.अहसान का लिखा हुआ अंग्रेजी में है। दूसरा फैसला मिस्टर बी. के. गोखले, डिस्ट्रिक्ट मजिस्टे्रट मानभूम का 5.9.27 का है। दोनों का हिन्दी अनुवाद ही दिया जाता है। पहला यों है

    'पुलिस की रिपोर्ट में होमी और उसके आदमियों के विरुद्ध यह शिकायत थी कि होमी, उसके आदमी और उसी के साथी कुछ और लोग भी किसानों को अनेक ढंग से सताते हैं और धामका के, मारपीट के और जबर्दस्ती रुपया वसूल के दिक करते हैं।

    'अपनी पार्टी की तरफ से उसने साफ-साफ यह शर्त कबूल की है कि बिना अदालती कार्यवाही के दूसरे ढंग से हम लोग अपना अधिकार जबर्दस्ती न चलाएँगे और न किसी को सताएँगे ही, जैसा कि इलजाम है। इसलिए इस समय तो मैं उनके खिलाफ कोई कार्यवाही न करता। मगर इसी के साथ मिस्टर होमी और उनके आदमियों को साफ-साफ चेतावनी देता हूँ कि किसानों को, फिर चाहे वह कोई भी हों, वे लोग किसी भी तरह दिक या परेशान हर्गिज न करें। इस हुक्म की एक नकल पोटम्बा के थानेदार के पास भेजी जाए। ताकि यदि वे लोग अपना वादा तोड़ें तो वह उनके खिलाफ रिपोर्ट करे।'

    दूसरा केस का, जो 1936 के स्फुट केसों में 309 का है, फैसला यों है

    'जो कुछ सबूत है उससे मुझे पता चलता है कि मिस्टर होमी जंगल और पेड़ों को अपनी निजी जायदाद मानता है जिन्हें जब जैसे चाहे काट सकता है और गाँव वालों के जो परम्परा प्राप्त अधिकार जंगल पेड़ों में हैं उन्हें उनका उपभोग रोकना चाहता है। इसी तरह गैर आबाद जमीन के बारे में भी वह किसानों को रोकना चाहता है कि आबाद न करें। हालाँकि प्रधानी प्रथा के अनुसार उन्हें यह अधिकार है कि आबाद करें और उसके लिए उचित लगान दें। मिस्टर होमी का अपना बयान है कि मुझे पता नहीं कि किसान लोग आबाद की गई जमीनों का मुनासिब लगान देना चाहते हैं।' इससे पता चलता है कि पुश्त दर पुश्त से वहाँ रहने वाले किसानों से कोई वास्ता न रख के वह अपने मन के ही लोगों को वहाँ बसाना चाहता है। इसलिए समस्त ग्रामवासी इसे खामख्वाह नापसन्द करते हैं। पुलिस सुपरिंटेंडेंट को जो पत्रे मिस्टर होमी ने 26.1.27 को लिखा था उसके पाँचवें पैराग्राफ में लिखा है कि 'हमने जो पहले पहल दो हजार एकड़ जमीन हासिल की थी उस समूची को एक आदर्श फार्म बनाके उसे नए ढंग से चलाने का हमारा पक्का इरादा है।' मुझे अफसोस है कि यहाँ की हालातों के सम्‍बन्‍ध की अपनी नादानी के करते उसने नया ढंग के आदर्श फार्म के लिए एक प्रधानी (प्रधानवाला) गाँव चुन लिया, जिसमें कि गाँव के समूचे बाशिन्दों के अपने खास हक होते हैं और वे बखूबी माने जाते हैं।

    'पुश्त दर पुश्त से गाँवों में प्रचलित रीति-रिवाजों के विरुद्ध काम करने के अपने इस विचार को मिस्टर होमी जितनी जल्दी छोड़ दें उतना ही खुद उनके लिए अच्छा है और मैं वहाँ जिस अमन और शान्ति के लिए फिक्रमन्द हूँ उसके लिए भी उतना ही अच्छा है।'

    इस पर भी और कुछ लिखना बेकार है। इसने मिस्टर मानिक होमी की जन सेवा का सुन्दर चित्र खींचा है। मजदूरों का नेता तो बना जाता है उन जैसों की सेवा के ही लिए। मगर उनका अमली तरीका तो बड़ा ही खतरनाक है। उसी माँगों गाँव में उनने अपने कहने के लिए एक बँगला अलग बनवाया है। गाँव वालों ने पहले समझा होगा कि ये गरीबों के सेवक आ रहे हैं। इनसे हमारा कल्याण होगा। मगर पीछे उन्हें पता चला कि 'मुनि न होय यह निशिचर घोरा।' मगर अब तो देर हो गई और उनका पाँव वहाँ जम चुका है। अब तो रह-रह के उन गरीबों को अनेक ढंग से उनके फौलादी पंजे का मजा चखना ही होगा जब तक कि गरीबों में अपने हकों की रक्षा करने की पूरी ताकत आ नहीं जाती। वह ताकत तो आएगी जरूर। सवाल यही है कि जल्द आए।

 

(13)किसानों की मुख्य माँगें

 हमें जो कुछ कहना था कह चुके। अब कोई भी नई बात कहनी है नहीं। जो बातें पहले विस्तार के साथ कहीं गई हैं और उनके ही सिलसिले में झारखंड के किसानों के अभाव अभियोग भी आ गए हैं उन्हीं में से कुछ प्रमुख बातों को, या यों कहिए कि किसानों की खास-खास और चुनी-चुनाई माँगों को, मुतालबों को यहाँ अन्त में हम इसीलिए लिख देना चाहते हैं कि जिन्हें उनमें काम करना हो वह आसानी से उनकी जरूरतों को संक्षेप में समझ जाएँ। यों तो पूर्व लिखी सारी बातें पढ़ें और जाने बिना हम यहाँ की दशा समझ सकते नहीं। इसलिए सभी को पढ़ना और मनन करना निहायत जरूरी है। सबको पढ़ने और गाँवों में घूम के पता लगाने पर और भी कितनी ही जरूरी बातें मालूम हो सकती हैं जिनका जिक्र हम कर न सके हैं। मगर जो हैं वह हैं बहुत ही अहम। इसलिए भी सबका अध्‍ययन जरूरी है। ताकि पूरी जानकारी हो सके और कमी की पूर्ति की जा सके। हर हालत में कुछ सवाल तो ऐसे रहते ही हैं जो सबसे आगे आते हैं और सबसे ज्यादा चुभते हैं। उन्हीं को लेके आगे बढ़ने में आसानी भी होती है। शुरू में ही कम चुभने वाले प्रश्नों को उठाना ठीक नहीं होता है। इसीलिए चुनी-चुनाई माँगें यहाँ लिख दी जाती हैं।

    (1) झारखंडी किसानों के लिए सबसे पहली और जरूरी बात यह है कि कोड़कर और उटकर आदि नामों से भी जो जमीनें आबाद की जाती हैं, की जा सकती हैं उनके बारे में जमींदार की हर तरह की रोक सख्ती के साथ कानून और इन्तजाम के जरिए अविलम्ब बन्द कर दी जाए। जिससे स्वच्छन्दता के साथ किसान ये जमीनें तैयार करें। अब तक जो भी कानूनी अड़चनें हैं वह फौरन हटा ली जाएँ। ऐसी जमीनों का लगान उनके तैयार हो जाने और फसल उपजाना शुरू करने के कम से कम पाँच साल बाद ही तय किया जाए। मगर जहाँ ऐसी जमीनें बनें वहाँ की सबसे कमजोर और खराब जोत जमीनों के लगान से ज्यादा तो वह हर हालत में न हो। आमतौर से उसका आधा ही हो।

    (2) घर-गिरस्ती के कामों और जीविका चलाने के लिए जंगल से पत्थर, बालू, काठ, बाँस, घास, पात, काँट, कुश, फल, फूल, मूल, शहद वगैरह लेने में कोई रुकावट या बन्धान न रहे। महुवा के फूल चुनने का उन्हें पूरा हक हो और उस पर कोई कर न लगे, चाहे महुवा के पेड़ खेतों में हों या जंगल में। किसानों के खेतों में लगे पलास, कुसुम और बेर के पेड़ों पर लाह लगाने और लगी हुई को उतारने, बेचने आदि का उन्हें पूरा हक हो और कोई भी कर देना न पड़े। अब तक जो भी बन्धन या रोक हो वह कानून या और इन्तजाम के जरिए फौरन सख्ती से हटा दिया जाए। टंग कर, पत कर, वन कर, चुल्ह कर या खरची आदि के नामों से प्रसिद्ध कर गैर-कानूनी करार दिए जाएँ।

    (3) किसानों और उनके पशुओं के पीने वगैरह के लिए शुद्ध जल का जरूरत के मुताबिक फौरन इन्तजाम किया जाए और जगह-जगह कुएँ वगैरह तैयार कराए जाएँ। जहाँ कहीं भी सोते, झरने आदि हों वहाँ उन्हें और उनके पशुओं के जाने-आने पर कोई रोक रहने न पाए। यदि ऐसे झरने आदि रिजर्व या प्रोटेक्टेड फारेस्ट में हों तो वहाँ तक जाने का रास्ता बना दिया जाए और रास्ते के दोनों तरफ और झरनों के भी इर्द-गिर्द ऐसा जबर्दस्त ऊँचा और मजबूत घेरा बना दिया जाए कि कोई भी उसे आसानी से पार कर न सके और मवेशी उसे फाँद न सकें।

    (4) झारखंड से एक-एक करके सभी काजीहाउस, अड़गड़े या कैटल पाउंड फौरन हटा लिए, और तोड़ दिए जाएँ।

    (5) यहाँ का लगान सरकारी माल की अपेक्षा बहुत ही ज्यादा और प्राय: तीस-चालीस गुना होने के कारण बर्दाश्त के बाहर है। इसलिए वह इतना ही कर दिया जाए कि सरकारी माल और वसूली का खर्च बाद देने पर जमींदारों के पास ज्यादा से ज्यादा माल के बराबर ही बचे।

    (6) दामिन इलाके के पहड़िया लोगों की कुरांव या झूमचास की आजादी पूरी तरह कायम रखी जाए और उसमें जो भी रुकावटें हों वह फौरन हटा ली जाएँ।

    (7) झारखंड के जो आदिवासी या पिछड़े हुए किसान और दल हैं उनके पढ़ने के लिए उन्हीं की भाषा में जल्द से जल्द प्रबन्धा किया जाए और उनकी अपनी ही भाषा में प्रारम्भिक पढ़ाई अनिवार्य कर दी जाए। साथ ही उन्हें हर तरह की ऊँची से ऊँची शिक्षा मुफ्त ही देने का पर्याप्त प्रबन्ध शीघ्र से शीघ्र किया जाए।

    (8) आबपाशी का पूरा-पूरा प्रबन्ध किया जाए और इस ओर मुस्तैदी के साथ फौरन काम शुरू किया जाए। हर तरह की आबपाशी के लिए पूरा प्रबन्ध करने की सोलह आना जिम्मेदारी जमींदारों पर ही हो और जब तक वे ऐसा नहीं करते, उन्हें एक पैसा भी लगान लेने का हक न हो। सरकार का फर्ज है कि उनके इस काम की जाँच और देख-रेख सख्ती के साथ बराबर की और उनके चूकने पर लगान रोक के खुद आबपाशी का प्रबन्ध करे और लगान वसूले। यदि उन्हें फिर वसूली का हक मिले तो दंड के साथ। यह दंड बढ़ता जाए, यदि वे बार-बार चूकते रहें।

    (9) किसान परिवार के साल-भर के गुजर के लिए खड़ी फसल या गल्ला वगैरह छोड़ के ही बाकी लगान में बचा बचाया ही जब्त हो या बिके या नीलाम हो।

    (10) बकाया लगान की नालिश न तो एक साल से कम की हो और न ज्यादा की। यदि किसान साल खत्म होने के पहले लगान चुकता कर दे तो उसे सूद एक पाई न लगे।

    (11) झारखंड के सभी जिलों के लिए एक ही तरह का काश्तकारी कानून बने और वह हो बिहार के काश्तकारी कानून जैसा ही। फलत: समूचे सूबे के लिए एक ही कानून हो। बेशक आदिवासियों या पिछड़े किसानों के फायदे की धाराएँ जरूर रहें, खड़ी फसल की जब्ती, कुर्की या सर्टफिकेट का अधिकार जमींदार को कहीं न रहे और जमीन सम्‍बन्‍धी शर्त (Predial Condition) कतई खत्म कर दिए जाएँ।

    (12) सरकार की ओर से अधिक से अधिक तीन रुपया सैकड़ा सालाना सूद की दर पर किसानों को कर्ज देने का इन्तजाम किया जाए, सूद दर सूद किसी भी सूरत में जायज न हो। इससे ज्यादा सूद की दर गैरकानूनी हो और किसी भी हालत में मूलधन से दूने की डिक्री न हो ऐसा कानून हो। सूदखोरी पर सख्त से सख्त कानूनी और इन्तजामी नियंत्रण किया जाए।

    (13) सेवकाई, कमिऔती आदि किसी भी नाम से प्रचलित गुलामी और कमिया प्रथा गैर-कानूनी करार दी जाए और सख्ती के साथ ऐसा इन्तजाम किया जाए कि इस चीज का नामोनिशान रहने न पाए।

    (14) इस बात का मुस्तैदी के साथ इन्तजाम किया जाए कि आदिवासी और पिछड़े किसानों की भाषाओं और रस्मोरिवाजों को बखूबी जानने-समझने वाले ही हाकिम इनके मुकदमों पर विचार करें। एतदर्थ ऐसे लोग जल्द से जल्द तैयार किए जाएँ। यदि इन्हें ये मिल सकें तो और भी अच्छा।

    (15) इनके केसों में जो वकील, मुख्तार आदि कानूनी सलाहकार और मददगार हों उनके लिए खासतौर से कुछ नियम बनाए जाएँ जिससे इन लोगों को धोखा और परेशानी न रहे। इसलिए ऐसे कानूनदां लोगों पर नियन्त्राण और निगरानी रहे।

    (16) जो भी कानून बने, कानूनी या इन्तजामी व्यवस्था हो या कोई ऐसी नई बात हो जिससे किसानों का ताल्लुक हो, तो उसके घर-घर और गाँव-गाँव में पूर्ण प्रचार का पक्का इन्तजाम सख्ती के साथ किया जाए।

    (17)    अबरक को जहाँ-तहाँ से चुन और निकाल के जो किसान या गरीब गुजर करते हैं चोरी के बहाने उन्हें सताने का जो कानून है वह रद्द हो और कोयले की खानों की ऊपरी जमीन पर किसानों की खेतीबारी वगैरह में जो बाधा पड़ती है वह हटा दी जाए।

    (18)    एक ही जुडिशल कमिश्‍नर के कई जिलों के लिए होने के कारण सेसन्स के केसों में बहुत ज्यादा समय लग जाता है। तब कहीं फैसला होता है। यह बात दूर हो जानी चाहिए।
 

 

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