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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4 सम्पादक - राघव शरण शर्मा किसान क्या करें
किसानों को फँसाने की तैयारियाँ प्रवेशिका हाल में ही कलकता से प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र 'भूमिहार ब्राह्मण' ने मुझसे लेख माँगा। पहले तो मैं हिचकिचाया और इनकार करना चाहा। कारण उसके प्रबन्धकों ने जब शुरू में ही मुझसे प्रकाशन की सम्मति माँगी थी तो मैंने उन्हीं बातों को कहके उसके प्रकाशन का विरोध किया था जो आगे पढ़ने को मिलेगी। लेकिन फिर मित्रों की राय से यह तय पाया कि वह बातें उसी पत्रा के द्वारा लोगों तक क्यों न पहुँचाई जाएँ। बस, लेख माला शुरू हो गई जो उसके सात अंकों में समाप्त हुई। वही आज इस पुस्तिका के रूप में, उसका शीर्षक बदलकर पाठकों के समक्ष उपस्थित है। यह काम भी मित्रों और सहयोगियों के आग्रह से ही किया जा रहा है। आगे पाठकों को कई जगह भूमिहार ब्राह्मण महासभा आदि शब्द पढ़ने को मिलेंगे। यह केवल दृष्टान्त के रूप में ही समझे जाने चाहिए जो प्रसंगवश आ गए हैं। असल में आज जातीय सभाओं का बहुत जोर है। कायस्थ सभा, राजपूत सभा, कुर्मी (कूर्मक्षत्रिाय) सभा, ग्वाला (यादव) सभा, मैथिल सभा, भूमिहार ब्राह्मण सभा आदि के रूप में ये सभाएँ पहले से तो थीं ही। खूबी तो यह है कि हमारे बड़े से बड़े राष्ट्रवादी भी उनका विरोधा नहीं करते, किन्तु उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पनपने देकर उनके शिकार अनजान से ही सही, कभी-कभी बन जाते हैं। इस तरह ये सभाएँ अपना जहर फैलाकर राष्ट्रीयता का गला अबाध रूप से घोटे रही हैं। खूबी तो यह है कि उनके इस मारक (कातिल) नश्तर का किसी को पता ही नहीं लगता और वे अपना काम कर जाती हैं। इनके करते गरीबों की किसानों और मजदूरों की ही बहुत बड़ी और असली हानि हो रही है। यही बात इस पुस्तिका में दिखाई गई है और किसानों को चेतावनी दी गई है कि वे चेत जाएँ। सभी लोगों का यह कर्तव्य भी बताया गया है कि किसानों की सेवा ही असली सेवा है समाज और जाति का वास्तविक हित है और यदि खास-खास जातीय सभाएँ करनी ही हैं तो उनमें किसानों के ही हिताहित का विचार होना चाहिए। गरीबों के लिए तो रोटी का सवाल ही सबसे गहरा और प्रधान है। जाति और धर्म का प्रण तो धानियों के ही स्वार्थ से सम्बन्ध रखता है (यह बात उस पुस्तिका में दर्शाई गई है) आशा है, इससे श्रमजीवियों तथा उनके सेवक कहने वालों की ऑंखें खुलेंगी और वे इन जातीय सभाओं के जाल को तोड़ने तथा किसानों का संगठन करने की ओर मुस्तैदी के साथ अग्रसर होंगे। स्वामी सहजानन्द सरस्वती अक्षय नवमी (1946) श्री सीतारामाश्रम, बिहटा, पटना
किसानों को फँसाने की तैयारियाँ जब तक वर्ण व्यवस्था और जाति-पाँति का विभेद रहेगा तब तक हजार न चाहने पर भी जातीय सभाएँ और पत्रिाकाएँ रहेंगी ही। यह दूसरी बात है कि वह जाति विभेद (विभाग) हिन्दुओं की शैली का हो जिसका मूलाधार जन्म क्रिया (कर्म)तथा खानपान के सहित विवाह सम्बन्ध हो या अन्य देशों की तरह जन्म से न होकर आर्थिक स्थिति और बँटवारे के आधार पर हो। मालूम होता है जाति विभाग मानव समाज के रूप और धामनियों में निहित हो परम्परा प्राप्त है। यह दूसरी बात है कि कभी वह प्रकट रहता है और कभी अन्तख्रहत। पहले भी और आज भी ये आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक प्रश्नों के आधार पर नई विचारधाराएँ काम करती थीं और कर रही हैं वह इसी स्वाभाविक जातिवाद की गुत्थियों के सुलझाने की विभिन्न चेष्टाएँ हैं। चाहे धनी और गरीब ये दो ही जातियाँ मानकर या कमाने वालों तथा खाने वालों का ही जातिद्वय स्वीकार कर कोई विचारधारा बहती हो या पूँजीपति तथा मजूरों की श्रेणियों के विचार से कोई आन्दोलन खड़ा हो या ऐसा ही कोई दूसरा विभाग हमारी विचार और प्रचार शैली का मूलाधार हो। लेकिन जातिवाद हमारा पिण्ड नहीं छोड़ता। कम से कम अब तक के इतिहास में तो इसके पिण्ड छोड़ने का पता नहीं चलता। यदि बीच में कभी किसी ने इसे मिटाने का प्रबल उद्योग किया भी तो वह थोड़े ही काल में विलीन हो गया, या ठीक उसी तरह जैसे स्वाभाविक पदार्थ के सामने कृत्रिम नहीं टिकता और फिर पूर्ववत्, जातिवाद की तूती बोलने लगी। बुद्ध, ईसा, मुहम्मद आदि ने जरूर इस जातिभेद को मिटाकर मनुष्य मात्र में समता एवं भ्रातृभाव का प्रचार करना चाहा। लेकिन उन्हीं के नाम पर चलने वाले धर्म सम्प्रदायों में जाने कितनी जातियाँ एवं उपजातियाँ पाई जाती हैं। ऐसी दशा में आगे हम सम्भवत: इस जातिवाद को मिटाकर संगठन (एकता) लाने में सफल होंगे। इस दिमागी दुनिया में दौड़ लगाने की अपेक्षा बुध्दिमत्ता इसी में है कि वास्तविक स्थिति का सामना हिम्मत के साथ किया जाए और जातिवाद के चलते होने वाली हानियों से देश और समाज की रक्षा की जाए। क्योंकि यह तो कहा नहीं जा सकता कि एक प्रकार से स्वाभाविक होने पर भी यह जातिवाद एकमात्रा बुराइयों का ही जन्मदाता है, न कि उससे कभी भलाई हुई है या आगे होगी। यदि बुध्दिपूर्वक हठ छोड़कर काम किया जाए तो इससे लाभ बहुत ज्यादा हो सकते हैं। पहले भी हुए हैं। जाति का सही उपयोग फलत: सभी ईमानदार पत्रों और जातीय सभाओं का कर्तव्य है कि वे सर्वप्रथम राजनीति से असहयोग कर लें। वह अपना यह मुख्य नियम बना लें कि वे राजनीतिक चक्र में, फिर वह चाहे सीधो हो या टेढ़े कदापि पड़ने को तैयार न हो। राजनीति से मेरा मतलब सरकारी चुनावों से लेकर कांग्रेस या उग्रतम दल की उग्रतम राजनीति से है। मैं जानता हूँ कि इस राजनीति के प्रेम ने हमें धोखा दिया है, हालाँकि आवेश में आकर उग्र राजनीति वाले भी अपनी राजनीति में जातीय सभाओं और उनके नेताओं को, सफलता की क्षणिक अधीरता में प्राय: घसीट लिया करते हैं। ऐसी सभाओं में भाग लेने वाले लोग उन्हीं के नाम पर न कि जातीय सभाओं के नाम पर अच्छी तरह काम कर सकते हैं। हालाँकि मेरा विश्वास-सा होता जा रहा है कि जातीय सभाओं के लीडर, कार्यकर्ता एवं स्तम्भ, इतने मलिन हो जाते हैं कि राष्ट्रीय या उस काम से लाभ के बजाए हानि ही अधिक होती है गो कि आरम्भ में उस हानि का ज्ञान हमें नहीं होता। किसी स्वतंत्र रूप से तो उन्हें राजनीति से अलग ही रहना चाहिए। उन्हें न राजभक्ति से मतलब होना चाहिए न राजद्रोह से न डिस्ट्रिक्ट बोर्डों और कौंसिलों आदि से और न उनके बायकाट से। इन सबों को वे भूल जाएँ तभी वे ठीक रास्ते पर चलके समाज की, जाति की, सेवा कर सकते हैं। मैं मानता हूँ कि आज के विषाक्त वायुमण्डल में भूल जाना तो असम्भव ही है। ऐसी हालत में उन्हें यह प्रस्ताव या निश्चय करके उसे बराबर दोहराते रहना चाहिए कि जो लोग जाति के नाम पर वोट माँगें या इस ढंग की कोई बात करें उनका बहिष्कार होना चाहिए और हर जाति सेवी का पवित्र कर्तव्य होना चाहिए कि उन्हें इस काम में निराश करें। यदि जातीय सभाएँ और पत्र-पत्रिकाएँ अपनी कार्यवाही का श्रीगणेश ईमानदारी एवं मुस्तैदी के साथ इस निश्चय के साथ करें तो समाज के अधिेकांश झगड़े मिट जाएँ और वे कामचलाऊ और निर्दोष सिद्ध हो जाएँ। धर्म का जाति द्वारा सही उपयोग राजनीति के सिवाय धर्मनीति की ठेकेदारी भी इन संस्थाओं के लिए ठीक नहीं। ठेकेदारी कहने से ही मेरा मतलब साफ हो जाता है। अच्छा तो होता कि ऐसी संस्थाएँ धर्म से सोलहों आने मुख मोड़ लेतीं और उसे व्यक्तियों की आजादी पर व्यक्तिगत वस्तु समझकर छोड़ देतीं। क्योंकि धर्म असल में यदि उपयोगी सिद्ध हो सकता है तो व्यक्तिगत वस्तु बनकर ही, न कि सार्वजनिक पदार्थ बनकर। उसके व्यक्तिगत वस्तु बने ही धर्म के नाम पर होने वाले सभी झगड़ों का अन्त हो जाएगा, जिससे समाज की रक्षा के साथ ही धर्म की भी रक्षा हो जाएगी) लेकिन यदि यहाँ तक जाना उनके लिए सम्भव न हो और वर्तमान दशा में सम्भव होगा नहीं यह मैं मानता हूँ तो अच्छा और सर्वोत्ताम उपाय यही है कि वे संस्थाएँ सार्वभौम या साधारण धर्मों पर ही जोर दें और उसी में लोगों की प्रवृत्ति करावें। ये साधारण धर्म, दया, सत्य, सदाचार, निर्भीकता आदि है जिनका उपदेश मन्त्रादि आचार्यों ने 'क्षमा दमन' आदि-आदि के रूप में किया है। ये धार्म ऐसे हैं कि इनमें किसी धार्म या सम्प्रदाय वाले को विवाद नहीं हो सकता नहीं होना चाहिए। यह तो मानना ही होगा कि एक जाति के भीतर भी कितने ही धर्म सम्प्रदायों के मानने वाले लोग होते ही हैं। ऐसी दशा में जातीय संस्थाएँ किसी भी साम्प्रदायिक बात में कैसे पड़ सकती हैं और साथ ही अपने को जाति मात्र की हितचिन्तक होना सिद्ध कर सकती हैं। वर्तमान जाति आधारित राजनीति बहुत ही अदब पर स्पष्टता के साथ मैं कह देना चाहता हूँ कि चाहे पहले कुछ भी स्थिति रही हो, और मेरे जानते पहले भी यही थी, लेकिन आज तो जातीय संस्थाएँ एकमात्र कुछ इने-गिने, प्रतिष्ठि, चलते पुर्जे तथा धनिकों के राजनीतिक स्वार्थ साधान की सामग्री बन गई है और खूबी यह है कि खुल्लम-खुल्ला वहाँ समाज सुधाार की बातें की जाती हैं, लेकिन चुपके-चुपके राजनीतिक स्वार्थ साधन का षडयन्त्र किया जाता है। जहाँ पहले किसी उच्च पदस्थ अफसर की दरबारदारी और स्वागत कर देने एवं राजभक्ति बाहरी स्वाँग भरने से समाजों के ये चतुर खिलाड़ी अपने नजदीकियों तथा पिछुओं के लिए नौकरियाँ, ऊँचे पद और दूसरी रिआयतें हासिल कर लेते थे वहाँ उनके साथ ही अब चुनावों के युद्ध में भी सफलता पाते और पाना चाहते हैं। इस बात को मैं दृष्टान्त देकर स्पष्ट कर देता पर इसकी आवश्यकता नहीं समझता। यदि ये जातीय नेता और लीडर हिम्मत रखते तो यही बातें साथ-साथ करते और करते। लेकिन राजनीति का तो अर्थ ही है कूटनीति। फलत: ऐसे मामलों में 'भीतर कुछ बाहर कुछ' या 'अन्त: शाक्ता: बहि: शैवा:' होना शोभास्पद माना जाता है। राजनीति के चतुर खिलाड़ी नट शुद्ध राजनीतिक संस्थाओं में भी अपनी धाक बनाए रखते हैं और भोली-भाली जनता की ऑंखों में इस प्रकार धूल फेकनें में सफल होते हैं। खूबी तो यह है कि अपनी जातीय सभाओं में ये भले मानस चुनाव में सहायता के प्रस्ताव भी नहीं करते और अपना उल्लू भी सीधा कर लेते हैं। समाज के लोगों में समाज के ही नाम पर ऐसी मनोवृत्ति इन सभाओं और उनके पोषण पत्रों के द्वारा लोगों में भर देते हैं कि अपने समाज का कैसा भी आदमी हो दूसरे समाज वाले से लाख दर्जे अच्छा है, हम और वह एक ही अमुक समाज के हैं, बस इतना ही इसके लिए काफी है कि हम उसे ही मदद करें, वोट दें, जितावें आद-आदि। कोई भी विचारशील सोच सकता है कि राष्ट्र के उत्थान के लिए यह मनोवृत्ति कितनी जहरीली है। इस प्रकार ये सभाएँ प्रवेचना तथा देशद्रोह राष्ट्रविद्यात का साधन बन जाती हैं। इससे तो कहीं अच्छा होता कि इन संस्थाओं में इस विषय के स्पष्ट प्रस्ताव ही पास या पेश किए जाते। क्योंकि ऐसा होने से कम से कम शुद्ध राष्ट्रवादी तो इनके चक्र में और जाल में नहीं फँसते, जो अन्यथा फँस जाते हैं। यही नहीं यदि ऐसे प्रस्ताव आवें तो शायद बहुमत उनके पक्ष में हो भी नहीं। कारण कुछ लोग तो नक्कू बनने के डर से और कुछ राष्ट्रीयता के विचार से ही ऐसे प्रस्तावों का समर्थन न करेंगे। फलत: इन संस्थाओं की चालाकी इसी में है कि स्पष्ट न बोलकर केवल प्रचार मनोवृत्ति और इशारे के बल से ही यारों के मतलबों को पूरा कर देती हैं। अवसरवादी सही उपयोग लोग कहेंगे कि मैं इन संस्थाओं के साथ और खासकर उनके स्वयंभू नेताओं के साथ घोर अन्याय इस तरह कर रहा हूँ। मगर बात यह नहीं है। जो जातियों, उपजातियाँ आज सभ्य या ऊँची नहीं हैं वह भले ही अपनी सभाओं के द्वारा समाज हित की बातें करती हैं और समाज की बुराइयों को दूर करती हैं, सामाजिक बन्धन को ढूँढ़ कर के अनाचार और अत्याचार को समाज से हटाती हैं। इसके दृष्टान्त चमार, दुसाधा, धोबी आदि की पंचायतों में पाए जाते हैं। मगर यह सामान्यता उच्च कही जाने वाली जातियों की सभाओं के बारे में भी क्या ऐसी बात पाई जाती है। ज्यों ही कौंसिलों और बोर्डों के चुनाव का समय आया कि जाति हित की दोहाई दी जाने लगी और यादों के मेढक की तरह जातीय सभाएँ पैदा होने लगीं। जो पहले से ही हैं वे पनपती हैं ऐसे ही समय में। बेशक बहुत से काम हैं जो इनके द्वारा अच्छी तरह किए जा सकते हैं। दृष्टान्त के लिए यदि समाज से निरक्षरता दूर कर उसे शिक्षित बनाने का ही काम ये सभाएँ और उनके पत्र तोलें और एतदर्थ पर्याप्त धान संग्रह कर योग्य एवं धुनी लोगों के हाथ में यह काम सौंप दें तो कितना बड़ा काम हो। असली बात तो यह है कि यही वास्तविक काम होगा। मगर इसके लिए केवल प्रस्ताव पास कर देना या बहुत हुआ तो दो-चार दस-बीस छात्रों को कुछ सहायता दे देना ही पर्याप्त समझा जाता है। जब तक निरक्षरता हटाने और शिक्षित बनाने की स्कीम बनाकर तदुनसार काम न हो तब तक क्या 'उड़ा सतू पितरों को' वाली कहावत इस प्रकार चरितार्थ करने से काम चलने का। लेकिन यह तो मानी हुई बात है कि यदि समाज शिक्षित हो जाएगा तो फिर वह एक-एक करके राजनीतिक पदों और नौकरियों को पहले इन चतुर नटों से छीनने की तैयारी करेगा और इस बात को वे बर्दाश्त नहीं कर सकते। समाज में शक्ति और बल आ जाने पर, सुबुध्दि और विवेक आ जाने पर इन स्वयंभू नेताओं की लीडरी और धाक जो छिन जाएगी। इस दुनिया में ऐसा कौन बेवकूफ है जो अपने पाँवों में स्वयं कुल्हाड़ी मारे। अतएव सामाजिक लीडर लोग शिक्षित बनाने की बातें और प्रस्ताव तो करते हैं ताकि अपढ़ जनता जिसके हाथ में वास्तविक राजनीतिक शक्ति है और उसका प्रयोग करना नहीं जानती, इनकी ओर आकृष्ट हो जाए और ये उपकारी बनके अपना काम निकाल लें लेकिन उस प्रस्ताव को असली जामा पहनाने में तो इनकी हस्ती स्वयं खतरे में है। नहीं तो फिर पचासों वर्षों तक लगातार प्रस्ताव करने पर भी न सभाओं के पास समाज को शिक्षित बनाने की स्कीम और जरूरी कोष (फंड) क्यों नहीं हुआ? क्या समाज में दिमाग की कमी है या धान की? मेरे जानते तो कमी एक की भी नहीं और अगर किसी को है तो ईमानदारी, नीयत और सच्ची लगन की। शिक्षा प्रसार जरा इस शिक्षा वाले प्रश्न के और भी भीतर प्रवेश करके देखना चाहिए। दृष्टान्त के लिए भूमिहार ब्राह्मण सभा को ही ले सकते हैं। महासभा के महारथियों का कहना है कि इसका जन्म कांग्रेस का समकालीन है। लेकिन इसने क्या किया इसे भी तो देखना चाहिए। और बातों को अभी छोड़ देता हूँ और केवल शिक्षा प्रचार की बात ही लेता हूँ। प्रस्ताव तो बराबर होते रहे। लेकिन काम? यदि इस सम्बन्ध का महासभा का कार्य देखा जाए तो बुरी तरह हताश होना पड़ेगा। न तो कभी कोई समुचित प्रयत्न करके पर्याप्त कोष हमें संगृहीत हुआ और न कोई स्कीम ही दिमाग लगाकर तैयार की गई। हाँ, कुत्तो के टुकड़े की तरह कभी-कभी बहुत दरबारदारी करने पर, कुछ पढ़ने वालों को चन्द रुपए मासिक या एक मालिक दे दिए गए और बस? यह समाज तो धानियों और जमींदारों का माना जाता है। फलत: रुपए की कमी तो इसमें है नहीं। दिमाग की भी कमी नहीं कही जा सकती। जो लोग स्वायत्त शासन विभाग में सरकार का और डिस्ट्रिक्ट तथा लोकल बोर्डों का संचालन कर सकते हैं संचालन करने का दावा रखते हैं, उनके बारे में कैसे कहा जाए कि दिमागदार नहीं हैं और निरक्षरता को समाज से निर्मूल करने की कोई स्कीम वे सोच ही नहीं सकते? जो कौंसिलों की कुर्सयाँ बराबर तोड़ते रहे और आगे भी तोड़ने को अधीर हो रहे हैं, क्या उनके दिमाग का दिवाला निकल माना जाए। कम से कम वे स्वयं कैसे यह स्वीकार करेंगे? तो फिर समाज को शिक्षित बनाने के लिए कोई स्कीम क्यों नहीं उन्होंने तैयार की? इसका जवाब उनके पास क्या है? क्या वे ईमानदारी के साथ कह सकते हैं कि समाज को शिक्षित बनाने में उनकी सहायता कोई नाम लायक स्थान रखती है? भूमिहार ब्राह्मण कालिज, महासभा का विद्याकोष जो कि दोषग्रस्त रोगी की तरह कभी-कभी सिर उठाया करता है। कदम कुऑं (पटना) तथा अन्यान्य स्थानों के छात्रावास जो जन्म के मर गए, इस बात के जन्मजात प्रमाण हैं कि महासभा के नामधारी नेताओं ने समाज में शिक्षा विस्तार के लिए क्या किया? मैं जानता हूँ कि महासभा के पुनर्जन्म के लिए आज फिर सिर तोड़ परिश्रम वर्षों से होने लगा है और शायद एकाध वर्ष तक होता रहेगा भी। हो सकता है उसका पुनर्जन्म भी हो यह भी मानता हूँ कि कुछ सीधो-सादे और भोले-भाले लोग हृदय से ईमानदारी के साथ उसको जिलाना चाहते हैं कि उसके द्वारा समाज की सेवा वास्तविक सेवा की जाए। मुझे उनकी सिधाई और भोलेपन पर दया आती है। वे भावुक तथा निर्दोष लोग अभी तक यह समझ ही नहीं सके हैं कि महासभा ने समाज की कोई सेवा नहीं की है प्रत्युत उसे रसातल की ओर ले जाने में उसका काफी हाथ रहा है। इसके स्वयंभू नेताओं ने तिलक-दहेज आदि सामाजिक कुरीतियों के हटाने के सम्बन्ध में जिस 'खुदा मियाँ से चोरी करने, या 'डूबकर पानी पीने' की नीति का अवलम्बन किया है। उससे समाज को महान आघात पहुँचा है। मगर इन बातों पर कभी पीछे प्रकाश डाला जाएगा। इसीलिए कहता हूँ कि महासभा के बारे में भोले-भाले लोगों की जो धारणा है उनके लिए तो उन पर दया आती ही है। लेकिन उन्हें छोड़कर एक दूसरा छोटा, परन्तु चलता पुर्जा, जबर्दस्त दल है जिसके लिए महासभा चुनावों में सफलता का साधान मात्रा है। वह आज उसके बिना 'डाल से गिरा बानर' हो रहा है और उसे पुनर्जन्म देने में आकाश-पाताल एक कर रहा है। यह उसी की बात नहीं। हर समाज को ऐसे अमलों में कठपुतली की तरह नचाने वाले कुछ रहते ही हैं और इसी प्रकार अपनी-अपनी सामाजिक सभाओं के लिए बेहाल रहते हैं और हो रहे हैं भी। परन्तु जहाँ तक समाज को शिक्षित बनाने से सम्बन्ध है। इन कलाबाज नटों का पता भी नहीं है। आखिर समाज के सीधो-सादे लोगों को शिक्षित बनाकर ये लोग अपने लिए बला क्यों पैदा करें? अंग्रेजी सरकार ने भारत को जो थोड़ी बहुत पाश्चात्य शिक्षा दी उसका नतीजा ऑंखों के सामने है। लोगों की ऑंखें खुलीं और वे अब उस सरकार से ही भिड़ने लगे यहाँ तक कि उसे उखाड़ फेंकने की हिम्मतें बाँधते हैं। क्या इससे हमारे जातीय नेता शिक्षा नहीं ग्रहण करते? आखिर नौकरियों और कौंसिल, असेम्बली, बोर्ड आदि की सीटें तो अपरिमित हैं नहीं और हो भी नहीं सकती हैं। ऐसी हालत में जब हर समाज में ज्यादा लोग शिक्षित हो जाएँगे तो फिर जाति के नाम क्यों कुछ गिने गुथे ही लोग इन जगहों पर जाएँगे और नए लोग दावेदार क्यों न होंगे? आखिर जाति तो इन स्वयंभू नेताओं की ही अकेली है नहीं, प्रत्युत इन नए पढ़े-लिखे लोगों की भी है गरीबों की भी है। बल्कि गरीबों की ही ज्यादा है। ऐसी हालत में नए पढ़े-लिखे लोग, जो आमतौर से साधारण और गरीब श्रेणी के ही होंगे जाति के 95 फीसदी लोग जनता में से ही होंगे मजबूरन इन लीडरों के विरोध् में केवल दावेदार ही नहीं होंगे, प्रत्युत सफल भी होंगे यह मानी हुई बात है। समाज की ऑंखें खोलने और उसे शिक्षित बनाने का यही असली खतरा है और जातीय नेता लोग इसे खूब समझते हैं। यही कारण है कि शिक्षा विस्तार की कारगर स्कीम बना और तदर्थ पर्याप्त धान संग्रह करके वे अपने ही पाँवों में कुल्हाड़ी मार नहीं सकते। साथ ही, भोली जनता में अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने एवं अपने लिए कुछ भाड़े के टट्टू, जो टुकड़े के लोभ से सर्वत्र उनके गुणगान से गगन को गुंजायमान कर दें, भी तैयार करने की आवश्यकता वे समझते हैं। इसीलिए समाज में शिक्षा प्रचार की बात जातीय सभाओं में करते रहते और चन्द लोगों को कभी-कभी कुवृत्तियाँ भी देते रहते हैं। समय-समय पर सिर उठाने तथा बड़-बड़ाने वाले शिक्षा कोषों का भी यही रहस्य है। भूमिहारों द्वारा भूमिहारों का शोषण आखिर इस दुनिया में स्वार्थों का परस्पर संघर्ष तो चलता ही रहता है और यह तो कही नहीं सकते कि एक समाज के सभी लोगों का स्वार्थ एक ही है। ऐसा समाज चाहे आगे चलकर भले ही पैदा हो जाए। परन्तु आज तो समाज भीतर भी स्वार्थों का जबर्दस्त संघर्ष है। धनी, गरीब, मजूर, पूँजीपति और रैयत, जमींदार के परस्पर विरोधी स्वार्थ रोज टकराते रहते हैं। क्या जमींदार अपने रैयतों पर केवल इसलिए कि वे उसी की जाति के हैं और उन्हीं के वोटों से उसे चुनावों में जीतना है जोर-जुल्म और नादिरशाही करने से बाज आ जाता है? बाज आ जाएगा? और समाजों की बात छोड़ कर केवल भूमिहार ब्राह्मण समाज की ही बात लेने पर कम से कम बिहार प्रान्त में तो मैं कह सकता हूँ कि आज कई लाख भूमिहार ब्राह्मण किसान उँगलियों पर ही गिन लिये जानेवाले कुछ ही भूमिहार ब्राह्मण जमींदारों के द्वारा बेरहमी के साथ बुरी तरह अत्याचार की चक्की में पीसे जा रहे हैं। खूबी तो यह है कि उन्हीं गरीबों के बल पर ये महानुभाव लोग कौंसिलों और बोर्डों के मंचों तथा कुर्सयो पर विराज चुके और विराजते ही नहीं, आगे भी विराजने की हिम्मत बाँधो हुए हैं। यहाँ पर एक स्पष्ट प्रश्न किया जा सकता है। यदि इन गरीब किसानों को हमारे ये पढ़े-लिखे धनी जमींदार, भूमिहार ब्राह्मण महासभा के द्वारा छात्राावास और शिक्षा कोष खोलकर शिक्षित बना देते और उनकी ऑंखें इस प्रकार खोल देते कि अपने हकों को पहचान सकें तथा अपने कर्तव्य जान सकें, तो उनके वोट क्या इन जमींदारों को मिले होते या आगे भी मिल सकते? यह साफ बात है कि बैल तो तेली का अपना ही होता है और तेली उससे काफी मुहब्बत भी रखता है, उसे खिलाता-पिलाता भी खूब है। लेकिन यदि उसकी ऑंखें मूँद कर न रखे तो क्या उसकी मर्जी बेमुताबिक छोटे दायरे के भीतर बराबर तेली के कोल्हू में वह चलता रहेगा और मस्ती न करेगा भड़केगा नहीं? जरूर भड़केगा और तेली के कोल्हू के जुए को उतार फेंकेगा। इसीलिए तेली के प्रेम की भी सीमा है और उसी सीमा के भीतर वह अपने बैल से प्यार करेगा। उसकी ऑंखें खोलने में खतरा होने से यह काम वह कर नहीं सकता। ठीक इसी प्रकार जातीय प्रेम की भी सीमा है और जातीय नेता लोग भी उसे अतिक्रम करने में साफ खतरा देखते हैं। फलत: समाज की ऑंखें ये खोल नहीं सकते। बलि के बकरे के साथ भी तो मुहब्बत की ही जाती है और उसे खिला-पिला कर मोटा किया जाता है उसमें स्वार्थ है। लेकिन उस बकरे को बाघ बनाने की बेवकूफी कौन करेगा सिवाय उस भोले हितोपदेश के ऋषि के जिसने चूहे को बाघ बनाकर अपनी जान खतरे में डाली? यही है जातीय प्रेम और जातीय संस्थाओं की लीडरी का वास्तविक रहस्य। एक ही स्वार्थ के धनी या गरीब, किसान या जमींदार यदि अपनी-अपनी सभाएँ करें तो यह बात समझ में आ सकती। लेकिन धनी, गरीब किसान, जमींदार की खिचड़ी सभा का मतलब समझना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। यद्यपि कहा जा सकता है कि कांग्रेस या इस ढंग की सभाएँ ऐसी हैं जिनमें एक ही स्वार्थ के लोग नहीं रहते। हिन्दू-मुसलमान वगैरह ऐसे सम्प्रदाय वाले हैं जिनके धर्म और जिनकी सभ्यता का परस्पर मेल नहीं खाता और जहाँ तक इन बातों का ताल्लुक है उनके स्वार्थ परस्पर भिन्न है। फिर भी उनकी सभाएँ किसी एक विशेष लक्ष्य को लेकर होती हैं। इसी प्रकार धनी, गरीब और जमींदार किसान के स्वार्थ भिन्न होने पर भी किसी खास मतलब को सामने रखकर इनकी सभा का होना असम्भव था। कठिन क्यों होगा? यों तो व्यक्तियों के भी स्वार्थ परस्पर भिन्न होते ही हैं उनका आपस में मेल नहीं होता। तो क्या धनी या गरीब अथवा जमींदार या किसान किसी भी एक दल के लोगों की भी कोई सभा नहीं होनी चाहिए? यह तो अनुभव के विरुद्ध है और रोज ही देखते हैं कि जमींदार या किसानों की सभाएँ होती ही हैं। ऐसी हालत में सभाओं के सम्बन्ध में एक स्वार्थ का सवाल उठाना धोखे से खाली नहीं है और ऐसे सवाल करने वाले सभी प्रकार की सभाओं में शतु अपने ही बयान से सिद्ध हो जाएँगे। असल में स्वार्थ तो विचार और दिमाग की चीज है। बाहरी पदार्थों में कहीं भी स्वार्थ का लेबुल नहीं लगा है। मानव समाज अपने ही विचारों से हर पदार्थ में स्वार्थ और अस्वार्थ का दर्शन करता और इस प्रकार के स्वार्थ की झाँकी के ही बल पर किसी दल विशेष का एकीकरण होता है न कि वह स्वार्थ कोई स्थायी और निख्रदष्ट पदार्थ है। फलत: हर एक जाति समाज या दल के लोग, फिर चाहे धनी हों या गरीब, जमींदार हों या किसान, शिक्षा प्रचार कुरीति संहार आदि बातों में एक स्वार्थ की कल्पना करके एक सूत्र में आ बह सकते हैंµएक सभा कर सकते हैं और इसमें कोई भी विरोध नहीं हो सकता। मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएँ लेकिन यदि इन दलीलों की तह में प्रवेश करके देखा जाए तो अन्त में हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि एक स्वार्थ वाली बात बहुत ही ठीक है। स्वार्थ से हमारा मतलब धर्म, रक्षा, स्वर्ग, बैकुण्ठ, नैतिकबल, कुरीति संहार सभ्यता की रक्षा आदि से नहीं है। वे सब चीजें जो आदमी को तभी सूझती हैं, याद आती हैं जब पेट भरा होता है, तन ढँका होता है और अपमान की ज्वाला से वह प्रतिक्षण दग्धा होता नहीं रहता। पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए, जमीन-जायदाद के लिए, रोटी के लिए क्या हम नहीं देखते कि धर्म, सभ्यता, बैकुण्ठ, स्वर्ग आदि सभी बातों को लोग आए दिन तिलांजलि देते रहते हैं। न्यायालयों में प्रतिदिन झूठी गवाहियों और बनावटी बयान आखिर किस बात के सुबूत हैं? जब गंगा, तुलसी, शालिग्राम, नर्मदेश्वर, वेद, कुरान, पुराण की कसमें खाके भी सरासर झूठे और जाली बयान दिए दिलाए जाते ही हैं और ये कोई इनकी उनकी घटनाएँ नहीं हैं, किन्तु जीवन का अपरिहार्य अंग हैं, साथ ही इनसे बचे भी कोई ही माई के लाल हैं तो फिर इसमें भी क्या सन्देह करने की जगह है कि असली और खरा स्वार्थ जनसाधारण की नजरों में क्या है? किसी बात का निश्चय तत्सम्बन्धी प्राकृतिक या दैनिक नियम देखकर ही किया जा सकता है न कि अपवादों से कोई महत्वपूर्ण बात सिद्ध होती है? भूख की हालत में यदि लाखों-करोड़ों में कोई सन्त-महात्मा, औलिया, फकीर, अवतार, पैगम्बर भगवान में लीन हों और दूसरे की परवाह न करते हों या जमीन-जायदाद की परवाह न करके कोई बिरला बहादुर सत्य से डिगने को तैयार न हो तो इतने से ही यह नहीं माना जा सकता कि मानव समाज या जनसाधारण का पक्का स्वार्थ रोटी, कपड़ा, जमीन-जायदाद, आदि को छोड़कर और ही है। यदि ऐसी कोई चीज हो भी तो वह व्यावहारिक नहीं है, रोजाना जिन्दगी के काम में आने की चीज नहीं है और व्यावहारिक पदार्थों को ही देखना होगा। अव्यावहारिक पदार्थों की तरफ नजर दौड़ाना पहले दर्जे की बेवकूफी होगी और ऐसे पदार्थ कभी सिद्ध भी नहीं हो सकते। हमें तो सन्त-महात्माओं और औलिया फकीरों का एकीकरण या संगठन नहीं करना है, जिनकी अन्तर्दृष्टि है जो पहुँचे हुए हैं! हम तो मांस चमड़े से चिपटने वाले पामर मनुष्यों का संगठन करने और उनकी सभा कायम करने वाले हैं। अतएव हमें इन्हीं मनुष्यों की मनोवृत्तिा पर ध्यान देना होगा। इन्हीं की मनोवृत्ति का सबसे पहले अध्ययन करना होगा, यदि हम उनके संगठन को वास्तविक और सच्चा रूप देना चाहते हैं, उसे पक्का बनाना चाहते हैं। असल में रुपया, पैसा, रोटी, कपड़ा, जमीन-जायदाद ये ठोस और भौतिक पदार्थ हैं। इनके विपरीत धार्म, परलोक आदि दिमागी और आध्यात्मिक वस्तुएँ हैं। फलत ठोस भौतिक पदार्थों के विरोध्यान में ये टिक नहीं सकते हैं। यही प्रतिदिन का अनुभव है। हमारी दृष्टि भौतिक है। अतएव भौतिक पदार्थों को ही हम ठीक-ठीक देखते हैं। आध्ययात्मिक दृष्टि तो इस संसार का नियम नहीं, अपवाद है। फलत: व्यावहारिक बनने के लिए व्यावहारिक दृष्टि ही रखनी होगी। हाँ, जब पेट भर जाएगा और जीवन आराम से कटेगा तो अध्यायात्म चिन्तन में भी जनसाधारण जा सकते हैं। इसीलिए उसे कठोपनिषद् में तलवार या छुरे की धार बताया है और कहा है कि जानकारों का कहना है कि वह मार्ग दुर्गम है 'क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति?' और यह मानी हुई बात है कि तलवार की धार पर तो कोई सुचतुर नट या कलाबाज ही पार कर सकता है, न कि जनसाधारण अतएव उदयनाचार्य के शब्दों में शाक-भाजी और हल्दी-अदरक बेचने वाले महाजन। साधाेरण को जवाहरात ढोने वाले जहाज की क्यों फिक्र करनी चाहिए? 'कि मार्द्रक वणिजी वहिन्न चिन्तया?' जाति सभा जाति विरोध, धनपतियों की पोषिका अब रही व्यक्तिगत स्वार्थ के परस्पर विरोधा की बात। यह भी कुछ नहीं है। रोटी, कपड़ा, जमीन, जायदाद का प्रश्न ऐसा है कि सभी मिल जाते हैं। केवल कुछ धानियों और जमींदारों का मेल नहीं खाता। कारण, उनका स्वार्थ तभी सिद्ध होगा जब बाकी लोग दरिद्र, भूखे या बिना जमीन के बन जाएँ। क्योंकि उन्हें बहुत ज्यादा चाहिए। लेकिन हम तो ज्यादा का भी प्रश्न नहीं उठाते, बहुत ज्यादा की तो बात ही दूर। आखिर मानव जीवन की कुछ आवश्यकताएँ ऐसी हैं, जिनमें विवाद नहीं और जिनकी पूर्ति अधिकांश चाहते हैं। फलत: उन अनिवार्य आवश्यकताओं का (Bare Necessities) के आधार पर अधिकांश लोगों का एक संगठन हो सकता है और उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। वह तो सभी का स्वार्थ है। हमें उसी से मतलब है वह ऐसा है जिसमें धानी या जमींदार मिल नहीं सकते। अधिकांश लोग ऐसे ही हैं जो उन अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर ही नहीं सकते। फलत: रोज तड़पते रहते और कोई रास्ता चाहते हैं। यदि उनके लिए कोई रास्ता या उपाय निकल आवे तो वे सारी शक्ति से उसमें लग जाएँ। बस हम ऐसी ही सभा या ऐसा ही संगठन सम्भव समझते हैं, जिसमें सभी का ठोस या भौतिक स्वार्थ एक हो और किसी का मतभेद न हो। उसकी सिध्दि के बाद ही व्यक्तिगत स्वार्थ का झगड़ा खड़ा हो सकता है। क्योंकि वह तो ज्यादा या बहुत ज्यादा के आधार पर होता है। और जब जरूरत भर ही अभी नहीं है तो ज्यादा का प्रश्न ही कहाँ? अगर कुछ हो सकता है तो इतना ही कि आज भी कुछ गरीब कहाने वाले शायद अभी से 'ज्यादा' का खयाल करें और धानिकों के बहकाने में पड़कर न मिलें। तो इससे क्या? अधिकांश तो फिर भी मिलकर ही काम करेंगे और कुछ बहकें भी तो यह उनके संगठन का ही अप्रत्यक्ष फल होगा और इस प्रकार उसकी जरूरत को सिद्ध करेगा। कांग्रेस की मजबूती और दृढ़ता इसी में है कि वह ठोस स्वार्थ को ही आगे रखती है। वही उसका लक्ष्य है। जातीय सभाएँ इस ज्वलन्त सत्य को देखती ही नहीं। क्योंकि देखने पर उनका अस्तित्व कायम ही नहीं रह सकता। उनका अन्त कोई नहीं रोक सकता। यही कारण है कि वे कुछ चलता पुर्जा लोगों के हाथ के खिलौने बनकर उनका मतलब साधा करती हैं और इस प्रकार उसी जाति के अधिाकांश लोगों के पाँव में कुल्हाड़ी मारती हैं उनके ठोस स्वार्थ का गला घोंटती हैं ेसो भी उन्हीं की सहायता से। जीवन संघर्ष यहाँ कुछ जातीय सुधार और समाज सेवा का दम भरने वाले ऐसा कहने का साहस करते हैं कि अमीरों और पूँजीपतियों के विपरीत मजदूरों का संगठन और आन्दोलन समूचे देश में कलह की अग्नि प्रज्वलित करनेवाला है और इस प्रकार समाज की उन्नति के मार्ग का काँटा है तथा किसानों और जमींदारों का झगड़ा समाज के बीच में और लम्बी दीवार खड़ा करने वाला है। जो लोग ऐसा विचार रखते हैं वह समझते हैं कि देश केवल कुछ धानियों और पूँजीपतियों से ही बना है और समाज का अर्थ है उँगलियों पर गिने जाने वाले कुछ जमींदार। ऐसी भावना रखने वाले महानुभाव यह भूल जाते हैं कि संसार में सामान्यत: और हमारे देश में विशेषत: अमीरों की संख्या मुश्किल से पाँच ही फीसदी है। बाकी 95 फीसदी गरीब और मजूरी करने वाले ही हैं। फलत: 95 फीसदी को देश न मानकर केवल 5 फीसदी की ही भावना वस्तुस्थिति से ऑंखें मोड़ना है और अगर 95 फीसदी को हम मानते हैं तो फिर उनकी भलाई और बहबूदी को भूल कैसे जाएँ? उनका संगठन न करना और उनकी ओर से घोर उपेक्षा दोनों के एक ही मानी हैं। संगठन को छोड़ उन्नति का सीधा सरल और सच्चा मार्ग दूसरा नहीं। यह दूसरी बात है कि इससे धानियों के साथ संघर्ष अनिवार्य है। लेकिन किया क्या जाए? कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं है। जीवन का नाम ही संघर्ष है और पुराने लोगों ने 'जीवो जीवस्य जीवनम्' कह के इस संघर्ष की अनिवार्यता को स्वीकार कर लिया है। फलत: जो इस संघर्ष से भागना चाहता है उसे जीने का कोई हक नहीं है, वह जी सकता नहीं। संघर्ष तो बहुत ही सुन्दर पदार्थ है और वीर आत्माएँ इसका स्वागत करने को सदा तैयार रहती हैं जरा उस कवि की मनोवृत्तिा का विचार तो कीजिए कि कैसी उदात्ता एवं वीर रसमयी है। जो कहता है कि 'आओ विपत्तिायाँ तुम दु:खों के साथ खोओ। पीटूँगा मैं तुम्हीं को तुम से ही या पिटुँगा।' वही तो पक्का लड़वैया और सच्चा योध्दा है जो हरदम संघर्ष के लिए तैयार रहे। एक बात और। चाहे हम हजार भागें, लेकिन यह संघर्ष हमारा पिण्ड छोड़नेवाला थोड़े ही है। वह तो हमें खदेड़ता ही जाएगा तब तक जब तक कि हम या तो मिट न जाएँ या उलट कर उसका अभिनन्दन न करें। जीवन संग्राम (Struggle for existence) का यही अर्थ है। लेकिन जिन्हें फिर भी इस संघर्ष का भूत भयभीत कर रहा हो वह क्यों नहीं अमीरों-धानियों तथा पूँजीपतियों से कह देते, उन्हें समझा देते कि वे अपना संगठन न करें उसे तोड़ दें? बस, संघर्ष अपने आप मिट जाएगा। कारण, दो विरोधी दलों के बलवान एवं संगठित होने से ही जबर्दस्त होने से ही संघर्ष होता है और मजूरों तथा गरीबों के संगठित होने पर भी यदि अमीर तथा पूँजीपति संगठित न हों तो भिड़न्त-संघर्ष का ही अवसर ही कहाँ रहा? वह होगा ही कैसे? लेकिन हम जानते हैं कि संघर्ष की दोहाई देने वालों में ऐसी हिम्मत कहाँ? म्याऊँ की ठौर पकड़ने की हिम्मत कैसे हो सकती है? और अगर कोई हिम्मत करके ऐसा करे भी तो क्या धानी और पूँजीवाले उसकी बात सुन सकते हैं? वे तो उसे पहले दर्जे की हिमाकत और बेवकूफी करके इस पर घृणा की हँसी हँस देंगे। हँसें भी क्यों नहीं? आखिर वे ऐसे उल्लू नहीं हैं कि अपनी हस्ती ही मिटाने को तैयार हो जाएँ। हमें यह न भूलना चाहिए कि संगठित लूट के बिना धान-सम्पत्तिा का संचय हो नहीं सकता, एतदर्थ और कोई रास्ता है नहीं। सम्पत्तिायाँ एकमात्रा इसी लूट से जमा होती हैं। ऐसी हालत में कौन अकल का अंधा अमीर होगा, जो अपने को दरिद्र बनाना चाहेगा। यह संघर्ष का भूत और हौवा इन्हीं अमीरों का खड़ा किया हुआ है और सीधो-सादे लोगों को इसी संघर्ष का भय दिखाकर वे गरीबों का संगठन रोकना चाहते हैं, ताकि उनकी लूट निरन्तर जारी रहे। फलत: संघर्ष की बात उठाकर गरीबों के संगठन को रोकने का उपदेश देने वाले अमीरों के दूत हैं ऐसा हम निस्संकोच कह सकते हैं। यह भी नहीं कि देश या समाज एक होने से ही अमीरों और गरीबों के स्वार्थों में विरोधा नहीं होता वे एक हो जाते हैं। यह तो बिल्कुल गलत बात है। असल में अमीरों का समाज निराला ही होता है और धर्म, सम्प्रदाय या जाति-पाँति का भेद उनके उस समाज का बाधक नहीं हो सकता नहीं होता है। सभी धर्मों और जातियों के अमीरों का एक ही समाज होता है और वे एक जगह बैठकर एक ही दृष्टिकोण से सोचते हैं। हमारी मिलों का माल महँगा हो हमें मजूरों को कम मजूरी देनी पड़े, हमें सूद भरपूर मिले, हमारी जमींदारी की आमदनी खूब बढ़े, समूची जमीन हमारी बकाश्त और जिरात हो जाए और कोई भी रैयत हमारे सामने सिर न उठा सके, फलत: हम और हमारे अमले उसे जिस घाट पानी पिलावें पिए इत्यादि बातें सभी धर्म और जाति के अमीर और धानी और जमींदार चाहते हैं। चाहते ही नहीं, किन्तु संगठित होकर इनके लिए उपाय भी करते हैं। धर्म, सम्प्रदाय और जाति समाज की ओट तो केवल इसीलिए लेते हैं कि इसके द्वारा उनके स्वार्थ साधना में आसान होता है। क्योंकि धार्मिक संस्थाओं और जातीय सभाओं एवं पत्रों का तो यह काम ही है कि धानियों के पैसे से अपनी आत्मा को यदि उनकी कोई आत्मा हो तो, बेचकर उनका गुणगान करें और उन्हें आसमान पर चढ़ा दें। ऐसी संस्थाओं तथा पत्र-पत्रिाकाओं को तो कुछ अमीर ही अपने इशारे पर नचाते रहते हैं जैसा कि अब तक का उनका इतिहास इस बात का साक्षी है। जाति सुधार की दोहाई भी वे लोग इसीलिए देते हैं कि अपने उत्सुकों को करने में उन्हें आसानी होती है। लेकिन अगर उन्हें पता लग जाए कि ये जातीय संस्थाएँ तथा पत्र-पत्रिकाएँ इस प्रकार उनका स्वार्थ साधान नहीं कर सकेंगी तो इनके विपरीत सबसे पहले बगावत का झण्डा वे अमीर ही खड़ा कर देंगे यह धा्रुव सत्य है। धन संग्रह का रहस्य इससे स्पष्ट है कि अमीरों का समाज निराला ही है और जाति या धर्म का भेद उस समाज का बाधक न होकर साधक ही है। उसी प्रकार गरीबों का एक समाज होना उचित है और उसमें धर्म या जाति को बाधक नहीं होना चाहिए। अब गरीबों को चूसने के लिए अमीरों का एक संगठन हो सकता है, होता है और सदा से होता आया है तो फिर गरीबों का भी एक संगठन अपनी रक्षा के लिए क्यों नहीं होना चाहिए लेकिन बात ऐसी है नहीं। गरीबों में तो संगठन है ही नहीं और अगर कोई उसके लिए यत्न करे तो वही संघर्ष और श्रेणी युद्ध का होना खड़ा किया जाता है और राग-द्वेष, घृणा फैलाने की चेष्टा की दोहाई दी जाती है। कहा जाता है कि खबरदार, ऐसा मत करो, नहीं तो धर्म खतरे में पड़ जाएगा और राष्ट्रीयता भंग हो जाएगी। जब अमीर लोग सुसंगठित होकर सैकड़ों प्रकार से गरीबों का और गृहस्थों का शोषण करें तो यह धर्म समझा जाए और हमारे धर्मभीरुओं के कानों पर जूँ भरेंगे। लेकिन उसी एक शोषण और लूट को बन्द करने के लिए अपने घर की रखवाली के लिए जब गरीबों को संगठित करने की बात हो तो धर्म के खतरे की घंटी जाए। यही है इस निराली दुनिया का निराला तमाशा। 5 फीसदी की होली के बहाने 95 फीसदी के घरों में आग लगावे तो आनन्द मनाया जाए और 95 फीसदी जब उसे रोकने को करवटें बदलना चाहें तो खतरे की घंटी बजे। बिना लाखों और करोड़ों के मुख का टुकड़ा छीने, उन्हें चिथड़ा पहनाए उनकी टूटी झोंपड़ी भी उन्हें बेदखल किए और उनकी बैलगाड़ी हड़पे एक आदमी करोड़पति बन नहीं सकता, मालपुआ, घी, मलाई खाकर बदहजमी पैदा कर नहीं सकता। मखमली गद्दे पर नहीं सो सकता, मोटरें दौड़ा नहीं सकता और बहुमंजिले महलों में मौज कर नहीं सकता। भगवान या प्रकृति ने जरूरत से ज्यादा चीजें पैदा नहीं की हैं, ऐसा करने की उसे फुर्सत ही कहाँ? माता के स्तन में बच्चे की जरूरत से ज्यादा दूध नहीं पैदा होता। ऐसी हालत में करोड़ों की जिन्दगी के लिए जरूरी सामग्री को हथियाए बिना एक आदमी व्यसन की सामग्री सम्पन्न कर नहीं सकता। इसीलिए मानना ही पड़ता है कि अमीरों और गरीबों के स्वार्थ परस्पर विरोधी हैं और दोनों के स्वार्थों का एक करने की आशा दुराशा मात्रा है। मजूरों को जितनी कम मजूरी और सहूलियतें दी जाएँगी और किसानों का लगान जितना ही अधिक होगा पूँजीपति और जमींदार उतने ही ज्यादा खुश होंगे तथा किसान और मजूर उतने ही अधिक खीझेंगे, मरेंगे। यह तो हुई सामान्य रूप से इस विषय की विवेचना। लेकिन किसान, जमींदार आन्दोलन समाज में दीवार खड़ा करनेवाला है इस बात का जरा विशेष रूप से विचार कर लेना चाहिए। इस आन्दोलन से दीवार खड़ी होने की बात को अभी मानकर ही हम ऐसा कहने वालों से प्रश्न करना चाहते हैं। यदि किसान जमींदार आन्दोलन से समाज में दीवार खड़ी होने की बात है तो इसके लिए दोषी कौन है? अगर यह काम बुरा है तो सबसे बड़ा दोषी तो वही होना चाहिए जिसने इसका पहले-पहल दिखाया है। एक भूमिहार ब्राह्मण समाज को ही ले लीजिए और भीतर प्रवेश करके विचार कीजिए। अन्य प्रान्तों को जाने दीजिए, केवल बिहार को ही लीजिए। यहाँ पर बड़े-बड़े जमींदारों की सभा प्राय: पचासों वर्ष से कायम है जिसका अंग्रेजी में नाम है 'बिहार लैण्ड होल्डर्स एसोसिएशन' यानी बिहार के जमींदारों की सभा।' जातीय पत्र-पत्रिाकाओं और सभाओं में भूमिहार ब्राह्मण समाज के जिन बड़े-बड़े उपकारियों, हितचिन्तकों, सुधारकों और कर्णधारों के गीत गाए जाते हैं क्या वे लोग बहुत पहले से ही उस जमींदार सभा के सदस्य, मंत्री, सहायक मंत्री आदि नहीं रहे हैं और क्या आज भी नहीं हैं? यदि जरूरत होगी तो नाम गिनाकर बताया जा सकता है कब कौन से महानुभाव उसके किस पद पर आरूढ़ रह चुके हैं और आज भी कौन हैं उसके सदस्य तो सभी जमींदार कहाने वाले हैं। मेरा मतलब उन जमींदारों से है जिनकी आमदनी कुछ अच्छी से लेकर ज्यादा है। इन जमींदारों को इस बात का गर्व है, फर्क है, अभिमान है कि वे जमींदार सभा के सदस्य, मंत्री आदि हैं। आजकल बिहार- उड़ीसा की कौंसिल में जमींदारों के खास प्रतिनिधिा पाँच भेजे जाते हैं और इनके लिए जो चुनाव क्षेत्रा बने हैं उनके वोटर वही होते हैं जो बिहार की जमींदार सभा के सदस्य होते हैं या सदस्यता की योग्यता रखते हैं। भूमिहारों द्वारा भूमिहारों का शोषण अब जरा इस जमींदार सभा के कारनामों का विचार कीजिए। इसका हमेशा से यही काम रहा है कि किसानों के मार्ग में रोड़ा अटकावे जब कभी किसानों ने कहा कि हमें अपनी मौरूसी जमीन में मकान बनाने का हक होना चाहिए, तो इस सभा ने कहा कि नहीं, हर्गिज नहीं। यदि घुमा-फिरा के किसी तरह कुछ हक इस बारे में काश्तकारी कानून ने दिया भी है तो इस सभा की सदा यही कोशिश रही है कि मुकदमेबाजी के दाँव-पेंच में डालकर वह भी छीना जाए। यदि इतनी ही बात होती तो एक बात थी। यह छीना-झपटी और धींगा-मुश्ती हर बात में जारी है। किसान कहता है कि अपनी जमीन में पेड़ घास लगाएँ और काटेंगे उन्हें काम में लाएँगे, आप लगान लीजिए तो जमींदार और उनकी सभा कहती है कि नहीं, हर्गिज नहीं। वह कहता है कि मौरूमी जमीन में ईंट, खपड़ा बनाने और तालाब, कुऑं खोदने में बाधा मत दें, इनके बिना हमारा काम चल नहीं सकता, तो जमींदार सभा की ओट में जमींदार कहता है कि काम नहीं चला तो बला से मगर ये काम कदापि होने न देंगे। यदि जरूरत के समय विवश होकर गरीब किसान अपनी जमीन बेचकर काम चलाना चाहता है तो जमींदार सभा के बल पर जमींदार उसे धर-दबोचता है। यदि मुर्दे के जलाने के लिए अपने सूखे पेड़ की लकड़ी वह काटता है तो जमींदार उसके सिर पर सवार हो जाता है और बेचारे किसान का मुर्दा जलेगा या नहीं उसकी जरा भी परवाह वह नहीं करता। यह सोलहों आने सच्ची बात है और अब तक बराबर होती आई है। यह भी नहीं कि बिहार में भूमिहार ब्राह्मण बसते ही नहीं। जिन धनीमानी भूमिहार ब्राह्मणों को समाज के भूषण तथा प्रजावत्सल के नाम से पुकारा जाता है, जिनके चित्र छपते हैं, आगे भी जिनके नाम और चित्र गुणगान के साथ प्रकाशित होंगे उनमें एक-एक की जमींदारी में हजारों की तो बात ही क्या कई-कई लाख भूमिहार ब्राह्मण बसते हैं और उन्हीं के रैयत हैं। ऐसी दशा में यह प्रश्न स्वभाव से ही उठता है कि बिहार में उच्च जमींदार सभा को जन्म देकर और आज तक उसे दृढ़ बनाकर इन जमींदारों ने क्या समाज में बहुत बड़ी दीवार चीन की प्रसिद्ध दीवार खड़ी नहीं की है? जिस दीवार के करते भूमिहार ब्राह्मण किसानों को मनुष्य तक भी नहीं माना गया है और वे अवांचित साधारण अधिकारों से ऊपर लिखे तरीके से, वांचित किए गए हैं। किसी भी सहृदय मनुष्य के लिए इसी दीवार की कहानी बहुत ही दर्दनाक है। जिस जमींदारी के करते बेचारे किसान न तो रहने का मकान ही बना सकते और न पानी पीने के कुएँ-तालाब ही खुदवा सकते हैं उस जमींदारी और जमींदार के लिए भी क्या उनके दिल में दर्द हो सकता है? फिर भी इन जमींदारों की धाष्टता देखिए कि उसी भूमिहार ब्राह्मण समाज के नेता, भूषण, उपकारी आदि बनने का दावा बराबर करते आए हैं और किसी ने चूँ तक नहीं की है, उसी समाज के जिसमें 95 फीसदी किसान और मुश्किल से 5 फीसदी जमींदार हैं। और यदि आज कोई चूँ करने की हिम्मत करता है और उनके दावे गलत ठहराता है, तो उलटे उसी पर समाज में दीवार खड़ी करने का अपराध लगाया जाता है। असल में तो जमींदार सभा कायम करके और उसके द्वारा जमींदारों को सुसंगठित एवं शक्तिशाली बताते हुए किसानों पर जुल्म करने का रास्ता साफ करने में पहली बार जमींदारों ने दीवार खड़ी की। इसके बाद लगातार एक के बाद एक दीवार किसानों के हकों को छीनते रहने में दूसरी, तीसरी और सैकड़ों बार आज तक उन्होंने या तो वह दीवार खड़ी की है या उसको मजबूत बनाया है। मगर उनकी ओर उँगली उठाने की भी किसी ने हिम्मत नहीं की है। क्योंकि बिहारी के शब्दों में 'को कहि सकें बड़ेन की लखी बड़ीओ भूल। दीन्हें दई गुलाब के इन डारनवै फूल।' वे धानी तथा मालदार जो ठहरे, लेकिन आज जब उनके द्वारा पीड़ित गरीब जनता एवं किसानों की ओर से उस अस्वाभाविक एवं अनुचित दीवार के तोड़ने का प्रयत्न होता है, उन्हें मनुष्योचित अधिकार दिलाने की कोशिश होती है जबर्दस्ती हड़पे गए उनके अधिकार उन्हें फिर वापस दिलाने का यत्न होता है ये भर अच्छा पेट अन्न खाएँ और कपड़ा पहनें, इसके लिए तदबीर की जाती है तो चट यह इलजाम थोपा जाता है कि समाज में दीवार खड़ी की जा रही है। जिस दिन समाज के 95 फीसदी किसानों और गरीबों का परित्याग करके 5 फीसदी जमींदारों ने अन्याय जातियों, धर्मों और समाजों के जमींदारों के साथ गाँठ जोड़ा किया और इस प्रकार भूमिहार ब्राह्मण समाज के 95 प्रतिशत लोगों के स्वार्थ से अपना स्वार्थ अलग बनाया सो भी बेमुरव्वती और बेरहमी के साथ, उस दिन ये हमारे समालोचक लोग कहाँ थे, और आज भी कहाँ हैं? क्या दुर्बल की बेरी सबकी जलन होती है, इसी कहावत को तो वे चरितार्थ नहीं कर रहे हैं? इससे भी आगे बढ़िए, अभी हाल में जमींदारों ने बिहार काश्तकारी कानून में कुछ संशोधान (तरमीम) करवाया। उसका इतिहास सभी जानते हैं। उसके लिएजो चालबाजियाँ की गईं और कुछ शिखंडियों को खड़ा करके किसानों का गला घोटने का जो षडयंत्रा किया गया उसमें भूमिहार ब्राह्मण समाज के कई 'अवतंस' लोग भी शरीक थे। किसानों की जमीन में से दस फीसदी छीन कर जमींदार अपनी जिरात बना ले इत्यादि बातों की जो बन्दिश की गई क्या उससे समाज के 95 फीसदी किसान और गरीब उन अपने कुलभूषणों को भर पेट नहीं कोसते जो संहारक होकर भी उध्दारक होने का दावा करते हैं? तो क्या इसके लिए इस छीना-झपटी के लिए ये गरीब किसान उनसे प्रेम करते और उन्हें आशीर्वाद देते? अपनी जमीन छीनने वाले के प्रति लोगों का क्या अब होता है यह छिपा नहीं है। और 'क्षेमदारापहार्ताच सडेते अततायिन' 'जमीन और स्त्री के हरने वाले भी आततायी कहाते हैं' स्मृति के अनुसार इन शब्दों में जिन्हें आततायी का स्थान दिया जाना चाहिए। क्या वह उलटे समाज के प्रेम भाजन हो सकते हैं? और यदि अपनी इस हरकत के द्वारा वह समाज में जबर्दस्त दीवार खड़ी नहीं कर लेते तो और करते क्या हैं? दीवार खड़ी करने की बात करने वाले या तो भावुक लोग होते हैं या जमींदारों के पिट्ठू। भावुकों के प्रति तो हमें कुछ कहना है नहीं। वे तो सीधो और अनजान होते हैं तथा सच्चे दिल से बातें करते हैं। अतएव दया के पात्रा हैं। लेकिन पिट्ठुओं से यही कहना है कि वे दिन लद गए जब समाज और समाज के हित के नाम पर गोलमाल बातें करके अमीरों का मतलब निकाला जाता था; जब अमीर और जमींदार लोग सब कुछ अनर्थ करके भी समाज के नेतृत्व का दम भरते थे और कोई होंठ भी न हिलाता था। अब तो छानबीन का युग आ गया है। चाहे कुछ भी हो, लेकिन लोग खासखास छानबीन और उधोड़बुन करेंगे ही और समाज उसी गोलमोल बातों के भुलावे में न पड़कर विवेक से काम लेंगे। वे खोद-विनोद करके समाज के असली अर्थ का निश्चय करेंगे। इसीलिए समाज की दोहाई देकर अपने उल्लू सीधो करने वालों को भी समझ लेना चाहिए कि जब वे समाज की बात करते हैं तो सभी प्रकार के सुधारों से उन्हें हाथ खींच लेना होगा। क्योंकि सामाजिक सुधार की कोई भी बात लेने पर कुछ लोग तो विरोधी होंगे ही। यहाँ तक कि चोरी और दुराचार, व्यभिचार के रोकने में भी कुछ लोग सहमत न होंगे। आखिर चोर बदमाश भी तो समाजों में ही होते हैं; कहीं आसमान से तो टपक पड़ते नहीं। और यदि उनके इन कामों पर रोक हो तो उसका बुरा मानना स्वाभाविक ही है। तिलक दहेज और फिजूलखर्ची के विरोधी बहुत ज्यादा हैं। मुकदमेबाजी रोकने के प्रयत्न और पंचायत के विरोधी तो वकील, मुख्तार, सोरवतार, क्लर्क आदि बहुत लोग हैं। क्योंकि उनकी जीविका मारी जाती है। चाहे उन्हें विरोध्यान में बोलने की हिम्मत भले ही न हो। लेकिन इनका मूल विरोध्यान तो रहता ही है और दिल से वे लोग नहीं चाहते कि मुकदमेबाजी बन्द हो। गिनाना बेकार है। सभी सुधारकों की यही बात है। तो क्या इन सुधारों की बात उठाने वालों और सुधारकों से यही कहा जाए कि 'खबरदार आप ऐसा न करें, नहीं तो समाज में दीवार खड़ी हो जाएगी' और ऐसी हालत में फिर जातीय सभाओं और पत्र-पत्रिाकाओं का काम ही क्या रह जाएगा? क्या चुनाव? असल में किसी संस्था, समाज या दल की बात की जाती है तो मतलब होता है कि उस संस्था, समाज या जाति के अधिकांश या बहुसंख्यक लोगों से। क्योंकि किसी भी बात में एक मत तो होई नहीं सकता। फलत: अधिकांश लोग (Majority) जिधेर हो वही बात मानी जाती है। इसलिए समाज की बात के मानी होते हैं उसके अधिाकांश लोगों की बात। वे जिससे सहमत हों या जिसमें अपनी भलाई समझते हों वही समाज को या समाज हित की बात होगी। प्रान्त में समाज के 95 फीसदी किसान और 5 फीसदी जमींदार हैं। ऐसी हालत में समाज कहने से वही 95 फीसदी ही माने जाएँगे, माने जाने चाहिए, न कि केवल 5 फीसदी। 95 के सामने 5 की गिनती क्या? और जब इन 95 प्रतिशत लोगों की भलाई के ही लिए किसान आन्दोलन हो रहा है तो फिर उससे समाज में दीवार खड़ी होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? समाज तो 95 फीसदी ही है। एक बात इस सम्बन्ध में और है। असंगठित देखकर सभी को जुल्म करने की चाह होती है। जब तक किसान संगठित नहीं हैं तब तक हजार मीठी बातें बनाने पर भी जमींदार और उनके अमले किसानों पर जुल्म करेंगे ही और वे बेबसी की हालत में आह मार के रह जाएँगे। बोल तो सकेंगे नहीं, पर भीतर ही भीतर जमींदारों को कोसेंगे। इस प्रकार समाज में जमींदारों तथा किसानों के बीच बनी हुई खाई दिन प्रतिदिन चौड़ी होती जाएगी क्योंकि असली मेल तो दिलों का होता है और किसानों के जख्मी दिल कभी भी जमींदार से मिल सकते नहीं, खासकर ऐसी हालत में जब कि आए दिन जुल्म का नमक उन पर छिड़का जाता है। लेकिन किसान आन्दोलन के करते अगर किसान संगठित एवं बलशाली हो जाएँ तो उन पर जुल्म करने की हिम्मत किसे हो नतीजा यह होगा कि वे अपने नैतिक एवं मानवीय अधिकारों को प्राप्त कर लेंगे। इस प्रकार कलह का बीज ही जाता रहेगा और दोनों के बीच की खाई या दीवार जो जमींदारों के जुल्म के करते हुई थी अपने आप मिट जाएगी। इस प्रकार किसान आन्दोलन समाज में दीवार खड़ी करने के बजाए पूर्व से खड़ी दीवार को गिराने वाला कहा जाना चाहिए। हमने बताया है कि जातीय पत्रों और सभाओं का आजकल यही कर्तव्य-सा हो गया कि कुछ चलते पुर्जे पढ़े-लिखे तथा धानियों और मालदारों की वकालत करना और उनके लिए चुनाव आदि के सम्बन्ध में मैदान साफ करना, अनुकूल वातावरण तैयार करना और उनके असली रूप को छिपाना। हमसे बढ़कर किसी को भी प्रसन्नता न होगी यदि कोई पत्र या सभा इसका अपवाद निकले। हम उसके सबसे पहले सिर झुकावेंगे। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा होना करीब-करीब असम्भव है हालाँकि असम्भव जैसी चीज इस दुनिया में है नहीं। यही कारण है कि हम ऐसी सभाओं तथा पत्र-पत्रिाकाओं के विरोधी हैं। इनसे भोली-भाली जनता को धोखा होता है। एक बड़ा जमींदार, मालदार या कारखानेवाला अपने ही समाज के हजारों, लाखों, किसानों, मजूरों और गरीबों का रूप शोषण निर्दयता के साथ बराबर करता रहता है, उन्हें मनुष्य भी नहीं समझता। उनके बच्चे अन्न-वस्त्र के बिना तड़पते रहते हैं उसकी ऑंखों के सामने ही। फिर भी उसे दया नहीं आती और अपनी विलास सामग्री जुटाने के लिए उनके मुँह का टुकड़ा और तन का वस्त्र बलात् छीनकर अपनी लगान, नजराना, तावान आदि वसूल करता है और इस वसूली में कानूनी, गैर-कानूनी सभी तरह के तरीके काम में लाता है। कानूनी उपायों का तो वह हकदार ही ठहरा। मगर गैर कानूनी काम भी वह करता ही है सिर्फ इसीलिए कि कानून के दायरे में घुसने पर उसे हैरानी और बहुत खर्च का सामना करना पड़ता है। साथ ही, बार-बार ऐसा करने पर किसान ध़़ष्टता भी तो हो जाएँगे जब वह समझेंगे कि अदालत में हम और हमारे जमींदार बराबर ही समझे जाते हैं। उन पर रोबदाब रखना जमींदारी प्रथा का एक बहुत बड़ा अंग है उसके बिना वह चल सकती ही नहीं। इतने होते हुए भी जातीय सभाएँ तथा पत्र उसे समाज भूषण आदि विशेषणों से विभूषित करके ही छोड़ते हैं और प्रजावत्सल आदि कहने में जरा भी नहीं हिचकते। वह किस समाज का भूषण? उसी का जिसके 95 प्रतिशत का वह रक्त शोषण करने में जरा भी आनाकानी नहीं करता? या कि उसका कोई और समाज है? केवल उसके धान और जमींदारी के करते जातीय सभाएँ उसे सभापति और कर्णधार बना डालती हैं तथा उसे उन समाज पर चढ़ाने वाली विज्ञप्तियाँ निकालकर या तो भोली-भाली जनता को धोखा देती हैं या गरीबों के जले पर बराबर नमक छिड़कती है। क्या यह कथमपि उचित है? यदि उसकी जमींदारी के किसान उसकी जाति के न होकर दूसरे के हों तो फिर ऐसे को जो जाति अपना कर्णधार बताती है, भूषण करार देती है। वह सताए गए लोगों की नजरों में कितना तुच्छ होगा इसे सभी समझ सकते हैं। इस गुनाह बेलज्जत की क्या जरूरत लेकिन जातीय पत्रों को पैसे की जरूरत होती है, कारण इनका प्रचार जाति के बाहर होता ही नहीं और ये पैसे अमीरों से ही ज्यादा मिल सकते हैं। फलत: इनका काम हो जाता है उन अमीरों की चापलूसी करना और उनका ढिंढोरा पीटना। आखिर पैसे लेना है तो कुछ करना ही होगा। जातीय सभाओं में कुछ पढ़े-लिखे लोगों की ही चलती है और उनका तथा अमीरों का पैक्ट रहता है कि हम दोनों मिलकर समाज या जाति के नाम पर अपना उल्लू सीधा करें और इसके लिए परस्पर एक-दूसरे की तारीफों का पुल बाँध कर आसमान पर चढ़ा दें। यही होता है और मूक जनता इस चालबाजी के चलते ठगी जाती है। असामी समाजहित जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि समाज या जाति का अर्थ है उसकी अधिसंख्य जनता। यह भी कही चुके हैं कि अधिकांश जनता प्रत्येक समाज में गरीब और दुखिया है, किसान मजदूर हैं। यही सिद्ध ही कर चुके हैं कि स्वार्थ का असली अर्थ है कि आर्थिक स्वार्थ रोटी वस्त्र आदि। ऐसी हालत में यदि किसी समाज के स्वार्थ के नाम पर कोई भी संगठन या आन्दोलन चलाया जा सकता है तो वह यही कि उस जाति या समाज के अधिकांश लोगों की रोटी और कपड़े की बात कैसे हल होगी और वे लोग मनुष्य का जीवन सम्मान पूर्वक कैसे व्यतीत कर सकेंगे। यही है। यही है असली और खाँटी जाति हित और यह सभी की समझ में आसानी से आ जाता है। धर्म और परलोक की बात ऐसी है कि उसे भूखे और नंगे लोग समझ नहीं सकते। नैतिक बल सदाचार की बात करना उनकी दृष्टि में हृदयहीनता का प्रदर्शन मात्राहै। स्वर्ग, बैकुण्ठ और बहिश्त को वे लोग समझना नहीं चाहते कि यह कौन सी बला है। उन्हें तो पहले रोटी चाहिए, कपड़ा चाहिए, मकान चाहिए, जमीन चाहिए, बीमारी की हालत में दवा चाहिए, पढ़ने-लिखने का सामान चाहिए, दैनिक जीवन के लिए जरूरी नमक, तेल, दियासलाई, कार्ड-लिफाफा, लोहा-लक्कड़ सस्ता और सुलभ चाहिए और उनकी पैदा की हुई चीजों का दाम उन्हें इतना जरूर मिलना चाहिए जिससे उनकी सर्वसाधरण आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। यही उनकी असल समस्याएँ और पहेलियाँ हैं उनका असली हित एवं स्वार्थ है। फलत: सबसे पहले इन्हीं समस्याओं को हल करना और इसी स्वार्थ को पूरा करना हर जातीय पत्र तथा जातीय सभा का कर्तव्य होना चाहिए। इस काम में सभी जातियों के पत्रों एवं सभाओं का सच्चा सुन्दर सहयोग भी हो सकता है। क्योंकि उसमें किसी का विरोध नहीं, सभी कमाते क्या हैं। यह तो ठोस भौतिक चीजें हैं जिनके बिना कोई जी ही नहीं सकता। यह ईश्वर, धर्म, स्वर्ग, बहिश्त जैसी खाली चीजें थोड़े ही हैं कि पंडितों और मौलवियों की चाल चल जाए और मन्दिरों में जाने तथा घड़ियाल घंटे से खुदा नाखुश हो और अजान देने तथा मस्जिद में जाने से ईश्वर कुपित हो? गोकशी से यदि नरक मिलता हो तो मस्जिद के सामने बाजे से गहरा दोजख, यदि सन्धयोपासन तथा वेदपाठ से बहिश्त में प्रवेश ही न हो सके तो नमाज और कुरान पाठ से स्वर्ग का सुख भी न देख सके। ये धर्म और सदाचार की चीजें तो अन्धों के हाथी जैसी है किसी अन्धो ने पूँछ को ही हाथी कहा तो दूसरे ने सूंड को, तीसरे ने पाँव को और चौथे ने दाँत को ही और इस प्रकार वे आपस में ही तथा एक-दूसरे को बेवकूफ बनाने लगे। लेकिन यहाँ फिजूल अन्धा बनने की किसे जरूरत है? हाँ, जब असली स्वार्थ और ठोस चीजें रोटी कपड़े आदि के रूप में मिल जाती हैं और चैन होता है तो बहुतों को मस्ती तथा दिल बहलाव सूझता है और वे धर्म, दर्शन तथा फिलासफी की बातें करते हैं। ठीक भी है, आखिर विकार और चैन की हालत में कोई शगल भी तो चाहिए। लेकिन जनसाधारण को ऐसा कभी न देखा और न सुना कि वे भूखे और नंगे हों, फिर भी रोटी कपड़े की बात छोड़कर मन्दिर, मस्जिद, सन्धया-नमाज और धार्म-मजहब को गलकुच्चन करें। उस हालत में उनका असली और पक्का धार्म, मजहब तो यही रोटी-कपड़ा आदि ही है। वे इन्हीं की उपासना सर्वोपरि समझते हैं। यह तो प्रतिदिन का अनुभूत ठोस सत्य है। इसमें दलील की गुंजाइश ही नहीं। यदि कहा जाए कि धर्म और दर्शन तो हरेक आत्मा की भूख है तो हमें इतना कहना है कि जिस प्रकार बीमारी की दशा में भूख मारी जाती है और उसका पता नहीं रहता ठीक उसी प्रकार अन्न-वस्त्र के अभाव की दशा में आत्मा की वह भूख भी मारी जाती है, लापता रहती है। पूर्ण स्वस्थता की दशा में जिस प्रकार खुल के भूख लगती है ठीक उसी प्रकार पेट भरने और तन ढँकने के बाद ही चैन की दशा में धर्म और दर्शन की भूख लगती है। ऐसी दशा में धर्म के प्रेमियों का भी यही कर्तव्य हो जाता है कि पहले आत्मा का स्वास्थ्य प्राप्त करने की ही कोशिश करें। अर्थात् जब तक जनता की रोटी और कपड़े का प्रश्न हल नहीं हो जाता तब तक इसी बात का आन्दोलन करें जिससे जनता की आत्मा में धर्म की भूख जगे। आन्दोलन का स्वरूप इसीलिए मेरी पक्की धारणा है कि वर्तमान परिस्थिति में जबकि हरेक जाति, धर्म और समाज के अधिकांश लोग यथार्थत: भूखे और नंगे हैं, और आत्मसम्मान रहित जीवन व्यतीत करने को बाध्यानय किए जा रहे हैं, हर जातीय प्रेमी, धर्म सेवक, समाज सुधारक नेता का, हर सभा का और सभी जातीय एवं धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं का यह पवित्र कर्तव्य है कि ईमानदारी के साथ इस रोटी, वस्त्र और आत्मसम्मान की समस्या को सबसे पहले हल करने के लिए पूरी शक्ति के साथ जुट जाएँ और इसे हल करके ही छोड़ें। नहीं तो आज इस प्रश्न को उठाकर धर्म, सदाचार, सुधार, नैतिकता आदि की बातें करना इस बात का सबूत देना है कि उनमें वस्तुस्थिति का सामना करने की हिम्मत नहीं है। इतना ही नहीं है। इस समय इन प्रश्नों को उठाना जनता को गुमराह करने की कोशिश करना है। क्योंकि इन प्रश्नों और बातों को सुनकर भोली जनता धोखे में आ जाती है और रोटी तथा कपड़े के असली प्रश्न की ओर से उसका ध्यान फिर जाता है और वह नाहक ही यह समझने लगती है कि धर्म और सदाचार आदि का प्रश्न ही वास्तविक प्रश्न है और रोटी का सवाल गौण है। बहुत दिनों से धर्म के प्रति जो मूक जनता में अत्यधिाक सम्मान है उसका अनुचित लाभ उठा कर धर्म और जाति के पेशवा लोग जो इस प्रकार उसे पथभ्रष्ट और गुमराह कर रहे हैं यह उनका अक्षम्य अपराध है, अत: समय रहते उन्हें सजग हो जाना चाहिए।
(भूमिहार ब्राह्मण पत्रिका कलकत्ता, 1935 में प्रकाशित
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