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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें

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लड़ना सीखें और लड़ें

निडर बनने के लिए जिस प्रकार अनेक बातें बताई गई हैं और दिखाया गया है कि दिल तथा दिमाग पर से जमींदारों,   प्रभावशाली लोगों का जादू उतरने से ही काम चल जाएगा। ठीक उसी प्रकार मुकाबला करने और लड़ने से भी लोग निर्भीक बनते हैं। यों तो बिना लड़ाई के अपने हक मिलते ही नहीं और अगर मिलते भी दैवात् कदाचित हैं, तो टिक नहीं सकते; कारण बिना लड़े बल आता है नहीं और जो सबल न हो वह अधिकारों की रक्षा कर ही कैसे सकता है ? लड़ के प्राप्त की हुई चीज में मजा भी मिलती है; क्योंकि मेहनत की कमाई मीठी होती है। जिससे भिड़ें उससे कम से कम डर तो जाता ही रहता है, यह पक्की बात है। पानी से लोग बहुत डरते हैं कि कहीं डूब न जाएँ। मगर जो उसमें पड़ के पाँव पीटता और तैरना सीख जाता है, जो पानी के साथ लड़ता है वह करारी धारा से भी नहीं डरता। जो अखाड़े में नहीं पड़ता और कुश्ती करना नहीं जानता, वह तो डरपोक होता ही है। वह तो मामूली आदमी से भी डरता है। मगर अखाड़े में पड़ने के बाद बड़े पहलवानों से भी भिड़ जाने की हिम्मत उसमें आ ही जाती है। अपने आपको कमजोर समझ के लोग डरते हैं। मगर लड़ने पर, अपने बल का अन्दाजा हो जाने पर हिम्मत होती है और डर छूटता है।
    यों तो शान्ति और नम्रता की बातें बहुत की जाती हैं। कहा जाता है कि जो एक गाल में थप्पड़ लगने पर दूसरे को भी थप्पड़ के लिए फेर देते हैं उन्हें भगवान मिलते हैं और स्वर्ग मिलता है। मगर हम तो साफ ही देखते हैं कि शान्त रहनेवालों के पास की चीजें भी छिन जाती हैं,   तो स्वर्ग और भगवान के मिलने की बात समझ में ही नहीं आती। डाकू-लुटेरे नम्रता की परवाह थोड़े ही करते हैं। यदि उन्हें नम्र और शान्त लोगों से ही काम पड़े तो उनकी पौ बारह ही हो जाए। फिर तो वे खुल के ही खेलें। वे तो परवाह करते हैं सिर्फ लाठी और डण्डे की,   भाले और गोली की,   छाती पर चढ़ने तथा उनकी बाँहें मरोड़ने और तोड़ने वाले की। और जो दूसरों की कमाई का भोग लगाते तथा स्वयं कुछ नहीं करते,   जिनकी कमाई दूसरों की कमाई की लूट ही मानी जाती है वह क्या डाकुओं और लुटेरों से कम हैं? किसान भूखों मरें और उसी की कमाई से जमींदार और उनके कुत्तों तक गुलछर्रे उड़ावें यह लूट नहीं तो और क्या है ? और बिना लड़े,   बिना भिड़े यह रुकने की नहीं,   बन्द होने की नहीं। याद रहे,   किसानों की लड़ाई निराली ही होगी। इसीलिए उसे वे जरूर सीखें।
    हम मानते हैं कि किसानों की कमाई बिना उसकी मर्जी के ही और उनके हजार न चाहने पर भी जमींदार,   साहूकार और सरकार सभी ले लेते हैं। वे तो यह भी कहते हैं कि यह तो कानून के जरिए लिया जा रहा है। इसे वह अपना कानूनी हक कहते हैं। ठीक है,   रहे यह कानूनी ही। हम भी इसे गैर-कानूनी नहीं कहते। हम तो इस पचड़े में पड़ने जाते ही नहीं कि यह काम कानूनी है या गैर-कानूनी,   हम तो सिर्फ असलियत को देखना चाहते हैं।
    आखिर लूट,   चोरी या डकैती का मतलब है क्या? यही न कि हमारी मर्जी के बिना जबर्दस्ती हमारी चीज हमसे कोई छीन ले? यदि हम न देना चाहें तो वह बलप्रयोग भी करता है और हमारी ऑंखों के सामने ही ले जाता है। क्या जमींदारों की या सरकार की वसूली इससे भिन्न है? किसान भूखा है,   नंगा है। उसका बच्चा बीमार है। मगर भोजन कपड़ा या दवा का प्रबन्‍ध नहीं कर सकता है। पास में जो है वह जमींदार या साहूकार ले जाता है। तो क्या यह रजामन्दी से होता है? क्या वह सनकी और पागल है कि पेट और दवा की परवाह न करेगा और खुशी-खुशी अपनी कमाई गैरों को देगा? यह तो निराली दलील है। रजामन्दी कैसी? बलप्रयोग तो होता ही है। फर्क इतना ही है कि डाकू की अपनी लाठी रहती है। मगर जमींदार की अपनी लाठी के अलावे पुलिस की भी लाठी और गोली के बल से किसान की कमाई छीन ली जाती है। डाकू तो पुलिस की मदद पा नहीं सकता।
    दूसरा फर्क यह है कि जहाँ मामूली डाकू और चोर के पीछे पुलिस हैरान रहती है कि कहाँ कैसे पकड़ा जाए,   तहाँ जमींदार और साहूकार पुलिस और सरकार के बड़े खैरखाह माने जाते हैं। लाट साहब तक उनसे हाथ मिलाते और उनका आदर करते हैं। इसलिए जमींदार वगैरह के जरिये जो किसानों की लूट होती है उसे कानूनी लूट (Legalized loot) भले ही कहिए। मगर है,   वह असल में लूट ही। बल्कि वह लाख दर्जे बुरी लूट है। वहाँ तो कोयले पर कोलतार पोत दिया गया है,   ताकि और भी काला हो जाए। लूटनाम भी न हो और उसके करने वालों की बड़ी प्रतिष्ठा हो,   तो इसे क्या कहें? इसका दूसरा प्रचलित नाम शोषण है। यह शोषण जरा सभ्यता से पर्दे में रख के इसी लूट को कहता है। मगर हमें तो साफ बोलना चाहिए। और सिवा भिड़न्त के यह बन्द भी कैसे होगी? यह ठीक है कि मामूली लूट से भयंकर होने के कारण इसके मिटाने के लिए जो भिड़न्त होगी वह भी गैर मामूली होगी जो लड़ाई होगी वह असाधारण होगी किसानों को वह लड़ाई सीखनी होगी। किसान सभा ही उन्हें उसकी शिक्षा देगी। नहीं तो खतरा होगा?
    सब जगह सभी मौकों पर शान्ति और नम्रता की बातें बकनेवालों की समझ पर तरस भी आता है और हँसी भी आती है। जिस नम्रता से भगवान और बैकुण्ठ मिलें उसे दुनिया के कामों में नाहक घसीटने में कौन सी बुद्धिमानी है? दोनों दुनिया जुदा हैं फिर दोनों को एक करने का मतलब क्या? भगवान और बैकुण्ठ तो खयाली दुनिया की चीजें हैं और यह शान्ति तथा नम्रता भी खयाल की चीजें हैं,   न कि ठोस। इसलिए खयाली चीजों से वैसी ही चीजें मिलें तो मिलें। मगर रोटी और भात वगैरह तो ठोस पदार्थ हैं इसलिए इनके रास्ते में नम्रता क्यों टाँग अड़ाने आती है? कहा जाता है कि भक्त लोग भगवान के ध्‍यान और विचार से ही खुश हो जाते और भगवान के निकट पहुँचते हैं। उनकी तृप्ति हो जाती है। मगर पेट तो रोटी के ध्‍यान से कभी नहीं भरता और न नंगे बदन पर कपड़े चले आते हैं,   महज ध्‍यान और खयाल करने से। फिर हम क्यों इन वाहियात बातों के पीछे मरें? जब अपनी रक्षा के लिए कानून ने भी हमें पशुबल और अस्त्र प्रयोग करने की इजाजत दे रखी है तब रोटी और कपड़े को बचाने के लिए भी क्यों न लड़ाई का प्रयोग करें?
    उस लड़ाई का रूप क्या हो यह तो परिस्थिति के अनुसार बताया जा सकता है। इसीलिए उसमें खामख्वाह हर हालत में बल प्रयोग जरूरी नहीं है। हाँ,   लड़ाई जरूरी है। शान्ति की लड़ाई का जो अर्थ लगाया जाता है उसे हम कदापि स्वीकार नहीं करते,   जैसा कि आत्मरक्षा के प्रसंग में बताया है। हमें तो लड़ना है,   यह पक्की बात है। यह लड़ना कैसा हो यह तो मौके पर ही तय होगा। उसकी चिन्ता यहाँ करना ठीक नहीं।
    जो लोग शान्ति-शान्ति चिल्लाते हैं उनसे हम पूछें कि साँप-बिच्छू आदि शान्ति से भागते हैं,   या डण्डे से? पगले कुत्तों को लाठी का डर न हो तो काटे बिना न रहे? शान्ति का पाठ पढ़िए तो आसानी से काट के निकल जाए। मतवाले हाथी के सामने भाला-बर्छा न ले जाएँ,   तो पाँवों तले रौंद डाले। जो लोग शोषक हैं और कमानेवाले के रक्त पिया करते हैं वे खूँखार जानवर,   मतवाले हाथी,   पगले कुत्तों या साँप-बिच्छू से कम भयंकर और जहरीले नहीं हैं। स्मरण रहे कि उसके पीछे कानून की सारी ताकत लगी हुई है। साँप,   बिच्छू या खूँखार जानवरों से निपटने में तो पुलिस भी हमारा साथ देती है। मगर शोषकों से काम पड़ने पर वह उन्हीं के साथ रहती है। इसीलिए यह समस्या और भीषण है।
    बहुत परिश्रम से हमने नीबू और आम के पेड़ लगाए और उनकी हिफाजत की। उन्हें प्रेम से सींचा और हरा-भरा रखा। कीड़े-मकोड़ों और ऑंधी-पानी से भी बचाया। ओलों और पाले से भी उन्हें सुरक्षित रख के बड़ा किया। हरा-भरा देख के खुश भी होते रहे। समय पा के उनमें फल लगे। वह पके भी। हमने बहुत ही मुहब्बत से नीबू और आम तोड़ लिये और धो धा के थाली में रखा। मगर क्या वे हमें यों ही रस देते हैं? हमने इतनी मेहनत की,   इतना प्रेम दिखाया कि जितना शोषकों के प्रति गाँधी जी भी नहीं कर सकते। हमारी सेवा पहले दर्जे की थी। पर वे नहीं पिघले। हमने काटा और सोचा कि अब पिघले और रस दें। मगर कुछ नहीं। आखिर कस के दबाना और निचोड़ना पड़ा। तब कहीं रस मिला। मगर यदि नीबू के कलेजे से होकर काटनेवाला चाकू नहीं गुजरे तो निचोड़ने पर भी रस या तो आता ही नहीं,   या बहुत ही कम आता है। इसीलिए बीचोबीच काट के पहले दो टुकड़े करने पड़ते हैं।
    गाय-भैंसों को कितने ही स्नेह से दाना,   घास,   भूसा खिलाइए,   पानी पिलाइए,   मच्छर,   मक्खियों से हिफाजत कीजिए और बहुत अच्छी जगह आराम से रखिए। फिर भी दूध नहीं मिलता हाथ जोड़ें,   अर्जी भेजें,   रोएँ,   गिड़गिड़ायें। मगर कोई नहीं सुनता है। हाँ जब दोनों जाँघों को रस्सी से बॉंध कर उनके स्तनों को खूब जोर से दबाइए और खींचिये तभी गो माता और महिषी महारानी दूध देंगी। फिर तो जितना चाहिए दुह लीजिए।
    हाँडी,   घड़ा,   दीया वगैरह जिस चाक (चक्र) पर कुम्हार बनाता है उस पर मिट्टी रख कर यदि हाथ जोड़ें और प्रार्थना करें,  माँगें,  तो एक भी दीया नहीं मिलता। एक हँडिया नहीं बनती। एक फूटा घड़ा भी तैयार नहीं होता। मगर छिद्र में डण्डा घुसेड़ के खूब जोर से घुमाइए और हाथ लगाइए। फिर जो चाहिए बना लीजिए। यही दुनिया का तरीका है,   यही संसार का नियम है। किसान इसे ही भूलकर दु:ख पाता है और मुसीबतें झेलता है। अब भी तो यह बात वह समझ ले।
    यदि शान्ति और नम्रता से ही सब बातें बन जाएँ,   तो फिर किसान हल क्यों जोते? वह बीज क्यों बोए? खेतों को सींचे क्यों। यह तो सभी काम संघर्ष ही है न? जमीन का कलेजा चीरता है क्यों? बीजों को गाड़ना और दफनाना कोई पूजा तो है नहीं। एड़ी का पसीना चोटी पहुँचा के कुएँ वगैरह से पानी निकालें और वैशाख- जेठ की दहकती दुपहरिये में ऊख को सींचे तो क्या हरिनाम जप और समाधि है? कड़कड़ाते जाड़े और मूसलाधार वृष्टि में खेतों की देख-रेख करना क्या शान्ति पाठ है,   यदि प्रकृति के साथ कुश्ती नहीं है? फसल तैयार भी हो जाए तो हाथ जोड़ने से न तो ऊख का रस निकलता है और न गुड़ बनता है। धन,   गेहूँ भी घर खुद नहीं पहुँच जाते,   चाहे दिन-रात जप-तप करते हों। ऊख के तो अंग-अंग को पीसना पड़ता है और रस को सख्त ऑंच में तपाना पड़ता है। तब कहीं गुड़ बनता है। जड़ से काटने पर ही धन,   गेहूँ खेत से अलग होते हैं और रस्सी से इसके बॉंधने पर ही बोझा बनकर खलिहान या घर में पहुँचाए जाते हैं।
    यदि फसल में कीड़े लग जाएँ तो शान्ति और अहिंसा काम नहीं देती। उन्हें तो दवा से जलाना और मारना ही पड़ता है। यह बातें तो रोज ही किसान को करनी पड़ती हैं। मगर वह इन्हें वहीं की वहीं छोड़ देता है। इनसे शिक्षा ग्रहण कर सर्वत्र संघर्ष और लड़ाई का पाठ नहीं पढ़ता। बिना संघर्ष के कुछ नहीं हो सकता है; इसलिए लड़ना ही चाहिए,   आइए लड़ें,   लड़ें,   लड़ें,   यह अखण्ड निश्चय नहीं करता। संघर्ष ही जीवन और उसका न होना,  शान्ति,  ही मरण है यह पक्की धारणा वह नहीं कर पाता। उसमें यही एक कमी है।
    आश्चर्य तो यह है कि जो लोग दिन-रात दुनिया को शान्ति और प्रेम का पाठ पढ़ाते रहते हैं,   हिंसा नहीं करते और हरिकीर्तन में ही लगे रहते हैं उनका न तो पेट ही उन चीजों से भरता है और न उन्हें वस्त्र ही मिलता है न उनकी बीमारियाँ ही खत्म होती हैं और न दूसरे ही काम चल सकते हैं। आखिर उन्हें भी किसानों के ही पास आना,   या उन्हीं की कमाई का सहारा लेना पड़ता है। जब उनकी ये चीजें इतनी गई-बीती हैं कि उनकी भूख,   सर्दी,   गर्मी और बीमारी हटा नहीं सकती हैं,   तो फिर उन्हें गरीब किसानों के माथे लादने की कोशिश क्यों करते हैं? किसानों ने उनका क्या बिगाड़ा है कि उन्हें गुमराह करते हैं? उपकार के बदले यह अपकार। इन शान्ति और प्रेमादि पदार्थों से मुक्ति मिलती हो,   स्वर्ग में सीढ़ी लगती हो या वैतरणी में पुल बँधा जाता हो,   हमें उससे झगड़ा नहीं करना है। मगर यहाँ तो रोटी और भात का सवाल है और यह निश्चय है कि यह सवाल प्रेम और शान्ति से कदापि हल होने का नहीं।
    हाथ जोड़ने और भीख माँगने में तथा अपनी शक्ति का प्रयोग करके छीनने की तैयारी कर लेने एवं छीन लेने में कितना फर्क है,  माँगने और लड़ने में कितना जमीन-आसमान का अन्तर है,  यह बात एक घटना से हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं। असल में किसानों में माँगने और हाथ जोड़ने का मर्ज इतना जबर्दस्त है कि वह गुरु,   देवता,   भगवान से माँगते-माँगते सरकार और जमींदारों से भी माँगने ही लग गए हैं। वह इससे ही अपने निस्तार का साधन समझते हैं। यहाँ तक कि नेताओं और कार्यकर्ताओं से भी हाथ जोड़ के माँगने में ही और अपना दुखड़ा यों ही सुनाने में ही फर्ज समझते हैं। यह बड़ी ही खतरनाक चीज है। इसलिए हम इसे सदा के लिए दूर कर देना चाहते हैं। नहीं तो उनका त्राण कभी हो नहीं सकता।
    एक जवान और हाथ-पाँव का खूब तगड़ा आदमी कई धनियों के पास एक के बाद दीगरे गया और बड़ी अदब और नम्रता से हाथ जोड़ के उसने माँगा कि सरकार,   आधा सेर आटा,   आधा सेर घी,   और आधा सेर चीनी देते,   तो हम हलवा बना के खा लेते। क्योंकि आज तबीयत कुछ ऐसी ही हो आई है और हजार समझाने पर भी नहीं मानती। मैं लाचार हूँ,   यकीन रखिए। नहीं तो ऐसा काम कभी न करता। मगर नतीजा क्या हुआ? सभी जगह से उसे निराश होना पड़ा। कई जगह तो उलटे उससे मखौल की गई और लोगों ने मुँह बनाया कि वाह हलवा खाने चला है। जरा अपना मुँह को आईने में देख ले। किसी-किसी ने रंज होके यह भी कह मारा कि भिखमंगा होके हलवा की बात गुस्ताखी से कर रहा है। यदि कोई है तो इसे जरा तमाचे तो लगाए और कान पकड़ के हटा तो दे। कहीं-कहीं तमाचे लग भी गए। शायद एकाध ने बड़ी दया की और एकाध पैसा दे दिया। उसे बड़ी ग्लानि हुई। उसने अपने आपको धिक्कारा। दिन-भर दौड़ता-दौड़ता मरा भी और फल भी हुआ विपरीत ही। इससे उसे गुस्सा आया और उसमें आत्म सम्मान जगा। उसने तय कर लिया कि हलवा खा के ही दम लूँगा सो भी जिनसे माँगा है उन्हीं के पैसे के।
    उसने सब उपाय सोच लिया। एक दिन जब खूब अन्‍धेरी रात थी और अपना हाथ भी न सूझता था,   उसने तैयारी की। हवा भी थी और पानी भी टिपटिपा रहा था। उसने लंगोटा कसा और हाथ में एकाधा रस्सी ली। बगल में एक तमंचा और एक कटार बॉंधी। और भी कुछ जरूरी सामान ले लिया और चल पड़ा,   ठेठ उस मालदार के महल की ओर जहाँ उसने तमाचे खाए थे। पहुँच के धीरे-धीरे भीतर घुसा और दो मंजिले पर,   जहाँ वह हजरत खर्राटे ले रहे थे,   जा धमका। वहाँ अच्छी तरह पहचान के तैयारी की और रिवाल्वर हाथ में लिया। फिर भुक से दियासलाई जला के उनके मुँह पर ले गया और तमंचा कलेजे पर भिड़ा के उन्हें जगाने लगा। अकचका के जो वह उठे तो शैतान की तरह उसे खड़ा देख उनके देवता ही कूच कर गए। मगर हिम्मत करके बोले,   कौन है? उसने कहा कि मैं वही हूँ जो हलवे के लिए घी वगैरह माँगता था। पर जिसे उन चीजों के बजाय आपने तमाचे दिलवाए। फिर तो मैंने,   तय कर लिया कि हलवा खा के ही छोड़ूँगा। देखो यह तमंचा। अभी खजाने की कुंजी धीरे से दे दो और चुप रहो ताकि रुपए लेकर मैं चला जाऊँ। नहीं तो गोली दाग दूँगा,   या कटार से धीरे से गला उतार लूँगा,   ताकि कोई जाने भी न और पीछे रुपए भी ढूँढ़ लूँ। अब तो वह हजरत हें हें करने लगे और हाथ जोड़ के बोले कि लो भाई,   यह चाभी-कुंजी और जान बख्शो। वह भी कुछ माल लेके चम्पत हो गया। फिर तो उसने खूब डँट के हलवा खाया। औरों को भी खिलाया।
    इससे साफ हो गया कि माँगने और शक्ति दिखाकर दावा ठोंक देने में कितना फर्क है। ज्यों ही माँगने का रास्ता छोड़ के हमने स्वावलम्बन तथा स्वकीय शक्ति आजमाने की पूरी तैयारी कर ली कि हमारी कीमत बढ़ गई,   हमारी कद्र ही दूसरी हो गई। जो हम पर हँसते और हमें गाली देते थे,   तमाचे लगाते थे,   वही पाँवों पर पड़ने और हाथ जोड़ने लगे। हमारा हाथ जोड़ना उनके पास चला गया। क्योंकि उसे तो कहीं रहना ही है और जब हमने उसका अनादर किया तो चट हमारे शत्रुओं के माथे पर ही वह जा चढ़ा। वह तो हमेशा दो प्रतिद्वन्द्वी दलों में किसी एक पर ही रहता है। यह कितनी बड़ी बात है कि झुकाने वाला ही फौरन झुक जाए। तमंचे ने तमाचे को बदल दिया और दोनों हाथों को जोड़ने को मजबूर कर दिया। हालाँकि उसकी जरूरत भी न पड़ी। हमें तो सिर्फ तैयार होने की जरूरत थी। जो एक पैसा भी देने को रवादार नहीं उसने खजाने की कुंजी तक हाथ जोड़कर सौंप दी। इन्कलाब हो गया। क्रान्ति हो गई। रेवोल्यूशन हो गया। सो भी शान्तिपूर्ण। पीसफुल। सारी हवा ही बदल गई। ऊँचा सिर नीचा और नीचा ऊँचा हुआ। दलित का सीना तन गया और शोषक की गर्दन झुक गई। यही है संघर्ष के संकल्प और भिड़न्त की तैयारी का सीधा अर्थ। इतने से ही खास संघर्ष का अर्थ भी समझा जा सकता है।
    जब हम किसान से कहते हैं कि बैल की तरह गैरों को तो कमा-कमा के गेहूँ,   बासमती,   दूध देता है। मगर खुद क्यों नहीं खाता? जरा अपने आप भी तो खाता और पसीने की कमाई सफल करता। तो उत्तर मिलता है कि बाप रे बाप। जमींदार उजाड़ ही डालेगा। गोया अभी तक उसने कुछ बाकी छोड़ा है। कुछ भी तो पास में रहने न दिया। सारी कमाई तो लूट ली। केवल शरीर,   हाथ,   पाँव,   मुँह,   जबान तो बची है। अक्ल भी तो उसने ले ही ली है। शरीर वगैरह तो सिर्फ इसलिए छोड़ा है कि एक तो उसे ही कमाने की जरूरत है। कारण,   जमींदार तो खुद कमा नहीं सकता। दूसरे जब बुद्धि ले ही है तब शरीर भी लिया ही दाखिल है। क्योंकि आत्मा और दिमाग की गुलामी ही देह की गुलामी का कारण है।
    अब यदि हम उसकी उस गुलामी को हटाना चाहते हैं,   जो घबराता और डर का भूत यह खड़ा कर देता है। क्या घड़ियाल को खतरा नहीं है कि मौका पाते ही आदमी उस पर हमला करेगा? इसीलिए तो पानी में डूबा और भागा फिरता है,   हालाँकि फिर भी नहीं बच पाता। मगर अगर संयोग से उसके मुँह कहीं आदमी का खून एक बार लगा फिर तो मानता ही नहीं,   चाहे हजार खतरा क्यों न हों। फिर तो आदमी पर वार करता ही है। चसका ऐसी ही चीज है।
    ठीक वैसे ही यदि किसान को गेहूँ,   घी,   दूध खाने का चसका लग जाए,  बाघ या घड़ियाल की तरह मुँह में खून लग जाएँ,  तो फिर हजार डरवाइए,   पर वह न मानेगा।
    लेकिन जब डण्डे और हाँ हाँ की परवाह न करके पशु भी गैर के खेत में दो-चार गफ्फे मार ही लेता है,   यहाँ तक कि जब तक विवश नहीं हो जाता हटता नहीं,   तो किसान उससे तो गया-बीता नहीं है। और इसे तो अपना ही खाना है,   गैर का नहीं। क्योंकि कमाया है उसी ने और गेहूँ,   दूधादि पर जमींदार वगैरह का न तो नाम ही लिखा है और न उनके नाम से गिन-गिन के रजिस्टरी ही है कि फलां-फलां दाने और बूँद उसके हैं। किसान का मुँह भी सिया हुआ है नहीं। गले के भीतर भी कोई रुकावट नहीं है। हाथ-पाँव भी दुरुस्त ही हैं। धनिकों की तरह उनमें लकवे का मर्ज भी नहीं है। कानून तो कोई तलवार,   गोली या बम नहीं है कि दूध का घूँट मुँह में जाते ही सिर पर गिरेगा। यह भी नहीं कि गेहूँ,   चावल भी इस तरह पेट में जा ही न सकेगा। वह तो बखूबी पेट में जाएगा। उसके बाद ही कानून आएगा। सो भी धीरे-धीरे चींटी की चाल से। यह असली बात है और इसे जान लेना ही लड़ाई का पहला कदम है।
    और माना कि कानून आएगा। आए। जमींदार तो नहीं आएगा। वह आता तो शायद जरा गड़बड़ी होती। खयाल होता कि कुम्भकर्ण की तरह सारा घी,   दूध,   खा के यदि कहीं तगड़ा हुआ तो मुश्किल करेगा। वह देह पर भी यदि गिर जाए तो भी किसान का काम ही तमाम। मगर वह और उसका दावा तो इतना कमजोर है कि पहले ही धाक्के में वह खत्म। अब सीधे आने की हिम्मत न करके कानून का वार करता है। मगर आखिर वह भी क्या है और उसका भी परिणााम क्या होगा यही तो देखना है। यही दूसरा कदम है। नालिश करेगा,   डिग्री कराएगा और अन्त में जमीन नीलाम करा लेगा। करा ले; फसल नीलाम होती तो एक बात थी। मगर वह तो पेट में चली गई,   यही खैरियत हुई। यह ठीक है कि एकाधा बार के बाद फसल भी छेकी जाती और नीलाम हो जाती है। मगर याद रहे कि हम सामूहिक रूप से सभी किसानों की लड़ाई और यह दूसरा कदम उठाने की बात करते हैं। इक्के-दुक्के की नहीं। ऐसी दशा में फसल ले लेना आसान नहीं है। कौन लेगा,   यदि किसान ने तय कर लिया है कि हम लेने न देंगे? गया के रेवड़ा,   मुहम्मदपुर वगैरह गाँवों में किसानों ने ऐसा करके दिखला दिया है। वहाँ जमींदार को भागना पड़ा है। उसका भी आखिरी नतीजा तो जेल ही है,   यदि किसान फसल जब्ती की परवाह न करें और खाता चला जाए। यदि थोड़े ही किसान ऐसा करें तो भी जब्ती गैरमुमकिन हो जाएगी। यदि जमींदार खूब रुपए खर्च करके ज्यादा पुलिस रखे तो 'नौ की लकड़ी और नब्बे खर्च' होगा। और लेने के देने पड़ेंगे। कितनी बार ऐसा करेगा? इसीलिए तो अन्त में वही कागजी कार्यवाही करनी ही होगी या जेल ले चलना होगा।
    हाँ,   नालिश,   डिग्री और नीलाम सभी कुछ हुआ। मगर इतने ही में जमींदार का खून निकल आया। सिर्फ भविष्य की आशा पर ही अब आगे बढ़ेगा। लेकिन यदि किसान डटा रहे और उसे मालूम हो जाए कि किसान का दिमाग फिर गया है,   तो जल्दी ही हिम्मत हारेगा। असल में जमींदार का कारबार तो कागज की नाव है; उसे डूबते देर नहीं लगती। जल्द न भी डूबे तो भी देखें कि क्या होता है। नीलाम होने के बाद भी तो कानूनन जमीन पर किसान का ही दखल रहता है। इतना करने पर भी अभी जमींदार उसके निकट फटक नहीं सकता। तब दखल दिहानी होती है। आखिर वह है क्या? यही न कि ज्यादातर तो घर में या कचहरी में बैठ के रस्म अदाई हो जाती है और दो-चार रुपए में सब कागजी मशाला तैयार हो जाता है? याद रहे,   शुरू से लेकर दखल दिहानी तक सिर्फ कागजी ही घोड़ा दौड़ता है। बहुत हुआ तो खेत पर जाके मुनादी करवा दी कि दखल हो गया। फिर कागज में गवाहों के हस्ताक्षर बनवा लिये।
    मगर जमीन तो गल्ला,   घी,   दूध या रुपया पैसा नहीं है कि जमींदार उठा कर अपने घर में रख लेगा। वह तो कागजी दखल दिहानी के बाद भी जहीं की तहीं जैसी की तैसी ही रहती है। वह किसान की जो ठहरी। इसलिए हजार नीलामी और दखल दिहानी हो। मगर वह टस से मस नहीं होती यही तो खूबी है। किसान इसे नहीं समझता यही उसकी नादानी हैं। यह भी नहीं कि उस दखल दिहानी के चलते जमीन की शक्ल बदली और उसमें कटीला तार लग गया,   उसकी किलेबन्दी हो गई,   या किसी और तरह भी उसमें किसान का हल चलाना असम्भव हो गया। उसमें तो पूर्ववत ही हल चल सकता है,   चलता है और किसान की फसल भी होती है। किसान के पाँवों और हाथों में भी कोई रुकावट नहीं होती। असल में दखल दिहानी तो हुई कागज पर और जोती जाती तो है जमीन। फिर हर्ज क्या? जमींदार दखलवाला कागज घर के भीतर सात ताले में बन्द कर रखे। जमीन को तो रख नहीं सकता। यदि फसल की जब्ती की तरह जमीन के कब्जे के लिए भी पुलिस की सेना लाकर जमीन पर हल चलाना,   हल चलवाना चाहे,   तो वही नौ की लकड़ी पर नब्बे का खर्च होगा। यह कब तक चलेगा?
    तब हारकर दफा 144 की नोटिस खेत या किसानों पर या दोनों ही पर करता है। मगर यह भी क्या तमाशा है। नोटिस तो न तोप है,   न तलवार और न आदमी ही,   कि किसान को खेत पर जाने से रोक दे। उसके बाद उसके हाथ-पाँव हथकड़ी और बेड़ी से बँधा तो जाते नहीं। वह तो पूरा आजाद है और साफ कह देना है कि किसान सभा ने हमें इन सबों का रहस्य बता दिया है। फलत: हम निर्भीक हो गए हैं। यह छिपी बात नहीं है,  सभी जानते हैं,  'संतन संग बैठि बैठि लोकलाज खोई। अब तो बात फैल गई जाने सब कोई' ऐसी दशा में पीछे हटने का क्या सवाल? अन्त तक हम चलेंगे और देखेंगे कि क्या होता है। क्योंकि नाचने लगे तो घूँघट क्या? फलत: पूर्ववत ही उसकी खेती उसी जमीन पर चलती है। पैदावार वही खाता-पीता भी है। अब तो नालिश का भी डर नहीं रहा। क्योंकि कानून ने खेत उसके नाम से उतार के उसका बोझा ही हलका कर दिया। चलो नालिश की बला भी अब टल ही गई।
    उसके बाद धार-पकड़ होती है और मुकदमे तथा जेल की नौबत आती है। जब खुल के खेलना ही है तो किसान किसी के लिए आसानी क्यों पैदा करे। पुलिस आती है पहले ही की तरह उसे पकड़ने। मगर यहाँ तो जमाना बदल गया। वह तो सीधे जाने से इनकार करता है। वह तो साफ सुना देता है कि हम लोग बाल बच्चे के साथ ही चलेंगे। उन्हें यहाँ छोड़ दें,   तो उनकी खबर कौन लेगा? जब सरकार को जेल में ही रखना है,   तो सभी को रख के देख ले। यों तो न जाएँगे। और यदि जोर-जुल्म होगा तो देखेंगे। याद रहे सभी को सिर पर लाद कर ले चलना होगा। फिर भी मौका लगते ही जमीन पर जा पड़ेंगे और उठाने में दिक्कत करेंगे। हम दिखा देना चाहते हैं कि जाग्रत और प्रबुद्ध किसानों से लड़ने का मजा क्या है? हम यह भी दिखा देना चाहते हैं कि किसानों की मर्जी के खिलाफ उनसे कुछ भी वसूल लेने की हिम्मत का क्या नतीजा होता है। बिना एक बूँद खून बहाए या एक लाठी चलाए ही हम शासकों और शोषकों को उनकी छठी का दूध याद दिला देना चाहते हैं। यदि टिड्डी दल और कीड़े चाहते हैं तो लाख यत्न करने पर भी नाकोंदम कर देते और फसल मिटियामेट कर देते हैं। क्या हम उनसे भी गए गुजरे हैं? आखिर तो हम इनसान हैं,   आदमी हैं।
    असल में यह केवल जबानी जमाखर्च है नहीं। गया वगैरह में कई जगह ऐसा करके उन्होंने दिखा दिया है और पुलिस तथा अधिकारियों को लाचार कर दिया है। टेकारी थाने के गौरी बीघा में श्रीकेश्वर सिंह आदि ने यही किया है अभी-अभी। फलत: पुलिस लाचार हो गई। यदि वह जिद करे भी तो केवल दस किसानों को थानों या कचहरी तक पहुँचाने में न सिर्फ हजारों रुपए खर्च भी हो जाए,   बल्कि पहले दर्जे की परेशानी हो और बाकी सभी काम बन्द कर देने पड़ें। आखिर किसान भेड़ तो हैं नहीं कि एक गड़ेरिया सैकड़ों को चराएगा। यदि वे भेड़ बनना इनकार कर दें तो पता चल जाए कि शासन कैसे होता है। यह इनकार तो करना ही होगा,   सो भी जल्द से जल्द।
    माना कि पुलिस बे-मरजी के उन्हें जेल में पहुँचाया भी तो उससे क्या? वहाँ तो खाना,   कपड़ा,   मकान और दवा सभी चीजें काफी मिलती हैं। किसान को आमतौर से इतना आराम घर पर कहाँ मिलता है जितना जेल में मिलता है? क्या सर्वसाधारण किसान के घर भोजन,   वस्त्र,   दवा-दारू आदि के प्रबन्‍ध की जानकारी हमें नहीं है? फिर जेल से डरना क्यों? उसका तो उलटे स्वागत करना चाहिए। यदि जेल में काम करना पड़ता है तो घर पर कौन सी गद्दी लगी रहती है,   जहाँ बैठते और आराम करते हैं। घर पर तो बैल और गधो से भी ज्यादा काम करना पड़ता है। फिर भी शाम को थके-माँदे और पस्ती की हालत में जब घर आते हैं,   तो खाने को नहीं,   नमक नहीं,   तेल नहीं,   कपड़ा नहीं,   बच्चा या घरवाले बीमार हैं,   पर दवा नहीं,   जमींदार का तकाजा और साहूकार की डाँट डपट। ऐसी दशा में किसान पागल क्यों नहीं हो जाता इसी में आश्चर्य है। रोज-रोज की तो यही दशा है। शायद ही कभी नागा जाता हो। न कोई दिल बहलाव का सामान और न मुर्दे दिल को खिलाने या हँसाने वाला भी कोई। ऐसी हालत में पागल न हो जाने में ही ताज्जुब है। यदि नींद न आती और कुछ समय के लिए न सिर्फ उसे सब चिन्ताओं से मुक्त कर देती प्रत्युत उसकी दिन-भर की थकावट परेशानी भी दूर कर देती तो वह जरूर ही पागल बन जाता। मगर क्या जेल में इनमें एक भी बात है?
    वहाँ तो औरों को ही हर बात की फिक्र है कि समय पर भोजन आदि जरूर मिले। वहाँ महाजन या जमींदार की तो पहुँच ही नहीं। काम भी घर जितना थोड़े ही करना पड़ता है। उसका चतुर्थांश भी शायद ही हो। हालाँकि लोगों की धारणा है कि जेल का काम बहुत ही ज्यादा और शक्त है। मगर यह धारणा गलत है। कितना भी कड़ा काम हो,   लेकिन सात-आठ घण्टे से ज्यादा नहीं करना पड़ता। सो भी दो बार मिला के न कि लगातार। बीच में तीन घण्टे का विश्राम और भोजनादि के लिए छुट्टी मिलती ही है।
    मगर घर का काम जरा देखें तो पता चले। किसानों को खामख्वाह दो तीन घण्टे रात रहते ही जगना और गाय-भैंसों तथा बैलों को खिलाना पड़ता है। ताकि सुबह होने के पहले ही वह तैयार हो जाए। यदि खेती के दिन हैं और हल चलाना है तब तो अन्धेरे में ही खेतों के लिए बैल रवाना भी हो जाने चाहिए और उससे पहले ही उन्हें खा-पी लेना चाहिए। फिर उन्हीं के साथ दिन-भर या तो खेतों में ही काटना पड़ता है या घर पर उनके लिए चारा घास जुटाना और दूसरा काम करना पड़ता है। शाम को लौटे तो उन्हें खिलाते-पिलाते एक पहर रात तो यों ही बीती। फिर अपने खाने-पीने और अगले दिनों के इन्तजाम में कुछ समय लगा। तब कहीं सोने गए। इस तरह दिन-रात के आठ पहर में शायद ही डेढ़ पहर की फुर्सत मिली। सो भी यदि फसल के दिन हैं या खलिहान में गल्ला पड़ा है तो सारी रात जगिए और रखवाली भी कीजिए। इस तरह वह भी डेढ़ पहर गायब और नींद भी हराम। यह आमतौर से अठारह-बीस घण्टे का प्रतिदिन का काम। कभी-कभी तो चौबीसों घण्टे का। यह चौबीस घण्टेवाला सिलसिला साल में कई महीने चलता है,  करीब-करीब आधा साल तो जरूर। दो फसलें होती हैं और अगर ऊख हुई तो वह अलग ही है। क्या अब भी कोई कह सकता है कि जेल का काम ज्यादा और कड़ा है बनिस्वत घर के? फिर जेल की परवाह क्यों?
    एक बात और है। जो जरायमपेशा और चोरी-डकैती करने वाले लोग हैं उनमें और इस प्रकार जानबूझ के अपने हकों के लिए लड़ने तथा जेल जानेवालों में जमीन-आसमान का अन्तर है। पहले प्रकार के लोगों की आत्मा दबी होती है। मगर इनकी खूब मजबूत और तैयार। ऐसी दशा में यदि ये काम न करना चाहें तो कोई भी शक्ति इनसे काम करवा ही नहीं सकती। राजनीतिक आन्दोलनों में ऐसा बराबर होता रहा है। जेल अधिकारियों की हिम्मत ही नहीं होती कि उन पर ज्यादा दबाव डालें। खासकर ऐसी हालत में जब कि सामूहिक रूप से किसान इस रूप में जेल जाएँ। जहाँ हजारों की तायदाद में एक ही खयाल और भाव के लोग युद्ध की भावना से जेल गए हों वहाँ की परिस्थिति ही और होगी और दुनिया ही पलट जाएगी। वे तो चाहें तो काम करानेवालों से ही काम करवाएँ। जो उनसे चक्की चलवाना चाहे उसे ही पकड़ के उसी के हाथों से शान्ति के साथ चक्की चलवा सकते हैं। इस प्रकार नाव में नदी के ही डूब जाने की बात हो सकती है।
    जेल की यह बात भी तो खयाल ही है क्योंकि हजारों आदमियों को किस जेल में रखा जा सकता है? जब लाखों किसान एक साथ करवट बदलें तो उनके लिए मकान बनवाना और कहीं रोक रखना किसी के लिए भी असम्भव काम है। जेल की बातें ही मुट्ठी-भर लोगों के ही लिए हैं,  कुछ हजार के ही लिए हैं। लाखों के लिए नहीं। नहीं तो ये लाखों खा-पी के ही सरकार और उसके दोस्तों का दिवाला आसानी से निकाल सकते हैं। वह हालत आ जाने पर तो खामख्वाह इन्कलाब हो ही जाएगा और दूसरी दुनिया बन ही जाएगी।
    और जब जेल से किसान वापस आवें तो फिर वही खेत जोतें और खाएँ। फिर केस चले,   जेल जाएँ और इसी प्रकार चक्र चालू हो। इसमें किसानों की तो कोई हानि नहीं। वे तो जहाँ रहें मौज से रहें। यदि बाल-बच्चों के साथ न भी जेल गए तो भी उनके बाल-बच्चों की फिक्र सबसे पहले की जाएगी। यह काम वह लोग करेंगे जो जेल के बाहर हैं। क्योंकि आखिर किसान की ही तो यह लड़ाई है। वह किसी व्यक्ति विशेष की तो है नहीं। यदि इसमें हार हो तो भी सभी दबेंगे और नीचे जाएँगे। सभी की दुर्दशा होगी,   लेकिन विजय होने पर तो जमींदार नाम की चीज ही नहीं रहेगी,   साहूकार कहा जानेवाला ही कोई न रहेगा और सरकार उनकी मर्जी के ही अनुसार चलेगी। फलत: हरेक किसान सुखी होगा और इज्जत से जिन्दगी गुजर करेगा। इसीलिए इस लड़ाई को तो सभी मिल के ही लड़ेंगे। इसमें दस-बीस घर,   गाँव या एकाधा जिले का सवाल होगा ही नहीं।
    एक किसान ऐसा चालाक था कि गाय और भैंस को दुहने के समय युक्ति से दूध की धार मुँह में ही डालता था। इस तरह गर्मागर्म दूध पीता था। न बर्तन की फिक्र और न गर्म करने की। ताजे से ताजा दूध सीधे पेट में चला जाता था। किसी बर्तन में दुह के पीने में तो खतरा रहता है कि शायद कोई दूसरा हकदार या छीनने वाला आ जाए और जमा किया हुआ दूध आसानी से उठा ले जाए। इसीलिए उसने ऐसा रास्ता निकाला कि 'न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेंगी'। उसके इस काम में किसान की जो भोग-भावना काम कर रही थी,   मैं उसका हृदय से समर्थन करता हूँ और चाहता हूँ कि वही भावना हर किसानों में आए। वह विराट भगवान की अनन्त टाँगों,   बाँहों,   मुँहों आदि की मदद से अधिकार मदमत्त अत्याचारियों का होश दुरुस्त करें। वह क्यों लाठी चलाएँ,   क्यों मारपीट करें और क्यों किसी जमींदार या सत्ताधारी को बदजबान भी बोलें,   वह तो धीरे से खा ही लें।
    अच्छा हो कि उक्त किसान की ही तरह गाय-भैंस का दूध मुँह में ही दुह के पी डालें स्वयं बाल-बच्चों के साथ। सभी के मुँह में ही दुहा जा सकता है। नहीं तो बर्तन में ही दुह के सभी वही पी लें। न जाने घर जाने पर क्या हो और कौन-कौन से दावेदार आ जाएँ। उससे यदि बचे तो दही बना के सब परिवार भोग लगायें। दही से बचने पर घी निकाल के दाल-साग में खा जाएँ या हलवा ही बना के। सारांश जमा होने न दें। नहीं तो मधुमक्खी की मधु की तरह गैरों को खामख्वाह मौका लगेगा हड़पने और छीनने का। और खुद उन्हीं मक्खियों की तरह मरना पड़ेगा,   जलना होगा,   अन्धा बनना होगा। जब काम से ही फाजिल नहीं तो जमा करने का मतलब भी आखिर क्या हो सकता है?
    इसी प्रकार अच्छे से अच्छा धन बोएँ और जब धन चिउड़े के लायक बने तभी से खाना शुरू करें। खेत में खाएँ,   खलिहान में खाएँ और बचा बचाया जो घर जाए उसे भी खाएँ। मगर ऐसी हालत में घर जाने के लिए तो शायद ही बचे। चाहे जो हो हर हालत में खाना जारी रहे। गेहूँ खेत में ही,   हरा रहते ही भून के खाएँ,   खलिहान से और खेत से,   सूखने पर लाकर पीस-पास के रोटी बनाएँ और खाएँ। अगर दूध शेष हो तो उसी के साथ और अगर घी हो तो कहना ही क्या। पूड़ी भी बना के खाएँ और दूसरी चीजें भी। इसी प्रकार और और पैदावार के साथ भी उसका व्यवहार होना चाहिए।
    सारांश यह कि खाना उसका प्रधन और सर्वप्रथम मन्त्र हो। यह ऐसा मन्त्र है कि शोषकों का कलेजा फट जाए और बिना मौत ही वे मर जाएँ। यह ऐसी शान्ति की लड़ाई है कि कहिए मत। हाहाकार ही मच जाए। विराट आकार प्रकट हो गया और सारी दुनिया गायब हो गई। गीता के भगवान के विराट स्वरूप से भी भीषण रूप किसान ने धारण कर लिया। अब तो दुनिया का संहार हुए बिना रह ही नहीं सकता। पापी लोग बच नहीं सकते। उससे कौन लेगा? क्या लेगा? कैसे लेगा? पेट में से निकालेगा क्या? पेट में जाने न पाए इसका क्या कोई उपाय है यदि किसान,   यदि यह 'सहò शीर्षा पुरुष: सहòक्ष: सहòपात्' संकल्प कर ले कि खाएँगे और जरूर खाएँगे? हमें तो ऐसी शक्ति नजर नहीं आती,   जो यह काम कर सके। यही तो आज की ब्रह्मास्त्र वाली असली लड़ाई है,   जिसका उल्लेख पुरानी पोथियों में बार-बार आता है।
    एक बात जरा और भी तो देखिए। जमींदार कहता है,   सत्ताधारी कहते हैं और उनके पुछल्ले भी उसे ही दुहराते हैं कि जमीन के पास मत जाओ। वह तो नीलाम हो गई। उन्हें तमीज ही नहीं कि वे यह झगड़े की बात क्यों बोलते हैं,   यह उलटी बात क्यों कहते हैं। जमीन क्यों नीलाम हो गई? क्या किसान ने ऐश में उसकी कमाई खर्च कर दी? नाच और मुजरे में लगा दी? सैर-सपाटे में चौपट कर दी? महल बनाए? मोटर खरीदी? चुनाव लड़े? आखिर पैदावार गई कहाँ? सत्तू भी तो भर पेट नहीं खा सका। और जिस पेट में उसकी कमाई चली गई,   वह तो मौजूद ही है। जमीन तो ठीक नीलाम हुई और दखल दिहानी भी हुई। मगर जब किसान की भूख,   उसका जाड़ा,   उसकी लज्जा,   उसकी बीमारी वगैरह तो नीलाम नहीं हुई और न इन पर जमींदार की दखल दिहानी ही हुई। अच्छा तो था कि इन चीजों को भी नीलाम करा के अपने कब्जे में जमींदार रख लेता। फिर तो झगड़ा ही न होता। न बकास्त की लड़ाई होती और न कर बन्दी। तब तो जरूरत ही नहीं रह जाती। हाँ,   जमींदार को जरूर मालूम पड़ता कि भूख-प्यास,   बीमारी वगैरह को रखने में क्या दिक्कतें हैं। तब उसे किसानों की परेशानियों का अन्दाज लग जाता और वह खामख्वाह कह बैठता कि बाबा,   लो यह तुम्हारी जमीन। ताकि इन आफतों से पिण्ड तो छूटे। हम बिना दखल दिहानी के ही,   बिना जमीन के ही अच्छे।
    कानून बनाने वाले को होश ही नहीं और न उस पर अमल करनेवालों को ही कि ऐसा करें कि जमीन की नीलामी के कानून के साथ ही भूख,   बीमारी आदि की नीलामी भी जरूरी हो और किसान इनसे छुटकारा पा जाए। नहीं तो जमीन जमींदार के पास,   पूँजी धनिकों के पास और भूख,   बीमारी आदि किसानों के पास। यह कैसे चलेगा? यह तो असम्भव है। किसान तो कानून के आगे सिर झुकाने को तैयार है। मगर ये तो मानने वाले नहीं। ये भूख,   रोग आदि तो जन्म के बागी और क्रान्तिकारी हैं। किसान तो कानून पढ़ता है,   पढ़ सकता है। और नहीं तो उसे जबर्दस्ती पढ़ाया जा सकता है। मगर इन्हें कौन पढ़ाए। म्याऊँ का ठौर कौन पकड़े? ये तो पढ़ानेवालों को ही उलटे पढ़ा दें। जो इन्हें कानून पढ़ाने चले वह सियार की तरह उलटे पढ़ जाए और उनकी जान पर आ बने।
    कहते हैं एक सियार को घूमते-फिरते कहीं छपे-छपाये कागज का टुकड़ा मिल गया। वह खुश हो गया। एक दिन फूलकर अपनी सियारिन को उसे दिखाते हुए उसने कहा कि लो अब तो सदा के लिए हमारी बला टली। अब हमें कोई छेड़ न सकेगा; अब यह सरकारी हुक्मनामा जो मिल गया,   हम जहाँ चाहें,   न रोके जा सकते हैं। सियारिन ने 'अच्छा' कहा और हिफाजत से पास में रखने की राय दी। कुछ दिन गुजर गए और कोई घटना नहीं हुई किसी ने भी संयोगवश उस सियार को नहीं छेड़ा। फिर तो खूब हिम्मत बढ़ी और एक दिन हजरत गाँव की ओर बढ़े। पास पहुँचते न पहुँचते कई मस्ताने कुत्तों की जो उन पर नजर पड़ी तो उनने उनका पीछा चटपट किया। हजरत भाग चले। जब तेजी से अपनी मांद पर आ के भीतर घुसना चाहा तो उसका द्वार बन्द पाया। घबराहट में सियारिन से बोले कि जल्दी खोल,   दुश्मनों ने पीछा किया है। उसने कहा कि हुक्मनामा तो पास में ही है। दिखला क्यों नहीं देते? सियार ने कहा कि दिखलायें क्या खाक? वे तो अनपढ़ हैं। तब कहीं झटपट माँद का द्वार खुला और जैसे-तैसे उनकी जान बच पाई।
    यही बात इन भूख आदि की है। वे तो वज्र अपढ़ हैं। वे कानून क्या जानने गए? किसानों की सिधाई और तन मूलक अपनी सफलता देख के जमींदार जो चसक गए हैं और नीलामी तथा बेदखली कराते रहते हैं उसका नतीजा किसान उन्हें तभी पढ़ाएँगे जब उक्त रीति से वे भी डट जाएँगे। तब तो उन्हें मनाना गैर-मुमकिन होगा। दलीलें तो कुछ पढ़े-लिखों तक ही काम करती हैं,   न कि गँवार किसानों में। वे तो अपढ़ हैं। सिर्फ आतंक और मिथ्या धारणा के करते ही वे मानते थे। अब जब ये दोनों बातें जाती रहीं तब दलील और कानून उन पर ठीक वैसे ही असर नहीं करेंगे,   जैसे कुत्तों पर सियार का हुक्मनामा बेकार साबित हुआ।
    देखिए न,   कितनी हृदयहीनता और जल्लादाना हरकत है? न जमींदार या उनके अमले ही सोचें,   न कानून ही विचारे,   न हाकिम ही खयाल करे और न सरकार ही जरा भी फिक्र करे कि आखिर किसान भी तो आदमी ही हैं,   उनके बाल-बच्चे भी तो इनसान हैं वे भी शरीर रखते हैं,   पेट रखते हैं। इसलिए उन्हें भी तो खाना-पीना वगैरह चाहिए ही। कोई भी इसकी चिन्ता नहीं करता। हरेक को यही फिक्र है कि किसान से कैसे कौड़ी-कौड़ी चुकता कर लें। इसके लिए ही सारी शक्ति लगा दी जाती है। वह हाथ जोड़ता,   प्रार्थनाएँ करता कि फसल मारी गई। मगर कोई सुनने को रवादार नहीं। जब पढ़े-लिखे और सभ्य कहे जाने वाले जमींदार तथा हाकिम-हुक्काम तक यों इनसानियत को ताक पर रख देते हैं और जरा भी समझदारी से काम नहीं लेते,   तो क्या किसानों ने ही सारी भलमनसी,   सारी समझ और सारी इनसानियत का अकेले ठेका ले लिया है कि मरते रहें और चुकता करते जाएँ? यदि यों न हो सके तो बहनों और लड़कियों तक को बेच डालें,   ईमान का बंधक रखें,   लाख कुकर्म करें,  चोरी तक करें और जमींदार तथा अन्य पावनेदारों की भरपाई कर दें? यह तो कुएँ में भाँग पड़ने की बात हो गई कि जोई उसका पानी पीता वही सनक जाता। समस्त समाज सनक-सा गया है। फिर किसान भी उसी तरह क्यों न सनक जाएँ?
    इसलिए वह कमर बॉंध ले और साफ कह दे कि जब बचता ही नहीं,   खुद हमारा पेट ही नहीं भरता,   तो दें क्या खाक? अन्न,   वस्‍त्र और दवा के बिना परिवार को मार के देने की बात तो समझ में आती नहीं। हम ऐसा क्यों करने जाएँ? हाँ,   पहले कानून के ठेकेदार या सत्ताधारी लोग सरकार की ओर से साफ-साफ यह घोषणा तो कर दें,   चारों ओर लक्ष-लक्ष विज्ञप्तियाँ बाँटकर प्रचार तो कर दें कि सरकार की यही मर्जी है कि भूखे मरते रहो,   कपड़े के बिना जाड़े में काँपते रहो,   माँ-बहने नंगी हो जाएँ,   दवा के बिना सपरिवार काल के गाल में जाने की नौबत तक हो और मकान भी बेपर्द हो,   जीर्ण-शीर्ण हो,   तो भी कोई परवाह नहीं। उन सब कामों में कौड़ी भी खर्च न करके सबसे पहले पावनेदारों का पावना चुकता कर दो। पीछे बचे तो खाना-पीना,   दवा करना,   कपड़ा लाना और मकान बनाना। नहीं,   तो मरने दोऔर नग्न ही रहने दो। उस समय हम सोचेंगे कि हमें क्या करना चाहिए। तब कम सेकम यह बात समझ में तो आ सकेगी कि पावनेदारों का यह दावा कि हर हालत में उनकी भरपाई होनी ही चाहिए,   सरकार की मर्जी के मुताबिक ही है; वह कानूनी है।
    मगर क्या यह हिम्मत सरकार को है? क्या वह ऐसी विज्ञप्तियाँ निकाल सकती है? असल में ऐसा करने पर तो सरकार के लिए मुँह दिखाना ही मुश्किल हो जाएगा और दुनिया थू थू करेगी इसीलिए वह साफ-साफ कहती कुछ नहीं। मगर काम ऐसा करती है कि उसका मतलब यही हो जाता है कि किसान परिवार अन्न,   वस्‍त्र,   दवा,   मकान के बिना मरे तो मरे,   मगर पाई-पाई पावना चुकता कर दे,   जरूर ही। लेकिन अब हम नहीं चाहते कि इतने दिनों तक चलनेवाला यह टट्टी की ओट में शिकार जारी रहने दिया जाए। हम चाहते हैं कि किसान ऐसा ही करें जिससे या तो सरकार अपनी नकाब उतार फेंके और अपनी नीयत साफ जाहिर कर दे,   या किसानों के साथ यह घोर अन्याय का होना रुके।
    यदि शासक और शोषक लोग इतने पर भी न मानें और वाहियात दलीलें करते जाएँ कि किसान परिवार को भूखों मरने,   नंगे रहने या दवा के बिना मौत के शिकार होने की बात सरासर झूठी है। उसे तो काफी बचता है। इसीलिए तो शराब,   ताड़ी या शादी,   गमी में फिजूलखर्ची करता है। तो इसका जवाब दूसरा ही दिया जाना चाहिए और ऐसा कि जैसे लट्ठमार हो। असल में शोषक लोग बहुत बेहयाई करते हैं,   जब वे ऊपर लिखी दलीलें देते हैं। समझते हैं कि दलीलें बड़ी पक्की हैं। एक बार गुजरात के खेड़ा जिले में डाकोर के पास एक साहूकार ने एक किसान के बारे में कहा कि देखिए न यह तो सैलून (शहर में खास ढंग से सजी दुकान) में एक दिन अपने बाल कटवाता था। हालाँकि साहूकार बराबर ही वैसा करता था। मगर उसका कतई खयाल न करके किसान के एक दिन का खयाल कर लिया। क्योंकि किसानों को तो वे लोग आदमी ही नहीं समझते।
    आखिर आदमी के भीतर इच्छाएँ हैं,   प्रवृत्तियाँ हैं,   लालसाएँ हैं। वह तो चाहेगा कि हम भी अच्छी तरह बाल कटवाते,   अच्छा खाना खाते। वह पत्थर या पशु तो हैं नहीं। मगर शोषक लोग तो उसे ऐसा ही समझते या समझने की कोशिश करते हैं।
    इसी प्रकार ताड़ी,   शराब या विवाह-शादी के खर्च की बात करने वाले भी हैं। आखिर किसान भी तो इनसान है। कमाते-कमाते मरता है। मगर न तो जरा सा दिल बहलाव का सामान उसे मिलता और न मुर्झाई भावनाओं को प्रफुल्लित करने का कोई साधन ही। प्रत्युत हजार चिन्ताएँ उसे मारे डालती हैं। ऐसी दशा में या तो नींद की बेहोशी या ताड़ी-शराब का नशा ही उसे कुछ समय के लिए चिन्ताओं से अलग कर देता है। चिन्ता में नींद बेहूदी भी तो नहीं आती। इसीलिए ताड़ी-शराब की शरण बरबस लेनी ही पड़ती है। विवाह-शादी में भी कुछ बाजा गाजा या दिल-बहलाव का सामान करना ही पड़ता है। क्योंकि रोज तो मिलता नहीं। फिर साल-दो साल में भी न करे? आखिर लड़के-लड़कियों की शादी ही तो है और वे ठहरे कलेजे के टुकड़े। सो भी मनुष्य के कलेजे के। वह कोई गमी या मुहर्रम तो हैं नहीं। हालाँकि मुहर्रम में भी तो बाजे गाजे रहते ही हैं। फिर यदि कुछ खर्च करता है,   तो क्या करे? बेबसी है। यदि पत्थर होता तो उसे न तो लालसा,   अनुराग और अन्य मानवी मनोविकार ही सताते और न वह काम करता ही। योगी या यती भी होता तो शायद न करता। मगर वह तो ठहरा साधारण आदमी। फिर क्योंकर माने? मगर उसे पत्थर या महात्मा माननेवाले ये शोषक अपने मतलब के लिए चाहे जो न करें या कहें।
    लेकिन उनका भी करारा जवाब यही है कि यदि वह ऐसा समझते हैं तो वह या उनकी सरकार दोनों ही मिल के दो में एक काम करें और झंझट मिटे,   या तो किसान के पास सभी पैदावार छोड़ दें और सभी खर्च के बाद जो साल में बच जाए उसे ही अपने पावने में वसूल करें। या शुरू में ही उसकी सारी की सारी पैदावार रत्ती-रत्ती ले लें और उसके परिवार के लिए साल-भर के खाने,   कपड़े,   मकान,   दवा,   पढ़ने-लिखने और शादी-गमी आदि के खर्चों का बजट (चिट्ठा) तैयार करके उसका प्रबन्‍ध करें। नाहक कठ हुज्जत करने की तो कोई जरूरत नहीं। दोनों रास्ते तो साफ हैं। किसान दोनों में कोई भी मानने को तैयार है। तीसरा रास्ता वह हर्गिज न मानेगा। यदि बचत के बारे में शक हो कि गड़बड़ी होगी और किसान फिजूल खर्च कर डालेगा तो उस पर नियन्त्रण रखा जा सकता है।
    लेकिन यदि यह करने के लिए सरकार तैयार न हो तो दूसरा रास्ता तो साफ ही है। तब तो वह पैदावार ले ही लेगी और बजट के अनुसार खर्च मिलने पर वाहियात खर्च की बात उठेगी ही नहीं। अगर उठे भी तो उसका नतीजा किसान के ही माथे होगा। सरकार को क्या? आखिर वह बजट के अनुसार ही तो खर्च की बात उठेगी फिर चाहे जहाँ जैसे खर्चे। कमाने के समय भी उस पर निगरानी रखी जाए। ताकि लापरवाही से न कमाए। हाँ,   बजट बनाने में खयाल रखना ही होगा कि आदमियों के लिए ही वह बनेगा,   न कि पशुओं के लिए। इसलिए स्वास्थ्योपयोगी खाने,   कपड़े,   मकान,   दवा-दारू और पढ़ने-लिखने की व्यवस्था होनी चाहिए। सत्तू,   मंड़ुआ,   खेसारी वह न खाएगा और न चिथड़ा पहनेगा ही। कुछ घी,   दूध भी चाहिए ही। जरा मनोरंजन भी जरूरी है। बस,   झंझट ही खत्म।
    यदि ये दोनों बातें पसन्द न हों तो एक तीसरी बात भी की जा सकती है और किसान उसके लिए भी किसी प्रकार तब तक राजी किया जा सकता है। जमीन की पैदावार खूब बढ़े,   कई गुनी हो,   जैसी कि रूस,   जापान,   इटली आदि में पाई जाती है। अच्छे बीज,   अच्छी खाद,   अच्छी और गहरी जुताई और आवपाशी वगैरह का प्रबन्‍ध सरकार और जमींदार मिल के करें। कीड़े,   रोग और पाले वगैरह से भी रक्षा का प्रबन्‍ध वही करें,   और अन्त में फसल की अच्छी कीमत मिलने का भी इन्तजाम करें जैसा कि और मुल्कों में होता है। इससे किसान को काफी पैसे मिलेंगे और सभी का पावना खुशी से वह चुकता करेगा। अगर न करे तभी उसे कानूनन अपराधी कहा जा सकता है।
    इस प्रकार तीन रास्ते साफ-साफ हैं। उनमें कोई भी गोल मोल नहीं है। उनमें कोई भी स्वीकार करके सफाई के साथ निपटने में ही ईमानदारी है। अगर वे लोग ऐसा नहीं करते,   तो किसान का रास्ता साफ है। फिर तो न देने पर वह दोषी कदापि नहीं हो सकता।
    लोग कहते हैं और किसान भी दिल से मानते हैं कि हजार कोशिश करें,   मगर कुछ होने जाने का नहीं। न तो जमींदारी ही मिटेगी,   न यह सरकार ही और न यह लूट ही रुकेगी। यह इतनी पुरानी बीमारी है कि असाध्‍य है। कितने ही मिट गए। मगर ये चीजें नहीं मिटीं।
    असल में यही निराशा तो जान मारती है। जब तक किसानों को अपने में और अपने लक्ष्य में पूरा,   अमिट,   अडिग विश्वास नहीं होगा,   काम न चलेगा। अपने ध्‍येय और मकसद में यह जीता-जागता विश्वास होना ही कि अब लिया तब लिया,   सफलता की कुंजी है। इसलिए जितना जल्द यह निराशा मिटे और यह विश्वास उनमें जमे उतना ही अच्छा। आखिर सन्ध्‍या,   पूजा,   नमाज,   तीर्थ,   हज वगैरह के द्वारा स्वर्ग,   बिहिश्त और भगवान के मिलने का विश्वास है या नहीं । यह तो प्राय: सभी स्वीकार करते हैं कि विश्वास पक्का है और ये चीजें हासिल भी होंगी। मगर क्या आज तक किसी ने देखा है कि अमुक आदमी धर्म-कर्म का अनुष्ठान करके,   या दूसरी ही तरह से भगवान से मिला है,   या स्वर्ग गया है? यह तो सिर्फ जवानी या पोथियों की ही बातें है। मगर फिर भी सारी शक्ति लगा के की जाती हैं। कोई भी किसान या और भी आदमी इन बातों में पूरी लगन से लगा हुआ प्राय: मिलता है।
    लेकिन यहाँ एक प्रश्न है। स्वर्ग,   बैकुण्ठ,   भगवान या खुदा को क्या किसी ने देखा है? न तो अब तक वहाँ जाते ही कोई दिखा है और न उनको ही हमने देखा है। काले,   गोरे,   छोटे,   बड़े हैं; सोने,   पत्थर या संगमरमर के हैं,   यह भी नहीं मालूम। उत्तर,   दक्षिण,   पूरब,   पश्चिम,   नीचे,   ऊपर कहाँ हैं यह भी पता ज्ञात नहीं। उनकी कोई पहचान भी नहीं है। फिर भी वहाँ पहुँच जाएँगे,   यह अटल विश्वास है। लेकिन गेहूँ,   चावल,   घी,   दूध वगैरह तो ऐसी चीजें नहीं हैं। यह तो ठोस हैं,   अत्यन्त ठोस,   न कि स्वर्गादि की तरह महज खयाली और भावुकतामय। इनकी पहचान भी पक्की है। किसान तो इन्हें रोज ही देखते,   सुनते,   पैदा करते,   सिर पर लाद के गैरों के पास पहुँचाते और कभी-कभी छठे-छमास स्वयं भी प्राप्त करते खाते-पीते हैं। ये तो उन्हीं के खेत और पशुओं से पैदा होती,   खलिहान और बर्तनों में रखी जाती और घर में पहुँचती हैं। उनकी सूरत शक्ल और रूपरेखा भी पूर्णरूपेण विदित ही हैं। न तो किसी पोथी पत्रो में ढूँढ़ना है और न पण्डित या मौलवी से ही पूछना है कि कैसी हैं और उनकी प्राप्ति कैसे होती है। ये तो प्राप्त ही हैं। सिर्फ भ्रम का फन्दा और पर्दा बीच में पड़ा रुकावट डाल रहा है। किसान अपने आपको और अपने हकों को भूल कर ही इनसे अलग हो रहा है,  'अपने को आप भूल के हैरान हो गया।'
    उसकी हालत तो उस बढ़ई की-सी है जो दिन-भर तो अपने वसूले से बीसियों जगह घूम-घूम के काम करता रहा और शाम को घर चला। जाड़े के दिन थे। इसलिए सिर पर कम्बल को इस प्रकार डाल लिया कि सारा शरीर ढँक गया। वसूला भी कन्धे पर रख लिया,   जैसा कि वे लोग बराबर करते हैं। रास्ते में एकाएक खयाल आया कि वसूला तो गायब हो गया। कन्धे की बात भूल गई। सोचा काम करने की जगह पर ही छूट गया। लौट पड़ा। एक के बाद दीगरे सभी जगह उसकी तलाश में दौड़ता फिरा। रात हो गई। दौड़ते-दौड़ते पस्त हो गया। मगर वसूला न मिला। लाचार खिन्न हो के घर लौटा। निराश था। घरवाले आग ताप रहे थे। वहीं पहुँचा और सबसे पहले यही रोना सुनाया कि वसूला ही गायब। इस प्रकार सभी को दुखी करने के बाद ज्यों ही सिर से कम्बल उतारने लगा कि वसूले पर हाथ गया और बोला धत्तेरे की,   यह तो पास में ही था। और इसी के लिए मैं इतना हैरान हुआ।
    किसान की भी यही दशा है। भगवान से लेकर साधु,   फकीर,   देवी,   देवता,   लीडर,   पेशवा,   धनी,   हाकिम,   जमींदार,   उनके अमले,   सभी के पास गेहूँ,   चावल,   आदि ढूँढ़ता और माँगता है 'भूख लगी है,   रोटी दो।' मगर मिलता जुलता कुछ भी नहीं। वह और कहीं हो तब न? जिनसे माँगता है उनके पास हो तब न? वह तो उसी के पास है। उसी के खेत,   खलिहान,   घर में है। वसूला पास ही है,   व्यर्थ की परेशानी है। यदि सन्धया,   पूजा,   नमाज,   तीर्थ करने से वह घी,   दूध,   गेहूँ,   चावल नहीं मिल सकता,   तो भगवान मिलेगा यह अक्ल से बाहर की बात है और अगर भगवान और बैकुण्ठ जरूर ही मिलेगा,   तो निश्चय ही उससे पहले गेहूँ,   चावल,   दूध भी मिलेगा ही और किसान खा-पी के मस्त होगा ही,   यह बात बखूबी समझ में आती है। यदि हजार पूजापाठ के बाद भी हम इतने कमजोर हैं कि गेहूँ आदि की यह दिन दहाड़े लूट रोक नहीं सकते और जमींदारों या उनके अमलों से थर-थर काँपते हैं,   तो जमदूतों और नर्क को कैसे रोकेंगे? कैसे हटावेंगे?
    और क्या भगवान नपुंसक और हिजड़ा है कि हमारे जैसे नामर्दों से मिलेगा? शक्तिमान तो शक्तिवालों से ही मिलना पसन्द करता है। वह तो कमजोरों को देख नहीं सकता। यदि वह सर्वशक्तिमान है,   तो हममें इतनी भी तो शक्ति हो कि अपने गेहूँ,   चावल की लूट बन्द कर सकें। तभी तो हमारा उससे मेल हो सकता है। तभी तो स्वर्ग में हमें स्थान मिल सकता है। स्वर्ग और बैकुण्ठ क्या नामर्दों के ही लिए हैं? तब तो हम उन्हें दूर से ही सलाम करते हैं। हम तो मानते हैं कि यदि वह कोई रहने योग्य स्थान है और यदि भगवान कोई है,   तो वह शक्तिमानों के ही मिलने और प्राप्त होने योग्य है,   'नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:।' यदि पूजापाठ में हमारे पास का ही गेहूँ हमारे ही पेट में पहुँचाने-भर की भी ताकत नहीं है,   तो यह दावा सरासर झूठा है,   कि उससे राम,   रहीम और स्वर्ग,   बिहिश्त मिलेंगे।
    इस प्रकार दिखाने से विदित होता है कि किसान की सबसे बड़ी और पहली लड़ाई अपने आप से ही है। अपनी भूलों और कमजोरियों से ही है,   अपनी अन्धा परम्परा से ही है। उसी के बाद शोषकों और शासकों से है,   लूटनेवालों से है। यह लड़ाई है भी निराली जिसमें शुरू में लाठी-डण्डे और गोली-बारूद की शायद ही जरूरत पड़ती है,  बहुत ही कम पड़ती है। यह तो पूर्ण शान्तिमय लड़ाई है। मगर इसमें खतरे हैं और बहुत बुरे खतरे हैं। इस लड़ाई को बेमुरव्वती के साथ अन्त तक लड़ना होगा। तभी निस्तार होगा। इसमें 'तवार्द्धं च ममार्द्धं च' के अनुसार 'आइए कुछ आप लें कुछ हम लें' हरगिज न करना होगा। समझौता और सुलह सपाटे की बात कतई छोड़ देनी होगी। वह तो जाल के फन्दे हैं। उनमें फँस के मरना ही होगा। हमने यही अनुभव किया है।
    ज्यों ही रिआयत की बात किसान ने सोची,   या दया को उसने दिल में स्थान दिया,   कि मामला सरासर बिगड़ा। बाघ और गाय से समझौता कैसा? घास और बकरी से सुलह कैसी? जब तक बाघ और बकरी मर जाने का निश्चय न कर लें,   सुलह क्यों करेंगे? सुलह करने पर वे खाएँगे क्या? बाघ तो भक्त हो सकता नहीं और बकरी घास के बिना जी सकती नहीं। उसी प्रकार जिन्हें किसान की कमाई पर ही जीना है। जो आकाशलता की तरह किसान के ऊपर ही पैदा होते हैं और उसे सुखा कर पीछे खुद भी सूख जाते हैं,   जैसी कि आकाशलता की हालत है,   उनके साथ समझौते के क्या मानी हैं? वे कुछ समय चाहते हैं और इतने ही में किसान को सुखा डालेंगे। इसलिए उनके साथ तो एक ही नाता हो सकता है,   एक ही बात हो सकती है और वह है अविश्रान्त लड़ाई की बात,   जिसके फलस्वरूप दो में एक को खत्म होना पड़ेगा। समझौते के फलस्वरूप बीच में ही लड़ाई बन्द करके किसानों को पछताना होगा।
    मुझे एक किसान कार्यकर्ता की बात सुन के हँसी आई और क्रोध भी। उसने कहा कि बीस वर्ष पहले एक छोटे जमींदार ने नाहक ही हमारे पिता को दिक करना शुरू किया। उन्होंने लाख कोशिश की आरजू-मिन्नत की कि अपना मुनासिब हक ले लीजिए और हमें तबाह मत कीजिए। आप भी बसें और हम भी रहें ऐसा कीजिए। मगर वह जमींदार कब सुननेवाला था? उसने अपनी हरकत जारी रखी। किसान को बीसों प्रकार की उलझनों में फँसा के उसकी जमीन वह जमींदार किसी प्रकार छीनने पर तुला बैठा था। जमीन भी काफी थी। किसान भी आखिर करता क्या? जान पर खेल गया। नतीजा हुआ कि जमींदार अन्त में थक के बैठ गया और कुछ कर न सका। उसे अब तो यह भी हिम्मत न थी कि उस किसान से लगान भी माँगने जाए। उसका मुँह रहा ही नहीं। फलत: पन्द्रह-सोलह वर्षों से किसान यों ही खाता-पीता है ठीक लाखराज की तरह।
    इस साल वह कार्यकर्ता बोला कि जमींदार के बाल-बच्चों की तकलीफ देख के बाबूजी को दया आई है और चाहते हैं कि लगान दे के रसीद ले लें। ताकि उसकी भी गुजर हो। मगर मेरे जानते इसमें लगान देने या न देने का सवाल असल में नहीं है। असली सवाल तो है किसान की गई गुजरी मनोवृत्ति का,   जिससे जमींदार अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं। यदि वही जमींदार सफल हो जाता और खेत छीन लेता तो किसान के बच्चे भूखों मरते या नहीं? मगर क्या इसका कुछ भी खयाल लाख कहने पर भी किया? क्या पीछे भी करता? क्या कोई जमींदार कभी ऐसा करता है? शायद पहले कोई करता भी हो। मगर अब तो नहीं। अब तो जमींदारों का रुख दूसरा ही है और वह है पूर्ण निर्दयता का। फिर किसान को ही क्या पड़ी है कि उसमें दया का पनाला फूटे? यह तो निरी नादानी है,   निरा धोखा है। किसान इससे बचें।
    हमने,   किसान सभा ने गत दस-बारह वर्षों के भीतर जमींदारों को काफी समझाया है कि वह भी रहें और किसानों को भी बसने दें। सोने के अण्डे देनेवाली मुर्गी का पेट,   एक साथ ही बहुत अण्डों के लोभ से मत फाड़ें। मगर उनने एक न सुना। वे आज भी सुनने को रबादार नहीं। किसान ने क्या-क्या नहीं किया कि वह उस पर जरा सी भी नजरें इनायत रखें और उजाड़ें नहीं। मगर सुनता है कौन? इसलिए हमारा तो पक्का निश्चय है कि उन्हें समझाना-बुझाना बेकार है। अब तो एकमात्र लड़ लेना ही दवा है। मगर यदि किसान चाहे तो और भी समझा-बुझा के देख ले। मगर होशियारी के साथ। नहीं तो उसमें भी धोखा हो सकता है। और जब एक बार लड़ने का निश्चय कर ले तो फिर कभी न रुके। एक बार दो बार कई बार जमींदारों से मुकाबला हो और पीछे न हटे। बराबर डटा रहे। यदि एक-दो बार के बाद वह हार मानें और समझौता करना चाहें,   तो भी फेर में न पड़े और कह दे साफ-साफ,   कि नहीं-नहीं लड़िए। अभी आप का मन भरा नहीं है। जरूर लड़िए। हम तो माननेवाले नहीं। बिना इस मनोवृत्ति के गुजर नहीं। बिना इसके जमींदार लोग भी अन्तिम बार परास्त हो के बैठ न जाएँगे। जब किसान डटा रहेगा तो संन्यासी की कढ़ी की दशा होगी और वह लोग अवश्य ही सदा के लिए हार के बैठ जाएँगे।
    कहते हैं कि एक जंगल में एक संन्यासी बाबा रहते और ध्‍यान समाधि किया करते थे। वहाँ जो कंद,   मूल,   फल,   पत्र मिलते थे। उन्हीं से गुजर करते थे। संन्यासी को और चाहिए ही क्या? पुराना जमाना था। न तो कोई दुनिया का काम करता था और न शोषितों एवं पीड़ितों का उद्धार। बाल बच्चों का तो प्रश्न था ही नहीं कि घी-मलाई खा के मोटे-ताजे बनें और सन्तान वृद्धि करें। वृद्ध भी थे। समय काट रहे थे। एक दिन अचानक उनके मन में आया कि कढ़ी खाते। ताज्जुब में पड़े कि यह क्या वाहियात खयाल हो आया। मुद्दतों से कढ़ी देखी भी नहीं। फिर यहाँ घोर जंगल जहाँ वह मिल भी नहीं सकती। संन्यासी भी ठहरे। हमारी जबान और हमारे मन पर तो काबू चाहिए,   नहीं तो पतन होगा। और दुनिया भी क्या कहेगी कि बूढ़ा हो के कढ़ी खाने चला है सो भी संन्यासी? उन्होंने दिल को बार-बार समझाया कि यह गलत बात है। इसमें पड़ना ठीक नहीं। यह इच्छा ही अनुचित है। इससे अलग हो। अपना काम देखो,   मगर सुने कौन? हैरान हो गए। बड़ी ग्लानि हुई। पर करते क्या? विवश थे। 'मन मतंग माने नहीं'? उनकी आत्मा पर मन ने कस के सवारी की और अपनी मर्जी से ले चला। अंकुश भी उसी के पास।
    खैर अछता-पछता के गाँव की ओर चले। लुघड़ते-पुघड़ते बड़ी दिक्कत के बाद एक गाँव मिला। एक अच्छा घर देख के गए। घरवालों ने वृद्ध महात्मा को देख के आदर किया और पूछा कि 'महाराज,   सेवा?' उत्तर मिला कि 'कढ़ी खाने चले हैं।' 'बहुत अच्छा' कह के घरवाला तैयारी करने चला तो रोक के बोले कि 'भर कड़ाही कढ़ी तैयार करना,   खबरदार।' उसे आश्चर्य हुआ कि ये बूढ़े बाबा उतनी क्या करेंगे। मगर महात्मा की इच्छा ही तो ठहरी। अत: कड़ाही भर के कढ़ी तैयार हुई और उनके सामने आई। अब खाने बैठे। खाते-खाते पेट भर गया? मगर खाना नहीं छोड़ा। अन्त में कै हो गई। पर न हटे और उसी कड़ाही में ही कै किया। उसके बाद फिर उसे ही खाना शुरू। फिर कै हुई। सारांश,   फिर खाना,   फिर कै यह झमेला चलता रहा। बीच-बीच में बोलते जाते थे 'साले खूब ले कढ़ी,   सन्तुष्ट हो जा,   नहीं तो जंगल में जाने पर फिर माँगेगा।' अन्त में घण्टों यह काम करने के बाद ही खाना उनने बन्द किया और जंगल में वापस गए। फलत: मरण पर्यन्त कढ़ी की इच्छा फिर उन्हें न हुई। यही बात जमींदार चाहते हैं। बिना इसके माननेवाले नहीं,   यह ध्रुव सत्य है।
    इस अविश्राम युद्ध के लिए और बातें तो जरूरी हुईं। मगर एक बात जो किसान के लिए निहायत जरूरी और कभी भूलने की नहीं है,   वह यह है कि मर्द और औरतें दोनों पूरी तरह से तैयार हो और दोनों ही जम के लड़ें। कोई भी जरा भी आगे-पीछे न रहें या ढिलाई न करें। दुर्भाग्य से अभी तक हम समझते रहे हैं कि औरतों का काम केवल घर-गिरस्ती सम्भालना और भोजन बनाना ही है,   सिवाय सन्तानोत्पत्ति के। मगर यह गलत खयाल है। वह मर्द की अर्धांगिनी हैं,  शरीर का आधा है। अंग्रेजी में तो स्‍त्री को उत्तमार्द्ध (better half) कहते हैं। यदि वह शरीर का श्रेष्ठ आधा भाग है,   तो ज्यादा नहीं,   तो कम से कम आधी जवाबदेही तो हर जरूरी काम में उसकी होनी ही चाहिए।
    आखिर गरीबी से मर्दों को ही तकलीफ तो होती नहीं। उनसे कहीं ज्यादा तो औरतों को होती है। मर्द की धोती जरा साफ भी हो और फटी न भी हो तो औरतों के कपड़े तो हजार चिथड़ों से जुटे और मैले-कुचैले होते हैं। वह भी दो नहीं,   एक ही साड़ी होती है। फिर फीचें कैसे कि साफ हो? उधर बच्चों की भी फिक्र उसे ही करनी होती है। फलत: जो भी आधा पेट भोजन मिलता है उसी में से बचा  के बच्चों के लिए रखती है। क्योंकि बार-बार भूख लगने से जब वे रोते हैं तो उसी के सिर पड़ते हैं। यदि उन्हें न मनाए तो कोई काम ही न कर सके। इसलिए खाना बचा के रखना ही पड़ता है। लड़कियों की कभी-कभी खबर लेना और उनकी ससुराल में कुछ न कुछ भेजना भी उसी का काम है। फलत: उसके लिए भी पेट काट के ही पहले से ही प्रबन्‍ध करना उसे ही पड़ता है। इसीलिए कहते हैं कि वह मर्दों से कहीं ज्यादा दुखिनी हैं।
    फलत: इस लड़ाई में भी उन्हें ज्यादा भाग लेना उचित है। बिना मातृशक्ति और दुर्गाशक्ति के महिषासुर और रक्तबीज का संहार असम्भव है। हमने देखा है कि उनके पड़े बिना किसानों को कहीं भी विजय नहीं मिली है। सैकड़ों जगह बकास्त की लड़ाइयाँ लड़ी गई हैं। मगर एक जगह भी उनके बिना काम नहीं चला है। कई जगह तो मर्दों के हार जाने,   या अलग हो जाने पर,  कुछ पस्ती दिखाने पर उन्होंने ही आगे बढ़ के काम सम्भाला है और अन्त में विजय ले के ही हटी हैं। उनके इस संघर्ष में पड़ते ही जो समा होती है,   जो वायुमण्डल पैदा हो जाता है वह तो निराला ही होता है। वह तो 'समुझत परै न जाई बखानी'। मर्दों की मनहूसी और पस्ती की हालत में भी जैसा कि लड़ाइयों में प्राय: होता है,   वही उन्हें हिम्मत देती हैं,   यदि समझदार हों। अगर वे नासमझ हुईं तो जीती लड़ाई भी हारी जाती है। तब तो वह पद-पद पर टाँग पकड़ के हर तरह से खींचने लग जाती है। मर्द लड़ाई में गया और उसकी स्‍त्री,   माँ या बहन,   घर में रोना धोना पसारे का नतीजा क्या होगा? उस दशा में कितने लोग हिम्मत करेंगे? जब चारों ओर पाँव फिसलने वाली ही जमीन है तो खुदा ही खैर करे। तब कितनी बार कितने लोग बच सकेंगे। अन्त में तो आगे-पीछे सभी को धड़ाम-धड़ाम लोटना ही पड़ेगा। इसीलिए औरतों को इस लड़ाई के पहले अच्छी तरह तैयार कर लेना ही होगा?
    यह भी बात है कि यदि अकेले मर्द जीतेंगे तो औरतों पर वे और भी शासन करना चाहेंगे और रह-रह के ताना मारते फिरेंगे। वे ऐसा क्यों होने दें? वे स्वयं भी क्यों न इसमें पड़ें और अपने पर कलंक न आने दें? आज तक तो बदनाम थीं कि स्‍त्री हैं। भला आज तो वह कलंक धो डालें। खुली त्रिवेणी बह रही है। फिर ऐसा मौका मिलने का नहीं। याद रहे। खबरदार,   चूकीं,   कि पछताएँगी।
    आज तो गंगा की निर्मल धारा बह रही है। उसमें स्नान करके जन्मजन्मान्तर का अपना कलंक स्‍त्री समाज क्यों न धो ले? यह मौका तो फिर आने का नहीं। आज तो उनकी इस मर्दानगी का सभी स्वागत करते हैं। आज उसकी मर्दानगी की शत मुख प्रशंसा भी हो रही है।
    बहुतेरे कह बैठते हैं कि जब जमींदार भी जान पर खेल के लड़ेंगे,   तो मामला बेढब हो जाएगा और यदि कहीं संयोगवश किसान हारे तब तो कहीं के न रहेंगे। लड़ाई में हार भी होती ही है। सदा जीत ही नहीं होती। तब यदि हार जाएँ तो नतीजा बुरा न होगा और किसानों की तकलीफें बढ़ नहीं जाएँगी? जहाँ कहीं किसान बकाश्त की लड़ाई में दबे हैं वहाँ उनके कष्ट जरूर बढ़ गए हैं,   ऐसा कहा जाता है। ठीक है लड़ाई में हार-जीत दोनों ही का मौका रहता है। मगर किसान की लड़ाई में यही तो खूबी है कि जब वह जीतता है तब तो जीतता ही है। मगर जब हारता है तब भी जीतता है। अत: आइए जरा उस लड़ाई और हार-जीत का विश्लेषण करें। तभी असलियत का पता लगेगा और मालूम हो जाएगा कि किसान के दोनों हाथ में लड्डू हैं या नहीं।
    जमींदारों की हालत यह रही है कि उन्होंने आतंक राज्य फैला रखा था,   जो अभी कहीं-कहीं है। जैसा कि बताया गया है,   उसके बिना उनका काम चल ही नहीं सकता। उनकी जमींदारी ही बिना इसके टिक नहीं सकती। इसीलिए कानून-वानून को ताक पर रख के वह लोग खुलकर खेलते रहे हैं। इसमें सरकार का भी फायदा है। इतने बड़े मुल्क के चालीस करोड़ लोगों पर मुट्ठी-भर अंग्रेजों का शासन असम्भव हो जाए,   यदि जनता में हिम्मत और मर्दानगी रहे,   यदि वह सिर उठा के चलनेवाली हो जाए। इसीलिए जमींदारों के द्वारा उसे दबा रखना और पस्त बना देना जरूरी था। यही कारण है कि सरकार की लाड़ली और सर्वशक्तिमती पुलिस की ऑंखों के सामने ही और अधिकांश में उसके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अनुमोदन से ही यह होली जमींदार बराबर खेलते रहे हैं। जहाँ मामूली सी राजनीतिक बातों का पता लगाने में पुलिस हैरान रहती है,   तहाँ उसे ही इस धाँधली का पता न हो,   यह कौन मानेगा? इसलिए यह आतंक राज्य सरकार और जमींदारी प्रथा का,  दोनों का ही मूलाधार है। जमींदार किसानों से लड़कर कथमपि पार नहीं पा सकते। इससे तो उलटे उनकी जमींदारी ही बिक जाएगी।
    अब जब किसान बकाश्त के संघर्ष में या किसी इसी प्रकार की लड़ाई में पड़े तो इसका सीधा अर्थ है कि वह आतंक राज्य खत्म हो गया,  जमींदारों का वह रोबदाब जाता रहा। जिसके करते उनके इशारे पर ही किसान नाचते तथा हाथ जोड़  के सभी बेगार वगैरह करते थे। अमले की जरा सी आज्ञा हुई और सभी चीजें हाजिर हैं,   काम पूरा है। जब तक यह रोब मिट्टी में न मिल जाए,   किसान लड़ाई के लिए तैयार क्या खाक होगा? जो पाँव तले था वही जब भिड़ता है तो रोब कहाँ रहा? फलत: इस लड़ाई की तैयारी में ही सबसे असली चीज,   जो जमींदार के लिए जरूरी थी,   गायब हो गई। यह तो मानी हुई बात है कि जब तक एक बार किसान भिड़ नहीं जाता तभी तक यह गैरकानूनी और शैतानियतवाली बातें चलती रहती हैं। भिड़ने पर तो खामख्वाह वह लापता हो ही जाती हैं फिर तो जमींदार की हिम्मत ही नहीं होती कि पुनरपि नाम लें,   चाहे वह हारे या जीते।
    इस प्रकार हम देखते हैं कि इस संघर्ष के फलस्वरूप जमींदारी की नींव ही गायब हो जाती है,   जो पुन: बन नहीं सकती। अब तो हालत यह हो जाती है कि जमींदार एकमात्र दमन से और रुपया खर्च करके ही अपना वही काम निकालने को मजबूर होता है जो रोब से इशारे पर ही होता था। इस प्रकार चाहे किसान को जमीन मिले या न मिले और उसके दूसरे हकों की प्राप्ति हो या न हो। लेकिन यह चीज,  यह बला,  तो खत्म हुई। इसीलिए कहते हैं कि वह हार के भी जीतता है।
    दमन की भी जो बात कही जाती है,   हम देखते हैं कि वह जमींदार और सत्ताधारियों के बल और उनकी शक्ति की निशानी नहीं हो के उनकी कमजोरी की ही पहचान है। कहते भी हैं कि दमन दुर्बलता का सूचक है,   न कि शक्ति का। इच्छापूर्वक साथ देने और आज्ञा मानने से ही जनसमूह पर किसी का भी अधिकार,   या शासन चल सकता है। व्यक्तियों को चाहे आप जैसे भी रख सकते हैं और उनसे अपना काम निकाल सकते हैं। उन्हें कुछ दे दिला देना या दबा देना आसान है। मगर जनसमूह को कुछ देना दिलाना या दबाना नामुमकिन है। किसे-किसे दीजिएगा? किसे-किसे दबाइएगा? एक-दो या दस-बीस हों तब न। यहाँ तो असंख्य हैं। इसलिए जब एक बार उन्होंने सर उठा लिया,   तो फिर जल्द या देर से वह आपके कब्जे से बाहर तो जरूर ही चले जाएँगे। रुपए खर्च के कब तक उनसे काम लीजिएगा,   या उन्हें दबाइएगा? रुपए भी तो उन्हीं से मिलते थे और अब वही बागी हैं। फिर रुपए आएँगे कहाँ से। दूध देनेवाली गाय तो सनासन लात चलाने लगी। फिर दूध मिलेगा कहाँ से? इसलिए दमन के जरिए या रुपए के बल से भले ही कुछ समय किसानों को दबा लें। मगर यह दबाव ज्यादा दिन चलने वलने का नहीं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि जो जमींदार दमन पर उतारू हो गए हैं उन्हें यदि कभी सफलता मिली भी है तो वह बड़ी ही मँहगी साबित हुई है। या तो जमा किया हुआ ही रुपया खत्म हो गया है,   या तमस्सुक लिख के और जमींदारी बेच के यह दमन चलाना पड़ा है। जमींदारी की रक्षा के लिए उसी की बिक्री। यह तो अच्छी रक्षा हुई। उधार किसानों को लड़ने की आदत हो गई है और वह ढीठ हो गए हैं। इस तरह यह एक दूसरी ही आफत जमींदार के लिए खड़ी हो गई है।
    लड़ाई के तीन ही नतीजे हो सकते हैं फिर चाहे वे तत्काल में हों या आगे चलकर ही सही। या तो किसान लाठी,   गोली खा के जख्मी हों और मर जाएँ,   या जेल जाएँ। और अगर इन दोनों के करते पीछे पाँव न दें तो विजयी हों,   इस प्रकार जमीन के मालिक बन के मौज करें। चौथी बात तो हो सकती नहीं। विजयी होने में तो ठीक ही है। तब तो कुछ कहना ही नहीं। रह गईं दो बातें। यदि जेल गए तो कही चुके हैं कि घर की अपेक्षा वहाँ सभी तरह से आराम है। शान है सो अलग ही,   सत्याग्रही या हक के लिए लड़नेवाले किसान का सिर कितना ऊँचा होता है। इसलिए उसके बारे में भी कुछ कहना बेकार है। किसान को तो खुद-बखुद उस जेल का स्वागत करना होगा,   यदि वह अपने संकटों का अन्त चाहता है।
    यदि चोट लगी और वह या तो जख्मी हुआ या मारा गया,   तो भी क्या बुरा है? आखिर मरना तो एक न एक दिन हई। लेकिन यदि 'समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छन भंगु सरीरा' का सौभाग्य हो तो सोने में सुगन्ध हुई। यों तो कीड़े-मकोड़े की तरह कहीं मरी जाते। कोई पूछने वाला भी नहीं होता। मगर अपनी लड़ाई में मरने पर बड़े-बड़े नेता याद करेंगे,   फोटो बनाएँगे,   समाधि बनाएँगे और उन पर मालाएँ चढ़ाएँगे,   उनके सामने सिर झुकाएँगे। अब और क्या चाहिए? याद में गीत बनी,   व्याख्यान हुए,   लेख लिखे गए और पुस्तकें तैयार हो गईं। कल जो कल्लू चमार,   बुद्ध मियां,   चमरू सिंह,   या देवी पाण्डे कहे जाते थे आज वही देवता से भी बढ़ गए। आखिर मनुष्य तो सम्मान ही चाहते हैं न? इज्जत ही चाहते हैं न? और इससे ज्यादा इज्जत क्या होगी? यदि जख्मी हुए तो सभी लोग दवा-दारू और आराम की फिक्र करेंगे,  नेता लोग ही चिन्ता करेंगे। राह चलते ठोकरें लगती हैं,   झगड़े होते हैं। मगर कौन पूछता है? यहाँ तो सभी पूछते हैं। फिर अधिक क्या चाहिए?
    एक बात और। इस मौत के डर ने ही किसानों को पस्त और जमींदारों को हिम्मतवर बना दिया है। इसीलिए बराबर धमकियाँ चलती हैं। यदि कुछ ही किसान मरने के लिए तैयार हो जाएँ,   तो सतानेवाले ठंडे ही पड़ जाएँ और दु:ख ही दूर हो जाएँ। आखिर देश में 30 करोड़ से ज्यादा ही किसान हैं। यदि हजार या लाख लोग मर ही जाएँ,   तो कम थोड़े ही हो जाएँगे? इसी से कहते हैं कि 'यदि जीना है तो मरना सीखो।'
 

6
भाग्य और भगवान पर न भूलें
 

 किसानों के लिए और जनसाधारण के लिए भी अपने हकों के वास्ते सीधी लड़ाई लड़ने में सबसे बड़ी बाधा है भाग्य की और भगवान की। वंशपरम्परा से उन्हें यह सिखाया गया है,   यह बात उनकी रगों में प्रविष्ट है कि कर्म,   तकदीर,   भाग्य और पूर्वजन्म की कमाई जैसी होगी उसी के अनुसार सुख-दु:ख मिलेगा,   चाहे हजार कोशिश की जाए। वह मानते हैं कि यदि भगवान की मर्जी तथा कृपा होगी,   तभी हमारे संकट टलेंगे। हमारे प्रयत्नों से कुछ होने जाने का नहीं। यह भाग्य और भगवान की फिलासफी और कबीर कथनी ने उन्हें इस कदर अकर्मण्य बना दिया है कि सारी दलीलें और सब समझाना-बुझाना बेकार है। इस तरह शासकों और शोषकों ने,  धनियों और अधिकारियों ने एक ऐसा जादू उन पर चलाया है कि कुछ पूछिए मत। वे लोग मौज करते,   हलवा पूड़ी उड़ाते हैं। मोटरों पर चलते और महल सजाते हैं। हालाँकि खुद कमाते-धामाते कुछ भी नहीं। खूबी तो यह है कि यह सब भगवान की ही मर्जी है। वह ऐसा भगवान है जो हाथ पर हाथ धारे कोढ़ियों की तरह बैठनेवाले मुफ्तखोरों को माल चखाता है। मगर दिन-रात कमाते-कमाते पस्त किसानों तथा मजदूरों को भूखों मारता है।
    पता नहीं,   वह सबों का भगवान है,   या कि केवल अमीरों का ही। यदि सबों का होता,   तो यह अन्याय और पक्षपात क्यों करता। यह अन्धेर क्यों पसन्द करता? या कि,   वह भी किसानों की ही तरह डरपोक है? जमींदारों और सत्ताधारियों की लाठियों एवं गोलियों से डरता है? अगर डरता नहीं,   तो क्या उनने उसे घूस खिलाया है,   जिससे उनका पक्षपाती बन गया? कहते हैं,   वह पक्षपात रहित और न्यायशील है। तो क्या यही पक्षपात शून्यता तथा न्यायशीलता है कि कमानेवाले घुल-घुल कर मरें और निठल्ले खा-खा के अकड़ें? और अगर यह बात है नहीं,   तो फिर बेचारे भगवान और भाग्य के मत्थे यह बला क्यों मढ़ी जाती है,   जब कि हम अपनी ही अकर्मण्यता और नादानी से कष्ट भोगते हैं? उसे इन सब वाहियात बातों से क्या काम? उसे नाहक क्यों इस कीचड़ में घसीटा जाता है?
    एक बात और भी। अगर भाग्य या भगवान ही सब बुरे-भले के लिए जवाब देह हैं और उनके खिलाफ तो कुछ हो ही नहीं सकता,   तो फिर मनुष्य पापी और धर्मात्मा क्यों माना जाता है? तब ऐसा क्यों कहते हैं कि अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है,  'जो जस करै सो तस फल चाखा।' आदमी का तो कोई वश नहीं है। वह तो भाग्य के या भगवान के अधीन है। इसलिए आदमी को दोषी या पुण्यात्मा न मान के भगवान के ही माथे सबकुछ मढ़ा जाना चाहिए। दण्ड आदि भी उसे ही मिलना चाहिए। या नहीं तो प्रारब्ध को,  तकदीर को। यह तो अच्छी बात हुई। जब कोई चोरी,   डकैती या हत्या करे तो पुलिस उसे क्यों पकड़ेगी? उसका तो कोई दोष नहीं है? वह तो मशीन की तरह भगवान और भाग्य के हाथ में है और वह जो चाहते हैं वही करता है। जब मशीन को कोई अपराधी नहीं बनाता है। किन्तु उसके चलानेवाले को ही। तलवार या लाठी से किसी को मारिए तो धर पकड़ और सजा आपकी होगी न कि लाठी या तलवार की। इंजिन से कोई आदमी कट जाए या मोटर के नीचे दब जाए,   तो ड्राइवर को सजा होती है,   न कि इंजिन और मोटर को। उसी तरह यहाँ भी होना चाहिए।
    मगर क्या यह दलील और भगवानवाद तथा भाग्यवाद पुलिस सुनती है? तो क्या वह भगवान या भाग्य से जबर्दस्त है? यदि नहीं,   तो इस भगवान और भाग्य की मर्जी का मतलब क्या है? इस प्रकार समझदार और चैतन्यता युक्त,  विवेकी,  मनुष्य को बेजान मशीन बना डालने का मतलब क्या है? इसमें अक्ल की गुंजाइश भी कहाँ है? आखिर मशीन और आदमी में कुछ फर्क तो होना ही चाहिए। लेकिन यह तो तभी हो सकता है कि जब इनसान बुरे-भले कामों के करने और उनके फलों को भोगने में स्वतन्त्रा हो,   आजाद हो। उसके ऊपर कोई न हो जो रोक-टोक करे।
    जरा और भी देखिए। भाग्य में होगा वही होगा,   भगवान करेगा वही होगा,   यदि यही बात सही हो तो अपने घर या खलिहान में आग लगने पर बुझाने की कोशिश क्यों करते हैं? भगवान या प्रारब्ध का जरा भी खयाल न करके फौरन पानी लाने की कोशिश क्यों करते हैं? जरा सा रुक भी तो जाते और सोचते भी तो कि आखिर भगवान की क्या मर्जी है। मगर ऐसा तो करते नहीं। प्रत्युत जो ऐसा करे वह गाली सुनता है। चारों ओर से उसे लोग छि:-छि: करते हैं। कहने लगते हैं कि कैसा नालायक है कि आग लगी है और भगवान को सोच रहा है। इतनी ही नहीं। जो लोग उस समय भगवान के ध्‍यान और पूजा पाठ में मग्न हो,   फलत: उसे छोड़-छाड़ के आग बुझाने के लिए दौड़ न पड़ें,   उन्हें भी फटकार सुननी ही पड़ती है। लोग यहाँ तक कह डालते हैं कि क्या तुम्हारे भगवान को ही खाएँ-पिएँगे और ओढ़ें-पहनेंगे कि उन्हीं में लपटे हो और आग बुझाते नहीं? क्या,   भगवान ही खिला-पिला देंगे? बड़े पुजारी बने हो,   तो क्या तुम्हारी पूजा ले के हम चाटेंगे यदि सब जल ही गया?
    और अगर किसी का लड़का या भाई बीमार हो और बीमारी भी ऐसी सख्त हो कि तड़ाक-फड़ाक में खत्म कर दे तो वह क्या करेगा? उसे क्या करना चाहिए? कर्म और भगवान के भरोसे बैठ रहे क्या? डॉक्टर,   वैद्य,   हकीम और ओझा सोखा तक के यहाँ क्या उसका दौड़ना रुक जाएगा,   सिर्फ इसीलिए कि भगवान जो करेंगे सो ही होगा,   यदि उनकी कृपा होगी तो अच्छा होई जाएगा? यदि ऐसा करेगा और करम को ठोंक के बैठ जाएगा तो क्या घर में ही स्त्रियों तथा और लोगों से लड़ाई नहीं होगी ? क्या उस पर यह इल्जाम नहीं लगेगा कि यह लड़के भाई को मार डालना चाहता है? पास पड़ोस के लोग भी क्या कहेंगे? वे उसे नालायक और पागल की पदवी न देंगे क्या? वे उसे पिशाच और राक्षस न कहेंगे क्या? इतना ही नहीं। मान लीजिए कि उसने हठ करके दवा वगैरह कुछ न की और भगवान के भरोसे ही बैठा रहा। यह भी कल्पना कीजिए कि लड़का मर गया। तब क्या होगा? क्या उसका दिल खुद मसोसेगा नहीं कि,   हाय रे,   बड़ी भूल की,   यदि दवा करते तो शायद अच्छा हो जाता? क्या वह जिन्दगी भर रो-रो के मरेगा नहीं,   इस एक भूल के ही करते? तो फिर भगवान और भाग्य के पंवारे से क्या मतलब?
    किसान खेती करता है,   पशु पालता है,   घर-द्वार बनाता है,   चोर चाइयों से उसकी हिफाजत करता है,   जमींदार वगैरह का पावना समय पर चुकाता है,   कोई आफत आई तो उससे बचने का उपाय करता है,   कोई केस हुआ तो तारीख पर हाजिर होकर कचहरी में उसकी पैरवी करता है,   विवाह-शादी की कोशिश और तैयारी करता है,   मौका पाकर दुश्मनों से बदला भी लेता है,   तीर्थ-व्रत और पूजापाठ भी करता है। इस प्रकार सारा कारबार परिश्रमपूर्वक सँभालता है। अब वही किसान भगवान और भाग्य के भरोसे क्या करे? क्या हाथ पर हाथ धरके बैठा रहे? तब क्या खेती होगी और फसल पैदा होगी? क्या चोर चाइयों से वह बचेगी? क्या लगान आदि बाकी पड़ने पर नालिश,   डिग्री और नीलामी रुक जाएगी? तारीख पर न जाने और पैरवी न करने पर क्या विरोधी की एकतरफा डिग्री न हो जाएगी? आफतें क्या खुद-बखुद भाग जाएँगी? क्या भगवान हल जोतेगा? और काम सँभालेगा? क्या वही पैरवी करेगा? नहीं तो पागलों की तरह भाग्यवादी बनने के आखिर क्या मानी हैं?
    यदि कुछ नादान इतने पर भी कह बैठें,   जैसा कि प्राय: सुनने का मौका लगा है,   कि अगर भगवान पर विश्वास हो तो जरूर सबकुछ हो ही जाएगा,   तो उससे साफ पूछना है कि यह 'अगर' और 'मगर' क्या है? विश्वास करते क्यों नहीं,   जब उसी की कथनी कथते हो? और अगर विश्वास ही नहीं है यही बात मानते हो और यह भी समझते हो कि आमतौर से सब कोई ऐसा नहीं कर सकते,   ऐसे पक्के विश्वासी तो लाखों में शायद ही कोई होते हैं। तब तो बात ही खत्म हो गई। जब जनसाधारण ऐसा विश्वास नहीं ही करते,   तो उनका काम तो भगवान या भाग्य से नहीं ही निकलता है और उन्हें सभी उपाय करने ही पड़ते हैं। ऐसी दशा में जमींदारों और शोषकों के अत्याचारों से पिण्ड छुड़ाने के लिए भी वे लोग क्यों न लड़ें और वहाँ भाग्य का पचड़ा तथा भगवान का चरखा क्यों चलाएँ? यदि यह नादानी नहीं तो और क्या है? इस 'आधा तीतर,   आधी बटेर' से काम नहीं चलेगा। अपने दिमाग को ठीक करना होगा। ठीक-ठीक समझना-बूझना होगा। इसीलिए तो तुलसीदास ने स्पष्ट ही कह दिया है कि 'कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।'
    जो लोग विश्वास की बात करते हैं वह भी गलती करते हैं। वह तो साफ झलका देते हैं कि वे व्यावहारिक आदमी नहीं हैं। वह इस दुनिया की बातें नहीं करते। शायद और ही किसी दुनिया की करते हैं। क्योंकि यदि पानी पर विश्वास करें कि वह आग हो जाएगा तो यह भारी भूल होगी। विश्वास से ही वह आग का काम नहीं देगा यह याद रहे। आग का तो अलग प्रबन्‍ध करना ही होगा। भूखे हों और लाख विश्वास करें कि खाया है,   तो भी पेट नहीं भर जाएगा। चोरी हो रही हो और विश्वास करें कि कुछ नहीं हो रहा है,   तो चोरी छोड़ के चोर कहीं भाग नहीं जाएँगे। जिस चीज का जो स्वभाव है,   जो काम है,   खामख्वाही वह काम वह चीज करेगी ही,   चाहे आप विश्वास करें या न करें। आप अगर आग पर कपड़ा रख के विश्वास करें या न करें तो भी वह कपड़े को जलाई देगी। भगवान और भाग्य भी यदि सबकुछ करनेवाले हों तो फिर विश्वास का सवाल ही कहाँ रह जाता है। वह तो हर हालत में सबकुछ करी देंगे। चाहे आप विश्वास कीजिए या मत कीजिए।
    विश्वास कोई कीमिया नहीं है कि चीज को,   उसके स्वभाव को बदल देगा,   जैसे लोहे को सोना बना देते हैं कीमिया के ही बल से। और अगर उसे आप कीमिया मानते हैं,   तो यह समझ में आने की और सांसारिक आदमियों के काम की चीज नहीं है,   यह तो मान ही लीजिएगा। वह तो किसी निराली दुनिया की लासानी चीज होगी,   जहाँ निराले लोग ही ऐसा ही करते होंगे। हमें तो इस संसार में रोज-रोज का काम चलाना है और यह काम उस विश्वास से चलने का नहीं यह पक्की बात है। आखिर जिन बड़े-बड़े भक्तों,   ऋषि-मुनियों,   औलिया लोगों और पहुँचे हुए पुरुषों की बातें सुनते आते हैं वह भी तो अपना काम खुद करते थे,   नहाते-धोते थे,   खाते-पीते थे। उनके सभी काम भगवान तो करते न थे। भगवान उनकी ओर से भोजन करें और पाखाना-पेशाब भी उनके बदले में भगवान ही करें यह तो कभी सुनने में नहीं आया है।
    यह भी तो सोचिए कि संसार के सभी काम यदि भगवान ही करेंगे तो बाकी लोग क्या करें? फिर बाकियों के पैदा होने की जरूरत ही क्या थी? कहते हैं कि भगवान ने ही सबको बनाया है। मगर जब आदमी किसी चीज को बनाता,   या किसी को पैदा करता है तो किसी मतलब से,   किसी फायदे के लिए। जब उन चीजों से वह काम नहीं सधाता तो पछताता है कि नाहक ही इसे बनाया। जब लड़का नालायक हो जाता और अपने काम का नहीं रहता,   तो उसे गाली देते हैं कि क्यों पैदा हुआ,  'गर्भ न गए वृथा तुम जाए।' और भगवान को तो सर्वज्ञ बताते हैं। कहते हैं कि वह तो बुद्धि का भण्डार है। फिर उसने हम सबों को बेकार ही क्यों पैदा किया? जब हम उसके किसी काम के ही नहीं हैं तो हमारी जरूरत ही क्या वह सनकी है कि यों ही पैदा करता रहता है?
    और अगर सब काम वही करेगा तो मर नहीं जाएगा? उसे तो साँस लेने की भी फुर्सत नहीं रहेगी। तो क्या यह सम्भव है? यह बात तो समझ में आ सकती थी कि स्वर्ग,   बैकुण्ठ,   नर्क आदि नाम की कोई जगहें हैं जहाँ लोग जाते हैं और भगवान उनका प्रबन्‍ध करता है,   उनकी देख-रेख करता है। पापियों को नर्क में भेजता है और धर्मात्माओं को,   भक्तों को स्वर्ग या बैकुण्ठ भेजता है,   मुक्ति देता है। यदि उसका इतना ही काम हो,   तो भी बहुत बड़ा है। उसे तो इसी से फुर्सत मिलना कठिन है। क्योंकि संसार में लोग बहुत हैं और रोज ही यह झमेला जारी रहता होगा। यदि भगवान के जिम्मे यह काम रहे तो हमें कोई एतराज भी नहीं। स्वर्ग या नर्क वाले अपने भगवान से निपट लेंगे। इसमें हमें नाहक क्या पड़ी है?
    मगर रोटी और भात के मामले में उसे जब जबर्दस्ती घुसेड़ा जाता है तभी हमें घबराहट होती है। अदृश्य भगवान अदृश्य स्वर्गादि का प्रबन्‍ध करें। मगर रोटी,   भात वगैरह तो इस दृश्य और भौतिक दुनिया की स्थूल चीजें हैं। इनके मिलने और न मिलने के रास्ते भी ऐसे ही हैं,   जो सभी को मालूम हैं। फिर इनके सम्‍बन्‍ध में भगवान को दखल देने की क्या जरूरत है? अगर हम एक दिन भी देख लें कि भगवान अपने हाथों आटा पीस के,   चावल कूट के भोजन बनाते और सभी किसानों को खिलाते हैं; यह गेहूँ और धन भी उनकी ही लक्ष्मी जी के खजाने से (भण्डार से) आता है; यदि हमें यह भी अनुभव हो जाए कि हमारे बैल-गायों की खबर एक दिन भी वह लेते हैं और उन्हें खिलाते-पिलाते हैं,   हमारा हल भी कभी-कभी वही जोतते हैं,   तभी यह विश्वास किया जा सकता है कि भगवान सबकुछ करते हैं,   कर सकते हैं। जब तक अपनी ऑंखों किसान सभी बातें भगवान के द्वारा या भाग्य के बल से होती न देख लें तब तक उन बातों में पड़ना महज नादानी और बेवकूफी है। पहले दर्जे का धोखा है।
    साधू,   फकीर,   पण्डित,   मौलवी वगैरह आते हैं,   सीधे-सादे किसानों के कान फूँकते हैं और उन्हें चेला बनाते हैं किसानों को विश्वास रहता है कि ये लोग बड़े ही सधो और उनके शुभेच्छु हैं। जब वह देखते हैं कि वे लोग ऑंखें मूँदकर भगवान का ध्‍यान करते हैं,   तो खामख्वाह किसान समझने लगते हैं कि ये लोग तो साक्षात् भगवान से ही प्रतिदिन मिला करते और बातें करते हैं। इसीलिए उन्हें यकीन हो जाता है कि जो बातें वे लोग करते हैं वह भगवान के ही हुक्म से और उसकी ही राय से करते हैं। यही कारण है कि किसानों को पद-पद पर धोखा होता है और धाक्के लगते हैं। वह सच्चे दिल से उन लोगों को खूब खिलाते-पिलाते हैं,   उनकी भरपूर सेवा करतेहैं। यदि पास में घी,   दूध,   गेहूँ,   चीनी न भी हो तो कहीं से या तो माँग लाते,   उधार लाते या कर्ज ही लाते हैं और जैसे-तैसे उन्हें सन्तुष्ट करने में अपना अहोभाग्य समझते हैं।
    जब खा-पी के वे सन्तुष्ट होते और आराम करने लगते हैं तो बड़ी ही नम्रता और श्रद्धा से हाथ जोड़ के किसान उनसे पूछते हैं कि महाराज,   हम अत्यन्त गरीब हैं,   कमाते-कमाते मर गए। मगर न तो सुन्दर वस्‍त्र ही मिला कि पहनें और न सुन्दर भोजन ही मिला कि खाएँ। क्या बात है? क्यों ऐसा होता है? कृपया बताइए कि हमारे ये कष्ट दूर होंगे या नहीं और अगर होंगे भी तो कब और कैसे? वह तो इस प्रकार विश्वासपूर्वक अपने कष्टों के अन्त होने का रास्ता जानना चाहते हैं। वह उन लोगों को कुशल वैद्य समझ के अपने विकट मर्ज की दवा पूछते हैं। वह निठल्ले जमींदारों के भोग-विलास पर आश्चर्य भी करते हैं कि ऐसा क्यों होता है? हम तो कमाते-कमाते मर गए,   पस्त हो गए। फिर भी नंगे-भूखे ही हैं। मगर ये बैठे-ठाले जमींदार और मालदार तो बराबर माल ही काटते हैं। यह कैसा अन्धेर है।
    अब जरा उत्तर सुनिए और देखिए कि ये चतुर वैद्य और डॉक्टर उन्हें क्या रास्ता सुझाते और कौन सी दवा बताते हैं। वह कहते हैं,   बच्चा सन्तोष करो,   घबराओ मत,   परमात्मा अच्छा करेंगे। क्या करोगे,   परमात्मा की मर्जी ही जो ऐसी ठहरी। न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर वह रंज है। तुम्हारे पूर्वजन्म की कमाई ही ऐसी है। तुम्हारा भाग्य ही ऐसा है। तुम्हारी तकदीर ही फूटी है। कर्म विपाक में हमने देखा है। तुम्हारे बारे में कष्ट ही कष्ट लिखा है। तुम्हारे ललाट की रेखा ही कुछ ऐसी है। कुछ भी करो। मगर उसे कौन बदलेगा? 'रेख में मेख' कौन मार सकता है? तकदीर को कौन काट सकता है? भगवान की मर्जी को कौन मिटाने वाला है? इसलिए सन्तोष करना चाहिए। क्योंकि 'सन्तोष: परमं सुखम्'। अच्छा कर्म और दानपुण्य करो कि आगे चल के तो आराम मिले,   अगले जन्म में तो सुखी बनो,   पूर्वजन्म में न जाने क्या कर डाला था कि इस जन्म में दुखिया बने हो। अब भी तो सँभलो और आगे के लिए तो सजग हो जाओ ताकि सुखी बन सको। एक बार चूके तो चूके। खबरदार,   इस बार मत चूको। अगले जन्म की खबर लो। उसी की तैयारी करो।
    अमीरों के बारे में तो वह लोग कहते हैं कि उन पर तो भगवान खुश हैं। उसकी मर्जी से ही वे लोग मजा करते हैं। उनकी पूर्वजन्म की कमाई ही ऐसी है जिससे सुख भोग रहे हैं। आज भी दान पुण्य और पूजा पाठ खूब ही करते हैं। इसलिए आगे के लिए भी उनका ठीक ही है। न तो पहले चूके और न इस बार चूकते हैं। उनके भाग्य का भी क्या कहना? वह तो चन्दन से लिखा है। तुम लोगों की तरह कोयले से थोड़े ही लिखा है। उनके कपाल में जो कुछ लिखा है उससे वे सुखी ही रहेंगे,   चाहे कोई हजार कोशिश करे और उन्हें गिराना चाहे,   दु:खी बनाना चाहे। उनका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। जो लोग जमींदारों और राजे-महाराजों के विपरीत तथा साहू महाजनों के खिलाफ बोलते और आन्दोलन करते हैं उनके बहकाने में कभी नहीं पड़ना चाहिए। वे तो नास्तिक और शास्त्र-पुराण के न मानने वाले हैं। भला भगवान और भाग्य की बात को कोई मिटा सकता है? जो उनकी बात में पड़े वह चौपट हुए। खबरदार।
    ऊपर लिखा संक्षिप्त वर्णन उनकी बातों का दिग्दर्शन कराता है। इससे कोई भी समझदार,   जिस पर कोई जादू न हो और जिसकी बुद्धि ठिकाने हो,   इस बात को आसानी से समझ सकता है कि ऐसे साधु,   फकीर,   पण्डित,   गुरु लोग तो सिर्फ जमींदारों और धनियों के पक्के वकील और दलाल ही हैं। देखिए तो,   गरीब ने बड़े परिश्रम से उन्हें माल चखाया,   न जाने कौन-कौन कोशिश करके। और कायदा यह है कि कुत्ता भी जिसका टुकड़ा खाता है उसकी ओर से भूँकता है। मगर ये ऐसे काइयाँ,   कृतघ्न और ठग हैं,   पक्के दलाल हैं और छँटे बेहया-बेदर्द हैं कि गरीब किसान का ही खा के और उसी की सेवा-शुश्रूषा से मजा उड़ा के भी जमींदारों और धनियों की ही वकालत करते हैं। उन्हीं का रास्ता साफ करते हैं। किसानों को ऐसी शिक्षा देते हैं कि जन्म-जन्मान्तर में भी उन्हीं के गुलाम बने रहें और उनके विरुद्ध चूँ भी न करें। वह कष्टों एवं अत्याचारों के खिलाफ कोई आवाज तक उठा न सकें,   आवाज उठाने वालों की बात भी सुन न सकें इसकी पूरी बन्दिश और पूरा षडयन्त्र करते हैं। तो भला जब वे लोग साहूकारों और जमींदारों का अन्न खाते होंगे,   या उनके घर जाते होंगे,   तब कैसा जहर किसानों के खिलाफ उगलते होंगे? तब कैसे-कैसे अनोखे उपाय गरीबों के विरुद्ध उन्हें सुझाते होंगे?
    वकील भी जिसका पैसा खाता है उसी की वकालत करता है। यह दूसरी बात है कि पूरे दिल से करे या आधे मन से। मगर विरोधी के पक्ष में तो एक अक्षर भी नहीं बोल सकता। नहीं तो उसकी वकालत ही चली जाए। मगर ये धर्म और भगवान के ठेकेदार ऐसे निर्लज्ज हैं,   अपने को इन्होंने इतना ज्यादा मजबूत कर लिया है कि किसानों के ही रक्त को पीते हैं,   उन्हीं के घर बैठते हैं। मगर उनके शत्रुओं की ही तारीफ करते हैं,   उनकी ही वकालत करते हैं फिर भी निर्भय विचरते हैं। ये तो समझते हैं कि उन्हें कोई इस जगत से हटा ही नहीं सकता।
    खूबी तो यह है कि मौलवी,   पण्डित और पादरी बात-बात में रोज लड़ते हैं और धर्म के नाम पर आपस में ही खून की नदी बहाते हैं। मगर इस तकदीर,   भगवान और कर्म के मामले में सभी एक राय; जरा भी फर्क नहीं। जरा भी मतभेद नहीं। अपने भक्तों और चेलों को जो बातें पण्डित और साधु बताते हैं। ठीक वही बातें मौलवी,   फकीर तथा पादरी भी कहते हैं। हूबहू मेल खा जाता है।
    इसका सीधा मतलब यह है कि धर्म के मामले में उन लोगों के आचार्य,   और पैगम्बर और मसीहा भले ही जुदे-जुदे हों,   मगर तकदीर और भगवान की मर्जी वाले मामले में सबों के गुरु,   उनके आचार्य,   उनके पैगम्बर और उनके मसीहा कोई एक ही प्रकार के हैं और दूसरे ही हैं,   जिनने सभी को एक ही पाठ पढ़ाया है।
    वह कौन हैं यह तो अब साफ ही है। जिनकी वकालत हर हालत में लोग करते रहते हैं,   यहाँ तक 'जागत सोवत शरण तुम्हारी' के अनुसार सोने के समय भी वही बातें बकते हैं और वही स्वप्न देखते हैं,   उन जमींदारों और अमीरों,   उन सत्ताधारियों और प्रभुओं,   उन शासकों और शोषकों,  उन स्थिर स्वार्थवालों,  के सिवाय उनके गुरु इस मामले में और कोई हो ही नहीं सकते। इसलिए यह ठीक ही कहा जाता है कि ये पण्डित और पुजारी,   ये मौलवी और फकीर,  ये धर्म के ठेकेदार,  असल में अमीरों के दलाल हैं और रूप बदलकर कमाने वालों को किसानों और मजदूरों को ठगते रहते हैं। ''नाना रूप धारा:कौला विचरन्ति मही तले''। जैसे नादान बच्चों को गुड़ के साथ कड़वी दवा का घूँट पिलाया जाता है,   कि वैसे ही धर्म के साथी यह जहर ये लोग किसानों और मजदूरों के गले के नीचे उतारते रहते हैं। अत: इनका जबर्दस्त बहिष्कार जरूरी है।
    यह तो मोटी बात है कि वकील वही किया जाता है जो अपनी ओर से बहस करे और खूब लड़े। जिसके बारे में जरा भी शक हो कि कमजोर है,   ठीक बहस नहीं करता या विरोधी से मिला हुआ है उसके तो पास भी कोई नहीं जाता। अगर वैद्य और डॉक्टर बड़े ही नामी गरामी हों,   तो भी जब तक मर्ज को मिटाते नहीं और आराम नहीं करते,   उनके पास कोई होशियार आदमी नहीं जाता। वे बदनाम हो जाते हैं। लोग कहने लगते हैं कि पढ़े-लिखे तो अच्छे हैं। अनुभवी भी खूब हैं। मगर उनके हाथ में यश नहीं है इसी से उनकी दवा से मरीज अच्छे नहीं होते। जब अच्छे ही नहीं होते तो स्वर्ग पहुँचाने वाले थोड़े ही हैं कि उनके पास कोई उसी मतलब से जाए?
    मगर जो वैद्य यहाँ तक कहने लगे कि यह मरीज तो इस जन्म में अच्छा हो ही नहीं सकता, उसके पास भला कौन नादान जाएगा? लोग तो इस जन्म में तो क्या,   फौरन ही मरीज को निरोग करने के लिए ही डॉक्टर और वैद्य के पास जाते हैं। मगर जो फीस तो पूरी ले, फिर भी हरेक मरीज को यही कहता फिरे कि इस जन्म में इसका दु:ख दूर न होगा, इसका मर्ज न मिटेगा, वह जहन्नुम में जाए। किसान की भी तो यही बात है। उसका मर्ज और उसकी बीमारी उसकी यह भयंकर दरिद्रता ही तो है। वह इसी से छुटकारा पाने के लिए वैद्य, हकीम और डॉक्टर समझ के गुरु,   पण्डित, साधु, मौलवी के पास जाता है उसे खिलाता-पिलाता और पूरी फीस चुकाता है,  अपना शरीर तक नाप देता है। मगर उनका जवाब क्या है? वह तो कहते हैं कि इस जन्म में तुम्हारी गरीबी मिट नहीं सकती और दु:ख दूर हो नहीं सकता। वह यही एक जबाव सबों को देते हैं। फिर कौन ऐसा नादान किसान होगा जो उन्हें पूछेंगे भी? खैर,   अब तक पूछा तो पूछा। मगर आगे के लिए सजग। 'अबलौं नसानी अब ना नसैहों।'
    उनके इस छल-प्रपंच की परीक्षा तो आसानी से हो सकती है, साफ मालूम किया जा सकता है कि आया वे ठगते हैं, या सच्ची बात कहते हैं। असल में गलती यही होती है कि भोला भाला किसान उन्हें पहले खूब हलवा-पूड़ी खिला-पिला के और आराम पहुँचा के पीछे यह प्रश्न करता है। इसीलिए असलियत का पता नहीं चलता और न वे ठीक-ठीक पहचाने जाते। लेकिन यदि आते ही सबसे पहले उनसे यही प्रश्न करे, तो पहले तो वे रंज होंगे और कहेंगे कि न खिलाया और न पिलाया। पहले सवाल ही ठोंक दिया। लीजिए, अब देखिए न? खुद तो खा-पी के ही भगवान की बात कर सकते हैं, पहले हरगिज नहीं। मगर किसान को चाहते हैं कि वह भूखे मरके ही भगवान को याद करे। यदि उनमें सामर्थ्य ज्यादा है तो भूखे रह के भी क्यों नहीं भगवान की चर्चा करते और वही बातें कहते? इससे पता चला कि दाल में जरूर कुछ काला है। नहीं तो 'खुदरा फजीहत दीगरे नसीहत'? आप बहे जाएँ और दूसरों को अक्ल सिखाएँ?
    मगर अगर वे लोग सम्भल जाएँ और वही भाग्य और भगवान की बात कहने लगें, तो सबकुछ सुन लेने के बाद उनसे साफ कह देना चाहिए कि 'मम पुर बसि तपसिन्ह प्रीती। सठ मिल जाइ तिन्हहि कहु नीती' उन्हें साफ-साफ सुना देना चाहिए कि सदा तो हमारा ही खाते रहे हैं, आज भी खाने वाले हैं और आगे भी खाएँगे। मगर वकालत और पक्षपात करते हैं धनियों और जमींदारों की ओर से? यह क्या बात है? तो फिर उन्हीं के पास जाइए, खाइए-पीजिए और उन्हीं से पुजवाइए। यहाँ क्या कर्ज दिया था कि वसूलने चले हैं? या कि जमींदारी है कि लगान लेंगे? और अगर भगवान पर ही भरोसा करने की शिक्षा देते हैं, तो खुद भी वैसा ही क्यों नहीं करते? क्या हमारे भगवान जिन्दा हैं और आपके मर गए कि आपकी खबर न लेंगे? हमें यदि भगवान की आशा करनी है, तो आप हमारी आशा क्यों करते हैं? आपको तो और भी ज्यादा भगवान पर भरोसा करना चाहिए। आप लोग तो सामर्थ्य वाले हैं। बड़े भक्त हैं। फिर भी इधर क्या चले? यहाँ क्या ससुराल है, या ननिहाल? यदि हमारी तकदीर ही हमारी खबर लेगी, तो आपकी तकदीर कहीं बिक गई है, या बन्धक हो गई है कि उसे छोड़ के हमारे पास चले हैं? क्या हम भगवान और भाग्य से बड़े हैं कि उन्हें छोड़ हमारा सहारा लेने चले हैं? क्या आपके भगवान और भाग्य का दिवाला निकल गया? क्या 'पण्डित और मसालची, इनकी कही न जाए। अन्यहिं ज्योति दिखावहीं, आप अन्धेरे जाहि।' को ही चरितार्थ करने चले हैं?
    इतना कह के हो सके तो उन्हें दो तमाचे भी लगा दें और कान पकड़ के घर या दरवाजे से बाहर कर दें। फिर देखिए न, क्या नतीजा होता है। वह लोग खामख्वाही किसी और किसान या गरीब का दरवाजा ढूँढ़ेंगे। मगर खबरदार वहाँ भी पहुँचते ही यही सवाल पेश हो जाए। यहाँ भी वही जवाब दे तो किसान वहाँ भी उन्हें ठीक उसी तरह फटकारे और निकाल बाहर करे, बेमुरव्वती के साथ। इसी प्रकार दो-चार या दस-बीस घर देखेंगे और सर्वत्र एक ही सलूक हो तो उनकी अक्ल ही दुरुस्त हो जाएगी। फिर तो खामख्वाह सोचेंगे कि जमाना बदल गया। अब इस ढोंग से काम चलनेवाला नहीं। नहीं तो सभी जगह से टिक्की ही उखड़ जाएगी। अब सजग हो जाना चाहिए आदि-आदि। उसके बाद यदि कभी फिर मौका आए और फिर उनसे कोई कमाने वाला गरीब वही सवाल करे, तो हरगिज पुराना उत्तर न देंगे कि भाग्य के भरोसे रहो,   भगवान की मर्जी है इत्यादि। क्योंकि इसमें उन्हें घाटा साफ ही दिखेगा। अब तो वे लोग उत्तर देंगे जो किसान को न सिर्फ रुचेगा, प्रत्युत ठीक और बुद्धि में समाने योग्य होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि आसानी से ही उनकी परीक्षा हो जाती है और भंडाफोड़ हो जाता है। सीधा बनकर विश्वास के लेना भूल है। इसी से तो किसान ठगे जाते हैं।
    यदि इतनी परीक्षा के बाद भी भाग्य और भगवान की बात चलानेवाले कोई निकलें, तो हम उन्हें माई के लाल ही समझें। वे तो साफ समझते हैं कि हमें तो पुजवाना है और माल चखना है। वही असल चीज है। भोला-भाला किसान नादानी से ही समझता है कि वे लोग ऑंख मूँद के भगवान से रोज-रोज बातें और सलाह-मशविरा करते हैं। वह तो असल में शैतान से ही सलाह करते हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि माल मारना ही उनका असली ध्‍येय है। अब अगर मालदारों की दलाली भी कर सकें और किसानों से भी 'पूजा' करवाएँ, तो वह बेवकूफ थोड़े ही हैं कि ऐसा काम न करेंगे? लेकिन ज्यों ही उसने देखा कि मामला बेढंगा है, किसान की ऑंखें खुल गईं और भाग्य की बात चलाने या भगवान की मर्जी मनाने से हमारा माल हाथ न लगेगा, तो फिर चेत जाएँगे और ठीक बात बकने लगेंगे। फिर तो खुद-बखुद कहेंगे कि सभा करो, मीटिंग करो, यत्न करो। तभी सब कष्ट दूर होंगे। क्योंकि बिना यत्न के कुछ नहीं मिलता। सोये सिंह के मुँह में खुद-बखुद हिरण घुस नहीं जाते,  'उद्यमेनहिसिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:। नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखेमृगा:'। देखिये,  इन्कलाब हो गया न?
    मनुस्मृति में एक स्थान पर गृहस्थ की प्रशंसा करते हुए मनु ने एक बड़े मार्के की बात कही है। वह अक्षरश: सत्य है। उन्होंने कहा है कि चारों आश्रमों में गृहस्थ बड़ा है,   श्रेष्ठ है। शेष तीन उससे हीन और उसके अधीन हैं,   कारण सबों को खाना-पीना तो वही देता है और समय-समय पर अक्ल भी देता ही है। अम्बरीष गृहस्थ ही था,   जिसने दुर्वासा जैसे योगी और ऋषि को अक्ल सुझाई। हालाँकि पहले उन्हें अपनी अक्ल का बड़ा गर्व था। मनु का वचन यों है,  'यस्मात्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।' मैं तो आज मनु के उस आदेश की चरितार्थता इसी बात में मानता हूँ कि पूर्वोक्त तरीके से इन धर्म के ठेकेदारों को रास्ता सुझाए यह किसान ही थे। पहले तो वह जरूरी सुझाता था भी। इसीलिए गड़बड़ी नहीं होती थी। मगर आज तो वह भूल गया और अपने को छोटा मानने लगा। इसीलिए वे लोग भी पथभ्रष्ट और स्वार्थी बन के उसे और संसार को ठगने लगे हैं। उनकी ऑंखों में इस प्रकार बेमुरव्वती और सख्ती के साथ अंजन लगाना किसान का पवित्रतम कर्तव्य है। उसे इसे पूरा करना ही होगा। सो भी शीघ्र ही।
    जो साधु,   गुरु,   मौलवी और कथा बाँचने वाले हैं वह गरीबी की बड़ाई करते हैं और कहते फिरते हैं कि गरीबों को ही बैकुण्ठ और स्वर्ग मिलता है। भगवान मिलते हैं,   मुक्ति मिलती है। जो सन्तोष करता है उसे परलोक में परमानन्द मिलता है। सुई के छिद्र से ऊँट भले ही पार कर जाए। मगर अमीर लोग स्वर्ग में जा नहीं सकते। भगवान के पास उनके लिए स्थान ही नहीं है। सन्तोषी और गरीब दुखिया लोग जो यहाँ दु:ख भोगते हैं उसका फल उन्हें मरने पर मिलेगा। उन्हें भगवान का साक्षात् दर्शन होगा आदि-आदि।
    मगर किसानों और अन्य कमानेवालों को उनके माया जाल में हरगिज नहीं फँसना चाहिए। यह निरी और कोरी ठगी है। शासकों और शोषकों ने घूस देकर वंश परम्परा से उन्हें इस तरह कर रखा है कि भोले-भाले लोगों को भगवान की प्राप्ति,   मुक्ति,   बैकुण्ठ,   स्वर्ग,   कैलाश,   गोलोक और बिहिश्त का प्रलोभन देकर इन सभी का सब्जबाग दिखा के उन्हें ठगें और उनमें असन्तोष की आग भड़कने न दें। नहीं तो क्रान्ति हो जाएगी। फिर तो सब शोषण खत्म ही हो जाएगा।
    कहा जाता है कि धर्म का जन्म ही इसीलिए हुआ कि आत्मा की भूख मिटे। जिस प्रकार शरीर की भूख के लिए अन्नादि पैदा किए गए उसी प्रकार आत्मा की भूख के लिए धर्म की उत्पत्ति मानी जाती है। हम क्या हैं,   यह संसार क्या है और इस संसार के साथ हमारा सम्‍बन्‍ध क्या है,   इन्हीं तीन प्रश्नों से आत्मा की भूख का पता लगता है और इन्हीं के उत्तर देने की कोशिश में दर्शनों की रचना हुई। पीछे उन्हीं दार्शनिक बातों (ज्ञान) का व्यावहारिक और अमली रूप यह धर्म बताया जाता है। यदि ऐसा है तो इसमें किसका व्यर्थ का झगड़ा है? इस गहरी दुनिया में घुसने और डुबकी लगाने की किसे फुर्सत है,   किसे जरूरत पड़ी है कि वह इस बात का विरोध करे।
    मगर आज तो बात ही दूसरी है। आज तो जिस रूप में धर्म को पाते हैं वह ठीक उसके विपरीत है। इसे ही उसका विकृत रूप भले ही कहिए। मगर आज तो यही नजर आ रहा है। आज से हमारा मतलब है सहों वर्षों से। जहाँ तक मनुष्य की जानकारी है धर्म को ऐसा ही पाते हैं। उसका काम अब केवल यही रह गया है कि उसके नाम से शोषकों की जड़ मजबूत की जाए,   मुफ्तखोरों को खूब माल चखने को मिले और आत्मा की भूख को शान्त करने के बजाय किसानों और मजदूरों में बढ़ते हुए असन्तोष तथा क्रान्ति की भावना को खत्म कर दिया जाए। जब असन्तोष की आग बढ़ती है तो ज्वालामुखी फूटता है। इसी का नाम क्रान्ति है और उसे ही धर्म के ठेकेदार खत्म कर देते हैं। वह सन्तोष की ही शिक्षा बार-बार देते हैं और असन्तोष को बुरा बताते हैं। जब भीतर सुलगनेवाली आग रही ही नहीं तो फिर ज्वालामुखी का विस्फोट होगा कैसे? धर्म के इस अनुचित रूप,   बीभत्स आकार और अनधिकार चेष्टा को मिटाना होगा,   यदि वे लोग धर्म की खैरियत चाहते हैं। नहीं तो वह खुद ही मिट जाएगा। वह केवल अपना काम करे जो उसका बताया जाता है। वह रोटी के सवाल में नाहक ही क्यों टाँग अड़ाता है? आत्मा की भूख शान्त करने के बजाय यदि वह कमानेवाले गरीबों को भूखों मारने की कोशिश करता है,   तो उसका मिटना जरूरी है। नहीं तो अब भी सँभल जाए। जब हम यही मानेंगे कि हमारे यत्नों से कुछ नहीं होता जाता। वह तो ईश्वरीय शक्ति और प्रारब्ध का ही खेल है,   जिससे हमें सुख और दु:ख होता है,   तो फिर क्रान्ति के लिए अथक परिश्रम हम क्यों करेंगे? तब उसकी गुंजाइश भी कहाँ रह जाएगी?
    हाँ,   तो उन कथक्कड़ों और पण्डितों से,   साधु-फकीरों से जरा यह साफ पूछना चाहिए कि हमने क्या परमात्मा का घर-बार लूट लिया है,   जो हमारे ऊपर इतनी रंजिश है? हमने उनका क्या बिगाड़ किया है और धनियों ने क्या बनाया है,   जिससे हम पर रंज और उन पर खुश है? क्या धनी उनके सगे-सम्‍बन्‍धी और नातेदार हैं और हम किसान मजदूर नहीं हैं? क्या किसानों ने उन्हें मारा-पीटा है? आखिर बात क्या है? किसान की ही कमाई से तो भगवान के मन्दिर बनते हैं,   वे सजाए जाते हैं,   उनमें पूजा-पाठ होता है तथा भोग लगता है। कहने के लिए भले ही अमीरों के मन्दिर हों। मगर उनमें जो एक-एक पैसा लगता है वह तो गरीबों की गाढ़ी कमाई ही का है। अमीर लोग तो खुद कमाते नहीं,  कमा सकते भी नहीं। जब वे अपना ही पेट भर नहीं सकते और न मकान बना सकते तो भगवान के लिए क्या कर सकते हैं? यह तो 'आप मियाँ मँगनी,   द्वारे दरवेश' वाली बात हुई।
    और अगर सन्तोष तथा गरीबी से ही हमें भगवान मिलेंगे,   बैकुण्ठ मिलेगा,   मुक्ति मिलेगी,   तो ये पण्डित भी गरीबी से ही गुजर क्यों नहीं करते,   सन्तोष क्यों नहीं करते? क्या उन्हें स्वर्ग,   बैकुण्ठ,   मुक्ति और भगवान की जरूरत नहीं है? तो क्या केवल गरीबों को ही इन सब चीजों की जरूरत है? यदि ये सभी पदार्थ सुन्दर और वांच्छनीय हैं,   तो पण्डित,   मौलवी,   साधु वगैरह तो सबसे पहले इन्हें चाहेंगे। लेकिन अगर ये अच्छी चीजें नहीं हैं तो फिर किसान ही इनके लिए क्यों मरें और इन्हें नाहक क्यों चाहें? क्या दुनिया में बेवकूफ यही लोग हैं? गरीबी,   भूख,   प्यास,   बीमारी,   अपमान,   अत्याचार वगैरह तो इनके मत्थे पड़े ही हैं। अब फिर भी स्वर्ग और बैकुण्ठ भी इन्हीं के माथे? भला,   एकाध चीजें भी तो पण्डितों,   साधुओं और अमीरों के लिए रहें। सभी का ठेका क्या किसानों ने ही लिया है? यह 'सोल एजेन्सी' कैसी?
    अगर यह कहा जाए कि स्वर्गादि की जरूरत पण्डितों,   साधु-फकीरों और अमीरों को भी है,   तो वे भी सन्तोष क्यों नहीं करते और गरीब क्यों नहीं बनते? क्या किसान को भगवान मिलेंगे चिथड़े पहनने और आधा पेट सत्तू खाने से,   और अमीरों तथा पण्डितों वगैरह को हलवा-पूड़ी खाने एवं मखमली गद्दा लगाने से? क्या भगवान भी दोमानिया हैं,  दो तरह के हैं? वे गरीबों के लिए दूसरे और अमीरों तथा उनके दलालों के लिए और ही हैं? क्या उनके पास पहुँचने के भी दो रास्ते हैं? अमीरों और उनके पुछल्लों के लिए एक खास और बाकी लोगों के लिए दूसरा? क्या वहाँ भी तरफदारी चलती है और मुँह देखी बात होती है? यदि नहीं तो इसका मतलब क्या कि वे न तो सन्तोष ही करें और न गरीब रहें। फिर भी उन्हें भगवान और उनका बैकुण्ठ मिले। मगर किसान को सन्तोष तथा गरीबी से ही मिले? और अगर यही बात है,   तब तो इस पक्षपाती भगवान और स्वर्ग,   बैकुण्ठ से किसानों को कोई मतलब नहीं। वह तो इस संसार और यहाँ के लोगों से भी खराब होंगे। आखिर यह दुनिया बुरी इसीलिए है न,   कि यहाँ तरफदारी और पक्षपात है? अगर वहाँ भी यही रहा,   तो फिर फर्क क्या हुआ? और फिर इस 'नर्क में ठेलमठेला' से किसानों और मजदूरों का क्या सरोकार? साधु और पण्डित हलवा मलाई खाते और 'पूजा' के नाम पर रुपए वसूल करते हैं,   घर-घर तुलसीदल घुमवा के जबर्दस्ती रुपए वसूलते हैं। फिर इन्हें शर्म क्यों नहीं आती कि किसानों को सन्तोष करने और भूखे रहने का उपदेश देते हैं। इनकी जबान गिर क्यों नहीं जाती,  सड़ क्यों नहीं जाती? 'गिरि हैं रसना संशय नाहीं।'
    एक सवाल और। सन्तोष और गरीबी का जो उपदेश ये लोग किसानों को देते हैं क्या वही अमीरों और राजे-महाराजों को भी देते हैं? क्या वही उपदेश उन्हें देने की हिम्मत भी ये लोग कर सकते हैं? यदि वहाँ इसका नाम भी लें तो कान पकड़ के वहाँ से फौरन निकाल दिए जाएँ और लात खा जाएँ,  पिट जाएँ। भला,   इनकी यह बेवकूफी की बातें कौन अमीर सुनेगा? वह तो घृणा के साथ हँस देगा। इसीलिए वहाँ तो दूसरा ही उपदेश चलता है और ठीक इसका उलटा। वहाँ तो दूसरी ही पोथी निकलती है,   जिससे निराली तान और विचित्र ही स्वर निकलता है,   ताकि अमीरों को पसन्द आए और वह खुश हो सकें। ये पण्डित और धर्म के दुकानदार लोग सभी ढंग के सौदे रखते हैं और ग्राहक एवं अवसर देखके उन्हें निकाला करते हैं जिससे अपनी दुकान चले और अपना काम बने। इनकी चाल दोमुँही है। आखिर दुकानदारी ही तो ठहरी।
    कहते हैं कि एक बड़े भारी पण्डित जी के पास एक गृहस्थ गया। उसने हाथ जोड़ के पूछा के महाराज, हमने एक पाप किया है और उसी का प्रायश्चित्ता करना चाहते हैं। आप रास्ता बताइए। हमारे एकमात्र लड़के ने भूल की और एक गधे को मार डाला। उसी पाप का निवारण,  प्रायश्चित्ता,  बताइए। पण्डितजी ने एक लम्बी पोथी निकाली और बड़ी उधेड़बुन के बाद बोले कि यह तो पाप बहुत ही भारी है। इसमें तो हजारों रुपयों के बिना काम न चलेगा। मैंने बड़ी कोशिश की कि कोई आसान मार्ग निकले। मगर सब परिश्रम बेकार रहा। आपने देखा न, कि घण्टों से मैं पन्ने उलट-पुलट रहा हूँ? गृहस्थ ने हजार आरजू मिन्नत की और रोया-गाया,  हजारों रुपए खर्चने में तो बिक ही जाऊँगा। कोई सुलभ निस्तार बताइए। मगर पण्डित जी टस से मस न हुए और ऊहूँ, ऊहूँ करते ही रहे। आखिरकार वह चलने को तैयार हुआ। चल पड़ा भी। करता भी क्या?
    इतने में उसे एक बात याद आई और रास्ते से लौट के पण्डित जी महाराज से बोला कि सरकार एक बात पूछना भूल ही गया था। असल में आपके प्रियपुत्र श्री सन्तोष शर्मा भी हमारे लड़के के साथ ही थे और गधे के मारने में दोनों का बराबर ही हाथ था। सो कहिए कि हम आप दोनों ही मिल के एक ही जगह यह प्रायश्चित्त करेंगे, या अलग-अलग? अब तो पण्डित जी की अक्ल ही गुम। उनका चेहरा फक हो गया और बोले कि रहिए, रहिए, खयाल आया। एक और बड़ी पोथी है। जरा उसे तो निकालूँ और देखूँ। पोथी निकली और बहुत देर तक देख सुन के पण्डित जी ने फर्माया कि जाइए, आप निर्दोष हैं। क्योंकि 'सात-पाँच लड़के एक 'सन्तोष' गदहा मारे कुछ नहिं दोष'। इस प्रकार जैसे तैसे उस गरीब गृहस्थ के गले की बला टली। इससे सिद्ध है कि ये धर्म और परलोक के 'सर्वाधिकार संरक्षित' वाले कैसे दोमुँहिए होते हैं और अपना उल्लू कैसे सीधा करते हैं। यदि उसी किसान जैसे होशियार सभी हो जाएँ तभी इनकी लकड़ी नहीं लग सकेगी। दूसरा रास्ता हई नहीं।
    किसानों को तो उनसे बेलाग कह देना चाहिए कि जाइए, बैकुण्ठ और परमात्मा का ठेका श्रीमन्तों तथा राजे-महाराजों को ही दीजिए। ये वहाँ बड़े हैं। हम चाहते है कि परलोक में भी वही बड़े रहें। फलत: अपनी जमींदारी और अपना राजपाट छोड़ के वे जंगल का रास्ता लें। सो भी सपरिवार और हमें वह सुख का सभी सामान सौंप दें। यदि वह सपरिवार और सबन्धु-बान्धव वहाँ न जाएँगे, तो उदासी काटेगी और विवाह शादी या महफिल में भी गड़बड़ी होगी,  अड़चन होगी। इसीलिए हमारी हार्दिक इच्छा है कि वे सभी संगी साथियों को ले के ही जंगल जाएँ और सन्तोषपूर्वक क्षुधा-तृषा को सहें। ताकि उन्हें भरपूर स्वर्ग मिले और वहाँ भी सपरिवार ही मौज करें। हम इस महान एवं पवित्र काम में उनकी हर तरह से सहायता करने को तैयार हैं। उनके लिए न एक पैसा छोड़ेंगे, न एक इंच वस्‍त्र और न एक रत्ती-भर घी, दूध वगैरह, नहीं तो उनकी तपस्या भंग हो जाएगी। भला हम ऐसा पाप कैसे होने देंगे। उनका पूरा-पूरा उपकार हम करके ही रहेंगे। उन्हें आप लोग निश्चिन्त कर दीजिए। स्वर्ग उनके बिना सूना ही रहेगा। परमात्मा के ये लाड़ले उनके पास पहुँच जाएँ हमारी यही तमन्ना है,   यही अभिलाषा है। जाइए, हम उन लोगों के लिए बैकुण्ठ का छत्र राज्य छोड़े देते हैं। यहीं का राज्य करके हम अपने को किसी प्रकार सन्तुष्ट कर लेंगे। जब हमारा और जमींदारों का, धनियों का इतना पुराना ताल्लुक है, तो हमें उसे मजबूरन निभाना ही होगा।
    यह ऐसी कसौटी है कि इन धर्म ध्‍वजियों की कलई खुल ही जाएगी और वे अपने असली रूप में दिखेंगे। खुद तो यहीं स्वर्ग का सुख भोगना चाहते हैं, भोगते हैं और अपने मालिकों को, इष्ट देवों को,  मालदारों को,  भी उसका सारा सामान प्रस्तुत करने में लगे रहते हैं। हजार कुकर्म और जाल फरेब करके रुपए जमा करते करवाते हैं, अनेक दुराचार-व्यभिचार करते है, मौके-बेमौके गंगा, तुलसी और शालग्राम की झूठी कसमें, जोरू, जर और जमीन के लिए खाते रहते हैं। मगर औरों के लिए इस स्वर्ग की तरह बात मरने के बाद के लिए करते रहते हैं। मगर किसान भी इसी जीवन में उन्हीं की स्वर्ग सुख क्यों न चाहें? यहाँ नरक की यंत्रणा भोगने के बाद उस स्वर्ग की परवाह करें जिसे किसी ने देखा नहीं। जिसके बारे में निश्चित रूप से कहने को कोई तैयार भी नहीं। यह तो परले दर्जे की नादानी होगी। यह तो मेघ को देख के घड़ा फोड़ देने से भी खराब है। नीतिकारों ने कहा भी है कि जो निश्चित और पक्की चीजों को छोड़ के अनिश्चित और खयाली पदार्थों की चिन्ता करता है उसके दोनों ही गायब हो जाते हैं, 'यो धा्रुवाणि परित्यज्य ह्यधु्रवं परिसेवते। धु्रवाणि तस्य नश्यति ह्यधु्रवं नष्टमेवहि'। सूद के लिए मूल गँवाना इसे ही कहते हैं। किसान ऐसी गलती अब हरगिज न करेंगे।
    भाग्यवादी लोग इन बातों को सुनके घबराते जरूर हैं। मगर फिर भी अपनी जिद से हटना नहीं चाहते। उनकी कठदलील होती है कि 'करम प्रधन बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा' के अनुसार हर आदमी को अपने पूर्व जन्म की कमाई का फल भोगना ही पड़ता है। इसे ही तकदीर कहिए, भाग्य कहिए या प्रारब्‍ध कहिए। इससे किसी का पिण्ड कैसे छूटेगा? हमने जो कुछ किया है उसे हम न भोगें तो दूसरा कौन भोगेगा? 'जैसी करनी तैसी भरनी' का भी यही मतलब है। यदि चोरी-डकैती हम करें, तो परिणाम हमारे ही माथे आएगा। किसी डूबते को हमने बचाया तो इनाम और प्रशंसा के पात्र हम ही बनेंगे, न कि और कोई।
    बात तो सही है। मगर इससे पूर्वजन्म में जो किया उसे भोगेंगे यह कहाँ सिद्ध होता है? 'कर्म प्रधन विश्व' का सीधा अर्थ तो यही है कि जो कुछ करेंगे उसका फल भुगतेंगे। हमने हल चलाया, खेत बोया और फसल तैयार की तो परिणाम स्वरूप गेहूँ,   चावल खाएँगे। खेती का तो वही फल है। यदि गाय, भैंस पाली उन्हें खूब खिलाया-पिलाया तो दूध, दही, घी हम ही खाएँगे। उसका फल दूसरा है नहीं। कभी ऐसा नहीं देखा-सुना कि गाय-भैंस इसलिए पालते हैं कि मरने पर परलोक में या दूसरे जन्म में घी, दूध आदि खाएँगे। खेती भी इसलिए कदापि नहीं करते कि अगले जन्म या परलोक में चावल, गेहूँ आदि खाएँगे। यदि इसमें परलोक की बात मालूम हो जाए तो कोई भी यह काम न करेगा। चोरी करते हैं तो फौरन ही इसी जन्म में जेल जाते हैं। यदि किसी को मारते-पीटते हैं तो बदले में पिट जाते हैं। अगर कत्ल करते हैं,   फाँसी या कालेपानी का दण्ड यहीं भोगना होता है। इसमें अगले जन्म का सवाल कहाँ आता है?
    इसीलिए तो किसान को फौरन ही दावा करना चाहिए कि जब हमने खेती की और गाय-भैंस पाली, तो दूसरे लोग,  राजे, बाबू धनी और सत्ताधारी लोग,  क्यों गेहूँ,   चावल और घी, मलाई खाएँगे? हम क्यों न खाएँगे? अपने कर्म का फल तो हमें ही भोगना है। यदि दूसरे लोग खाते हैं, या तो चोरी करते हैं या सीनाजोरी और यह दोनों ही नाजायज हैं, दण्डनीय हैं। इसलिए उन्हें फौरन इसका दण्ड मिलना चाहिए। उनकी चोरी या सीनाजोरी चटपट बन्द हो जाना ही उचित है।
    और अगर फिर भी हठ हो और कहा जाए कि इस जन्म के कर्मों का फल हमें इस शरीर में नहीं मिल सकता। फलत: घी, दूध, गेहूँ वही लोग खाएँगे, हमारे इन कामों का फल वही लोग भोगेंगे और हमें,  किसानों को,  भूखों ही मरना होगा तो अच्छी बात है। यह भी यदि पूरा-पूरा माना जाए तो एक बात हो। यदि लोग कहें कि हाँ, पूरा-पूरा माना ही जाएगा तो फौरन किसान कहीं जा के चोरी या डकैती कर सकता है और खूब हलवा-पूड़ी उड़ा सकता है। यदि पुलिस पकड़े तो वह कह दे सकता है कि हमारे कर्म का फल पण्डितजी, मौलवी साहब, या राजा बाबुओं को ही दीजिए और उन्हें ही जेल भेजिए। क्योंकि उनका यही कहना है कि यदि काम करें हम तो उसका फल इस जन्म में वही भोगेंगे। इसलिए हमें तो इस जन्म में इस चोरी या डकैती के करते जेल जाना नहीं है। मगर क्या इस बात को पुलिस मानेगी? क्या पण्डित, साधु, फकीर और धनी लोग भी इसे मानेंगे? यदि नहीं, तो क्यों? अगर हमारी चोरी का नतीजा जेल या दण्ड उन्हें नहीं भोगना है, तो फिर हमारी ही खेती तथा गोपालन का फल गेहूँ, चावल, घी, दूध वे किस मुँह से भोगेंगे? यदि मानना है,   तो सीधे रास्ते पर चलें और सभी कामों के नतीजे के लिए तैयार रहें। यह 'मीठा मीठा गप्प, कड़वा कड़वा थू' कैसा? यह 'आधा तीतर, आधी बटेर' की क्या बात?
    एक बात और। पूर्वजन्म की कमाई का फल इस जन्म में और इस जन्म का अगले में भोगेंगे, ऐसा क्यों? इस जन्म का यहीं क्यों न भोगेंगे? इससे शोषकों का मजा किरकिरा हो जाएगा क्या इसीलिए ऐसा नहीं माना जाए? तो जिसका मजा किरकिरा होता हो वही उसकी परवाह करे। किसान क्यों करने लगा? उसका मजा तो उलटे इसमें ही बनने वाला है।
    और यह बासी कर्म-फल भोगने का क्या मतलब है? ताजा कर्म फल क्यों न भोगा जाए? रोटी, भात वगैरह बना के तो ताजा ही खाना पसन्द करते हैं। बासी तो कोई भी नहीं चाहता। मगर कर्म के बासी ही फल भोगे जाएँगे, ताजे नहीं, यह तो उलटी बात हो रही है। इसलिए पहले तो समझ में आती ही नहीं। इसीलिए तो इस पर विश्वास नहीं होता, क्या परमात्मा के दरबार में उलटा ही हुआ करता है? यदि हाँ,   तो बड़ी गड़बड़ होगी और कोई ठिकाना न होगा। अच्छे काम का तब तो बुरा और बुरे का अच्छा नतीजा भी हो सकता है। और यदि वहाँ उलटा नहीं होता, तो कम के फलों के बारे में यह लोकानुभव से विपरीत ही बात क्यों कही जाती है? पुराने लोगों ने तो माना भी ऐसा ही है कि जितने ही बड़े या महत्त्वपूर्ण काम होते हैं उतना ही जल्द इसी जन्म में उनका नतीजा तीन साल, तीन मास, तीन पक्ष या तीन दिन में ही मिल जाता है,  'त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासेस्त्रिभि: पक्षेस्त्रिभिख्रदनै:। अत्युत्कटै: पुण्यपापैरिहैव फलमश्नुते'। और गेहूँ आदि उपजाने से बढ़कर महत्त्वपूर्ण काम इस दुनिया में हो भी क्या सकता है?
    जो लोग कर्मरेख, ललाटरेखा और कर्म विपाक की पोथी की बातें करके श्रमजीवियों को,  किसानों और मजदूरों को,  धोखा देते हैं उनसे भी कुछ पूछताछ कर लेना जरूरी है। वे कहते हैं कि उनकी पोथी,  कर्म विपाक,  में सभी लोगों के कर्मों का फल लिखा हुआ है। स्वभाव से ही प्रश्न होता है कि इस समय संसार में प्राय: दो अरब मनुष्य रहते हैं। यदि सभी के कर्मों का हिसाब लिखने के लिए पोथी बने तो वह कितनी लम्बी,   चौड़ी और मोटी होगी? छोटे बड़े साहूकारों,   कारखानों और बैंकों में जो थोड़े से आदमियों के साथ लेन-देन होता है,   उसी के लिए न जानें कितनी बड़ी-बड़ी बहियाँ और रजिस्टर रहते हैं। यदि पचीस-पचास वर्षों के उन्हीं रजिस्टरों और बहियों को जमा करें तो पहाड़ जैसी चीज खड़ी हो जाए। ऐसी दशा में दो अरब मनुष्यों के जन्म से मरण तक के हिसाब को ब्योरेवार लिखने के लिए तो ऐसे रजिस्टर और ऐसी पोथियाँ दरकार होंगी जो हिमालय से भी ऊँची हो जाएँ तब भी शायद ही काम चले।
    पुष्पदन्त ने महिम्नस्तोत्र में एक स्थान पर लिखा है कि शिवजी के गुणों के वर्णन में यदि पृथ्वी कागज का काम दे और समुद्र स्याही का तो भी वह वर्णन अधूरा ही रहेगा,  अँट नहीं सकता,  'कज्जलं सिन्धु पात्रो,  पत्र मुर्वी।' वह तो कहा जा सकता है,   कवि की कोरी कल्पना है। मगर यहाँ तो सो बात नहीं है। यदि सारी जमीन को कागज और समुद्रों की स्याही सचमुच ही बना डालें,   तो भी यह कर्मों और फलों का हिसाब पूरा-पूरा लिखा जा सकता नहीं। आदमियों के सिवाय असंख्य अन्य प्राणियों का भी तो हिसाब लिखा जाना ही चाहिए। क्योंकि कर्म का सवाल तो सभी जगह एक समान नहीं है। सभी जीव-जन्तु भाग्य के अनुसार ही सुख-दु:ख भोगते और काम करते हैं न?
    ऐसी दशा में नन्ही सी पोथी,  कर्म विपाक में ही दुनिया-भर का हिसाब कैसे समा गया कि उसे ही खोल कर पण्डित जी लोग सब लोगों के भाग्य की बात अक्षरश: ब्योरे के साथ बता देते हैं? यह तो 'गागर में सागर' भरने की अनोखी बात हो गई। लंका में कुम्भकर्ण के लिए,   सुनते हैं,   बड़ा सा मकान बना था,   क्योंकि उसकी देह चार सौ कोस जमीन को घेर लेती थी। मगर कर्म विपाक की पोथी के लिए तो उससे हजार गुणा बड़ा मकान चाहिए। सो भी बराबर बढ़ता रहेगा,   क्योंकि नए-नए लोग पैदा होते रहते हैं। अत: वह सभी पण्डितों की झोपड़ियों में कैसे अँट सकेगा? वह कुम्भकर्ण की दादी जो ठहरी,   खासकर विस्तार में।
    इतना ही नहीं। प्रति दिन लाखों बच्चे पैदा होते हैं। उनका हिसाब उस पोथी में पहले से ही कैसे लिखा रहता है? और अगर पोथी वाले कहें कि लिखा रहता है,   तो हर आदमी उनसे पूछ सकता है कि हमारे बच्चों की संख्या कितनी है,   उनके नाम धाम क्या हैं? आदि आदि। जिसके बच्चे न हों वह भी पूछ सकता है कि हमें कौन-कौन से बच्चे होंगे और उनकी क्या हालत होगी? तभी तो कर्म विपाक वालों के ढोंग का पर्दाफाश होगा। इसलिए पहले से लिखा जाना तो गैरमुमकिन है।
    तब तो अब सीधा प्रश्न है कि किस बेतार के तार के जरिए जन्म के साथ ही हर पण्डित के पास बच्चों की खबर आती है और कैसे? उसे पोथी में लिखता भी कौन है? और अगर सचमुच यह बात हो,   तो वह पोथी बराबर बढ़ती ही जानी चाहिए। मगर ऐसा देखा तो जाता नहीं कि पण्डितजी की पोथी कर्म विपाक की तोंद बराबर फूलती जाए। वह तो जैसी की तैसी एक बेठन में बँधी बराबर पड़ी रहती है। कितनों के घरों में तो संयोगवश बाप-दादों की ही पोथियाँ हैं। मगर वह मूर्ख हैं। फिर वहाँ कौन देवता या फरिश्ता आकर लिख जाया करता है?
    वे मूर्ख दुनिया-भर के कर्मों का तो हिसाब बताते फिरते हैं। मगर खुद फजीती भोगते हैं,   दर-दर मारे फिरते हैं और भिखारी बनते हैं। ये धनियों के सामने दुम हिलाते,   चापलूसी करते और 'जय' मनाते रहते हैं,   ताकि दो-चार पैसे मिल जाएँ। मगर वे अपना हिसाब-किताब उसी पोथी से कर क्यों नहीं लेते और निश्चिन्त क्यों नहीं हो जाते? रोज-रोज जो उन्हें चिन्ता बनी रहती है कि आज कहाँ जाएँ,   क्या करें कि कुछ कमा लें और घर की खर्ची चलाएँ। सो क्यों होता है? यह तो वही हुआ कि 'आप मियाँ मँगनी,   द्वारे दरवेश'।
    ललाट और खोपड़ी की बात भी विचित्र और बेबुनियाद है। कहते हैं कि जीवन- भर का सुख-दु:ख और बुरा-भला उसी में लिखा रहता है। यह तो छिपने की बात नहीं। हजारों खोपड़ियाँ गंगा आदि नदियों के किनारे मिलती हैं। उन पर कहाँ वह हिसाब रहता है। सामने की ओर टुकड़ों के जोड़ का जो चिन्‍ह रहता है उसे ही नादान लोग कर्म की रेखा कह डालते हैं। यदि यह बात मान भी लें तो वह किस भाषा में,   या किस संकेत से लिखा रहता है,   यह कौन बताएगा? वह कैसा शार्टहैंड (संक्षिप्त लेख) है कि एक छोटी सी लाइन में सैकड़ों वर्ष की जिन्दगी का हिसाब पूरा हो गया? खूबी तो यह कि जो सौ वर्ष जिया,   या जो साठ,   पचास,   चालीस,   तीस,   बीस या कम,   सबों की खोपड़ियों पर बराबर ही लिखा रहता है। यह क्या? जब हिसाब ही ठहरा,   तो जीवन की दीर्घता और संक्षेप के हिसाब से वह लेख भी छोटा-बड़ा होना ही चाहिए। क्या जितने आदमी हैं उतने ही शार्टहैंड जुदा जुदा हैं? यह भी विचित्र तथा वाहियात बात है। इसकी जरूरत क्या है? कोई खुफिया पुलिस की रिपोर्ट थोड़े ही है कि एक को दूसरा न पहचाने। और जिन कीड़े-मकोड़े या पक्षियों की खोपड़ियाँ नहीं हैं उनका हिसाब कहाँ लिखा जाता है? क्या साधुओं,   मौलवियों और पण्डितों की ही खोपड़ियों पर? कैसी बेहूदी बात है?
    हिसाब लिखने का तो अर्थ होता है कि पढ़ा जा सके। तो क्या खोपड़ियों पर लिखा हिसाब कोई पढ़ सकता है? यदि कोई धोखा देने के लिए 'हाँ' कह दे,   तो एक ही खोपड़ी को दो-चार 'हाँ' कहनेवालों से जुदा-जुदा पढ़वाने से ही पोल खुल जाएगी। यदि फरेब करके कुछ लोग यों ही पढ़ने की कोशिश करें भी,   तो सबों का पढ़ना मिल तो नहीं सकता और इस तरह जाल पकड़ा जाएगा। और अगर आदमी पढ़ नहीं सकते,   ऐसा कहें तो फिर लिखने का सवाल ही कहाँ रहा? क्या ब्रह्मा या चित्रगुप्त के पास कागज नहीं रहता कि खोपड़ियों पर ही लिखते हैं? जब बिना खोपड़ी वाले जीवों के लिए कागज उन्हें जुटाना ही पड़ता है,   तो आदमियों के लिए भी जुटा क्यों नहीं लेते? वह तो हर आदमी के साथ-साथ रहते भी नहीं। फलत: समय-समय पर दौड़ के आने में तो उनकी मौत ही है। और यदि एक ही साथ लाखों का हिसाब करना हो तो कैसे करेंगे? उनका दफ्तर और सेक्रेटेरियट कितना लम्बा-चौड़ा है?
    इस प्रकार स्पष्ट है कि ललाट और कर्म रेखा का प्रश्न जनता को फँसाने तथा धोखा देने के लिए ही गढ़ा गया है,   जिसमें उसे ठगने में आसानी हो सके। आखिर किसानों और मजदूरों की गाढ़ी कमाई का गेहूँ,   दूध,   मोटर,   वस्‍त्र आदि उनसे छीनने के लिए कोई उपाय भी तो चाहिए। बल प्रयोग तो असम्भव है। क्योंकि अमीर लोग तो मुट्ठी-भर ही ठहरे। वे होते भी हैं अशक्त। फिर जनता से,  किसान मजदूरों से,  बल प्रयोग करके वे छीनेंगे कैसे? किसान यदि एक बार कस के डाँट दे तो जिनका दिमाग ही फट जाए। क्या वही लोग बल प्रयोग करेंगे? इसीलिए तो खूब सोच-विचार के ऐसा उपाय ढूँढ़ निकाला गया कि शान्ति के साथ बिना यत्न के ही अपार भोग-विलास की सामग्री उनके पास पहुँच जाया करे। इस प्रकार की बातेंबहुत ही चालाकी से किस प्रकार की जाती हैं इस सम्‍बन्‍ध में एक सुन्दर कहानी है।
    कहते हैं कि पुराने समय में एक सीधा-सादा किसान अपनी नातेदारी से बहुत ही अच्छी जाति की बकरी का बच्चा ले के पैदल ही घर चला कि इसे पालेंगे,   तो खूब बड़ी बकरी होगी,   काफी दूध देगी और इसके बच्चे भी ऐसे ही होंगे। उस गरीब ने अपनी जीविका का एक आसान साधन समझ उसे लिया था। सड़क पकड़े और बच्चे को कन्धे पर रखे जा ही रहा था कि पाँच ठगों की उस पर एकाएक नजर पड़ गई। उनने देखा कि बकरी तो बहुत ही अच्छी किस्म की है। इसे किसी प्रकार लेना ही चाहिए। मगर छीनने का मौका न था। दिन का समय और इधर-उधर गाँव। पकड़े जाने का खतरा था। अतएव उनने राय की और तय कर लिया कि किस प्रकार का काम करने से अनायास ही यह हाथ लगेगी। फिर हट के ओझल हो गए और अपने में एक को भेजा कि कहाँ जाएगा यह पूछ आओ। उसने जा के पूछा तो पता लगा कि इसी सड़क पर उसे आठ-दस मील जाना है।
    बस,   ठगों का हिसाब बैठ गया। वे तेजी से आगे बढ़े और आधा मील आगे जा के सड़क की बगल में एक ठग खड़ा हो के यों ही कुछ करने लगा,   जैसे कोई अजनबी हो। उससे एक मील पर दूसरा दूसरे से पौन मील पर तीसरा,   तीसरे से एक मील पर चौथा और चौथे से आधो मील पर पाँचवाँ जा डटा। सभी अजनबी की तरह सड़क पर,   उसके पास ही या इधर-उधार किसी न किसी बहाने से डटे रहे।
    ज्यों ही पहले ठग के पास वह किसान पहुँचा कि उसने एकाएक ऑंख फेरी और हँस के पूछा कि तुम कौन हो जी? कहाँ जाओगे? यह कन्धे पर क्या ले रखा है? उस गरीब ने अपना पता बताया और कहा कि बकरी का बच्चा पालने के लिए जा रहा हूँ। ठग ने फौरन कहा कि यह तो बकरी का नहीं,   किन्तु गधी का बच्चा है। वह गरीब किसान हँस पड़ा और ठग की नादानी पर तर्स खाता हुआ आगे बढ़ा।
    जब दूसरा मिला तो वह पहले ही से बकरीवाले की ओर किसी मुसाफिर के रूप में आता हुआ दीखा और बोला कि क्या तुम धोबी हो जी,   कि गधी के बच्चे का कन्धे पर लिये जा रहे हो? उसने जबाव दिया कि अपनी अक्ल तो सँभालो। यह गधी का बच्चा थोड़े ही है। यह तो बकरी का है। फिर आगे चल पड़ा।
    इतने में तीसरा मिला और दूर से ही हँसता हुआ बोला कि ओ धोबी,   ओ धोबी,   यह गधी का बच्चा कहाँ लिया? किसान घबराया सही। क्योंकि लगातार तीन ने ऐसा ही कहा। मगर बोला कि यह तो बकरी का बच्चा है या गधी का? उसने फिर कहा कि गधी का? गरीब ने कहा कि क्या हमारे नातेदार ही हमें ठगेंगे और तुम्हीं चालाक हो? और आगे बढ़ा।
    चलते-चलते चौथे से भेंट हो गई। वह पास के खेत में ही था। वहीं से चिल्लाया कि यह कौन सा पगला है? कहीं गधी का बच्चा भी कन्धे पर ले चलते हैं? अब तो किसान बड़ी दिक्कत में पड़ा। बैठ गया और बच्चे के लम्बे कान वगैरह को दिखाकर बोला कि भई,   यह तो साफ ही बकरी का बच्चा है। तुम इसे गधी का कैसे कहते हो ? मैं तो अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ से लिये आ रहा हूँ। ठग ने कहा कि सो तो घर जाने पर ही पता चलेगा कि हम सही कहते हैं,   या गलत। कुछ देर रुकने और पछताने के बाद उसने फिर भी हिम्मत की और बच्चे को ले के आगे बढ़ा।
    अब पाँचवाँ मिला। उसके पास में ही कुछ लड़के खेलते थे। उसने पुकारा कि देखो लड़के,   यह तमाशा। कोई सनकी आदमी कन्धे पर गधी का बच्चा लिये जा रहा है। लड़के तो खेल में मस्त थे। उन्हें दूसरी बात की परवाह कहाँ? मगर उस किसान ने न सोचा,   न विचारा और बच्चे को फेंक के आगे बढ़ गया। उसने सोचा कि जो ही मिलते हैं वही इसे गधी का ही बच्चा कहते हैं,   तो क्या मैं ही होशियार और सारी दुनिया बेवकूफ ही है? हो न,   हो मुझे और मेरे नातेदारों को धोखा हो गया।
    इस प्रकार आसानी से वह बकरी का लासानी बच्चा उस पाँचवें ठग को मिल गया और खुशी-खुशी वह अपने चार साथियों से जा मिला। आखिर ठगों का मतलब इस प्रकार युक्ति से पूरा हो ही गया।
    हम तो साफ ही देखते हैं कि यदि सिर्फ पाँच ही आदमी एक राय और षडयन्त्र करके किसी को ठगने के लिए एक जाल बनाते हैं और थोड़ी-थोड़ी देर के बाद एक ही बात दुहराते हैं,   तो उतने से ही उस आदमी का दिमाग पलट जाता है और पहले से पूर्णतया निश्चित चीज को भी उलटी समझ के फेंक देता है। बस,   इतने से ही हमारा मतलब स्पष्ट हो जाता है। वहाँ तो केवल पाँच आदमी एक ही बात बार-बार जुदा-जुदा कहके बकरी छीन लेते हैं। और यहाँ? यहाँ का क्या पूछना है? छप्पन लाख साधू नामधारी,   लाखों पण्डे और पुजारी,   कितने ही लाख पुरोहित और कथा बाँचने वाले लक्ष-लक्ष मौलवी और फकीर और असंख्य पादरी,  ये सभी के सभी रह-रह के भिन्न-भिन्न मौकों पर हूबहू एक ही बात दुहराते हैं। किसानों और मजदूरों से सभी यही कहते हैं कि यह गेहूँ,   घी,   दूध तुमने पैदा जरूर किया है। मगर तुम्हारे कर्म में,   तुम्हारी किस्मत और तकदीर में यह लिखा है नहीं। भगवान की मर्जी है नहीं कि तुम या तुम्हारा परिवार इसे भोगे। वह तो जमींदारों,   साहूकारों और पूँजीपतियों को ही किस्मत में बदा है। वही इसे खाएँ-पिएँगे। इस जन्म में तो तुम्हें यह मिल सकता नहीं। इस जिन्दगी में तो हम इसके हकदार नहीं। शायद अगले जन्म में पा सको?
    किसान सुनता है और विश्वास कर लेता है। वह सोचता है कि इन साधु,   पण्डित आदि बेचारों को क्या पड़ी है कि हमें धोखा देंगे? ये तो घण्टों पूजापाठ करते और परमात्मा का ध्‍यान करते हैं। उपवास कर,   व्रत कर और तीर्थों में घूम-घूमकर पाप धो डालते हैं। दिन-रात ये तो परोपकार और धर्म की ही चर्चा करते रहते हैं। हमारे जैसे बाल बच्चों में लिपटे भी नहीं हैं कि झूठ-साँच कर सकें। गलत कहने की तो इनमें कोई गुंजाइश ही नहीं। और फिर देखिए न,   अनेक शैव,   शाक्त,   वैष्णव आदि सम्प्रदाय के लोग रोज आपस में मतभेद रखते और झगड़ते रहते हैं। लेकिन इस मामले में सबों की एक ही राय है,  कोई मतभेद नहीं है। और भी,   पण्डित,   मौलवी,   पादरी आदि अपने-अपने धर्म को लेकर आपस में कितना झगड़ा करते हैं? कोई कुछ कहता है और कोई कुछ। मगर किस्मत और भाग्य के मामले सभी एक ही राय के हैं। इसलिए हो न हो,   यह बात जरूर ही सही है और हम लोगों के भाग्य में गेहूँ,   बासमती,   मलाई,   घी आदि खाना नहीं ही लिखा है। यह तो जमींदारों और मालदारों के ही लिए है। बस चलो सन्तोष करो।
    नतीजा यही होता है कि दिन प्रतिदिन बाल्यावस्था से ही यह धारणा दृढ़ होने लगती है। क्योंकि चाहे और उपदेश मिले,   या न मिले। मगर यह तो जरूर ही मिलने लगता है। जिसे सुनो वही कहता फिरता है,   कर्म में जो लिखा होगा वह टर नहीं सकता। हमारे माथे में तो गरीबी लिखी ही है। जिसे बात करने का भी शऊर नहीं,   वह भी भाग्य और भगवान की मर्जी की लम्बी-लम्बी बातें छाँटता है। गोया उसने भाग्य और भगवान को और उनकी मर्जी को ऑंखों देखा है। फलत: हजारों वर्षों से सुनते-सुनते पीछे यह एक प्रकार का स्वभाव हो जाता है। जैसे बत्तख को पानी में तैरना कोई सिखलाता नहीं। उसका तो वह स्वभाव ही है। ठीक उसी प्रकार भाग्यवाद और भगवानवाद किसान का एक प्रकार का स्वभाव ही बन गया है। वह धारणा उसके दिलदिमाग में वज्रलीक हो गई है।
    जब खुद गेहूँ,   दूध को पैदा करनेवाला ही समझता है कि वह उसके पेट में और उसके परिवार के पेट में जाने के लिए हई नहीं,   तो आखिर कोई जबर्दस्ती उसके पेट में ठूँसेगा थोड़े ही। यहाँ तो छीनने वाले ठग ताक लगाए बैठे हैं। उन्हें क्या पड़ी है कि उसके मुँह में बलात ठूँसे? वह तो मुँह में से उलटे निकाल लेना चाहते हैं। उन्हें तो इसके लिए कोई मौका या बहाना मात्र चाहिए। और आखिर यह पदार्थ तो पेट में जाने के ही लिए हैं,   न कि देखने के लिए। जब किसानों ने तय कर लिया कि उनके लिए तो ये हई नहीं,   इन्हें वह तो खा ही नहीं सकते,   तो लाचार हो के ये पदार्थ अमीरों और उनके कुत्तों के पास,  पेट में,  चले गए, चले जाते हैं। वह बेकार सड़ेंगे तो नहीं ही। फिर कहाँ जाएँ सिवाय अमीरों के पेट के।
    जिस प्रकार पागल आदमी अपने घर का गेहूँ, दूध, धन, वस्‍त्र आदि उठा-उठा के बाहर फेंके और गैरों को लुटा दे, ठीक उसी प्रकार किसान अपने गेहूँ आदि को उठा-उठा के बाहर फेंकता और गैरों को लुटाता है। इसका दिमाग ही उलटा हो गया है। इसका विचार ही विपरीत हो गया है। इसकी समझ सोलहों आना खराब हो गई है। वह तो बकरी के बच्चे को गधी का बच्चा माने बैठा है। हजारों वर्षों के संगठित षडयन्त्र का दूसरा नतीजा हो भी नहीं सकता था। इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है? यदि वह ऐसा न करता तभी अचम्भा होता। क्योंकि 'नवद्वारे का पींजरा, तामें पंछी पौन। रहने का आश्चर्य है गए अचम्भा कौन?' इसीलिए असली जरूरत इस बात की है उसके दिमाग की ही दवा की जाए। उसकी समझ ही ठीक की जाए। किसानों के लिए सबसे बड़ा रचनात्मक काम,  कार्यक्रम,  यही है कि उन्हें इस नादानी का रहस्य बताया जाए,   इसका खासा भंडाफोड़ किया जाए और समझाया जाए कि ये सब बातें गलत हैं और गेहूँ,   चावल,   घी,   मलाई पर सबसे पहले उन्हीं का हक है। उन्हें धोखा होने के लिए ही ये बातें खूब चालाकी से सोच-विचार के गढ़ी गईहैं।
    एक बात का और विचार करके इस प्रसंग को पूरा कर देना है। परमात्मा की मर्जी की पुकार बहुत मचती है। मगर वह परमात्मा कौन सा है? वही,   जिसके दर्शनों के लिए लोग मन्दिरों में जाते,   गंगा स्नान करते,   प्रयाग,   काशी आदि तीर्थों में पहुँचते और जंगलों में भटकते हैं? या कि दूसरा कोई? यदि दूसरा कोई हो,   तब तो बात ही दूसरी है। तब तो पहले उसका पता ही जानना है। अभी उसका परिचय प्राप्त करना बाकी ही है,   लेकिन यदि मन्दिरों और तीर्थों वाला ही है,   तब तो बात कुछ मजेदार है। कहते हैं कि वह सब काम पलक मारते कर देता है और जिसे नहीं चाहता है उसे कदापि होने नहीं देता। लेकिन दूसरों का काम सँभालने और भक्तों का हुक्म बजाने के पहले वह अपना काम तो सँभाले। तभी हम मानेंगे कि वह बड़ा शक्तिमान या सब कुछ कर सकने वाला है,  सब कुछ करता है। एक दिन किसान के घी से भगवान के मन्दिर में दीप मत जलाइए और भगवान से कह दीजिए कि आपकी सामर्थ्य की परीक्षा आज ही है। देखें,   आपके घर में,  मन्दिर में,  मस्जिद में,  अन्‍धेरा ही रहता है,   या उजाला भी होता है। रात-भर देखते रहिए। मन्दिर का फाटक बन्द करके छोटे से सूराख से रह-रह के देखिए कि कब चिराग जलता है। आप देखेंगे कि जलेगा ही नहीं,   रात-भर अन्‍धेरा ही रहेगा।
    इसी प्रकार एक दिन न घण्टी बजे,   न आरती हो और न भोग लगे। किसान का गेहूँ,   दूध और उसके पैसे से खरीदी घण्टी,   आचमनी आदि हटा लीजिए। फिर देखिए कि दिन-रात ठाकुर जी भूखे ही रहते हैं और प्यासे ही मरते हैं,   या उन्हें भोजन उनकी लक्ष्मी पहुँचाती हैं। दिन-रात मन्दिर सुनसान ही और मातमी शक्ल बनाए ही रह जाता है या कभी घण्टी वगैरह बजती भी है। पता लगेगा कि सब मामला सूना ही रहा और ठाकुरजी या महादेव बाबा को 'सोलहों दण्ड एकादशी' करनी पड़ी। एक बूँद जल तक नदारद आरती,   चन्दन,   फूल आदि का तो कहना ही क्या? सभी गायब। वे बेचारे जानें किस बला में पड़ गए कि यह फाकामस्ती करनी पड़ी।
    और ये मन्दिर बनते भी हैं किसके पैसे और किसके परिश्रम से? जब मन्दिर का कोना टूट जाए तो ललकार दीजिए ठेठ भगवान को ही कि जरा खुद-बखुद मरम्मत तो करवा लें। नए मन्दिर बनाने की तो बात ही दूर रही। वह कोना तब तक टूटा का टूटा ही रहेगा जब तक किसान का पैसा और उसका हाथ उसमें न लगे। यदि कोई मन्दिर भूकम्प से,   या यों ही अकस्मात गिर गया हो और भगवान उसी के नीचे दब गए हों तो उनसे कह दीजिए कि बाहर निकल आएँ,   अगर शक्तिमान हैं। पता लगेगा कि जब तक गरीब लोग हाथ न लगायें तब तक भगवान उसी के नीचे दबे कराहते रहेंगे। चाहे मरम्मत हो,   या नए-नए मन्दिर बनें। सभी केवल कमाने वालों के ही पैसे या परिश्रम से तैयार होते हैं।
    आगे बढ़िए। गंगा को तीर्थ,   मन्दिर को मन्दिर,   जगन्नाथ धाम को धाम किसने बनाया है? किसके चरणों की धूल की यह महिमा है कि तीर्थों,   मन्दिरों और धामों का महत्त्व हो गया? किसने गोबर को गणेश और पत्थर को विष्णु या शिव बना डाला? क्या अमीरों और पूँजीपतियों ने? सत्ताधारियों ने? यदि नंगे पाँव और धूल लिपटे किसान-मजदूर गंगा में स्नान न करें,   उन्हें गंगा माई न मानें,   मन्दिरों में न जाएँ,   जगन्नाथ और रामेश्वर धाम न जाएँ तो क्या सिर्फ मालदारों के नहाने,   दर्शन करने या तीर्थ यात्रा से गंगा आदि तीर्थों,   मन्दिरों और धामों का महत्त्व रह सकता है? उनका काम चल सकता है? गरीबों ने यदि बहिष्कार कर दिया,   तो यह ध्रुव सत्य है कि राजे,   महाराजों और सत्ताधारियों की लाख कोशिश करने पर भी गंगा और तलैया में कोई अन्तर न रह जाएगा,   मन्दिर और दूसरे मकान में फर्क न होगा और धामों या तीर्थों की महत्ता खत्म हो जाएगी। उन लोगों के दान-पुण्य से ही मन्दिरों और धामों का काम और खर्च भी नहीं चल सकता,   यदि गरीबों के पैसे-धोले न मिले। जल्द ही दिवाला बोल जाएगा और पण्डे पुजारी,   मन्दिरों,   तीर्थों और धामों को छोड़ के भाग ही जाएँगे।
    यह तो करोड़ों गरीबों के नंगे पाँवों में लगी धूल,  चरण रज की ही महिमा है। यह उसी का प्रताप है कि वह जब गंगा में पहुँच के धुल जाती है तो वह गंगा माई कहाती है,   जब मन्दिरों में वही धूल पहुँच जाती है,   तो वहाँ भगवान का वास,   पत्थर को भगवान और गोबर को गणेश कहते हैं,   जब वही धूल जगन्नाथ और रामेश्वर के मन्दिरों में जा पहुँचती है,   तो उनकी सत्ता कायम रहती है और उनकी महिमा अपरम्पार हो जाती है। गरीबों के तो जूते भी नहीं होते। इसीलिए तो उनके पाँवों की धूल ही वहाँ पहुँच के सबों को महान बनाती है।
    कहते हैं कि महादेव बाबा खुद तो दरिद्र और नंग-धड़ंग श्मशान में पड़े रहते हैं। मगर भक्तों को सब सम्पदाएँ देते हैं,   उन्हें बड़े बनाते हैं। पता नहीं,   बात क्या है किसी ने ऑंखों देखा नहीं। मगर ये किसान और कमाने वाले तो साफ ही ऐसे महादेव बाबा हैं कि स्वयं दिवालिये होते हुए भी ईश्वर तक को ईश्वर बनाते और खिलाते-पिलाते हैं।
    ईश्वर सबको खिलाता-पिलाता है ऐसा माना जाता है सही। मगर किसने उसे हल चलाते,   गेहूँ,   बासमती उपजाते,   गाय-भैंस पाल के दूध,   घी पैदा करते,   हलवा-मलाई बनाते तथा किसी को भी खिलाते देखा है? लेकिन किसान तो बराबर ही यही काम करता है। वह तो हमेशा ही दुनिया को खिलाता-पिलाता है। इतना ही नहीं कहते हैं कि ईश्वर तो केवल भक्तों को ही खिलाता और पापियों को भूखों मारता है। वह अपनों को ही खिलाता है। इसलिए वह एक प्रकार की तरफदारी करता है। मगर किसान की तो उलटी बात है। यह तो जालिमों और सतानेवाले जमींदारों,   साहूकारों और सत्ताधारियों को ही हलवा,   मलाई खिलाता है और खुद बाल बच्चों के साथ या तो भूखों रहता,   या आधा पेट सत्तू,   सूखी रोटी खाकर गुजर करता है। ऐसी दशा में असली भगवान तो यही किसान ही है।
    चाहे और दुनिया माने,   या न माने। मगर मेरा तो भगवान वही है और मैं उसका पुजारी हूँ। खेद है,   मैं अपने भगवान को अभी तक हलवा,   मलाई का भोग न लगा सका,   रेशम और मखमल पहना न सका,   सुन्दर सजे-सजाए मन्दिर में पधारा न सका,   मोटर पर चढ़ा न सका,   सुन्दर गाने बजाने के द्वारा रिझा न सका और न पालने पर झुला सका। मगर उसी कोशिश में दिन-रात लगा हूँ,   इसी विश्वास और अटल धारणा के साथ कि,   एक न एक दिन यह करके ही दम लूँगा,   सो भी जल्द।
    जिसे अपना जीवन सफल बनाना हो वह सब काम छोड़ के इस महान एवं पवित्रतम कार्य में मेरा साथ दे। मुझे अपने जैसे पुजारियों की जरूरत है। मैं ऐसे पुजारी नहीं चाहता जो सुन्दर-सुन्दर पदार्थों को केवल भगवान को दिखला के खुद गटक जाते हैं और भगवान ताकते ही रह जाते हैं। वह पुजारी बने ही सिर्फ इसलिए हैं कि भगवान के बहाने उन्हीं के नाम से स्वयं सुख भोगें और गैरों से प्रणाम करवाएँ। इसीलिए मैं अपने भगवान को इतना तैयार कर देना चाहता हूँ कि वे ऐसे पुजारियों के और दूसरों के हाथों से भी जबर्दस्ती छीनकर खुद खा जाए। तभी पुजारी नामधारियों को और अन्य धोखेबाजों को भी होश होगा। मैं असली पूजा करना कराना और देखना चाहता हूँ, न कि नकली। नकल से ऊब चुका हूँ।
    ऐसी दशा में यह कहना कि भगवान इन किसानों के कष्टों को दूर करेगा और आराम देगा,   यदि उसकी इच्छा हुई,   कैसे उचित और सही माना जाए? जो अपनी ही खैरियत नहीं मना सकता और जिसका काम किसानों के बिना चल नहीं सकता,   वही भला,   किसानों का बेड़ा पार उतारेगा। इसलिए उन्हें भाग्य और भगवान के भरोसे न रह के उसका खयाल तक भी मन में नहीं लाना होगा। उन्हें तो अपनी ही शक्ति और अपने ही बल से अपनी रोटी हासिल करनी होगी। भाग्य और भगवान का भरोसा तो धोखा है और उससे बचना जरूरी है।

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