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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें

तीसरा भाग 

7

वर्ग चेतना प्राप्त करें

किसानों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह सदा व्यक्तिगत स्वार्थ की ही ओर अपनी दृष्टि रखते हैं। असल में हजारों वर्षों से समाज में उनकी रहन-सहन ही कुछ ऐसी है कि खामख्वाह उनमें व्यक्तिगत भावना तथा दृढ़ संस्कार का हो जाना अनिवार्य हो गया। एक तो छोटे-बड़े गाँवों में अलग-अलग बसते आते हैं। बिना किसी खास मौके के उन गाँवों का आपस में सामूहिक रूप से मिलना या मिल के कोई भी काम करना होता ही नहीं। इसकी न तो जरूरत ही अब तक पड़ती रही है और न उन्होंने यह बात महसूस ही की है। गाँव में भी अलग-अलग घर और जुदा-जुदा खेत, खलिहान आदि होते हैं। यदि खेत और खलिहान भी एक जगह रहते, तो भी शायद सामूहिक संगठन और मिलकर प्राय: काम करने की भावना जाग्रत होती। मगर समाज की वर्तमान रचना ही जो व्यक्तिगत सम्पत्ति के आधार पर हुई है, इसीलिए खेतों को मिलाने के बजाय पृथक् रखना ही उचित एवं जरूरी माना गया। मिलना-मिलाना तो दूर रहा। ज्यों ही एक परिवार और एक घर में मतभेद या पारस्परिक वैमनस्य हुआ कि उन खेतों के और भी टुकड़े होते गए। आज तो यहाँ तक नौबत पहुँची है कि बहुत से खेतों की लम्बाई-चौड़ाई भोजन की थाली जैसी ही व्यवहार दृष्टि से हो गई है। उनमें खेती करना बेकार-सा है। खर्च और परेशानी बहुत होती है और उपज कुछ ऐसी ही तैसी होती है।
जब तक उत्पादन के साधन सम्मिलित न हों तब तक परस्पर लोगों में असली ऐक्य भावना या संघ शक्ति उत्पन्न हो सकती नहीं। दुनिया में खाना-पीना और वस्त्राउदि सबसे जरूरी चीजें हैं। इनके लिए मनुष्य धर्म और भगवान को भी तिलांजलि देता तथा कोई भी कुकर्म कर डालता है। हाड़-मांस की देह रखने वाले जनसाधारण से दूसरी आशा करना न सिर्फ अव्यावहारिकता है, किन्तु परले दर्जे की नादानी भी है। ऋषि-मुनियों और पैगम्बरों का दृष्टान्त देकर हम मनुष्य को उसकी भौतिक परिस्थिति से अलग नहीं कर सकते। उसे माया-ममता रागद्वेष और भूख-प्यास वगैरह वैसे ही सताते रहेंगे और उसके मन के विकार कहीं भाग न जाएँगे।
जब भगवान के जपने से भी नहीं भागते तो ऋषि और पैगम्बर क्या करेंगे? और ये ऋषि या पैगम्बर आखिर हुए भी कितने? लाख या करोड़ मनुष्यों में शायद ही कोई ऐसा निकला हो। खूबी तो यह कि वे भी मौके-बेमौके अपने जीवन में चूके जरूर, भौतिक प्रवृत्तियों ने उन्हें भी पथभ्रष्ट किया जरूर। उन्हें इस चूक का ज्ञान फौरन हो गया और साफ-साफ उनने स्वीकार भी कर लिया जरूर। मगर इससे असलियत बदल नहीं गई। प्रत्युत भौतिक परिस्थितियाँ मनुष्य को जरूर ही मजबूर करती हैं यह सिद्धान्त और भी पक्का हो गया। मालूम होता है कि काम, क्रोध, भूख, प्यास वगैरह प्रवृत्तियाँ बड़े जबर्दस्त घोड़े हैं, जो तभी तक दबे रहते हैं जब तक समाधि या ध्या न की सख्त लगाम इन पर लगी रहती है। मगर ज्यों ही वह ढीली हुई कि घोड़े राह से बेराह हुए। मामूली लगाम तो ये कुछ समझते ही नहीं और सख्त लगाम तो करोड़ों में शायद ही किसी के पास हो। वह अकसर ढीली हो ही जाती है। इसीलिए तो युधिष्ठिर भी झूठ बोल गए, राम ने भी छिप के बाली को मारा जिसके लिए फटकार सुननी पड़ी और पराशर, विश्वामित्र, ब्रह्मा प्रभृति भी एक न एक दिन चूक ही गए।
इसलिए हमें तो व्यावहारिक मनुष्य बन के वैसी ही बातें करनी और वैसा ही रास्ता सोचना है, जो दुनियावी लोगों के काम का हो। आदर्शवाद के पीछे भूलना और उसे ठीक रास्ता मान लेना परले दर्जे की नादानी होगी। यह वैसा ही करना होगा जैसा कि सधवा के सिर में सिन्दूर देख के विधवा का अपना सिर फोड़ लेना। पाँचवाँ सवार बनना कभी भी बुद्धिमानी की बात नहीं समझी जा सकती है। और व्यवहार दृष्टि से तो हम देखते हैं कि शरीर की रक्षा के लिए जो चीजें जरूरी हैं वे हमारे लिए सबसे बड़ी और ऊँचे दर्जे की हैं। उनके उत्पादन के जो साधन हैं उनका महत्त्व भी इसीलिए सर्वोपरि हो जाता है। देहात में कहावत है कि 'जान जाए तो जाए, मगर जीविका जाने न पाए।'' जमीन और जायदाद के लिए गंगा तुलसी उठा के प्राय: झूठी कसमें खाते हैं। खून खराबा तक भी इसलिए कर डालते हैं।
इसीलिए जीवनोपयोगी जरूरी चीजों के उत्पादन के साधन यदि सम्मिलित हों और उत्पादन के लिए उनमें सभी किसानों को सम्मिलित रूप से काम करना पड़े, तो उनमें आसानी से वर्ग चेतना, संघशक्ति की भावना और एकता की बुद्धि केवल उत्पन्न ही न हो, प्रत्युत खूब दृढ़ भी हो जाए। व्यक्तिगत स्वार्थ और व्यक्तित्व की भावना प्रबल होने न पाए और उसका स्थान सामूहिक परिवार की भावना ग्रहण कर ले। देखा जाता है कि एक ही परिवार या पिता के दो लड़के जब जुदा हो के अपनी-अपनी जीविका का उपार्जन करते हैं, तो धीरे-धीरे थोड़े ही समय के बाद वे एक-दूसरे से कतई अलग हो जाते हैं। कभी-कभी आपस में ही कट्टर दुश्मनों की तरह लड़ते भी हैं। विपरीत इसके जो लोग पहले पीढ़ियों से जुदा थे वही यदि सम्मिलित हो के खेतीबारी करने लगते हैं, तो उनमें पारिवारिक भाव, स्नेह और ऐक्य भावना प्रबल हो उठती है। शत्रुता तो कभी साधारणतया वैसी होती नहीं जैसी कि विभक्त लोगों में देखी जाती है।
परन्तु अफसोस यह है कि इस अमूल्य सिद्धान्त को पुराने लोगों ने ठीक-ठीक नहीं देखा। पुराने जमाने से सम्मिलित परिवार की बात चली आती है जरूर और इसका महत्त्व भी मानते हैं अवश्य ही। मगर व्यवहार में यह बात नहीं के बराबर ही है। अगर कहीं है भी, तो संकुचित तथा अत्यन्त सीमित है। वर्ण और आश्रम के सिद्धान्त के साथ इस सामूहिक या वर्ग की भावना का पूरा-पूरा सामंजस्य हो सकना सम्भव भी न था। किसान तो सभी जातियों, धर्मों और वर्णों के हो सकते हैं। मगर अगर उनकी एकता हो तो वर्ण और जाति का वह रूप नहीं हो सकता है जो आज पाया जाता है। आज वाला रूप विकृत है यदि ऐसा मान लें और यह कबूल कर लें कि ये विभाग कर्मों (कामों) के ही अनुसार हुए हैं जैसा कि 'गुण कर्म विभागश:' कहा भी है, तब बात कुछ दूसरी हो जाती है। मगर फिर भी वह निर्बाध तथा असीमित वर्ग चेतना के साथ मेल खा नहीं सकती।
साधनों की एकता होने पर उनसे काम लेने वाले हरेक आदमी उन्हें अपना ही समझते हैं और उन्हें बचाने की प्राणपन से चेष्टा भी करते हैं, यदि उन पर उनका स्वामित्व हो और वे उनके वश की चीजें हों। व्यक्तिगत सम्पत्ति और व्यक्तिगत खेती-बारी की दशा में जैसे सम्मिलित परिवार के हर व्यक्ति की समान रूप से उन पर ममता होती है और सभी लोग उन्हें समान रूप से अपना समझ उनकी रक्षा की पूर्ण कोशिश करते हैं, ठीक वैसे ही समस्त गाँव या अनेक गाँवों की सम्मिलित सम्पत्ति होने पर उन खेतों पर सभी की पूर्णरूपेण ममता रहती और इस प्रकार सभी एक सूत्र में अनायास बँध जाते। एक साथ काम करने और समान रूप से निजी चीज समझने से, इन कारणों से, खामख्वाह संघ-शक्ति तथा वर्ग चेतना पैदा हो जाती और वह निरूढ़ हो जाती।
दुर्भाग्य से किसानों के लिए ये दोनों ही बातें नहीं हैं। खेतों और पशुओं से जो पैदावार, या आमदनी हो और बाग वगैरह से जो फल-फूल आएँ उन्हें भले ही व्यक्तियों तथा परिश्रम के हिसाब से बाँट लिया जाए और व्यक्तिगत सम्पत्ति भी उन असली जरूरी चीजों को भले ही मान लिया जाए। क्योंकि यहाँ व्यक्तिगत सम्पत्ति मिटाने का प्रश्न नहीं है। यहाँ तो प्रसंग ही दूसरा है। मगर खेत, बाग, पशु, आदि उपज के साधनों पर सम्मिलित अधिकार क्यों न रखा जाए, यही प्रश्न है। उससे तो ज्यादा लाभ होता है। खर्च या परेशानी भी घट जाती है जरूर ही।
एक तीसरी बात और है जिससे वर्ग चेतना तथा संघशक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वह है एक ही घर में या एक ही स्थान पर निरन्तर साथ-साथ रहना। फौज के सिपाही जैसे एक ही साथ रहते और खाते-पीते हैं। या मीलों में काम करने वाले मजदूर एक ही साथ दल के दल रहते हैं। निरन्तर साथ रहने के एक-दूसरे के कष्टों को बराबर देखते और समझते हैं। सभी की पूरी दशा का रत्ती-रत्ती ज्ञान सबों को रहता है। कोई बात किसी से छिपी नहीं रह जाती। जंगल में रहने वाली गायों और दूसरे मवेशियों के बारे में यही अनुभव है कि उनमें एक प्रकार की संघ भावना जाग्रत हो जाती है। फलत: खूँखार जानवरों का हमला होने पर सभी मिल के सामना करते या कम से कम करने की कोशिश करते हैं। चरवाहों के साथ भी उनका खास प्रेम देखा जाता है। क्योंकि वे निरन्तर साथ रहते हैं और शीत, आतप, वर्षा के साथी भी होते हैं। साथ में रहने वाले पशु एक-दूसरे को प्रेम से चाटते भी देखे जाते हैं। इसलिए एक साथ काम करने के अलावे साथ में रहना वर्ग चेतना की उत्पत्ति का जरिया जरूर है। काम करने के समय के बाद ही तो परस्पर सुख-दु:ख की बातें कर सकते हैं। काम के समय फुर्सत ही कहाँ रहती है? मगर यह बात भी किसानों में पाई नहीं जाती। अलग-अलग मकानों में एक-एक परिवार रहते हैं। एक परिवार में भी रहने और सोने के जुदे-जुदे मकान होते हैं। बैरकों की तरह रहने का मौका ही नहीं लगता।
पंचायती या सम्मिलित खेती की जो बात कभी-कभी सुनाई पड़ती है वह यदि किसानों के दिमाग में घुसे, तो कम से कम उत्पादन के साधन तो एक बन जाएँ, सम्मिलित बन जाएँ। फलत: पहले बताए दो कारण वर्ग चेतना के लिए अनायास ही प्रस्तुत हो जाएँ। जब रेवड़ा का सत्याग्रह चल रहा था तभी यह बात अकस्मात् सूझी। वहाँ कुछ मजबूरी भी थी। सभी परिवारों के लोग जेल में थे और खेती सभी के लिए जरूरी थी। अलग-अलग करने में दिक्कतें ज्यादा थीं। खेत भी तो न बँटे थे। पहले का बँटवारा तो खत्म ही था। अभी तो लड़कर उन पर अपना अधिकार जमींदार के द्वारा कबूल करवाना बाकी ही था। चन्दे के पैसे से ही काम भी करना था। फिर तो एक ही साथ क्यों न सब के लिए ऊख वगैरह की खेती कर दी जाए, यह प्रश्न खामख्वाह आया था। जरा-सा खयाल करने और समझा देने पर सत्याग्रह के बाद भी किसानों ने पंचायती खेती का महत्त्व समझ लिया और वे राजी भी हो गए। मगर उसमें पूँजी की जरूरत पड़ी। कानूनी अड़चनें भी थीं। इस प्रकार देखा गया कि एकता होने से सम्मिलित खेती और उस खेती से उस एकता तथा वर्ग-भावना की दृढ़ता यह दोनों बातें एक-दूसरे के अधीन हैं।
अब तक जो विवेचन किया गया है और कारण बताते गए हैं उन्हीं के चलते आज तो किसानों में इस वर्ग-भावना तथा श्रेणी के ज्ञान (class cousciousness) का इतना अभाव है कि कहा नहीं जा सकता। साधारण आदमी तो इस दशा का अनुभव करके ही घबरा जाता है, जा सकता है। एक ही जमींदार गाँव के सौ किसानों को पागल किए हुए है और सभी उससे पनाह माँगते हैं सही। मगर मिल के उसके खिलाफ खुद कोई उपाय नहीं करते हैं। यहाँ तक कि यदि किसान सभा, या उसके नेताओं के पास भी जाना और अपना दु:खड़ा सुनाना हो तो भी अकेले ही जाएँगे। एक-एक करके आगे-पीछे सभी पहुँचेंगे। मगर एक साथ नहीं। एक घर के लोगों को यदि किसी ने मारा-पीटा और किसी के सामने फरियाद करना हुआ तो एक ही साथ सभी बोलेंगे, चिल्लाएँगे। मगर गाँव-भर की फरियाद एक साथ हरगिज न करेंगे।
इतना ही नहीं। वह तो यह भी समझते हैं कि यद्यपि बीमारी उनकी एक ही है, क्योंकि एक ही जमींदार और उसके अमले उन्हें तबाह करते हैं, फिर भी उसकी दवा अलग-अलग होगी और भिन्न-भिन्न प्रकार की होगी। हमने दर्द के साथ देखा है कि यदि दो चार किसान संयोगवश एक ही साथ हमारे पास पहुँच गए और उन्हें अपना दु:ख सुनाना पड़ा तो आतुर हो जाते हैं कि पहले हमीं सुनाएँ, हमीं सुनाएँ। आखिर कोई बुखार, या दूसरी बीमारी तो है नहीं कि अलग-अलग सुनाने की जरूरत हो। वहाँ तो एक ही बात है, एक ही तकलीफ सबको है। असल में उनके भीतर व्यक्तिगत भावना और स्वार्थ इस कदर घर कर गए हैं कि दूसरे की बात, पड़ोसी की उसी बात को भी अपनी बात मान नहीं सकते। वह अत्यन्त संकुचित दृष्टि के बन गए हैं। यदि कहें कि वह 'अपनी नाक के आगे देख नहीं सकते' तो ठीक होगा।
यह तो सभी को मालूम है कि और किसान भी रोज ही इसका अनुभव करते हैं कि बीमारी की दवा खुद ही खानी पड़ती है। तभी वह रोग हटता है। दूसरे के दवा खाने से और की बीमारी नहीं हटती। जिसे भूख लगी हो उसे ही खाना चाहिए। जिसे प्यास हो वही पानी पिए। तभी भूख और प्यास मिटेगी। दूसरे के खाने-पीने से औरों की क्षुधातृषा नहीं मिटती। औरों के लेक्चर और उपदेश से भी न तो भूख ही जाती है और न रोग ही हटता है। ऐसी हालत में जमींदारों, या साहूकारों के जुल्मों से जब सभी तबाह हैं, परेशान हैं तो उपाय भी सभी को ही करना पड़ेगा, उन्हीं को जो पागल और परेशान हैं और लूटे जा रहे हैं। किसान नेताओं और किसान सभा के उपाय करने से वे सुखी न होंगे। उपाय बताना सभा का काम है, नेताओं का फर्ज है। जैसे वैद्य और डॉक्टर का काम है सिर्फ दवा बता देना। मगर रोगी को जैसे दवा खानी होती है, ठीक उसी प्रकार जुल्मों से बचने का उपाय जान के उसे करना किसान ही का काम है।
यह भी पक्की बात है कि मौका पड़ने पर किसान सब कुछ कर भी डालता है। फिर भी जाने क्यों ऐसा विश्वास किए आता है कि नेता या किसान सभा कोई उपाय कर देगी कि जमीन मिल जाएगी, या तकलीफें भाग जाएँगी। अजीब मनोवृत्ति है। जीवन-भर ही नहीं। वंश परम्परा से महादेव बाबा और ठाकुरजी की पूजा करते रहे, देवी माई और गौरैया बाबा का सेवन करते रहे। फिर भी नतीजा कुछ न हुआ, उलटा ही हुआ। गरीबी और दरिद्रता बढ़ती ही गई, जमींदारों तथा अधिकारियों की नादिरशाही तरक्की ही करती गई और जमीन भी छिन गई। तो क्या किसान सभा और नेता ठाकुर जी, शिवजी और दुर्गा माई से भी बड़े या प्रभावशाली हैं, कि फौरन कष्टों को हटा देंगे? किसान को यही सोचना चाहिए। मगर इस ओर तो उसका ध्या न ही नहीं। असल में 'आरत के चित रहत न चेतू' वाली बात है। मगर यह मनोवृत्ति घातक है और इसे दूर करना ही होगा। जब तक यह रहेगी वर्ग चेतना या संघशक्ति का प्रश्न ही उठ नहीं सकता।
जब सरकार या जमींदार से अपना हक लेना है, या स्वीकार करवाना है, तो यह मानी हुई बात है कि उन्हें मजबूर किए बिना काम नहीं ही चलेगा। जब तक वे लोग विवश न होंगे, यह न समझेंगे कि किसान का हक हड़पने से अब काम न चलेगा प्रत्युत बाधा होगी तब तक वे क्यों मानेंगे? हक कोई हलवा, मलाई नहीं है जो यों ही रखा है और ले के धीरे से गले के नीचे उतार लिया जाएगा। वह तो लोहे का चना है जिसे चबाना और हजम करना टेढ़ी खीर है। 'वीर भोग्या वसुन्धरा' के अनुसार तो जमीन उन्हीं लोगों के पास रहती है जो बहादुर हैं। जान हथेली पर ले के सिर पर कफनी बाँधो फिरते हैं और हक के लिए सब कुछ करने को हर घड़ी तैयार रहते हैं। तभी तो उनसे जालिम लोग थर्राते हैं। मगर फिर भी आसानी से नहीं झुकते जब तक दो-दो हाथ हो न जाए, जब तक किसान एक-दो बार उनसे जम के भिड़ न ले और अपनी शक्ति का परिचय उन्हें दे न दे। यही संसार का नियम है।
शोषक तो समझे बैठे हैं कि किसान मुर्दा है, वह शक्तिहीन है, वह कुछ भी कर नहीं सकता है। सैकड़ों वर्षों तक बराबर उनके सामने झुकता जो आया और एक बार भी तन के खड़ा जो न हुआ। इसलिए उनकी यह घोषणा बलवती हो गई है। जमींदार या साहूकार के एक अमले या लठधार को देखकर बराबर गाँवों में जो भगदड़ मचती रही है उसी ने इन शोषकों में हिम्मत ला दी है। फलत: वे खामख्वाह जुल्म करना चाहते हैं, ऐसा करने में उन्हें मजा आता है।
आखिर पाँव से दबने पर चींटी भी काटती है। मारिए तो मामूली कुत्ता भी गुर्राता है। धूल बहुत ही तुच्छ है सही। मगर पाँव से उसे मारिए तो ठेठ सिर पर जा चढ़ती है। मगर किसान तो उस धूल से भी गया गुजरा बन गया है। लात-जूते खाता और अपमान पर अपमान की कड़वी घूँटें पी जाता है। फिर भी चूँ तक नहीं करता। फिर मुर्दा नहीं तो जानदार इसे कौन कहेगा? और मुर्दे के साथ सलूक भी कैसा करते हैं? नीचे और ऊपर सूखी लकड़ी रख के बीच में उसे रखते और जला देते हैं। बीच-बीच में बाँस से ठोंकते जाते हैं। या कब्र में गाड़ देते हैं। किसान के साथ भी ठीक वैसा ही किया जा रहा है। अगर वह चाहता है कि यह व्यवहार बदले, तो उसे अपने जिन्दा रहने का सबूत देना ही होगा। एतदर्थ उसे सबसे पहला काम तो यही करना होगा कि सर झुकाने, या जुल्मों को बर्दाश्त करने से साफ इनकार दे। जब तक उसमें चेतना ही नहीं है, तब तक वर्गचेतना का सवाल ही कहाँ?
कहते हैं, पुराने जमाने में जब रेलें न थीं और न कोई सुरक्षित सवारी सफर के लिए मिल सकती थी उसी समय एक घटना हुई। कहीं सुदूर विदेश में रहके किसी ने कुछ धन कमाया। जब घर चलने का विचार किया तो सोचने लगा कि यह धन कैसे ले चलूँ। चोर चाईं छीन ही लेंगे। डाकखाने वगैरह का प्रबन्ध भी नहीं कि उसी के जरिए भेज के खाली हाथ ही रवाना हो जाऊँ। बड़ी दिक्कत थी। अन्त में अब पैसे का कोई कीमती पत्थर, हीरा वगैरह, भुना लिया और एक चिथड़े में बॉंध कर फटे पुराने वस्त्रज पहने हुए रवाना हो गया। भिक्षावृत्ति से गुजर करता चला जाई रहा था कि किसी काइयाँ ठग का खयाल उस पर चला गया। वह उसके पीछे लगा। कई दिनों के बाद न जानें कैसे उसने पता पा लिया ठीक-ठीक कि इसके पास हीरा जवाहर जरूर है। अब किसी प्रकार उसे छीनने की फिक्र उसे पड़ी। इधर उस आदमी की हालत यह थी कि जब कहीं तालाब वगैरह पर स्नान आदि करता था तो सुनसान घाट पर ही, जहाँ कोई भी नहाता-धोता न था। क्योंकि आदमियों की भीड़ में शायद किसी की नजर पड़ जाए और हीरे को हड़प ले। ठग ने भी उसकी यह दिनचर्या जान ली थी।
एक दिन सवेरे रास्ते के पास ही एक तालाब के सुनसान घाट पर ही मुर्दा बन के वह ठग पड़ गया। सिर्फ इस आशा से कि वह आदमी जरूर ही यहीं आ के नित्यकर्म करेगा। हुआ भी ऐसा ही। वह वहीं आया और मुर्दे को पड़ा देख समझ गया कि यहाँ कोई और आएगा ही क्यों? फिर यह सोच के कि यदि कोई आया भी तो मुर्दे के पास न जाएगा, उससे उसी मुर्दा बने ठग की छाती पर ही हीरे वाला फटा कपड़ा रख दिया और स्वयं पाखाने चला गया। फिर भी उठ-उठ के देखता रहा कि उधर कोई आता तो नहीं है। पाखाने से आया भी न था कि धीरे से ठग ने हीरा खोल के मुँह में डाल लिया और मुर्दे की तरह पड़ा ही रहा। पाखाने से लौट के उसने हाथ धोया। जब कपड़ा उठाया तो उसमें हीरा नदारद। अब तो उसे चीरो तो खून नहीं। सर्वस्व गायब। उसने सोचा कि आखिर ले कौन गया? कोई आया तो नहीं ही। मैं तो बराबर देखता ही था, हो न हो इसी मुर्दे ने लिया है, यह मुर्दा है नहीं।
फिर उस मुर्दे को उसने इधर-उधर खूब ही उलटा पलटा और घसीटा। मजबूत जवान था। इसलिए उठा-पटक भी की। मगर वह तो पक्का ठग था। उसने साँस भी न ली। जब उस आदमी ने पास का बड़ा चाकू निकाल के उस मुर्दे का अंग-अंग काटना शुरू किया। फिर भी मुर्दा नहीं बोला। हाथों और टाँगों के खंड-खंड हो गए। फिर भी कुछ असर नहीं। ठग सोचता रहा कि यदि जिन्दा रहा तो लड़कों को तो कही आया हूँ। वे तो यहाँ आएँगे ही। उन्हें हीरा दूँगा और कहूँगा कि मुझे उठा ले चलो और मेरी सेवा करो। इसीलिए सटका पड़ा रहा। अब तो वह आदमी भी ऊब गया। अन्त में सोचा कि अब इसका गला काट के पेट चीरूँ तो शायद उसमें हीरा हो। फलत: ज्यों ही गले पर चाकू चलाने लगा कि मुर्दा हिला और उसने हीरा थूक दिया, यह कहते हुए कि छि: छि:, मैंने तो सिर्फ हँसी की थी और तुम इतने बिगड़ गए। हजरत ने जो हँसी की थी वह तो उस परदेशी को खूब ही मालूम थी। खैर, हीरा ले के वह चलता बना। उस बला की हँसी से वह बचा तो।
ठीक यही दशा किसानों और मजदूरों के शोषण एवं उत्पीड़न पर मोटे होने वालों की है। ये लोग उनकी सारी कमाई गटक जाते हैं, घोंट जाते हैं और आखिर जमीन वगैरह भी छीन लेते हैं। ये लोग उस ठग के भी दादा हैं। मगर अफसोस कि किसान ऐसा नहीं समझता है। वह तो उलटे मानता है कि प्रार्थना करने, कहने सुनने, या समझाने-बुझाने से उसकी कमाई का गटकना कुछ तो ये लोग जरूर ही बन्द कर देंगे। कम से कम जमीन तो जरूर ही वापस कर देंगे, या उसे जोतने देंगे। कैसी नासमझी है? कैसा सीधापन है। किसान का सारा परिवार, उसके नन्हे-नन्हे बच्चे एक बूँद दूध, कुनाइन की एक गोली और कपड़े के बिना तड़प के मर गए, मरते हैं। आज ही नहीं हजारों वर्षों से। और उसी की कमाई का दूध धनियों का कुत्ता पी के जूठा छोड़ देता है, जो फेंका जाता है। उसे मखमली गद्दे पर सुलाया जाता है। उस कुत्तों की बीमारी में झुण्ड के झुण्ड डॉक्टर आ के दवा करते हैं। मगर कभी यह सोचा गया कि किसान के परिवार का, उसके नन्हे बच्चों का, भी तो आखिर कुछ हक है। उन्हीं की तो आखिर यह कमाई है।
इस प्रकार की जल्लादाना हरकत आएदिन होती ही रहती है और किसान अपनी ही ऑंखों देखता रहता है। फिर भी उन्हीं लोगों पर यह विश्वास कि दया करेंगे और समझाने से मान जाएँगे? यह गलत तरीका है, यह गलत धारणा है। इसे जड़ से धोना-बहाना पड़ेगा दिल और दिमाग में यह अच्छी तरह बिठा लेना होगा, कि जैसा उस ठग के साथ मुसाफिर ने किया तब कहीं उसे शेरा मिला, उससे भी ज्यादा सख्त सलूक जब तक न किया जाएगा, वैसा सख्त सलूक करने के लिए जब तक किसान कमर न बॉंध लेंगे तब तक न तो ये शोषक सुनेंगे ही और न जमीन ही मिलेगी। उसके पहले शोषण और उत्पीड़न बन्द होने की आशा महज नादानी है। यही धारणा, यही चेतना, वर्ग चेतना की जननी है। इसके बिना किसानों में वर्गचेतना आ सकती नहीं और इस धारणा के बाद उसे कोई रोक भी नहीं सकता। उसे भी खामख्वाह किसानों में आना ही पड़ेगा। दूसरा रास्ता है भी नहीं।
किसी एकाध पर ही छुरी नहीं चलानी है कि इक्के-दुक्के किसान कर लेंगे। यहाँ तो जबर्दस्त ठगों की टोली है उनका दल है, जो सर्वत्र फैला है। यह भी नहीं कि इनका गला सीधे काट लें तो हीरा मिलेगा। ऐसा होगा। इनके लड़के, बच्चे, सम्ब न्धी और अन्त में इन्हें पैदा करने वाली सरकार जब तक रहेगी तब तक वह हीरा नहीं मिलने का, जमीन नहीं मिलने की और न गेहूँ, बासमती, घी, दूध ही। इसलिए हमें यह सारी प्रणाली ही बदलनी होगी। यह जमींदारी प्रथा, यह पूँजी प्रथा और यह सरकार, इन सबों को ही, जड़मूल से खत्म करके नई दुनिया, नया समाज और नया संसार गढ़ना होगा। यह तो ठेठ समुद्र बॉंधने का काम है, उसमें पुल बनाना है। फिर लंका में रावण को जीत कर सीता को वापस लाना है। वह पुल अकेले नल और नील से न बनेगा। वह उनके बूते का नहीं है। उसके लिए कोटि-कोटि वानर- भालुओं की सेना की एकता, एक मन हो के पड़ जाना पड़ेगा।
कहते हैं किसी महाराजाधिराज के पास एक बहुत ही सुन्दर और कीमती कुत्ता था। उसे वह बहुत ही प्यार करते थे। सोने की साँकल में वह बँधा रहता और उसी को पकड़ के नौकर उसे टहलाया करते थे। रेशमी और मखमली गद्दों पर वह सोता-बैठता, जरी के कपड़े से उसका शरीर ढँका रहता, साबुन और सुगन्धित जल से उसे नहलाया करते और मिश्री, मलाई आदि पदार्थ उसे खाने को दिए जाते, अलावे तरह-तरह के मांसों के। उन्हें वह कभी खाता और कभी सूँघ के उन्हें छोड़ देता। ताजा और गर्मागर्म चीजें भोजनार्थ उसे दी जातीं। नौकरों पर करारी डाँट पड़ती जब कभी महाराज को पता लग जाता कि कुत्ता महाराज के भोग विलास में नौकरों की लापरवाही से बाधा पहुँचती है। सख्त ताकीद रखी जाती कि कुत्ते की रुचि को देखकर ही नौकर चलें और उसकी पूर्ति ठीक-ठीक की जाए। इसीलिए नौकरों के ऊपर निरीक्षक भी बहाल हुआ था। यदि एक दिन कुत्ते ने एक बार चाय न पीया, खाना न खाया तो दर्जनों डॉक्टर दौड़ पड़ते और बहुमूल्य दवाइयाँ मँगाई जातीं। कुत्ते के सोने-बैठने का मकान तो इतना सुन्दर और सजा सजाया था कि कुछ पूछिए न। लोग कहते हैं कि मरने पर स्वर्ग मिलता है। मगर कुत्ता तो स्वर्ग का सुख यहीं भोग रहा था।
एक दिन उस कुत्ते को बाहर ले जाकर कोई नौकर टहला रहा था। इतने में एक मस्तराम आ गए। नौकर ने साधु को देखा स्वभावत: दण्ड प्रणाम किया। उसके बाद महात्मा ने उनके सुख-दु:ख पूछे और उसकी कैसे कटती है यह जानना चाहा। उस गरीब ने सब हाल सुना कर कहा कि महाराज, जैसे-तैसे कटी जाती है। मगर यह भी क्या कोई जीवन है? इस पर मस्तराम ने पूछा कि भई, तुम्हारे दिल में अभिलाषा तो होगी ही। भला, तुम क्या चाहते हो यह सुनाओगे? उसने उत्तर दिया कि महात्मन्, मेरी एकमात्र यही अभिलाषा है कि मरने के बाद किसी महाराजाधिराज का ऐसा ही कुत्ता बनूँ। यह पूछने पर कि मनुष्य के जीवन से कुत्तों का जीवन पसन्द करते हो, उसने सुना दिया कि मनुष्य का जन्म पाकर मैंने क्या किया और क्या पाया? यही न इस कुत्ते की सेवा टहल में दिन-रात लगा रहता हूँ? मेरे जैसे और भी अनेक आदमी यही काम करते हैं। जब छुट्टी मिली तो साग सत्तू खाकर जैसे तैसे-दिन काटता हूँ। रहने के लिए टूटा-सा झोंपड़ा है। कपड़े की हालत तो आप देख ही रहे हैं। मेरा शरीर ही यह भी बता दे रहा है कि क्या खाता-पीता हूँ। बाल बच्चों की चिन्ता अलग ही रहती है। महाजन का कर्ज दिन-रात चट्टान की तरह छाती पर बैठा है। उसका तो कहना ही क्या? सारांश, मैं इसी जीवन में नर्क की यन्त्रणा भोग रहा हूँ।
मगर इस कुत्ते को तो भला देखिए। यह तो साक्षात् स्वर्ग का सुख ही भोग रहा है। मेरे जैसे कितने ही आदमी नामधारी इसकी सेवा में बराबर हाजिर रहते हैं। खाने-पीने, मकान, वस्त्र का तो पूछना ही नहीं। हमारी और हमारे भाइयों की ही कमाई के सभी पदार्थ इसे पहुँचाए जाते हैं जब कि कमाने वाले उनके लिए तरसते ही रह जाते हैं। चिन्ता फिक्र की तो कुछ बात ही मत कहिए। इसे न बाल-बच्चों की फिक्र है और न साहू महाजनों की चिन्ता। जमींदारी और टैक्स उगाहने वालों को भी यह क्या जाने कि कौन बला है। हम तो महाराजाधिराज के पास फटकने भी नहीं पाते। मगर यह तो न सिर्फ उनकी गोद में जा बैठता है, बल्कि उसका मुख वे बराबर चूमा करते हैं। हालाँकि उन्हें और इसे भी हलवा, मलाई हमीं गरीब मर करके पहुँचाया करते हैं। ऐसी दशा में आदमी की जिन्दगी से इस कुत्तों की जिन्दगी लाख गुनी अच्छी एवं वांछनीय है।
जब इस दुनिया में यही अन्धेर है कि कौवे पूजे जाएँ और हंस का कोई नाम भी न ले; जब यहाँ बारहों महीने और तीसों दिन पितृपक्ष ही रहता है तो फिर आदमी का जन्म किस काम का? आप तो अक्ल की बात बोलते हैं और न्याय का खयाल रखते हैं। मगर क्या इस अन्धी और पगली दुनिया में अक्ल और न्याय की गुंजाइश है? यदि गुंजाइश ही होती, तो क्या यही होता कि हमारे जैसे घी, मलाई पैदा करने वाले इस कुत्ते की सेवा करते, ताकि सत्तू भरपेट खाने को मिले? हमने जन्म भर भगवान की पूजा की। मगर मिला क्या? हमें पूछता कौन है कि किसकी पूजा करते हो? उस पूजा से तो कुत्ते की यह नौकरी, यह पूजा लाख दर्जे अच्छी है कि किसी प्रकार भरपेट, या आधा पेट भोजन तो मिल जाता है। यदि हम साक्षात् यह कुत्ता ही हो जाते, तब तो कहना ही क्या?
मस्तराम तो काफी होशियार था। वे तो दुनिया की खबर लेते फिरते थे। मगर उन्होंने भी उस आदमी से बहुत कुछ सीखा। इस बातचीत से उन्हें तमाँचे लगे। उन्होंने सचमुच ही इस उलटी दुनिया की औंधी खोपड़ी का रहस्य वहीं जाना। उन्हें यह बात साफ-साफ झलक गई कि जहाँ इस दुनिया में दिन-रात न्याय और हक की दोहाई दी जाती है वहीं न्याय का नाम भी नहीं। वहीं यह ज्वलन्त अन्याय। वहीं मानवता का यह घोर अपमान। उन्होंने उस गरीब को अपना गुरु माना और संकल्प कर लिया कि अब से केवल इसी बात का प्रचार करूँगा और यही नंगा चित्र किसानों और अन्य कमाने वालों के सामने निरन्तर रखूँगा, जिसे मेरे इस 'गुरु' ने सुझाया है। जिस प्रकार दत्तात्रेय ने अपने अनेक गुरु इसी ढंग के बनाए थे, ठीक वैसा ही उन्होंने भी किया। यदि हम किसानों के भीतर सामूहिक तथा व्यापक रूप से वर्गचेतना और संघशक्ति लाना चाहते हैं तो यह ऊपर दिखाया चित्र हरेक स्त्री , पुरुष, बच्चे के सामने रखना ही होगा। ताकि उनके मन में वर्तमान व्यवस्था और न्याय के ढोंग के प्रति प्रचण्ड असन्तोष एवं घोर घृणा पैदा हो। ताकि उनका खून इसे याद करके उबल पड़े और रह-रह के इसके वे लोग दाँत पीसें।
कहते हैं कि आवश्यकता सभी चीजों की जननी है। हजार लेक्चर दीजिए कि संगठन करो, संघशक्ति लाओ, वर्गचेतना और श्रेणी की भावना अपने आप में, सभी किसानों में, पैदा करो। मगर कौन पूछता है? कौन सुनता है? जब तक किसान को उसकी जरूरत नहीं मालूम होगी वह क्यों उसके लिए फिक्रमन्द होगा? भूख लगे बिना भोजन की चिन्ता किसे होती है? और जब भूख लगती है, तो खामख्वाह खाना ढूँढ़ लेते ही हैं। इसीलिए जब वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के प्रति उसे क्रोध होगा और फलस्वरूप इसे मिटाने को तुल जाएगा तो बिना बुलाए आपको-हमको ढूँढ़ेगा। खुद-ब-खुद ही, और सवाल करेगा कि इस अनर्थ का, इस दिन दहाड़े की लूट और कानूनी डकैती को, इस अन्धेर खाते को कैसे दूर किया जाए? वह तो बेचैन हो के पथप्रदर्शक ढूँढ़ता फिरेगा। रास्ते का पता लगाता फिरेगा। तभी आपको, हम को, किसान सभा को और नेताओं को असली मौका मिलेगा। उसे संगठित होने का उपदेश देने के लिए और यह कहने के लिए कि श्रेणीबद्ध हो जाओ। बिना इसके काम चलने का नहीं।
यह तो मानी हुई बात है कि हमें न तो जमींदार नामधारी जीव को मिटाना है और न उसके अमलों और नौकरों को। यह ठीक है कि कष्ट वही देते हैं जो जमींदार, या उसके अमले हैं। आदमी का जी भी सहसा यही चाहता है कि उन्हें मिटा दें। मगर विचार करना तो होगा। ऐसा काम कर लेना निरी नादानी होगी। हमें इस बीमारी के तह के भीतर पहुँचना होगा और रोग का ठीक निदान करके उसके मूल पर आघात करना होगा। पिलही होती है पेट में और रह-रह के ज्वर आता है उसकी के चलते। ज्वर की दवा की जाती है यह हम जानते हैं। मगर वह तो अच्छा हो-हो के फिर चला आता है। इसीलिए कुशल वैद्य और डॉक्टर उसकी जड़ का पता लगा के उसे ही खत्म करना चाहते हैं। पुलिस के दरोगा और अफसर के जुल्म को देख के उसे ही मिटाने में कोई बुद्धिमानी नहीं है। वह तो मर जाएगा। मगर उसकी जगह दूसरा आदमी बहाल होगा। जो सम्भव है, उससे भी बढ़ के शैतान हो, और फिर वही जुल्म। आखिर कितने आदमियों को हम मिटाएँगे और खुद मिटेंगे? क्योंकि एक को मिटा के हम बच नहीं सकते। खुद भी हमको मिट जाना ही होगा। यह तो बेवफा की होगी। हमारे जैसे ज्यादा लोग तो हैं नहीं। और जब हमीं मिटे तो फिर जुल्म तो रही गया, रही जाएगा।
अतएव उस जुल्म की जड़ को ही क्यों न देखें। पता लगेगा कि वह शासन व्यवस्था और सरकार ही ऐसी है जिसका काम जालिम दारोगा के बिना चली नहीं सकता। इसीलिए तो जोई अफसर आता है उसे ही मजबूरन जुल्म करना ही पड़ता है। क्योंकि वह तो समझता है कि 'वह हुजूर का नौकर है, न कि बैंगन।' वह न्याय का नौकर नहीं है, किन्तु सरकार का। अत: सरकार की खैरियत के लिए जो जरूरी है उसे वही काम करना ही पड़ता है। वह खुद भला से भला हो तो भी कोई बात नहीं है। 'लंका में जो जनमता है वह राक्षस होता ही है।' इसलिए तो शासन व्यवस्था को ही बदलना लाजिमी है। क्योंकि 'एक ही साधे सब सधै।' फिर देखेंगे कि वही अफसर अच्छा हो जाएगा और जुल्म का नाम भी न लेगा।
ठीक उसी प्रकार यदि जमींदार या उसके अमले मर मिटें तो वे खत्म न होंगे। नए-नए पैदा होते ही रहेंगे, पुरानों की जगह पर आते ही रहेंगे, जब तक जमींदारी रहेगी, या जमींदारी पैदा करनेवाले रहेंगे। सन् 1793 ई. की 22वीं मार्च को जिस सरकार ने इस जमींदार को विधिवत जन्म दिया वह मौजूद ही है, जमींदारी की जननी मौजूद है। इसलिए जमींदारी मिट के भी पुन: पैदा हो सकती है। जब तक जननी में जननशक्ति मौजूद है। अतएव जमींदारी को तो मिटाना ही होगा। मगर उसी के साथ वर्तमान शासन प्रणाली को भी मिटा के ऐसी प्रणाली कायम करनी होगी। जो भीतर, बाहर, सर्वत्र किसानों के ही अनुकूल हो, किसानों और मजदूरों (श्रमजीवियों) की ही फिक्र करती हो। उसे चाहे किसान मजदूर राज्य कहिए, या जनता का राज्य। उसे ही आगे चलकर समाजवाद कहिए या साम्यवाद। हर हालत में कमानेवालों के हाथ में शासन सूत्र लाना ही होगा। तभी ये कष्ट दूर होंगे। न कि जमींदारों, उनके अमलों या सरकारी अफसरों के मार डालने मात्र से।
इस प्रकार जिनसे हमें लड़ना है और हक छीनना है। उनकी एक श्रेणी है, एक जाति है, एक धर्म है, जिसे जमींदारी कहते हैं। यह जमींदारी ही जमींदारों और उनके अमलों की श्रेणी है। उनका वर्ग है, उनका क्लास है। आदमी की तो वहाँ असल में कोई अपनी हस्ती नहीं है। वह तो उसी जमींदारी की मशीन का एक पुर्जा मात्र हो जाता है फिर चाहे वह जमींदार हो, उसके बाल बच्चे हों, या अमले फैले। पुर्जे का तो काम ही होता है मशीन को ठीक रखना और उसके निर्बाध चलने में मदद करना। जो पुर्जा ऐसा न हो वह उसमें लगाया ही नहीं जा सकता, उसमें लग सकता ही नहीं, उसमें फिर हो सकता नहीं और जो फिर हो जाता है उसके हजार चाहने पर भी वह मशीन रुक नहीं सकती। किन्तु चलती ही रहती है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही किया जा सकता है कि वह उस मशीन से निकाल दिया जाए और उसकी जगह दूसरा लगा दिया जाए।
जमींदार का यदि विश्लेषण करें तो मालूम हो जाएगा कि मनुष्य और जमींदारी को मिला देने से वह बनता है, वह दोनों का सम्मिलित रूप है। इनमें मनुष्य का रूप तो वही है जो किसान में या औरों में पाया जाता है। हजार गौर करने और विचारने के बाद भी उसमें कोई विशेषता नजर आती नहीं है; वही भूख, प्यास, वही त्रास और डर, वही लज्जा, वही बीमारियाँ वगैरह उसमें भी हैं, जो किसान में। इसलिए मनुष्य की हैसियत से किसान की अपेक्षा न तो उसका कोई जुदा वर्ग है और न किसी विशेष प्रकार के सलूक का अधिकारी ही वह माना जा सकता है। यदि किसान को जान से मार डालना हम उचित नहीं समझते और न भूखों रखना, तो उसको कैसे समझेंगे, बहैसियत मनुष्य के? यदि मानवता के प्रति होनेवाले ज्वलन्त अपमान को मिटाना हमारा धयेय है, यदि सचमुच ही मानव समाज को हम सुखी बनाना चाहते हैं, तो उसका अपमान कैसे करें, या उसे दु:खी क्यों बनाएँ जब कि मानव होने के नाते उसमें भी मानवता उतनी ही है जितनी किसान में, या दूसरों में? उसके बाल बच्चों को भूखों मारने की बात हम कैसे सोचें जब कि किसानों के बाल बच्चों को भर पेट अच्छा खाना खिलाना चाहते हैं? उन्हें भिखमंगे बनाकर भिक्षुकों की एक नई सेना खड़ी करने की बात हमारे दिमाग में क्यों आए जब हम पहले से ही मौजूद गरीबों और भिक्षुकों का नाम नहीं रहने देकर उन्हें सुखी-सम्पन्न बनाना चाहते हैं? असल में इस बात पर अच्छी तरह विचार कर लेना और बात को खूब समझ लेना जरूरी है।
सवाल हो सकता है कि यदि वे आदमी हैं तो राक्षस और पिशाच की तरह व्यवहार क्यों करते हैं? भरी सभा में जिस प्रकार द्रौपदी को नंगी करने की चेष्टा हुई ठीक उसी प्रकार मानवता को नग्न करके उस पर ऐसी दशा में वे कोड़े क्यों लगाते हैं? यदि उनमें मानवता होती तो ऐसा क्यों करते? क्या अपनी चीज के साथ भी कभी किसी की ओर से ऐसी बदसलूकी और हृदयहीनता का व्यवहार होता है? बात तो सही है और क्रोध भी तो उन पर इसीलिए होता है। बात यह है कि जमींदार में मनुष्य के अलावा जो दूसरा भाग जमींदारी वाला है उसी के करते ऐसा कुकर्म, ऐसा अनाचार और ऐसी हृदयहीनता का काम वे कर डालते हैं। जब आदमी शराब पी के मतवाला होता है तो अपनी बहू-बेटी के सामने भी नंगा होकर नाचता और उसकी इज्जत उतारने में नहीं हिचकता। पागल हो जाने पर तो हरेक आदमी कुछ भी कर सकता है। रावण भी तो आखिर वेद-वेदांग पढ़ा-लिखा ब्राह्मण ही था। सो भी बहुत बड़े ऋषि का पोता। मगर कौन सा कुकर्म उससे बचा था? नशे की हालत में मनुष्य अपने आपको भूल जाता है, अपने भीतर निवास करनेवाली मानवता देवी को देख नहीं सकता, पहचान नहीं सकता। फिर औरों में रहनेवाली को क्यों कर पहचाने और देखे? यह जमींदारी पिशाची, यह मदिरा उसे मनुष्य से पशु और इनसान से हैवान बना डालती है। खूबी तो यह है कि इस चीज को वह समझ भी सकता नहीं। जैसे शराबी शराब को पसन्द करता, जी जान से और उससे लिपटता है, ठीक वही दशा जमींदार की है। वह इस पिशाची को, इस मदिरा को छोड़ना नहीं चाहता। किन्तु सारी ताकत लगा के इससे लिपटना चाहता है। आखिर वह मदिरा ही क्या जो बेहोश और विवेक भ्रष्ट न करे? इसी से तो उसकी अलग श्रेणी, उसका पृथक् वर्ग और जुदा दल बन गया, और इस प्रकार मानवता के दो विभाग हो गए।
यह जमींदारी विशुद्ध बुराई है। इसमें जरा भी शकशुबहा नहीं। यह स्वयं बुराई ही है, न कि इसमें बुराई रहती है। यह बुराई से जुदा कोई चीज ही नहीं है कि कोशिश करके सुधारी जा सके। जैसे चोरी, व्यभिचार आदि बुराइयों को सुधार नहीं सकते, किन्तु उन्हें एकमात्र मिटा देना ही चाहिए। सुधार तो चोर, व्यभिचारी आदि आदमियों का भले ही कर सकते हैं, यदि उनसे चोरी आदि छुड़ा सकें। ठीक उसी प्रकार जमींदारी को जड़-मूल से नष्ट करके ही जमींदार को सुधारने की कोशिश कर सकते हैं। चोर में चोरी के रहते जैसे वह सुधार नहीं सकता, वैसे ही जमींदारी के रहते जमींदार को सुधारने का खयाल जगे हुए ही स्वप्न देखने के बराबर ही है। यह ठीक है, जमींदारी मिटाने के बाद जमींदार तो भीगे कुत्ते से भी बदतर हो जाता है। यही कारण है कि यदि यह जमींदारी बड़े से बड़े महात्मा को भी सौंपी जाए, तो या तो वही रही नहीं सकती और खत्म हो जाएगी, या महात्मा को ही खत्म करके पापात्मा बना छोड़ेगी। यह सम्भव नहीं कि वह भी रहे और महात्मा भी बने रहें। यदि ईश्वर को जमींदार बना दें, तो वह सबसे ज्यादा जालिम हो जाएगा। आदमी को तो कुछ डर रहता है, समाज का, कानून का और नर्क या परलोक का भी। इसीलिए वह कभी-कभी जुल्म करने में हिचकता भी है और फूँक-फूँक के पाँव भी देता है। मगर ईश्वर को तो किसी का डर, भय या लज्जा नहीं। इसलिए वह तो खुल के होली खेलेगा। वह तो किसानों में आतंक राज्य कायम कर देगा यदि कहीं वही जमींदार बन जाए।
इस प्रकार इस जमींदारी पिशाची की भीषणता तथा बीभत्सता का चित्र सामने आ जाता है और इसने जिस जमींदार वर्ग को जन्म दिया है उसकी भी क्रूरतम करनी और नृशंसता प्रकट हो जाती है। मगर किसानों का जो क्रोध जमींदारी के ऊपर न हो के जमींदार पर ही होता है और उस क्रोध का कभी-कभी शिकार जो वह जमींदार ही हो जाता है वह तर्क और दलील के आधार पर उचित न होने पर भी स्वाभाविक ही है और उसे सर्वथा बन्द किया जा सकता भी नहीं। जन साधारण का कुछ ऐसा स्वभाव ही होता है कि वे बुराई को उसके करने वाले से अलग नहीं कर सकते। खासकर जब वह बुराई ऐसी घृणित और बीभत्स हो कि उसके स्मरण से ही रोमांच हो जाए, तब तो अलग करना और भी असम्भव हो जाता है। फलत: सारा क्रोध उस बुराई के माथे उतारने के बजाय बुराई करने वाले के ही सर उतरता है। एक तो बुराई होती ही है यों खटकने वाली और अगर वह बीभत्स हो, तब तो कहना ही क्या? तब तो गोया काले को कम्बल ही ओढ़ा दिया गया। यह भी बात है कि उस बुराई को करने वाले से अलग कहीं पाते नहीं कि उसे जुदा समझें। वह तो उसी में लिपटी हुई मिलती है। इसलिए भी वह आदमी ही क्रोध का शिकार बनता है। इसे कतई रोका भी कैसे जा सकता है? यत्न करके इसमें कमी की जा सकती है। जब तक सूक्ष्म विवेक की दृष्टि सभी मनुष्यों में न आए यह विभाग वह कर कैसे सकते हैं? दूध में का पानी अलग करना सबका काम नहीं है। वह तो केवल हंस का ही बताया जाता है और सभी पक्षी तो हंस होते ही नहीं। उसी प्रकार सभी आदमियों को, या सभी किसानों को सूक्ष्म विवेकी बना सकना कम से कम आज तो असम्भव है। इसीलिए हजार कोशिश करें तो भी जमींदारों के माथे उनका क्रोध कुछ न कुछ जरूर ही उतरेगा, यह मानना ही होगा। हमें व्यावहारिक बनना होगा, न कि हवा में उड़ान मारना कथमपि उचित है। उसमें खामख्वाह प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए यह बात दूहैरी है और इस पर जोर भी दिया जा सकता है।
इस समूचे विवेचन से यह बात साफ हो गई कि जमींदारों की एक अलग श्रेणी कैसे और क्यों बनी है, वे क्यों जुल्म और अत्याचार करते हैं, अनवरत शोषण करते हैं। असल में यही उनका रूप ही है। हमने यह भी देख लिया कि यह श्रेणी कितनी भयंकर, नृशंस और हृदयहीन है यह कितनी खतरनाक और खूँखार है, तथा किस दर्जे तक विवेक भ्रष्ट एवं मतवाली है। किसानों को उसी श्रेणी से, उसी दल से निपटना है, न कि व्यक्तिगत जमींदार से, यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। व्यक्तिगत जमींदार तो केवल निमित्त मात्र हैं। क्योंकि व्यक्तियों को छोड़ के श्रेणी का स्वतन्त्र पता तो कहीं मिलता नहीं कि उससे लड़ें। साथ ही, जमींदार वर्ग की यह नीति भी है कि एक ही साथ सबके सब न लड़ें। नहीं तो किसान भी मिल जाएँगे और एक ही साथ हो के भिड़ेंगे। वे किसानों में वर्ग चेतना और श्रेणी का भाव आने देना नहीं चाहते। इसीलिए एक साथ प्रत्यक्ष हमला नहीं करते। किन्तु व्यक्तिगत रूप से कभी यहाँ और कभी वहाँ। कभी एक जमींदार का हमला होता है, तो कभी दूसरे का।
जमींदारों की अपनी हालत यह है कि ऊपर से चाहे उनमें जाति, धर्म, सम्प्रदाय, प्रान्त आदि का भेद हो, लेकिन भीतर से वे एक हैं और उनका एक सुसंगठित दल है। उस दल में काफी वर्गचेतना और श्रेणी की भावना है, संघ शक्ति है। एक जमींदार सुदूर दक्षिण का और दूसरा नेपाल की तराई का, या काश्मीर के पहाड़ों का ही क्यों न हो, दोनों का स्वार्थ एक ही है, ऐसा वे मानते हैं। गो कि प्रान्तों के कानून तो जमीन के बारे में भिन्न-भिन्न हैं। जमीन के बन्दोबस्त की प्रणाली (land tenure) भी जुदी-जुदी है। एक जगह दवामी बन्दोबस्त है, दूसरी जगह नहीं। फिर भी उनके पारस्परिक स्वार्थ एक हैं ऐसा सभी मानते हैं और यदि किसान कहीं भी सिर उठावे तो सभी बेचैन हो के उसे दबाने की आवाज एक ही साथ उठाते हैं। एक जमींदार ने यदि सीमाप्रान्त में किसानों के खिलाफ आवाज उठाई, तो आसाम के जमींदार उसकी हुऑं में हुऑं खामख्वाह मिलाएँगे। बात यहाँ तक कि यदि उन्हें मालूम भी न हो कि असल बात क्या है, तो भी आखिर जमींदार ही तो बोलता है और हम भी जमींदार ही हैं। इसलिए हमें भी उनकी आवाज में अपनी आवाज मिलाना ही होगा। वे यह पता भी नहीं लगाना चाहते, पता लगाने के लिए रुकना भी नहीं चाहते कि किसान की ज्यादती है, या जमींदार की। पता उनकी बला लगाए। उनके लिए तो इतना ही काफी है कि एक जमींदार ने चीख-पुकार मचाई है और किसान के खिलाफ उसकी यह शिकायत है। इसी का नाम है वर्गचेतना।
भैंसे और घोड़े की आपस में अदावत होती है और वे लड़ते हैं। यह शत्रुता श्रेणी या वर्ग की है। वहाँ कोई भैंसा पूछने थोड़े ही जाता है कि घोड़े ने कोई जोर जुल्म किया है, या नहीं। वह तो स्वभावत: ही उस लड़ाई में पड़ जाता है। यही बात जमींदारों और शोषकों की है। उनका विरोध किसानों के साथ वैसा ही स्वाभाविक है। जिस तरह बकरी को देखते ही बाघ उछल पड़ता है और उस पर धावा बोल देता है। ठीक वैसा ही जमींदार भी करते हैं। यदि विचार करें तो बकरी, या गाय का कोई भी दोष नहीं वह तो घास खाने वाले पशु हैं और बाघ खाता है मांस। वे पशु गाँवों में रहते हैं और बाघ जंगल में। इसलिए अदावत और हमले का कोई कारण है नहीं सिवाय इसके कि बकरी कमजोर होती है। वह बाघ का खाद्य भी है। यही बात किसान के बारे में भी है। वह कमजोर है और जमींदार का खाद्य है। इससे ज्यादा आक्रमण के लिए और कारण चाहिए ही क्या?
परन्तु किसानों की हालत ठीक उलटी है। वे जाति, पाँति, धर्म, सम्प्रदाय, गाँव, जिला, प्रान्त आदि अनेक बन्धनों से जकड़े हुए हैं। फलत: उनमें वर्ग चेतना आती ही नहीं। जिस प्रकार नारंगी के भीतर कितने ही टुकड़े होते हैं। फिर भी ऊपर से पता नहीं चलता कि वे अलग-अलग हैं, यहाँ तक कि छिलका हटाने पर भी नहीं मालूम होता। मगर वस्तुत: वे पृथक-पृथक होते ही हैं। वही हालत किसानों की है। पास पड़ोस में रहने और एक जाति, या धर्म का सम्बहन्ध होने पर भी वे जुदा-जुदा ही रहते हैं। वह तो महज ऊपरी एकता और निकटता है। उस काम चलने का नहीं। चन्द्रमा और चकोर एक-दूसरे से बहुत दूर रहते हैं। कभी-कभी तो बादल के पर्दे में चाँद छिप भी जाता है। फिर भी भीतर से दोनों अत्यन्त निकट हैं, दिल से मिले हुए हैं। इसे ही मिलना कहते हैं कि एक के प्रति दूसरे की भावना सदा बनी रहे, चाहे दोनों पास हों या दूर। जिस प्रकार जमींदारों की एकता में और उनकी वर्ग भावना में उनका एक-दूसरे से फासला या धर्म, सम्प्रदाय आदि बाधक नहीं हैं, ठीक वही बात यदि किसानों में भी हो, तो काम चले। वही होना जरूरी है।
हम तो जाति और धर्म की एकता को खतरनाक एवं धोखे की चीज भी मानते हैं। ऐन मौके पर इनसे किसानों को धोखा हो सकता है, धोखा होता है। हम तो आर्थिक बातों और स्वार्थों की एकता चाहते हैं, जैसे जमींदारों की है। हर किसान यह समझे कि किसान मात्र का आर्थिक स्वार्थ एक है। कोई कानून ऐसा नहीं बन सकता, जो हिन्दू के लिए और हो और मुस्लिम के लिए दूसरा हो। वह तो धर्म और जाति का खयाल कतई नहीं करता। जमीन, लगान वगैरह का कानून भी सभी के लिए एक है चाहे हम भले ही आपस में कोई तीर घाट जाएँ और कोई मीर घाट। इसलिए हम किसानों को भी उसी आर्थिक एकता के आधार पर श्रेणीबद्ध होना चाहिए और परस्पर में वर्गचेतना लानी चाहिए कि हमारे लिए कानून एक है, व्यवस्था एक है। इसीलिए हम सभी एक हैं। हमारे स्वार्थों में कोई भी अन्तर नहीं। उन्हें हृदय से यही समझना तथा यही मन्त्रए जपना पड़ेगा।
जमींदारों से लड़ने में भी यही बात है। जैसे वे लोग श्रेणीबद्ध और वर्गचेतना वाले हैं, यदि किसान उनसे हजार गुना ज्यादा श्रेणीबद्ध एवं वर्गचेतना वाले न हों, तो उनका मुकाबला करेंगे कैसे? अगर मुकाबला जैसे-तैसे कर भी लें, तो पछाड़ेंगे उन्हें कैसे? जमींदारों में पूर्ण जागृति, संगठन और वर्गभावना के साथ ही उनका बाहरी प्रभाव भी ज्यादा है। उनके पास धन-सम्पत्ति भी अपार है। सरकार भी उनकी ही सुनती है। समाज भी उन्हीं की बात पर विश्वास करता है। दुनिया ही ऐसी अन्धी है कि धन, प्रभुत्व और व्यवहार कुशलता जहीं हो वहीं वह ईमानदारी और सच्चाई भी मानती है। वह धनियों को ही धर्मरक्षक और सच्चे समझती है । हालाँकि बात ठीक उलटी है सरकार तो मालदारों और स्थिर स्वार्थवालों (Visted interests) की ही है। इसलिए वह भी उन्हीं की ओर आसानी से झुक जाती है। वह भी उनकी ही मदद करती है।
इसका जवाब गरीब, सीधे, प्रभुत्वहीन, प्रभावरहित किसान कैसे देंगे? वे सफलता के साथ जमींदारों और शोषकों को पछाड़ेंगे कैसे? उनके पास आखिर लड़ाई का सामान हई क्या यदि उनमें जीती जागती एकता और वर्गचेतना न हो? जब तक किसान मात्र यह न समझ ले और अपने दिल दिमाग में यह बात बिठा न ले, कि हम सभी एक हैं और हमारा स्वार्थ इसी में है कि हम मिलकर रहें, तब तक कैसे काम चलेगा? जब तक किसान का मर्द, उसकी स्त्रीि और उसके बच्चे, हरेक यह न मानेंगे और उनके भीतर यह तड़पन होगी कि यदि एक किसान हारा तो हम सभी हारे, यदि एक का खेत गया या वह लुटा तो निश्चय ही हम सबों का खात्मा हो जाएगा, क्योंकि 'बुढ़िया के मरने का डर नहीं है, असल डर है यम का रास्ता खुल जाने का, '' तब तक उनका निस्तार नहीं हो सकता। हजार कोस दूर रहने वाले किसान के बच्चे ने ज्योंही सुना कि जमींदारों के साथ किसी किसान की मुठभेड़ है, त्यों ही उसने दौड़ के फौरन यदि अपने बड़े-बूढ़ों को यह बात सुना दी और वे तैयार न हो गए कि हमें उस किसान की धन, या जन से जैसे हो मदद फौरन करनी ही होगी, और जब तक उनकी उस तैयारी में उनकी स्त्रियों का भी हार्दिक अनुमोदन न हो, तब तक किसानों की वर्ग चेतना कैसी? तब तक उनकी विजय की आशा कहाँ? हम भूखे रहेंगे, हमारा पूजापाठ छूटेगा तो छूटेगा, हम कपड़ा न पहनेंगे, हमारे पितरों का पिण्डा पानी भले ही रुके। मगर सुदूरवर्ती किसान जो युद्ध यज्ञ कर रहा है वह हमारे ही लिए है, हमारा ही है। इसलिए उसमें हमारी तरफ से 'पत्र पुष्प'की आहुति सबसे पहले पड़ ले, पीछे और कुछ होगा। यह बेचैनी और यह लगन जब तक किसान मात्र के दिल में न हो, उसके बच्चे-बच्चे तक में न पाई जाए, तब तक न तो उनका उद्धार होगा और न उनमें असली चेतना और न जागृति ही मानी जाएगी।
जैसे जब तीर्थ करने के लिए चलते हैं तो वहाँ अपना परिचित कोई नहीं होता। परिचय बुद्धि से तो हम उस काम में पड़ते ही नहीं। किन्तु कर्तव्य बुद्धि से ही। ठीक उसी तरह यदि कहीं भी किसानों की लड़ाई जमींदार या सरकार से चलती हो और यह खबर मिल जाए कि वे शोषकों से भिड़ें हैं, तो हर गाँव और हर परिवार से किसान लोग उसे तीर्थ समझ वहाँ के लिए चल पडे फ़ौरन। हजार बाधा पड़ने पर भी न रुकें। तब तो निश्चय ही किसानों का त्राण हो जाएगा। यदि बीमारी या किसी और बाधा के चलते न जा सकें तो डाक से कुछ धन ही भेज दें, लोगों से संग्रह करके ही पहुँचाएँ और यदि यह करने में भी असमर्थ हों तो बराबर विजय की प्रार्थना ही करें, तो बेशक किसान राज्य जल्दी ही कायम हो जाए। लोग पूछें कि कहाँ चलें तो उत्तर मिले कि तीर्थ यात्रा है। किसान फलां जगह लड़ते हैं, हम वहीं जा रहे हैं उसमें सम्मिलित होने के लिए ही। यह नया तीर्थ बना है, जो पुराने तीर्थों का भी उद्धार करेगा।
यदि कोई कहे कि वह किसान क्या तुम्हारे सम्ब न्धीर हैं जो जा रहे हो दौड़े दौड़ाए? तो चटपट उत्तर मिले कि सम्बेन्धीभ की बात क्या? सम्ब न्धीे तो हमारे किसान मात्र ही हैं। वह किसान तो हमारे लिए ही लड़ रहे हैं। इसलिए हम अपनी निजी लड़ाई में जा रहे हैं। तभी किसानों के दु:ख भागेंगे और वे विजयी होंगे।
यदि कोई जमींदारों और शोषकों का दलाल खामख्वाह सवाल उठाए कि तुम हिन्दू हो और वह किसान मुसलमान हैं, या यों कहें कि तुम्हीं मुसलमान हो और वह हिन्दू; या यह कि तुम ब्राह्मण, क्षत्रियादि हो और वह अस्पृश्य, हरिजन, अहीर, कुर्मी आदि; या तुम्हीं हरिजन आदि हो और वही ब्राह्मणादि; फिर तुम्हें क्या पड़ी है कि बेतहाशा घर बार का काम छोड़ के दौड़े जा रहे हो? तो फौरन मुँह तोड़ उत्तर मिले, जैसा कि पाँच वर्ष के अबोध बालक ध्रुव ने नारद आदि को दिया था।
जब विमाता के द्वारा किए गए प्रचण्ड अपमान से दग्ध हृदय ध्रुव अपनी माँ की राय से उस अपमान का परिशोध करने के लिए जंगल की ओर तप के वास्ते चला, तो रास्ते में नारद ने उसे समझाया-बुझाया और डराया कि नादान बच्चे हो, मत जाओ, जंगल में खूँखार जानवर खा जाएँगे। इस पर ध्रुव ने उनकी ओर एक बार घृणापूर्ण दृष्टि से देखा और हँस दिया। फिर कहा कि चलो, चलो, तुम्हारे जैसे ऋषि-मुनि हमने बहुत देखे हैं। मुझे तो अपना संकल्प पूरा करना है। मैं तुम्हारी बातों में पड़ने का नहीं।
किसान भी ठीक-ठीक वैसा ही कह दे और हँस दे घृणापूर्ण हँसी। साथ ही कड़क के सुना दे कि जब विवाह, शादी, गमी या भोज की बात होगी तो जाति और धर्म का पता पूछेंगे, या जब पूजापाठ का प्रश्न आएगा तो मन्दिर और मस्जिद, या हिन्दू-मुसलमान की बात छेड़ेंगे। आज तो यह बात छेड़ना तो मोहन भोग में कंकड़ी डालना है। छि: छि:। आज तो हम शादी, गमी और पूजापाठ, या स्वर्ग-नरक सभी की जड़ को ठीक करने जा रहे हैं। क्योंकि यदि जमीन ही न रही, तो खाना-पीना गया और 'भूखे भजन न होय गोपाला'। फिर यह असमय की तान तो आप छेड़ रहे हैं और हमें समझाने चले हैं उसके लिए धन्यवाद। जाइए, अब ज्यादा न छेड़िए। नहीं तो दबी आग उमड़ जाएगी। जब ऐसा उत्तर किसानों की ओर से मिलने लगे तो आधी लड़ाई खत्म हो गई ऐसा समझिए।
हमारी बदकिस्मती ऐसी है कि किसान अभी तक जमींदारों पर और उनके अमलों पर भी विश्वास करता है। वह दिल से मानता है कि यदि वे खुश हो जाएँ तो उसकी जमीन वापस देंगे और उस पर होने वाले जुल्म कम हो जाएँगे, खत्म हो जाएँगे। उनके आगे बढ़ने में यही सबसे बड़ी अड़चन है। उनमें अपनी नासमझी के करते कुछ ऐसा परस्पर विरोध है कि हैरत में आना पड़ता है। एक ओर तो निश्चय ही उन्हीं को लूट कर जमींदार मोटे होते हैं और वह लूट बन्द करने के लिए लड़ना ही होगा। बिना लड़े-भिड़े सिर्फ हाथ जोड़ने से ही कहीं लूट भी बन्द होती है? वह तो इस तरह और भी आसान हो जाती है। क्योंकि तब तो लुटेरे को कोई भी खटका रही नहीं जाता। और अगर दया की बात ही होती तो वह लूटने आता ही क्यों? यदि किसानों पर जमींदार दया करें, तो रहेंगे कहाँ और खाएँ, पीएँगे क्या? तब तो धीरे-धीरे किसान देना ही बन्द कर देगा। जब उसे नहीं अंटता तो उन्हें दे कैसे?
कहते हैं कि वर्षा की मूसलाधार में एक साधु किसी अमीर के बैठके में आया और हाथ जोड़ के छाये में खड़ा हो गया कि पानी छूटने पर चला जाऊँगा। वर्षा देर तक होती रही। अत: बैठ गया। फिर टाँग भी उसने फैलाई और अन्त में सो गया। पीछे तो उसका हटाना कठिन हो गया। उसने उस जगह पर दावा ठोंक दिया। ठीक यही दशा किसान क्यों न करेंगे? आखिर देंगे क्यों? कानून और रूढ़ि के करते जब तक ऐसा करते हैं, तभी तक। ज्यों ही वसूली में ढिलाई हुई कि सब कमाई उनके पेट में चली जाएगी। और न बचेगा और न देंगे। इसीलिए यहाँ दया का प्रश्न हई नहीं। किन्तु लड़ाई का ही सवाल है। फिर भी यह समझते हुए भी वे समझाने-बुझाने पर विश्वास रखते हैं और चाहते हैं कि किसान सभा वाले जमींदारों को कह-सुन कर ठीक के दें और जमीन वगैरह दिला दें। दिल से वे ऐसा मानते और चाहते हैं। यही तो बुरी बात है।
अजीब हालत है। बकरी से कहिए कि वह सिंह की दया पर विश्वास करे, तो क्या वह ऐसा करेगी? उसे तो कुछ बताना पड़ेगा ही नहीं। बाघ को ज्यों ही उसने देखा कि भड़की। उसके पास फटकेगी भी नहीं, चाहे हजार कोशिश कीजिए। वह तो जान लेकर उससे बहुत दूर भागेगी। बाघ के हाथ में एक माला दे दीजिए और गले में भी हजारिया माला पहना दीजिए; उसके अंग-अंग में चन्दन और भभूत पोत दीजिए, गाँधी टोपी और खादी से भी उसे ढँक दीजिए और कह दीजिए कि खूब ऑंसू बहाए, बकरियों की असहाय अवस्था पर तर्स खाए, लम्बे लेक्चर दे और उनके उद्धार की बातें करे, मगर बकरी तो सुनेगी भी नहीं। यदि धोखे से कहीं उस घर में आ जाए जहाँ बाघ मौसा हों, तो देखते ही बेतहाशा भाग निकलेगी। बिल्ली के सम्बहन्ध में चूहों की भी ठीक यही मनोवृत्ति है। कुत्तों को जो लोग शहरों में मारते फिरते हैं उन्हें दूर से देख के ही वे भूकना और भागना शुरू करते हैं। हालाँकि सूरत शक्ल से हमें (इन्सानों को) पता भी नहीं लगता कि ये बधिक महाराज हैं। मगर कुत्तों को उनसे कोई गन्ध सी मालूम हो जाती है सो भी दूर से ही।
यही नैसर्गिक वर्ग-भावना और यही वर्ग-शत्रु के प्रति स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसे कभी सिखाना नहीं पड़ता। यह तो खुद-ब-खुद होती है। मगर मनुष्य तो बहुत गिर गया है। उसकी अनेक स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ विलुप्त हो गई हैं। इसीलिए उसे सिखाने की जरूरत पड़ती है। इसीलिए किसान को भी सिखा के तैयार करना होगा। पीछे तो उसके वंश में यह बात स्वाभाविक-सी हो जाएगी।
लोग श्रेणी सामंजस्य (Class-Collaboration) की बातें बका करते हैं। क्या बकरी और बाघ तथा चूहे और बिल्ली में श्रेणी-सामंजस्य सम्भव है? क्यों? इसीलिए न कि इनमें एक-दूसरे को खा जाने वाला है? इसीलिए जिस मकान में बाघ या बिल्ली को रखिए उसमें बकरी या चूहा न घुसेगा। आप बाघ या बिल्ली के पंजे और नाखून भले ही काट दें, जबड़ों को भी तोड़ दें और अंग-अंग में मजबूत साँकल से जकड़ के उन्हें बॉंध भी दें। फिर भी बकरी और चूहे की हिम्मत ही न होगी की वहाँ जाएँ। उनका स्वाभाविक भय कौन हटाएगा? क्या वह जकड़ने वाली साँकल? कदापि नहीं। वह अक्ल के ठेकेदार इनसान को भले ही धोखे में डाल दे। मगर उन पशुओं को नहीं डाल सकती। यदि आप बकरी और चूहे को उनके पास ले जाएँगे तो वे मर जाएँगे , पर टिकेंगे नहीं। क्योंकि और नहीं, तो बाघ यदि बकरी पर और बिल्ली चूहे पर कहीं गिर ही जाए, तो भी उन गरीबों का तो खात्मा ही समझिए। इसलिए उनकी स्वभावसिद्ध प्रवृत्ति उन्हें ऐसा सिखाती है कि पास में फटके ही न।
तो फिर शोषकों के पास किसान क्यों जाए? क्या बाघ से उनमें कोई विशेषता है? क्या उसी प्रकार किसान उनके खाद्य माने जाते नहीं हैं? तो क्या कोई दैवी अधिकार जमींदारों को मिला है कि कमाएँ किसान और खाएँ वे और उनके कुत्ते? क्या इसका सबूत है कहीं? उलटा क्यों न हो कि वही लोग कमाएँ और किसान खाएँ? लोग कहते हैं कि दूसरे की कमाई खाने पर अगले जन्म में बैल या गधा बनकर भरना पड़ता है। कहीं ऐसा न हो कि अगले जन्म में जमींदारों, साहूकारों और सत्ताधारियों को गधा और बैल, तथा किसान को पुन: किसान और धोबी बनना पड़े। इसलिए तो उचित यही है कि अब तक उनने किसानों की कमाई खाई। अब उनकी कमाई किसान खाएँ और इस प्रकार यहीं पर ऋण चुकता हो जाए। क्या तुम्हें पसन्द होगा? यदि न भी हो तो किसान आखिर करेंगे ही क्या? जमींदारों आदि से पुराना सम्बखन्धय होने के कारण अगले जन्म में होनेवाले उनके कष्टों को मिटा देने के लिए इसी जन्म में वे उन्हें विवश करेंगे ही कि वे लोग कमाएँ और किसान खाएँ। अब तक भूल से जो विश्वास उन पर करते थे वह अब न करेंगे।
यदि कहा जाए कि यदि बकरी बाघ को और चूहा बिल्ली को विवश नहीं कर सकता तो किसान भला कैसे जमींदार आदि को मजबूर कर सकेंगे? यह तो केवल मनोमोदक और सपने का स्वराज्य होगा। एक ओर तो उन्हें इस प्रकार नाचीज और कमजोर बताना और दूसरी ओर बलवान का काम करने की आशा करना, यह अजीब घपला है। अगर वे ऐसा कर लें, तो फिर किसान बकरी या चूहे कैसे हुए?
बात तो ठीक ही है। मगर दलील करनेवाले भूल जाते हैं कि हम संघशक्ति, वर्ग चेतना और श्रेणी संगठन की बात कर रहे हैं। जो बात एक, दो या दस, बीस के लिए असम्भव है वही संघबद्ध होने पर अत्यन्त आसान हो जाती है। एक-दो, या सौ-दो सौ पुआलों से हाथी को हरगिज बॉंध नहीं सकते हैं। वह तो सभी को बात की बात में तोड़े देता है। मगर उन्हें ऐंठ के एक-दूसरे में अच्छी तरह मिलाइए और उनकी रस्सी बना दीजिए। फिर देखिए कि हाथी बँधा जाता है, या नहीं। पहले पुआल या तो अलग-अलग थे, या यदि मिले भी तो नाम मात्र को ही। वे एक-दूसरे के साथ परस्पर चिपके और बँधे न थे, जिसे संघबद्ध होना कहते हैं। और जब आप ही परस्पर न बँधो, तो गैर को, हाथी को कैसे बाँधोंगे? दूसरों को बॉंधने के पहले खुद-ब-खुद आपस में बँधा जाना और चिमट जाना होगा ताकि उन्हें कोई पृथक् न कर सके। यही वर्ग चेतना का असली रहस्य है।
बाघ और बकरी, या बिल्ली और चूहों की ही बात लीजिए। ठीक ही है, लाखों बकरियों को एकेवाद दीगरे बाघ मौसा और करोड़ों चूहों को बिलाई मौसी भोग लगा जाती है। यह रोज की बात है। लेकिन यदि केवल सौ-दो सौ बकरियाँ, या चूहे एक राय और एक बुद्धि से तय कर लें कि रोज-रोज की आएदिन की बला को हमें जैसे हो खत्म करना ही है, तो फल क्या होगा? वे एक ही साथ संघबद्ध हो के मौसा जी और मौसी जी पर जा पड़ेंगे। फिर तो दोनों की हड्डियों का भी पता न चलेगा। हो सकता है, मौसा-मौसी उन पर झपटें और दो-चार की जानें भी जाएँ। मगर सैकड़ों और हजारों के मार और नोच-खसोट से ही उन दोनों की ऑंतें तक पिस जाएँगी और सब बखेड़ा ही खत्म हो जाएगा।
ठीक इसी प्रकार श्रेणीबद्ध और सुसंगठित हो जाने पर जमींदारों या और शोषकों को चें में बुलाना और उन्हें विवश करना, पछाड़ना किसानों के लिए आसान है। दूसरे उपाय से यह असम्भव है। असल में इसका दूसरा उपाय हई नहीं। इसी चीज से तो जमींदार बचना चाहते हैं। यही खतरा तो वह देखते हैं और इसीलिए तो एक साथ सभी किसानों पर हमला करते नहीं। बगुला भगत की तरह एक-एक करके सभी मछलियाँ खा जाते हैं, न कि एक ही बार सबको खाने की कोशिश करते। लेकिन किसानों को तो उनकी यह चाल समझनी ही होगी। हमारा यह फर्ज है कि उन्हें यह चीज बखूबी समझा दें।
इस वर्गचेतना के मामले में जरा और भी तह में घुस के देखना और तदनुसार ही अमल करना होगा। असल में तो दुनिया में दो ही पक्की और असली जातियाँ हैं। बाकी सभी जातियों और धर्मों के भेद या तो पेट भरने के बाद की चीजें हैं, या धोखे की टट्टियाँ हैं, जिन्हें शोषकों ने जानबूझ के पैदा किया है। यदि पैदा न भी किया हो, तो उनका उपयोग तो अपने लिए खूब ही किया है और उन्हें ऐसे साँचे में ढाला है कि जिससे किसान और कमानेवाले कभी श्रेणीबद्ध एवं संगठित न हो सकें। वे दो असली जातियाँ हैं कमानेवालों की और खानेवालों की। दो ही प्रकार के लोग संसार में हैं भी। एक तो कमानेवाले किसान और मजदूर और दूसरे इन दोनों की कमाई को हड़पने और खानेवाले जमींदार और पूँजीपति। तीसरी जाति, तीसरी श्रेणी, या तीसरा दल वस्तुत: हई नहीं। असल में खानेवालों की हमेशा कोशिश रहती है कि कमानेवाले कभी एक राय तथा संघबद्ध होने न पाएँ। नहीं तो गजब हो जाएगा और सारा मजा ही किरकिरा हो जाएगा। हिन्दू किसान सभा, हिन्दू मजदूर सभा और मुस्लिम किसान सभा, मुस्लिम मजदूर सभा आदि जितनी चालें हैं वह शोषकों और उनके एजेण्टों की ही हैं।
पहले तो उन लोगों ने सीधे ही धर्म और जाति के नाम पर कमाने वालों को आपस में मिलने देना नहीं चाहा और इस प्रकार भेदनीति के सहारे अपनी ओर अपने अन्नदाताओं की लूट जारी रखना चाहा। मगर जब उन्हें उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिली और इधर जमाने की गड़बड़ी तथा परिस्थिति के करते किसान और मजदूर अपनी-अपनी सभाएँ करने लगे, तो शोषक और उनके दलाल घबराए। फिर खूब सोच साच के यह दूसरा रास्ता निकाला। पता नहीं कि इसमें भी विफल होने पर क्योंकि विफल तो अवश्य ही होना है, वे कौन सा तीसरा रास्ता निकालेंगे। खुदा और भगवान का तो बँटवारा कर ही डाला है। हिन्दू रोटी, हिन्दू पानी, हिन्दू शर्बत और मुसलिम रोटी, मुसलिम पानी और मुसलिम शर्बत भी कर ही चुके हैं। जहाँ नहीं भी कर पाए थे, वहाँ भी सरकार ने और उसकी रेलवे आदि ने कर ही दिया है। अब तो हवा का बँटवारा बाकी है। इन भलेमानुसों को यह नहीं सूझता कि हिन्दू का धन, गेहूँ, दूध, घी, दूसरा और मुसलमान का दूसरा नहीं होता। यह भी नहीं होता कि रोटी या भात बना दिया जाए, तो जिससे मुसलमान का पेट भरेगा उससे हिन्दू का न भरेगा। ऐसा भी नहीं देखा कि हिन्दू को बुखार और हैजा कुछ और ही तथा उसकी दवा दूसरी ही होती है और मुसलमान की बीमारियाँ एवं उनकी दवाइयाँ भी निराली ही होती हैं। मलेरिया से पीड़ित मुसलमान क्या किसी और तरह की कुनाइन की गोली से अच्छा होता है और हिन्दू दूसरी ही तरह की गोली से? क्या हिन्दुओं के लिए कपड़े बनाने की मशीनें जुदा ही होती हैं और मुसलमानों के लिए अलग ही बनती हैं? आखिर पागलपन की भी कोई हद होनी चाहिए।
यह सब तो निरी वंचकता और ठगी है। भोले भाले किसानों और मजदूरों को, कमानेवालों को, ठगने के लिए ही ये सब जाल बनाए गए हैं। ताकि वे एक सूत्र में बँधा न सकें। कहते हैं कि 'चतुर दुश्मन उपाय से नाशै।' यही बात यहाँ हो रही है। पण्डित और मौलवी सीधे लोगों को बहका के स्वयं अलग सुरक्षित स्थान में जा घुसते हैं और उन्हें आपस में मारने काटने और मरने कटने देते हैं। पण्डित कहता है कि म्लेच्छ से बचो, सजग रहो, देखो वह गौमाता का वध करता है। यदि उसका वध करो तो सीधे स्वर्ग चले जाओगे और अगर एक साथ कइयों का वध कर दिया तो स्वर्ग से भी दस कदम आगे पहुँचने में कोई शक नहीं। इसी प्रकार मौलवी कहता है कि काफिरों से बचो, वह मस्जिद के सामने बाजा बजा के खुदामियाँ को भगा देते और नाखुश कर देते हैं। वह इस्लाम के दुश्मन हैं। उन्हें मारो तो बेरोक-टोक बहिश्त में जा बैठोगे। इसके बाद दोनों ही अलग जा बैठते हैं और बेचारे गरीब हिन्दू- मुसलमान किसान और मजदूर आपस में कट मरते हैं।
कोई भी उन पण्डितों और मौलवियों से नहीं पूछता है कि क्या तुम लोगों को स्वर्ग और बहिश्त नहीं जाना है? क्या तुम्हें वहाँ का टिकट नहीं कटाना है? क्या हम गरीबों ने ही ठेका लिया है? यदि जाना है, तो आगे-आगे चलो और लड़कर रास्ता दिखाओ। पीछे हम जैसा देखेंगे करेंगे। मगर तुम लोग तो अलग बैठ के हलवा मलाई और कबाब पुलाव उड़ाओ और हमीं लोग मरें-मारें यह अब न होने का। यदि स्वर्ग और बहिश्त के बिना तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता है, तो हमारी कौन सी खर्ची उनके बिना घटी जाती है कि हमीं फिक्रमन्द हों तुम्हारे लिए भी और तुम्हारे स्वर्ग तथा बहिश्त के लिए भी? यदि तुम्हें पहले फिक्र अपनी जान की और हलवा, कबाब की है, तो हमें भी अपनी जान और रोटी की चिन्ता पहले है। पीछे स्वर्ग और बहिश्त को देखेंगे। यही एक मात्र राजमार्ग है किसानों और मजदूरों के श्रेणी बद्ध और वर्गचेतनायुक्त होने के लिए, न कि और कोई। इसे ही शीघ्र पकड़ना होगा।
किसानों और अन्य श्रमजीवियों को यह समझ लेना होगा कि रोटी और भात, जमीन और जायदाद, वस्त्र और मकान, यही और इसी प्रकार की जीवनोपयोगी दूसरी चीजें ही हमारे लिए ध्रुवतारा हैं, मनुष्यमात्र के लिए ध्रुवतारा हैं। जैसे समुद्र के मध्‍य में पड़े हुए जहाज का, दिग्भ्रम हो जाने पर, ध्रुवतारा मार्गदर्शक बनता है, यदि पास में कुतुबनुमा न हो। फिर तो उसी को देख के जहाज अपने घाट लगता है। ठीक वैसे ही जब दैनिक जीवन में धर्म-मजहब और जाति-पाँति के नाम पर उन्हें दिग्भ्रम हो, अर्थात् बुद्धि उनकी ठिकाने न रहे, और चकराए, तो रोटी का खयाल करके ही उसे दुरुस्त कर लें। सभी लोग, यहाँ तक कि धर्म-मजहब भी, उन्हें धोखा दे सकते हैं। मगर यह रोटी कभी भी धोखा नहीं देगी। वह सीधा रास्ता बताएगी। जिस काम का नतीजा यह नजर आए कि उनकी और उनके बाल-बच्चों की रोटी छिन जाएगी, उससे हजार कोस दूर भागें चाहे वह धर्म हो, जाति हो, या साक्षात् भगवान ही क्यों न हों? वह बात हरगिज न मानें, चाहे गुरु और पीर, या ऋषि और पैगम्बर ही क्यों न कहें, जिसके चलते यह रोटी, यह भात, यह कपड़ा, यह मकान, यह जमीन छिन जाए।
जब हम धर्म के नाम पर एक-दूसरे का सिर फोड़ेंगे तो खामख्वाही हैरानी होगी, पुलिस के डर से भागते फिरेंगे, जिससे खेतीबारी और रोजी-रोजगार चौपट होगा ही, मुकदमे में घर का आटा गीला करना होगा ही और वकील-मुख्तार को पैसे दे के बाल-बच्चों को भूखों मारना ही होगा। यदि जेल में गए तो कमाना छूटेगा और रोटी के बिना मरने की नौबत भी पीछे पहुँचेगी ही। उस मारपीट से न जानें स्वर्ग और भगवान मिलेंगे या नहीं। बैकुण्ठ में सीढ़ी लगेगी या नहीं और बैतरणी में पुल बनेगा या नहीं। मगर भूखों तो मरे ही, रोटी तो छीनी गई। बस, उस काम से सम्भल जाना होगा और साफ कहना होगा कि क्षमा कीजिए। आज रोटी का सवाल है। उसे हल करने और रोटी बचाने दीजिए। पीछे हाथ-पाँव पड़के धर्म और भगवान को, स्वर्ग को मना लेंगे। अभी उसका मौका नहीं हैं। अभी हमें फुर्सत नहीं कि धर्म और भगवान को देखें।
एक पण्डित जी के पास दुर्गामाई की एक वजनदार मूर्ति थी। बड़े ही प्रेम से प्रतिदिन उसकी पूजा किया करते थे। एक दिन कहीं परदेश में चले जा रहे थे और रास्ते में ही खाने-पीने का समय हो गया। एक कुऑं मिला। उससे थोड़े ही दूर पर एक झोंपड़ी भी थी। सोचा कि यहाँ भोजन बना खा लूँ तो आगे बढ़ूँ। झोंपड़ी में देवी जी (दुर्गामाई) को और वस्त्रा दि चीजों को रख दिया। फिर सोचा कि कुएँ के पास ही खाना पका लूँ। क्योंकि झोंपड़ी में पकाने पर बार-बार पानी दूर से लाना होगा। भोजन भी बन गया। खाने की तैयारी करनी शेष थी। इतने में खयाल आया कि देवी जी की पूजा तो की नहीं। फिर उनका भोग कैसे लगेगा और बिना भोग लगाए खाऊँगा क्यों कर? इसलिए भोजन को वहीं ढँक के झोपड़ी में देवीजी की पूजा करने लगे। संयोगवश भोजन से खयाल उतर गया पूजा ही तो आखिर ठहरी।
इतने में ही एकाएक देखते हैं कि एक कुत्ता भोजन पर हमला करना ही चाहता है। पास में लाठी भी न थी और न ढेला ही। यदि एक-दो सेकण्ड की भी देर हुई कि कुत्ता रोटी ही ले भागेगा। बस, चटपट देवीजी को ही कुत्ते पर चला दिया। वह तो वजनी थी हीं। कुत्ते को कस के चोट लगी और कांय-कांय करता भागा। फिर दौड़ के पण्डितजी जी ने देवी जी को उठा लिया और पोंछा पाछा। हाथ जोड़ के प्रार्थना भी करने लगे कि महारानी जी क्षमा कीजिए। कोई उपाय न था। यदि आप को कुत्ते पर न चलाता तो रोटी ले भागता। नतीजा यह होता कि मैं भी भूखे मरता और आप भी मरतीं। आखिर आपकी इतने दिनों तक पूजा की, इसलिए न कि संकट में काम आईं? और इससे बड़ा संकट और क्या होगा कि आप और मैं, दोनों ही, भूखों मरते? यदि यह संकट आपसे न टलता, तो परलोक का कैसे टलेगा?
जिस प्रकार पण्डितजी व्यावहारिक थे। फलत: उनने देवीजी तथा धर्म की मदद से रोटी बचाई, न कि उनके लिए रोटी ही खोई, हमें भी ठीक वैसा ही होना चाहिए और स्पष्ट ही कह देना चाहिए कि यदि हम भूखों मर गए, या हमारी जायदाद ही बिक गई, तो फिर काम कैसे चलेगा? आखिर रोटी और पैसे बिना तो धर्म और भगवान का भी काम नहीं चलता। भोग कैसे लगेगा यदि रोटी न हो? मन्दिर और मस्जिद कैसे बनेंगे यदि पैसे न हों? मुल्ला और पण्डित को क्या खिलाएँगे, यदि लड़-भिड़ कर नाहक ही सब कुछ गँवा दिया? यदि रोटी के लिए, जमीन के लिए लड़ते, तो एक बात थी। मगर यह तो बैकुण्ठ के लिए लड़ना है न? इसलिए आज तो हमें रोटी बचाने दीजिए, जायदाद की रक्षा करने दीजिए। जब भूखों रह के पण्डित और मौलवी ही धर्म की रक्षा नहीं कर सकते, तो हमारी क्या बिसात है कि भूखों मर के धर्म को बचाने की धृष्टता और नादानी करें। हमने तो उन्हीं से यह भी सीखा है कि पहले रोटी, पीछे धर्म, पहले आत्मा, पीछे परमात्मा।
और धर्म के नाम पर भाई का गला काटे यह भी क्या अजीब सी बात है। सैकड़ों वर्ष के पड़ोसी आज धर्म के नाम पर एक-दूसरे के शत्रु क्यों बनें? रोटी के नाम पर हो, तो समझ भी सकते हैं। हम पहले आदमी हैं, पीछे हिन्दू, या मुसलमान। बच्चों के संस्कार और उनकी सुन्नत पेट में नहीं होती है। किन्तु जनमने के बहुत दिनों बाद। तब तक तो हम सिर्फ मनुष्य या किसान और मजदूर ही रहते हैं। पीछे संस्कार और सुन्नत हो जाने पर ही हिन्दू और मुसलमान कहे जाते हैं। मगर मनुष्य तो बने ही रहते हैं। मनुष्य ही तो धर्म का आधार है। जैसे जब दीवार या कागज पर चित्र बनाते हैं और रंग भरते हैं, तो उसमें दीवार या कागज आधार हैं। फलत: उन्हें मिटाकर चित्र बना नहीं सकते। ठीक वही बात यहाँ भी है। यदि आदमी ही नहीं रहा, तो किसे हिन्दू या मुसलमान बनाएँगे? हैवानों को, पशुओं को तो ऐसा करते नहीं। उनका तो न तो संस्कार ही होता है और न उन्हें कलमा ही पढ़ाया जा सकता। जब उन पर जाब्ता फौजदारी भी लागू ही नहीं, तो यह तथाकथित ईश्वरीय या खुदाई कानून, जिसे धर्म कहते हैं, कैसे लागू होगा? इसलिए यह तो मानना ही होगा कि धर्म की दीक्षा होने पर भी पहले वाली मनुष्यता और पूर्व का किसान रही जाता है। भला यदि इनसानियत नहीं, तो धर्म कैसा?
अब देखना यह है कि यदि धर्म से भी पहले की इनसानियत और किसानी हमें परस्पर मिला नहीं सकती, तो क्या धर्म मिलाएगा? हिन्दू के नाते परस्पर एका और मुसलमान के नाते आपस में मेल होने के पहले ही मनुष्य के नाते हम जरूर मिलेंगे। वही तो असल चीज है। वही तो पुरानी वस्तु है। और अगर धर्म या मजहब उसमें गड़बड़ी करेंगे तो हम उन्हें बेलाग छोड़ देंगे। धर्म हमारे लिए है, न कि हमीं धर्म के लिए हैं। आदमी के ही लिए धर्म है। धर्म के लिए आदमी हरगिज नहीं है। अगर घास पशु के लिए है, तो उसकी रक्षा करेंगे सही मगर जरूरत होने से पशु के वास्ते उसे खत्म भी करेंगे। ऐसा नहीं होगा कि पशु को ही घास के बचाने के लिए खत्म कर दें। यदि बकरा देवी के लिए है तो उसे दाना, घास खिला-पिला के मोटा करेंगे। उसकी सेवा भी करेंगे और यदि किसी ने उस पर हमला किया, तो उसकी रक्षा भी करेंगे। मगर एक न एक दिन देवी जी पर वह बलिदान हो ही जाएगा, न कि कभी भी उस बकरे के लिए देवीजी को ही तोड़-फोड़ देंगे। इसी तरह आदमी के लिए धर्म भी, मौका आने पर मिट सकता है, मिटाया जा सकता है। न कि धर्म की बेदी पर आदमी ही मिटे।
मगर धर्मवाले तो उलटा ही करना चाहते हैं। वह तो धर्म के लिए इनसान को ही मिटा देना चाहते हैं। यह तो कतई बन्द होना चाहिए। इसे बन्द करना ही होगा। किसने देखा कि स्वर्ग की सीढ़ी मन्दिर से ही होके और बहिश्त की मस्जिद से ही होके है और पण्डित तथा मौलवी के हाथों में ही उस सीढ़ी के द्वार वाले फाटक की कुंजी है? धर्म यदि दिल की चीज है, वह यदि आत्मा या रूह से ताल्लुक रखता है तो दिल तो केवल हिन्दू, या मुसलमान में ही नहीं है। किन्तु वह तो नास्तिक में भी है। आत्मा या रूह भी सभी में है। फिर कोई एक, हिन्दू या मुसलिम, या सिर्फ दो ही स्वर्ग की ठेकेदारी का दावा क्यों करें? वह दावा दुरुस्त भी कैसे मान जाए? भगवान यदि दिल को देखते और इंसाफ करते हैं, तो क्या सचमुच केवल हिन्दू या मुसलमान कह के उन्हें धोखा देने की बात लोग सोचते हैं? या कि दिल की पवित्रता की कोशिश करते हैं?
यदि भगवान की यादगार और स्मरण की बात ही ठीक है, तब तो नास्तिक को ही भगवान से नजदीक समझना होगा। क्योंकि वह उनका शत्रु होने के नाते ज्यादा और ठीक-ठीक उन्हें याद करता है। मित्र तो मौके-मौके, या कम से कम सोने में भूल भी जाते हैं। मगर शत्रु तो सोते-जागते बराबर याद करता है, स्वयं भी देखता रहता है। फिर हिन्दू या मुसलमान का साइनबोर्ड लगाने से क्या मतलब? धर्म के नाम पर पड़ोसी भाई का गला भाई काटे यह इनसानियत है, या शैतानियत? क्या गाय या मस्जिद से ज्यादा कीमत आदमी की जान की नहीं है। यदि है, तो फिर इन दोनों के लिए आपस में गला क्यों कटाया जाए? यह तो निरा पागलपन है और किसानों को इससे बखूबी बचना होगा। उन्हें धर्म के साइनबोर्ड के नीचे सबसे पहले आदमी को देखना और किसान किसान सब एक हैं ऐसा मानना होगा, दिन-रात जपना होगा।
क्या धर्म के नाते और जाति के सम्ब न्ध से हिन्दू और ब्राह्मण जमींदार ब्राह्मण, या हिन्दू किसान के साथ सपने में भी कोई खास रिआयत करता है? उसी तरह क्या मुसलिम और सैयद जमींदार मुसलमान, या सैयद किसान के लगान में एक पैसा भी छोड़ता, या जुल्मों में जरा भी कमी करता है? महाराजा दरभंगा की जमींदारी में मैथिल ब्राह्मण और राजा अमावां के जमींदारी में भूमिहार ब्राह्मण सबसे ज्यादा दुखिया और पीड़ित हैं। शेरघाटी के पहाड़ी इलाके (गया) में बाराचट्टी थाने के कुछ मुसलमान किसानों ने मेरे पास इस बात की शिकायत रो-रो के की कि मुसलमान जमींदार रमजान के दिनों में भी हमसे जबर्दस्ती काम करवाता है, यहाँ तक नमाज पढ़ने की भी छुट्टी नहीं देता। कहता है कि उसमें समय खर्च हो जाता है और काम में हर्ज होता है।
यह भी तो देखें कि असली चीज क्या है और नकली या, बनावटी क्या। जब तक शिखा, सूत्र (जनेऊ), कंठी, चन्दन, या दाढ़ी न रखें, तब तक सूरत शक्ल से कैैसे पहचाना जा सकता है कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलिम, कौन ब्राह्मण है और कौन चमार? शरीर देख के तो जान सकते हैं नहीं। इसीलिए बाहरी और बनावटी चीजें धर्म के नाम पर पीछे से जोड़ी गई हैं। क्योंकि माता के पेट से बाहर आने के समय तो इनमें एक भी चीज बच्चों के शरीर पर पाई नहीं जाती है। न शिखा, न सूत्र, न चन्दन, न कंठी और न दाढ़ी। फिर ये बनावटी और नकली चीजें जन्म के साथी और साथ ही खेलने वाले हिन्दू और मुसलिम किसानों के बच्चों को क्यों जुदा करेंगी? ये क्यों एक को दूसरे का शत्रु बनाएँगी?
कहते हैं कि धर्म के नाम पर ही एकता चाहिए और वही ठीक है। मगर वह तो वस्तुत: नकली चीज है, असल नहीं है और नकली कृत्रिम या बनावटी चीज के आधार पर जो एकता होगी वह क्या टिकाऊ होगी? एक स्थान पर शेख, सैयद, ब्राह्मण, चमार, पारसी, जैन, बौद्ध और ईसाई के बच्चों को, जो दस-बीस ही दिन या महीने दो महीने के हों एक ही साथ जमा कीजिए वहीं धर्म के ठेकेदार लाल बुझक्कड़ों को, पण्डितों और मौलवियों को भी जमा कीजिए और जाति-पांति का ढोल पीटनेवालों को भी बुलाइए। फिर उनसे कहिए कि जरा पहचानें तो सही, उन बच्चों में कौन शेख, कौन सैयद, कौन ब्राह्मण, कौन चमार हैं, कौन किस जाति के हैं, किस धर्म के हैं। मगर सबों की अक्ल ही गुम। जिस धर्म और जाति का दमामा रोज बजाते फिरते हैं और जिसे बन्दरिया के बच्चे की तरह गले में चिपकाए फिरते हैं वही जाति और वही धर्म वहाँ उनका साथ न देगा। वह तो उन्हें छोड़ के भाग गया? उन बच्चों में वे हजार टटोलें, मगर उसका पता नहीं। ऐसा छिपा कि जैसे खुफिया पुलिस को देख के कोई फरार या भगोड़ा छिपे। ओह, वह धर्म और वह जाति इस कदर कमजोर और लापता हो जाने की चीजें हैं। फिर भी उन्हीं पर इतना गुमान। उन्हीं के लिए इतना तूफान। उन्हीं के करते भाई-भाई की जुदाई और किसानों में भी दलबन्दी। भला इससे बढ़ के नादानी और क्या हो सकती है?
अच्छा, अब जरा भूख, बीमारी, जाड़ा वगैरह को तो देखें, जिनके सहारे किसानों में एका होना चाहिए, जिनके ही करते और जिन्हें ही दूर करने के लिए हम उनमें एकता लाना चाहते तथा उन्हें संघबद्ध करना चाहते हैं। जो वर्ग चेतना की बुनियाद हैं। क्या उन बच्चों में भूख वगैरह को भी कोशिश करके ढूँढ़ना होगा? और फिर भी वे लापता? नहीं-नहीं ऐसा नहीं होगा? वह तो ऐसी कमजोर चीजें नहीं हैं। जिसे ही भूख लगेगी, जाड़ा सताएगा, या सरदर्द होगा वही बच्चा फौरन रो बैठेगा और हम अनायास ही पहचान लेंगे कि भूख कहाँ है, दर्द कहाँ है और जाड़ा कहाँ है। हमें पता लग जाएगा कि अन्न किसे चाहिए, वस्त्र किसे चाहिए और दवा किसे दरकार है। भूख तो खुद चिल्ला-चिल्ला के कहती है कि मैं यहाँ हूँ, मुझे देखो, मुझे पहचानो। जाड़ा स्वयं चिल्लाता है कि मेरा खयाल करो। बीमारी खुद जोर की आवाज देती है कि मुझे देखो और मेरी फिक्र करो, मैं असल चीज हूँ। ऐसी हालत में यदि यह भूख, यह प्यास, यह बीमारी और यह दर्द हममें, किसानों और श्रमजीवियों में, एका और संघबद्धता नहीं ला सकते, तो दूसरा कोई भी ला सकता नहीं। फिर तो उनके उद्धार की आशा भी हो सकती नहीं। इसलिए जितने लोग भूखे-प्यासे, रोग से परेशान और वस्त्र। के बिना जाड़े से हैरान हैं उन्हें फौरन ही एक हो जाना चाहिए, उन्हें मान लेना ही होगा कि उनकी एक जाति, एक धर्म, एक श्रेणी, एक दल और एक वर्ग है। यही असली रास्ता है। यही एक उपाय उनके उद्धार का है।
एक बात और। माना की धार्माचार्यों ने, ऋषि-मुनियों ने और पैगम्बरों ने स्वर्ग तक सीढ़ियाँ लगा दीं, नर्कों के रास्ते बन्द कर दिए, उनके मुँह पर ढक्कन लगा दिए और भगवान को भी पकड़ लिया। हमें इसमें विवाद नहीं करना है। न तो हम इसकी जरूरत समझते हैं और न हमारे पास इतना अवकाश ही है कि यह व्यर्थ की माथापच्ची करें। उन धार्माचार्यों और मजहबी पेशवाओं के पास बड़ी शक्ति थी, बड़ी सामर्थ्य थी हमें इसमें कुछ भी कहना नहीं है। फिर यह तो मानना ही होगा कि सबकुछ होते हुए भी उनकी ताकत के बाहर की यह चीज है कि वह बीमारियों को भी सर कर लेते, भूख-प्यास को भी खत्म कर देते और जाड़ा, गर्मी आदि की तकलीफों को मिटा ही देते। यह बातें उनकी पहुँच के बाहर की हैं। इन तक किसी भी धर्म या मजहब की पहुँच नहीं है। नहीं तो जोई पहुँच जाता उसी धर्म के माननेवाले हिन्दू, मुसलिम या ईसाई आदि को ये भूख, प्यास, बीमारियाँ, या जाड़ा-गर्मी वगैरह नहीं सताते। वे इन आफतों से बरी रहते। आखिर ये चीजें कोई अच्छी तो हैं नहीं कि जानबूझ के छोड़ दी गईं। ये तो पूजा और इबादत में, ध्यांन और समाधि में जो धर्म और मजहब की असल चीजें हैं, बराबर ही बाधक होती हैं। फलत: यदि धर्मार्यों की सामर्थ्य होती तो इन्हें मिटा ही डालते। इसलिए कबूल करना ही पड़ेगा कि धर्म और मजहब के दायरे के बिलकुल ही बाहर की ये चीजें हैं और इनका मुकाबला करने का रास्ता कोई और ही है, न कि धर्म या मजहब।
ऐसी हालत में क्या यह पहले दर्जे की नादानी और धोखेबाजी नहीं है कि जब रोटी, कपड़े, दवा, मकान वगैरह का सवाल हल करने के लिए, ताकि भूख, बीमारी आदि से लोगों का पिण्ड छूटे और ये सताएँ नहीं, हम किसानों और मजदूरों का और नवजवानों का संगठन करते हैं तथा उन्हें संघबद्ध बनाते हैं, तो धर्म, मजहब या जाति-पाँति के नाम पर पण्डित, मौलवी और धर्म के ठेकेदार गड़बड़ियाँ करते और रोड़े अटकाते हैं? ऐसा करना अगर बेईमानी और शैतानियत नहीं है, तो आखिर और हुई क्या? ऐसी खुराफातें करने का उन्हें क्या हक है? धर्म के नाम पर हिन्दू किसान सभा, मुसलिम किसान सभा, हिन्दू मजदूर यूनियन, मुसलिम मजदूर यूनियन, हिन्दू विद्यार्थी संघ, मुसलिम विद्यार्थी संघ आदि खड़ा करना या खड़ा करने की कोशिश भी करना क्या किसानों और मजदूरों को, नौजवानों और छात्रों को गुमराह करना नहीं है? हम चाहते हैं कि किसान, मजदूर, विद्यार्थी और जवान इस बात को बखूबी समझें और इन धर्म के दुकानदारों के चकमों में हरगिज न पड़ें। असल में शोषितों की आज जो शोषकों के विरुद्ध यह बगावत फैल रही है, ताकत बढ़ रही है, उसे रोकने के ही लिए शोषकों और शासकों के दलाल ये धर्म के ठेकेदार ऐसी वाहियात बातें करते हैं। जब और ढंग से न चला तो धर्म के नाम पर ही उन्हें फोड़ने और संघबद्ध न होने देने की यह बेहूदा कोशिश है। यह तो शूर्पणखा का नकली रूप है। हम चाहते हैं कि किसान और श्रमजीवी लक्ष्मण की तरह उसकी नाक काट लें। ताकि उसका असली भयंकर रूप प्रकट हो जाए और दुनिया धोखे से बचे।
वर्ग चेतना और वर्ग विश्लेषण के सम्बून्धज में हमें एक बात और जान लेनी होगी। कमाने और खानेवालों, गरीबों और अमीरों के ये दो वर्ग हमने बताए हैं। इनमें किसान हैं कमानेवाले। पूँजीपतियों तथा जमींदारों को, जो दूसरों की कमाई हड़प जाते हैं, खानेवालों में रखा है। पहला वर्ग कमाते-कमाते मरता है बिना खाए-पिए ही दूसरा भी बिना कमाए ही खाते-खाते ही अकड़ के मरता है। यही है वर्तमान समाज की भीषण और दर्दनाक विषमता। इसे ही दूर करना और समता, साम्यवाद, लाना हमारा ध्येय है, ध्‍येय होना चाहिए। बिना साम्यवाद लाए यह भयंकर विषमता मिटेगी ही नहीं और उसके मिटे बिना कमानेवाले मरते ही रहेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान व्यवस्था को जड़-मूल से उलटना पड़ेगा। दूसरा रास्ता है भी नहीं। इसे उलटने का ही नाम क्रान्ति, इन्कलाब या रेवोल्यूशन है। यह तो नवीन सृष्टि बनाने के पूर्व का प्रलय है।
जो लोग सुधार के द्वारा धीरे-धीरे वही काम करना चाहते हैं और सोचते हैं कि विषमता मिटाकर समता लाएँगे वह या तो खुद ही धोखे में हैं, या धोखा देते हैं। सुधार का तो अर्थ कहा जाता है कि वर्तमान शोषक या खाने वाला दल यह मान लेने को तैयार है कि उसे मिट जाना होगा। इसीलिए तो क्रमिक सुधार के द्वारा अपनी मौत की तरफ एक-एक कदम वह खुद ही बढ़ाता है ऐसा कहते हैं। लेकिन यदि उससे एकान्त में विश्वासपूर्वक पूछा जाए तो वह स्वीकार करेगा कि असल में यह बात नहीं है। ठीक ही है। अपनी मौत कौन चाहता है? सुधारक लोग भी तो चाहते हैं कि खानेवाले भी रहें। तब इसका तो सीधा यही अर्थ है कि बीमारी रहे जरूर। हाँ, बीभत्स रूप में नहीं, नरम स्वरूप में। मगर जिस हद तक वह रहेगी उस हद तक दिक्कत तो रहेगी ही। दूसरों की कमाई हड़पने वाले जितने भी अंश में रहेंगे उतने अंश में कमाने वालों को दु:ख तो रहेगा ही।
असल में तो शोषक लोग क्रमिक सुधार और रिआयतें देकर कमाने वालों का भीषण असन्तोष, जिससे ज्वालामुखी फूटने वाला है, कम और शान्त करना चाहते हैं। इस प्रकार यदि असन्तोष बढ़ने के बजाए ठण्डा पड़ेगा, तो विस्फोट होगा कैसे? यही उनकी चालाकी है। इस बीच में उसी सुधार की ओट में अपने को वे लोग काफी मजबूत बना लेना चाहते हैं, ताकि समय पर कमाने वालों का मुकाबला वे कर सकें। सुधारों में ही तो भेदनीति को पूर्ण सफलता मिलती है और किसानों तथा मजदूरों की भीतरी कमजोरियों से शोषक दल लाभ उठाता है। सुधार तो उन कमजोरियों को और भी बढ़ाता जाता है। इस खतरे को हमें खूब समझना होगा। सुधारों से इनकार तो हम कर नहीं सकते गिद्धदृष्टि से उन्हें देखते ही रहेंगे कि शोषक दल भेदनीति से काम लेने न पाएँ और अपने को मजबूत न कर सकें। सुधार असल चीज नहीं है। किन्तु हमारी उनके प्रति दृष्टि ही असल चीज है। क्रान्तिकारी और सुधारवादी की दृष्टि में ही मौलिक भेद होता है और वही सब कुछ है असली चीज है। सुधारवादी भेद नीति को सफल होने देता है और शोषकों की मजबूती का स्वागत करता है। मगर क्रान्तिकारी यही बात होने नहीं देता।
इन दो शोषक एवं शोषित वर्गों के बीच में त्रिशंकु की तरह लटकने वाला एक तीसरा वर्ग भी बताया जाता है। स्थान के ही अनुसार उसका नाम भी मध्‍यम वर्ग रखा गया है। उसकी अजीब हालत है। न इधर का और न उधर का। जब कमाने वालों शोषितों का दबाव पड़ा, तो उनकी तरफ झुक जाता है और उनकी ही जय पुकारता है। उनका ही काम करता हुआ मालूम भी पड़ता है, करता भी है। मगर ज्यों ही यह दबाव हटा कि खानेवालों (शोषकों) की तरफ झुक जाता है। असल में उसका दल तो शोषकों का ही है। उसकी मनोवृत्ति भी उनकी ही है। वह जाना भी इसीलिए स्वभावत: उधर ही चाहता है। मगर गरीबी के कारण वे लोग इसे अपनी पंक्ति में बिठाना नहीं चाहते। इसे अछूत मानते है। इसीलिए चमगादड़ की-सी हालत में रहता है। मगर नजर सदा उधर ही रहती है। इसी वर्ग में से धीरे-धीरे कुछ लोग सम्पन्न हो के पूरे शोषक बनते और बाकायदा शोषकों में दाखिल हो जाते हैं। मगर अधिकांश लोग धीरे-धीरे और भी गरीब होते-होते श्रमजीवी या कमानेवाले बन के शोषितों में मिल जाते हैं। मगर जब तक मध्यऔम वर्ग में ये लोग रहते हैं बराबर ही दुविधा ही दुविधा में आगे-पीछे रहा करते हैं। कछुए की तरह रह-रह के सिर निकालना और छिपाना यही उनकी दुविधा है, कभी शोषकों की ओर देखते हैं, तो कभी शोषितों की ओर। इनका स्वार्थ ही उन्हें ऐसा करने को विवश करता है। इसीलिए शोषितों की लड़ाई में भी सदा आगा-पीछा ही करते रहते हैं। नाजुक परिस्थिति आ जाने तथा उस लड़ाई का आशाजनक रूप होने के समय तो खामख्वाह ऐसा करते और बाधा डाल देते हैं। इस तरह ऐन मौके पर धोखा दे के घात करते हैं।
इस दुविधा के अलावे उनकी और भी विशेषताएँ हैं, जिन्हें जाने बिना ऐन मौके पर धोखा हो सकता है। इसलिए उन्हें जान लेना जरूरी है। धर्म का जो रूप आज देखा जाता है और जिसमें विचार स्वातन्त्र्य्, विवेकबुद्धि, ननुनच, या नाहीं करने की गुंजाइश जरा भी नहीं रहती, जिसमें केवल फतवे से काम चला करता है, उसमें पूरा-पूरा विश्वास करना मध्य म वर्ग का दूसरा लक्षण है। वह तो धर्म की दोहाई रह-रह के देता है और उसके खतरे की घण्टी बजाता है। वह उस धर्म को छोड़ के कभी सोच भी नहीं सकता। उसकी हस्ती का वह धर्म अभिन्न भाग है।
मध्यणम श्रेणी की तीसरी पहचान यह है कि वह किसी एक आदमी की आवाज को, फिर चाहे वह धार्मिक, राजनीतिक या आर्थिक पेशवा और अगुवा हो, या इसी ढंग का और कुछ, सारांश, वह चलता पुर्जा हो, लाखों-करोड़ों की, मूक जनता की, आवाज मानता है। किसी बड़े नेता ने कह दिया। बस, समाज के विभिन्न काल्पनिक टुकड़ों, हिन्दू, मुस्लिम या किसान, मजदूर आदि, की आवाज हो गई। बस, उसी का ध्या,न करके कुछ भी करना होगा। नेता ने जो फैसला कर दिया वही खामख्वाह जनता का फैसला हो गया।
चौथा लक्षण मध्य,म वर्ग का यह है कि वह विभिन्न श्रेणियों का, शोषकों एवं शोषितों का मेल और स्वार्थ सामंजस्य देखता, सोचता और करना चाहता है। दोनों के बीच में रहने के कारण कुछ उसकी स्थिति ही ऐसी है कि वह अनजान में भी ऐसी बातें सोचता और करता है, जिससे साफ हो जाता है कि किसान और जमींदार या पूँजीपति और मजदूर के स्वार्थों का परस्पर संघर्ष नहीं है। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं। किन्तु उनका मेल है, सामंजस्य है, हो सकता है। हालाँकि यह सरासर गलत और बेबुनियाद बात है। घास और गाय, या बकरी और बाघ के स्वार्थों का जब मेल नहीं है और न उनमें परस्पर समझौता ही सम्भव है, तो किसान और जमींदार आदि का कैसे होगा?
इससे स्पष्ट है कि मध्य,म वर्ग के पूर्वोक्त चार लक्षणों में आखिरी तीन तो शोषकों के ही फायदे के लिए हैं। पहले और चौथे में शोषकों का विश्वास नहीं है और उनमें वे पाए भी नहीं जाते। मगर दूसरे और तीसरे लक्षण तो शोषकों में खूब ही मिलते हैं। ये उनकी खास चीजें हैं। पहला लक्षण ही मध्यंम वर्ग का अपना है, निजी है। यह न तो शोषकों का है और न शोषितों का। इससे दोनों की हानि होती है। हालाँकि...ज्यादा होती है शोषितों की ही। मगर कभी-कभी शोषकों की भी होई जाती है। मगर चौथे से तो शोषकों का फायदा ही होता है। यही तो समझौते की बुनियाद है। इस प्रकार मध्यथम श्रेणी की एक भी बात ऐसी नहीं जो शोषकों के लिए ठीक हो। सभी हानिकारक ही हैं। हाँ, शोषितों के फायदे की तो सभी हैं। इसीलिए तो हमने पहले ही कह दिया है कि मध्यहम वर्ग ज्यादातर शोषकों की ही तरफ झुकता है। उसकी ऑंख शोषकों की और पीठ शोषितों की तरह सदा रहती हैं। हाँ, जब शोषित लोग उसकी पीठ पर कसके ठोंकते, खूब जाग्रत और क्रियाशील होते हैं, जब उनमें बेचैनी और असन्तोष की आग खूब भड़कती है, तब विवश हो के मध्य,म वर्ग उनकी ओर ऑंखें फेरता है। मगर जहाँ वह आग दबी, कि फिर लौटा और पीठ फेर दी। यही क्रिया बराबर चालू रहती है।
प्रश्न होता है कि तो फिर उससे किसानों या शोषितों का ताल्लुक ही क्या? वह तो एक प्रकार का शत्रु ही है, जैसे कि शोषक। बात तो कुछ विचित्र ही है और यह प्रश्न स्वाभाविक एवं उचित भी है। असल में परिस्थिति के करते किसानों और मजदूरों के पास न तो जागृति के सामान होते हैं, न वर्ग चेतना के ही और न पढ़ने-लिखने के ही। उनकी गरीबी और बेबसी के करते ये चीजें उन्हें दुर्लभ हैं। इसीलिए उनकी ऑंखें मुँदी रहती हैं। इसीलिए जमींदार वगैरह तेली के बैल की तरह उनकी ऑंखें बन्द करके एक निश्चित घेरे के अन्दर आसानी से उन्हें घुमाते रहते हैं और जो चाहते हैं उनसे करवाते हैं। ऑंखें खुली रहने पर वे भड़क जाएँ तो?
इसी से बन्द रखना ही ठीक है, मगर मध्येम श्रेणी के पास तो पढ़ने-लिखने और जानकारी के भी सामान रहते ही हैं। जब जनता बिगड़ेगी तो उसी वर्ग के द्वारा उसे दबावेंगे और धोखा देंगे। यह समझ के अमीर लोग उस वर्ग को पढ़ा-लिखा के ठीक रखते हैं। पढ़ाया-लिखाया हाथी ही तो आखिर और हाथियों को फँसाता है। इसके सिवाय मध्य-म वर्ग के बिना अमीर और मालदारों का काम भी तो नहीं चल सकता। उनकी जमींदारी, उनका कारबार कौन देखेगा, कौन सम्भालेगा? उनका प्रबन्ध दूसरा कौन करेगा? इसीलिए मजबूरन उन्हें पढ़ा-लिखा के मालदार लोग तैयार करते ही हैं।
और मौका पड़ने पर प्रारम्भ में यही मध्येम वर्ग किसानों तथा मजदूरों का साथ देता है। इससे उसका अपना मतलब जो निकलता है। उसकी प्रतिष्ठा होती है। वह नेता बनता है। नाम कमाता है। समय-समय पर धन और पद भी कमाता ही है। जब अधिकार मिलते हैं, या मिलने लगते हैं, तो वही मेम्बर, मिनिस्टर, प्रेसिडेण्ट, चेयरमैन, सेक्रेटरी बनता है। कोई किसान, या मजदूर तो बन सकते हैं नहीं। इसी नेतृत्व के बल से ही वह जमींदारों और पूँजीपतियों से भी घात देख के गुपचुप पैसे ले लेता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मध्यिम श्रेणी के इक्के-दुक्के लोग शोषित श्रेणी में मिल जाते हैं और अन्त तक उनकी लड़ाई चलाते रहते हैं। मगर अधिकांश तो समय-समय पर खिसकते चले जाते हैं, जैसे-जैसे उनका अपना मतलब पूरा होता जाता है। यदि मालदारों से कहीं खासा माल हाथ लग गया या कोई अच्छा काम मिल गया, तो नेतृत्व की परवाह कौन करे?
मन्त्रीय आदि बनने पर भी यही होता है। फर्क यही होता है कि अमीरों से साफ मिल जाने में गरीबों को धोखा देना असम्भव होता है। मगर मन्त्री आदि बनने पर तो 'एक पंथ दो काज' होता है। पद, प्रतिष्ठा और माल भी मिलता है और नेता बनने का मौका भी रहता है। इसीलिए मन्त्रीे आदि ज्यादा खतरनाक हैं, बनिस्वत उनके जो साफ ही शोषक दल में जा मिलें। इसीलिए किसानों और शोषितों को चाहिए कि मन्त्रीै आदि से बहुत ही सजग रहें। वे लोग किसानों की भलाई करने के नाम पर ही उनका गला काटते हैं। मछली को फँसाने के लिए थोड़ा सा आटा तो पहले खर्च करना ही होता है। यही हालत उनकी है। लड़के का कान छेदना हो, तो गुड़ खिला के उसे फुसलाते और पीछे छेद देते हैं। इसीलिए हमें उन पर बराबर ही कड़ी नजर रखनी होगी, उनका विश्वास ही नहीं करना होगा। जब किसानों और मजदूरों को आराम देने के लिए पूरा अधिकार नहीं मिल जाता कि जो चाहें कर सकें, तब तक मन्त्रीख आदि बनने का मतलब यदि कोरा और प्रच्छन्न स्वार्थ नहीं तो और है क्या?
शहरों और ऑफिस आदि में रहने के कारण मध्य्म श्रेणीवालों को समाचार- पत्र, किताबें और सामयिक साहित्य पढ़ने, मीटिंगों में जाने और सभी तरह के लोगों से मिलने के मौके बहुत मिला करते हैं। इसीलिए उनकी जानकारी भी सामयिक (up to date) होती है। मगर उनका अपना वर्ग तो विचित्र ही होता है। वह तो अजीब खिचड़ी जैसा है। इसीलिए पूरे-पूरे वर्ग के आधार पर किसी बात का स्पष्ट निश्चय वे नहीं कर सकते। किरानी, अध्‍यापक, वकील, डॉक्टर, छोटे-मोटे दुकानदार, दस्तकार और तरह-तरह के कारीगर यही लोग उस मध्य मश्रेणी में आ जाते हैं। यों तो जिनमें वर्ग चेतना नहीं है और जो जमींदारों की तरह ही सोचते हैं, और धनी हैं या यों कहिए कि जिनमें पूर्वोक्त चार लक्षण पाए जाएँ ऐसे किसान भी उसी श्रेणी में आ जाते हैं। फलत: किसानों तथा मजदूरों को उनसे भी खतरा है। फिर भी किसानों की तो अलग श्रेणी ही मानी जाती है और वह है शोषितों की श्रेणी के एक भाग, मजदूरों, की ही तरह।
मध्यतम वर्ग के जो लोग अन्त तक किसानों और मजदूरों की लड़ाई का नेतृत्व करते हैं और उन्हीं में मिल जाते हैं वह ऐसे ही लोग हैं जिनमें पूर्वोक्त चार लक्षणों में एकाधा ही पाए जाते हैं। सो भी नाम मात्रा के ही होते हैं। अत: ऐसे गिने गुँथे मधयवर्गीय लोग बराबर ही शोषितों के ही दृष्टिकोण से विचारा करते हैं। इसलिए परिस्थिति के वश मध्‍यश्रेणी में होते हुए भी वह वस्तुगत्या दलित और शोषित श्रेणी के ही हैं, उसी श्रेणी में उनका स्थान है। यह कभी नहीं हो सकता कि जिनमें पूर्वोक्त चारों या अधिकांश बातें दृढ़ता के साथ पाई जाती हों, ऐसे लोग भी पीड़ितों के नेता बन सकते हैं, या उनकी लड़ाई अन्त तक चला सकते हैं। यह तो परस्पर विरोधी बातें हैं और इसीलिए बहुत गौर से विचार करने की हैं। किसानों का काम है कि मध्य म श्रेणी के जो लोग उनका नेतृत्व करने आए उनमें उनके लक्षणों को बराबर गौर से देखें और पता लगाएँ। तभी उन्हें धोखा नहीं होगा। यह तो समझी लेना होगा कि अन्त में तो शोषक और शोषित यही दो दल रह जाएँगे और इन्हीं की आपस में आखिरी लड़ाई होगी, जिसमें शोषित अवश्य ही विजयी होंगे। इसलिए वास्तविक वर्ग तो वही दो हैं। इसमें कोई शक नहीं है।
वर्ग का विचार करने के समय किसानों को यह भी देखना होगा कि उनके वर्ग में कौन-कौन से लोग आ जाते हैं। दुर्भाग्य से जाति और धर्म तथा नीच और ऊँच की अत्यन्त कुत्सित धारणा और रूढ़ि के करते हमारा समाज एक प्रकार से जर्जर हो गया है। इस भयंकर और मारक रोग को तो जितना जल्द मिटा डालें उतना ही ठीक। जाति तथा धर्म का विवेचन तो पहले ही किया जा चुका है। रह गई ऊँच और नीच की बात। शरीर में तो सभी प्रकार के अंग हैं। ऐसे भी अंग हैं जिनसे मल-मूत्रादि निकलते हैं या मल-मूत्रादि जिनसे साफ कराते हैं। पाँव में गन्दी से गन्दी चीज कभी-कभी लग ही जाती है। मगर क्या कभी इन अंगों में ऊँच-नीच का विभेद माना जाता है। मल-मूत्र साफ करने के कारण क्या हाथ नीच अंग हो गया? प्रत्युत उसे तो बड़ा मानना चाहिए, यदि खामख्वाह छोटा बड़ा मानना ही हो। यदि ऐसे अंग न हों, या वे अपना काम न करें, तो शरीर रही नहीं सकता। वह तो खत्म ही हो जाएगा। इस दृष्टि से उन अंगों की कितनी उपयोगिता है। क्या यह बात हमने कभी ठण्डे दिल से सोची है।
ठीक उसी तरह मेहतर, धोबी, चमार, वगैरह जितने अंग समाज के हैं वह निहायत ही जरूरी हैं। उनके बिना एक दिन भी समाज टिकना असम्भव है। भयंकर बीमारियों का केन्द्र बात की बात में वह बन जाए और सड़ जाए, यदि ये लोग न हों। हिन्दू लोगों ने सूअर के मुख को पवित्र माना है। वह उस मुख से जिस मिट्टी को खोद देता है वह पूजा के काम में आती है। हालाँकि उसी मुख से अत्यन्त गन्दी चीज वह खा जाता है। जिस पाखाने के साफ करने से मेहतर अस्पृश्य और नीच माना जाए वही पाखाना जिस मुँह से सूअर खा जाए वह मुँह पवित्र। असल में यदि सूअर न हो, तो दस ही दिनों में हर गाँव हैजा, प्लेगादि का अड्डा बन जाए। इसीलिए हमारी रक्षा के लिए प्रकृति, या भगवान ने सूअर को मेहतर बना के भेज दिया है। वह कुदरती मेहतर है। इस बात को पुराने धार्मिक लोगों ने बखूबी समझा था। इसी से सूअर के मुँह को पवित्र माना। हमें भी हर मामले में ऐसा ही समझना होगा और ऊँच-नीच का खाम खयाल अपने दिल से निकालना होगा। यह तो वर्गचेतना का शत्रु, संघबद्धता का बाधाक और किसानों को अत्यन्त असमर्थ बनाने वालाहै।
जिस हलवाहे के बिना खेत जोता ही न जाए और न रोपा-बोया जाए वही छोटा। बीज बोना, उखारना, रोपना, काटना, ढोना वगैरह काम जो खेत मजदूर करते हैं वही छोटे और हमीं बड़े, यह कैसी दुर्बुद्धि है। जैसे बैलों की उपयोगिता है और उन्हें हम नीच नहीं मानते। ठीक वैसी ही, या ज्यादा उपयोगिता इन खेत मजदूरों की है। फिर ये छोटे कैसे हो गए? यह भ्रान्त धारणा कहाँ से किसानों में आ घुसी?
एक बात और। बैल की हिफाजत और उसे खिलाने-पिलाने की पूरी कोशिश किसान करते हैं। अपने आप भूखे रह जाएँ तो रह जाएँ। मगर बैलों को भूखा रहने हरगिज न देंगे। उन्हें कोई एक लाठी मार दे तो कदापि बर्दाश्त न करेंगे। यहाँ तक की मारपीट की नौबत भी आ जाएगी। अब उन्हें खुद ही कलेजे पर हाथ धर के सोचना चाहिए कि क्या उतनी ही फिक्र और चिन्ता वे अपने खेत मजदूरों की करते हैं, जितनी कि बैलों की? चाहिए तो ज्यादा फिक्र करनी। मगर उतनी भी क्या होती है? यदि उन्हें कोई जमींदार, या पुलिसवाला मारे-पीटे तो क्या किसान टुकटुक देखते ही रह जाते नहीं? क्या 'नान्ह जात लतियाए राजी' वे लोग अकसर कहते नहीं? क्या इस चीज की फिक्र करते हैं कि उनके पास खाना, कपड़ा, मकान और दवा है या नहीं? यदि कुछ किसान करते भी हों तो इससे क्या? हम तो किसान समाज की बात करते हैं। फिर कुछ ही किसान करें और बाकी न करें और हम इस चीज को बर्दाश्त कर लें यह कैसी बात? हरेक किसान को पहले उनकी हर तरह की फिक्र करके पीछे अपनी करनी होगी। यही मन्त्रफ है, यही सिद्धान्त है, यही उसूल है। अब तक जो हुआ सो हुआ। मगर आगे तो ठीक-ठीक इसका पालन होना ही चाहिए। किसान के परिवार में दस आदमी स्त्रीक, बच्चों आदि को मिलाकर, यदि हों और हलवाहे के भी तीन-चार हों, तो किसान को अपना परिवार तेरह-चौदह आदमियों का ही मानकर सभी के लिए हर चीज का समान रूप से प्रबन्ध करना ही होगा, यह याद रहे। नहीं तो किसानों की नाव जरूर ही डूबेगी। पुराना जमाना लद गया। फूले रहने की नादानी डुबाएगी।
किसानों और उनके हलवाहों के सिवाय भी गाँव में अनेक लोग रहते हैं, जैसे कहार, धोबी आदि। इनके भी आराम की फिक्र किसानों को करनी ही होगी। आज तो यह हालत है कि किसान खुद खा-पी लेते हैं। मगर गाँव में कितने लोग भूखे-नंगे हैं इसका उन्हें पता भी नहीं होता। जरूरत होगी तो कहार, नाई आदि सभी को ढूँढ़ेगे। मगर यों उनकी खबर तक नहीं लेते। यह तो पागलपन है। ऐसी दशा में भला ही किसानों के प्रति उनके दिलों में क्या खयाल होगा? उनका दिल तो जला जाता है यह सोच-सोच के कि ये किसान खुद तो भर पेट, या आधा पेट साग-सत्तू खाते हैं, मगर हमें पूछते भी नहीं, उनकी यह धारणा और यही भूख किसानों की असली कमजोरी है, हम यह हरगिज न भूलें। यदि जमींदार के दिमाग में यह बात घुस जाए और बहुत जगह घुस चुकी है भी, कि इन भुक्खड़ों की ही सेना किसानों के विरुद्ध खड़ी की जाए, तो क्या होगा? किसान तो तबाह हो जाएँगे, लुट जाएँगे। क्योंकि एक ही दो बीघे जमीन उन्हें देकर जमींदार खड़ा कर देगा और मारपीट वगैरह उन्हीं से करवा के या जैसे-तैसे भिड़ा के किसानों को उजाड़ ही देगा। इस प्रकार उसे जो जमीन हाथ लगेगी उसी में से दो-चार बीघा उन भुक्खड़ों को देगा। बाकी में उन्हीं के हाथों अपनी खेती, खुदकाश्त, करेगा। यदि किसान फौरन नहीं चेते तो यह हो के ही रहेगा। पानी के बॉंध में जरा सा सूराख कर देने से ही धीरे-धीरे वह बड़ा हो जाता है और सारा पानी खत्म हो जाता है। ये भूखे लोग किसानों की शक्ति के बह जाने के लिए नन्हे-नन्हे सूराख हैं। इन्हें बन्द कर के ही जबर्दस्त संघ शक्ति लानी होगी। एक भी आदमी गाँव में ऐसा न हो जो जमींदार से मिल सके, भरसक जमींदार से मिलना चाहे। ज्यों ही हमने पड़ोसी का ऑंसू पोंछना शुरू किया कि उसका दिल ही हम जीत लेंगे। फिर तो हमारे लिए वह अपना सिर हमसे पहले ही देगा, यह पक्की बात है।
इस प्रकार किसानों को संघबद्ध होने में जो-जो बाधाएँ हैं उन्हें खोज-खोज के हटाना और गाँव-देहात के सभी पीड़ितों का एक जबर्दस्त दल बनाना हर किसान का कर्तव्य होना चाहिए, यही उसकी सन्ध्याज पूजा होनी चाहिए। गाँवों के सभी शोषितों, पीड़ितो और दु:खियों को जब तक हम अपना अभिन्न अंग और अपने दल का नहीं समझते, हमारी वर्ग चेतना कौड़ी काम की भी नहीं है। हमारी इन्हीं कमजोरियों और भूलों से ही हमारे शत्रुओं ने अब तक लाभ उठाया है। अब हमें उन्हें ही दूर करना है। यही किसानों की वर्ग चेतना और संघबद्धता का रहस्य है और इसी से वे अजेय बनेंगे।

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