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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4 सम्पादक - राघव शरण शर्मा किसान क्या करें
(8) कमानेवालों की, जिनमें किसानों की संख्या प्राय: तीन-चौथाई है, कुछ ऐसी बेढब हालत है कि करते तो हैं सबकुछ वही मगर उनके कान और नाक को पकड़ के उन्हें मनमाने ढंग से चलाते हैं दूसरे ही। चाहे जीवन के लिए जरूरी चीजों को लीजिए,फौज और पुलिस को लीजिए,जेल और कचहरियों को लीजिए और अन्त में चाहे आजादी तथा हक की लड़ाई ही लीजिए। सर्वत्र खटते-मरते हैं वे लोग ही। मगर उनके ऊपर बैठते हैं दूसरे। आजादी और अधिकार की लड़ाई में नेता और लीडर की हैसियत से और बाकी जगहों में शासक,शोषक,अधिकारी,जमींदार और पूँजीपति के रूप में। सिर्फ दर्जे का,रूप का, नाम का ही फर्क है। लेकिन सर्वत्र उनके सिर पर बैठते वही लोग जो उनमें से नहीं हैं,किन्तु उनके बाहर के। या यों कह सकते हैं कि यदि उनमें के भी हैं तो भी दूसरों के मुड़िया और चेले बन गए हैं और इस प्रकार अपनी श्रेणी तथा अपना दल बदल कर अज्ञात और विधर्मी बन गए हैं। यही असली परिस्थिति है और यही कारण है कि संसार के सभी मुल्कों में क्रान्तियों पर क्रान्तियाँ होती रहीं। मगर नतीजा क्या हुआ? यही न कि केवल शासन और शोषण का बाहरी रूप और नाम बदल गया। मगर वह जारी है ज्यों का त्यों,बल्कि और भी भीषण रूप में। रूस के सिवाय और जगह भी क्रान्तियाँ हुईं,इन्कलाब हुए, फ्रांस में,जर्मनी में,इंग्लैण्ड में,अमेरिका में और अन्य मुल्कों में भी, मगर क्या वहाँ के किसानों और मजदूरों के कष्ट दूर हुए? क्या उनका शोषण बन्द हुआ? पहले यदि असभ्य ढंग और मनाने रूप में शोषण होता था तो अब वही सभ्य और कानूनी ढंग से होता है। पहले यदि किसी शासक के नाम में होता था,फलत: उसे ही गालियाँ देते और बदनाम करते थे,तो अब शोषितों के ही नाम में उन्हीं की राय से होता है। फिर गाली किसे दें? असल में कमाने वाले अपनी तकलीफों से ऊबकर बाहर निकलने की कोशिश तो करते हैं और कभी-कभी जानों की बाजी तक भी लगा देते हैं। मगर उनके ऊपर, उनकी आत्मा,दिल और दिमाग पर, बैठने वाले गैर लोगों के करते ही,जिन पर वे विश्वास करते और अपना अगुवा मानते हैं,उनकी ये सारी कोशिशें अन्त में बेकार हो जाती हैं। उनका सब किया-कराया गजस्नान, हाथी का नहाना, हो जाता है। वह चूल्हे से निकल के भाड़ में और गढ़े से निकल के कुएँ में पड़ जातेहैं। यह बड़ी ही पेचीदा पहेली है और इसका सुलझाना निहायत जरूरी है। यदि सब किया-दिया मिट्टी में ही मिल जाए,तो अच्छा है कि कुछ भी करने से पहले यह नेतृत्व की समस्या ही हल कर लें। उसके करते होने वाला धोखा फिर क्योंकर न हो सकेगा यह बात साफ कर लें। हम यह तो नहीं चाहते कि किसान और मजदूर अपनी आजादी और अपने हक की लड़ाई को रोक के ही यह सवाल सुलझाने में लग जाएँ। ऐसा करना खतरनाक है। इससे उनकी दिक्कतें बढ़ सकती हैं,बढ़ जाएँगी। अत: लड़ाई जारी रहे। मगर नेतृत्व की पेचीदा समस्या की ओर उसी के साथ-साथ उनका पूरा ध्यान रहे। न कि अब तक की-सी हालत रहने देना चाहिए। अब तक तो वे सारी शक्ति और बुद्धि लड़ाई में ही खर्च करते रहे हैं। उसका नतीजा क्या होगा,यह बात तक तो अच्छी तरह उनने समझी नहीं। सिर्फ गोल-गोल बातों में ही पड़े रहे। आखिर किसान धान की खेती करता है तो गोल नतीजे को सोच कर तो नहीं। किन्तु ब्यौरेवार ठोस नतीजा पहले से ही मन में बिठा लेता है कि कैसा,कितना धान होगा तथा कब,और अगर उसमें जरा भी गड़बड़ी हुई कि अगले साल सजग हो जाता है। गाय-भैंस खरीदता है,तो गोल बातों के लिए नहीं। किन्तु कैसे,कितना दूध कब तक उससे निकलेगा यह खूब ही पक्का करके रुपए गिनता है। जरा सा भी ऐब हो और पशु छटक जाने या लात चलाने वाला हो,तो गाँठ का पूरा पैसा हरगिज नहीं खोलता है। फिर जिस लड़ाई में धन,जन,जान सब गँवाएँ उसका रत्ती-रत्ती ब्यौरेवार नतीजा पहले से ही न जान लें यह कैसी नादानी है। इसी का तो बुरा नतीजा अब तक होता रहा है। हक मिलने पर उसकी रक्षा कैसे,कौन करेगा यह भी हम अब तक कभी नहीं सोचते रहे हैं। अब ऐसी गोल बातों का जमाना गया। अब तो हमें इन सब बातों को अच्छी तरह शुरू में ही साफ कर लेना होगा और बखूबी जान लेना होगा कि कहीं धोखा तो नहीं है,कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि यत्नपूर्वक प्राप्त किए दूध की रखवाली बिल्ली को ही सौंप दी जाएगी। वे यह साफ-साफ देख लें कि गाय और बकरी हासिल तो की जाएगी पैसे और परिश्रम से,मगर कहीं उनका रखवाला बनने वाला गधे की खाल में छिपा बाघ तो नहीं है। इसीलिए पद-पद पर अपने नेताओं के विश्लेषण,उनकी देखरेख,उनकी निगरानी उन पर कड़ी निगाह रखने की जरूरत आ जाती है। जिस प्रकार अपने शत्रुओं, शोषकों एवं शासकों, का अच्छी तरह विश्लेषण करते हैं,क्योंकि बिना ऐसा किए काम नहीं चलता और धोखा हो जाता है। ठीक उसी प्रकार अपने नेताओं का और भी हजार गुना विश्लेषण बड़ी ही बेमुरव्वती के साथ करना लाजिमी है। नहीं तो जरूर ही धोखा खा जाएँगे। शत्रुओं की निगरानी और उनकी रत्ती-रत्ती जाँच न भी हो तो ज्यादा से ज्यादा यही न होगा कि शोषण रहेगा और हम पूर्ववत् दुखिया बने रहेंगे? मगर कोई नई दिक्कत तो आएगी नहीं। लेकिन नेताओं पर कड़ी नजर बिना रखे और उनका विश्लेषण किए बिना तो घर का भी आटा गीला करने की नौबत होगी। हमने धन,जन और जान गँवा के और सर्वस्व की बाजी लगा के हक की लड़ाई लड़ी। मगर नतीजा कुछ न हुआ। वही गरीबी,वही शोषण और वही कष्ट रूपान्तर में जारी रहे। यह तो परले दर्जे की नादानी होगी। यह तो नाव का किराया दे के बह जाना और डूब मरना होगा। इसीलिए हमें मजबूर होके कहना पड़ता है कि नेताओं के ऊपर खुफिया पुलिस का पहरा किसान और मजदूर जरूर ही रखें। नहीं तो पीछे धोखा होने पर हमें दोषी न बनाएँ। खासकर जब कही चुके हैं कि मध्यमवर्ग का ही नेतृत्व होता है और उसी दल के लोग खामख्वाह अगुवा होते ही हैं और उस दल में क्या ऐब हैं यह भी बताई चुके हैं। वह तो ऐन मौके पर लड़ाई को खटाई में डाल देता है ज्योंही देखता है कि उसकी असली बिरादरी वाले शोषकों की जड़ एक ही धक्के में उखड़ जाने वाली है। लोग कहते हैं और भोला भाला किसान मानता है कि भला हमारे नेता हमें कैसे धोखा देंगे। जो कई बार जेल गए,जिनने अनेक यातनाएँ भोगीं,जुर्माने दिए,जायदादें जब्त करवाईं और जो फाँसी का तख्ता चूमने तक के लिए सर पर कफन बॉंध के कभी निकल पड़े थे,वही लोग भला क्यों कर हमें गुमराह करेंगे? वही हमें धोखा देंगे यह कौन माने ? और अगर ऐसे लोग भी धोखा देंगे तो विश्वास किन पर किया जाए? फिर तो सर्वत्र अविश्वास ही होगा? और लड़ाई ही बन्द कर देनी पड़ेगी। बात तो सही है। इसीलिए तो लड़ाई बन्द करके नेताओं की परीक्षा करना हम चाहते नहीं। हम तो लड़ाई के दौरान और सिलसिले में ही उनकी परीक्षा करना चाहते हैं और वही पक्की परीक्षा होगी भी। यह बात आगे साफ की जाएगी। मगर इतना तो मान ही लिया गया कि केवल जाति-पाँति या धर्म-मजहब के नाम पर तो कोई भी आदमी किसानों और मजदूरों का नेता होई नहीं सकता, उसे नेता बनने ही न देना होगा। जब त्याग,बलिदान,जेल वगैरह की बात आ गई तब तो वैसे लोग नेता बनने योग्य नहीं हैं यह बात मानी ली गई। यह इसलिए भी कि जाति और धर्म के नाम पर सस्ती लीडरी का जामा पहन के आज हजारों मिलते और धोखा देते हैं। किसान स्वभावत: उनकी बातों में फँस जाते हैं। वह भी देखते हैं कि त्याग और बलिदान तो हम से हो सकता नहीं और लीडरी तो चाहिए ही। क्योंकि बोर्डों और कौंसिल असेम्बलियों में जाना जो है। इसलिए जाति और धर्म के नाम पर ही नकली ऑंसू बहाते एवं गला फाड़ते हैं। ताकि लोगों पर जादू चले और काम बने। इसलिए किसान और मजदूर उनसे पहले ही सजग हो जाएँ। अब रही त्याग और बलिदान की बात। सो तो ठीक ही है। मगर फ्रांस,इटली,जर्मनी,अमेरिका,चीन आदि देशों में किसानों और मजदूरों के जो नेता पहले हुए क्या उनके त्याग और बलिदान नहीं थे? या कि उनका त्याग,उनका बलिदान उनकी तपस्या और उनका कष्ट सहन आज के बरसाती नेताओं से भी कम था,वे तो ऐसे थे कि जिनकी जिन्दगी ही जेल और जलावतनी (देशनिकाले) में बीती थी,जो एक बार नहीं,किन्तु कई बार फाँसी के तख्ते तक पहुँचते-पहुँचते न जाने कैसे बच पाए थे। वे तो मस्त और अपने धुन के पक्के थे। उनके सामने तो आज के त्यागी और तपस्वी नेता कुछ भी नहीं हैं,किसी गिनती में नहीं हैं। फिर भी किसानों और मजदूरों की मुराद क्यों न पूरी हुई और वे आज भी क्यों पहले जैसे ही,या उससे भी बुरी तरह मुसीबतों के फन्दे में फँसे पड़े हैं? इसलिए महज त्याग और बलिदान की बात पर विश्वास करना इतिहास की शिक्षा से मुख मोड़ना और ऑंख मूँद के अपने को आग में झोंकना है। नेता बनने के लिए तो त्याग और बलिदान जरूरी ही है। नहीं तो क्या किसी को सुरखाब के पर लगे हैं कि वही नेता हो और किसान या मजदूर न हो? ड्राइवर वही हो सकता है जिसने उसकी शिक्षा पाई हो। सेनापति वही हो सकता है जिसने फौजी तालीम पाई हो। उसी प्रकार आर्थिक और राजनीतिक मामलों में भी पुश्तैनी पण्डितों और मुल्लाओं को ही लीडरी न मिले,किन्तु दूसरों को ही मिले,इसके लिए जरूरी है कि वे भी परीक्षाएँ पास कर चुके हों। किसान मजदूरों के लिए मुल्क की आजादी का आन्दोलन उठाके जेल जाना,आदि बातें यही तो वह तालीम है और उनमें पास होना ही नेतृत्व का सर्टिफिकेट प्राप्त करना है। इसलिए महज त्याग-बलिदान की बात उठाना ठीक नहीं। नेता लोग पहले तो ठीक ही रहते हैं। पहले उन्हें आखिर पूछता भी कौन है? मगर ज्यों ही उनकी ख्याति हुई त्यों ही मनुष्य की कमजोरियों ने उन्हें दबाना शुरू किया। और जब उन पर कोई बन्धन या निगरानी नहीं है तो खामख्वाही दब जाते हैं। मगर यह खतरा तो पीछे आता है। जो चढ़ता है वही तो गिरता है। जो जमीन पर ही पड़ा है वह क्या गिरेगा? परिस्थितियाँ भी उन्हें मजबूर करती हैं। एक तो किसान लापरवाह होके उन्हें छूट देता है और पूछता भी नहीं कि क्या करते,क्या नहीं। दूसरे चारों ओर का वायुमंडल मोहक होता है। शोषक लोग अनेक प्रकार से फँसाने की कोशिश करते हैं। जल्दी सफलता नहीं मिलने से उन्हें निराशा भी धर दबाती है कि किसानों के हक शायद ही मिलें। अब वह देखते हैं कि उनका साथ खूब जम के जनता नहीं देती है,तो घबराहट में भी पड़ जाते हैं। ज्यादा उम्र गुजर जाने पर कुछ उसका भी असर होता ही है। यह भी देखते हैं कि दुनिया में और लोग भी तो नेता हो चुके हैं। मगर उनने भी आखिर क्या किया? यही न कि किसी पद पर जा बैठे और सन्तोष कर लिया,या यों ही मर मिटे और कुछ न हुआ? फिर हमीं ने क्या किसान-मजदूर राज्य का ठेका लिया है? इन्हीं सब कारणों से पीछे चलकर उनका पतन हो जाता है। यह सब बातें उनके लिए हैं जो शुरू में ईमानदारी से काम में पड़ते हैं और अपना कोई भी मतलब नहीं रखते। मगर जो शुरू से ही मतलब के लिए ही आते हैं उनका क्या कहना? वह तो जानबूझ के ही धोखा देते हैं। वह तो धोखा देने की नीयत से आते ही हैं। नहीं तो उनका मतलब सिद्ध होगा कैसे? बासी जलेबी को भी ताजी-ताजी पुकार के जो खोमचेवाला बेचता है उसका तो मतलब साफ ही है। बिना वैसा कहे लोग खरीदेंगे ही नहीं। मगर भूल तो उनकी है जो उसकी बातों पर विश्वास कर लेते हैं और विचार नहीं करते कि बात क्या है? नेताओं के पतन या धोखे की जो बातें अभी-अभी कही गई हैं उनसे तो आसानी से बच सकते हैं,यदि एक ही काम करें, उन पर कड़ी निगरानी रखें। लेनिन ने बार-बार कहा है कि जनता के दबाने के लिए पुराने साधन तो हैं ही,जिन्हें लाठी,गोली,फाँसी,जेल,देशनिकाला,जायदाद जब्ती आदि कहते हैं। इनसे तो उसे दबाया जाता ही है। इसी का नाम तो दमन है। मगर अब दमन का एक नया साधन और नया अस्त्रा किसान मजदूरों के दबाने के लिए निकला है। जैसे अनेक आविष्कार होते रहते हैं वैसे ही इसका भी आविष्कार किया गया है। बहुत ही सोच-समझ के। शोषकों ने सोचा कि यदि शत्रु खिलाने से ही मरे तो नाहक जहर क्यों देना? उन्होंने देखा कि दमन से बदनामी भी काफी होती है और हमेशा काम निकलता भी नहीं। प्रत्युत ज्यादा दमन हो जाने पर जनता नल के जल की तरह उमड़ जाती है, ऊपर आ जाती है। फिर तो उसका रोकना कभी-कभी असम्भव-सा हो जाता है। इसीलिए उन्होंने दिमाग लगा के दमन का अत्यन्त शान्तिपूर्ण साधन ढूँढ़ निकाला। इसे ही कहते हैं खूब बातें बनाना। किसानों के सामने उनकी तकलीफों की बातें खूब करना,गर्मागर्म स्पीचें झाड़ना,मौका मिलते ही सबसे पहले ही उन्हें दूर करने की बार-बार प्रतिज्ञा करना,नकली ऑंसू बहाना,जमींदारों,साहूकारों तथा सरकार को भर पेट कोसना,और गिन-गिन के गालियाँ देना। यही आज का नवीन आविष्कृत ब्रह्मास्त्र है,जिससे किसान और मजदूर बेलाग मारे जाते हैं। वे कुछ कर भी नहीं सकते। जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही बनाए जाल में फँस के मर जाता है। ठीक वैसे ही किसान अपने ही बनाए नेताओं के जाल में पड़ के जिबह हो जाते हैं। यह ऐसी मीठी छुरी है,यह ऐसा हलका नश्तर है कि पता भी नहीं लगता,अच्छा मालूम होता है और एकाएक जान भी चली जाती है। तब भी ऑंखें नहीं खुलती हैं यही तो इसकी खूबी है, यही तो आश्चर्य है। यही है पूर्ण शान्तिपूर्ण हत्या। 15.8.40। जनता का एक स्वभाव है कि वह ऑंख मूँदके विश्वास कर लेती है। जब तक अविश्वास रहा तब तक रहा। मगर ज्यों ही वह हटा कि उसकी जगह विश्वास बैठ जाता है। यह अविश्वास भी सब में नहीं पाया जाता है। किन्तु कुछी लोगों में जो व्यवहार कुशल और चतुर होते हैं जनता तो देखादेखी चलती है। उसने देखा कि किसी नेता और बड़े आदमी को लोग बहुत मानते हैं। बस वह उस नेता के पीछे हो लेती है। यह नहीं सोचती कि आखिर वह कौन हैं, कैसे हैं, उसके काम के भी हैं या नहीं। ऐसे लोग जिनसे कभी कोई ताल्लुक नहीं, खूब ही पूजे जाते हैं और बेखटके अगुवा बने फिरते हैं। असल में किसानों ने, जनता ने मिट्टी,पत्थर,पेड़ वगैरह जिसे ही ऊँचा देखा या गोलमोल उसे ही देवता मान लिया और उसके सामने सिर झुका के प्रार्थना शुरू कर दिया। इस प्रकार लाखों देवी-देवताओं के सामने झुकते-झुकते उनकी तो झुकने की आदत ही हो गई है। जैसे देवी-देवताओं के बारे में वे ननुनच और प्रश्नोत्तर नहीं करते,ठीक वैसे ही आदमियों के बारे में भी,बशर्ते कि वह बड़े और लीडर हों। मगर यह सरासर गलत रास्ता है। देवी और देवता तो बोलते-चालते नहीं और न जमींदारों या पूँजीपतियों से मिलते ही जुलते हैं। इसलिए उनसे तो वह खतरा नहीं कि दुश्मनों से मिलकर वार करें और कत्ल कर डालें। मगर नेता लोग तो सब कुछ करते हैं, कर सकते हैं। वह तो सर्वत्र जाते और कानाफूसी करते हैं। यह भी देखा जाता है कि शोषकों से कितने ही नेता जा मिले। इसलिए जिसे ऊँचा देखा,जहीं चन्दन लगा पाया या जहीं सेन्दुर या ईंगुर चिपटा देखा उसे ही जैसे देवता मान लिया वैसे ही जिसे ही खादी और गाँधी टोपी पहने देखा और गर्मागर्म स्पीच देते पाया,या यह जान लिया कि जेल-वेल गया है चट उसे ही नेता मान लेना बहुत ही गलत है। मगर होता तो ऐसा ही है। अगर पूर्वोक्त खोद,विनोद,विश्लेषण और दलील करने की आदत जनता में होती तो धोखा उसे होता ही क्यों? सो भी बार-बार? और ऑंख मूँद के भेड़ की तरह पीछे-पीछे न चल के,खूब समझ-बूझ के वह अपने नेताओं के पीछे अगर चलती रहती तो यह दुर्दशा उसकी होती ही क्यों? कहावत है कि 'पानी पीना छान के और गुरु बनाना जान के।' यदि यही सिद्धान्त दूर तक लागू हो जाता और नेताओं के लिए भी कोई कसौटी रख के बिना उस पर कसे उन्हें हरगिज नहीं मानते,तब तो सबकुछ ठीक ही हो जाता। जैसे धर्म के मामलों में बुद्धि या तर्क के लिए गुंजाइश ही नहीं रखी गई,और ऑंख मूँद के मानने का स्वभाव लोगों में जानबूझकर डाला गया। ठीक वैसे ही नेतागिरी के मामले में भी हो गया। जब आदत पड़ जाती है तो धीरे-धीरे उसका विस्तार होई जाता है। धार्मिक नेताओं के पीछे भेड़िया धासान करते-करते आर्थिक एवं राजनीतिक लीडरों के पीछे भी वही होने लगी। पहले तो ऐसे नेता होते न थे। केवल धार्मिक ही होते थे। इसीलिए सारा क्षेत्र उन्होंने ही हथिया लिया था और जनता में दिमागी गुलामी पैदा कर दी थी। क्योंकि ऐसा न होने पर जोई मूर्ख या कुकर्मी हो जाते उन्हें ही जनता नहीं मानती। फिर उनका काम तो नहीं ही चलता। वे लोग हलवा मलाई उड़ा नहीं पाते। इसीलिए जान-बूझकर दिमागी गुलामी जनता में पैदा की गई। अब उसी का नतीजा है कि लोग आर्थिक और राजनीतिक मामलों में भी नेताओं को ऑंख मूँद के ही मानते हैं और अन्त में बरबाद होते हैं। जब दो-चार पैसे के घड़े और दूसरे बर्तनों को ठोंक-बजा के लेते हैं तो यह कौन सी बुद्धिमानी है कि जिन्दगी और मौत के सौदे में ऑंख मूँद के चलें और नेता लोगों को ठोंक-बजा न लें? यह तो बड़ा ही कीमती सौदा है। यहाँ तो क्रान्ति का प्रश्न है फिर मुरव्वत या लापरवाही कैसी? यदि ठोंकने-बजाने में नेता लोगों के दिमाग का पारा चढ़ जाए और वे लोग आपे से बाहर हो जाएँ तो बुरा क्या होगा? आगे चल के धोखा देते सो शुरू में ही खुल गए। कुछ दिन पुजवा के आखिर पोल खुलती ही। यदि पहले ही खुली तो और खुशी होनी चाहिए। जो हमारी मामूली बातें बरदाश्त नहीं कर सकते,जो हमारे प्रश्नों से ही बौखला उठते हैं,वह हमारे लिए ही गोली कैसे बरदाश्त करेंगे और फाँसी पर कैसे चढ़ेंगे? यह तो मोटी दलील है और इसी से काम चल जाता है,बशर्ते कि हम इसका बराबर प्रयोग करें। कहते हैं कि एक चतुर बनिया कुछ महात्माओं के पास गया और बोला कि मैं किसी एक को गुरु बनाऊँगा। उसका ऐसा कहना ही था कि सभी तैयार नजर आए। भला गुरु कौन बनना नहीं चाहता? लेकिन उसने कहा कि मैं तो मुर्दा गुरु चाहता हूँ। फिर तो सबके सब बिगड़ उठे और बोले,कैसा सनकी है? कहीं मुर्दा भी गुरु बना करता है? लाचार वह चला गया। उसके बाद गुरु की तलाश में वह दर-दर की खाक छानता फिरा और न जाने कहाँ-कहाँ घूमा। मगर उसकी मुराद पूरी न हुई। सर्वत्र एक ही जवाब मिलता कि मुर्दा और गुरु। यह तो पागलों की बात है। वह परेशान और निराश हो गया और ऊबकर वापस जाना ही चाहता था कि अचानक रास्ते में एक मस्तराम मिल गए। उसने सोचा कि अब तो लौटना ही है। चलो,इनसे भी पूछ देखो? उसने मस्तराम से कहा कि महाराज मुझे चेला बनाओगे? उत्तर मिला कि चेले तो बनाए नहीं जाते,खुद बनते हैं। हाँ,गुरु बनाए जाते हैं जरूर। उसने कहा कि हाँ,हाँ,मुझे तो गुरु ही बनाना है और मैं आपको ही बनाना चाहता हूँ। लेकिन शर्त यही है कि मैं मुर्दा गुरु चाहता हूँ। मस्तराम ने कहा कि मैं पूरा मुर्दा तो हूँ नहीं। हाँ,आधा मुर्दा जरूर हूँ। उसने कहा कि अच्छा यही सही। पूरा मुर्दा गुरु तो कोई मिला ही नहीं। मैं हैरान हो गया,इसलिए आधे से ही सन्तोष करूँगा। फिर दोनों ही साथ-साथ चल पड़े। दोनों का कुछ समय साथ ही बीता। बनिया था बड़ा ही काइयाँ। उसने रह-रह के मस्तराम को दिक करना शुरू किया। कभी अन्धेरे में राह चलते हुए जानबूझ के उन्हें गढ़े में पड़ने देता। कभी काँटों और कुशों में बिंध जाने देता। कभी चोरों को ललकार कर पिटवा देता। कभी आगे परोसी थाली उठा लेता। कभी सोए में ही खाट उलट देता। कभी कुएँ में ढकेल देता। कभी स्नान के समय तालाब के गहरे पानी में उन्हें घसीट के डुबाने की कोशिश करता। सारांश यह कि गुप्त और प्रगट रूप में हजारों मौकों पर उसने मस्तराम को काफी तंग किया और अपने जानते नाकों दम कर दी। मगर हर बार उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब देखता कि मस्तराम के मुख पर जरा भी क्रोध या मलिनता नहीं। विषाद का चिन्ह नदारद। बराबर उन्हें हँसते ही पाता। अन्त में उसने उनके पाँव पकड़ के सब अपराधों की माफी चाही और कहा कि महाराज,आप आधा मुर्दा नहीं पूरा मुर्दा हैं। मस्तराम ने इतना ही कहा कि माफी का क्या सवाल? जब मुझे गुरु, पथदर्शक बनाने चले हो तो स्पष्ट है कि बड़ा कीमती सौदा करने वाले हो। ऐसी दशा में खूब जाँच करना और ठोंक-ठाँक लेना उचित ही है। मैं भी तो यही करता,यदि तुम्हें गुरु बनाने चलता या किसी और को ही। यही तो रास्ता है। यह मुर्दा गुरु वाली बात नेताओं के बारे में भी लागू करना किसानों का फर्ज है। यदि भविष्य में धोखे से बचना चाहते हैं तो उनके लिए दूसरा उपाय है भी नहीं। यदि सस्ते और बाजारू नेताओं से अपना पिंड छुड़ाना चाहते हैं,यदि चाहते हैं कि उनका लक्ष्य सिद्ध हो और किसान-मजदूर राज्य कायम हो तो बिना ऐसा किए काम चलने का नहीं। जहाँ उनने इसका निश्चय किया कि अधिकांश नेता लोग शुरू में ही दुम दबा के भाग निकलेंगे। वे सामने आएँगे ही नहीं। उनकी लालसा मन में ही मुरझा जाएगी। यदि कुछ लोग हिम्मत और बेहयाई करके आना भी चाहेंगे,या आएँगे तो धीरे-धीरे उन्हीं भी धसकना ही होगा। आखिर मुर्दा तो सभी बन सकते नहीं? फिर उनके लिए चारा ही क्या रहेगा? कहते हैं कि किसी के यहाँ चार मेहमान पहुँचे। उसने उन्हें आदर से खिलाया-पिलाया। कई दिन गुजर गए। मगर वे लोग जाने को रवादार नहीं हुए। उसने उपाय किया। पहले दिन घी परोसना रोक दिया। बस,एक ने जो शानियल था,ताड़ लिया और वह चला गया। मगर तीन तो इतने पर भी डँटे रहे। फिर उसने साग-तरकारी बन्द की। तब दूसरा भी गया। जब दाल बन्द करके केवल सूखी रोटी खाने को दी तो तीसरा भी चला गया। मगर चौथा जिसका धोधाली नाम था फिर भी डटा रहा। वह पूरा बेहया जो था। अब घरवाले ने देखा कि गलहस्ते न 'धोधाली', धोधाली को गर्दनियाँ देके निकाले बिना काम नहीं चलेगा। उसने ऐसा ही किया। ठीक यही हालत रँगे नेताओं की होगी। एके बाद दीगरे सभी निकल भागेंगे। मगर जो पक्के निर्लज्ज होंगे उन्हें भी गर्दनियाँ देना ही होगा और इस प्रकार उनसे पल्ला छुड़ाना ही होगा। इस प्रकार छँटते-छँटते जो रह जाएँगे वही सच्चे नेता होंगे। वही अन्त तक साथ देंगे। हम कोई नई बात नहीं कहते हैं। यही तो संसार का नियम है। बराबर ऐसा ही तो करना ही होता है। बिना बार-बार की छँटैया के काम कभी चलता नहीं। हम देखते हैं कि लोग खाते हैं भात,जो चावलों से बनता है। मगर क्या चावल पैदा होते हैं? किसी ने चावल के पौधे कहीं देखे हैं? पैदा तो होता है धान। सो भी डंठलों और पुआल के भीतर। चावल तैयार करने में कम से कम छह बार छँटैया करनी होती है। पहले तो पीट के या बैलों के पाँव तले रौंद के पुआल को अलग करते हैं। फिर भूसे से अलग करने के लिए उसे हवा में फटकारना (ओसाना) होता है। लेकिन फिर भी देखा जाता है कि बिना चावल वाले और चावल वाले दोनों ही प्रकार के धान मिले रहते हैं। इसलिए तीसरी कोशिश से चावल वाला साफ हो जाता है। फिर ओखली में एक बार कूटने और फटकारने से आधा धान का चावल और आधा धान ज्यों का त्यों रह जाता है। तब पाँचवीं बार कूटने और फटकारने पर चावल अलग हो जाता है। मगर फिर भी देखने में सुर्ख रह जाता है। अन्त में धपाधप उजला चावल प्राप्त करने के लिए छठी बार कूटना तथा फटकारना जरूरी होता है। फिर नेताओं के बारे में भी यही सिद्धान्त किसान क्यों न लागू करेगा? वह तो चावल के सम्बन्ध में बार-बार ही ऐसा करता रहता है। यह तो कोई नई बात उसके लिए है नहीं। नेता लोग ऑंसू बहाते हैं सही और उनके ऑंसू तथा उनकी बातें, उनके धारावाही लेक्चर, उनके दिल का पता लगाने पर तो मानना ही पड़ेगा कि किसानों और मजदूरों के कष्टों की प्रचण्ड पीड़ा ने उनके दिल तक असर कर लिया है और वह पिघल के बाहर ऑंख के रास्ते बहा जा रहा है। जो प्रतिज्ञाएँ वे लोग करते हैं उन पर यदि कुछ भी यकीन किया जाए और सौ बातों में एक बात भी मान ली जाए,तो कहना ही पड़ता है कि वे लोग मौका पाते ही किसानों के लिए सबकुछ कर डालेंगे और जरा भी कसर रहने न देंगे। इतना ही नहीं जब तक किसानों के सारे कष्टों को दूर न कर लेंगे तब तक वे दम न लेंगे,आराम न करेंगे,अपनी और अपने बाल-बच्चों की कतई परवाह न करेंगे और आसमान-जमीन को एक कर डालेंगे। सारांश,राम की ही तरह वनवास करने की उनने प्रतिज्ञा कर ली है,जब तक कि राक्षसों का संहार न हो जाए और देवता तथा ऋषि लोग सुख से निवास करने न लगें। मगर व्यावहारिक रूप में देखा क्या जाता है? क्या सचमुच ये प्रतिज्ञाएँ,ये ऑंसू और ये गर्म लेक्चर कोई कीमत रखते हैं? ज्यों ही मामूली अधिकार मिले कि ये लीडर लोग अपना पर्दा, अपने ऊपर का बुर्का, उठा फेंकते हैं। फिर तो वे सारी प्रतिज्ञाओं को ताक पर रख के खुद उन पदों पर जैसे-तैसे जा लिपटते हैं, लिपट जाने की कोशिश जी जान से करते हैं। आज तक का इतिहास चिल्ला-चिल्ला के हमें यही बताता है। अपने देश में भी हमने यही पाया है और गैर मुल्कों में भी। ये नेता ऐसे बेशर्म होते हैं कि करते तो हैं धोखेबाजी और किसानों एवं मजदूरों के साथ गद्दारी, द्रोह,मगर फिर भी बात बनाए जाते हैं और कहने की हिम्मत करते हैं कि हम तो उन्हीं की भलाई के लिए यह काम कर रहे हैं। बोर्डों,कौंसिलों,असेम्बलियों में जाके उनकी ही भलाई करेंगे,करते हैं। क्या खूब? यदि भलाई ही करनी थी तो उन्हीं को क्यों नहीं जाने दिया? आप उनके सलाहकार और मददगार रहते और क्या किया जाए,कैसे किया जाए,यह बताते रहते। खैर,भत्ता,वेतन वगैरह छोड़ के यदि कुछ करते तो एक बात भी थी। मगर वह कैसे होगा? इण्टर और सेकण्ड क्लास के बिना अब तो रेल में चली नहीं सकते। क्या यह पैसा विलायत से आएगा जो उनके लिए खर्च होगा? आज तक इन लोगों ने उन पदों से क्या-क्या किया जिससे किसानों को लाभ हुआ? क्या शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य कर सके? सफाई और दवा का प्रबन्ध सर्वत्र कर सके? मलेरिया वगैरह से उनका पिंड छुड़ा दिया? बाढ़ और पानी रुक जाने से होने वाली तबाही से बचा सके? लगान वगैरह को इतना कम कर सके कि किसान परिवार खा-पी सके? क्या सचमुच किसानों की माली और शारीरिक हालत में कोई खास ढंग की उन्नति कर सके? हुआ तो कुछ नहीं। किया-कराया तो कुछ भी नहीं। कहेंगे पैसा नहीं है,तो करें क्या? तो क्या यह पैसे की कमी पीछे हो गई,या पहले से ही थी,जब आप लोग वहाँ पधारे थे? बीच में कोई चीज तो हुई नहीं। फिर पहले ही क्यों न ऐसा सोचा? असल में कहा था वहाँ अपने स्वार्थ के लिए खामख्वाह? अब बहाने ढूँढ़ने लगे हैं। यही बहाने हमेशा हुआ करते हैं। पुलिस,फौज या शासनचक्र चलाने के लिए जरूरी जितनी भी चीजें हैं उनके लिए यदि पैसे मिलते हैं तो किसानों के फायदे के लिए क्यों न मिलेंगे? और अगर नहीं मिलते तो शासन का खर्च क्यों न रोका जाए और नेता लोग उसी काम को क्यों न करें,कराएँ? जो लोग शोषण करते हैं,जो जनता का खून पीते हैं,वह भी यही दावा करते हैं कि जनता के फायदे के लिए ही सबकुछ कर रहे हैं। क्या जमींदारों और पूँजीपतियों का भी यही दावा नहीं है? क्या सूदखोर लोग ऐसा नहीं कहते कि यदि वे न रहें तो देहातों में या शहरों में भी गरीबों का काम ही न चले? एक खूँखार ने किसी के सम्बन्धी को मार डाला। जब उसने बिगड़ के पूछा और धमकाया तो खूँखार बोला कि नालायक और अहसान फरामोश (कृतघ्न),यदि तेरा सम्बन्धी जीता रहता तो न जाने कितनी बार बीमार पड़ता,समय-समय पर उसे कितने सदमे पहुँचते,भूख-प्यास की तकलीफ होती और परिवार के लिए हजार फिक्रों के पीछे परेशान रहता। मैंने इन सब दिक्कतों से उसे छुटकारा दिला दिया। ऐसी हालत में मुझे धन्यवाद देने के बजाए उलटे तू धमकी देता है। यह कैसा सुन्दर उपकार है। हिन्दुओं के यहाँ पुराने जमाने में बड़े-बड़े यज्ञयाग होते थे। उनमें अनेक पशु मारे जाते थे। जब विरोधियों ने कहा कि तुम लोग तो हत्यारे हो,तो उत्तर मिला कि तुम्हें पता नहीं,जो पशु मारा जाता है वह सीधे स्वर्ग चला जाता है। इस प्रकार हम उसका बड़ा भारी उपकार करते हैं। क्या खूब। यदि ऐसा ही उपकार करना था तो परिवारवालों को ही क्यों सीधे स्वर्ग न पहुँचाया। नेता लोग भी पदों को स्वीकार करके ऐसा ही दावा करते हैं जैसा यज्ञयाग में पशु को मारने वाले उसके बारे में करते हैं। मगर ऐसे भयंकर उपकार से खुदा बचाए। असल में किसानों का उपकार किया या नहीं किया। मगर अपना और अपने परिवार का तो कर ही लिया। आखिर जो धन कमाएँगे, कमाते हैं, वह कुएँ में तो फेंका जाता नहीं। वह घरवालों को ही तो मिलता है। सभी का उपकार तो असम्भव था। इसलिए जितनों का कर सके किया। यह तो किसानों की नादानी थी जो ऐसा समझते थे कि सबका एक ही साथ भला हो जाएगा। आखिर स्वराज्य की ही तो बात थी और वह स्वराज्य सबका जुदा-जुदा है। जब नेता लोग स्वराज्य कहते हैं तो उस शब्द में जो 'स्व' शब्द है उसका अर्थ है 'अपना'। मगर उस 'अपना' से नेता लोग निज का न समझ के किसान का समझें,यह तो अजीब बात है। वह तो अपने राज्य की बात कहते हैं। यदि किसान उसे अपना राज्य समझता है तो इसमें भूल किसकी है? नेताओं ने तो साफ ही कह दिया था कि वे अपने (स्व) राज्य के लिए कोशिश कर रहे हैं। और वह स्वराज्य छोटा,मँझोला,बड़ा,बड़े से बड़ा,सबसे बड़ा इस प्रकार कई तरह का होता है। यह यूनियन बोर्ड,डिस्ट्रिक्ट बोर्ड वगैरह छोटे,मझोले आदि श्रेणी में ही हैं और अगर वे मिले तो उन्हें वे लोग छोड़ क्यों दें? वे यह बेवकूफी क्यों करें? यदि किसान अपना (स्व) राज्य चाहते हैं तो वह खुद लड़ें। उसे वे खुद हासिल करें। कहते हैं कि किसी गरीब ब्राह्मण ने समुद्र तट पर जाके बड़ी उग्र तपस्या दीर्घ समय तक की। वह चाहता था कि उसकी परले दर्जे की गरीबी से उसे छुटकारा मिले। अन्त में समुद्र प्रसन्न हुआ और उसने एक शंख ब्राह्मण को दे के कहा कि जाओ,इससे जो माँगोगे वही देगा। ब्राह्मण कृतकृत्य हो के घर रवाना हुआ। थोड़ी दूर चल के उसने सोचा कि खाने-पीने का समय है। जरा शंख की परीक्षा भी तो करूँ कि क्या बात है। स्नानादि के बाद शंख की उसने विधिवत् पूजा की और हाथ जोड़के माँगा कि मेवा-मिष्टान्न और हलवा-मलाई दो। चार लोगों के खाने-भर मिलें। फौरन सभी चीजें हाजिर हुईं और खा-पी के विश्वासपूर्वक वह घर चला। मगर इस झमेले में देर हो गई। शाम हो जाने से रास्ते में ही किसी एक परिचित के यहाँ जा टिका। परिचित था बड़ा काइयाँ। ठगने का सामान भी उसके पास काफी था। इधर ब्राह्मण था भोला भाला। उसने परिचित के हाथ में शंखवाली झोली देते हुए कहा कि भाई,इसे जरा हिफाजत से रखना बड़ी तपस्या के बाद यह शंख मिला है। अब मेरी गरीबी भागेगी,क्योंकि जो ही माँगिए यह वही देता है। परिचित ने खूब मीठी बातें बनाईं और कहा कि भला हुआ जो आपकी दरिद्रता भगाने की सामग्री मिली। मैं इसे बक्स में बन्द किए देता हूँ आपके सामने ही। चलिए देखिए और उसकी कुंजी आप ही अपने पास रखिए। ब्राह्मण ने प्रसन्नतापूर्वक शंख की झोली बक्स में बन्द करवाई। कुंजी लेना वह न चाहता था। मगर उसने हठपूर्वक दे ही दिया। जब रात में सभी सो गए तो परिचित ने उस ताले की दूसरी कुंजी निकाली,बक्स खोला,शंख निकाल के उस झोले में हूबहू वैसा ही शंख रख दिया,ताला बन्द कर दिया और खुद भी सो गया। सुबह हुई और ब्राह्मण ने उसे जगा के शंखवाली झोली माँगी। उसने कहा कि घर आपका ही है। जाके खोल के ले आइए। ब्राह्मण ने वैसा ही किया और झोली को ठीक स्थान पर पाके तथा उसमें रखे शंख को देखके वह झोली के साथ बाहर आया और तेजी से घर पहुँचा। पहुँचते ही बड़ी खुशी से स्त्री से कहा कि जल्दी स्नानादि का प्रबन्ध करो। मैं ऐसा शंख लेकर आया हूँ कि यह मन माँगी मुराद पूरी करेगा। फिर तो तैयारी हुई। स्नानादि के बाद शंख को ऊँचे स्थान पर रखके उसने खूब प्रेम से पूजा की। फिर माँगा कि पाँच रुपए दो। शंख ने कहा दस लो। उसने कहा अच्छा दस ही दो। शंख बोला बीस लो। ब्राह्मण बोला,अच्छा बीस ही सही। शंख ने चट चालीस कहा। जब चालीस की माँग हुई तो उसने अस्सी कहा। सारांश यह कि जितना माँगा जाता उससे ठीक दूने का वचन वह देता जाता था। ब्राह्मण बेचारा घंटों इस दूने के चक्कर में पड़ा रहा और भोंकते-भोंकते उसका गला फट गया। अन्त में उसे रंज हुआ और डाँट के बोला कि हरामजादे,कुछ देगा भी सही कि सिर्फ दूने का हिसाब लगाए जाएगा? यदि नहीं दिया तो पत्थर से पीस दूँगा। इस पर लाचार हो के शंख ने अपना असली रूप प्रगट किया और कहा कि मैं तो डपोर शंख हूँ। मैं सिर्फ कहता हूँ,देता नहीं, डपोर शंखोऽस्मि। वदामि न ददाम्यहम्। अब चीरो तो ब्राह्मण के शरीर में खून नहीं। वह समझ न सका कि यह क्या हुआ। मगर करता क्या? लाचारी थी? ठीक यही डपोरशंखी बात नेताओं की भी है। किसान जो भी सोचता और चाहता है उससे भी बढ़-बढ़ के वचन ये नेता देते जाते हैं। वह बेचारा क्या समझे? विश्वास करता रहता है। मगर जब नेताओं का काम बन जाता है मगर किसान का कुछ भी नहीं होता तब वह बौखलाता जरूर है। मगर अब करेगा ही क्या? अब तो तीर हाथ से निकली गया। नेताओं की तो बन गई। वह तो गद्दी पर जा बैठे। अब यदि उनसे पूछता या जबाव तलब करता है तो उत्तर देते हैं कि क्या करें? परिस्थिति ही ऐसी है,फलाँ-फलाँ दिक्कतें हैं,पैसे नहीं हैं,मुल्क तैयार नहीं है आदि-आदि। लेकिन अब कुछ किया भी तो नहीं जा सकता। अब तो मियाँ की जूती और मियाँ ही का सर के अनुसार किसान के ही बनाए नेता उसी का गला काटने में उसके शत्रुओं से गँठजोड़ कर लेते हैं। ऐसी दशा में यदि किसान उन्हें पदच्युत करना और पछाड़ना भी चाहे तो कुछ कर नहीं सकता। अब तो उनके ही हाथ में शक्ति रहती है और शासन भी उनके ही हाथ में रहता है। यदि न भी रहे तो भी एकाएक कोई बात किसान कर नहीं सकता। वह तो पहले से तैयार ही नहीं रहता और बिना पूरी तैयारी,पूरी वर्ग चेतना,पूरी संघशक्ति के वह कर ही क्या सकता है? ये सब चीजें ऐसी भी नहीं हैं कि चटपट हो जाएँ। इनके लिए तो काफी समय चाहिए। मध्यमवर्गीय नेताओं की इधर यह हालत होती है कि किसानों और मजदूरों की पूरी तैयारी के न रहने पर गोलमाल खूब ही करते हैं। उनमें जो बोलचाल और बातें बनाने की शक्ति होती है उसका खूब ही उपयोग उन्हीं किसानों और मजदूरों के विरुद्ध बेखटके करते हैं जिनके कन्धों पर चढ़के ऊपर उठे हैं। खूबी तो यह होती है कि उन्हीं किसानों तथा मजदूरों की भलाई के नाम पर ही लेक्चरबाजी करके उनका ही गला रेतते हैं। असल में मध्यम वर्ग की,उस परिस्थिति में,यह खास खूबी होती है कि वह जिधर ही झुकता है लोगों को,भोली-भाली आम जनता को,उधर ही खींचता है क्योंकि स्वभावत: जनता पर उसकी धाक होती है और वह उसमें विश्वास करती है। और जिधर जनता झुकी उसी की जीत हुई। इसलिए जब वह किसानों और मजदूरों का विरोध करता है तब वह शोषकों और शासकों का समर्थन करता है,तो लोकमत की तरफ झुक जाने के कारण किसानों एवं मजदूरों का हार जाना जरूरी हो जाता है। क्रान्ति और किसान-मजदूरों की लड़ाई के इतिहास में सैकड़ों बार यह बात देखी जा चुकी है और सभी समझदार इसे स्वीकार करते हैं। इसीलिए जब तक किसानों और मजदूरों का शोषकों एव उत्पीड़कों का, जीता-जागता संगठन न हो जाए,उनमें पूर्णरूप से वर्गचेतना विकसित न हो जाए और एक छोर से दूसरे छोर तक बिजली दौड़ने न लगे तब तक इन मध्यमवर्गीय नेताओं से लड़ाई या खुल्लमखुल्ला विरोध करना बड़ा ही खतरनाक है। वे यह जानते हैं और इसी से अनुचित लाभ उठाते हैं। यही लाभ उठाने के ही लिए तो शोषितों को पूरा-पूरा तैयार करते ही नहीं। तैयार ही नहीं होने देते। उनमें जीती-जागती वर्ग-चेतना आने ही नहीं देते। हजार बहानेबाजी से यह काम रोकते हैं,रोकना चाहते हैं। इसीलिए तो उनसे विरोध न करके उन पर कड़ी नजर रखने और उनकी पक्की जाँच करने की बात कही जा रही है। साथ ही,अपनी तैयारी करने की भी पक्की सलाह दी जा रहीहै। किसानों के लिए सबसे जरूरी काम यह है कि वह हरेक नेता का पूरा-पूरा वृत्तान्त जाने। वह शुरू से लेकर कैसे,कहाँ,और किस दशा में क्या-क्या काम करता था,यह अच्छी तरह पता लगाएँ। पूरा ब्योरा और पूरा पूर्व इतिहास जाने बिना असलियत की पहचान असम्भव है। वह इतिहास ही आईने की तरह झलक देता है कि नेताओं के विचार कैसे हैं,उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति एवं रुचि किस ओर है और स्वभावत: वह कैसे लोगों का सम्पर्क पसन्द करते हैं। यदि सदा से उनका यही काम रहा हो कि जिन्हें ही गिरा हुआ और पददलित पाया उनके ही उठाने में पड़ गए तो मानना पड़ेगा कि उनकी प्रवृत्ति किसानों के ही अनुकूल है,लेकिन सिर्फ एकाध दृष्टान्तों से ही यह नतीजा निकालना बड़ी भूल होगी। नेताओं की लगातार ऐसी हलचल और कार्यवाही से ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। यह जरूरी नहीं कि नेताओं ने सर्वत्र लड़ाई लड़ी हो। चाहे लड़ के,चाहे आन्दोलन से या बातों से और अपने व्यवहारों से ही यदि उनने ऐसा किया हो और इस प्रकार शोषकों को अपना विरोधी बना लिया हो तो बेशक ऐसा नतीजा निकाला जा सकता है। यदि उन्होंने बराबर ऐसा किया हो तो उनके झुकाव का अन्दाज लग सकता है। तब माना जा सकता है कि वे किसानों का भी पूरा साथ जरूर देंगे। इसीलिए ब्योरेवार पता इस चीज का लगाना निहायत जरूरी है। उनकी असलियत की यह एक पक्की कुंजी है। दूसरी चीज देखनी यह होगी कि उसके विचार कैसे रहे हैं और आज भी कैसे हैं। जो निर्भीक हो,निर्भयता से स्वतन्त्र विचारों को प्रगट करे और उनका समर्थन करे वही मजलूमों और पीड़ितों का नेता हो सकता है। सब चीजों की गुलामी भले ही बर्दाश्त कर ली जाए। मगर विचार की गुलामी और बुद्धि की परतन्त्रता,जिसे दिमागी गुलामी कहते हैं हर्गिज बर्दाश्त नहीं की जा सकती। कौन चीज बुरी और कौन सी भली है कौन मान्य और कौन अमान्य है,किससे हित होगा और किससे अहित,इसका पता तो विचार ही दे सकता है। विचार की कसौटी पर ही कसने से असली और नकली का,भले और बुरे का पता चल सकता है। इसके लिए दूसरा तराजू या दूसरी कसौटी है ही नहीं। अगर चीज ठीक है तो फिर विचार-सूर्य के सामने आने से उसे डर क्या? प्रकाश में आने से तो ठग और चोर ही डरते हैं। इसलिए जब तक विचार की स्वतन्त्राता है तब तक आशा है कि सच्ची बातें छिप नहीं सकती है,कोई उन्हें सदा के लिए छिपा नहीं सकता। इसीलिए दूसरी जितने प्रकार की गुलामियाँ हैं,सभी मिट सकती हैं,सभी के मिट जाने की आशा की जा सकती है,यदि बुद्धि आजाद हो,और विचारों को प्रकट करने या रखने में कोई बाधा न हो। असल में विचार-स्वातन्त्रय से कितनी ही बेबुनियाद और हानिकारक रूढ़ियाँ और अन्धी परम्पराएँ खत्म हो जाती हैं,टिक नहीं सकती हैं। और शोषक लोग तो ज्यादातर रूढ़ियों के बल पर ही अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं। जब पुरानी चीजें एके बाद दिगरे मिटने लगीं तो उन्हें खतरा होता है कि जमींदारी वगैरह भी मिट सकती हैं। इसीलिए वे रूढ़ियों को पकड़ रखना चाहते हैं। यही कारण है कि वह स्वतन्त्रा विचारों के पक्षपाती कभी नहीं होते। फलत: जो विचार-स्वातन्त्रय का समर्थक होगा वह उनका विरोधी हो सकता है,यह सम्भावना पूरी-पूरी है। विचारों के बारे में एक चीज और है। गरीबों का,किसानों का निस्तार तब तक नहीं होगा जब तक क्रान्ति न हो और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था न बदल जाए। लेकिन बाहरी क्रान्ति से पहले भीतरी, विचार की क्रान्ति जरूरी है। दकियानूसी,पुराने और खूसट विचारों वाले क्रान्ति से हजार कोस दूर भागते हैं। जब हमें नई दुनिया लानी है,जब नया संसार बनाना है तो उस संसार का खाका तो पहले मन में आएगा ही। जो चित्रकार अपने मन में किसी का चित्र बना नहीं सकता,वह बाहर कागज या दीवार पर कैसे बनाएगा? इसलिए बाहरी उथल-पुथल से पहले विचारों की पृथक् उथल-पुथल अनिवार्य है। जब विचारों में यह चीज हुई तो उसे रोकना नहीं,किन्तु खुल्लमखुल्ला प्रकट करना आवश्यक है। क्योंकि केवल एक-दो या दस बीस के ही विचारों की उथल-पुथल से कुछ होने जाने का नहीं; जब तक आम लोगों में वह बात बैठ न जाए। इसी से मानना होगा कि स्वतन्त्र विचारों को स्वेच्छापूर्वक प्रकट करने से क्रान्ति की परिस्थिति और उसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार होता है। इसीलिए वह जरूरी है। जो विचारों को प्रगट करने में ही डरेगा वह किसानों के हकों की लड़ाई लड़ने की हिम्मत ही कहाँ से पाएगा? जो बात में ही इतना कमजोर है वह काम में तो खामख्वाह हजार गुना दब्बू साबित होगा और दब्बू नेता तो डुबा देगा ही,यह ध्रुव है। तीसरी चीज यह देखने की है कि वह धुन का कैसा है। काम छोटा हो या बड़ा,कोई बात नहीं। मगर उसे पूरा करने में उसने पहले क्या किया यह देखना जरूरी है। किसी चीज की सफलता के लिए सबसे जो जरूरी चीज है,वह है धुन,लगन,जीवट। कहते हैं कि आदमी की धुन में बड़ी ताकत है,अपार शक्ति है। यदि हम दृढ़संकल्प के हों तो सफलता मिल के ही रहेगी। देखा जाता है कि जितने धर्म और मजहब हुए सभी को पूर्ण सफलता मिली। और सभी के मानने वाले भी खूब ही हुए। यदि सच्चाई की ही बात होती तो परस्पर विरोधी विचारों और बातों में किसी एक को ही सफलता मिलती। मगर मिली सफलता सभी को। सो भी खूब ही। क्यों? इसीलिए कि उनके प्रवर्तकों में धुन थी,लगन थी और उनका संकल्प दृढ़ था। यदि सफलता लोहा है तो लगन और दृढ़संकल्प चुम्बक है जो खामख्वाह उसे पास में घसीट लाती है। कहते हैं,किसी जमाने में एक टिट्टिभी (टिटिहरी) पक्षी, नर-मादा दोनों ही, समुद्र के किनारे रहते थे। समय पा के उनने ऐसी जगह अंडे दिए जहाँ पर कभी पानी (लहर का) पहुँचता ही न था। मगर अकस्मात् एक दिन ऐसी ऊँची लहर आई कि उनके अंडे बह गए। वे दोनों चारा चुगने गए थे। इसीलिए बचा न सके। नहीं तो अंडे ले के अन्यत्र उड़ जाते। जब लौटे तो अंडे गायब। उनके मन में बड़ा रंज हुआ। उनके क्रोध की सीमा न रही। सोचने लगे,अंडे बहाने में समुद्र को क्या मिला? यहाँ तक तो कभी आता न था। हमारी सारी जिन्दगी तो यहीं बीती। हो न हो,जानबूझ के शैतानियत की है। अच्छा,तो इसका नतीजा उसे भुगतना ही होगा। दोनों ने तय कर लिया कि चाहे जो हो,मगर या तो दोनों मर जाएँगे,या अंडे ही वापस लेके दम लेंगे। समुद्र को अंडे लौटाने के लिए दो-चार दिन की मुहलत दी गई और कहा गया कि न देने पर या तो तुम्हीं या हमीं। कहते हैं कि न सिर्फ समुद्र बल्कि सुनने और देखने वाले सभी हँसे कि यह क्या बच्चों की-सी नादानी है,देखो इन तुच्छ पक्षियों की हिम्मत। मगर पक्षी अड़े रहे। वह अपने दृढ़संकल्प से विचलित न हुए। मुहलत की अवधि भी बीत गई। मगर अंडे कौन देता? किसे इसकी परवाह थी? अपार विस्तार वाला और मच्छ,कच्छ आदि एक से एक खूँखार जानवरों एवं पहाड़ों तक को अपने उदर में पालने तथा स्थान देने वाला समुद्र इनकी बात सुनने भी क्यों लगा? जब अवधि पूरी हुई तो पक्षियों ने न कुछ सोचा और न विचारा और लगे चोंच से समुद्र का पानी उठा-उठा के बाहर उलीचने। खाना-पीना बन्द। उसकी फिक्र उन्हें काम के आगे कहाँ थी। काम बराबर चालू रहा। देखा-देखी पास-पड़ोस के पक्षी भी आए और पूछने लगे कि आखिर पानी पीना क्यों छोड़ दिया और यह क्या कर रहे हो? मगर वे दोनों सुनने को भी रवदार नहीं ? सभी हैरान थे। परन्तु उनका उलीचना तो अखंड रूप से चालू था। उनने बात की अपेक्षा काम से ही उत्तर देना उचित समझा। बातों को अपनी तपस्या में वे दोनों विघ्न मानते थे। जैसे योगी अपनी तपस्या के विघ्नों से बचता है वही बात वे दोनों भी करते थे? आखिर योग भी तो किसी लक्ष्य की साधना ही है न? और वह भी अपनी लक्ष्य की साधना में लग्न थे,तल्लीन थे। फिर विघ्न-बाधाओं से बचते क्यों नहीं। अन्त में उनकी इस धुन का,इस लक्ष्य के प्रति अनन्य भक्ति का,मर जाएँ या लक्ष्य सिद्ध करें इस अटूट संकल्प का असर आखिर और पक्षियों पर भी हो के ही रहा। यहाँ तक कि जो बड़े-बड़े समझदार थे,जो इनको ही समझा-बुझा के उस नादानी के काम से विरत करने का बीड़ा उठाने आए थे। उन पर भी असर हुआ और 'चौबे गए छब्बे बनने मगर दूबे हो के लौटे' वाली बात चरितार्थ हुई। फलत: धीरे-धीरे सभी पक्षी उसी बेवकूफी में फँस गए। फिर तो उलीचने वालों का ताँता बँध गया। कुछ ही दिनों में देखादेखी लाखों-करोड़ों,अनन्त पक्षी जहाँ देखो चोंच से समुद्र का पानी उलीच रहे हैं। खूबी तो यह कि पूछने पर कोई किसी से वजह भी नहीं बताता। पीछे तो पूछने की हिम्मत भी किसी को नहीं होती थी। वह नादानी ऐसी थी कि सबों के सिर पर सवार हो गई। बड़े-बड़े दाना लोग नादान बन गए। लगन और धुन का जादू ऐसा ही होता है। ऐसा ही यह कीमिया है कि सभी चीजों को पारस बना देता है ज्यों ही इसने छुया। यह ऐसी भयंकर छूत है। आखिर में एक दिन नारद महाराज भी घूमते-घामते उधर आ निकले और यह तमाशा देख के दंग रह गए। उनने हजार कोशिश की कि इस नादानी के कारण का पता लगाएँ। मगर सुनता कौन? उन्हें अभिमान था कि हम तो ऋषि हैं। हमारा अनादर तो कोई कर नहीं सकता। मगर वहाँ क्षणमात्र के लिए भी फुर्सत ही किसे थी जो कि उनका आदर करता? फलत: रंज होने के बजाए उन पर भी इसका बड़ा असर हुआ। वे फौरन ढूँढ़ते-ढाँढ़ते गरुड़ के पास पहुँचे और पक्षिराज को कसके फटकारा कि तुम यहाँ मौज करते हो और तुम्हारे वंश पर उधर बला आई है। छि: छि:। खबर भी नहीं लेते। सुनते हैं कि तुम्हारे परों में अपार शक्ति है,जिससे समुद्र को जला सकते हो? वह अब कब काम आएगी? गरुड़ शर्मिन्दा हुए और दौड़ पड़े। वहाँ जा के जो नजारा उनने देखा उससे अत्यन्त विचलित हो उठे। फिर क्रोध के साथ अपने पंखों को उठा के समुद्र में मारना इसलिए चाहा कि सारा पानी जला दें। इतने में ही हाथ जोड़ के मनुष्य के रूप में समुद्र ने सभी अंडे हाजिर किए। चलो,मामला तय हुआ। गरुड़ ने उन दोनों नर-मादा पक्षियों को किसी प्रकार ढूँढ़ के अंडे सौंपे। फिर रवाना हो गए। उसके बाद ही कहीं जाकर वह उलीचना रुका। जनता के काम के लिए और खासकर क्रान्ति लाने के लिए जब तक टिट्टिभी जैसा व्यवसाय और दृढ़संकल्प न हो,कुछ भी होने-जाने का नहीं। और जब नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में ही यह धुन नहीं तो जनता में और किसानों में वह कहाँ से आएगी? उसकी छूत उनमें कैसे लगेगी? टिट्टिभी की छूत असंख्य पक्षियों में लगी थी। वैसे ही नेताओं और कार्यकर्ताओं की लगन,तत्परता और धुन की छूत भी किसानों में लगती है। टाल्सटॉय ने कहा है कि हमारे लेक्चरों,नोटिसों,किताबों और गीतों का स्थायी प्रभाव जनता पर नहीं पड़ता। कुछ समय के लिए भले ही पड़ जाए। और बिना स्थायी प्रभाव के काम निकलता नहीं। लेकिन जिन बातों के लिए नोटिसें बाँटते या लेक्चर देते हैं उन्हीं के लिए जब मरने-मिटने को जेल जाने,मार खाने,जायदाद जब्त करवाने को तैयार हो जाते हैं, सारांश कि उन्हीं की धुन में मस्त हो जाते हैं। और अन्य सारी बातें भूल जाते हैं, तभी दुनिया की ऑंखें खुलती हैं और वह पीछे-पीछे दौड़ पड़ती है। तभी उसके दिल पर उन बातों का स्थायी असर होता है। इसीलिए नेता और कार्यकर्ता में इस धुन का होना सबसे ज्यादा जरूरी है,चाहे वह लिखना-पढ़ना और लेक्चर झाड़ना भले ही न जानता हो। नेताओं में जो चौथी चीज होनी चाहिए वह है इसी धुन के सिलसिले में। कहते हैं कि 'हाँके भीम होयँ चौगुना।' मगर जहाँ हाँकने का प्रश्न न हो? जहाँ मदद देनेवाला और हिम्मत बँधाने वाला तो हो नहीं,किन्तु विरोधी हों और चारों ओर से बाधाओं का पहाड़ टूट पड़े? वहाँ क्या हो? वहाँ सच्चा नेता क्या करे? 'अर्जुनस्य प्रतिज्ञद्धे न दैन्यं न पलायनम्', 'खाएँगे गेहूँ और रहेंगे एहूँ।' जितने ही विघ्न आएँ,जितनी ही दिक्कतें हों,जितनी ही रोक-टोक की वृद्धि हो,उतनी ही हिम्मत बढ़े तभी कार्य सिद्धि होती है। बाधाएँ तो हमारी मजबूती की जाँच के लिए ही आती हैं। क्योंकि कमजोरों को विजयश्री जयमाल पहनाना नहीं चाहती है। इसीलिए परीक्षा की जाती है। जब वैसे मौकों पर भी हम डटे रहे हमने पस्ती न दिखाई,किन्तु और भी हजार गुना जोर लगा के आगे बढ़े,तो किसकी ताकत है कि सफलता रोक सके? और जब नेता में ही यह बात न होगी,जब वही चट्टान की तरह अड़ा न रहेगा,तो अनुयायी और किसान कैसे अड़ेंगे? इसीलिए उसमें इस गुण का होना भी निहायत जरूरी है,अनिवार्य रूप से आवश्यक है। पाँचवीं चीज है अपने आप में,अपने लक्ष्य और किसानों में अमिट विश्वास। नेताओं और कार्यकर्ता के पूर्व इतिहास से इस बात का पता लगाना चाहिए और वर्तमान समय की बातचीत से भी टटोलना चाहिए कि उनमें आत्मविश्वास है या नहीं। वे यह पूरा यकीन रखते हैं या नहीं कि उनका लक्ष्य, किसान राज्य कायम होना, सिद्ध होगा या नहीं। यह भी देखना तथा अच्छी तरह पता लगाना होगा कि कहीं वे ऐसा तो नहीं समझते कि उनसे यह काम तो होगा नहीं। इसे तो कोई और ही पूरा करेगा। यह भी देखना चाहिए कि किसानों पर उन्हें पूरा विश्वास है या नहीं,कि वे जो चाहें वही काम लक्ष्य सिद्धि के लिए किसान जरूर करेंगे। यदि तीन बातों में एक-दो या सभी के बारे में उनके दिल में जरा भी शक हो तो वह हरगिज नेता बन नहीं सकते। वह सेनापति ही कैसा,वह सिपाही ही कैसा जिसे न तो अपने में विश्वास हो और न अपने लक्ष्य में? वह तो मैदाने जंग में टिक सकता ही नहीं। वह तो बात की बात में पछाड़ खाएगा। उसे हिम्मत कहाँ कि अन्त तक टिक सके? जिसे सेना की योग्यता में ही विश्वास नहीं वह क्या लड़ेगा और क्या विजयी होगा? उसकी तो जड़ ही खोखली है,उसमें घुन लग चुका है। इसीलिए नेता के लिए इन तीनों में अटूट अपार विश्वास का होना निहायत ही जरूरी है। छठी चीज है नेता का बाहर और भीतर एक रंग होना। कहा है कि 'दुरंगी छोड़ दे,इकरंग हो जा'। दुरंगी चाल खतरनाक है। दुरंगी तो बाहर भी होती है जिसे गंगा-यमुनी चाल कहते हैं। जो लोग चमगादड़ की तरह सभी को खुश करना चाहते हैं और जो मौका देखके ही बातें किया करते हैं वे सर्वत्र अपनी सफाई ही पेश करते फिरते हैं। किसान के सामने किसान की बात और जमींदार के सामने उसकी बात करना,यदि कोई पूछे कि अमुक स्थान पर तो आपने इसके उलटा कहा था तो चटपट उसका अनुकूल ही मतलब लगा लेना और इस प्रकार अपनी सफाई पेश कर देना रँगे सियारों का ही काम होता है। वे तो बाजारू सौदा है,फलत: सभी जगह अपनी कीमत लगवाना चाहते हैं। उनकी जिन्दगी यों ही गुजरती है। वे तो कुछ ठोस काम कर भी नहीं पाते। तब तो पकड़ लिये ही जाएँ। जीवन-भर उनकी सर्वत्र पूछ होती रही। उनके लिए यही क्या कम है? मगर कुछ लोग तो ऐसे काइयाँ और घाख होते हैं कि बातें करते हैं खुल्लमखुल्ला ऐसी जो या तो साफ किसानों के ही हित की हों या कम से कम ऊपर से उनका ऐसा ही मतलब मालूम पड़े। अपनी सारी वकालत और अपना सारा दिमाग केवल इसी वंचना,ऐसी ही दुमानियाँ बातों में खर्चते हैं। गोया कचहरी में बैठे वकालत करते हों। नतीजा यह होता है कि किसान धोखे में पड़ जाता है और उन पर लट्टू हो जाता है। साफ बातों का तो कहना ही नहीं। मगर गोल बातों में भी वह अपना ही मतलब निकालता है और समझता है कि यही हमारे कर्णधार हैं। कहते हैं कि किसी भविष्यवक्ता से जो बड़ा चालाक था,किसी ने अपनी गर्भवती स्त्री के बारे में पूछा कि इसे लड़का होगा या लड़की? उसने जबानी न कहके एक कागज पर लिख दिया,'लड़का न लड़की'। पूछनेवाला सीधा था। कागज लेके चला गया। उससे भविष्यवक्ता ने कहा था कि कागज को अभी मत पढ़ो। जब सन्तान हो जाए तभी खोल के पढ़ना और अगर मेरी बात मिथ्या हो तो कहना। उसमें चालाकी यह थी कि लड़का और लड़की के बीच में जो न था वह दोनों ओर चलता था। फलत: यदि लड़का पैदा होता तो उसका अर्थ लगता कि लड़का,न लड़की। यदि लड़की होती तो मतलब होता कि लड़का न,लड़की। लेकिन यदि गर्भपात हो जाता तो मानी लगता कि न लड़का,न लड़की। ऐसी ही बातें चतुर नेता करते हैं। लेकिन बातें करने और स्पीच झाड़ने के बाद समय-समय पर जमींदारों और मालदारों की दरबारदारी भी करते रहते हैं। उनसे इस प्रकार घुल-घुल के बातें करते हैं कि लगता है उन्हीं के खैरख्वाह हैं। होते भी हैं वे लोग ऐसे ही। बातें करते हैं किसान की और काम करते हैं उनके शत्रुओं का। काम तो हर घड़ी होता भी नहीं,किन्तु मौके से ही। जब किसानों का उन पर विश्वास है तो वे शक तो करेंगे नहीं। अत: मौका पाते ही ये हजरत लोग जमींदारों का काम बना देंगे। उनसे जमींदारों की भेंट मुलाकात बहुत ही लुक-छिप के और किसी न किसी बहाने से ही होती है ताकि किसानों के दिलों में उनके प्रति शक न हो सके। वहीं माल भी चखते हैं। उनके ही पैसे से अपना काम भी करते हैं,उनसे ही जमीन भी चुपके से लिखा- पढ़ी करके ले लेते हैं। सगे-सम्बन्धियों को उनके यहाँ,या उनके द्वारा नौकरी-चाकरी भी दिलवा देते हैं। उनकी मोटरों से सैर सपाटा भी करते रहते हैं। ये लोग बड़े ही खतरनाक हैं। ये सब रेशम की फाँसी हैं। काले नाग के बच्चे हैं। इसीलिए जरूरत इस बात की है कि किसान उनके पीछे अपने खुफिया बराबर तैनात रखें। वह दिन-रात उनकी खबर लेता रहे कि कहाँ गए,कहाँ कब उठे-बैठे,कहाँ खाया-पिया,कहाँ सोए और किससे कब क्या लिया-दिया। उनकी दिनचर्या का रत्ती-रत्ती पता लगाना निहायत ही जरूरी है। जो जमींदारों या किसान के शत्रुओं से मिले-जुलेगा,घुल के बातें करेगा,उनके यहाँ खाए-पिएगा,सोवेगा और उनका काम भी करेगा वह किसानों को जरूर धोखा देगा। वह बड़ा ही बगुला भगत है। उससे सजग रहना होगा। धनियों के पैसे में ऐसा जादू है कि कुछ कहिए मत। वह ऐसी मीठी छुरी है कि नेता लोग तो उससे खामख्वाह जिबह होते ही हैं। यदि वे न भी चाहते हों और ईमानदार भी हों। मगर उनके साथ ही किसान भी कट जाते हैं। नेताओं का जिबह होना तो इतना ही है कि वे जमींदार के हाथ के कठपुतले हो गए। मगर किसान तो खत्म ही होते हैं और पता भी नहीं चलता। यही तो खूबी है। धनियों के इस पैसे की बात कैसी खतरनाक है। यह समझना आसान नहीं है। नेता लोग उनसे पैसे लेते हैं और कहते हैं कि स्कूल खोलेंगे,पुस्तकालय खोलेंगे,आश्रम खोलेंगे और कार्यकर्ताओं को खिलाएँ-पिलाएँगे। यहाँ मैं उन नेताओं की बात करता हूँ जो सचमुच अपने लिए कुछ नहीं चाहते जो जनता की ही भलाई चाहते हैं। वह समझते भी हैं कि इस प्रकार भलाई होगी। उधर अमीर और जमींदार समझता है कि चारा खिला-पिला के फँसा रहे हैं। पीछे तो कहीं अलग जाई न सकेंगे। स्कूल खुल गया,पुस्तकालय बन गया और उसी के साथ अमीर का डंका भी पिट गया। नेता ने भी कहा कि फलाँ बाबू ने या फलाँ सेठ जी ने यह उपकार किया है। इस प्रकार जनता के दिल पर उसकी धाक जमी। अब अगर बोर्ड या असेम्बली के चुनाव में वह धनी खड़ा हो जाए तो क्या होगा? नेता को तो हिम्मत ही नहीं कि विरोध करे। क्योंकि स्कूल जो टूटेगा,पुस्तकालय जो बन्द हो जाएगा यदि उसके रुपए न मिलें। यह देखा जादू? नतीजा हुआ कि वह अमीर जीत गया। वहाँ जाने के बाद तो हजारों ढंग से वसूल ही कर लेता है उस रुपए का हजार गुना जो उसने उपकार में दिया था। यही नहीं,यदि नेता हिम्मत करके विरोध भी करे तो क्या होगा? उसकी धाक तो पहले से थी ही। अब कुछ और पैसे खर्च करके जरूर ही जीत जाएगा। फिर तो विरोध गुनाह बेलजत होगी। इसलिए विरोध तो न करना ही ठीक है,ऐसा ही सोचते हैं। यदि कहीं वह चीनी की मिल का मालिक है और किसानों और मजदूरों को हजार ढंग से दिक करता है,पैसे कम देता है,ऊख की तौल आदि में चोरी करता है,दाम देने में जालसाजी करता है,तो भी नेता के मुँह पर तो ताला ही लगा रहता है। यदि बोले तो चन्दा बन्द हो जाए,अथवा आश्रम ही टूट जाए। फिर कार्यकर्ता कैसे रहेंगे। इस प्रकार वह मालदार किसानों से और मजदूरों से भी लाखों-करोड़ों रुपए लूटता है और नेता लोग 'टुक-टुक दीदम,दमन कसीदम' करते हैं। उसी लूट में से एक बूँद खून हमें भी चन्दा देता है। नेताओं को देता है। सो भी उपकार के नाम पर। धन्य है यह उपकार और धन्य है हमारी बुद्धि। यही किसान हितैषिता तो किसानों को बरबाद करती है। खूबी तो यह कि न तो वे और न हमीं इसे समझ पाते हैं। यह मीठा जहर है। कहते हैं कि चोरों का दल रात में कहीं चोरी करने चलता है। अगर रास्ते में दैवात कुत्ते मिल जाएँ तो भौंकने लगते हैं। इसमें चोरों को बराबर खतरा रहता है। इसलिए हमेशा कुछ गुड़ पास में रखते हैं और कुत्तों को देखते ही उनके सामने डाल देते हैं। फिर भौंकना छोड़कर वे तो गुड़ पर ही लिपट गए और चोर निकल गए। यही बात अमीरों और शोषकों की है। वे नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी स्वच्छन्द लूट में बाधक और भौंकने वाले कुत्ते समझते हैं। वे खूब जानते हैं कि यही लोग शोरगुल मचाएँगे,आन्दोलन खड़ा करेंगे। इसलिए इनका ही मुँह बन्द करना चाहिए। यही कारण है कि यदि नेता वगैरह स्वार्थी हुए तो उन्हें उनके ही लिए पैसे आदि दे दिलाकर काम चला लिया और उनका मुँह बन्द कर दिया। लेकिन अगर स्वार्थी न हुए तो परोपकार और आश्रम वगैरह के नाम पर ही पैसे दे के उनकी आवाज रोक दी। हमारी समझ कहाँ जो इसे समझ पाएँ। यह तो धनियों का महाजाल है। न जाने आश्रम और कार्यकर्ता रखके हम क्या करेंगे,जब किसान ही लुट जाएँगे। मगर यह समझें तब न? 17.8.40। असल में जो कार्यकर्ता इस प्रकार तैयार होंगे वह तो भाड़े के ही होंगे। उन पर विश्वास तो किया जा सकता नहीं। क्योंकि जिनका भरण-पोषण किसानों के शत्रु एवं उनके रक्तपान करनेवाले करें वे कब तक किसानों का साथ दे सकते हैं? 'बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी?' इसलिए यह सबसे जरूरी सातवाँ गुण नेता का होना चाहिए कि लड़ाई के लिए जो तीन आवश्यक और बुनियादी चीजें हैं उन्हें किसानों के भीतर से ही प्राप्त करें। आदमी (कार्यकर्ता) अन्न,पानादि सामान और पैसे इन तीनों के बिना कोई लड़ाई लड़ी जा सकती नहीं। इसलिए ये तीनों (men,moeny,materials) किसानों को ही अपने ही भीतर से जुटाना होगा। उन्हें अपने पास से ये तीनों पदार्थ एकत्र करने होंगे। यही पक्का सिद्धान्त है और नेता का इसमें पूरा जोर,उसकी इसमें दृढ़ धारणा चाहिए। क्योंकि वही तो किसानों को इनकी तैयारी के लिए प्रेरित करेगा,कटिबद्ध करेगा और जब उसी में लोगों का पक्का विश्वास नहीं,जब वही यह बात जरूरी नहीं मानता,तो उन्हें इसके लिए बराबर सुझाएगा क्योंकर? क्या मँगनी के सिपाही,गोला-बारूद और पैसे से किसी फौज को कभी विजय मिली है? क्या दुश्मनों के ही सिपाही,उन्हीं के अस्त्र-शस्त्र और उन्हीं के रुपए-पैसे से हम किसानों का महान संग्राम जीतेंगे? ऐसा सोचना तो नेता का राजनीतिक दिवालियापन है,उसके दिमाग की दरिद्रता है। शत्रु भी गधा थोड़े ही है कि वह यों ही हमारे लिए ये चीजें देगा। इसीलिए अगर वह देता है तो किसी चाल से ही। ताकि ऐन मौके पर गोलमाल हो जाए। इसीलिए उससे सजग रहना ही होगा। किसानों के सच्चे नेता के लिए जो सबसे जरूरी और बुनियादी चीज है और जिसके बिना अन्त में विफलता ही होगी चाहे और सभी सामान मौजूद ही क्यों न रहें,वह है उसमें श्रेणी संघर्ष की दृढ़तम एवं निरूढ़ भावना। किसानों और शोषितों का उद्धारक और लीडर वही हो सकता है जिसे इस बात का पूरा विश्वास हो कि शोषितों,जिनमें किसान और मजदूर हैं,की एक श्रेणी है,उनका एक दल है और जब तक वह अपने शोषकों,जमींदारों एवं पूँजीपतियों से बिना समझौता किए ही,चाहे वह रहें या हम रहें,दोनों तो, शोषित और शोषक तो, रह सकते नहीं,एक श्रेणी को तो मिटना ही है और अन्त में शोषक ही मिटेंगे, ' ऐसे जीते-जागते विश्वास के साथ लड़ेंगे नहीं,तब तक उनका निस्तार हो सकता नहीं। जो सुलह सपाटे और समझौते की बातें सोचता और करता है या जिसके दिल और दिमाग में वर्ग सामंजस्य और सभी दलों के मेलजोल (class collaboration) का खयाल है वह तो किसानों की नाव को मध्य धारा में ही अवश्य ही डुबोएगा। इसमें जरा भी शक नहीं। यही श्रेणी संघर्ष तो कमाने वालों के सारे आन्दोलनों और लड़ाइयों का मूलाधार है,नींव है,बुनियाद है। यही असली कसौटी है। इसके बारे में जरा भी मुरव्वत और लल्लो चप्पो नहीं होना चाहिए। नेता लोगों को इसी कसौटी पर अच्छी तरह कस के जाँचना चाहिए। उन्हें इसी तराजू पर तौलना हमारा फर्ज है, यही चित्र का आधार है और बाकी गुण इसमें भरे गए रंग हैं। यह आठवाँ गुण असल में सबसे पहला है। प्राय: देखा जाता है कि जब असेम्बली आदि का चुनाव होता है तो हजारों हजार रुपए खर्च होते हैं। खर्च का कोई हिसाब ही नहीं रहता। ठीक ही तो है। इन्हीं रुपयों के बल पर ही तो विजयी बन के किसानों और मजदूरों को उनकी श्रेणी के शत्रु,उनके मददगार तथा उनके दलाल सदा के लिए गुलाम बनाते हैं। इसलिए यदि वे लोग ये पैसे पानी की तरह बहाते हैं,तो ठीक ही है। यह बात बखूबी समझ में भी आती है। मगर जब किसानों के लिए ऑंसू बहानेवाले नेता लोग ये पैसे खर्चते हैं और कहते हैं कि जीतने पर असेम्बली में उनकी भलाई करेंगे तो यह बात दिमाग में आती ही नहीं। आखिर वे लोग ये रुपए कहाँ से खर्चते हैं? यदि अपने पास से तब तो शक होता है कि वे भी इतने रुपए जमा करने के कारण शोषक श्रेणी वाले ही तो नहीं हैं। इन रुपयों को रोजगार-व्यापार में खर्च न करके चुनाव में खर्चने का मतलब आखिर क्या हो सकता है? यदि व्यापार में मुनाफा करते हैं और बैंक में सूद पाते हैं तो चुनाव के बाद भी वह यही बात क्यों न करेंगे और अपना मुनाफा क्यों न कमाएँगे? वर्तमान समय में जैसे नए-नए व्यापार और कमाने के रास्ते निकलते हैं? उसी प्रकार यह चुनाव भी एक व्यापार क्यों न माना जाए? और मानने की बात भी क्या? वह तो साफ ही है। हमेशा यही देखा जाता है। जोई वहाँ गया उसे ही अपनी ही फिक्र पड़ी और किसान छूटे? किसान इस चीज को समझे यही असल बात है। फलत: जो नेता ऐसा करें उन पर हर्गिज-हर्गिज यकीन न करें। जो उनके असली नेता होंगे वह तो साफ कहेंगे कि हमें न तो चुनाव में पड़ना है और न व्यवस्थापक सभा का सदस्य बनना है। हाँ, यदि किसान सभा और किसान इसकी जरूरत समझते हैं तो चाहे पैसा खुद खर्च करें, या बिना खर्च के ही हमें वहाँ पहुँचा दें। हमें क्या गर्ज पड़ी है कि पैसे खर्चे, या इसके लिए परेशान हों? हमें तो किसानों की सेवा करनी है। जहाँ हुक्म होगा वहीं जाएँगे। यह नौवीं बात नेता में चाहिए। दसवीं बात जाति और धर्म की है। हम स्थानान्तर में बता चुके हैं कि जाति और धर्म की दोहाई देना मालदारों और मध्यमवर्ग का काम है,उनकी पहचान है। वे लोग जाति-पाँति और धर्म को खामख्वाह आर्थिक और राजनीतिक मामलों में घसीटते हैं। यहाँ तो रोटी और जमीन का सवाल है। चाहे सीधी लड़ाई हो या व्यवस्थापक सभाओं आदि में जाना हो,हर हालत में जाति और धर्म का प्रश्न तो वहाँ उठता ही नहीं। वहाँ न तो पूजापाठ करना है और न शादी या भोज वगैरह। फिर जाति या धर्म का वहाँ मौका ही क्या? किसी खास धर्म या जाति के लिए वहाँ कानून भी नहीं बनते और न जमीन ही दी जाती है। रोटी,कपड़े आदि का ताल्लुक किसी जाति या धर्म से है भी नहीं। फिर यह गोलमाल क्यों? किसानों की जमात में रहके ऐसा प्रश्न,ऐसी हरकत और ऐसी कार्यवाही क्यों? उन्हें तो इन सवालों को सपने में भी नहीं उठाना चाहिए। भूलकर भी मन में इन्हें आने देना नहीं चाहिए। उन्हें इनसे गर्ज ही क्या? ये तो सारा गुड़ गोबर कर देंगे और धोखा देंगे। इसलिए किसान नेता भूल के भी ये बातें न करें। वह तो इनसे सदा अलग रहें। हम पहले धुन और लगन की बात कही चुके हैं। उसी के सम्बन्ध से नेताओं में ग्यारहवीं बात भी रहती है, ग्यारहवीं बात पाई जाती है। आप चाहे उन्हें जेल में रखिए या कालेपानी में,देश में रखिए या विदेश में,सभा में रखिए या सीधी लड़ाई में,व्यवस्थापक सभा में रखिए या साधारण बातचीत में,वे चाहे सोते हों या जागते हों,बीमार हों या अच्छे हों,घूमते-टहलते हों या चुपचाप बैठे हों,हर हालत में हम एक ही बात देखेंगे। वह बराबर किसी न किसी समस्या या सवाल पर जिससे किसानों का ताल्लुक है,सोचते-विचारते रहेंगे। वे बराबर ही ऐसी उधेड़बुन में लगे रहेंगे। चाहे कोई वक्तव्य लिखें,पुस्तक-पुस्तिका लिखें,प्रस्ताव तैयार करें,कार्यपद्धति बनाएँ,या इसी ढंग की और बातें करें। मगर कुछ न कुछ करते जरूर रहेंगे। ऐसी ही चीज जिससे किसानों का सीधा हित हो,उनकी लड़ाई आगे बढ़े और उनका सिर ऊँचा हो। सारांश 'जागत सोवत शरण तिहारी' को चरितार्थ करेंगे। यही उनकी अनन्य भक्ति है। उन्होंने किसानों की बातों को इस कदर अपनाया है कि सपने में भी उन्हें वही बातें दीखती हैं। अपनाने का यही अर्थ भी है सफल लीडर बनने के लिए यह बहुत ही जरूरी चीज है। बारहवीं और आखिरी चीज जो हम नेताओं के बारे में कहना चाहते हैं वह है खान-पान और रहन-सहन की पूरी सादगी के साथ ही अपनी धारणा को अमली रूप देना। सादगी न होने से तो मामला बेढब हो जाएगा। तब तो किसान दिल खोल के कभी उनसे हिल-मिल न सकेंगे। वह तो उनके खान-पान और और रहन-सहन से वैसे ही भड़केंगे जैसे लाल कपड़े से साँड़ भड़कता है। भड़कना तो किसानों का स्वभाव ही है। और यह ठीक ही है। उन्हें तो हमें अपने निकट लाना है ताकि हिल-मिल जाएँ। इसलिए सादगी जरूरी है। उनके साथ व्यवहार करने में जरा भी भेदभाव की गन्ध नहीं होनी चाहिए। नेता का दिल गंगा की धारा की तरह स्वच्छ होना चाहिए। इसका सलूक ऐसा हो ताकि सभी उसके पास में खिंच जाएँ। जैसे गंगा में डुबकी लगाने को सभी का दिल चाहता है वैसे ही सभी उसके पास अपनी रक्षा के लिए दौड़ के आएँ। नेता अपने अमल से ही अपने प्रति किसानों में यह विश्वास पैदा कर दें कि यही हमारा असली उद्धारक है। इसीलिए जरूरत इस बात की है कि नेता,राजे,महाराजे,सेठ,साहूकार और धनियों की अपेक्षा किसानों की कदर हजार गुनी ज्यादा करे। वह बाकी लोगों का अपमान तो कर सकते नहीं। ऐसा करने की न तो उन्हें जरूरत ही है और न यह उचित ही है। लेकिन वह ऐसा हर्गिज न करें जिससे देखनेवालों के दिल पर यह असर खामख्वाह पड़े कि किसानों की अपेक्षा उनकी कदर वह ज्यादा करते हैं। असल में हम हजार उपदेश दें और नारे लगाएँ। लेकिन हमारे पुराने संस्कार इतने जबर्दस्त और निरूढ़ हैं कि जिन्हें बराबर शोषक और खूँखार कहके कोसते हैं जब वही पास में आ जाते हैं तो उनके लिए अच्छे आसन और कुर्सी आदि का प्रबन्ध खामख्वाह करते ही हैं। मगर जब किसान या किसान सेवक आते हैं तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं समझते। यह बात बराबर होती है। कट्टर से कट्टर नेता यह करते जाते हैं। हो सकता है,उनके दिल में कोई दूसरा भाव न हो। मगर इसका परिणाम तो बुरा ही होता ही है और इसे देखकर बाहरी दुनिया पर,खास किसानों पर भी बहुत बुरा असर होता ही है। सीधी और साफ बात है कि हमारे सब किए-दिए को यह धो देता है। हम जान के न करें इससे क्या? साबुन अनजान में भी लगाइए तो धोएगा ही। हमारे पुराने संस्कार हमें ऐसा करने को मजबूर करते हैं ओर उसका नतीजा खतरनाक होता है। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्रति बेमुरव्वत होके यह व्यवहार बदलें। जब हम सचमुच किसान को अन्नदाता और सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तो उसके साथ खुद वैसा ही बर्ताव क्यों न करें? जब हमीं न करेंगे तो और लोग कैसे करेंगे? क्यों करेंगे? आखिर कहने से तो कुछ होता नहीं,करने से ही तो होता है। इसलिए जैसा मानते हैं वैसा करें क्यों नहीं? यदि अमीर लोग आते हैं तो आएँ। मगर समझ-बूझ के आएँ। वह अपमानित और निरादृत तो कभी होंगे नहीं,होने पाएँगे नहीं। मगर जिस सम्मान और प्रतिष्ठा की आदत उन्हें है वह हमारे यहाँ कभी मिलने वाली नहीं यह जान के आएँ। उनके लिए खास आसन और कुर्सी क्यों? वह तो यदि हो भी तो किसान के ही लिए चाहिए। नहीं तो कम से कम इतने से भी तो शुरू हो कि किसी के लिए भी न रहे। उससे भी काम चल जाएगा और धीरे-धीरे इस असली जगह पहुँची जाएँगे। यह बात निहायत जरूरी है। हरेक किसान का फर्ज है कि इस बात पर खास नजर रखे। जब कभी नेताओं के पास रहे तो देखे कि उनका बर्ताव जमींदारों तथा अमीरों के साथ कैसा होता है और किसानों के साथ किस प्रकार का। यदि फर्क पाए और देखे कि अमीरों की कुछ भी खास ढंग की कदर हो रही है तो बेखटके टोक-टाक करे और पूछ बैठे कि यह क्या हो रहा है? यह गड़बड़ी क्यों? अगर किसान अपना दब्बूपन छोड़के सख्ती के साथ यह पूछताछ,यह निगरानी,यह परख,यह देखभाल और यह परीक्षा शुरू कर दे तो सिर्फ यही नहीं कि नेताओं की कमजोरियाँ और त्रुटियाँ खत्म हो जाएँ और वह पक्के बन जाएँ। बल्कि उनका कच्चा चिट्ठा भी खुल जाए और यदि वह नकली हों तो सभी को मालूम हो जाएँ। फिर तो दुम दबा के भागे बिना उनकी गुजर ही नहीं होगी। सौदा खरीद करना है तो किसान को। फिर उसकी परख और जाँच दूसरा कौन करेगा? दूसरे को गर्ज ही क्या पड़ी है? ऐसी आशा भी वह क्यों करता है कि दूसरे देखभाल कर देंगे? उसकी मुरव्वत और दब्बूपन ने ही तो उसे रसातल भेजा है। फिर भी उसे वह खुद यदि तिलांजलि नहीं देता तो उसके उद्धार की आशा नहीं। नेता लोग जमींदार या साहूकार भी तो नहीं कि जमीन ही छीन लेंगे,या कर्ज न देंगे,फिर रुपए की तरह बार-बार ठनका के ही उन्हें क्यों नहीं स्वीकार करेंगे? इस नेतृत्व के बारे में एक और भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण किसान जैसे दलों के लिए सबसे जरूरी एवं बुनियादी प्रश्न रह जाता है। बातें तो पहले बहुत कुछ कही गई हैं जिनसे सच्चा नेतृत्व किसानों को मिल सकेगा। इसमें भी शक नहीं कि यदि उन बातों पर अमल हो और किसान एवं उनके हितैषी उनके अनुसार काम करने लग जाएँ तो नेताओं की गड़बड़ी एवं धोखाधाड़ी का झमेला ही खत्म हो जाए। मगर सवाल तो यह है कि क्या यह बात सम्भव और व्यावहारिक है? क्या उन सभी कसौटियों,परिस्थितियों और लक्षणों के अनुसार देख-रेख और नाप-तौल मुमकिन है? क्या व्यावहारिक दृष्टि से किसान जैसी सबसे पिछड़ी श्रेणी और जमाअत के लिए वह अधिकांश में आदर्शमात्र नहीं है? किसे इतनी फुर्सत है कि नेताओं का जन्म,कर्म,पूर्व-इतिहास और जीवन-भर की दिनचर्या का पता लगाए और बारीकी से उसका खोद विनोद करे? कौन किसान ऐसा कर सकता है? और अगर किसान ऐसा करने ही लग जाएँ तब किसान सभा और उनके नेताओं की जरूरत ही क्या रह जाएगी? क्या तब वे खुद सबकुछ कर न लेंगे। यदि नेताओं के सामने बुद्धूपन और दब्बूपन दिखाना ही छूट जाए तो फिर छप्पन लाख मुफ्तखोर साधु-फकीर उन्हें क्योंकर ठगें? और भाग्य तथा भगवान के नाम पर अमीरों के बैल उन्हें क्यों बनाते रहें? क्या यह बात तब तक सोलहों आना सम्भव है,जब तक खुद उनमें ही क्रान्ति न हो जाए? हम मानते हैं कि वे लोग धीरे-धीरे इस काम में अग्रसर हो सकते हैं,धीरे-धीरे ही सफाई कर सकते हैं। मगर यह धीरे-धीरे भी किस प्रकार जाना जाए? इसकी पहचान भी क्या है? और इस चींटी की चाल से चलने पर कब तक वे पूर्णरूपेण तैयार होंगे? हम यदि मान भी लें कि सामूहिक रूप से इन बातों का प्रचार किसानों में कर देने पर वह स्वयं इस ओर ज्यादा ध्यान क्रमश: देंगे और आगे बढ़ेंगे। मगर आखिर जनसमूह की मनोवृत्ति भी तो एक चीज है। महज प्रचार कर देने से अब तक कितनी बातें सफल हो सकी हैं? और प्रचार करनेवालों की एक लम्बी सेना भी आखिर चाहिए और कोष भी। वह पहले ही कैसे होगा? यदि वही हो जाए तब तो मान ही लेना होगा कि सच्चे नेता और कार्यकर्ता काफी तादाद में पहले से ही तैयार हैं और पर्याप्त कोष भी है। मगर बात तो ऐसी नहीं है। नहीं तो फिर इन शिक्षाओं की जरूरत ही क्यों होती? सौ बात की एक बात यह है कि कोई ऐसा सीधा उपाय होना चाहिए जो सबकी समझ में आए,जिसे सभी किसान दिल से पसन्द करें,जिसे जरूरी समझें जिसके खिलाफ जाने या बोलने की हिम्मत किसान हितैषी नामधारी किसी को भी न हो सके,और जो अन्ततोगत्वा नकली नेताओं की कलई खोल दें। फलत: या तो वह लोग पहले ही भागें या बीच में ही खुद खिसक जाएँ। यदि और कुछ भी न हो तो भी कम से कम किसानों का ध्यान तो उनकी ओर स्वयं आकृष्ट हो,जिससे उनके आगा-पीछा को पहचान के उन पर कड़ी नजर रख सकें? यदि ऐसी कोई चीज उनकी और हमारी इस समूची हलचल का एक आवश्यक अंग हो तभी काम चल सकता है। बात तो सही है। इसीलिए तो नेताओं की पहचान के सिलसिले में किसानों के छोटे-मोटे हकों,उन पर होने वाले आए दिन के अत्याचारों और उनकी रोज-रोज की माँगों के सम्बन्ध में लड़ाई और संघर्ष को बराबर जारी रखना निहायत जरूरी है। इसी से सब मुराद पूरी होगी। उसी से सबका रहस्य खुलेगा। इतना ही नहीं। किसानों के खाँटी और असली नेता इन्हीं संघर्र्षों और मुठभेड़ों से निकलेंगे। असल में जब तक दलितों के भीतर से ही उनके नेता नहीं निकलते तब तक उनका दु:ख दूर हो नहीं सकता। इसलिए किसानों के नेता उन्हीं के भीतर से और मजदूरों के मजदूरों में से ही जब निकलेंगे और उनकी लड़ाइयाँ जब वे खुद ही चलाएँगे,तभी किसानों और मजदूरों की विपत्तियों की काली रात खत्म हो के सुख-सम्पत्ति का सूर्य का उदय होगा। लेकिन यह चीज पहले हो नहीं सकती। यह तो उसी रोजाना की छोटी-मोटी लड़ाइयों से ही होगी। स्थानान्तर में जिस छँटैया की बात कह चुके हैं और बता चुके हैं कि बिना छह बार की छँटैया के असली नेता मिली नहीं सकते,वह भी दूसरे ढंग से ठीक होई नहीं सकती। किसानों के प्रतिदिन के कष्टों और प्रश्नों को लेकर जो छोटी-मोटी लड़ाइयाँ लड़ी जाया करेंगी और उनका सिलसिला जो बराबर जारी रहेगा उन्हीं के द्वारा वह छँटैया (Purging) होगी। उनमें किसानों को लड़ने की तालीम भी अमली तौर से मिलेगी। उन्हें सीधी चोट और आमने-सामने की लड़ाई का प्रत्यक्ष अनुभव भी उनसे खूब ही होगा कि वह कैसे चलाई जा सकती है और उसमें कौन-कौन सी दिक्कतें आ सकती हैं। सच्ची बात तो यह है कि जैसे बिल्ली को देखते ही चूहे भाग जाते हैं और लाल कपड़े से साँड़ भड़कता है,ठीक वैसे ही ऐसी लड़ाइयों से नकली नेता और स्वार्थसाधाक लोग भागते हैं। वह जैसे-तैसे इन्हें टालना चाहते हैं। क्योंकि वहाँ तो दोतरफी चाल रह नहीं सकती। वहाँ तो खम ठोंक के किसानों की ओर से लड़ना और उन्हें लड़ाना है। विपरीत इसके किसान उन संघर्षों को स्वभावत: पसन्द करते हैं। चाहे स्वराज्य की लड़ाई और इसी प्रकार की और लड़ाइयों को वह भले ही खूब न समझें और उनमें उनका दिल भी उतना न लगे,नागरिक स्वतन्त्राता के नाम पर लड़ने का महत्त्व उनके दिमाग में भले ही न घुसे। मगर जमीन मिलने,लगान की कमी,उसकी छूट,सूद की कमी,ऋण की छूट,जमींदार के जुल्म आदि के विरुद्ध जो भी लड़ाई लड़ी जाए उसे तो खामख्वाह वह अपनी ही लड़ाई समझते ही हैं,उसमें पूरा उत्साह दिखाते हैं और चाहते हैं कि वह जारी हो,जारी रहे। केवल इसीलिए कि वह तात्कालिक फायदा पहुँचाने तथा आराम देने के लिए ही होती है,और जिसके पाँवों में जूते की काँटी बार-बार चुभती है,वह जरूर ही उससे बचने का उपाय फौरन करता है,करना चाहता है। मगर मौत से बचने का उपाय कोई नहीं करता। हालाँकि मौत की तकलीफ काँटी चुभने की तकलीफ से हजार गुनी ज्यादा मानी जाती है। यह क्यों? इसीलिए न कि वह तकलीफ प्रत्यक्ष नहीं,रोज की नहीं। मगर काँटी की तकलीफ या सरदर्द प्रत्यक्ष है? निकट है? अत: ज्यों ही वह लड़ाई छिड़ी कि कुछ लोग तो 'देखि शरासन गँवहि पधारे'। चलो,अच्छा ही हुआ। मगर जिनने हिम्मत की वह आगे बढ़े और भिड़े। नतीजा किसानों के लिए ठीक ही हुआ। पर उनके लिए? वह तो समझते थे कि उनकी लीडरी अब बरकरार रह जाएगी। इसमें पड़ने पर ही जीत जाने के बाद उनकी ख्याति तथा पूजा भी खूब ही हुई। लेकिन एक ही लड़ाई हो तब न? यहाँ तो चला सिलसिला। फिर तो उनके लिए आफत हुई। इधर किसान को चसका लगा कि यही ठीक है। मगर उधर वे घबराने लगे और चुपके से सटक सीताराम हुए। इस प्रकार पहली बार जो न भी निकले,बल्कि हिम्मत करके आगे बढ़े,वह दूसरी बार छँट गए। मगर कुछ तो ऐसे भी निकल सकते हैं जो फिर भी हिम्मत करें और दूसरी लड़ाई में भी भिड़ें। सफलता भी प्राप्त करें। लेकिन यहाँ तो एके बाद दीगरे लड़ाइयों की भरमार है। भरमार होनी ही चाहिए। यह काम जरूरी है। फलत: तीसरी,चौथी,पाँचवीं बार या कुछी बार और आगे जाने पर सभी कच्चे लोग छँट जाने को विवश होंगे। यह तो स्वाभाविक छँटैया है। इसे कोई रोक नहीं सकता। इसी के चलते चावल और भूसी अलग-अलग खामख्वाह होई जाएँगे। बिना ऐसा हुए काम भी नहीं चल सकता, भात बन नहीं सकता और वही हमारा लक्ष्य है। कहते हैं कि एक मुसलमान बहुत ही भूखा था। उसे खाना-पीना कहीं न मिला। एक दिन पता लगा कि कहीं ब्राह्मभोज है जिसमें हजारों ब्राह्मणों के आमंत्रित किए जाने की खबर है। किसी काइयाँ ने कहा कि तुम भी चले जाओ और ब्राह्मण बनके कम से कम एक दिन तो माल चख आओ। वह खुश तो हुआ। पर चिन्तित था कि यदि कहीं पकड़ा जाए तो? सलाहकार ने उसे एक जनेऊ पहना दिया और उसकी दाढ़ी मुँडवा दी। सिर पर गमछा रखके ढँक लेने को भी कहा ताकि शिखा के न होने की शंका भी किसी को होने न पाए। कुछ और भी बातें जहाँ तक उसे सूझीं उसने उसे बता दीं। फिर एक लोटा,गिलास देके रवाना किया। वह पहुँच भी गया और हजारों की भीड़ में हाथ-पाँव धोके भोजन की पंक्ति में जा बैठा भी। भोज्य पदार्थ परोसे गए और सभी के साथ उसने खाना भी शुरू किया। मगर उसका खाने-पीने का तरीका निराला ही देखके दैवात् किसी को शक हो गया। बस,चट उसने उसका पता पूछा। उसने अपना गाँव वगैरह बता दिया। इस पर पास-पड़ोस वालों को शक हुआ कि हैं,वहाँ का यह कौन? तब प्रश्न हुआ कि तुम किस जाति के हो? क्योंकि उस गाँव में ब्राह्मण तो थे नहीं। उसने कहना चाहा 'ब्राह्मण'। मगर उच्चारण ठीक न हो सका। तब सवाल हुआ कि कौन ब्राह्मण? बस वह घबरा गया और निराश होके बोला कि या अल्लाह,मुझे क्या मालूम कि ब्राह्मणों में भी बहुत ढंग के होते हैं? फिर तो वह भोज से निकाल ही दिया गया। कई जाँचों में जैसे-तैसे पार हो जाने पर भी आखिर पकड़ा गया ही। ऐसी ही दशा इन रोजमर्रे की लड़ाइयों में नकली नेताओं की होती है और अन्त में या तो वे खुद निकल जाते या निकाले जाते हैं। सीधी लड़ाई लड़ना तो कोई लेक्चर देना या बातें बनाना है नहीं कि दुमानिया शब्द बोलेंगे और उससे समयानुसार सभी अर्थ लगा लेंगे। यह तो काम है। यहाँ तो इधर जाओ या उधर रहो यह साफ मामला है। इसमें तो हो सकता है,नेताओं के निजी स्वार्थ का ही संघर्ष हो,यदि वे खुद जमींदार,साहूकार या पूँजीपति हुए या उनके सम्बन्धी ही सही फिर तो उसमें पड़ेंगे ही नहीं। यद्यपि अपने स्वार्थ की गड़बड़ी न भी हुई तो भी शोषक दल के स्वार्थ तो गड़बड़ी में पड़ेंगे ही। फिर ये नेता उन्हें कैसे समझा सकेंगे कि किसानों के साथी न हो के असल में वे उन्हीं के साथी तथा खैरख्वाह हैं? यह तो गैरमुमकिन हो जाएगा,सो भी लगातार लड़ी जाने वाली लड़ाइयों के चलते। इसीलिए तो उन्हें बराबर जारी रखना होगा और इसीलिए तो बनावटी नेता दुम दबा के अन्ततोगत्वा भागेंगे। दूसरी ओर किसानों को यह लाभ होगा कि उन्हीं में से नेता, और अनुभवी नेता तैयार हो जाएँगे। क्योंकि एक तो नकली और बाहरी नेताओं के धीरे-धीरे खिसक जाने से किसानों पर ही लड़ाई चलाने की जवाबदेही आ पडेग़ी और वह क्रमश: उसमें कुशल होई जाएँगे। आखिर वह तो भाग नहीं सकते। उन्हें तो उसी में मरना-जीना है। दूसरे बार-बार लड़ते रहने से उसमें तपतपा के पक्के बन जाएँगे। एकाएक पक्का तो कोई भी नहीं बनता। कहते हैं कि 'लय लागत लागत लागै,भय भागत भागत भागै'। बार-बार की ऑंच सैकड़ों बार खाने के बाद ही कच्चा लोहा खुद इस्पात बन जाता है। यही हालत किसानों के भीतर के जवानों और उत्साही लोगों की होगी। लड़ाई का व्यावहारिक अनुभव और उसे चलाने की कठिनाइयों का व्यावहारिक ज्ञान उन्हें दूसरी तरह हो सकता भी नहीं। ये लड़ाइयाँ ही तो उनके लिए अखाड़े का काम देंगी। किसानों को भी इस तरह सामूहिक लड़ाई चलाने का ज्ञान होगा। वे स्वावलम्बन का पाठ भी पढ़ेंगे। वे खुद अपने कष्टों को दूर कर सकते हैं,न कि दूसरों के जरिए इसकी पूरी जानकारी और इसका कतई यकीन भी उन्हें इन्हीं लड़ाइयों से होगा। उनमें जीत होने से उन्हें आगे की सफलता का विश्वास होगा। तात्कालिक लाभ होने से हिम्मत भी बढ़ेगी और उन्हें चसका लगेगा। उनमें जो वर्ग-चेतना और संघर्ष शक्ति नहीं है वह भी धीरे-धीरे अपने आप न सिर्फ उनमें आएगी,किन्तु मजबूत होती जाएगी। जरूरत होने से उन्हें तो उसकी तरफ मजबूरन बढ़ना ही होगा। वे दूसरे आदमी कहाँ पाएँगे,धन कहाँ से लाएँगे और पार कैसे पाएँगे इत्यादि जितने भी निराधार वहम और गलत खयाल उन्हें आगे बढ़ने से रोकते हैं,वह अपने आप भाग जाएँगे। उनके लिए गुंजाइश रही न जाएगी। दुश्मन की भी हिम्मत हारेगी। उसमें पस्ती आएगी। इसलिए यह दैनिक लड़ाइयाँ हर तरह से वांछनीय हैं। |
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