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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें

चौथा भाग

 
(9)
किसान सभा को अपनाएँ 

18.8.40। जब हम वर्ग संघर्ष और श्रेणी युद्ध की बात मान लेते हैं,तो किसानों के लिए एक जबर्दस्त एवं सुसंगठित किसान सभा की जरूरत अपने आप साफ हो जाती है। श्रेणी युद्ध का तो मतलब ही है कि वर्तमान समाज अनेक परस्पर विरोधी श्रेणियों में बँटा हुआ है। आज तो यह बात साफ हो गई है और होती जाती है कि समाज या जनता नाम की कोई अखण्ड और सम्बद्ध चीज इस दुनिया में है नहीं। पहले चाहे इस प्रकार की चीज भले ही रही हो,हालाँकि भौतिक दृष्टि से इतिहास का अध्‍ययन और विश्लेषण करने वाले इस बात को नहीं मानते। लेकिन पूँजीवाद के उत्तरोत्तर विकास और उसका अन्तिम रूप साम्राज्यवाद में परिणत हो जाने के बाद जिसे भी ऑंखें हों वह साफ देख सकता है कि शोषकों और शोषितों की दो मुख्य श्रेणियों में यह समाज बँट गया है। प्रत्येक श्रेणी में अवान्तर भेद हैं सही,जैसे शोषितों में किसान और मजदूर या निम्न मध्‍यम वर्ग और शोषकों में पूँजीपति जमींदार और उच्च मध्‍यम श्रेणी। फिर भी दो श्रेणियाँ बहुत ही स्पष्ट हैं।
    हमारी दृष्टि ही कुछ ऐसी हो गई है कि हम तह में घुस के देखना और विचारना नहीं चाहते,  हमें इसकी आदत ही नहीं है। मगर यदि घुसें तो पता लगेगा कि यह श्रेणी की भावना सर्वत्र काम कर रही है और उसी के साथ उसकी कोशिश बराबर की जाती है कि यह बात जनसाधारण को विदित होने पाए नहीं। यह शोषण तो स्पष्ट शब्दों में रक्तपात और लूट है। यह ठीक है कि इसे सभ्यता और कानून की पोशाक पहना दी गई है ताकि सही बात किसी को मालूम न हो सके। यदि आप इसे जानना चाहें तो बड़े-बड़े राजनीतिक महारथियों,उनकी सभाएँ और ऐसी अन्य संस्थाओं के सामने किसानों की गरीबी की बात रखिए,उन पर कर्जे का जो असह्य भार है,जिससे उनकी कमर टूट चुकी है,उसकी बात कीजिए,सूद की दर ज्यादा है,लगान बहुत ही सख्त है,जमीनें नीलाम हैं,नीलाम हो रही हैं,आदि बातें कीजिए। गाँवों में बेकारी बेहद है,बीमारियों ने डेरा कर लिया है,लोग भूखों मर रहे हैं,पढ़ने की न तो सुविधा है और न उसका प्रबन्‍ध ही है यह चर्चा छेड़िए। फिर देखिए कि क्या हालत होती है।
    लोग मार-मार करेंगे और कह बैठेंगे कि यह असमय का राग क्या अलापने लगे? पहले आजादी तो हासिल हो लेने दीजिए। पीछे बातें देखी जाएँगी और इसका हल सोचा जाएगा। यदि लोकमत के कुछ जाग्रत हो जाने के कारण थोड़े से चतुर लोग यह बात न भी बोलें तो भी वे काम ऐसे ही करते हैं जिससे ये प्रश्न खटाई में ही पड़े रह जाते हैं। ऊपर से दिखाने के लिए इनकी चर्चा भी होती है सही,लेकिन काम के समय इन्हें कोई याद भी नहीं करता। गत असेम्बली के चुनाव के समय यही तो हुआ। किसानों और मजदूरों के वोट लेने के लिए बड़ी-बड़ी बातें कही गईं और नकली ऑंसू बहाए गए,मगर सफलता मिलने पर टाँय-टाँय फिस। दलील यही दी गई कि अभी तो आजादी मिली ही नहीं। तभी तक घरेलू लड़ाई छेड़ना ठीक नहीं। जमींदारों और पूँजीपतियों के साथ समझौते से ही जो हो जाए वही लेकर सन्तोष करना उचित है।
    आयरलैण्ड में गत शताब्दी में वहाँ के दलितों,  किसानों और मजदूरों,  का एक सच्चा नेता था जिसका नाम था जेम्स कानोली। उसने कहा है कि तथाकथित राजनीतिक नेता जमीन,मजदूरी,रोटी,कपडे,मकान वगैरह के प्रश्नों को छेड़ने से ठीक वैसे ही घबराते हैं जैसे बेईमान ट्रस्टी (जायदाद के प्रबन्‍ध के लिए नियुक्त पंच) उस जायदाद का हिसाब माँगने से घबराते हैं। इसीलिए स्वतन्त्रता,आजादी,मातृभूमि,आत्मसम्मान,राष्ट्रीय झंडे आदि की गोलमोल तथा सख्त खयाली बातें करके लोगों का ध्‍यान आर्थिक प्रश्नों की तरफ से बलात् आकृष्ट करना चाहते हैं। कितनी चालाकी और कितनी बुद्धिमत्ता है। आजादी और मातृभूमि की इज्जत का सवाल तो लोगों का ध्‍यान खामख्वाह आकृष्ट करता है और इस प्रकार मध्‍यम वर्ग तथा मालदारों का काम बनता है।
    आखिर आजादी कोई गोलमोल चीज तो है नहीं। उसका तो कुछ प्रयोजन है और हर आदमी,जो आजादी चाहता है,या जिससे आशा की जाती है कि आजादी के लिए लड़ेगा और त्याग तथा बलिदान करेगा,यह हक रखता है कि पूछे कि आजादी और मातृभूमि की प्रतिष्ठा प्राप्त होने से उसे क्या मिलने वाला है? उधर तो उसके घर की माताएँ चिथड़ों में लिपटी हुई कराहती हैं और इधर यह काम किया जाता है उन्हीं जमींदारों तथा पूँजीपतियों के द्वारा जो आजादी और मातृभूमि की पुकार मचाने वालों में आगे हैं। इसका क्या मतलब? आजादी तो मिलेगी सही,मगर हमारी जो जमीन छिन गई है वह वापस मिलेगी या नहीं,यह जानने का क्या उसे हक नहीं है? जमीन तो छीनी है उन्हीं लोगों ने जो आजादी के अगुवा हैं। तो फिर पहले वह जमीन हमें वापस क्यों नहीं देते,ताकि दूने उत्साह से आजादी लेने में हम सपरिवार लग जाएँ? अंग्रेजों या विरोधियों से जमीन तो वापस नहीं लेनी है। फिर उसमें विलम्ब क्यों? असल में ये सवाल तो भंडाफोड़ करनेवाले हैं ? यदि जमीन ही लौट जाए,तो जमींदारों को आजादी से क्या मिलेगा ही? वह स्वर्ग थोड़े ही जाएँगे। असल में कुछ आजादी वह इसलिए चाहते हैं कि उनमें हाथ में शासन सूत्र आ जाएँ। ताकि फिर कोई भी उनसे जमीन वापस दिलाने या छीनने की हिमाकत न करे। मगर अगर जमीन को पहले ही लौटा दें तो आजादी लेकर चाटेंगे थोड़े ही।
    उनमें यह शक्ति भी तो नहीं कि अकेले लड़ सकें। वे तो सदा सरकारी अफसरों को सलाम करते आए हैं। फलत: उनकी रीढ़ की हड्डी झुक गई है। वे क्या तन के अंग्रेजों के सामने खड़े होंगे? वे क्या लड़ेंगे? उनका पैसा लड़ेगा ऐसा माना जाता है। मगर बिना किसानों के वह कुछ नहीं कर सकता। जब किसान आगे बढ़ें तो पैसे से भी स्वातन्त्रय संग्राम में सहायता मिले। इसीलिए किसानों को साथ लेना ही होगा। मगर जमींदार और किसान के स्वार्थ तो परस्पर विरोधी हैं। ऐसी दशा में गोलमोल बातें करके ही उस विरोध को दबे दबाए रहने देना तथा काम निकालनाइसी में बुद्धिमानी है। इसीलिए तो आर्थिक प्रश्नों को न उठने देना वे जरूरी समझते हैं।
    मगर होना क्या चाहिए? ये प्रश्न जरूरी हैं या नहीं? क्या उनके उठाए बिना काम चल सकता है? क्या यों ही गोलमोल बातों के ही लिए लड़ना और पास का रहा-सहा भी गँवाना चाहिए? ऐसा क्यों किया जाए? आजादी मिलने पर बँटवारा होगा या नहीं? यदि होगा तो किस बात का? किस चीज की आजादी का? वह तो बाँटने लायक ही नहीं है। उसे जमींदार ही पूर्ण रूप से रख ले। किसान को तो केवल जमीन पर सोलह आना हक चाहिए और वह कभी छीनी न जाए इसकी गारण्टी चाहिए। क्या यह बात उन्हें पसन्द है? यदि नहीं तो किसान का और उनका मेल कैसा? देखिए न,यह शोषण कितना पेचीदा और गूढ़ है कि आजादी और उसकी लड़ाई के नाम पर भी अमीर लोग गरीबों को और जमींदार किसानों को ही चूसना चाहते,धोखा देना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि लड़े और मरे कटें किसान लोग और मालिक बनें वे लोग। यह तो भयंकर शोषण है। खूबी तो यह है कि जो नेता लोग इसे मिटाने की बात करते हैं वह भी जमीन,रोटी,कपड़ा,मकान,दवा आदि का सवाल उठने देना नहीं चाहते। वह भी प्राय: गोलमोल बातों में ही किसानों को डाले रखना चाहते हैं। उनसे तो खामख्वाह ही धोखा हो जाता है और किसान घपले में पड़ा रह जाता है। वह समझी नहीं पाता कि आजादी से क्या होने वाला है। मगर यह समझना निहायत जरूरी है और समझाने का यह काम केवल किसान सभा ही साफ-साफ कर सकती है।
    किसानों के लिए किसान सभा की जरूरत भी इसीलिए है कि वह उनके दान की अपनी चीज है,अपनी संस्था है। जब समाज में श्रेणियाँ हैं तो उनकी अपनी संस्थाएँ भी जरूरी हैं। अलग-अलग तो लड़ सकते नहीं हैं। मिलके तो लड़ना ही होगा। अब अगर किसान को मिलना है तो किसान सभा के द्वारा ही। जब संगठित रूप से आजादी की लड़ाई में वह भाग लेंगे तो उसे हासिल करने के बाद भी अपने हकों का दावा संगठित होके ही करेंगे। फिर तो विरोधियों को भी सुनना ही पड़ेगा। उन्हें उनका दावा मानना ही होगा। नहीं तो किसान साफ कह देंगे कि जिस शक्ति से हमने विदेशियों को उठा फेंका है वह शक्ति कहीं गई है नहीं। यदि आप लोग सीधे नहीं माने तो टेढ़े तो मानना ही होगा। क्या इसके बाद भी शोषकों को हिम्मत होगी कि सहसा उनकी माँगों को नाहीं करें? यह तो असम्भव है। लेकिन यदि किसान संगठित न हों तो? तब तो उन्हें अँगूठा दिखा दिया ही जाएगा। क्योंकि तब परवाह किसे होगी कि उनकी ओर ताके भी?
    लेकिन हमें तो इससे भी आगे जाना है। हम तो मानते हैं कि लूटने वाले लोग आसानी से नहीं मानेंगे। वे अपनी करतूतों से बाज न आएँगे,जब तक विवश न हो जाएँ,नकार दिए जाएँ। यह ठीक है कि किसानों की संगठित शक्ति देखकर दबेंगे और चाहेंगे कि चालाकी से अपना काम निकालें। सैकड़ों दाँवपेंच और भेदनीति के उपाय ढूँढ़ निकालेंगे और एक-एक करके किसानों को फँसाना चाहेंगे। किसानों का फँस जाना आसान है। वे तो निहायत सीधे होते हैं। अतएव उस जाल में पड़ जाएँगे जरूर ही। तब क्या होगा? सब किया-दिया चौपट होगा।
    लेकिन यदि किसान सभा हो और उसमें सभी किसान सम्मिलित हों,उसकी बातों में उन्हें विश्वास हो और उसकी आज्ञा मानते हों,तो यह खतरा आसानी से मिट जाएगा। तब तो यह खतरा शायद ही आए। क्योंकि जमींदार फिर तो हिम्मत ही हारेगा। और अगर उसने हिम्मत की भी तो किसान साफ जवाब देंगे कि हमें तो किसान सभा की राय से चलना है। वह जैसा कहेगी हम वैसा ही करेंगे। यदि वह आपकी बात पसन्द करे तो हम मान लेंगे। और किसान सभा के सामने,  सच्ची और पक्की किसान सभा के आगे,  उनकी भेदनीति कैसे चल सकती है? उसके सामने जाने की तो उन्हें हिम्मत ही नहीं होगी।
    और भी आगे चलिए। संसार का इतिहास बताता है कि आजादी मिलके भी चली गई और किसान दु:खी के दु:खी ही रह गए। इसीलिए न कि पीछे से जमींदारों और मालदारों ने पाशविक शक्ति के सहारे दबा दिया? हमारे देश में भी इतिहास की पुनरावृत्ति होगी यदि किसान सजग न रहे। और उनका सजग रहना है क्या,सिवाय इसके कि किसान सभा को खूब मजबूत बना के रखें और विदेशी शोषकों के हटते ही इस देश के,  स्वदेशी,  शोषकों को भी शासक बनने न दें। स्वभावत: वह लोग तो शासन सूत्र अपने हाथों में लेना चाहेंगे ही। अत: उन्हें जैसे हो वैसे रोकना ही होगा। नहीं तो सब गुड़ गोबर। लेकिन यदि किसानों की अपनी सभा है नहीं,तो ये कर ही क्या सकेंगे? अकेले तो कुछ होगा नहीं। एक चना तो भाड़ फोड़ सकता नहीं। मगर सभा तो शोषकों को दबाएगी,उन्हें आगे बढ़ने न देगी।
    अगर मुल्क के सभी लोगों का एक बड़ा संगठन बना के विदेशी शोषकों और शासकों से पिण्ड छुड़ाना जरूरी है और उस संगठन के बिना यह हो सकता नहीं,तो ठीक उसी तरह स्वदेशी शोषकों से,जो उसके बाद शासक बनना चाहेंगे,पिण्ड छुड़ाने के लिए किसानों और दूसरे शोषितों का अपना-अपना संगठन भी निहायत जरूरी है। उसके बिना तो काम चल सकता नहीं। उस समय तो भीषण मुठभेड़ होगी और उसमें सफलता लाने के लिए किसानों के पास सिवाय संघशक्ति के और होई क्या सकता है?
    किसानों की जब एक श्रेणी है जब वह शोषित तथा दलित हैं तब तो उन्हें अपने उद्धार के लिए लड़ना ही होगा और सिवाय अपनी सभा के पथप्रदर्शन के वे लड़ेंगे कैसे? उनके पास तो एकमात्रा संख्या बल है और यदि उसका संगठित उपयोग न करें तो विजय होगी कैसे? किसान सभा के बिना उनके संगठन और रास्ता है भी नहीं। जब शोषकों की अपनी सभाएँ हैं,सो भी एक नहीं अनेक और एक से एक जबर्दस्त। तब किसानों की सभा क्यों न हो? शोषक लोग तो बिना सभा के भी अपनी बुद्धि प्रभाव,धाक और पैसे के बल से सबकुछ कर सकते हैं और इस तरह अपना लक्ष्य सिद्ध कर सकते हैं। पहले करते भी थे ऐसा ही। मगर जमाने की रफ्तार और संसार की दशा देखकर वह भी सजग हो गए हैं। उनने पहले से ही तैयारी कर ली है। किसानों और मजदूरों की अभूतपूर्व जागृति और उनका संगठन देखकर ही उनने समझ लिया है कि बिना संगठन और सभा के काम नहीं चलेगा। वे अब समझ गए हैं कि पीड़ितों और शोषितों का संगठन अनिवार्य है जिसके सामने वे लोग अकेले टिक नहीं सकते। इसीलिए उनने अपनी सभाएँ बना डाली हैं।
    मगर यदि खुद किसान ही प्रश्न करें कि हम किसान सभा क्यों बनाएँ,तो आश्चर्य की बात है। किसान सभा की चर्चा और उसके बनने की शंका से ही जमींदार तो अपनी सभाएँ बना डालें। मगर किसान खुद अपनी सभा के बारे में दलीलें करें। इतना ही नहीं। किसान तो बहुत पीछे हैं। जमींदरों की सभाएँ तो पचासों वर्ष पहले से ही बनी हैं। इसीलिए किसानों ने बड़ी देर कर दी है ऐसा मान के फौरन ही किसान सभा की मजबूती में लग जाना होगा।
    जमींदार और धनी लोग केवल अपनी अलग सभाएँ बना के सन्तुष्ट नहीं हो जाते। किन्तु राष्ट्रीय संस्थाओं पर भी जिनमें सभी शामिल हैं और जो सभी श्रेणियों की कही जानी चाहिए,उनने अपना अधिकार जमा लिया है,अधिकार जमाने की चिन्ता में वे व्यग्र हैं। वहाँ भी अपने धन और बुद्धि के बल से ऐसा जाल फैला दिया है कि कहने के लिए तो राष्ट्रीय संस्थाओं में नब्बे फीसदी किसान ही मेम्बर हैं। मगर प्रभुत्व शोषकों का ही है,वहाँ आवाज प्रधानतया उन्हीं की या उन्हीं के रंग में रँगी हुई ही उठती है। वहाँ वस्तुगत्या काम उन्हीं का होता है। इतना ही नहीं। किसानों की सभाओं में भी अपने ही दलालों और दूतों को भेजकर वे लोग उन्हें भी हथियाने की भरपूर कोशिश करते हैं। किसान नेताओं को कल,बल,छल से अपने वश में करके तथा नकली नेताओं को किसानों में भेज के अपनी धाक कायम रखना वे खामख्वाह चाहते हैं।
    इसका उपाय एक ही हो सकता है और वह यह कि हरेक किसान,  स्‍त्री पुरुष,  जो बालिग हों,किसान सभा के मेम्बर बन जाएँ और उसे अपनाएँ। जमींदारों की टिक्की तभी तक लग सकती है जब तक किसान सभा में बहुसंख्य,  अपार,  किसान ऑंखें खोल के और समझबूझ के शामिल नहीं होते। उनके शामिल होते ही यह चाल और यह चोरी पकड़ ली जाएगी। आखिर नेता लोगों के बाल-बच्चे तो भूखों मरते नहीं। मरते तो हैं किसानों के ही बाल-बच्चे। फिर भी अगर किसान को ही अपनी सभा की फिक्र नहीं है,वही उसका मतलब नहीं समझता तो नेताओं को क्या गर्ज पड़ी है? उनकी तो नेतागिरी कायम रहनी चाहिए और जब तक किसान मुस्तैदी के साथ किसान सभा में नहीं पड़ते,उसकी खुद देखभाल नहीं करते,और उसे अपने हाथों में रखने को तैयार नहीं हो जाते तब तक नेतागिरी कौन छीनेगा? वह तो बरकरार रहेगी ही।
    किसानों को याद रखना चाहिए कि उन्हें विदेशी शासकों और देशी शासकों,  दोनों,  से ही लड़ना है। लड़ने वाले तो वही हैं। अत: वह दूसरी संस्थाओं पर यकीन न करें,जो सबों की मानी जाती हैं। वह लड़ेंगी,न भी लड़ेंगी। आखिर किसानों और मजदूरों के सिवाय,  पसीना बहा के आधा पेट खानेवालों के अलावा बाकियों के बाल-बच्चे तो भूखे हैं नहीं। फिर उन्हें ऐसी गर्ज क्यों हो जैसी कि किसान को होनी चाहिए? यदि वह मौका देख के विदेशियों से एकाएक समझौता कर लें तो क्या होगा? उन्हें ऐसा करने से रोकेगा कौन यदि कमानेवालों की ही सभाएँ नहीं हैं? यदि उनकी संगठित आवाज ही नहीं है? यदि वे रुक भी न सके,तो भी समझौता करके वे जो हानि किसानों को पहुँचाएँगे उसे कौन रोकेगा? जब वह उधर जा मिलेंगे तो आजादी की लड़ाई का काम कौन सँभालेगा? इसे चलाएगा कौन? और अगर यही खटाई में पड़ गई तो किसानों का उद्धार कैसे होगा?
    दलील की जाती है कि जब राष्ट्रीय संस्थाओं में किसान ही नब्बे प्रतिशत सदस्य हैं तो उन्हें फिक्र ही क्या होनी चाहिए? जब राष्ट्रीय संस्थाएँ मौजूद ही हैं तो फिर किसानों की सभा अलग बनाने की जरूरत ही क्या? इस प्रकार शक्ति को छिन्न-भिन्न करने से तो लाभ की जगह हानि ही हानि है।
    यह दलील देखने से तो अच्छी मालूम होती है। मगर जब उसके भीतर घुसिए तो पोल का पता लग जाएगा। राष्ट्रीय संस्था में चाहे निन्यानबे प्रतिशत से भी अधिक किसान ही हों,फिर भी वहाँ प्रधान्य किसका है और आवाज किसकी है? यदि किसानों की ही आवाज रहती और उन्हीं की बात मानी जाती तो अब तक जमींदारी प्रथा कभी की मिट गई होती। यह तो कोई साम्यवादी क्रान्ति की बात नहीं है और नकोई नई बात ही है। दुनिया में इंग्लैंड को छोड़कर अब कहाँ जमींदारी प्रथा रह गई है?
    संसार में जमींदारी प्रथा सहस्रों साल पुरानी थी। फिर भी मिट गई। पूँजीपतियों ने ही उसे मिटाया। मगर हमारे देश की जमींदारी प्रथा तो नई है। यह तो अंग्रेजी सरकार की ही पैदा की हुई है। मगर फिर भी क्यों नहीं मिटती? इंग्लैंड की जमींदारी तो ऐसी भयंकर है भी नहीं। बम्बई आदि प्रान्तों में भारत में भी जमींदारी प्रथा नहीं है। केवल कुछी प्रान्तों में है। फिर भी नहीं मिटती? खूबी तो यह है कि लीडर लोग ही इसे आशीर्वाद देते हैं,  ऐसे लीडर लोग भी,जो पहले इस प्रथा को खुद फूटी ऑंखों भी देख नहीं सकते थे। जब किसान अधिक तादाद में राष्ट्रीय सभा और कांग्रेस में शामिल न थे,तभी वे नेतागण जमींदारी मिटाने की बात करते थे। लेकिन जब किसान उनकी बातें सुनके बड़ी भारी आशा से कांग्रेस में घुसे तो जमींदारी मिटाना तो दूर रहा,उसकी बात तक बन्द हो गई । उलटे अब उसे आशीर्वाद दिया जाने लगा। क्या इसे ही राष्ट्रीय संस्थाओं में किसान का बहुमत कहते हैं ? क्या बहुमत का यही अर्थ है ? तब तो उस बहुमत को दूर से ही सलाम कर लेना होगा। तब तो उस संस्था से अलग रहना ही उचित होगा।
    संस्था में बहुसंख्य किसान रहने से ही क्या होगा? रेलगाड़ी में बैठने वाले तो बहुसंख्य किसान ही होते हैं। उन्हीं के पैसे से वह चलती भी है। मगर जरूरत होने पर डाकगाड़ी या एक्सप्रेस ऐसे स्टेशनों पर भी रुक सकती है जहाँ साधारणत: उसके रुकने का नियम नहीं है। यदि उसमें फर्स्ट या सेकंड क्लास के आदमी उन स्टेशनों पर ही बैठना चाहें या उससे उतरना ही चाहें। और गाड़ी तो कब्जे में होती है ड्राइवर के। वही चलाता है। वही रोकता है। चढ़ने वाले नहीं रोकते,चलाते। फिर उसमें अधिक संख्या दूसरों की रहने से क्या हुआ?
    जमीन तो किसान ही जोतते-बोते हैं। जमींदार और उसके बाल-बच्चे तो कहीं हल चलाते और धान रोपते देखे नहीं गए। मगर जमीन का मालिक माना कौन जाता है? किसान या जमींदार?
    भारत में बसते तो हैं भारतीय ही। विदेशी तो गिने-चुने ही मुश्किल से दो चार लाख होंगे। मगर यह देश आज हकीकत में किसका है? सरकार की सारी मशीनरी और सारी प्रबन्‍ध व्यवस्था,  फौज,पुलिस,जेल,कचहरी आदि चलाते तो हैं किसान ही। उन्हीं के आदमी से ही और उन्हीं के पैदा किए हुए गेहूँ,घी,चावल आदि से ही सभी का काम चलता है। मगर यह सरकार है किसकी? मानी जाती है किसकी? इस सरकार में आवाज और बात किसकी चलती है?
    ऊपर से लेकर नीचे तक सर्वत्र तो उलटी ही बात चलती है। इसे ही कहते हैं अपने ही घर में बेगाना बनना,परदेशी बनना। यही बात ठीक-ठीक राष्ट्रीय या खिचड़ी सभाओं में  भी पाई जाती है। वहाँ भी किसान वस्तुत: बेगाने हैं।
    भारत के कुछ लोग अफ्रीका,कनाडा,आस्ट्रेलिया,जावा,सुमात्रा,ट्रिनिडाड,फीजी आदि देशों में बसते हैं। चाहे नौकरी करने के लिए या व्यापार के ही खयाल से वहाँ रहते हैं। वहीं बस गए हैं। जब कभी वहाँ की सरकारें उन पर अत्याचार करती हैं तो हमारे नेता राष्ट्रीय सभा में बैठ के बड़े-बड़े प्रस्ताव पास करते हैं और नाथ-पगहा तुड़ाते हैं। बड़ी सरगर्मी देखी जाती है। बड़ी बेकली,बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है। दरिद्रनारायण के सेवक नामधारी भी काफी ऑंसू बहाते हैं। बड़े-बड़े मिल वाले,पदवीधारी और जमींदार भी प्रतिवाद करते हैं कि यह अत्याचार हैं,जो काबिले बर्दाश्त नहीं। यह तो बन्द होना ही चाहिए,नहीं तो परिणाम बुरा होगा। हम जानते ही हैं कि अफ्रीका की लवंग का हाल में ही बायकाट भी इसीलिए हमारे देश में किया गया था। ऐसी बातें बराबर ही होती रहती हैं।
    मगर अगर जरा पास-पड़ोस में ही अपने घर में,अपनी ही जमींदारी में,अपनी ही मिलों में,उनके आसपास ही देखें,तो क्या हो? मिलों में जो लाखों,करोड़ों मजदूर आधो पेट के लिए नौकरी करते और नर्क का जीवन व्यतीत करते हैं वह क्या चीज है? क्या उसका प्रतिवाद नहीं होना चाहिए? क्या उन मिलों की चीजों का बहिष्कार हमारा कर्तव्य नहीं है? यदि कहें कि बाहर और भीतर दोनों का,  एक साथ नहीं कर सकते तो पहले भीतर वालों का ही क्यों न करें? आखिर जितने लोगों को नारकीय जीवन यहाँ बिताना पड़ता है उनके हजारवें भाग को भी बाहर के देशों में हर्गिज ऐसा नहीं करना पड़ता है। फिर तो यही वाला पलड़ा भारी है।
    बहिष्कार तो खैर दूर की चीज है। जरा खुल के प्रतिवाद भी तो होता? गालियाँ भी तो पड़तीं और धमकियाँ भी तो दी जातीं? कम से कम गर्मागर्म लेक्चर भी तो नेताओं के हो जाते? मगर किसे फिक्र है? क्या राष्ट्रीय संस्था में गरीबों के बहुमत का यही नमूना है? तब तो गजब होगा।
    जमींदारों की जमींदारियाँ ही लीजिए। बीसों करोड़ किसान इनके अत्याचार की चक्कियों में लगातार ही पिस रहे हैं। करोड़ों प्रतिदिन भूखे ही रह जाते हैं। हाँ,करोड़ों । बहुत से विद्वानों ने जो यह माना है कि भारत के प्राय: आधे लोग एक वक्त भूखे ही रहते हैं वह आखिर कौन हैं? उनमें अधिकांश किसान ही तो हैं। उन्हें चिथड़े भी नहीं मिलते। बीमारियों में कीड़े-मकोड़ों की तरह लाखों की तादाद में मर जाते हैं और कोई पूछने वाला तक नहीं। अपमान और बेइज्जती की बात तो पूछिए मत। विहार का रेयान और गुजरात का दुबला,हाली,रानीपरज भी क्या आदमी की जिन्दगी बिताता है? मैंने ऑंखों देखा और बातें की हैं। आज जनजागृति के युग में जिस हाली में चेतना आ गई है वह अपने भाइयों और अपनी माँ-बहनों की बेइज्जती साहूकार,जमींदारों के हाथ देख के यहाँ तक कि याद कर के भी तिलमिला उठता है और जहर की घूँट पी के रह जाता है। क्या इससे भी भयंकर कोई नर्क होगा? क्या यह मानवता का प्रचंड और ज्वलन्त अपमान नहीं है ? क्या उसकी छाती पर यह कोदो दलना नहीं हैं?
    मगर हमारे बड़े-बड़े दक्काक और लब्धाप्रतिष्ठ नेताओं ने क्या किया है अब तक? क्या चूँ भी की है। क्या डाँट-डपट भी की है कि ये बेहूदगी बन्द हो? क्या अपनी उन रिपोर्टों में भी जिनमें दूसरे मुल्कों में होनेवाले अत्याचारों का भरपूर ही जिक्र किया है,इसकी एक बार भी चर्चा तक की है? यदि नहीं तो क्यों? क्या यही किसानों के बहुमत का अर्थ है? ज्यादातर किसान ही आजादी में मरे मिटे,बलिदान हुए यह गीत गाई जाती है सही,लेकिन क्या उस बलिदान का यही मतलब है कि उन पर होने वाले स्वदेशी अत्याचारों और उनके अत्याचारियों का नाम भी न लिया जाए? क्या इसी भरोसे किसानों को राष्ट्रीय सभा में शामिल होने का निमन्‍त्रण दिया जाता है? क्या इन्हीं करतूतों से वे राष्ट्रीय नेताओं को अपने नेता और राष्ट्रीय सभा को अपनी सभा मानेंगे? क्या इसी करनी और रवैये के बल पर लोगों को कहने की हिम्मत होती है कि किसानों की अलग सभा नहीं चाहिए? उसकी जरूरत है ही नहीं? तब तो खूब है।
    16.1.41। कहते हैं 'निबिया हो करुवाइन, तब्बो शीतल छाँह। भैया हो बिराना,तब्बो आपन बाँह।' अभिप्राय यह है,हमने नीम का पेड़ दरवाजे के पास ही लगाया। नीम होती तो है बहुत कड़वी। उसके फल कड़वे,फूल कड़वे,पत्ते कड़वे,डाल कड़वी। उसका अंग-अंग कड़वाहट से ही व्याप्त है। मगर गर्मियों में जब शीतल छाया की अत्यन्त जरूरत होती है,क्या उसकी छाया भी कड़वी होती है? गर्म होती है? बर्दाश्त के बाहर होती है ठीक वैसे ही जैसे कि उसके फल वगैरह होते हैं? ऐसा तो नहीं होता। उसकी छाया तो अत्यन्त शीतल होती है। ऐसा क्यों? उत्तर देना पड़ता है कि आखिर है तो वह अपनी,अपनी ही लगाई हुई। इसीलिए अन्ततोगत्वा अपने लिए सुखद क्यों न हो? छाया के द्वारा आराम क्यों न पहुँचाएँ? अपनी चीजों की यही बात होती ही है। अपना नजदीकी भाई कितना ही बिराना,कितना ही बड़ा शत्रु,कितना ही बिगड़ैल क्यों न हो,फिर भी मौके पर अपनी बाँह की ही तरह सहायता करता है। चित्ररथ गन्धर्व के द्वारा वन में घोर रूप से अपमानित होने पर दुर्योधनादि कौरवों को आखिर अर्जुन प्रभृति पांडवों ने ही तो उबारा था। उनने ही तो दुर्योधन के दल और उनकी स्त्रियों की इज्जत उस समय रख ली थी। हालाँकि थी उस समय कौरव-पांडवों में परस्पर जानी दुश्मनी। दुर्योधन के मारे ही तो उस समय पांडव वनवास की विपत्तियाँ झेल रहे थे और उन लोगों को चिढ़ाने के लिए ही तो रंगरास और विलास की सामग्रियों को लेकर दुर्योधन उसी वन में गया था।
    किसान सभा के बारे में भी यही बात लागू है। चाहे कुछ भी हो। मगर आखिर वह है तो किसानों की अपनी चीज,निजी संस्था। उनकी ही लापरवाही एवं असावधनी के करते चाहे उनका पूरा काम वह भले ही न कर सकती हो,चाहे भले ही कमजोर हो। मगर संकट के समय तो नीम की शीतल छाया सगे भाई की तरह ही काम आएगी,रक्षा करेगी,बचाएगी,रास्ता बनाएगी। अपनी जो ठहरी,खिचड़ी जो न ठहरी। साझे की जो नहीं है। कहते हैं कि जो सभी की चीज होती है वह किसी की भी नहीं होती,  Everybody's thing is nobody's.  ऐसी चीज ऐन मौके पर धोखा देती है। वह उन्हीं के काम आ सकती है जिनने उसे हथिया रखा है,जिनका उसके ऊपर प्रभुत्व स्थापित है। राष्ट्रीय संस्थाओं की भी यही बात है। उन पर आधिपत्य तो रहता है असल में शोषकों का ही। हालाँकि देखने के लिए उनमें भी संख्या शोषितों की ही ज्यादा होती है। इसीलिए गाढ़े मौके पर वह शोषकों का ही काम करती है। कड़वी नीम और विरोधी भाई की तरह भी विपत्ति में काम नहीं आती है,नहीं आ सकती है।
    बात असल यह है कि किसानों का जो अजहद सीधापन है,अत्यन्त भोलापन है,जिसके चलते सभी पर विश्वास करते रहते हैं और अन्त में धोखा खाते हैं,उसे ही तो दूर करना है। उन्हें विवेक से,विचार से काम लेने की शिक्षा देनी है,उनमें उसकी आदत लानी है। उनके भीतर से बिना सोचे-विचारे ही विश्वास कर लेने unthinking trustfulness की आदत की प्रवृत्ति को जड़-मूल से खोद बहाना है। यह मामूली काम नहीं है। यह तो समुद्र को सोखने,हिमालय को पार करने से भी बड़ा काम है। सिर्फ दस-बीस या हजार-दो हजार को इस प्रकार सुधारना नहीं। लाख- दो लाख की भी बात नहीं है। कम से कम अस्सी प्रतिशत जनता को ऐसा बनाना है। इतने बड़े अपार जनसमूह को रास्ते पर लाना कोई मामूली बात नहीं है। यह जरा टेढ़ी खीर है।
    सुधारना भी कैसा? हजारों-लाखों वर्षों की,पुश्त-दर-पुश्त की,वंश परम्परा की आदत सदा के लिए छुड़ानी है। यदि कहें तो कह सकते हैं कि कोयले को धो के सफेद करना है। नमक का खारापन हटाना है। जब दस-पाँच वर्ष की पड़ी आदत जल्द नहीं छूटती जब उसके ही छुड़ाने में आकाश-पाताल एक करना पड़ता है तो हजारों-लाखों वर्षों की वंश परम्परा की,  आदत का क्या कहना? यह तो रग-रग में और खून मांस तक में समाई हुई है। इसे तो कमानेवाली जनता माता-पिता के रज-वीर्य से ही प्राप्त करती है,सीखती है। यह तो खानदानी बीमारी है जो माता-पिता के जरिए ही भावी सन्तान में घुस जाती है। ऐसी बीमारी का इलाज,ऐसे लाइलाज मर्ज,राज रोग की दवा आसान नहीं है। तिस पर भी तुर्रा यह कि चारों तरफ का वायुमंडल ही ऐसा जहरीला एवं दूषित है,समाज ही ऐसा सड़ गया है कि लोग साँस लेने में भी इसी रोग के कीटाणुओं (germs) को दिल,दिमाग और पेट में,  रग और खून में,  भरते रहते हैं। किसानों के बच्चे-बच्चियों को बचपन से ही यही अमली तालीम,यही व्यावहारिक शिक्षा मिलती रहती है कि शोषकों पर,जमींदारों,साहूकारों तथा मालदारों पर विश्वास करो। फिर बगुला भगत नेताओं के बारे में कहना ही क्या? जो प्रतिदिन उसे लूटते और उसी का खून निर्दयता के साथ पीते हैं उन्हीं पर यह किसान विश्वास करता है। कहता है,हमारे सरकार क्या हमें धोखा देंगे? हमारे साधु भी क्या दगा करेंगे ? क्या ये लोग भला कभी झूठ बोलेंगे? जाल करेंगे? इसीलिए तो लगातार ही यह अभागा किसान लुटता ही रहता है? फिर भी होश नहीं। उसी का होश हमें दुरुस्त करना है। इस असाधय बीमारी की सफल औषधि करनीहै।
    इसके लिए तो ऐसी चिकित्सा प्रणाली हो,ऐसा चिकित्सालय हो,ऐसा स्वास्थ्यगार हो जहाँ बेफिक्र इसी बात का प्रयोग और इसी रोग की दवा होती हो,जहाँ मरीज जाकर तब तक विश्वासपूर्वक रह सकें जब तक पूर्ण स्वास्थ्य उन्हें न हो जाए,जहाँ सभी प्रकार उनकी खबर लेने की पूरी सामग्री हो। उनके लिए इस राजरोग की अचूक दवाइयों का आविष्कार करने के लिए ही जो प्रयोगशाला बनी हो,जिसका दूसरा कोई भी काम न हो उसी से यह आशा की जा सकती है कि उन्हें नीरोग बनाने का पूरा सामान मुहैया करेगी। जैसे गड़ेरिए का काम है केवल भेड़ चराना,ठीक उसी प्रकार प्रयोगशाला और चिकित्सा भवन का एकमात्र यही काम हो कि वह किसानों की इसी मारक व्याधि को मूलों एवं निदानों का ठीक-ठीक अनुसन्धान करके उसकी पूरी-पूरी चिकित्सा करें,वहीं इस असाध्‍य व्याधि के छूटने की आशा हो सकती है। वही किसानों के इस घोर उन्माद इस भयंकर पागलपन को हटाया जा सकता है और वहीं इनका दिमाग दुरुस्त किया जा सकता है। जिन डॉक्टरों,वैद्यों,हकीमों,या ओझा सोखाओं पर किसानों का पूरा-पूरा यकीन हो कि ये हमारी बीमारी जरूर हटा देंगे उन्हीं से यह काम हो सकता है। रोगी का वैद्य तथा उसकी दवा पर पूर्ण विश्वास होना भी निहायत जरूरी है पूर्ण स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से। सारांश यह है कि सर्वजनप्रसिद्ध विशेषज्ञों की ही विलक्षण चिकित्सा की अपूर्व शाला में ही यह काम सम्भव है। 
      17.1.41।  और ऐसी चिकित्साशाला,   ऐसी प्रयोगशाला सिवाय सच्ची और जबर्दस्त किसान सभा के दूसरी संस्था होई कैसे सकती है? ऐसी किसान सभा का तो मतलब ही है कि उसमें काम करने वाले,   उसे चलाने वाले,   उसके नेता एवं कार्यकर्ता ऐसे ही लोग हों जिन्हें दिन-रात एकमात्र किसानों के उद्धार की ही चिन्ता हो,   जो निरन्तर किसानों की माली,   दिमागी,   जिस्मानी और सियासी (राजनीतिक) दशा का पूरा पता लगाने में ही व्यस्त हो,   जो केवल इसी धुन में लगे हों कि किसानों की असली कमजोरियाँ कौन सी हैं जिनके करते सबकुछ पैदा करके भी वे भूखों मरते हैं और सर्वत्र अपमानित होते हैं। किसान संसार के लिए सभी प्रकार की शक्तियों के स्रोत हैं। इनके बिना दुनिया का काम एक क्षण भी चल नहीं सकता,दुनिया इनके बिना एक पल भी टिक नहीं सकती। यदि ये गेहूँ,चावल,दूध,घी आदि पैदा न करें,पुलिस तथा फौज में भर्ती होना बन्द कर दें,सरकारी आफिसों के अर्दली वगैरह न बनें,जेलों के बार्डर और सिपाही बनने से इनकार कर दे,कल-कारखानों में कुली तथा मजदूरी के पेशे को तिलांजलि दे दे,जमींदारों के बराहिल पटवारी,गुमास्ते आदि कतई न बनें,अमीरों के हर तरह के कामों के करने से साफ नाहीं कर दें,तो यह दुनिया श्मशान के सिवाय क्या दूसरी नजर आएगी?
    मगर इन किसानों की यह ताकत कौन समझता है? इसे कौन मानता है? किसे इसकी जरा भी परवाह है? होगी भी किसी को यह परवाह क्यों,जब खुद किसान ही अपनी यह ताकत भूल गया है? यह तो स्वयमेव अपनी महान महिमा को इस अपरम्पार शक्ति को नहीं समझता,नहीं जानता। यही तो इसका पागलपन है। यही तो इसके दिमाग का दिवालियापन तथा इसकी अक्ल के गुम हो जाने की निशानी है। और जब तक यह पागलपन दूर न हो जाए,जब तक इसकी चिकित्सा अच्छी तरह न हो जाए,तब तक इस किसान के उद्धार की आशा कैसी? तब तक इसके पनपने एवं फूलने-फलने की उम्मीद कैसी? और यह चिकित्सा किसान सभा ही तो आखिर करेगी। इस बीमारी का निदान आखिर वही तो बताएगी। नहीं तो उसकी जरूरत ही क्या है? उसे दूसरा काम हई क्या? यदि उसमें सिर्फ इसी बात के धुनी कार्यकर्ता तथा नेता नहीं हैं तो वह जहन्नुम में जाए। वह रहेई क्यों? तब तो वह और भी धोखा देगी। जिस किसान सभा के पदाधिकारी और कार्यकर्ता दुखिया किसान को देखते ही अपनी ऑंख-पलकों पर उसे रख लेने को उछल न पड़ें,उमंग भरे हृदयों से उसका स्वागत समादर न करें वह किसान सभा खाक में जाए,चूल्हे भाड़ में मिले। किसानों के संकटों,उनकी वेदनाओं और उन पर होने वाले जुल्मों की याद मात्रा से जिनके कलेजे पानी-पानी होके ऑंख के रास्ते बाहर न निकल आएँ,जिनके खून में उनके प्रतिकार तथा प्रतिशोध की आग न लग जाए,जो फौरन प्रतिज्ञा न कर ले कि या तो इन आपदाओं को ही मिटा लूँगा या खुद ही मिट जाऊँगा,उनकी,वैसे कार्यकर्ताओं तथा पदाधिकारियों के लिए किसान सभा में स्थान नहीं है,नहीं हो सकता,नहीं होना चाहिए। जैसे साधक अपने साध्‍य,या इष्ट को पा के मस्त हो जाता है और उसका कलेजा बाँसों उछल पड़ता है,ठीक वही हालत किसान सभा वालों की किसानों के सम्‍बन्‍ध में होनी चाहिए। ऐसी ही किसान सभा को अपनाएँ,किसान अपनाएँगे।
    यह बात राष्ट्रीय या खिचड़ी संस्थाओं में असम्भव है। यह काम वह करी नहीं सकती है। न तो उनमें किसान का पूर्ण विश्वास ही अन्त तक रह सकता है,न वह दिल खोल के अपनी दु:ख-दर्द गाथा ही उन संस्थाओं के संचालकों को सुना सकता है और न उन्हें फुर्सत ही रहती है ऐसी गैरजरूरी बातें के लिए। ये बातें तो उन संस्थाओं के लिए सर्वदा सर्वथा अवांछनीय हैं। ये उनके कार्यक्षेत्रा के बाहर की हैं। इनसे उनके काम में बाधा पहुँचती है,बाधा पहुँचने का खतरा रहता है। जिनका काम है वर्ग सामंजस्य करना,लीपापोती करना,जिनकी सतत चेष्टा रहती है बाघ एवं बकरी को एक ही खूँटे में बॉंधने की वह भला ऐसी बातों को कैसे पसन्द करेंगी? इनसे तो उनके काम में पद-पद पर रुकावटें पहुँचती हैं। जिस मवाद को समाज के सड़े अंग से बाहर वे संस्थाएँ आने नहीं देना चाहती हैं,किन्तु भीतर ही रख के बाहर से ही मरहम-पट्टी करती है,यह तो वही भीषण एवं रोमांचकारी मवाद है। इससे तो बाहर चारों ओर का वायुमंडल ही दूषित हो जाएगा। फिर तो उनकी लीपापोती,उनका वर्ग सामंजस्य खत्म ही हो जाएगा।
    एक अपनी अनुभूत घटना याद आती है। शाहाबाद जिले में डुमराँव के पास भोजपुर का पुराना कस्बा है। उसी के उत्तर सिमरी मौजा पड़ता है। उसे सातों सिमरी भी कहते हैं। असल में सात गाँवों को मिलाकर ही सिमरी कहते हैं। उसी से यह नाम पड़ गया है। सन् 1921 ई. के असहयोग के जमाने से लेकर पीछे बहुत दिनों तक मुझे वहाँ रहने का मौका लगा है। बरसात के दिनों में सिमरी से डुमराँव आने-जाने के सैकड़ों अवसर आ चुके हैं। भोजपुर से मिले उत्तर एक लम्बी खाल (नीची जमीन) है जिससे हो के एक नाला बहता है। वर्षा के दिनों में उसमें काफी पानी हो जाया करता है। मगर ज्यादा पानी पड़ने पर ही एकाएक यह बात होती है। फिर दो चार दिनों के बाद विशेष जल बह जाता और लोग बिना किसी नाव या डोंगे के ही पार हो जाते हैं। गर्मियों में या दूसरे मौसम में भी वह जगह सूखी ही रहती है। लेकिन एकाएक ज्यादा पानी हो जाने पर लगातार हफ्तों यों ही पार होना असम्भव हो जाता है। छोटी-बड़ी नावों के लिए भी वहाँ न तो जगह है और न गुंजाइश। वे वहाँ न तो लाई जा सकती हैं और न रखी ही जा सकती हैं।
    इसलिए जरूरत के अनुसार स्थानीय लोगों ने एक हिकमत निकाली है इस दिक्कत को सुलझाने के लिए। किसी सूखे पेड़ के तने (धाड़) के बीच का भाग खोखला बना देते हैं। बीच से समूचा काठ काट के निकाल लेने पर वह नाव जैसा ही,या यों कहिए कि बहुत छोटी डोंगी जैसा बन जाता है,उसके पेंदे में कुछ घास-फूस या डंठल रख के उस पर आसानी से लोग बैठ सकते हैं। बोरा या दूसरे सामान भी रखे जाते हैं। इन्हें वहाँ डोंगा कहते हैं। इन्हीं से आर-पार होने का काम लिया जाता है।
    लेकिन इनमें एक खतरा रहता है। असल में पेड़ के गोलमोल तने को भीतर से खोखला कर देने पर बैठने की जगह तो हो जाती है। मगर तना तो गोला रहता है। इसलिए डोंगा भी गोला ही तैयार होता है। फलत: यदि उसमें बैठने वाले जरा भी हिलें डोलें,तो वह फौरन उलट जाता है। डोंगी या नाव का पैंदा चपटा होने से यह खतरा नहीं रहता। मगर गोलमोल होने के कारण डोंगे में बराबर यह बात रहती है। इधर लोगों की हालत यह होती है कि इस खतरे से सँभलने की पहले से कोई शिक्षा मिलती नहीं। सभी प्रकार के लोग उसमें चढ़ते हैं भी। इसलिए एक ही बार आर-पार होने में न जाने कितनी बार डोंगे के उलट जाने का भय रहता है। जरा सा भी कोई हिला,यहाँ तक कि जरा कस के खाँसा,या खूब जोर से साँस ली कि डोंगा उलटा। इसीलिए उसे चलानेवाले मल्लाह बराबर चिल्लाते रहते हैं कि खबरदार,हिलो मत,डोलो मत,खाँसो मत,साँस मत लो,नहीं तो डोंगा ही डूब जाएगा। चढ़नेवालों को बराबर सचेत करते रहते हैं। फिर भी कभी-कभी उलट ही जाता है। वह ठहरा ही ऐसा नाजुक। फिर किया क्या जाए?
    हूबहू यही बात आजादी के लिए लड़ाई चलाने के नाम पर बनी संस्थाओं की है। इनमें सभी तरह के,सभी वर्ग के लोग रहते हैं। ये संस्थाएँ बनती ही हैं इसी प्रकार की। इनकी कोशिश ही सदा ऐसी रहती है कि सभी वर्ग के,सभी स्वार्थवाले लोग उनमें शरीक हों। आजादी तो सभी को चाहिए ही। अतएव सभी लोग उनमें खामख्वाह आते हैं। यही उन संस्थाओं की खूबी है। फिर भी उनकी बातें कुछ ऐसी चिकनी चुपड़ी होती हैं वे गरीबों के लिए कुछ ऐसा नकली ऑंसू (Crocodile's tear) बहाती हैं कि शोषित तथा पीड़ित जनता अधिकांश उनमें शामिल होती है। इसी से तो वह संस्थाएँ बलवती होती हैं। यही तो उनका असली बल है,असली ताकत है। आखिर शोषक और मालदार तो खुल के,सीना तान के कभी भी विदेशी शासकों से लड़ सकते नहीं। उनमें हिम्मत ही कहाँ? उनमें बल ही कहाँ? उन्हें तो न सिर्फ जेल का डर है प्रत्युत भारी जुर्माने और जायदाद की जब्ती का भी। फिर तो उनका स्वराज्य ही किरकिरा हो जाए,अगर कहीं गहरा जुर्माना हुआ,या जायदाद ही जब्त हुई। तब तो लेने के देने पड़े। क्योंकि वे हानि-लाभ का हिसाब पैसे-पैसे का लगाते हैं। उनके सर पर तो यह जायदाद गठरी की तरह है। और सिर पर गठरी रख के तो कोई भी आदमी कुश्ती लड़ सकता नहीं। तब तो गठरी ही नीचे जा पड़ेगी। इसीलिए वह भी चाहते हैं कि उनकी भी लड़ाई शोषित जनसमूह ही लड़ें। भूखे नंगों को इसमें खतरा तो हई नहीं। उनके सर पर तो वह गठरी हई नहीं कि गिरने का डर हो। इसीलिए वे खुल के लड़ते हैं। इसीलिए ऐसी संस्थाओं में पीड़ित जनता को अधिक तादाद में लाने की सारी बन्दिशें की जाती हैं। इसीलिए उन्हें सब्जबाग दिखाए जाते हैं। उनके दु:खों को दूर करने के लिए बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं।
    18.1.41। ठीक ही है वादों के लिए तो कोई दाम चुकाना पड़ता ही नहीं। वह तो निहायत ही सस्ते हैं,  इतने सस्ते कि एक कौड़ी भी उनके लिए देना नहीं पड़ता। कोई परिश्रम भी नहीं करना पड़ता,सिवाय बोलने या लिखने के,परिश्रम के। कुछ स्याही-कागज भी कभी-कभी खर्च हो जाते हैं। बस। इसीलिए तो संसार विख्यात क्रान्तिकारी नेता लेनिन ने कहा कि 'वादों के लिए कोई भी कीमत चुकानी नहीं पड़ती। आज जब सभी चीजें अत्यन्त महँगी हैं,केवल वादे ही ऐसे पदार्थ हैं जो बहुत ही सस्ते हैं',  Promises cost nothing. Promises are only thing thats are very cheap even in a epoch of insanely high prices.  इन्हीं वादों तथा प्रतिज्ञाओं के फन्दे में,जाल में किसानों और मजदूरों को फँसा के राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई चलाई जाती है,राष्ट्रीय संस्थाएँ मजबूत की जाती हैं। मगर मौका आते ही या तो टालमटोल की जाती है,या टका-सा जवाब दे दिया जाता है। जब ऐसी घटनाएँ बार-बार होती हैं तब कहीं जाकर शोषितों की ऑंखें खुलने लगती हैं। मगर फिर भी उन्हें बन्द रखने के लिए हजारों फन्दे,लाखों तरीके निकाले जाते हैं।
    ऐसी संस्थाओं में गर्ज के चलते बहुसंख्य किसान-मजदूर बुलाए जाते हैं सही,वे आते हैं सही,लेकिन इनके संचालन का अधिकार एवं दायित्व ऐसे लोगों के हाथ में रहता है या तो खुद जमींदार,मालदार हैं,शोषक हैं,या उनके दलाल और पुछल्ले हैं। छिपे रुस्तम शोषकों के चलते ही तो किसानों और मजदूरों को रह-रह के धोखे खाने पड़ते हैं। वे तो देखते हैं यही कि इन संस्थाओं के मंत्री,सभापति,प्रभृति तो उन्हीं के भाई,उन्हीं जैसे दुखिया लोग ही हैं। तब ये झूठी बातें बोलेंगे कैसे? झूठे वादे करेंगे कैसे? मगर उन्हें क्या मालूम कि ये मंत्री,सभापति आदि गधो की खाल ओढ़े बाघ हैं? उन्हें क्या पता कि हाथी को फँसाने वाले पालतू हाथी हैं? वे क्या जानने गए कि ये लोग भीतर ही भीतर जमींदारों,शोषकों एवं शासकों से सौदा करके उनके हाथ अपने को,अपनी आत्मा को,अपने ईमान को बेच चुके हैं? वे बेचारे क्या समझ सकें कि ये तो रखे ही गए हैं इसी चालाकी से कि शोषितों तथा पीड़ितों को शक भी न हो कि ये संस्थाएँ मालदारों के हाथ के खिलौने हैं,उनके हाथ की ही कठपुतलियाँ हैं। यही कारण है कि ऐसी संस्थाएँ सदा खिचड़फरोशी का काम करती हैं,बिसाती की दुकान का काम देती हैं। देखने के लिए ऊपर-ऊपर इनमें सभी लोगों के काम के सौदे,फायदे की चीजें यहाँ मिलती हैं।
    मगर ज्यों ही वक्त आया और विश्वास में आके वे गरीब जमींदारों तथा पूँजीपतियों के जुल्मों के खिलाफ फरियाद ले के इन संस्थाओं में पहुँचे कि आफत आई और इनका भंडा फूटा। पहले तो भरसक टालमटोल की जाती है। कहा जाता है,हाँ,देखेंगे,जाचेंगे,और जुल्मों को अगर वे सही साबित हुए बन्द करवा देंगे। यकीन रखिए। विश्वास रखिए। जाँच-पड़ताल का पँवारा भी रचा जाता है ताकि पीड़ित लोग चौकन्ने न हो जाएँ। ज्यादा देरी के लिए सैकड़ों बहाने भी ढूँढ़ लिये जाते हैं। कभी-कभी इन्हें सुलझाने के लिए एकाध पंच भी नियुक्त कर दिए जाते हैं जो जालिमों के या तो पैसे खाते,उनके दबाव में होते,या उन्हीं में से होते हैं,भले ही ऊपर से ठाटबाट में पूरे बगला भगत हों,यही लोग पंचायत करेंगे। यही गरीबों के साथ न्याय करेंगे। बकरी का न्यायकर्ता बाघ होगा।
    मगर जब उस छल-प्रपंच से काम सधाता नहीं दीखता तो वही डोंगा डूबा,डोंगा डूबा वाली पुकार मचाई जाती है। ये भलेमानस बार-बार यही चिल्लाते हैं,यही दुहाई देते हैं कि यदि ये किसान-जमींदारों या मजदूर पूँजीपतियों के आपसी झगड़े उठाए गए,यदि उन पर वाद-विवाद हुआ,या उन्हें सुलझाने की कोशिश की गई,तो घरेलू झगड़ा शुरू हो जाएगा। फलत: आजादी की लड़ाई ही खटाई में पड़ जाएगी। इसलिए ऐसी बातें तब तक हरगिज न छेड़ी जाएँ जब तक दोनों ही दल एक साथ मिल के,शोषक एवं शोषित कन्धे से कन्धा मिला के विदेशी शासकों को अपने मुल्क से हमारे देश से विदा नहीं कर डालते? तब तक तो जैसे-तैसे समझा-बुझा के ही काम निकालना होगा। मजबूरी जो ठहरी। इन झमेलों के छेड़ने से तो अब तक के सारे किए कराए पर पानी ही जो फिर जाएगा। क्या खूब,समझाने बुझाने से बाघ बकरी को खाना बन्द कर देगा। तब वह जिन्दा रहेगा कैसे? वह मरना तो चाहता नहीं और यह उसकी भी मजबूरी ही तो है? फिर उसे खाए न तो आखिर करे क्या? माला जपे? दूध घी खाए?
    यह घरेलू झगड़े की बात भी कैसी निराली है? जब यह उम्मीद की जाती है कि आजादी न मिलने तक किसान जमींदारों के विरुद्ध कोई शिकायत न लाए,तो उसी के साथ यह भी क्यों नहीं सोचा जाता कि जमींदार भी किसानों को सताना कम से कम तब तक तो बन्द कर दें? आखिर आप जब हमें पीटिएगा तो क्या हम रोएँ-चिल्लाएँगे भी नहीं? उचित तो यही है कि हम भी जबाव में आपको ठोंक दें,हम भी आपको ऐसा दुरुस्त कर दें कि आपकी आदत ही छूट जाए। मगर यदि किसी कारणवश हम यह नहीं करते,नहीं कर पाते,नहीं कर सकते,तो रोना-चिल्लाना भी बन्द? चीख-पुकार भी बन्द? यह तो अच्छी अन्धेरपुर नगरी की बात हुई। यह तो आजादी की लड़ाई क्या हुई,गरीबों एवं शोषितों के लिए आफत आ गई। क्योंकि यदि यह न होती तो आप भी तो यह कहने का साहस नहीं करते कि उनके अत्याचारों के खिलाफ फरियाद भी मत करो। तब तो कम से कम फरियाद तो उचित मानी जाती। फलत: बदनामी के डर से जालिम लोग कुछ तो हिचकते,कुछ तो आगा-पीछा करते। मगर आज तो उनका एकछत्र राज्य जैसा हो गया है। वे खुले साँड़ की तरह विचरते और जिसी का खेत चाहा चरते फिरते हैं। तुर्रा यह कि यदि खेतवाला उन्हें हाँकने जाए तो उलटे पेट में सींग घुसेड़ते हैं। धर्म के नाम पर वह भाला-बर्छी से उनका सत्कार भी नहीं कर पाता,और जले पर नमक डालने के लिए कोई उसकी आह भी सुनने को रवादार नहीं। यहाँ तक कि गरीबों को ही आजादी दिलाने के लिए जो बेहाल मालूम पड़ते हैं,उन लोगों के कान भी इन आहों से फटे जाते हैं। किसान तो आजादी के नाम पर सारा त्याग,सारी तपस्या करके भी बुरी बला में आ फँसा।
    कहते हैं कि एक ऋषि महाराज तप,जप,पूजापाठ से जीवन व्यतीत कर रहे थे। एकान्त जंगल में उनका स्थान था। उनकी तपश्चर्या से देवता तथा मनुष्य सभी प्रभावित थे? उनके जप-तप के फलस्वरूप सभी लोग हर प्रकार से सुखी सम्पन्न थे। इतने में ही देवताओं एवं असुरों ने मिलकर समुद्र का मन्थन किया,ताकि उससे अमृत निकले और सभी के सभी  अमर हो जाएँ। मगर अमृत निकलने से पहले बहुत सी चीजें निकलीं। उनका बँटवारा भी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार हो गया। इसी सिलसिले में लक्ष्मी जी के निकलने के पूर्व उनकी बड़ी बहन (ज्येष्ठा) दरिद्र भी निकलीं। अब एकाएक विषम समस्या सामने आ खड़ी हुई कि इन्हें कौन ले? इन्हें कहाँ रखा जाए? इन्हें अपनाने को तो कोई रवादार न था। भला यह अनन्त बलाओं की बला कौन लेता? कोई रास्ता सूझता न था। सभी हैरान थे,क्या करें,क्या न करें? आखिर दरिद्र को किसी के माथे तो मढ़ना ही होगा। मगर किसके माथे,यही सवाल था।
    अन्त में एक उपाय सूझा। लोगों ने बहुत सोच-समझ के तय किया कि उन्हीं धर्मपरायण,परोपकारी,परम तपस्वी ऋषिजी के माथे मढ़ी जाएँ यह श्रीमती। आखिर समस्या हल हुई। सभी का सर हलका हुआ। ऋषि महाराज की तपस्या उनके व्यापक उपकार का ऋण भी चुकता हो जाए और बला भी टले यह तो बहुत ही अच्छा 'एक पन्थ दो काज' हुआ। फिर ऋषिजी ढूँढ़-ढाँढ़ के बुलाए गए और उनसे कहा गया कि आप वृद्ध ठहरे,आपके आश्रम में झाड़ु-बुहारू देने एवं अन्य प्रकार की सेवा-शुश्रूषा के लिए हम लोगों ने एक दासी तजबीज की है। आप उसे ले जाइए। इसके बाद श्रीमती दरिद्र देवी उनके पल्ले लगाई गईं। ऋषि जी तो कोरे ऋषि थे। उन्हें भीतरी रहस्य क्या मालूम? फलत: उनने स्वीकार कर लिया और श्रीमती जी के साथ वे आश्रम वापस गए।
    इधर यारों की बला तो टली। मगर अब ऋषि जी के सिर पर आफत आई। पहुँचते ही न देर लगी कि दरिद्र जी का काँय-काँय शुरू हुआ। बात यह हुई कि आश्रम में त्रिकाल हवन,वेदपाठ आदि होते थे। यही तो वहाँ का धर्म था। यही वहाँ की असल चीज थी। मगर दरिद्र जी को यही काबिले बर्दाश्त नहीं। ज्यों ही वेदोच्चारण की भनक उनके कान में पड़ी कि 'बाप रे बाप,कान फटा,कान फटा,  ' कहके चिल्ला उठती थीं। हवन का धुऑं उनके ऑंख में गया भी नहीं कि वही 'ऑंख फूटी,ऑंख फूटी' की चिल्लाहट मचाती थीं। हवन में जलनेवाले सुगन्धित पदार्थों की गन्‍ध नासिका में पहुँचते ही 'नाक फटी,नाक फटी' का कोलाहल मच जाता था। अजीब हालत थी। दिन-रात यही रोना-पीटना यही हाय-तौबा। वह भी बुरी तरह परेशान और ऋषि भी बेहद दिक। किया क्या जाए? कोई चारा न था। कोई रास्ता सूझता न था। दो परस्पर विरोधी स्वभावों का,विचारों का,धाराओं का सम्मिलन होने का नतीजा और हो भी क्या सकता था? लाचार होके ऋषिजी को अन्त में श्रीमती जी को आश्रम से सदा के लिए विदाई देनी पड़ी। तब कहीं जाके चैन मिला। तब उन्हें शान्ति मिली।
    ठीक यही हालत आज की राष्ट्रीय संस्थाओं में होती है। उनमें बुलाए जाते तो हैं किसान और मजदूर आदि पीड़ित लोग बड़े ही चाव से। जैसे देवताओं और असुरों ने बड़े ही आदर तथा चाव से ऋषिजी को आमंत्रित करके उनके सुपुर्द दरिद्र महारानी को किया। यदि वहाँ उन्हें गर्ज थी तो यहाँ इन्हें भी कम गर्ज नहीं रहती है। मगर जब गरीब लोग अपने दुखड़े यहाँ सुनाने लगते हैं तो बाप रे बाप,कान फटा,नाक फटी,ऑंखें फूटी वाली हालत हो जाती है। उनके दुखड़ों की बातें सुनते ही ये लोग दरिद्र की तरह चीख-पुकार करने लगते हैं। तोबा तिल्ला मचाते हैं। चाहते हैं कि ये बातें उठें ही न। मगर ऋषि की ही तरह किसानों और मजदूरों के तो यही सनातन धर्म हैं,वे तो यही बातें सुनाने के लिए आते ही हैं। उन्हें क्या पता कि ठेठ दरिद्र से ही पाला पड़ा है जो ये बातें सुन भी नहीं सकती हैं,बर्दाश्त भी नहीं कर सकती हैं। वे घबराते हैं,आश्चर्य में आते हैं। वे यह दशा समझी नहीं सकते ठीक ऋषि जी की ही तरह। मगर जैसे हारकर आखिर ऋषि जी ने दरिद्र जी से अपना पिंड छुड़ाया। तब कहीं जाकर उन्हें चैन मिला।
    ठीक यही बात किसानों और मजदूरों को भी करनी होगी। उन्हें भी इन दरिद्रों से अपना पिंड छुड़ाना ही पड़ेगा। और यह काम जितना जल्द हो जाए उतना ही अच्छा। अब तक तो यह नहीं ही हो सका है। हो सकेगा भी नहीं जब तक किसान सभा को किसान न अपनाएँ,जब तक जबर्दस्त किसान सभा बनाके उसमें ही अपने दुखड़े वे पेश न करें,जब तक वे अपने कष्टों को हटाने के लिए किसान सभा के द्वारा ही सीधी लड़ाई न लड़ें। यह काम किसान सभा ही कर सकती है। यह उसी से हो सकता है। वहाँ खिचड़फरोशी है जो नहीं। वहाँ तो एक ही काम है और वह है किसानों के कष्टों को सदा के लिए दूर करना। फिर चाहे जिस प्रकार यह बात हो सके। जहाँ लीपापोती न हो,जहाँ किसानों की ही सेवा का एकमात्र व्रत हो वहीं यह काम हो सकता है। ऐसी चीज,ऐसी संस्था तो किसान सभा ही है।
    19.1.41। यही नहीं कि किसानों की फरियाद सुनने को राष्ट्रीय संस्थाएँ रवादार नहीं। बात तो यहाँ तक होती है कि यदि किसान या किसान सभा दूसरा उपाय न देख खुद कोई प्रतिकार करना चाहे,प्रतिकारों की शरण लें तो आजादी की लड़ाई के शत्रु की पदवी उन्हें दी जाती है। वे और तरह का प्रतिकार कर ही क्या सकते हैं,सिवाय उसके कि 'मरता क्या न करता' के अनुसार जान पर खेल के आमने सामने जालिमों का मुकाबला खूब डट के करें,  सीधी लड़ाई लड़ें। कचहरियों और न्यायालय कही जाने वाली संस्थाएँ तो उन्हें और भी पागल करती हैं। वहाँ तो घर का आटा ही गीला करना पड़ता है। कोई सुनवाई शायद ही होती हो। इसीलिए जालिमों के सामने झुकने से साफ इनकार करने के सिवाय कोई रास्ता उनके लिए रही नहीं जाता। खम ठोंक के भिड़ने पर अत्याचारियों की नाड़ी भी फौरन ही ढीली हो जाती है और सदा के लिए वे अपनी शैतानियत बन्द ही करने को मजबूर होते हैं। अब तक तो उनका काम केवल झूठे रोबदाब,झूठी बन्दरघुड़की से ही चलता था। फलत: किसानों के ललकारते ही वे सटक जाते हैं।
    फिर तो वे राष्ट्रीय संस्थाओं में बैठे हुए अपने दलालों की ही शरण लेते हैं। उनकी तो वह दूकान ही केवल ऐसे ही मौकों के लिए है। फलत: वे दलाल किसानों और किसान सभाओं को भरपेट कोसते हैं। राँड की तरह गिन-गिन के गालियाँ देते हैं। ये लोग देश के शत्रु हैं। विदेशियों के दलाल हैं। आजादी के विरोधी हैं,घरेलू झगड़े छेड़ के उस लड़ाई को कमजोर करना चाहते हैं आदि-आदि तानें तिश्ने और गालियों की भरमार होती है। इतना ही नहीं। किसानों को ठेठ स्वराज्य दिलाने की दम भरनेवाले ये पिट्ठू पापी जमींदारों के पिट्ठू सरकारी अफसरों तक से मिल के चाहे जैसे हो किसानों की इन सीधी लड़ाइयों को मिट्टी में मिलाने पर तुल जाते हैं। ऐसे सैकड़ों दृष्टान्त मेरी ऑंखों के सामने मौजूद हैं। किसानों को इस प्रकार पस्त करने में कौन-कौन से कुकर्म और जालफरेब इन लोगों ने नहीं किए हैं? फिर भी बेशर्मी से चिल्लाए चले जाते हैं कि ये लोग किसानों के सभी कष्टों को दूर करेंगे,उन्हें स्वराज्य दिलाएँगे। कसाई के हाथों फँसी गाय की ही तरह इन जल्लाद जमींदारों,साहूकारों एवं पूँजीपतियों के हाथ में फँसे इन किसानों को उनसे तो रिहाई दिलाने के विरोधी हैं। फिर भी ठेठ स्वराज्य तक किसानों को पहुँचा देने का दावा है। बेहयाई की हद हो गई।
    इन भले मानसों से कोई पूछता भी क्यों नहीं कि आखिर वह स्वराज्य सिर्फ किसानों और शोषितों के ही लिए होगा,या कि इन मालदारों तथा शोषकों का भी उसमें हिस्सा होगा? वे आखिर इतना तो मानते ही हैं कि जो स्वराज्य सभी के लिए है उसी के लिए यह लड़ाई है,हालाँकि वह स्वराज्य दरअसल मालदारों का ही है। पहले तो उन्हें ही स्वराज्य मिलता है। लेकिन हर हालत में जब स्वराज्य प्राप्त करने की जिम्मेदारी उन पर भी है,तो उन्हें भी क्यों नहीं रोका जाता,समझाया जाता कि किसानों पर अत्याचार करना कम से कम स्वराज्य मिलने तक तो बन्द रखें,  स्थगित रखें? फिर भी यदि न मानें,तो घरेलू लड़ाई छेड़ने वाले आजादी के शत्रु वह क्यों नहीं घोषित किए जाते? सिर्फ खद्दर पहन लेने,गाँधी टोपी लगा लेने या कांग्रेस को रुपए-पैसे दे देने से वे लोग बेरोक-टोक क्यों चरते-फिरते हैं? कांग्रेसी जमींदारों के जुल्म तो गैरकांग्रेसियों के सामने बाजी मार ले जाते हैं।
    आखिर ताली दोनों हाथों से बजती है। यदि ये हजरत जुल्म ही बन्द कर दें,तो फिर किसान या किसान-सभा उनसे भिड़ने जाए ही क्यों? इसकी जरूरत ही कहाँ रह जाए? और अगर वे लोग ऐसा नहीं करते तो अकेले किसानों पर ही इतना कड़ा बन्धन क्यों? उनने ही कांग्रेस का या नेताओं का क्या बिगाड़ा है? उचित तो यह था कि यदि जमींदार नहीं मानते तो कांग्रेसी नेता लोग उनके विरुद्ध किसानों की लड़ाई में सहायता करते। न्याय और ईमानदारी का तकाजा तो यही है। लेकिन खैर,चुप भी रह जाते और किसानों को कोसते नहीं,तो भी एक बात थी। यदि सरकारी अफसरों से मिलके किसानों को परेशान करना नहीं चाहते तो भी गनीमत थी। मगर यहाँ तो उलटी ही नदिया बहती है।
    क्या यह विश्वास किया जा सकता है कि जो कांग्रेस ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लोहा लेने को प्रस्तुत है जिसने साम्राज्यशाही को कई जबर्दस्त धक्के दे देके उसकी जड़ हिला दी है,उसके मना करने पर भी जमींदारों की हिम्मत हो सकती है कि किसानों पर अत्याचार करें? जिसकी डपट से बाघ थर्राए क्या उसकी ही डाँट से बकरी की हिम्मत नहीं पस्त हो जाएगी? तो क्या जमींदार,उनके सहायक,उनके अमले दूसरी दुनिया के लोग हैं? क्या उनके दिमाग ही फिर गए हैं? यदि यह बात हो तब तो उनके लिए स्वराज्य का कोई सवाल ही नहीं। तब तो और भी डट के उनके विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिए। और इस प्रकार यदि राष्ट्रीय संस्था अपनी पूरी ताकत इन मनचले जमींदारों के खिलाफ लगाए तो क्या वे पार पा सकेंगे? क्या तब वे तकुवे की तरह सदा के लिए सीधे न हो जाएँगे? और अगर कांग्रेसी नेता ऐसा नहीं करते तो क्या इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि वे लोग या तो खुद जमींदार,मालदार और शोषक हैं,या उनके सगे-सम्‍बन्‍धी,सहायक और दलाल?
    और जमींदार,उनके साथी या पिट्ठू आज किसानों के उत्पीड़न की जरा भी परवाह नहीं करते,जब कि उनसे काम लेना है,जब उन्हें आजादी की लड़ाई में भिड़ा के स्वराज्य लेना है,वही लोग स्वराज्य मिलने पर कैसे परवाह करेंगे? आज तो किसानों और गरीबों की पीठ ठोंक के स्वातन्त्रय संग्राम को उन्हीं के द्वारा जीतना है। आज तो मालदारों को किसानों की सहायता की निहायत ही जरूरत है। मगर जब गज बावला होने पर भी ये अपनी पुरानी जालिमाना हरकतें बन्द नहीं करते,किन्तु बराबर ही जुल्म की चक्की में किसानों को पीसते ही जाते हैं,तब तो आसानी से यह हिसाब लगाया जा सकता है कि आजादी मिल जाने के बाद किसानों की मदद की जरा भी गर्ज न रहने पर उन्हें हजार गुना बेमुरव्वती से,लाख गुना बेदर्दी से इन्हें पीस डालेंगे। तब तो इन्हें पूरी छूट होगी। तब तो ये खुल के होली खेलेंगे।
    जर्मनी के हिटलर के बारे में सभी जानते हैं कि वह अपने को पहले समाजवादी और गरीबों का सेवक कहता था। उसने तो किसानों तथा मजदूरों से,  कमाने वाली जनता से,  बार-बार प्रतिज्ञाएँ की थीं कि उसके हाथ में शासन सूत्र आते ही वह उत्पीड़न एवं शोषण का सदा के लिए जर्मनी से अन्त करेगा। वह एक भी किसान या मजदूर को,  कमाने वाले को,  किसी भी प्रकार दु:खी रहने न देगा। वह कमानेवालों के द्वार घी,दूध की नदियाँ बहा देगा। इसी विश्वास से किसानों और मजदूरों ने उसकी पूरी मदद की। वे उसके लिए लड़े और अन्त में उसके हाथों में शासन सूत्र दिला के ही दम ली।
    मगर उसके बाद भी जब उनने देखा कि वही पुरानी दुनिया है,वही पुराना उत्पीड़न और शोषण जारी है,कुछ भी परिवर्तन नहीं,प्रत्युत रंग बदरंग है,बल्कि तकलीफें और बढ़ रही हैं,तो उनने मिल के माँग पेश की कि ये बातें अब वादे के अनुसार बन्द हो जाएँ,बन्द कर दी जाएँ। उनने यह भी कहा कि हमारे आराम का सामान मुहय्या किया जाए। इस पर हिटलर का वज्र की तरह जवाब मिला कि चुप्प। यदि जबान खोली तो निकाल ली जाएगी। यदि कुछ भी तूफान किया तो फाँसी की रस्सी में सीधे लटका दिए जाओगे। यदि काँय-काँय की तो जेल की हवा खानी होगी,जायदाद जो बची-खुची है वह भी जब्त कर ली जाएगी। चुपचाप बैठे रहो। सभा-सोसाइटी मत करो। आन्दोलन मत करो। नहीं तो लेने के देने पड़ेंगे।
    अब यदि किसानों और मजदूरों को चीरो तो खून नहीं। उन्हें अब पता चला कि कहाँ आ फँसे? किस धोखे में पड़ गए। उनने साफ-साफ देखा कि यह तो विचित्र ही स्वराज्य मिला। उनने कहा कि हम तो इससे कहीं अच्छे पहले ही थे। कम से कम आन्दोलन तो कर सकते थे,फरियाद तो कर सकते थे,चीख-पुकार तो कर सकते थे। मगर अब तो 'न तड़पने की इजाजत है न फरियाद की है। घुट के मर जाएँ,मर्जी यही सैयाद की है।' अब तो हिटलर कहता है कि पहले तो जेल,पुलिस,फौज,फाँसी आदियों पर दूसरों का अधिकार था,उसका नहीं। पहले जेल भेज सकते थे,या फाँसी दे सकते थे दूसरे ही लोग। मगर अब तो वह सभी अधिकार मेरे ही (हिटलर के ही) हाथ में हैं। इसलिए अब तो जेल,फाँसी आदि की सजा किसी को भी देने में उसे जरा भी अड़चन नहीं। तो क्या यही स्वराज्य है? यही आजादी है? क्या इसीलिए हिटलर की बात मानके हम लोग लड़े थे? क्या उसे इसी बात की आजादी दिलाने के ही लिए हममें हजारों मरे-कटे और बरबाद हुए? यह तो गजब है। यह तो गजब हो गया? मगर अब आखिर वे लोग करते ही क्या? अब तो बेबस थे। रोते थे,चिल्लाते थे,हाय-हाय करते थे। सो भी धीरे से। नहीं तो फाँसी ही लटका दिए जाएँ।
    तो क्या ठीक यही बात हमारे देश के जमींदार,मालदार और धनी मानी लोग भी स्वराज्य मिलने पर नहीं करेंगे? इसमें गारण्टी क्या है कि न करेंगे। झूठे वादे,झूठी प्रतिज्ञाओं की गिनती ही क्या? हिटलर भी तो पहले ऐसे ही वादे करता था। बल्कि यहाँ तो जमींदार और पूँजीपतियों का जुल्म अभी भी जारी ही है। उनका अपना रवैया तो बदला है नहीं। वह तो जारी ही है। फिर स्वराज्य मिलने पर क्यों रुकेगा? अभी तो माथे पर एक-दूसरी सरकार,  विदेशी सरकार,  बैठी है,जो चाहे तो इन पर लगाम लगा सकती है। कभी-कभी लगाती भी है। अभी तो दमन का सारा सामान उसी के हाथों में है। मगर स्वराज्य मिलने पर तो वह सरकार रहेगी नहीं। तब तो दमन का सारा सामान,सारा अधिकार हिटलर की ही तरह इन्हीं धनी-मानियों के हाथ में ही आ जाएगा। फिर तो करैला नीम पर ही चढ़ जाएगा। फिर तो दमन और अत्याचार की तलवार लाख गुना तेज चलेगी। फिर तो यहाँ भी किसानों की वही हालत होगी जो जर्मनी में हो रही है।
    हाँ,यदि ये धनी-मानी जुल्मों को कतई बन्द कर देते तो कम से कम इन्हें यह दलील करने का मौका तो मिलता कि देखिए,हमने तो बहुत दिन से चले आने वाले अत्याचार एकाएक बन्द कर दिए हैं,इसलिए विश्वास कीजिए,स्वराज्य मिलने पर भी हम यह बात होने न देंगे। हालाँकि हिटलर तो पहले कुछ भी अत्याचार नहीं करता था। वह तो स्वराज्य मिलने पर ही करने लगा है। असल में तो स्वराज्य के पहले भी और स्वराज्य मिलने पर भी ये अत्याचार होने न पाएँ इसका तो एक ही उपाय है कि खिचड़फरोशी और लीपापोती की बात छोड़ के किसानों की अपनी सभा खूब जबर्दस्त बनाई जाए। वह उनका अभेद्य गढ़ हो। वह उनके लिए बराबर लड़े,बराबर उनके लिए तैयार रहे। वह उन्हें बराबर ही इस मुठभेड़ की शिक्षा देती रहे और इस प्रकार हरेक किसान को इस भिड़न्त के लिए तैयार करके ही दम ले। वह किसानों के लिए अपना अखाड़ा हो,अपना शिक्षा शिविर (Training Camp) हो। तभी काम चल सकता है। दूसरा उपाय है नहीं। नहीं तो पीछे चलकर तो खामख्वाह धोखा होगा।
    20.1.41। इस प्रकार यदि किसान सभा की संरक्षकता तथा उसके नेतृत्व में किसान लोग अपने हकों की सीधी लड़ाई लड़ें और जालिमों को सबक सिखाना शुरू करें तो उनके घर में तो अवश्य ही हड़कम्प मचेगी। उन्हें तो उस दशा में ऐसा नजारा देखने को मिलेगा जिसकी उन्हीं नाममात्रा की भी आशा न थी। वे तो समझ बैठे थे कि अपने दुभाषिए दलालों के द्वारा जो अपने खाँटी राष्ट्रवादी होने का दमामा बजाते फिरते हैं,वे सीधे-सादे किसानों को अन्त तक जाल फरेब में फाँस के काम निकाल लेंगे। फलत: हो-हल्ला मचाना शुरू होगा कि आजादी न मिलने के दोषी किसान सभा वाले ही हैं। वही तो मिलकर स्वतन्त्राता की लड़ाई चलाने का रास्ता ही बन्द कर रहे हैं। गोया इस दम्भपूर्ण संयुक्त मोर्चे या मिली लड़ाई की सारी जवाबदेही किसानों एवं किसान सभा पर ही है। ये लोग ऐसा माने बैठे हैं कि यदि किसान सभा वाले चाहें तो यह मोर्चा रह सकता है। केवल उन्हीं का यह फर्ज है? यदि जमींदार इसमें किसी भी प्रकार शामिल होते हैं या थोड़ा बहुत भी साथ जैसे-तैसे ही देते हैं तो उनकी बड़ी दया है। उन्हें तो उसकी जरूरत जरा भी नहीं। सबकुछ जरूरत तो किसानों तथा किसान सभा को ही है।
    ठीक ही है,जमींदारों की असली जरूरत तो यह है कि उनकी जमींदारी का अन्धेरखाता चलता रहे। यदि इस जागृति के युग में वे जग के इसे मिटाने की कोशिश करें तो राष्ट्रीयता,संयुक्त मोर्चा और घरेलू लड़ाई से बचने आदि का नुस्खा दिखा कर,या यों कहिए कि इस तरह की मार्फिया खिलाकर उन्हें फिर सुला दिया जाए,दूसरे ढंग से यह काम आज हो भी नहीं सकता है। यही है जमींदारों एवं मालदारों की पहली जरूरत।
    उनकी दूसरी जरूरत है आजादी के लिए लड़ने के बजाए स्वराज्य मिलने पर उसे हथिया लेने की। लड़ाई भाड़ में जाए। संयुक्त मोर्चा मिट्टी में मिले। वे तो किसानों के खिलाफ अपनी लड़ाई चलाई रहे हैं। उसी काम में सभी शोषकों का बढ़िया संयुक्त मोर्चा भी है। जिसमें राष्ट्रवादी नामधारी उनके दलाल भी शामिल होई जाते हैं। अत: आजादी की लड़ाई की फिक्र और उस संयुक्त मोर्चे की परवाह किसान करें। आखिर मालदार ही सबकी परवाह कहाँ तक करेंगे? मगर स्वराज्य मिलने पर तो उन्हें हाथ बँटाना ही होगा। शोषित एवं पीड़ित लोग उसका प्रबन्‍ध कर जो नहीं सकते। इसकी योग्यता जो उनमें नहीं है। सारांश,हर हालत में कमाना किसानों का काम है और भोगना मालदारों का।
    लेकिन इसका जवाब तो किसानों को बेमुरव्वती से देना होगा। हम धनियों की यह दया नहीं चाहते। हमें उनका यह भयंकर उपकार नहीं चाहिए। हम पर कृपा करें। यही उत्तर उन्हें देना होगा। कहना होगा कि खून लगा के शहीद होने की जरूरत नहीं। आप लोग अपनी जमींदारियाँ,अपनी मिलें,अपने कारखाने चलाने की ही फिक्र करें। स्वराज्य की प्राप्ति और उसका प्रबन्‍ध भी हमीं कर लेंगे। और अगर आपको भी इसमें शामिल होना है तो सीधे रास्ते से ठीक-ठीक आइए और अपना हिस्सा पूरा कीजिए। यह धोखेबाजी अच्छी नहीं। नहीं तो फिर हमारी किसान सभा ही पर्याप्त है। हम उसी के द्वारा आप लोगों से भी निपट लेंगे और विदेशियों से भी।
    पर,इतने पर भी,कुछ ऑंख के अन्धे एवं अक्ल के दुश्मन मिली जाते हैं। वे लोग बेहयाई से कह बैठते हैं कि किसान सभा तो असमय की शहनाई है। यह तो बेमौसम की वर्षा है। इसे तो कुछ लोगों ने अपनी लीडरी बरकरार रखने,अपना नेतृत्व जमाने ही के लिए चलाया है। 'मुर्दा दोजख में जाए या बहिश्त में,मुझे तो पैसे से काम है,  ' के अनुसार वे लोग तो मुल्क को गुलाम रख के भी अपने को पुजवाना चाहते हैं। उन्हें आजादी से क्या काम। वे 'घर फूटे,गँवार लूटे' को भूल ही गए हैं। वे तो अपने नीच स्वार्थ के लिए मुल्क के साथ द्रोह करते हैं। गद्दारी करते हैं। मातृभूमि की तकलीफों की परवाह उन्हें जरा भी नहीं।
    ऐसे बेशर्म लोगों को मनाना आसान नहीं है। वे समझ के भी समझना चाहते नहीं। वे तो जग के सोना चाहते हैं। तब उन्हें जगाया कैसे जाए? इसका उपाय भी क्या हो सकता है? आखिर सोए को ही जगाया जा सकता है। जगे को भला कौन जगा सकता है? समझाने वाले भी थक जाएँगे। वे भी समझाते-समझाते बेहया हो जाएँगे। फिर भी ये बेशर्म समझनेवाले नहीं।
    लेकिन उनके सिवाय ऐसे भी हो सकते हैं नासमझी से ही ऐसा खयाल हो सकता है। ऐसों को तो समझाना ही होगा। कारण,वे तो ईमानदारी से ऐसा मानते हैं कि किसान सभा का समय अभी नहीं है। वह तो आजादी के बाद ही आ सकता है। मगर वे लोग इस सम्‍बन्‍ध में सोचेने के समय एक बहुत ही जरूरी बात भूल जाते हैं। वे किसान सभा के इतिहास को या तो जानते ही नहीं,वे उसके विकास को या तो जान ही न सके हैं,या जानकर भी उस पर उनने पूरा-पूरा गौर नहीं किया है,उसका अच्छी तरह से विश्लेषण करके परिणाम नहीं निकाला है। नहीं तो ऐसी बातें बोलते ही न। यदि विचारें तो उन्हें पता लगेगा कि सभा का विकास बिलकुल ही स्वाभाविक ढंग से हुआ है। यह तो कार्य कारणवश अनिवार्य रूप से प्रकट हुई है। सो भी ऐन मौके पर। इसे कोई भी ताकत रोक नहीं सकती। इतना ही नहीं। इसकी उत्पत्ति उसके विकास के लिए यदि उत्तरदायी है,तो केवल वही लोग जो आज इसके सबसे बड़े शत्रु हैं,जो इसे आज फूटी ऑंखों भी देखना नहीं चाहते,जिन्हें इसका आधार हिंसा मालूम पड़ती है; जो इसके वर्ग संघर्ष वाले पहलू से बहुत ही घबराते हैं।
    ऐसा कहने में मेरा यह मतलब हर्गिज नहीं है कि सबसे पहले सन् 1929ई. में बिहार के गाँधीवादी नेताओं ने ही एक स्वर से इस सभा की जरूरत कबूल की और उनने ही इसे जन्म दिया। यह भी एक बात है और काम की बात है। उनने न सिर्फ किसान सभा की उस समय जरूरत समझी और उसे बनाया,बल्कि उसके बाद भी छह-सात वर्षों तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसका समर्थन करते रहे। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। इसे तो उन्हें भी मानना ही पड़ेगा। इसे हजार कोशिश करके भी वे छिपा नहीं सकते।
    यह भी ठीक है कि जब एक बार उनने इसे अपनाया और बढ़ाया,जब इसे पुष्ट किया तो आज उनके हजार न चाहने पर भी यह मिट नहीं सकती। तब उन्हें इसकी गर्ज थी,इसकी जरूरत मालूम हुई और आज नहीं है,इससे क्या? चीजें किसी की जरूरत देख के ही बनती-बिगड़ती हैं नहीं। उन्हें तो अपनी खास उपयोगिता पूर्ण करनी होती है। खासकर संस्थाएँ तो अपना विशेष लक्ष्य पूरा करने के बाद ही मिटती हैं,न कि पहले ही। इसीलिए चाहे आज वे लोग किसान सभा को भले ही न चाहें,भले ही इसकी जरूरत महसूस न करें। यहाँ तक कि अपने मार्ग में इसे भारी रोड़ा समझें। मगर इससे क्या? किसान सभा को तो अपना लक्ष्य (Mission) पूरा करना है,इसे तो किसानों का उद्धार करना है,और जब तक यह बात हो नहीं लेती,यह रहेगी और रहेगी। यह फूलेगी,फलेगी और विकसित होगी। कोई ताकत रोक नहीं सकती।
    फिर भी तो मैं मानता हूँ कि यदि उनने इसे पैदा किया तो विवश होके। वे भी कार्य-कारण वश मजबूर थे। यदि वे न भी करते तो कोई और ही करता। आखिर दूसरे प्रान्तों में भी आगे-पीछे औरों ने ही किया जो गांधीवादी न थे और न हैं। बिहार में भी सन् 1927 ई. के बीतते न बीतते मैंने ही पटने में इसका सूत्रपात किया। इससे पूर्व तो भारत में कहीं भी संगठित किसान सभा थी ही नहीं। यह ठीक है कि मैं भी उस समय घोर गांधीवादी था। इसलिए उसी सिद्धान्त के अनुसार ही इसे मैंने शुरू किया। मगर यही तो समय एवं घटनाचक्र की खूबी है कि गांधीवाद ने भी इसके उपयोगिता महसूस की। यही तो प्राकृतिक कारणों की विशेषता है कि उनने गांधीवाद को भी इसके लिए विवश कर दिया। और आज मैं गांधीवाद से लाख कोस दूर हो गया हूँ या यों कहिए कि उसे देख भी नहीं सकता,तो इसका कारण भी यही सभा है। इसी सभा ने मजबूरन मुझे ऐसा बनाया है। इससे इस बात पर काफी प्रभाव पड़ जाता है कि सभा आई है प्राकृतिक कारणों के करते ही। अत: इसकी बुनियाद बहुत गहरी है। इसीलिए इसे कोई मिटा नहीं सकता।
    अच्छा,तो आइए जरा उन्हीं कारणों का,उसी घटनाचक्र का विचार करें जिनने किसान सभा को जन्म दिया और विकसित किया। इसके लिए हमें आजादी की लड़ाई के आरम्भ में जाना होगा। ठेठ सन् 1921 ई. के पहले पहुँचना होगा। वहीं से अपनी जाँच-पड़ताल,अपना विश्लेषण हम शुरू करेंगे। तभी असलियत का पता चलेगा। तभी मालूम होगा कि इसकी तह में कौन-कौन सी ताकतें काम कर रही हैं और किस तरह काम कर रही हैं।
    सन् 1921 ई. के पहले तो संगठित किसान आन्दोलन का पता भी न था। हमारे देश में यों तो छिटपुट भिड़न्त किसानों की सदा से ही होती आई है। मगर वह सफल नहीं हो सकी। क्योंकि उसे संगठित रूप दिया जा सका। दक्षिण में जो दंगे बहुत पहले हुए,या अवध में भी,वह किसानों के ही क्रोध का परिणाम था। संथालों या छोटा नागपुर के अधिवासियों ने जो कभी-कभी तूफान मचाए वह भी ऐसा ही था। असल में साहूकारों तथा जमींदारों का शोषण जब बर्दाश्त के बाहर हो जाता था तभी ये लोग ऐसा करते थे। जब सरकार ने उनकी आजादी पर भयंकर प्रतिबन्ध लगाए। तब भी ये लोग उबल पड़े। मगर कुछी समय के बाद दबा दिए गए। फिर उसी पुरानी निद्रा की गोद में जा पड़े। यही बात बराबर होती रही है।
    मगर संगठित रूप से किसानों का आन्दोलन जरा-मरा सन् 1927-28 से शुरू होके सन् 1929-30 में पहुँचा और धीरे-धीरे आगे बढ़के 1933 से इसने जबर्दस्त सूरत हासिल की। आज जो रूप भारत के हर प्रान्तों में इसका देखा जा रहा है वह इसी प्रकार पैदा हुआ है। इसकी बाढ़ का यही रास्ता है।
    अब देखना यह है कि इसके कारण क्या हैं? असल में सन् 1919 ई. के पहले तो हमारे मुल्क की जनता,जिनमें तीन-चौथाई से ज्यादा किसान ही है,बहुत ही पस्त थी,बेहद नीचे गिरी थी। मुल्क ने गुलामी के खिलाफ आखिरी जोर सन् 1857 ई. में मारा था। मगर हारने के बाद जो भयंकर दमन एवं आतंक राज्य यहाँ की जनता में फैलाया गया उसके करते बहुत दिनों के लिए जनसाधारण उठने में,सिर उठाने में असमर्थ हो गए। इतने भयभीत हो गए कि 'न भूतो न भविष्यति'। उनकी त्रास्तता भयंकर थी। उनकी यह असहाय अवस्था किसी को भी सताने वाली थी। वे जरा सा भी सर उठाने का नाम तक ले न सकते थे। वे सोच भी न सकते थे कि अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध चूँ भी की जा सकती है।
    इसी दरम्यान में तो कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ सही। मगर उसे जनता से कोई ताल्लुक न था। वह तो हमारे मुल्क के पूँजीपतियों या यों कहिए कि भावी पूँजीपतियों की ही कोशिश के फलस्वरूप थी। फलत: उसमें वही आते-जाते थे,लेक्चर देते और सुनते थे। कुछ प्रस्ताव भी पास हो जाते थे। ज्यादे से ज्यादा मुट्ठी-भर पढ़े-लिखे लोगों की जमात ही कांग्रेस को कह सकते थे। उसे जनता की किसानों की न तो परवाह थी और न उसका इनसे कोई असली सम्पर्क ही था। इनकी दयनीय दशा तक उसकी पहुँच थी ही नहीं। फिर करती क्या? इसीलिए किसानों को ऊपर उठाने का सवाल ही तब न था।
    बेशक सन् 1905 ई. में उसके बाद जो बंगभंग को लेकर धूम मची,तूफान आया और जबर्दस्त आन्दोलन चालू हुआ वह पहले की अपेक्षा,कांग्रेसी हलचल की बनिस्बत कुछ जोरदार था। वह कुछ नीचे भी उतरा। जहाँ पहली हलचल केवल पूरे बाबुओं,पक्के मालदारों एवं उनके हिमायतियों तक ही सीमित थी,तहाँ यह छोटे मोटे बाबुओं,टुटपुँजियों,पढ़े-लिखे लोगों तथा इसी प्रकार के निम्न-मध्‍यम श्रेणी के कुछ जवानों में प्रवेश कर गया। इसका प्रभाव देश के प्राय: सभी भागों में गया। कामागाटामारू आदि की घटनाएँ भी ऐसी ही थीं। असली जनता तो फिर भी अछूती थी। किसानों तक तो इसकी पहुँच फिर भी नहीं ही हो सकी। यूरोपीय युद्ध तथा तत्सम्बन्धी चहल-पहल ने किसानों एवं पीड़ितों को भी स्पर्श किया और उनने एक नई लहर दुनिया में फैलती हुई देखी। रंगरूटों की भर्ती,लड़ाई के चन्दे आदि की हलचलों के सिवाय विदेशों में गए किसानों के बच्चों ने,फौजी सिपाहियों ने अनेक बातें सीखीं,बहुत अनुभव हासिल किए। उन्हें देहातों में फैलाया भी। फिर भी जनता जैसी की तैसी पड़ी थी। उसकी नींद ये मन्द हवाएँ तोड़ न सकती थीं। गांधीजी ने खेड़ा तथा चम्पारन में किसानों का एक आन्दोलन चलाया सही। मगर वह भी पढ़े-लिखों तक ही सीमित था। किसानों की लड़ाई वकील तथा दूसरे पढ़े-लिखे बाबू लोग ही चलाते रहे। किसानों को खींचा ही न गया।
    मगर यूरोपीय समर के बाद खिलाफत की बात को ले के मुस्लिम जनता में भारी कोलाहल मचा। एक बार सारा का सारा मुसलमान समाज नीचे से ऊपर तक हिल गया। हालाँकि धार्मिक होने के कारण वह बात उस जनता के भीतरी तह को सदा के लिए हिला न सकती थी। धर्म की बातें तो पेट भरे लोगों के ही लिए ज्यादा आकर्षक होती हैं। वे उन्हीं को अच्छी तरह खींचती हैं। फिर भी मुस्लिम जनता पर धर्म का जादू अपेक्षाकृत अधिक होने के कारण एक बार तो वह हिली गई। सो भी बुरी तरह। उसमें भीषण क्षोभ पैदा हो गया।
    उसके बाद रौलेट एक्ट को लेकर आन्दोलन छिड़ा? यह भी निम्न-मध्‍यमवर्ग तक ही प्राय: सीमित रहा। जब उसी सिलसिले में पंजाब हत्याकांड हुआ तो बात कुछ बेढब हुई,और जनसाधारण में भी कुछ उत्तेजना फैली। फिर भी जैसी चाहिए वैसी नहीं। बेशक,खिलाफत और पंजाब हत्याकांड की घटनाओं ने क्षेत्र तैयार कर दिया। इससे जनसाधारण के कान जरूर खड़े हो गए। उन्हें पता लगने लगा कि कुछ होने वाला है,कुछ करना चाहिए,उन्हें भी कुछ करना होगा। मगर क्या करना होगा इसका पता तब तक किसी को भी न था। सब अन्‍धेरे में थे। केवल कोई अज्ञात शक्ति उन्हें प्रेरित कर रही थी। भीतर ही भीतर कोई झोंका,कोई धक्का उन्हें लग रहा था ताकि उनकी युगान्तर की नींद टूटे।
    21.1.41। इतने में असहयोग आन्दोलन का युग आया। एक तो खिलाफत के खतरे का सवाल था जो मुसलमान जनता को उत्तेजित कर रहा था। यों तो यूरोपीय महासंग्राम से पहले भी सन् 1911 से 1913 तक जो बालकन देशों में संघर्ष हुआ था उसमें ही तुर्की को काफी धक्‍का लगा था और उसके कुछ प्रदेश छिन गए थे। फलत: मुसलमानों में तभी से सरगर्मी थी। मगर महासमर के फलस्वरूप जो तुर्की के सुलतान खलीफा पस्त हुए और उस देश का बँटवारा मित्र राष्ट्रों ने आपस में करके उन्हें एक प्रकार से गुलाम बना दिया उससे भारतीय मुस्लिम संसार में आग- सी लग गई। उसके बाद रहा-सहा काम पंजाब के हत्याकांड और मार्शल लॉ ने पूरा कर दिया। भारत की बाकी जनता में भी इसके करते भरपूर उत्तेजना आई। बस,गांधीजी ने कांग्रेस की तरफ से इस उत्तेजना का,इस देशव्यापी लहर का ठीक समय पर,ऐन मौके पर इस्तेमाल कर लिया। सन् 1919 और 1920 में वे मुस्लिम नेताओं को साथ ले के भारत के कोने-कोने में इस अग्नि को प्रज्वलित करते रहे। उनके दौरे और प्रचार तथा पंजाब हत्याकांड की जाँच कमेटी की रिपोर्ट ने जलती आग में घी का काम किया।
    मगर इतने से ही तो विराटकाय जनसमूह बिगड़ खड़ा हो सकता न था। इतने से ही उसे देर तक क्षोभ में रख सकना सम्भव न था। यदि उससे कुछ ठोस काम लेना था तो उसके मर्म को स्पर्श करनेवाली,उसकी हृदयतन्त्री को झंकारने वाली बात चाहिए। इसीलिए गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम में पीड़ित जनता की बातों को काफी स्थान दिया। चरखे और करघे के सिवाय शराब,ताड़ी,गांजा आदि मादक पदार्थों को बन्द करने पर पूरा जोर देने के साथ ही सरकारी कचहरियों के बहिष्कार,पंचायतों की स्थापना आदि बातें किसानों एवं पीड़ितों को सीधे लाभदायक थीं। स्वराज्य की बात यद्यपि गोल थी और जनसमूह उसे ठीक-ठीक हृदयंगम कर सकता न था। तथापि उसका जो मनमोहक रूप खड़ा किया गया और जनता को समझाया गया कि उससे उसके सारे कष्ट भाग जाएँगे और सुख का जीवन कटने लगेगा,इससे सभी पीड़ित जन इस आन्दोलन में खिंच आए। धार्मिकता एवं नैतिकता के पुट के साथ रोटी का प्रश्न इस प्रकार रखा गया कि भोली-भाली किसान जनता खिंचे बिना रह न सकी।
    असल में सरकार का जो बेढंगा रवैया था उसके चलते गांधीजी और कांग्रेस नेता लाचार थे। महासमर में विजय मिलने से वह तो मदान्ध थी। इसलिए कुछ भी सुनने को रवादार न थी। सभा,प्रदर्शन,गर्मागर्म भाषण,प्रस्ताव,कागजी धमकियाँ उसे डुला नहीं सकती थीं। जब तक इस चीख-पुकार,इस आहोजारी,इस मुतालबे के पीछे कोई ताकत न हो,कोई बल न हो,कोई Sanction न हो। इसलिए नेताओं के लिए मजबूरी थी कि सरकार को दबाने के लिए,उससे अपनी माँगें मनवाने के लिए पीड़ित जनता को,जिसमें अधिकांश किसान ही हैं,अपने साथ लें। यही कारण था कि उनने शहरों की आस छोड़ के गाँवों की ओर पहले पहल मुँह फेरा। उनने सोचा कि जो लोग सरकार की जड़ हैं,जो उसे सबकुछ देते हैं,उन्हें ही अपने साथ लो और सरकार से विमुख करो,तभी यह मतवाली सरकार सुनेगी। यही है सन् 1921 ई. असहयोग आन्दोलन का रहस्य।
    मगर किसान पूर्णरूपेण साथ दें इसके लिए जरूरी था कि उन्हें जगाया जाए,समझाया जाए और उनमें हिम्मत लाई जाए। क्योंकि वे तो बिलकुल ही मुर्दे थे,पस्त थे। इसलिए हजारों-लाखों,पढ़े-लिखे लोग,वकील,बैरिस्टर वगैरह अपना पेशा छोड़ के इस काम में पिल पड़े। उनने किसानों को,दलितों को बार-बार समझाया कि तुम सरकार को पछाड़ सकते हो,उसे दबा सकते हो और अपना जन्मसिद्ध अधिकार,  स्वराज्य,  ले सकते हो। एक विचित्र ही दृश्य था। निराली समाँ थी। हजारों- हजार पढ़े-लिखे लोग नंगे पाँव,धोती-कुर्ता पहने देहातों में धूनी रमाते थे,उनकी खाक छानते थे। उनने अपनी और अपने बाल-बच्चों की परवाह तक छोड़ दी थी। जो जेलखाने अब तक यमपुरी से भी भयंकर माने जाते थे उनकी परवाह कतई छोड़ दी थी। खुले आम सरकार को ललकारते तथा उसके कानूनों को पाँवों तले रौंदते थे।
    किसानों ने आश्चर्यचकित नेत्रों से यह दृश्य देखा। पहले तो वह समझी न सके कि यह क्या चीज है। जिस सरकार के पास फौजें,पुलिस,जेल,फाँसी,कचहरियाँ हैं,जो सबको नाकों चने चबवाती रही है और अब भी चबवा सकती है,जिसने जर्मनी के अपार बलशाली कैसर को चूर्ण-विचूर्ण कर दिया,उसी के सम्‍बन्‍ध में आज यह बातें। क्या सचमुच हम निहत्थे लोग उसे पछाड़ सकेंगे? यह सम्भव है? ऊँ हूँ। मगर फिर सोचा कि आखिर ये बड़े-बड़े दिमागदार और दक्काक लोग पगले भी तो नहीं हो गए हैं। सबके सब ऐसे कैसे हो सकते हैं? ये बड़ी-बड़ी अक्लें रखते हैं। मगर यही तो ऐसा कह रहे हैं कि हम स्वराज्य की स्थापना कर सकते और सरकार को सात समुन्दर पार भेज सकते हैं। हम निहत्थे तथा पंगु लोग ही। देखो न,जेलों का डर ही इनने,  इन कुसुम जैसे कोमल बन्धुओं ने,  छोड़ दिया है। वे तो जरा भी जेलों की परवाह नहीं करते। और सरकार भी,सचमुच ही,उनका कुछ कर भी नहीं रही है। हालाँकि ये खुले आम उसके विरुद्ध जहर उगलते हैं,आग लगाते हैं,कानून तोड़ते फिरते हैं। हो न हो,कुछ बात है। इसमें कुछ न कुछ हो के ही रहेगा। जो हमारी समझ में यह बात किसी भी तरह नहीं आती। फिर भी चलो इनकी भी बात एक बार मान के देखें तो। आखिर पीर-फकीर गुरु-औलिया की बातें हजार बार मानी हैं। हालाँकि किसी ने भी स्वर्ग नर्क या भगवान को नहीं देखा। फिर इनकी भी,  इन दिमागदारों की भी,  बातें एक बार मान देखें क्यों नहीं?
    नतीजा यह हुआ कि लक्ष-लक्ष किसान कांग्रेस के संघर्ष में कूद पड़े। मुल्क के एक छोर से दूसरे तक तूफान मच गया। चारों ओर आग-सी लग गई। जो लोग लाल पगड़ी देख के थर्र मारते थे उनने खुले आम कहना शुरू किया कि सरकारी नौकरी गुनाह है,पाप है,'डूब मरना चाहिए पर यह न करना चाहिए' आदि-आदि। 'पुलिस हमारा नौकर है' के नारे चारों ओर गूँजते थे। जो कल तक मालिक के भी मालिक रहे वही आज नौकर बन गए। मालूम होता था,मुल्क में प्रलय का तूफान आया है जो विदेशी शासन को डुबा के ही दम लेगा। ऐसा जोश था,ऐसी उमंग थी,ऐसी लहर थी कि कुछ पूछिए मत। धर्म-मजहब के पुराने झगड़े न जाने कहाँ चले गए। हिन्दू और मुसलमान सगे भाई की तरह मिलने-जुलने और बर्ताव करने लगे। नतीजा यह हुआ कि सरकार घबरा उठी। यदि दस को जेल में डालती तो हजार तैयार। फिर करती क्या? लाठी,गोली,फाँसी की भी परवाह छूट चुकी थी। हारकर दिसम्बर में कलकत्तो में सरकार के सबसे बड़े प्रतिनिधि वायसराय लार्ड रीडिंग को कहना पड़ा कि यह क्या हो गया? मैं तो हैरान हूँ यह नजारा देख के। मेरी तो अक्ल ही काम नहीं करती,  'I am puzzled and perplexed।*
    इस प्रकार निहत्थी जनता के पहले ही शान्तिपूर्ण धक्के में सरकार झुकी। उसका मद चूर हुआ। उसका होश कुछ तो ठिकाने आया। फलत: किसानों को विश्वास हो आया। उनने देखा कि नेता लोग ठीक ही कहते थे कि हम निहत्थे लोग ही सरकार को पछाड़ देंगे। अरे,यह तो धोखे की टट्टी ही है। हम इसे बड़ी जबर्दस्त माने बैठे थे। मगर यह तो कुछ भी नहीं है। ऐं,पहले ही धक्के में फक्क। उन्हें यह प्रत्यक्ष भान हुआ,अमली तौर से मालूम हुआ कि हममें बड़ी ताकत है,अपार शक्ति है। हमने तो इस अपार बलशालिनी सरकार को,महामहिम विदेशी शासन को बात की बात में झुका दिया। इस प्रकार भूले शेर को,जो गधे के साथ मारा फिरता था,अपनी ताकत का अनुभव हुआ और उसने समझा कि हम शेर हैं। हम तो हाथी को भी पछाड़ सकते हैं। फिर गधे की क्या बात?
    इसके बाद स्वराज्य पार्टी के जमाने में कौंसिलों के चुनावों में भी जनता ने कांग्रेस को जिताया और इस प्रकार अपनी शक्ति का पुनरपि साक्षात्कार किया। सन् 1930 और 1932 की सत्याग्रह वाली लड़ाइयों का तो कहना ही क्या? उनमें तो पीड़ितों और दलितों ने सरकार को पकड़ के अच्छी तरह झकझोर ही दिया,जैसे जबर्दस्त वानर छोटे-मोटे पेड़ को झकझोरता है। 1930 में सरकार साफ ही हारी और भारत के इतिहास में यह पहला ही अवसर था जब गुलाम देश के प्रतिनिधि की हैसियत से गांधीजी ने सम्राट के प्रतिनिधि वायसराय लार्ड इरविन से दिल्ली में बातें कीं। विलायत के सभी दकियानूसी अंग्रेज इससे जलके खाक हो गए। लाठी से बुरी तरह पिटे,अतएव पस्त साँप की तरह वे सभी,जिनमें आज के प्रधानमंत्री मिस्टर चर्चिल प्रमुख हैं,फुफकार रहे थे।
    सन् 1932 में सरकार ने कांग्रेस को झाँसापट्टी में डाल के यद्यपि घोर दमन किया और मालूम पड़ता था कि मुल्क पस्त है। मगर दरअसल बात यह न थी। देश घोर अग्निपरीक्षा से पार हो रहा था। उफ। वह भीषण दमन। वह दमन का तांडव नृत्य। मगर फिर भी देश ने खूबी से मुकाबला किया। असल में अब लड़ाई ऊपर रहने के बजाए भीतर घुस रही थी,जैसा कि आजादी की लड़ाई में सभी देशों में पीछे चलकर होता ही है,जब लोग जम के भिड़ने लगते हैं। मगर गांधीजी ने इस गुपचुप की लड़ाई,इस भीतरी मार को नापसन्द किया। फलत: इसे बन्द कर दिया। इस प्रकार मुल्क की जो अपार हानि उनने की वह वर्णनातीत है। मगर खुल के तो लड़ाई का,उस निरंकुश दमन के सामने,चलना असम्भव था। इसीलिए कहा जाता है कि उस बार सरकार जीती और कांग्रेस हारी,मुल्क हारा और लार्ड विलिंगटन ने मूँछ पर ताव दिया कि कांग्रेस को तो पस्त किया,  The congress is now finished।
    लेकिन यदि यही बात होती और मुल्क पस्त हो गया रहता,यदि लड़ाई और मर्दानगी की,हिम्मत की आग भीतर ही भीतर धक्-धक् जलती न रहती तो लार्ड विलिंगटन के ललकारने पर ही केन्द्रीय असेम्बली के चुनाव में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता क्यों मिलती? इस प्रकार सन् 1935 ई. में बड़े लाट के मुँह में कालिख क्यों पुतती? उनका हिसाब क्यों गलत साबित होता और देश का सिर खुल्लमखुल्ला एक बार फिर ऊँचा क्यों होता? एक बार फिर किसानों और दलित जनता को अपनी अपार शक्ति का अनुभव क्यों होता? इससे तो निर्विवाद सिद्ध है कि मुल्क 1930 की ही तरह 1932 में भी असल में जीता ही था,हारा न था,चाहे ऊपर से भले ही वैसा मालूम होता हो। इसीलिए फिर चुनाव में भी वह अच्छी तरह जीत गया।
    इस प्रकार हम साफ ही देखते हैं कि सन् 1921 ई. से लेकर सन् 1935 ई. तक जनता ने कई बार जम के लड़ाई लड़ी और उसने सबसे जबर्दस्त ताकत को बराबर पछाड़ा,साम्राज्यशाही का मान मर्दन किया। 1921,1930 और 1935 में तो साफ ही साफ,मगर सन् 1926 में कौंसिलों के चुनाव में तथा 1932 में भी जैसा कि बता चुके हैं। मुल्क के नेताओं ने जानबूझ के किसानों को इस जुझार में शामिल किया,उन्हें लड़ना सिखाया,और इस प्रकार उन्हें इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव कराया कि उनमें दरअसल अपार शक्ति है,बेहद ताकत है। इस शक्ति का अनुभव पीड़ित जनता करे इसकी जरूरत यद्यपि नेताओं को न थी। वे तो जनता को सिर्फ लड़ाना चाहते थे। और उसके फलस्वरूप सरकार को दबा के अपना मुतालबा पूरा करना चाहते थे। मगर जब उसने सरकार को पछाड़ा,सो भी बार-बार तो उसे अपनी अपार ताकत का,अपने भीम बल का साक्षात्कार और अहसास होना अनिवार्य था। यदि नेता लोग इसे रोकना भी चाहते,तो विवश थे। उनकी ताकत के बाहर की यह बात थी। बेशक,जनता के इस प्रत्यक्ष अनुभव के परिणामों पर आज नेता लोग पश्चात्ताप कर रहे हैं। मगर उस समय तो उनकी मजबूरी थी।
    यहाँ एक बात और जान लेने की है कि इस दरम्यान मजदूर लोग संगठित रूप से इस लड़ाई में कभी नहीं पड़े। वह तो अलग ही रहे। उनके नेता उन्हें अलग ही रखना चाहते थे। यह युग तो केवल किसानों के ही लड़ने का था। इसमें वही सामूहिक रूप से पड़े। यहाँ तक कि करबन्दी का आन्दोलन भी उनमें अनेक स्थलों पर चला। इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि सामूहिक रूप से कारखाने के मजदूरों ने जम के कभी भी जम के लड़ाई में भाग लिया। असल में उनका संगठन पहले से ही था और उनके नेता इन लड़ाइयों में कोई लाभ नहीं देखते। इसीलिए इन लड़ाइयों का मजदूरों के संगठन पर कोई खास असर नहीं हुआ। इन लड़ाइयों ने उनके सम्‍बन्‍ध में कोई ऐसी घटनाओं या घटनाचक्र का काम नहीं किया जिसका उल्लेख किया जाए। मगर किसान जनता तो इनसे आमूल हिल गई,डोल गई। उसमें बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया। यह पहला ही मौका हमारे मुल्क में था।
    22.1.41। अब आइए जरा इस पूर्व लिखित वर्णन से किसान आन्दोलन तथा किसान सभा की प्रगति का,उसके विकास का मिलान करें और देखें कि बात क्या है? यह तो मानी हुई बात है कि यदि जालिम पर कोई रोक-टोक न हो,उसका सामना करनेवाला कोई न हो तो वह खामख्वाह ही खुल के खेलता है। तब तो उसके जुल्मों की कोई सीमा नहीं रह जाती। जब पीड़ित लोग,मजलूम लोग हिम्मत ही नहीं रखते कि जरा डट के जालिम से,अत्याचारी से बातें भी करें तो नतीजा दूसरा हो भी कैसे सकता है? यह भी मान ही चुके हैं कि सन् 1921 ई. के असहयोग संग्राम के पूर्व किसान बुरी तरह त्रस्त एवं पस्त थे। वे अपने को इस कदर गिरे हुए तथा अशक्त मानते थे कि आश्चर्य होता था। मैंने खुद ही एक स्थान पर बताया है कि जमींदार के एक ही मनचले अमले के सामने सारे के सारे गाँव में भगदड़ मच जाती थी। किसान तो यह समझे बैठे थे कि जमींदार और उसके अमले जो भी जुल्म चाहें कर सकते हैं और उनकी खबर लेने वाला कोई भी नहीं। वे कानून-वानून क्या जानने गए? वह तो मानते थे कि जमींदारों एवं उनके गुंडों की मर्जी ही कानून है। वह यह भी समझते थे कि पुलिस और सरकार भी उन्हीं की मदद करेगी,करती है। किसानों की सुध लेना उसका काम नहीं है। उनकी यह भी जबर्दस्त धारणा थी कि जमींदारों की इस अन्धेर का मुकाबला करने का उन्हें कोई भी हक नहीं है। उनका तो एक ही काम है या तो रोना-गिड़गिड़ाना या चुपचाप बर्दाश्त कर लेना।
    मगर जब असहयोग युग में उनने सरकार तक को अँगूठा दिखा दिया? जब उनने नेताओं के कहने से ही साम्राज्यशाही की,उस पुराने शेर की भी परवाह न की,यहाँ तक कि उसका पंजा तोड़ दिया,उसका नाखून उखाड़ दिया,और उसे धड़ाम से दे मारा,तो यह स्वाभाविक ही था कि उन्हें अपने अपार बल का प्रत्यक्ष भान हो। तब तो आज तक साफ ही दीखने वाले पंगु के पाँवों में अपार बल का आना स्वाभाविक ही था। तब तो सदियों का मरीज एवं युग-युगान्तर का रोगी अपने को खामख्वाही गामा से,भीम तथा अर्जुन से भी मजबूत मानने को मजबूर हुआ। जब नेताओं ने दुबले और कमजोरों को अखाड़े में लड़ा-लड़ा के कुश्ती की कला सिखलाई और बड़े से बड़े पहलवान को भी इन्हीं तथाकथित कमजोरों के द्वारा पछाड़ पर पछाड़ खिलवाई तो यह कुदरती बात थी कि वे ताल ठोंकने लगें,खुद ही खम ठोंक के खड़े हो जाएँ और सताने वालों को ललकारें।
    असल में आजादी की लड़ाई में बार-बार भिड़ने तथा भयंकर शत्रु को रह-रह के पछाड़ने के बाद किसानों के दिलों में स्वाभवत: यह बात पैदा हुई,यह खयाल आया कि ऐं ये जमींदार और उनके अमले हमें सताते हैं। हमने तो इनके दादा गुरु को कस के पछाड़ा है। हमने तो केसरी की दहाड़ बन्द कर दी है। हमने तो मृगपति को,सिंह को नथिया पहना दी ही है,सो भी उसी की ठेठ माँद में ही। और ये तो उसके सामने चूहे,बिल्ली के बराबर भी नहीं हैं। पिल्लू के समान भी नहीं हैं। फिर भी ये बराबर ही हमें सताए चले जा रहे हैं। देखो तो इनकी हिम्मत। बताओ तो भला इनकी गुस्ताखी। इनकी पुरानी हेकड़ी अब भी बन्द नहीं होती। फिर आवाज आई कि है कोई,जो इन्हें तमाचे लगाए? इन्हें मसल देने वाला यहाँ है कोई? जरा इन्हें मजा तो चखाए इस शैतानियत का।
    बस,इस स्वाभाविक उद्गार का,इसी कुदरती खयाल का,इसी आवाज का प्रकट रूप है यह किसान सभा,यह किसान संगठन। जब पूर्वोक्त प्रकार से इसका सारा सामान किसानों के दिल दिमाग में पैदा हो गया तो कुछ लोगों ने जिन्हें इनकी परख थी,जिनकी ऑंखें तेज थीं,जो पहले ही इसे ताड़ गए,किसान सभा के रूप में इसे प्रगट कर दिया। हम देखते हैं कि असहयोग युग के बाद ही धीरे-धीरे किसान आन्दोलन दृढ़ और विकट होने लगा। इसके बाद ही क्रमश: इसे संगठित रूप मिलने लगा। यहाँ तक कि संयुक्त प्रान्त में तो 1932 वाली सत्याग्रह की लड़ाई ही किसानों के ही प्रश्न को लेकर छिड़ी। भारत के प्राय: सभी प्रान्तों में आगे-पीछे जहाँ कांग्रेस जोर पकड़ने लगा। यह भी ठीक है कि जहाँ किसान संगठन की लड़ाई तेज रही वहीं-वहीं किसान संगठन भी चले और धीरे-धीरे तेज बने। युक्त प्रान्त,बिहार,आन्ध्र आदि प्रान्तों के संगठन ही इस बात के सबूत हैं। गुजरात में तो खुद सरदार वल्लभ भाई ने ही उसका नेतृत्व किया। हालाँकि पीछे उसको दूसरा रूप देकर अब उसके विरोधी वे स्वयं बन गए। मगर अब तो असली किसान सभा ही वहाँ काफी मजबूत हो चुकी है।
    यह भी स्पष्ट देखा गया है कि ज्यों-ज्यों किसानों को रह-रह के सरकार तथा उसके सहायकों के खिलाफ युद्ध करना पड़ा है और उसमें विजय मिलती गई है त्यों-त्यों किसान सभा एवं किसान आन्दोलन को व्यापक तथा संगठित रूप मिलता गया है,त्यों-त्यों किसान सभा मजबूत होती गई है,होती जा रही है। जैसे-जैसे किसानों को अपनी अपरिमेय शक्ति का भान होता गया है,तैसे-तैसे उसका प्रतिबिम्ब,उसका अक्स किसान संगठन पर तेजी के साथ पड़ता गया है। जब सन् 1934-35 तक कई लड़ाइयों में भाग लेने के बाद किसानों ने अपने को काफी बलशाली समझ लिया तो किसान सभा की जड़ भी बखूबी जम गई। उसके बाद ही तो हमारी सभा में तेजी और मजबूती आई है। हम कहें तो कह सकते हैं कि तभी से दरअसल किसान सभा एक प्रभावशाली संस्था बनी है और तभी से किसानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा यह कर सकी है। इसके विरोध का श्रीगणेश भी तभी से शुरू हुआ है,यह भी एक विचित्र बात है।
    इससे स्पष्ट हो गया कि किसान सभा उन कारणों के करते आई है जिन पर किसी का वश न था। जिन्हें हम ऐतिहासिक कारण या ऐतिहासिक आवश्यकताओं Historic reasons,forces and necessities कह सकते हैं,कहते हैं। यही कारण  इसकी बुनियाद हैं,इसकी जड़ हैं। किसान सभा के यही बुनियादी कारण (Fundamental reasons) हैं। और अगर अब इसका विरोध किया जाता है,अगर उसके विरोध की कोशिश होती है तो बेकार है। भूल,भारी भूल तो तब की हुई जब कि गर्ज के बाबले नेताओं ने अपने ही मतलब से मजबूरन किसानों को राजनीतिक लड़ाई में सामूहिक रूप से खींचा,सो भी बार-बार। फिर अब पछताने से क्या फायदा? अब इतने दिनों बाद यह पछताना और यह विरोध कुछ कर नहीं सकता। कहते हैं कि व्यभिचार के समय तो स्‍त्री को मजा आता है,मगर गर्भ हो जाने पर पछताती है। परन्तु इससे क्या? वह तो उसी मजा का अनिवार्य परिणाम है। बुद्धिमानी तो इस बात में है कि उस मजा में ही न पड़े। और जब एक बार पड़ी चुके तो अब परिणाम का स्वागत करने में ही बुद्धिमानी है। घबरा के गर्भपात कराने में दूसरी बलाओं के खतरे हैं। और किसान सभा का यह विरोध भी गर्भपात की कोशिश के सिवाय और कुछ नहीं है,यह याद रखना होगा।
    इस प्रकार किसान सभा का विकास प्राकृतिक ढंग से होने के कारण इसका मूलाधार दुर्भेद्य सिद्ध हो जाता है। फलत: किसानों के लिए इसे अपनाना तथा मजबूत बनाना अपनी खास बात हो जाती है। और लोगों ने तो किसानों की भावनाओं को ही 'निमित्तमात्रं भव सत्यसाचिन्' के अनुसार स्थायी तथा बाहरी रूप देने में पथदर्शन मात्र किया है। इस सभा को सर्वात्मना सुदृढ़ बनाना तो किसानों का ही काम है,उनका अपना फर्ज है,निजी कर्तव्य है,यह बात इस विश्लेषण से स्पष्ट हो जाती है।
    इसके साथ ही और भी एक महत्त्वपूर्ण बात है। यह तो निश्चित ही वर्ग संघर्ष एवं श्रेणी युद्ध का युग है। नई सभ्यता ने,रोज व्यापार के नए तरीकों ने,उत्पादन एवं वितरण की पूँजीवादी प्रणाली ने संसार को साफ-साफ दो टुकड़ों में बाँट दिया है। वे दो टुकड़े,दो दल हैं शोषकों और शोषितों के। शोषकों के संगठन तो बहुत पहले से चले आ रहे हैं। उनने संगठन के ही बल पर तो अपना अक्षुण्ण आधिपत्य अब तक संसार में स्थापित कर रखा है। अभी तो बड़ी दिक्कत के बाद रूस में तथा चीन के कुछी भाग में उनका आधिपत्य मिटा है। फिर भी यत्नशील हैं कि वहाँ भी पुनरपि स्थापित हो जाएँ। लेकिन बाकी जगह तो है ही। उनने इस संगठन के मामले में काफी विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है। उनका दुर्भेद्य संगठन जाल सर्वत्र बिछा है। उसकी अनेक तहें हैं। उसके अनेक सिलसिले एके बाद दीगरे हैं। उनने इस संगठन की अनेक कतारें खड़ी कर डाली हैं।
    उनकी इस करनी का,इस संगठन कौशल का उत्तर शोषित एवं पीड़ित लोग,जिनमें किसानों की संख्या बहुत ज्यादा है,हर्गिज दे नहीं सकते,यदि वे लोग वैसा ही,बल्कि उससे कहीं बढ़ के संगठन कौशल प्राप्त न करें। जब तक अपने संगठन के महत्त्व तथा उसकी बारीकियों को ये लोग अच्छी तरह जान कर तदनुसार ही अमल करने में लग नहीं जाते तब तक इनका निस्तार नहीं,तब तक वर्ग संघर्ष एवं श्रेणी युद्ध में ये लोग सदा ही पराजित ही होते रहेंगे,नीचे ही दबते जाएँगे। फिर तो यह वर्ग संघर्ष पूँजीवादियों मालदारों के ही पक्ष में होगा। शोषितों की जो अपार संख्या है,उनका जो अपार संख्या बल है उसका उचित उपयोग भी आखिर सुदृढ़,संगठन के अलावे और किस प्रकार हो सकता है,जिससे उनके मानवोचित हक उन्हें निर्बाध रूप से सदा के लिए प्राप्त हों और भविष्य में कभी छीने न जा सकें? हमने तो असहयोग एवं सत्याग्रह के युग में देखा ही है कि निहत्थी जनता भी एकमात्र सुन्दर तथा सुदृढ़ संगठन के बल पर ही बड़ी से बड़ी,जबर्दस्त से जबर्दस्त साम्राज्यशाही को पानी पिला-पिला के मार सकती और नाकों दम कर सकती है। फिर वही पाठ किसान अपने अलग संगठन के सम्बन्ध में भी क्यों न पढ़ें? आखिर उन्हें तो विदेशी तथा स्वदेशी,  दोनों ही शासकों एवं शोषकों से लड़के निपटना है।
    पूँजीवादियों तथा शोषकों के सुसंगठित आक्रमण ने ही तो शोषितों की भी ऑंखें खोली हैं और वे भी संगठित होने लगे हैं। जब शोषकों ने आपस में गुटबन्दी करके किसानों तथा मजदूरों की माँगों का विरोध किया और उन्हें दबाना चाहा,तो ये भी आपस में मिलने को मजबूर हुए। यह पाठ उनने शत्रुओं से ही सीखा। फलत: स्थान-स्थान पर इन्हें सफलता भी मिली,जबकि पहले सर्वत्र विफलता ही विफलता थी। क्योंकि आपस में ही तो एका न था,  फूट थी। इसलिए उनके दिलों में संगठन और एका के लिए चसक पैदा हो गई। अब तो वह संगठन काफी मजबूत हो गए हैं। किसानों की और मजदूरों की अलग-अलग सभाएँ दुनिया के सभी मुल्कों में पाई जाती हैं। निम्न-मध्‍यम वर्ग की भी अपनी सभाएँ हैं। यह भी प्रबन्‍ध किया गया है कि ये सभी सभाएँ आपस में मिलकर अपनी सम्मिलित माँगें,अपने मजमूई मुतालबे पेश करते रहें,और इस प्रकार सभी पीड़ितों को मिलकर कुछ प्रमुख अधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ने का पाठ अमली और दिमागी,  दोनों ही,  तौर पर पढ़ाते रहें। भारत में भी मजदूर संगठन तो बहुत पहले से है।
    ऐसी दशा में क्या यहाँ के अस्सी प्रतिशत किसान ही बिखरी दशा में पड़े रहें? क्या दुनिया की इस हवा का,संसार व्यापी इस महान हलचल का उन पर ही कोई असर नहीं होना चाहिए? क्या यह कथमपि संभव है? क्या यह बुद्धि में समाने लायक बात है? क्या इस महान तूफान में बलात् खिंच जाने से बच सकना किसानों के लिए संभव है? यह तो इस जमाने का,इस युग का प्रचंड प्रवाह है जिसके भीषण वेग को कोई ताकत रोक सकती नहीं। यह तो समुद्र की भीषण लहर है जो थम सकने वाली नहीं। ऐसी हालत में किसान संगठन को हमारे देश में विफल बनाने की कोशिश क्या बुढ़िया की झाड़ से समुद्र की भीषण लहर को रोकने की कोशिश के अलावे कोई और भी चीज है? क्या यह मुमकिन है कि भारत का समुद्र और उसकी उत्तुंग पर्वतमाला इस तूफान को यहाँ आने से कथमपि रोक देगी,जब कि पास-पड़ोस के रूस और चीन देशों में ही यह किसान अपना सानी नहीं रखता? आज जब रेल,जहाज,बेतार के तार और रेडियो के द्वारा संसार के एक कोने में बैठ के दूसरे कोने से बातें कर सकते और सुन सकते हैं,तब किसानों से यह उम्मीद करना कि वह संसार व्यापी किसान संगठन से अलग रहेंगे,निरी नादानी तथा दिमाग का कोरा दिवालियापन है।
    भारत के दरवाजे पर खटखटाने वाले इस संगठन-तूफान ने,इस बवण्डर ने,इस भूकम्प ने ही बलात् इस चक्र में किसानों को खींचा है,यहाँ तक कि जो आज इस संगठन को फूटी ऑंखों भी देख नहीं सकते,उन तक को पहले खींच लिया। फलत: शुरू में उनने भी किसान सभा की बात उठाई और इसमें काफी मदद की। हमारी किसान सभा का इतिहास ही इस बात का साक्षी है। वे लोग अनजान में ही इधर खिंच गए। आखिर वह जादू ही क्या जो सर पर चढ़ के न बोले? वह ऑंधी ही क्या जो बड़े बड़ों तक को भी न हिला-डुला दे? फिर किसान इससे कैसे बचे रहते? कैसे इससे अछूते रहते? क्यों कर इस भँवर में न पड़ते? यह तो अनहोनी बात हो जाती।
    किसानों के लिए अपनी सभा की बड़ी जरूरत इसलिए भी है कि भोलेभाले होने के कारण स्वराज्य,आजादी,अधिकार आदि के नाम पर स्वार्थी एवं मालदारों के दलाल,नेता नामधारी उन्हें बराबर ही ऊल-जलूल बातें समझाते रहतें और इस तरह हमेशा ही गुड़ गोबर करते रहते हैं। उनका दिमाग कभी साफ होने ही नहीं पाता। वे सदा इस गोलमटोल बात की भूलभुलैया में पड़े रहते हैं। वह यह समझी नहीं सकते कि शोषकों तथा शोषितों का स्वराज्य कभी एक हो नहीं सकता उनके दिमाग में यह बात साफ-साफ आने ही नहीं दी जाती कि दोनों के रास्ते दो,अधिकार दो,तरीके दो और काम दो हैं। वे यह जान ही नहीं सकते कि दोनों के स्वार्थ ऐसे परस्पर विरोधी हैं जैसे उत्तर और दक्षिण ध्रुव। उनका मेल कभी होई नहीं सकता। किसान सभा इसी कमी को पूरा करती है। उसका काम ही है कि किसानों के सामने स्वराज्य आदि का पूर्ण विश्लेषण करके उनका सच्चा चित्र रख दे। क्या यह काम कोई और संस्था करेगी? कर सकती है?
    23.1.41। जब किसी के चेहरे पर मनहूसी हो,मैल हो या दूसरी चीज तो आईने में चेहरे को देख के उसका निश्चय करना पड़ता है। उसके दूर करने की कोशिश भी की जाती है उस निश्चय के बाद ही। और यदि आईने को सामने न रख के उसे हटाने की कोशिश करें तो उसमें पूर्ण सफलता न मिलना शायद ही सम्भव हो। किसान सभा के बारे में भी यही बात लागू होती है। किसान की तकलीफों का कारण उसकी तकदीर है,भगवान का उससे ऊपर रंज होना ही है,वह इस जन्म में कुछ कर सकता नहीं,आदि बातें ही उसके चेहरे की मनहूसी हैं और किसान सभा के आईने में इन्हें ठीक-ठीक देख सकता है। शोषक लोग झूठी-मूठी बातें करके उसे आसानी से फुसला दे सकते हैं,फुसला देते हैं। फलत: वह विश्वास करके सन्तोष कर लेता है। इस बात की कसौटी किसान सभा ही है जहाँ इस फुसलाहट का असली भंडाफोड़ होता रहता है। वह सभा वह आईना है जिसमें इन सबों की असलियत वह देख सकता है। कहते हैं कि नारद का मुख बन्दर का-सा बन गया था। फिर भी वे फूले डूले बैठे थे। पास में देखने के लिए कोई शीशा था जो नहीं। जब शीशे में देखा तो ठंडे पड़े और ऐसा करने वाले पर उनके क्रोध की सीमा न रही। किसान भी जब तक किसान सभा के आईने में अपनी-अपनी स्थिति की असलियत न देखे फूला फिरता है,शोषकों के दलालों के मायाजाल के करते। मगर ज्यों ही सभा में पहुँचा कि उसकी उमंग खत्म। फिर तो शोषकों और उनके दलालों पर आग बबूला होई जाता है।
    कहते हैं कि खाट बुनने वाले केवल एक ही ओर बुनते हैं। मगर उसके ही फलस्वरूप दूसरी ओर वह खुद ही बुनी चली जाती है। कहते हैं क्या,इसे तो सभी ने देखा होगा जिन्हें कुछ भी घर गिरस्ती का अनुभव है। ठीक वही दशा किसान संगठन की है। किसानों की श्रेणी के पूर्ण-शत्रु जमींदार लोग जब एक ओर अपने संगठन का विस्तृत जाल फैलाते जाते हैं,तो दूसरी ओर उसी हिसाब से किसानों में वैसा ही संगठन जाल अपने आप फैलता जाएगा ही। उसे कोई रोक नहीं सकता। आखिर इस जमाने में हजार करने पर भी किसानों को सामयिक साहित्य,समाचार पत्र और नोटिस,पैम्फलेट आदि पढ़ने एवं सभा-सोसाइटियों में जाने से रोक सकना असम्भव नहीं तो और क्या है? और जब किसानों सबकुछ पढ़ सकते तथा लेक्चर सुन सकते हैं,तो फिर उनसे यह उम्मीद करना कि वे अपने संगठन में न पड़ेंगे निरी नादानी नहीं तो दूसरा हई क्या? आखिर उनके दिल-दिमाग पत्थर के तो हैं नहीं। अपार कष्ट भी उन्हें हई। फिर प्रभावित क्यों न हों? फिर दवा स्वरूप अपना सुदृढ़ संगठन क्यों न बनाएँ? तो क्या यह माना जाए कि सामयिक साहित्य आदि में इस संगठन की चर्चा रहती ही नहीं और न सभाओं में ही इसका जिक्र आता है? यह तो कहना ऐसा ही है जैसा ठेठ दोपहरी को अन्‍धेरी रात बताना।
    जो लोग राष्ट्रीयता के नाम पर किसानों का सुदृढ़ संगठन रोकना चाहते हैं,उनका मतलब तो स्पष्ट ही है। एक तरफ तो किसानों को कांग्रेस जैसी संस्थाओं में वे खामख्वाह बुलाते हैं। उनके बिना उनका काम जो नहीं चलता। लेकिन साथ ही उन्हें यह खतरा बराबर बना रहता है कि कहीं इन संस्थाओं पर किसान लोग कब्जा ही न जमा लें। यदि वे अच्छी तरह संगठित हों,यदि उनकी ऑंखें बखूबी खुली हों,यदि वे इसका रहस्य अच्छी तरह समझते हों तो यह बात कठिन नहीं है। इसीलिए उसके साथ ही एक ओर तो वे इस बात की कोशिश करते रहते हैं कि किसान कब्जा करने का महत्त्व कतई समझ पाएँ नहीं। उनकी ऑंखें बराबर बन्द रहें। लेकिन यदि कोई बाहरी आदमी ऑंखें खोल दे और उन्हें समझा-बुझा करके ठीक कर दे तो? तब तो गजब हो जाएगा। इसलिए हजरत दिन-रात यही माला जपते रहते हैं,यही महामन्‍त्र किसानों को सुनाते रहते हैं कि किसान संगठन ठीक नहीं। तब तो स्वराज्य ही नहीं मिलेगा,वह तो स्वराज्य मिलने के बाद ही होना चाहिए। चीज मिली ही नहीं तब तक बँटवारे की यह तैयारी कैसी,आदि-आदि।
    इससे उनका मतलब कुछ न कुछ होई जाता है। कुछ बाधा तो खामख्वाह पहुँची जाती है। पीड़ितों और शोषितों का तो एक ही बल है कि सम्मिलित रूप से अपना दावा (Collective bargaining) पेश करें। उनके उद्धार का,उनके प्रति न्याय का कोई और रास्ता है नहीं। और जमींदारों के दलाल किसानों का यही रास्ता बन्द कर देना चाहते हैं। कल्पना कीजिए कि किसी संस्था में नब्बे फीसदी सदस्य किसान ही हैं। मगर वे आए हैं व्यक्तिगत रूप से ही अलग-अलग। फलत: एक दूसरे को ठीक-ठीक जानते ही नहीं,समझते ही नहीं। वे यह बात नहीं जानते कि हम सबों का एक ही स्वार्थ है और उसकी प्राप्ति का रास्ता भी यही है कि सम्मिलित आवाज उठाएँ। नतीजा क्या होगा? यही न कि एके बाद दीगरे सभी हार जाएँगे और उनका अपार बहुमत बेकार ही सिद्ध होगा। इसीलिए तो व्यक्तिगत रूप से लाए गए थे ताकि एक का दूसरे के साथ कोई पक्का संसर्ग होने न पाए,ताकि वे अपने मिलने के रहस्य को,उसकी शक्ति को समझी न सकें। मगर यदि वे संगठित रूप से आते तो? यदि किसान सभा की ओर से आते तो? सभा की तरफ से न भी आकर यदि सभा में रहने और संगठन का महत्त्व समझने के बाद आते तो? तब तो हवा ही पलट जाती। तब तो बात ही दूसरी हो जाती। तब तो उनका बहुमत अपना काम करी डालता।
    सभा की तरफ से कांग्रेस या राष्ट्रीय संगठन में आने में दो बातें और भी हो सकती हैं। पहली तो यह कि कांग्रेस में किसानों का,किसान सदस्यों का,बहुमत न भी रहे तो भी,उनकी माँगों,उनके दावों को इनकार करना प्राय: असम्भव हो जाएगा। क्योंकि उनके पीछे जबर्दस्त किसान सभा की ताकत रहेगी,जो विरोधियों के दिल दिमाग पर पहाड़ की तरह खड़ी नजर आएगी। उन्हें कांग्रेस के भीतर का बहुमत नहीं,किन्तु उसके बाहर किसान सभा का बहुमत रह-रह के नजर आएगा। और उनके दिमाग को दुरुस्त करेगा,उसके लिए दवा का काम करेगा। वे उन माँगों और मुतालबों को ठुकराने के पहले लाख बार सोचेंगे। उनकी हिम्मत ही न होगी कि ठुकराएँ। क्योंकि उस हालत में उन्हें अपना खात्मा ही दीखेगा।
    लेकिन संगठित किसान सभा से उनका भी फायदा होगा। जिस बात में उनका तथा किसान सभा का एक मत होगा,दोनों की एक राय होगी,उसमें न केवल कांग्रेस की ही ताकत काम करेगी। प्रत्युत किसान सभा की पूरी ताकत उसके साथ होने के कारण आजादी के दुश्मनों की रूह काँपेगी। वे समझेंगे और घबराएँगे कि बाबा,सँभल के चलो 'सँभल-सँभल पग धरिये'। क्योंकि चारों तरफ जिसके संगठन का जाल बिछा हुआ है वही किसान सभा इस मामले में कांग्रेस का साथ दे रही है। इसलिए नाहीं-नुकर करने में खैरियत नहीं है । तो क्या यह मामूली फायदा है? क्या उसकी जरूरत कांग्रेस को नहीं है? और अगर यही बात है,तब तो दाल में काला जरूर है। तब तो,मालूम होता है,विदेशियों से भीतर ही भीतर सट्टा-पट्टे की बात चल रही है। उनसे खुल के लड़ने का सवाल नहीं है। लड़ने की बात तो ऊपरी और धोखे की टट्टी ही मालूम पड़ती है। ऐसी दशा में तो किसान सभा का शानदार संगठन और भी जरूरी हो जाता है। ताकि उसी के करते यह खतरनाक सट्टा-पट्टा और सुलह-सपाटा होने ही न पाए। क्योंकि उस हालत में सुलह-सपाटे के करनेवाले यार लोग डरेंगे कि कहीं सुसंगठित किसान हमें और विदेशियों को,  दोनों को ही,  एक ही साथ उठा न फेंकें। इसीलिए तो किसानों का अलग संगठन होने देना चाहते ही नहीं। तब तो दुश्मनों से,  विदेशी शासकों से,  समझौते की गुंजाइश रही न जाएगी।
    जब सभी उपायों से ये लोग हार जाते हैं तब तो और भी गजब करते हैं। समझते हैं कि उनकी टिक्की तो लगनेवाली नहीं। वे तो गए बीते हई। लेकिन किसान भी कुछ कर न सकें तो सन्तोष तो हो कि चलो,दोनों बराबर तो रहे। कोई विजयी तो नहीं हुआ। इसलिए तरह-तरह के जाल रचे जाते हैं। रुपए-पैसे भी खूब ही खर्चे जाते हैं और इस प्रकार सीधे-सादे किसानों एवं किसान कार्यकर्ताओं को फोड़-फाड़ के इस काम से विमुख किया जाता है। और नहीं हुआ तो किसान सभा के नेताओं एवं प्रमुख कर्मियों की भी हजारों झूठी शिकायतें की जाती हैं। जाने कौन-कौन से षडयंत्र रचे जाते हैं। ताकि किसी भी प्रकार कुछ भी लोग तो फँसें। यदि ऐसा हुआ तो पीछे उन्हीं की देखा-देखी दूसरे भी जरूर फँसेंगे और इस प्रकार मतलब सधा जाएगा। नहीं तो जोई राम सोई राम। कुछ लोग ही सही। यदि थोड़े भी हटे,तो काम में बाधा तो पड़ी ही,संगठन में ढीलापन तो आया ही। इस प्रकार खुद भी खत्म होते और किसानों को भी चौपट करते हैं।
    एक कहानी याद आती है। एक पंडित जी बहुत ही भोले-भाले थे। बरसात का समय था। सभी किसान धान की खेती की तैयारी में लगे थे। पंडित जी उसी फिक्र में कहीं से आ रहे थे कि मैदान में पड़ी एक खोपड़ी हँस पड़ी। वे रुके और देखने लगे कि यह क्या दैवी बात? इतने में खोपड़ी बोली कि महाराज,क्या कहें,किसान नादान हैं। उन्हें पता ही नहीं कि इस साल ऐसा दैवी प्रकोप होगा कि अन्त में सभी धान मारा जाएगा। इसी नादानी पर मुझे हँसी आ गई। पंडित जी ने विश्वासपूर्वक पूछा कि ऐसा होगा? उसने उत्तर दिया कि जी हाँ,ऐसा ही होके रहेगा,यकीन कीजिए। फिर वहाँ से चले गए और घर पहुँच के उस साल खेतीबारी बन्द कर दी। दिन बीतते जाते थे। मगर घरवाले और बाहर के लोग भी उन्हें कुछ भी करते न देख अचम्भे में थे कि पंडितजी को क्या हो गया है कि कुछ करी नहीं रहे हैं। मगर वे कुछ न कह के यों ही टाल देते कि देखा जाएगा? इस साल कुछ ऐसा ही मन है। भीतर ही भीतर तो खुश थे कि परिश्रम,बीज,मजदूरी आदि तो हमने बचा ली। बाकी लोग तो गए।
    इस प्रकार समय बीतता गया और किसानों की खेती का काम बखूबी चलता रहा। संयोग से उस साल सब लोगों ने बहुत ज्यादा खेती की। वृष्टि वगैरह भी समय-समय पर ठीक ही हुई। फसल भी अच्छी दिखी। किसानों के कलेजे बाँसों उछल रहे थे सुन्दर फसल को देख के। उधर पंडित जी भीतर ही भीतर इनकी नादानी पर हँसते थे और समझते थे कि दैवी घटना हुई है,खोपड़ी बोली है। इसलिए अन्ततोगत्वा सारी फसल दैवी कोप से चाहे जैसे हो मटियामेट होई जाएगी। खोपड़ी की बात झूठ कैसे होगी। मगर बात उलटी ही हुई। फसल अच्छी पकी। तैयार हुई। खलिहान में आ गई। अब पंडित जी को कुछ घबराहट हुई कि माजरा क्या है? फसल का तो कुछ हुआ ही नहीं। फिर संतोष किया कि शायद खलिहानों में ही कुछ हो,वज्र पड़े,आग लगे और सबकुछ खत्म हो जाए। खोपड़ी की बात जो ठहरी। मगर ऐसा कुछ न हुआ और खुशी-खुशी सभी अन्न किसानों के घर पहुँच गया। वे खाने पीने भी लगे। कोई खटका ही न रहा।
    अब तो यदि चीरो तो पंडित जी के शरीर में खून नहीं। खासे उल्लू बने। इसलिए मारे क्रोध के डंडा लेके खोपड़ी के पास पहुँचे। क्रोध से काँपते हुए बोले कि तूने मुझे नाहक ही धोखा क्यों दिया? फसल तो बहुत ही उतरी। अब मेरे बाल-बच्चे भूखों मरेंगे। इसलिए आज ही इसी डंडे से तुझे चूर-चूर कर डालूँगा। खोपड़ी ने फिर हँस के कहा कि अपनी बेवकूफी के करते मेरे ऊपर बेकार गुस्सा हो रहे हैं। मैंने वैसा कहा था सही। मगर दुनिया में बातें तो सभी लोग करते हैं। तो क्या सबों पर आप विश्वास कर लेते हैं? यदि नहीं,तो मेरी बातों पर ही आपको यकीन क्यों हो गया? मुझे आप पहले से जानते थे क्या? यदि नहीं,तो अक्ल का तकाजा था कि कम से कम पूछ तो लेते कि आखिर मैं हूँ किसकी खोपड़ी। आपने खुद तो गलती की। बिना जाने बूझे ही मेरी बातों में पड़ गए। अब मेरे ऊपर क्रोध कर रहे हैं। महाराज मैं ऐसे आदमी की खोपड़ी हूँ,जिसने अपनी जिन्दगी में हजारों घर उजाड़ डाले थे। इसलिए मेरी तो आदत ही थी। छूटती कैसे? अतएव मैंने सोचा कि जीते जी जहाँ हजारों को खत्म किया तहाँ मरने पर एकाध ही सही। सोचा कि कोशिश करके देखूँ। 'यदि लगा तो तीर नहीं तो तुक्का' ही सही। मगर आप पंडित हो के भी अक्ल के ऐसे अन्धे निकले कि आखिर मेरी बातों में पड़ी तो गए और मेरी टिक्की लग गई। अब मुझे चूर करके क्या नीलाम का तिलाम करेंगे? इससे अब मेरा बिगड़ेगा ही क्या? बस,पंडित जी भक्कू बने और अपना-सा मुँह लेके लौट गए।
    ठीक यही हालत बगुला भगत राष्ट्रीय नेता नामधारी भी करते हैं। सोचते हैं जोई राम सोई राम। कुछ तो बाधा डालें। फलत: छर्वेंशधारी बन जाते हैं और किसानों के लिए उनका कलेजा फटा जाता हो ऐसी सूरत बना के कुछ को फाँस ही तो लेते हैं। फँसते भी हैं उन्हीं पंडित जी की तरह बुद्धि की बदहजमी वाले,जिन्हें राष्ट्रवादी बनने का कुछ खयाल है। जो किसान या किसान सेवक बिलकुल ही भोला-भाला है,जो राष्ट्रवाट्र की बात नहीं जानता। वह तो उनके जाल में फँसता नहीं। जो खूब समझदार है वह भी चकमे में नहीं आता। मगर बिचबिचवा लोग जो अक्ल की डींग मारते,मगर दरअसल बात समझते नहीं,इस फेर में पड़के किसान सभा के विरोधी या कम से कम उससे उदासीन बन जाते हैं।
    वह समझते हैं ये राष्ट्रवादी सज्जन भला हमें धोखा क्यों देंगे? जेल गए,जुर्माने दिए,जाने कौन-कौन दु:ख भोगे। आखिर किसके लिए? देश के ही लिए तो? हमारे ही लिए तो? फिर हमीं को गलत रास्ते पर भला कैसे ले जाएँगे? यही दलीलें घपले में डाल देती हैं। दलीलें करनेवाले भूल जाते हैं कि उन लोगों का जेल जाना,जुर्माने देना वगैरह औरों के लिए न होके अपने ही लिए है। आखिर बगुला भी तो जाड़े में सारे दिन पानी में ही खड़ा-खड़ा कष्ट भोगता है,गोया जलशयन करनेवाला कोई प्राचीन तपस्वी हो। मगर उसकी तपस्या की बात तो मछलियाँ ही बता सकती हैं जिनके परिवार पर उसके हमले रह-रह के होते ही रहते हैं। दूसरों को क्या मालूम? ठीक उसी प्रकार इन बगुला भगतों के पास-पड़ोस में जो निरन्तर रहते हैं,जो चौबीसों घंटे पुश्त दर पुश्त से उनकी करनी को ऑंखों देखते आते हैं,जो उनकी चालों के शिकार होते रहते हैं वही बता सकते हैं कि इनकी यह देशभक्ति कितनी गहरी है,इनका जेल जाना आदि अपने ही लिए है या गैरों के लिए है। जो लोग इनसे दूर रहते हैं और जिनकी मुलाकात कभी-कभी छठे-छमास,सभा-सोसाइटी,मीटिंग आदि में ही हो जाती है,या जो ज्यादातर भी मिलते हैं तो ऐसे ही मौकों पर,वे उन्हें क्या समझने गए? वे इन्हें समझ भी कैसे सकते हैं? रामचन्द्र ने भी तो पंपासर के बगुले को यों ही देख के भक्त मान लिया था। मगर मछली से न रहा गया,जो उसी तालाब में रहती थी और जिसके परिवार पर खुद बीती थी। अत: उसने रामचन्द्र का भ्रम दूर किया। इस बात को संस्कृत के कवि ने यों दिखलाया है,  
पश्य लक्ष्मण पम्पायां बक: परमधार्मिक:।
शनै: शनै: पदं धात्तो जीवानां वधा शंकया॥
बक: किं वर्ण्यते राग येनाहं निष्कुलीकृत:।
सहचारी विजानाति चरित्रां सहचारिणाम्॥
    यह जेल जाना भी क्या खूब ही सस्ता सर्टिफिकेट है? देशभक्ति तथा जनता की सेवा का बहुत ही बढ़िया तमगा है। भोले-भाले लोगों को यह नहीं सूझता कि पुश्त दर पुश्त से,  सहस्रों वर्षों से लगातार किसानों की कमाई का घी,दूध,गेहूँ,बासमती,मलाई खा के भी यदि किसानों के प्रति भक्ति न हुई,उन्हीं किसानों के प्रति जिनने अपने तथा अपने बाल-बच्चों के मुँह को सी कर और अपने कलेजे पर पत्थर रख के ये चीजें इन्हें एवं इनके बाप-दादों को पहुँचाईं,पर खुद फाँके मस्त रहे। तो इस जेलयात्रा या जुर्माने से इनका दिल कैसे पसीजेगा? इससे इनके दिलों में किसानों के प्रति प्रेम का स्रोत कैसे फूट पड़ेगा? जो इतने कृतघ्न हैं,नाशुक्रे हैं,अहसानफरामोश हैं कि अपने अन्नदाता को ही भूल गए वही जेल जाने मात्र से कैसे महात्मा बन गए,यह बात दिमाग में कैसे अँटेगी और किस के? यदि भूले न रहते,तो खामख्वाह जेल-वेल जाने के पहले ही इस समाज के प्रति बागी बन गए होते,जिसने अन्नदाता को इस बेरहमी और हृदयहीनता के साथ न सिर्फ भुलाया है,बल्कि पाँव तले बुरी तरह ठुकरा रखा है। इनकी जेल-यात्रा तो जमाने का रुख देखके अपनी गिरती हुई धाक बचाने की चालमात्र है। इन्हें डर है कि किसान समय की गति के अनुसार खुद ब खुद बागी बनेंगे,जमाना उन्हें स्वयमेव क्रान्ति का पाठ पढ़ाएगा। फिर तो गेहूँ,घी,मलाई वगैरह गायब ही समझिये। इसलिए जमाने के अनुसार नई चाल चल के उस घी,मलाई,हलवा,पूरी की रक्षा करने तथा किसानों में क्रान्ति एवं बगावत का भाव न आने देने के ही लिए इन भलेमानसों का,इन यारों का यह गहरा षडयंत्र है। जेलयात्रा क्या साबुन है कि इन पुराने पापियों के पापों को साफ कर देगा? क्या संसार में इससे पूर्व हजारों-लाखों देशभक्त कहे जाने वाले जेल में सड़ने के बाद भी जनता को ठगते नहीं रहे हैं? इतिहास तो इसी का साक्षी है कि यही ठगी,यह जाल,कभी बन्द ही न हुआ। बल्कि जेल,जलावतनी,जुर्माने आदि के शिकार जोई लोग हुए उनने ही उसी की ओट में कमानेवाली जनता को और भी कस के चूसा।
    चूसें भी क्यों नहीं? आखिर कमानेवालों को ही जब होश नहीं,तमीज नहीं,तो गैरों का तो मजा ही हुआ। आखिर रोज ही,कंठी,माला,जटा,तस्वीर पहने,चंदन भभूत रमाए लोग ठगते फिरते हैं। उनकी कलई भी खुलती ही रहती है। फिर भी होश नहीं होता इन बदबख्त किसानों को। जहीं साधु-फकीर की-सी सूरत देखी कि झुक गए। समझ लिया कि साक्षात् खुदा मियाँ ही,भगवान ही आ गए,मिल गए। अपने को निहायत तुच्छ और अकिंचन,गया-गुजरा समझने पर ऐसा ही होता है। बस ठीक उसी प्रकार नए तरह की कंठी-माला और चंदन-भभूत वालों को,  जेल जाने वालों को,  महात्मा समझ आत्मसमर्पण कर देते हैं। यह कभी नहीं सोचते,सोच ही नहीं सकते कि जेल जुर्माने आदि इस युग की नूतन कंठी,माला है नई तिलक,भभूत है। फलत: यार लोग ठगते फिरते हैं। इनका खून पीना उनके लिए सहज हो जाता है।
    इसका यह मतलब कदापि नहीं कि किसान सभा में ऐसे ठगनेवालों की गुंजाइश ही नहीं। है संभावना तो हई। ऐसे लोग तो सर्वत्र ही मौका देखते-फिरते हैं और जैसे हुआ घुस पड़ते हैं। इसलिए इनसे सजग तो सर्वत्र ही रहना होगा। फूँक-फूँक के पाँव तो सर्वत्र ही देना होगा। इसीलिए तो नेताओं से सजग रहने की बात स्थानान्तर में विस्तार के साथ कही गई है। वह सभी पर लागू है। मगर जितना खतरा इन नेताओं से और जगह है उतना किसान सभा में नहीं है,यही हमारा मतलब है। किसान सभा को तो बनाने में शुरू से ही इस बात का खूब खयाल रखा जाता है। रखा जाना चाहिए कि ऐसे महापुरुष उसमें घुसने ही न पाएँ। यदि वे घुस भी जाएँ तो उनको निकाल बाहर करना यहाँ आसान है। क्योंकि इन सभाओं पर किसानों का पूरा अधिकार रहता है,रहेगा,रहना चाहिए। नहीं तो फिर किसान सभा कैसी? मगर दूसरी संस्थाओं में यह बात नहीं हो सकती है। इसलिए खतरा वहीं ज्यादा है।
    इस प्रकार कोई शक रह जाने की गुंजाइश इस बात में रही नहीं जाती कि किसान लोग अपनी सभा को,  किसान सभा को,  अपनाएँ। लेकिन अपनाने का मतलब जो अब तक बताया गया है वह तो हई। वह तो बहुत ही आवश्यक है। उसके बिना न तो किसान ही बच सकते हैं और न किसान सभा ही। इसीलिए तो सबसे पहले उन सभी बातों का विवेचन एवं विश्लेषण साफ-साफ कर दिया गया है। ताकि इस मामले में किसान जनता का दिल और दिमाग बिलकुल ही साफ हो जाए। उन्हें इसमें जरा भी शकसुबहा या आगा-पीछा करने का मौका ही न रह जाए।
    मगर जो बुनियादी चीज किसान सभा के अपनाने के सम्‍बन्‍ध में बताना बाकी है वह है उसकी सदस्यता,  उसकी मेम्बरी। जब तक हर बालिग किसान,  स्‍त्री और पुरुष दोनों ही,  गिन-गिन के उस सभा के सदस्य बाकायदा बन नहीं जाते किसान सभा के अपनाने का वस्तुत: कुछ मतलब ही नहीं होता। डपोरशंखी मामले से तो काम चलने का नहीं। बातों से काम नहीं होगा। साधारणतया जैसे अपने घर में सभी किसान रहते और सोते बैठते हैं। नहीं तो जीवन ही भार हो जाए यदि बराबर इधर-उधर घूमना या खानाबदोशी ही करना पड़े। ठीक उसी प्रकार अपनी आर्थिक और राजनीतिक रक्षा के लिए किसान सभा को लड़ाई का गढ़ बनाना तथा उसमें हरेक किसान स्‍त्री पुरुष का मेम्बर के रूप में दाखिल हो जाना कहीं ज्यादा जरूरी है। इसके बिना सभा में शक्ति आई नहीं सकती। फिर वह उनके हकों की रक्षा कर कैसे सकती है? नित्य कर्म,पाखाना,पेशाब आदि या खाना-पीना जितना जरूरीहै उससे भी अधिक जरूरी है हरेक किसान औरत-मर्द के लिए किसान सभा का मेम्बर हो जाना।
    जो लोग कान नहीं फुँकवाते,  'गुरु मन्तर' नहीं लेते,  गुरुमुख नहीं होते उनके लिए कहा जाता है कि 'बिनु गुरु भवनिधि तरै न कोई'। इसलिए सभी स्‍त्री-पुरुष 'गुरुमुख' होना अनिवार्य कर्तव्य मानते हैं और हजार कोशिश करके गुरुमन्तर लिये बिना नहीं रह सकते । मगर 'गुरु मन्तर' के बिना जो हानि होने को है उसका तो ठीक-ठीक पता किसी को भी नहीं है। वह तो खयाली बात है। किसी ने स्वर्ग-नर्क देखा तो है नहीं। हाँ,गुरुओं को उसके बिना 'पूजा' और 'गुरु दक्षिणा' नहीं मिलेगी यह हानि जरूर है। मगर यह तो उन्हीं की है। चेलों को इससे क्या? लेकिन किसान सभा का सदस्य न बनने पर तो किसानों की हर तरह की तबाही और बरबादी,हर तरह की बेइज्जती बनी ही रहेगी। नहीं,नहीं वह तो बढ़ती ही जाएगी। यह हानि तो भयंकर है और अगर इससे बचना है तो हरेक किसान को जो बालिग हो,जिसकी आयु 18 वर्ष की या अधिक हो,अविलम्ब किसान सभा का सदस्य बन जाना ही होगा। इस काम में खासी प्रतियोगिता तथा होड़ होनी चाहिए कि कौन पहले सदस्य बनता है और कौन पीछे। स्त्रियों और पुरुषों के बीच भी गहरी प्रतियोगिता इस सम्‍बन्‍ध में जरूर होनी चाहिए। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जिस प्रकार बकाश्त संघर्ष में स्त्रियों ने आगे बढ़ के न सिर्फ पुरुषों का हाथ बँटाया है,प्रत्युत जहाँ वे ढीले थे अपने हाथों में उस संघर्ष को लेकर सफलतापूर्वक उसे चलाया तथा विजय प्राप्त की है वही बात मेम्बरी के बारे में भी होगी। किसान सभा का सदस्य बनने में भी वे अवश्य ही बाजी मार ले जाएँगी,ऐसी मेरी दृढ़ धारणा है। तभी किसानों का उद्धार हो भी सकता है।
    इस सम्‍बन्‍ध में प्रबुद्ध तथा समझदार किसानों का,किसान सेवकों का,जवान एवं उत्साही किसानों को भी कुछ करना होगा। उन्हें इस बात की प्रतिज्ञा कर लेनी होगी कि जब तक हरेक बालिग स्‍त्री-पुरुष किसान अपने इलाके में किसान सभा के सदस्य नहीं बन जाते तब तक चैन न लेंगे। किसी भी स्‍त्री-पुरुष से मुलाकात होने पर उनका पहला प्रश्न यही होना चाहिए कि आप किसान सभा के सदस्य हैं या नहीं? और यदि वे सदस्य न बने हों तो फौरन ही बना लेना होगा। एतदर्थ किसान सभा की सदस्यता की प्रामाणिक रसीद बही हरेक के पास रहना निहायत जरूरी है। स्थानीय किसान सभाओं से इसका प्रबन्‍ध कर लेना होगा। किसान सभाओं का भी यह पहला फर्ज होगा कि उत्साही किसानों तथा किसान सेवकों के पास,जो ईमानदारी तथा पूरी लगन के साथ यह काम जरूर ही करें,ऐसी रसीद-बहियाँ जरूर रहें,इसका पूरा-पूरा इन्तजाम कर दें। जब तक हर रेलवे स्टेशन,स्टीमर,घाटों,ट्रेन,कचहरी,मेला,बारात,सभा,जमाव,हाट-बाजार वगैरह में धुनी लोगों के दल पहुँच-पहुँच के यह काम न करेंगे,जब तक हर बस्ती में ऐसे लोगों के लगातार दौरे न होते रहेंगे,यह नहीं होने का,यह याद रखना होगा।
    सभी लोगों में इसकी धुन हो,इस बात की लगन हो,यही पहला काम किसान सभा के अपनाने का है। जब तक हमारे सर पर यह खब्त सवार नहीं हो जाता,जब तक हम में हरेक के मत्थे सदस्य बनने बनाने का यह पागलपन,यह भूत सवार नहीं हो जाता किसान सभा के अपनाने के कुछ मानी नहीं। जब तक मेम्बरी वाला यह पहला कदम फौरन उठा के शीघ्र से शीघ्र पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली नहीं जाती,असली किसान सभा बन नहीं सकती। तब तक आगे के कदमों का सवाल उठी नहीं सकता।

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