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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें


पाँचवाँ भाग
10
अक्ल का अजीर्ण मिटाएँ
 

कहते हैं कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत्',  कोई बात जरूरत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। ज्यादा हो जाने पर ही हर चीज बुरी हो जाती है। यह जरूरत से ज्यादा हो जाना ही,यह 'अति' ही बुराई का सबसे सुन्दर लक्षण है। नमक भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए डाला जाता है। मगर ज्यादा पड़ने पर उसे ही मिट्टी में मिला देता है। इसी प्रकार अक्ल,समझ,चालाकी भी अच्छी चीज हैं। इनके बिना आदमी पशु बन जाता है,गधा कहा जाता है। उतना बड़ा जानवर जिसे 'हाथी' कहते हैं,अक्ल के ही बिना लोगों को पीठ पर ढोता फिरता है। यदि उसे अपनी शक्ति की परख और समझ होती तो ऐसा कभी नहीं होने देता और चढ़नेवालों को पाँवों तले रौंद देता। कहते हैं,पक्षियों में कौवा बड़ा ही चालाक माना जाता है। इसीलिए विष्ठा में भी चोंच डालता है। जो लोग बहुत बुद्धिमान नहीं होते,जिन्हें अक्ल का अजीर्ण नहीं होता,उनके पाँवों में यदि कोई गन्दी-सी चीज चिपकी तो वे फौरन पाँवों को धो डालते हैं। विपरीत इसके ऐसा बताते हैं कि जो लोग ज्यादा होशियार होते हैं वे उस गन्दी चीज को उँगली से उठाकर सूँघते हैं,कि क्या चीज है? फलत: केवल पाँव की जगह पाँव,उँगली और नाक इन तीन जगहों में वह गन्दगी लगती है। इसीलिए बुद्धिमानी की बदहजमी बुरी चीज है। ज्यादा अक्लमन्द नहीं बनना चाहिए। खासकर किसानों को तो उससे ही बहुत हानि हुई और हो रही है।

     पुरानी कहावत है कि 'भोंदू भाव जाने,पेट भरे से काम'। कितना सुन्दर हो यदि कमाने वाले लोग,  किसान वगैरह,  इसी पर अमल करें और ज्यादा होशियारी न दिखाएँ। जब हम किसानों को समझाते हैं कि तुम्हीं तो गेहूँ,बासमती,घी,मलाई पैदा करते हो। तो फिर भूखों क्यों मरते हों ? उन चीजों को खाते क्यों नहीं? क्या किसी ने तुम्हारा मुँह सी दिया है? या हाथों को हथकड़ियाँ जकड़े हुई हैं? पेट भरना तो दुनिया में पहला काम है। तुम्हारा बैल पहले पेट भरता है,पीछे काम करता है,  हल और गाड़ी खींचता है। खाली पेट हो तो चारों पाँव चित हो जाता है। तुम उसे ही गुरु क्यों नहीं बना लेते? रोज गुरु बनाने और चेला बनने की पुकार गाँवों में मचती रहती है। तो क्या किसान के बैल से भी अच्छा गुरु पेट भरने की शिक्षा देने वाला कहीं मिलेगा? खेतवाले हजार चिल्लाते रहें मगर छूटा हुआ पशु दौड़ के कुछ न कुछ खा तो ही लेता है। पीछे उस पर मार भले ही पड़े। मगर पहले पेट तो भर लेता है। पेट का दु:ख तो सबसे बड़ा है। इसलिए मार की परवाह नहीं करता। उसे ही किसान अपना परम गुरु पेट भरने के मामले में क्यों नहीं बनाते? आखिर दत्तात्रेय

महाराज जो बड़े महात्मा थे। फिर भी उन्होंने पूरे चौबीस गुरु बनाए थे, जिनमें पशु, पक्षी सभी थे। जिनके ही कामों से उनने कुछ सीखा, उन्हें ही गुरु मान लिया।

    इस पर किसानों की और उनके लीडरों की भी दलीलें शुरू हो जाती हैं। वे बाल की खाल खींचने और वकालत करने लग जाते हैं कि तब तो जमीन ही नीलाम हो जाएगी, घर बार ही जब्त हो जाएगा, जेल जाने की भी नौबत आ सकती है आदि-आदि। लेकिन यह 'अक्ल की अति' नहीं, उसका अजीर्ण नहीं तो और है क्या? आखिर इन दलीलों का निचोड़ यही है न कि खा लेने के बाद पीछे आफतें आएँगी? तो क्या दूसरों के खेत चरके पेट भरने वाले पशुओं पर मार-पीट की बला नहीं आती? क्या वे खदेड़ कर काजीहौस, मवेशीखाने या अड़गड़े में डाल नहीं दिए जाते जहाँ भूखों मरते रहते हैं। क्या उन्हें इसकी समझ नहीं होती? या वे डंडे देख के भागते नहीं कि मार पड़ेगी? समझ तो उन्हें भी होती ही है। 'हित अनहित पशु पक्षिहु जाना'। पशुओं को तो अपना खूँटा, अपना घर-वगैरह इतना ज्यादा याद रहता है कि अन्‍धेरी रात में कितनी भी दूर ले जाके छोड़िए तो भी चले आते हैं। मगर क्या मार-पीट के खयाल से और अड़गड़े में डाले जाने के भय से भूखे होने पर भी वे औरों के खेत और फसलों को चर नहीं डालते? क्या ऐसा करने में वे जरा भी हिचकते हैं?

    यह भी दलील दी जाती है कि इक्के-दुक्के किसान यदि ऐसा कर भी लें तो उससे होगा ही क्या? माना कि उनने अपने गेहूँ, चावल, घी, दूध को पहले खा लिया। तो इतने से तो न तो दुनिया ही पलट जाएगी, न कानून ही बदल जाएगा और न सामूहिक रूप से उनके कष्ट ही कम हो जाएँगे, दूर हो जाएँगे। प्रत्युत जो शुरू में ऐसा करेंगे वे कानून के द्वारा तबाह बर्बाद कर दिए जाएँगे। फलत: बाकियों की हिम्मत ही टूट जाएगी। और आगे बढ़ने की आशा पर पानी ही फिर जाएगा। इसलिए जब तक सामूहिक रूप से ऐसा न किया जाए, कोई भी असर न होगा और न जमींदार वगैरह डरेंगे ही। जब सभी या ज्यादा किसान एक साथ ऐसा करने लगें तभी कुछ काम हो सकता है, तभी सरकार तथा जमींदार के घर में हड़कम्प पड़ सकती है।यह बात न सिर्फ किसान कहते हैं, बल्कि उनके नेता और कार्यकर्ता भी ऐसा ही बोलते हैं।

    मगर यह तो वही बुद्धिमानी की बदहजमी जिसे वे लोग और खासकर नेतागण मिटाना चाहते हैं ऐसी बेहूदी दलीलें देकर। अभिमान तो उन्हें बहुत बड़ा है कि खूब अक्ल और होशियारी की बातें करते हैं। मगर उन्हें पता ही नहीं कि ऐसी दलीलें पेट भरने के बाद ही सूझती हैं। पेट के बारे में इनकी गुंजाइश नहीं है। दलीलें देनेवालों के पेट खाली हों और कई दिन से उन्हें अन्न न मिला हो तो ये बातें न जाने कहाँ घुस जाती हैं, न जाने कहाँ काफूर हो जाती हैं। ये दलीलें ही साबित करती हैं कि ऐसे बकवास करनेवाले भूख की तकलीफ को, उसकी आग को जानते ही नहीं; उसका उन्हें अनुभव ही नहीं। नहीं तो मुँह खोलने की भी हिम्मत नहीं होती। कही तो चुके हैं कि जब पेट में आग लगी हो तब वे यदि ऐसी बातें बोलें तो माई के लाल ही माने जाएँगे। उन्हें होश नहीं कि आखिर गैरों के खेत को चरनेवाला पशु क्या अपना दल बना के खेत में जाता है? क्या वह पहले जंगल या गाँव के पशुओं की सभा तथा पंचायत करता है? क्या वह सबके दरवाजे-दरवाजे पहले फेरी लगाता है कि चलो सभी मिलके दल बाँध के चरने चलें, खेत खाने चलें? या कि भूखा होने पर खुद अकेला ही खेत की ओर दौड़ पड़ता है? वह तो समूह की या किसी एकाध साथी तक की परवाह नहीं करता और अकेला जा धमकता है? खेत का मालिक वहाँ चिल्लाता ही रहता है। फिर भी नहीं मानता और फुर्ती से कुछ गफ्फे तो उड़ा ही लेता है। पीछे चाहे जो हो।

    यदि वह दल बाँधने की कोशिश करता तो क्या यह बात हो सकती? एक तो दल बनना ही असम्भव। जब वह खुद डरपोक है और आगे बढ़ने की उसकी अकेले हिम्मत ही नहीं होती, वह औरों को रास्ता दिखा सकता नहीं, तो उसकी बात में कौन पशु पड़ता? कोरी बातें सुनता कौन है? और यदि सुने भी तो मानता कोई नहीं। बातों से ज्यादा तो उनके अनुसार अमल चाहिए। तभी गैरों पर असर पड़ता है। यदि वह सिर्फ बातें करने और लेक्चर देने लगे कि चलो खाएँ तो सुनने वाले कहेंगे कि यदि यह भूखा है और भूख मिटाने का यही रास्ता है तो खुद उस पर पहले चलता क्यों नहीं? भूख में लेक्चर देने की क्या बात? हो न हो, दाल में कुछ काला है।

    दूसरी बात यह है कि जब तक इधर दल बनेगा, समूह सजेगा तब तक खेत वाले सजग ही हो जाएँगे। आखिर समूह की तैयारी गुपचुप हो सकती नहीं। पका पकाया खाना तो है नहीं कि घर में बैठ के चुपके से उड़ा लेंगे। यह तो उपदेश, व्याख्यान और प्रचार की बात ठहरी। इसमें तो हंगामा और शोर जरूर ही मचेगा। फलत: सभी खेतवाले चौकन्ने हो ही जाएँगे। फिर तो खाने की हिम्मत करने वालों को केवल डंडे ही मिलेंगे। दूसरी चीज की आशा वे कर नहीं सकते। ऐसी बात, जैसे हो तैसे पेट भरने की बन्दिश, डंका पीटकर की जाती नहीं। यह तो परले दर्जे की नादानी हो जाएगी।

    हाँ, जब वही पशु धीरे से बिना जबान हिलाए ही खेत में खाना शुरू कर देता है तो उसकी देखा-देखी दूसरे भी एके बाद दीगरे पहुँच ही जाते हैं, यदि मौका लग गया और इस दरम्यान में खेत का दावेदार पहुँच न गया। इस प्रकार उस पशु के मौन व्याख्यान, अमली लेक्चर का, 'कह सुमझे कि कर दिखाऊँ' का स्वस्थ असर हो गया और दान या समूह आखिर बनी गया। किसानों के नेताओं को उस पशु से ही पाठ पढ़ना होगा, कम से कम पेट के मामले में, और सीखना होगा कि अपना दल कैसे बनाया जाता है। वह पहले बनता है, पीछे काम होता है और पेट भरा जाता है, या कि पहले पेट ही भरा जाता है और उसी पेट भरने के सिलसिले में ही समूह और गिरोह अपने आप देखा-देखी बन ही जाता है। उसे कोई रोक नहीं सकता। जरूरत है केवल रास्ता दिखानेवाले की, जो बातें करने की अपेक्षा अलग करना ही जानता हो।

    गिरोह या दल तो एकाएक कभी बनता नहीं। उसका तो कायदा ही है कि कोई आगे बढ़ता है और एक-एक करके उसके पीछे आते जाते हैं। इसमें तो धुनी और लगनवाले की जरूरत है जो बात को समझ के आगे बढ़े जो किसी भी बला की, किसी की भी परवाह रत्ती के भी न करे और बढ़ता ही जाए। फिर तो उसमें चुम्बक की-सी आकर्षण शक्ति खुद आएगी और धीरे-धीरे बहुतों को बलात घसीट लाएगी,इच्छा न रहते हुए भी खींच लाएगी। आखिर चुम्बक इच्छा का पता लगाता फिरता थोड़े ही है। ऐसे मामलों में आगे बढ़ना तो खतरनाक है। और खतरे का सामना करने को कोई तैयार नहीं होता, चाहे हजार लेक्चर देते जाइए, जब तक अपनी ऑंखों नमूना देख न लें कि कोई माई का लाल किस मर्दानगी के साथ खतरों की परवाह न करता हुआ आगे बढ़ता  जा रहा है। संसार में पथ दर्शकों का दल कभी पैदा नहीं हुआ। यहाँ तो नियम ही ऐसा है कि ऐसे लोग बिरले ही होते हैं। मगर वे होते हैं धुन के पूरे। इसलिए उनका दल तैयार हो ही जाता है। समाज एक जंजीर में बँधा हुआ है। वह कुछ ढीली जरूर है। इसी से लोग इधर-उधर बहकते हैं। मगर यदि हिम्मत करके कोई एक ही तरफ बढ़ता जाए तो आखिर ढीली जंजीर तन जाएगी ही। अत: वह बाकियों को अन्ततोगत्वा अपनी ही तरफ बलात् खींच ही लेगा। यही होगा कि कोई उससे कुछ दूर होगें और कोई उसके अत्यन्त पास।

    असल में खाना तो किसान के पास हई। वही तो उपजाता है। वही तो उसका धनी है। मगर जैसे कस्तूरी मृग की कस्तूरी उसके पास रह के और उसी में पैदा हो के भी गैरों के काम आती है और उसे उससे कुछ भी फायदा नहीं होता। क्योंकि उसका प्रयोग करना वह जानता नहीं। असल में वह कस्तूरी को भूल गया है। ठीक वही हालत किसान की है। वह खाना भूल गया है, गो वही उसे पैदा करता है, उसी के पास होता ही है खाना। फलत: उसे दूसरे ही हड़प जाते हैं और वह टुकुर-टुकुर ताका करता है। यह अजीब अप्राकृतिक-अस्वाभाविक समाँ है। मगर उस पर किसी को भी आश्चर्य नहीं होता। इधर किसी की दृष्टि नहीं जाती। हालाँकि बड़े-बड़े दिमागदार लोग इस दुनिया में हैं। और अगर किसी की जाती है भी तो जो इसका रहस्य किसानों को समझाने लगता है, तो वह नक्कू बताया जाता है और दुनिया उसे काटने दौड़ती है। दुनिया आज ज्यादा तरक्की कर गई है ऐसा बताया जाता है। कहा जाता है कि वह बराबर ही तरक्की करती जा रही है। साइंस और विज्ञान उत्तरोत्तर समुन्नत होते ही जाते हैं। मगर जिस हिसाब से वह तरक्की कर रहे हैं ठीक उसी हिसाब से उसी अनुपात से यह किसानों और कमानेवालों की भूख भी बढ़ती जा रही है, तरक्की कर रही है। ठीक उसी हिसाब से किसानों की कमाई छिनी चली जा रही है।

    इसका उपाय क्या है? इसका एक ही रास्ता है कि जो अक्ल के घमण्ड में इस लूट को, इस भयंकर शोषण को ही उचित और जायज ठहराते हैं, जो इस महज नाजायज चीज को जायज साबित करने के लिए पोथे पर पोथे तैयार करते जा रहे हैं उन्हें तमाँचे लगें। ताकि वह समझने को बाध्‍य हों कि उनका खयाल, उनका रास्ता गलत है। 'उलटे चोर कोतवाल को डाँटे' के अनुसार जो लोग इस लूट को नाजायज बताने और किसानों को खाने का पाठ पढ़ाने में लगे हुए लोगों को ही बेवकूफ, नादान और बदमाश कहने की हिम्मत करते हैं और अक्ल बघाड़ते हैं उनकी इस बदहजमी को, उनकी अक्ल की इस अकड़न तथा अपच को मिटाना होगा। दूसरा रास्ता है नहीं। मगर क्या वह अपच किसानों और किसानों के व्याख्यानों और लेक्चरों से मिटेगी? क्या हम सोचते हैं कि सभा-सोसाइटी करके और दल बाँध के हम उनकी इस बदहजमी को मिटा सकेंगे? उनके पास तो अक्ल का भंडार है। वह तो हम से हजार गुना ज्यादा लेक्चर दे सकते हैं, दिला सकते हैं। यदि हम एक सभा करें तो वह विरोध में हजार कर डालेंगे। अगर हमारी सभा में सौ आदमी आएँ तो वे लाखों को जमा कर लेंगे। उनके पास इसके लिए पर्याप्त साधन मौजूद हैं। उनके पास इसका जादू है ऐसा कहने में जरा भी अत्युक्ति नहीं। फलत: लेक्चरों और उपदेशों से तो हम पार पा सकते नहीं। उसमें तो हार जाएँगे जरूर ही। उनके पास तो मशीनगनें हैं, राइफलें हैं, बन्दूकें हैं, तलवारें हैं, पुलिस है, फौज है। जब तक हम समूह बनायें तभी तक हमें ध्‍वंस करने में वे लग जाएँगे, आतंक फैला देंगे।

    तो फिर क्या हो? किसान के पास तो भैंस होती है। उसने, हमने, सबने देखा है कि हजार लेक्चर दीजिए, मगर उस पर उसका कुछ असर नहीं होता है। कहते भी हैं कि 'भैंस के आगे बीन बजाए सो बैठी पगुराए।' वह तो चुपचाप खाती है और बैठी-बैठी उसे पगुराती है, उसे हजम करती है। ठीक उसी प्रकार जनता फौजदारी, दीवानी, कानून, नीलामी, जब्ती आदि की नोटिसें मिलती रहें, धमकियाँ पड़ती रहें, हंगामा मचता रहे। मगर किसान पर इस बात की जरा भी परवाह न हो। वह तो गैरों को लूटने जाता नहीं। वह तो अपनी गाय-भैंस का ताजा दूध दुहने को समय ही खुद पी लेता और बाल बच्चों को पिलाता जाता है। वह तो अपने हल-बैल से,अपने परिश्रम से,जोती-बोई जमीन में पैदा किए गए गेहूँ को, बासमती को बेखटके भोग लगाता जाता है। वह पड़ोसी की भी राय लेने नहीं जाता। कौन ठिकाना, जब तक राय लेने गया तभी तक लूटनेवाले कहीं लूट ले गए तो? तब तो हाथ मलना और पछताना ही होगा। पूछने की बात भी इसमें क्या है? खाने में तो भगवान और देवताओं को भी नहीं पूछते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि 'पाँच कौर भीतर तब देवता और पीतर'। यही है 'सौ वक्ता को एक चुप हराए' का असली अर्थ, किसान वाला मतलब।

    यह तो अत्यन्त सीधा-सादा मामला है। यदि हम, यदि किसान को, जाब्ता फौजदारी और काश्तकारी कानूनों की जानकारी न होती, यदि उसके दिल दिमाग पर उन कानूनों का आतंक न रहता तो क्या वह गेहूँ, चावल खा जाने या दूध, घी का खुद ही इस्तेमाल कर लेने में जरा भी हिचकता? क्या वह एक मिनट के लिए भी सोचता कि इन पदार्थों को औरों के लिए भी रख लूँ या औरों के लिए बचा रखूँ? जो लोग असभ्य की जिन्दगी बिताते हुए घोर जंगलों में निवास करते हैं वह भी तो आखिर दूध देनेवाले या दूसरे पशु पालते ही हैं। लेकिन क्या उनके दूध, घी गैरों के लिए कभी रखते हैं? क्या जमीन से जो कुछ भी वे पैदा करते हैं वह खुद खा जाते नहीं? और अगर वे ऐसा करते हैं तो उसका कारण क्या है? यही न कि वे असभ्य हैं? कानून-वानून कुछ नहीं जानते? भोंदू हैं और उन्हें तो पेट भरने से काम है? यदि उन्हें भी अक्ल होती जैसी कि किसानों को है, यदि वे भी कानूनों को समझते रहते और मानते रहते कि सरकार को भी कुछ देना है तो सचमुच उस प्रकार बेखटके अपनी कमाई खा-पी जाते जिस प्रकार अनजान की दशा में करते हैं?

    जिन पशुओं की चर्चा खेत चरने के सिलसिले में की गई है उन्हीं की बात लीजिए। वे क्यों ऐसा करते हैं? वे गैरों के खेतों तक पर धावा क्यों बोल देते हैं ताकि पेट भरे? यही न कि जिस व्यक्तिगत सम्पत्ति की पवित्रता की घोषणा कानून करता है और उसकी गारण्टी के लिए ही उसकी हस्ती है उसे वे नहीं जानते? जहाँ तक पेट भरने का सवाल है वहाँ तक व्यक्तिगत या सार्वजनिक सम्पत्ति का प्रश्न है उनके दिमाग में कभी आता ही नहीं। वे इस बात को जान ही नहीं सकते कि औरों को भूखों रखके भी सम्पत्ति के संचय का हक किसी को है। उनकी तो सीधी और स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि सबसे पहले पेट भरना जरूरी है। जब सबों के पेट भर लें तो उसके बाद ही सार्वजनिक, सामूहिक या वैयक्तिक सम्पत्ति का सवाल उठ सकता है। इसीलिए वे ऑंख मूँद के अपनी उदरपूर्ति करने में लग जाते हैं। लेकिन महज नादानी के ये सभी पँवारे यदि वे भी जानते रहते तो क्या कदापि ऐसा कर सकते थे? यदि उन्हें जरा भी पता रहता कि ऐसे कानून हैं तो क्या उनका पाँव खेतों की ओर बढ़ता? आदमी तो झूठ-सॉंच और बहानेबाजी करके उन कानूनों के जाल से बच सकता है, बचने की कोशिश कर सकता है। मगर पशु तो ऐसा करने में असमर्थ हैं। इसलिए वे तो धीरे से दबक जाते और भूखों मरते।

    लोग कहते हैं कि मनुष्य इस सृष्टि का रत्न है, 'अशरफुल्म खलूकात' है। उसके पास अपने हित-हित और बुरे-भले की पहचान की शक्ति है, ज्ञान है, बाकी बातें तो पशु जैसी ही हैं, उसमें भी। केवल इस ज्ञान के करते ही वह पशु आदि से श्रेष्ठ माना जाता है,'आहार निद्रा भय मैथुनादि, समानि चैतानि नृणां पशूनाम्। ज्ञानं हितेषामधिको विशेषो ज्ञानेन हीना: पशुभि: समाना:।' खाना-पीना गो पशुओं जैसा ही मनुष्यों में है। मगर ज्ञान ने उन्हें ऊँचा कर दिया है और अगर वही ज्ञान उनमें न रहे तो पशुओं से उनमें फर्क ही क्या? मगर क्या यह बात सही है? क्या मनुष्य पशुओं जैसा भी खाना-पीना जानते हैं? तब तो भूखों मरते ही नहीं। और इस ज्ञान ने उन्हें पशुओं से श्रेष्ठ बनाया है या बदतर? यह तो उनके लिए बला हो गया है। यही तो उन्हें भूखों मारने वाला साबित हो रहा है, न कि श्रेष्ठ बनाता है। हाँ, यदि जीवन के लिए सबसे जरूरी और ज्ञान-विज्ञान के भी मूल कारण और बाप,इस भोजन के बारे में मनुष्यों से पशु अक्ल सीखते तो बेशक एक बात थी। मगर यहाँ तो उलटी बात है। हमीं को उनसे सीखना है। कम से कम कमानेवालों को तो जरूर ही सीखना है। हमें नाहक, अक्ल का अभिमान है।

    हमने आमतौर से देखा है कि देखने में जो महज बुद्धू और नादान मालूम होते हैं जिन्हें बातें करने का शऊर तक नहीं है वैसे देहाती लोग भी जब किसी साधु-महात्मा से बातें करते हैं तो बराबर कहते हैं कि साधु-फकीर का यह धर्म है, वह धर्म है, आप गलत काम करते हैं, यह ठीक नहीं है आदि-आदि। लेकिन जैसे अजीर्ण या अपच की दशा का अन्त शरीर का पोषक न हो के उसे मारने या हानि पहुँचाने वाला ही होता है, रोगों का कारण बनता है, ठीक उसी प्रकार उन्हें भी अक्ल का अजीर्ण हो गया है। उनकी यह अक्ल अपच के रूप में उन्हें मारनेवाली सिद्ध हो रही है। नहीं तो भला खुद तो पशु से भी गए-गुजरे बनें और भूखों मरने की नादानी बराबर करें और साधु-फकीरों को अक्ल सिखाएँ। सो भी सिखाना कैसा कि मौके पर बेकार। जब वही साधु-फकीर उनके दरवाजे पर प्लेग की तरह जा धमकते हैं और गांजा, भंग वगैरह की माँग पेश करते हैं तो वह बदहजमी वाली बुद्धि कुछ भी काम नहीं करती। फलत: जहाँ उन्हें गर्दनियाँ दे के निकाल बाहर करना चाहिए वहाँ उलटे कुछ न कुछ देकर पाँवों पड़ते और पिण्ड छुड़ाते हैं।

    कहते हैं कि बच्चों को बुद्धि नहीं होती। इसलिए वे गड़बड़ी करते रहते हैं। मगर जब उन्हें भूख लगती है तो क्या सोचने जाते हैं कि घरवालों के पास कुछ है या नहीं? वे तो चाहे जैसे हो अपना पेट भरना चाहते हैं। घरवालों को भी हजार कोशिश करके भरसक उन्हें सन्तुष्ट करना ही पड़ता है। नहीं तो उनकी चीख-पुकार बन्द होती ही नहीं। जब भूख किसी से भी समझौता या रिआयत करने के लिए जरा भी रवादार नहीं होती, और अगर अन्न न मिले तो खून, मांस, हड्डी तक खाना शुरू कर देती है, तो फिर समझदार कहे जानेवाले किसान क्यों उस मामले में जरा भी रिआयत या समझौता किसी से करें ? वे क्यों सरकार, कानून, जमींदार, साहूकार या भगवान की भी परवाह इस मामले में करें? लड़के-बच्चों से ही इस बात में उन्हें सीखना होगा।

    नामदेव नामक एक लड़के की कहानी है। कहते हैं, वह बड़ा ही सीधा-सादा था। मगर उसके पिता भारी पण्डित थे। घर में एक ठाकुरबाड़ी थी। पिताजी प्रतिदिन ठाकुरजी की पूजा करते रहते थे। लड़का देखता रहता था। पूजा और भोग के बाद रोज ही ठाकुरजी के भोग का मिश्री मिला दूध उसे मिला करता था। इसलिए पूजा को बहुत ही लाभदायक चीज समझता था। एक दिन पिताजी को किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ा। उनने नामदेव के जिम्मे ठाकुरजी की पूजा का भार सौंपा और ताकीद कर दी कि कोई गलती न हो। नहीं तो ठाकुरजी रंज हो जाएँगे। लड़के ने खुशी-खुशी बात कबूल कर ली। उसने समझा कि चलो भोग के बाद पूरा दूध मैं ही पिऊँगा। कोई हिस्सेदार न रहेगा। दूसरा कोई था नहीं। केवल पिताजी ही हिस्सा लेते थे। सो चले ही गए।

    उसने तड़के उठ के नहाने-धोने के बाद ठाकुरजी को भी विधिवत् नहलाया, धुलाया, चन्दन पुष्पादि चढ़ाया और आरती-प्रार्थना की। फिर कटोरे में भर के मिश्री मिला गाढ़ा दूध,उसने ठाकुरजी के सामने रख दिया और हाथ जोड़ के कहा कि पूजा में लड़के से भूल हो गई हो तो क्षमा कीजिए,यह दूध पीजिए। फिर नियमानुसार द्वार का पर्दा गिरा के बाहर आ गया कि ठाकुरजी निश्चिन्त होके पीएँ। थोड़ी देर बाद भीतर जाके जो देखता है तो दूध ज्यों का त्यों पड़ा है। अब तो वह घबराया कि पूजा में गड़बड़ी हो गई है। इसी से रंज हो के ठाकुरजी दूध पी नहीं रहे हैं। हो न हो, पिताजी से कह देंगे और वह मुझे पीटेंगे। उसकी बुरी गत थी। रोया-गाया। क्षमा कराई और हाथ जोड़कर आरजू की कि महाराज, क्षमा करें, पी लें। फिर पर्दा डाल के बाहर गया। थोड़ी देर बाद देखता है तो दशा पूर्ववत् है। अब तो कुछ पूछिए मत। उसने मान लिया कि कोई भारी भूल जरूर हो गई है। ठाकुरजी न मानेंगे। पिताजी के आते ही सब बातें उनसे भी कही देंगे। फिर तो मुझ पर बड़ी मार पड़ेगी। ऐसा सोच के जार-जार रोने लगा। मगर ठाकुरजी तो ठेठ पत्थर ही ठहरे। वे कब पसीजने वाले थे। जब आदमी कहे जाने वाले जमींदार मालदार आदि नहीं पसीजते तो कहा जाता है कि इनका दिल पत्थर है। मगर यहाँ तो खुद पत्थर ही ठहरा।

    इसलिए हार के वह ऊब गया और छुरी निकाल के पेट में भोंकने को तैयार हो गया कि मरी जाना ठीक है, बनिस्वत गधो की तरह पीटे जाने के। ज्यों ही ऐसा करना चाहा कि देखता है कि ठाकुरजी का हाथ कटोरे पर आ गया और दूध उठा के पीने लगे। फिर तो वह रुक गया। जब आधा दूध ठाकुरजी पी गए तो झपट के उसने यह कहते हुए कटोरा छीन लिया कि वाह, वाह, पिताजी आधा कटोरा दूध तो प्रतिदिन मुझे देते थे ही। आज आप रंज होके मेरा हिस्सा पीने चले हैं । यह नहीं होगा। पिताजी का हिस्सा पी गए तो पी गए। मगर अपना पीने हर्गिज न दूँगा। उसके बाद आधा कटोरा दूध खुद पी गया। किसानों की हालत यह है कि नामदेव के पिता की तरह अपना और अपने बाल बच्चों का भी हिस्सा नए ठाकुरजी लोगों को,जमींदारों तथा मालदारों को,दे डालते हैं। बुद्धि की बदहजमी जो ठहरी। उन्हें अब नादान नामदेव बनना ही होगा। नहीं तो खैर नहीं। यह 'आप मियाँ मँगनी द्वारे दरवेश' वाली हालत अच्छी नहीं है।

    किसान ने एड़ी-चोटी का पसीना एक करके खून को पानी बना के,खेती की,खेत को जोता-कोड़ा। उस खेत को, जिसे न तो जमींदार ने ही बनाया है और न तो सरकार या मालदार ने ही। वह तो प्रकृति का, कुदरत का या भगवान का ही बनाया है जिस पर किसान का भी उतना ही हक है जितना औरों का। बल्कि किसान का ही पूरा हक है, न कि दूसरों का। क्योंकि वही जोत-बो सकता है और बिना जोते-बोए तो खेत बेकार ही है। उसी प्रकार जैसे गाय के दूध पीने और उसके थन में लगने का हक उसके बछड़े ही को है। क्योंकि बिना उसके लगे दूध निकल सकता ही नहीं। मगर उसकी पैदावार,उपज,वह भोग नहीं सकता। वह तो पहले जमींदार, सरकार या साहूकार के पास ही जाएगी। उनके बाद ही, यदि बचे तो, किसान को मिलेगा। क्यों? कानून और न्याय का ऐसा कहना जो है। क्या खूबी है। गाय के थन में बछड़ा लगे सही। मगर उसका दूध मुँह में न जाने दे। क्यों? गाय का मालिक दूसरा जो बन गया है और उसे दूध की सख्त जरूरत जो है। मगर क्या बछड़ा कभी इस बेहूदे न्याय और कानून के पचड़े में पड़ता है? वह तो जितना पी सके पीता है जब तक जबर्दस्ती हटा न दिया जाए। उसे तो अक्ल का अजीर्ण है नहीं कि इस न्याय व्याय के ढकोसले में पड़े। तो क्या किसान को पेट के मामले में अक्ल की जरूरत है या बछड़े जैसी पशुता की? उसमें यह बात कब आएगी? कैसे आएगी?

    यदि कोई आदमी किसान को समझाने जाए कि खेत और खलिहान में फसल तैयार होने पर भी नाहक ही क्यों खुद तथा बाल बच्चों को भूखों मारता है? खाता-पीता क्यों नहीं है? तो चट उत्तर देता है कि राम, राम, मालिक का जमींदार का हक न दे के पहले ही कैसे खा लूँ? उसकी मर्जी और आज्ञा के बिना एक अन्न भी कैसे छूऊँ? चोरी कैसे करूँ? अधर्म पर लात कैसे दूँ? यह भी नहीं कि वह अपने को इस मामले में भूला भटका मानता हो। वह तो काफी समझदार अपने को मानता है। उसे गर्व है, फक्र है कि पोथी-पुरान पढ़-सुन के ही उसने यह बात सीखी है, यह न्याय तथा धर्म का मार्ग पकड़ा है। इसीलिए उसे छोड़ नहीं सकता। जैसे ऊँट किसी चीज को पकड़ लेने पर आसानी से छोड़ नहीं सकता ठीक वैसे ही उसने भी हक, धर्म और न्याय की बात पकड़ रखी है। जनसाधारण भी इसी की ताईद, इसी का समर्थन करते हैं।

    मगर है यह वही अक्ल का अजीर्ण। माना कि जमींदार का हक उसमें है। मगर सवाल तो यह है कि क्या किसान के बच्चों का, उसके परिवार का, और खुद उसका उसमें जरा भी हक नहीं है? क्या टिड्डी, तोते, कीड़े, चूहे वगैरह के बराबर भी उसका हक उस फसल में नहीं है। आखिर चूहे, पशु, आदि तो अपना हक ले ही लेते हैं। वह तो मालिक का हुक्म लेने भी नहीं जाते। तो फिर किसान के परिवार का हक क्यों नहीं है? वह लिया भी क्यों न जाए? आखिर उसी ने तो कलेजे का खून सुखा के वह फसल तैयार की है। फिर उसे मेहनताने का भी हक नहीं? और अगर है तो उसे प्राप्त करना क्या न्याय और धर्म नहीं है? यदि जमींदार उसमें बाधा डालता है तो उसका मुकाबला करना क्या धर्म नहीं? और जो इस प्रकार अधर्म तथा अन्याय पर उतारू हो उसके साथ क्या यही बर्ताव उचित है कि हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? यदि यही बात हो तो 'जिन मोहिं मारा तेहि मैं मारा', 'शठे शाठयं समाचरेत्' कहाँ लगेगा? यह किसके लिए है? क्या सीना जोरी करने वाले को दुरुस्त करना महान् धर्म नहीं है? तो क्या दिन-रात जबर्दस्ती और सीना जोरी पर उतारू जमींदार के साथ रिआयत करना न्याय है? या कि जैसे हो तैसे उससे अपना हक बचा लेना ही धर्म और न्याय है?

    यदि बाल-बच्चे इसके करते भूखों मरते, बीमारी से घुल-घुल के मर जाते, चिथड़े में पड़े सड़ते और काँपते हैं, औरतें वस्‍त्र के बिना नग्न प्राय: आत्महत्या कर लेती हैं तो भी इसे चोरी कहना और खेत-खलिहान से फसल उठा के खा-पी लेने को अधर्म या अन्याय कहना क्या पागलपन नहीं है? जमींदार के बाल-बच्चे तो भूखों मरते नहीं और न दवा के बिना या चिथड़े में लिपटे कराहते हैं। उनकी औरतें लज्जा बचाने के लिए आत्महत्या भी नहीं करती हैं। फिर उन्हें क्या गर्ज पड़ी है कि किसान को खाने-पीने की आजादी दें? 'जाके पाँव न फटै बिवाई । सो क्या जाने पीर पराई?' फिर नाहक ही जमींदार की देखा-देखी कि वह धर्म और न्याय की दुहाई देता है, किसान क्यों पाँचवाँ सवार बनने चला है? घोड़ों के पाँवों में नाल लगते देख मेढक क्यों नाहक ही नाल लगाने के लिए पाँव उठाने लगा है? उसमें तो जमींदारों को फायदा है। मगर किसान तो इससे बरबाद होता है। तब इस अक्लमन्दी की बेहूदा ठेकेदारी को उठा फेंकना क्यों न चाहिए?

    धर्म और न्याय की रट बार-बार लगाई जाती है, इतनी अधिक कि सुनते-सुनते तबीयत ऊब गई है। जिन्हें बात बोलने की भी तमीज नहीं, जो 'लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर' हैं वह भी जब धर्म और न्याय की बात छाँटते हैं तो जी चाहता है कि धरती फट जाए और उसमें ही समा जाएँ, ताकि ऐसी नादानी, ऐसा पागलपन देखने का मौका ही न लगे। लेकिन हम पूछना चाहते हैं कि पेट भरेगा अन्न से या धर्म और न्याय से? तन ढँकेगा वस्‍त्र से या धर्म और न्याय से? रोग हटेगा ओषधि से या धर्म और न्याय से? यदि धर्म और न्याय से ही यह बातें होने को होतीं तो औलिया, महात्मा और पैगम्बर, अवतार और ऋषि-मुनियों को भूख, प्यास, बीमारी वगैरह की तकलीफ कभी हुई न रहती। और धर्म की दोहाई देते-देते पागल बने किसान के परिवार की ऐसी तबाही और दुर्दशा भी न होती रहती। आखिर संसार का सारा काम भगवान, धर्म और न्याय ही कर डालेंगे तो फिर अन्न, वस्‍त्र और ओषधि पैदा होने की जरूरत ही क्या थी? और अगर इतने पर भी किसान यदि समझता है कि उसने आज तक जो किया है या आज जो कुछ वह कर रहा है वही बुद्धिमानी और समझदारी है, तो जितना जल्द इस समझदारी को सलाम कर लिया जाए और उससे पिण्ड छुड़ाया जाए उतना ही अच्छा।

    किसानों को जो बुद्धिमानी पर नाज है, वे जो इस बुद्धिमानी को मानव जीवन की सार्थकता के लिए जरूरी समझ इस पर अभिमान करते हैं। वह कोई नई बात नहीं है। संसार में नादानी को ही बुद्धिमानी समझने वालों की कमी कभी नहीं रही है। मगर जो बुद्धिमानी व्यावहारिकता से दूर हो वह बहुत ही खतरनाक है। उसने हमेशा धोखा दिया है। जो उसके फन्दे में पड़े हैं वह बरबाद हो के ही रहे हैं। यह अक्लमन्दी का जादू लक्ष-लक्ष जीवों को मिटा चुका है। जाने कितने घरों को, महलों को खण्डहर बना चुका है। यही किसानों को भी मिटाने पर कमर कसे बैठा है। लेकिन यदि उन्हें मिट जाना नहीं है तो इस मर्ज को हटाएँ।

    हितोपदेश की एक कहानी है। किसी खूब गहरे गढ़े में दो बड़ी-बड़ी मछलियों के साथ मेढक और मेढकी, यही चार रहते थे। आमतौर से उसका पानी कभी सूखता न था। मगर एक साल घोर अवर्षण होने से उसका पानी सूख चला। फलत: गर्मी आते न आते मेढक नर-मादा को घबराहट हुई। उनने मछलियों से यह बात कही और पहले से ही सजग हो जाने की राय दी। नहीं तो बला आनेवाली ही है। दोनों मछलियों में एक को सौ अक्लें थीं। और दूसरी को हजार। इसी से उन्हें क्रमश: शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि कहते थे। शतबुद्धि ने जबाव दिया कि बात तो सही है। मगर घबराने की जरूरत नहीं है। मैं अपनी सौ अक्लें खर्च करके कोई रास्ता निकालता हूँ। लेकिन सहस्रबुद्धि का उत्तर तो और भी विचित्र था। उसने कहा कि मेरे पास पूरी हजार अक्लें हैं। अत: मैं अभी से क्यों फिक्रमन्द बनूँ? ऐन मौके पर उपाय ढूँढ़ लूँगा।

    इस पर मेढक को निराशा हुई। उसने मेढकी से कहा कि अपनी-अपनी अक्ल की ऐंठ, उसकी बदहजमी, में फूले ये दोनों सर पर मँडराने वाली आफत को देख नहीं रहे हैं। अन्धे हो गए हैं। इसलिए चलो अभी यहाँ से भाग चलें, निकल चलें। क्योंकि किसी भी प्रकार बला से पिण्ड छुड़ा लेना और भाग जाना यही एक मोटी बुद्धि मेरे पास है। फलत: दोनों ही उस गढ़े से भाग के पास के ही किसी विस्तृत जलाशय में चले गए और सानन्द रहने लगे।

    कुछ दिनों बाद देखते हैं कि मछली मारने वाले दो लम्बी मछलियों को लिए उसी रास्ते से चले जा रहे हैं जिनमें एक उनके हाथ में लटक रही है और दूसरी कन्धे पर पड़ी है। मेढक ने पहचान लिया कि ये वही दो मछलियाँ हैं जिन्हें अपनी अपार और अनन्त अक्लों का घमण्ड था। उसने मेढकी से कहा कि वह देखो अक्ल के अजीर्ण का नतीजा। वे दोनों मछलियाँ अपनी समझदारी में फूली थीं। इसीलिए तो उनकी यह दशा हुई है। मैं तो सीधा-सादा कम अक्ल वाला भागना ही जानता था। इसीलिए यहाँ मजा कर रहा हूँ, 'शतबुद्धि: कृतोन्नामो लम्वते च सहस्रधी:। एकबुद्धिरहं भद्रे क्रीडामि विमले जले।' किसानों को भी आज तो कम अक्लवाला बनने में ही फायदा है। धर्मशास्त्रों और पोथी पुराणों के पन्ने उलटने तथा नाहक ही अक्ल उगलने में उनकी खैरियत नहीं। उन्हें तो चाहिए कि यह काम पण्डितों और राजे-बाबुओं के ही लिए छोड़ें। क्योंकि उनका पेट भरा रहने से बखूबी वही कर सकते हैं।

    किसी साहूकार ने किसान को सिर्फ दस रुपए दिए और उसके सौ रुपए उसने धीरे-धीरे वसूल भी लिये। फिर भी उसकी बही में पूरे दो सौ बाकी। अब किसान को दिन-रात यह चिन्ता लगी है कि किसी प्रकार उससे उऋण हो जाऊँ। नहीं तो आकबत बिगड़ेगी, परलोक चौपट होगा। नर्क में पड़ेगा। उसके भाई दायाद, सगे-सम्बन्धी और पास-पड़ोस वाले भी यही कहते मानते हैं। जरा भी इस धारणा में उनने शिथिलता देखी कि मार-मार, थू-थू, छि:-छि: होने लगती है। लोग कहने लगते हैं कि कैसा नालायक है, बाप-दादों का नाम डुबाएगा महाजन का पावना हजम करके। याद रहे अगले जन्म में गधा बन के पैसा-पैसा चुकाना होगा। नहीं तो बैल तो जरूर बनना होगा। राम, राम कहीं महाजन मारने की भी बात सोचते हैं।

    अजीब वायुमंडल है। भला इसमें गुजर हो सकता है। इस भयंकर विवेक विचार की लू में खामख्वाह झुलस जाना ही पड़ता है। यह तो एक सौ दस डिग्री के बुखार की गर्मी है। भला इसमें कौन बचे। दस की जगह पूरे सौ वसूल हो गए। फिर भी महाजन मारने का सवाल। फिर भी किसान को उऋण होना बाकी ही है? उसके करते इस लोक में, इस जीवन में, नर्क से भी गई गुजरी हालत में पड़े हैं। दाने-दाने को मुँहताज हैं। मगर परलोक की फिक्र जान मारे जा रही है। जिस परलोक को किसी ने कभी देखा नहीं, जिसकी शिनाख्त करना गैर-मुमकिन है जिसका कोई पक्का पता नहीं कि फलाँ जगह है, जिसके बारे में हरेक धर्म-मजहबों के झगड़े हैं कि ऐसा है, वैसा है, उसी की इतनी चिन्ता। न जाने, अब इस नारकीय जिन्दगी से बढ़ के और कौन सी जगह नर्क नाम वाली होगी जिससे त्रस्त हैं।

    और अगर गधा ही बनें तो लावारिस तो होंगे नहीं। क्योंकि तब ऋण चुकाएँगे कैसे? तब तो फिक्र चिन्ता के बिना खुले घास चरेंगे और मौज करेंगे, लेकिन अगर वारिसवाले बने तो साहूकारजी को भी धोबी तो बनना पड़ेगा ही। इसलिए हमें क्या फिक्र? उन्हें तो पहले अपनी चिन्ता करने दीजिए। हम पीछे देखेंगे। और देखेंगे भी क्या? आज तो कोई पूछता ही नहीं। गधा बनने पर कम से कम हमारा धोबी हमारी खबर तो लेगा। एक खूँटे और रस्सी में किसी घर में बाँधेगा तो सही। कभी-कभी कुछ खिलाएगा भी तो सही। घास चरने को तो मिलेगी ही। मगर आज तो मौत भी नहीं मिलती। क्योंकि वह खुद आती नहीं और अगर आत्महत्या की कोशिश करें तो कानून छाती पर सवार है। बैल बनने में भी यही बात है। उस हालत में भी घास-भूसा की फिक्र वही साहूकार करेगा ही। आज तो हमारी जरा भी फिक्र उसे हई नहीं।

    अब रही बाप-दादों का नाम डुबाने की बात। सो क्या उनका नाम अभी बचा ही है? वे खुद तो इसी समझदारी की बदहजमी के करते घुल-घुल के मरे ही। मगर हमारे लिए भी इसका रास्ता साफ करते गए। क्या इस मौत को ही नाम कहते हैं जो बचा है? तब तो यह नामवरी गैरों को ही, साहूकार को ही मुबारक हो। वही घुट-घुट के अन्न बिना मरे। हम क्यों ऐसी नादानी करने जाएँ? हमें लायक नहीं बनना कि घर-बार और पैदावार लुटवाएँ। इस नामवरी से हम बाज आए। हम नालायक ही अच्छे। इससे पेट तो भरेगा, तन तो ढँकेगा, दवा तो मिलेगी? यह नामवरी क्या है, घर जला के होली खेलना है। यह तो कोरा पागलपन है। ऐसे अन्धे धर्म की ठेकेदारी हमें नहीं चाहिए जिसमें जिन्दगी मौत से भी बुरी हो जाए। इस कागजी धर्म की नाव ने अब तक बहुतों को डुबाया है। अब हम इसे डुबा के ही साँस लेंगे। यदि दस रुपए की जगह सौ वसूलने के बाद भी दो सौ बाकी ही रहें और फिर भी धर्म ही कहते हैं तो हम बाज आए इस धर्म से। यह तो इस दुनिया से जितना जल्द मिट जाय उतना ही अच्छा। इसी के करते सारा समाज पागल कुत्तों का दल जैसा बनके काटने दौड़ता है और मार डालना चाहता है। यहाँ तो जीवन दुश्कर है। यहाँ तो 'कहहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दशनन महँ जीभ विचारी' की बात है। यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी है। यह सिसक-सिसक के मरना भी कैसा भीषण धर्म है।

    अजीब पागलपन है। अपनी कमाई से सबसे पहले अपना और परिवार का पेट भरें तो धर्म नष्ट, कानून चौपट हुआ। साहू महाजन की फिक्र न करके पहले पेट की फिक्र करें तो भी यही बात। चोरी करें, डाका मारें तो भी यही कहानी। न करें तो भी गुजर नहीं। और यह सबकुछ होता है कानून, न्याय और धर्म के नाम पर। इस पहेली को कौन सुलझाए? इस बेहूदे झमेले में कौन पड़े? तब तो यही मन्त्र जपना आसान और सबसे ज्यादा फायदेमन्द है कि 'कमानेवाला खाएगा, इसके करते जो कुछ हो।'

    जरा आगे बढ़िए। किसान दौड़े आते हैं किसान सभा में और कहते हैं कि जमींदार हमें लूटता हैं, तबाह करता है, झूठा केस करके परेशान करता है। कोई रास्ता बताइए। हम कहते हैं किसान सभा समझाती है कि मुकदमेबाजी में मत पड़ो। वहाँ तुम्हारी गुजर नहीं, तुम्हारी पूछ नहीं। वहाँ और भी बरबादी होगी। पैसा भी जाएगा, काम भी चौपट होगा, झूठ-साँच बोलना भी नाहक ही होगा और अन्त में वही होगा जो बिना यह सब किए ही होता। फिर क्यों वहाँ जाते हो? मगर उसके दिमाग में यह बात घुसती ही नहीं। वह यह सब समझ सकता ही नहीं। उसे इस बात का रहस्य सूझता ही नहीं कि सरकार और जमींदार कायम ही हैं केवल इस बात पर कि हम उनकी और उनकी कचहरियों की परवाह करते हैं, कदर करते हैं, हम मान बैठे हैं कि उनके कानूनों से हमारे साथ न्याय होगा। इस प्रकार उनकी धाक हमारे दिल-दिमाग पर जमी हुई है। मगर ज्यों ही हमने यह खाम खयाल छोड़ा और कचहरियों से लापरवाह हुए कि उनकी यह धाक गई। फलत: धीरे-धीरे हम खुद सबल और वह निर्बल होते जाएँगे। उनका सारा काम इसी धाक से, हमारे ऊपर जमे आतंक से ही निकलता है। लेकिन जब यही चीज न रही, तो वे आज गए, कल गए की बात हो के ही रहेगी।

    किसान को लाख समझाइए कि उसे फँसा के मारने के ही लिए ये जाल रचे गए हैं। मगर वह मानता नहीं। उसके दिल में तो यह बात बैठी है कि मुकदमे लड़ने, वकील मुख्तार रखने, पैरवी करने से उसकी जीत होगी, न्याय होगा। अत: किसान सभा से यही मदद चाहता है। वह चाहता है कि हम यह कर करवा दें। पहले वह भी ऐसा नहीं मानता। यह तो धीरे-धीरे उसकी जानकारी और समझदारी का ही नतीजा है। जब तक पहले इतना पढ़ा-लिखा, शहरों में आने-जाने वाला, कचहरियों की हवा खानेवाला वह बना था नहीं, जब तक वह पूरा सभ्य न हुआ था,तब तक उस पर भी इस जादू का असर न था। आज भी पिछड़ी एवं असभ्य कही जाने वाली कितनी ही जतियाँ हमारे ही देश में हैं जो इस जादू से बची हैं। जो कचहरियों में पाँव देना जानती ही नहीं, जब तक उन्हें बलात् घसीटा न जाए। हमें तो उनकी यह असभ्यता मुबारक है, उनकी यह अशिक्षा इसलिए शिरोधार्य है कि वे अपने को सब तरह से लुटाते तो नहीं हैं काश। किसान समाज में भी यही अशिक्षा होती। काश, उनके दिमाग से भी यह भूत सदा के लिए उतर जाता कि कचहरियों में न्याय होगा, पैरवी से जीतेंगे, 'दूध का दूध और पानी का पानी' होगा। मालदारों के मुकाबले में, चलते पुर्जे लोगों के सामने वह पार पाएँगे यह उनकी सनक यदि मिट जाए तो वे बहुत आगे बढ़ जाएँ।

    इन कचहरियों में चलते पुर्जे और मालदार लोग कैसे अपना काम बना लेते हैं और किसान किस प्रकार उल्लू बनता है। इसकी एक सुन्दर दास्तान है। किसी गरीब ब्राह्मण के पास बहुत ही सुन्दर गौ थी। वह कामधेनु ही थी। इतनी सीधी कि कहिए मत। जब चाहिए दुह लीजिए। दूध भी भरपूर था। ब्राह्मण तनहा था। एक बार कई महीनों के लिए उसे कहीं बाहर जाना पड़ा। उसने सोचा इस गौ का क्या करे? इसे कहाँ रखे? आखिर अपने पड़ोसी तेली के यहाँ रखने का निश्चय करके उसने उससे यह इच्छा प्रकट की। तेली तो चाहता ही था कि उसे यह गौ मिले। उसकी नजर उस पर पहले से ही गड़ी थी। मगर ऊपर से नाहीं-नुकुर करने लगा। बोला, मेरा तो अपना ही कोल्हू वाला बैल है। उसी से हैरान हूँ। फिर आपकी गाय का यह भार कैसे सह्य होगा? मगर बहुत कहने-सुनने पर मान गया। ब्राह्मण देवता गौ को उसके हवाले कर रवाना हो गए।

    दुर्भाग्य से लौटने में उन्हें काफी देर हो गई। मगर लौट के जब उनने तेली के पास से अपनी गाय वापस लेनी चाही तो उसने कोरा जबाव दे दिया और कह दिया कि आपकी गाय कैसी? यह तो मेरी है। अब तो उन पर आफत थी। कुछ उपाय सूझता न था। हजार दलीलें कीं, समझाया-बुझाया, धर्म-ईमान की दोहाई दी। मगर सुने कौन? जो लोग हमेशा ही धर्म, ईमान और न्याय की छाती रौंद के धन कमाते हैं, जो धर्म आदि की समाधि पर ही अपने ऐश्वर्य का भव्य भवन निर्माण करते हैं वह यह बातें कब सुननेवाले? फलत: तेली नहीं पसीजा और नहीं पसीजा। उसने साफ ही सुना दिया कि यदि इस जगत में कोई भी धर्मात्मा और ईमानदार आदमी यह कह दे कि यह गाय मेरी नहीं है तो मैं न सिर्फ यह गौ तुम्हें दे दूँगा, प्रत्युत इसके मूल्य का हजार गुना दण्ड दूँगा। ब्राह्मण तो सीधा था। यह सुनके उसे आश्चर्य भी हुआ और गाय मिलने का विश्वास भी। क्योंकि उसकी तो गौ थी ही और तेली ने कही दिया कि कोई भी ईमानदार आदमी यदि ऐसा कह दे तो वह जरूर ही दे देगा। ब्राह्मण को तो हर्जाने तक की आशा हो गई। जैसा कि कानूनवालों के जाल में फँस के किसान सोचने लगते हैं ठीक वही बात उसकी भी हुई। किसानों की ही तरह उसे पूरा विश्वास हो गया। जो होशियार और जानकार थे उनने हजार समझाया। मगर ब्राह्मण के दिल में उनकी बात धँसी ही नहीं।

    अन्त में उसने तेली से पक्की बातें करके पंचायत में ही यह बात पेश करने की सोची। तेली ने कहा कि आप ही जिसे पंच मानिए मैं उसे ही स्वीकार कर लूँगा। ब्राह्मण भी और दूसरे भी हैरत में थे कि यह क्या कहता है। मगर तेली तो बेधड़क कहता चला जाता था कि चाहे जो पंच हो मैं न हटूँगा। क्योंकि मुझे डर क्या? गाय तो मेरी ही ठहरी। यही तो तरीका मालदारों का है? किसानों के खेत खलिहान पर वे भी इसी प्रकार बेधड़क दावा करते हैं जिससे बाहरी लोगों को और हाकिमों को भी पूरा यकीन हो जाता है कि जरूर उन्हीं के खेत-खलिहान हैं। किसान का ही दावा झूठा है। ये तो आएदिन की बात है,रोज-रोज का अनुभव है। फिर भी ऑंखें खुलें तब न?

    खैर, पंच मुकर्रर हो गए। उनने गवाही साखी लेने की तारीख भी नियत कर दी। ठीक समय पर तेली के द्वार पर वे लोग आए भी। लोग जमा थे। सभी के सामने उनने तेली से बयान लिया तो उसने यही कहा कि गाय मेरी है। असल में दिक्कत यह है कि लोगों ने इसे खरीदते तो मुझे देखा नहीं। मेरे पास पहले थी भी नहीं। किसी ने मुझे दी भी नहीं कि ये लोग जानें। इसी से शक करते हैं। मगर बात तो अनहोनी हो गई। यह जो मेरा बैल है एक दिन एकाएक उसी के पेट से यह गाय बाहर आ गई।

    आप लोग चाहे जिससे यह बात पूछ लें। मैं सिर्फ इतना ही अर्ज करूँगा कि सयाने और पढ़े-लिखे लोग तो जाल-फरेब कर सकते हैं और झूठ भी बोल सकते हैं। वह मुहब्बत में पड़ के किसी की तरफदारी भी कर सकते हैं। अत: आप लोग ऐसों से पूछताछ कर लें जिनमें इन बातों की गुंजाइश ही न हो। पंचों ने और लोगों ने भी इसका हृदय से अनुमोदन किया और तेली की शतमुख प्रशंसा की। जानने वाले भी आश्चर्य में थे कि यह क्या बातें करता है, इस प्रकार कैसे गाय पाएगा। मगर उन्हें क्या पता कि ये सब चालें हैं। इन्हीं से तो मालदार जीतते हैं। उसकी इस बात का पहला फल तो यही हुआ कि तटस्थ और बाहरी लोगों पर और पंचों पर भी यह असर हो गया कि हो न हो तेली का पक्ष सही है। यही क्या कम बात थी? आखिर जीत होती है कैसे? वह इसी प्रकार ही तो होती है। आसमान से तो कभी यों ही टपक जाती नहीं।

    इसके बाद तय पाया कि आज तेली की बात हो गई। अब कल इस गाँव में तथा आसपास के दस-बीस गाँवों में इसकी गवाही ली जाएगी और छानबीन की जाएगी। फिर सभी लोग घर गए। दोनों ही पक्ष वालों को विश्वास था कि जीतेंगे। ब्राह्मण ने तो खामख्वाह मानी लिया कि अब गाय मिल के ही रहेगी। मगर रातोरात तेली ने अपने धन और अक्ल के बल पर इन्तजाम किया कि कई मन सुन्दर मिठाइयाँ आसपास के गाँवों के छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों में बँटवा दीं। बाँटने वालों ने उन बच्चे-बच्चियों को सिर्फ इतना ही सिखाया कि तुम बहुत तड़के जगह-जगह जमा हो के यही चिल्लाते रहना सारे दिन कि 'तेली का बैल गाय ब्याया।' इसके बाद फिर कल शाम को इससे भी अच्छी और ज्यादा मिठाइयाँ दी जाएँगी। खबरदार चूकना नहीं। जो चूकेगा और यह बात चिल्लाता न रहेगा उसे मिठाई न दी जाएगी। यह प्रबन्ध उसने इस चालाकी से किया कि किसी को पता ही न चला कि क्या हो रहा है। किसी को इसकी परवाह भी न थी। ब्राह्मण भी बेफिक्र था।

    मगर दूसरे दिन प्रात:काल ही जब सभी गाँवों में चारों ओर बच्चे यही चिल्लाने लगे कि 'तेली का बैल गाय ब्याया' तो लोगों को आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है? फिर भी कुछ रहस्य मालूम न हो सका। यह किसे जानकारी थी कि बीसियों गाँवों में यही शोरगुल है। अन्त में जब पंच लोग गाँवों में घूमने लगे तो उनसे यह चिल्लाहट सुनी। वे इससे आकृष्ट हुए। फिर आगे बढ़े। मगर जिधर ही गए उधर ही यही आवाज। उसके बाद दूसरे, तीसरे, आदि गाँवों में भी गए और सर्वत्र एक ही पुकार पाई। गर्ज यह कि आसपास के सभी गाँवों में घूमघाम के वे लोग थक गए। मगर कहीं भी दूसरी आवाज सुनाई न पड़ी। लड़कों की यह चिल्लाहट सुनके उन्हें औरों से पूछने का मौका भी न लगा। क्योंकि चारों ओर तो यही शोर था। फुर्सत कहाँ थी कि औरों से पूछे? पूछने की उन्हें जरूरत भी न मालूम हुई। उनने खुद सोचा कि जब नादान बच्चे जिधर देखिए उधर ही एक ही बात चिल्ला रहे हैं तो दूसरों से क्या पूछें? सयाने लोग सीख पढ़ के झूठ भी बोल सकते हैं। मगर ये बच्चे हैं, ये ऐसा क्यों करने जाएँगे? इन्हें क्या पड़ी है? ये मिथ्या बातें सीखेंगे भी कैसे? इन्हें सिखाएगा भी कौन? सो भी बीसियों गाँवों के हजारों को? हो न हो, अनहोनी बात जरूर हो गई और वह बिजली की तरह चारों ओर दौड़ गई। बस बच्चों ने उसे ही पकड़ लिया। सयानों ने भी सुना होगा जरूर। मगर ये लोग तो दलील ही करते होंगे कि यह गैर-मुमकिन है। इसीलिए मालूम होता है इनके दिलों में यह बात बैठी ही नहीं। फलत: भूल गए। मगर बच्चों में तो यह होना सम्भव नहीं। इसीलिए वे भूले नहीं और चिल्लाते हैं। यह भी सम्भव है कि बड़े-बूढ़ों के पास ब्राह्मण रोया गाया हो जिससे वे चुप हैं।

    नतीजा यह हुआ कि पंचों के दिमाग में यह बात बखूबी बैठ गई कि गाय अवश्य ही तेली की है। ब्राह्मण का दावा सरासर झूठा है। तेली का बयान बिलकुल सही है कि अनहोनी बात हो गई और एकाएक उसके बैल के पेट से एक दिन यह गौ बाहर आ गई। दुनिया में असम्भव तो कोई बात हई नहीं। भगवान की लीला अपरम्पार है। उसे कोई पार पा सकता नहीं। सब बातें तर्क और दलील से ही सिद्ध नहीं की जा सकती हैं। ईश्वर की माया को भुला नहीं सकते। वह सबकुछ कर सकती है, 'मायां सर्वसम्भव:।' इसके बाद तेली के घर पर पंच लोग गए। वहीं ब्राह्मण को भी बुलवाया। अपार भीड़ थी। मुकदमा निराला जो था। देखने के लिए लोग टूट पड़े थे। अन्त में पंचों ने अपना निर्णय सुना दिया कि ब्राह्मण का दावा झूठा है। गाय तो तेली की ही है। सचमुच अनहोनी हुई है और उसके बैल के पेट से ही यह निकली है। इसीलिए तो दूसरी जगह से खरीदने, मिलने आदि का सबूत नहीं मिलता। नहीं तो भला नादान बच्चों को क्या पड़ी है कि चारों ओर उनकी यही पुकार हैं। कहीं दूसरी आवाज सुनते ही नहीं।

    इस प्रकार न्याय, धर्म और सत्य के नाम पर जो ब्राह्मण फूला बैठा था उसे टका-सा जबाव मिल गया। उसी के माने पंचों ने उसे अँगूठा दिखा दिया और उसे गाय से सदा के लिए हाथ धोना पड़ा। जो किसान लोग उस ब्राह्मण की तरह न्याय की आशा में कचहरियों और पंचायतों में दौड़ते हैं वे भी उसी प्रकार ठगे जाते हैं। और अन्त में अपना-सा मुँह लेके बैठ रहने को बाध्‍य होते हैं। उन्हें कानून, धन और धनिकों की चातुरी के मायाजाल का पता पीछे चलता है। तब पछताते हैं वे जरूर। मगर खेद यही है कि फिर भी उनकी ऑंखें नहीं खुलती हैं। उनकी बात सुनता है कौन? जिधर जाइए उधर ही मालदारों के ही पक्ष की पुकार सुन पड़ती है। उलटे किसानों पर डाँट पड़ती है और बेईमान बनाए जाते हैं। पण्डित, साधु, फकीर, पुजारी, वकील, पढ़े-लिखे लोग सभी धनिकों का ही गुणगान करते हैं। सभी उन्हीं का पक्ष समर्थन करते हैं। 'लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।'

   19.2.41। एक बार एक किसान से बात हुई। हजरत की जाति तो सदा से खेती करती आई है। अतएव उनकी जाति ही खाँटी किसानों की जाति है जिसे कोइरी कहते हैं। मगर उनके साथ एक दिक्कत हो गई थी। सौभाग्य या दुर्भाग्य से उनके पास नाममात्र को जमींदारी थी जिसकी आमदनी साल में शायद ही सौ- दो सौ रुपए भी हो। हाँ, काश्तकारी या रैयती जमीन पचास-साठ बीघे से कम न थी। फिर भी उन्हें जमींदार होने का गर्व था। उनने बात-बात में ही एकाएक कह दिया कि हम तो किसान नहीं हैं, जमींदार हैं। मैंने समझा, दो-चार हजार की आपकी जमींदारी तो अवश्य ही होगी। नहीं तो तपाक के साथ जमींदार कहने का मतलब ही क्या हो सकता है? परन्तु अब असलियत का पता चल गया तो मैंने कहा कि यह तो अजीब बात है कि खेती करते ही हैं और रैयत जमीन भी काफी है। उसी में अधिकांश खेती होती है। जमींदार वाली जमीन एक तो नाम के ही लिए है। दूसरे वह तो प्राय: औरों के ही हाथ है। आप लगान ही पाते हैं। फिर भी अपने को किसान न कह के जमींदार कहने के क्या मानी हैं? आखिर आपकी गुजर काश्तकारी और किसानी से होती है या जमींदारी से? और अगर दोनों में एक ही रखने की नौबत आ जाए,क्योंकि समय ऐसा आ रहा है कि दोनों रखना असम्भव हो जाएगा,तो आप किसानी पसन्द करेंगे, रैयती जमीन रखेंगे या जमींदारी? उनने चट कहा कि रैयती जमीन के बिना तो काम चली नहीं सकता। जमींदारी चली भी जाए तो उसी जमीन से गुजर-बसर होगी। इस पर मैंने कहा कि तो फिर जमींदार बनने और उसका टिमाग रखने से क्या फायदा?

    इतने लम्बे लेक्चर के बाद कहीं जाकर बात उनकी समझ में आई। मगर आगे चलकर टिकी रही, या फिर उनके दिमाग से भाग गई, इसका पता नहीं। असल में किसानों की आदत 'रामखुदैया' की है। वे ऐसे दुविधो में पड़े हैं कि न इधर के न उधर के। जिस सज्जन की बात अभी कही गई है, ऐसे किसानों की एक काफी संख्या हमारे देश में है। ऐसे भी किसान कम नहीं हैं जो अपनी ही (जमींदारी की) जमीन में खेती करते हैं। उनके पास प्राय: खेती-भर ही जमीन है। जिससे गुजर करते हैं। मगर फिर भी बजाय किसान के जमींदार होने का उन्हें फक्र है। ऐसे लोग अपने को काफी कुशल समझते हैं। मगर इस कुशलता और चालाकी से खुदा हाफिज, उन्हें भगवान ही बचाए। उनकी यह 'रामखुदैया', कभी राम और कभी खुदा कहने की सनक, उन्हें रसातल ले जा रही है और ले जाएगी। किसान होने का अभिमान न होके जमींदारी का गर्व। यह कितनी खतरनाक चीज है। इसी मनोवृत्ति ने हमें जहन्नुम में मिलाया है। हम समझी नहीं सकते कि हमारे लिए भली चीज कौन सी है। इसीलिए दो नावों पर चढ़ना चाहते हैं। फिर भी ताज्जुब तो इस बात का है कि इस जबर्दस्त नादानी को ही बुद्धिमानी समझते हैं। जितना शीघ्र हम समझ जाएँ, जितनी जल्दी यह नशा हम पर से उतर जाए उतना ही अच्छा। किसान और अन्नदाता बनने का, हल वहने का, हलधर बनने का फक्र हमें फौरन हो जाए तो बेड़ा पार है। किसान को छोटा समझने की भारी भूल ने ही तो हम पर यह विपदा लादी है। अब भी तो चेतें और उससे पिण्ड छुड़ाएँ।

    ऐसे किसान सहस्र-सहस्र की संख्या में सदा मिलते हैं जो जमींदारों के जुल्मों की शिकायतें करते फिरते हैं। वास्तव में उन्हें जमींदारों ने न सिर्फ लूटा है, किन्तु बुरी तरह अपमानित किया है, बेइज्जत किया है। मगर जरा ऊँची जाति के कहलाते हैं। इसीलिए वह बेइज्जती बुरी तरह उन्हें खलती है। अभी भी खाने-पीने का काम चला जाता है। इसलिए जमींदार के जुल्मों पर उन्हें ज्यादा क्रोध होता है। वह कभी-कभी सक्रिय भी होता है और वे लोग जमींदार को मिटाने पर भी तुल जाते हैं। उसके प्रति भयंकर क्रोध और जलन तो उनके दिलों में हई। फलत: जमींदार नाम सुनते ही चौंक पड़ते हैं। ठीक ही है। सतानेवाले के प्रति यदि यह मनोवृत्ति, यह भावना न हो तो जुल्म का खात्मा कभी होई नहीं।

    मगर उन किसानों का खुद व्यवहार कैसा होता है? यदि सौभाग्य से, या दुर्भाग्य से उनके पास दस-पाँच बीघा भी जमींदारी हो जिसे दूसरे किसान जोतते हों, तो उनके साथ उनका सलूक कैसा होता है? खासकर यदि वे तथाकथित 'रैया' समाज के हों तब उन्हें किस नजर से देखते हैं? तब तो सारा मामला ही पलट जाता है और वे बिलकुल ही बदल जाते हैं। एक ओर तो चाहते हैं कि उनका जमींदार या तो उनसे लगान कतई वसूले ही नहीं, या अगर वसूले भी तो बहुत ही कम। घटा दे। क्योंकि बहुत ज्यादा है। और वह वसूली भी हमारी मर्जी के मुताबिक हो। हम जब चाहें तभी उसे दें। मगर इसके ठीक उलटा जब महज टुटपुँजिया जमींदार के रूप में अपने किसानों के पास जाते हैं तो फौरन कौड़ी-कौड़ी वसूल लेना चाहते हैं। घटाने की बात ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा इजाफा करके लेना चाहते हैं। इसके लिए कोई भी ज्यादती उठा नहीं रखते। और अगर दुर्भाग्य से किसान 'रैयान' हुआ तब तो कुछ कहना ही नहीं। तब तो जूते से ही बातें करते हैं। गालियों का तो कहना ही क्या? कितनी विचित्रता है। अपने जमींदार के जूते, उसकी गालियॉं बिलकुल ही भूल गईं। ऐसी विस्मृति रसातल चली जाए। ऐसी खतरनाक अक्ल में आग लग जाए। 'जैसे को तैसा मिलै।' वाले नियम को वे क्यों भूल जाते हैं? वे क्यों नहीं सोचते कि हम अपने किसान के साथ जैसा करेंगे हमारे साथ भी हमारा जमींदार वैसा ही करेगा? हमें उससे दूसरे प्रकार के व्यवहार की आशा करने का हक रही नहीं जाता, जब तक हम खुद अपना रवैया नहीं बदलते, यह बात जब तक सभी किसान नहीं समझते तब तक उनका उद्धार नहीं होगा। यह दोनों तरफ से खुद फायदा उठाने की चालाकी डुबाएगी। यह चालाकी भाड़ में जाए।

    हम स्वयं तो अपने किसानों से हरी लेंगे, बेगार कराएँगे। उन्हें दबाएँगे और अपमानित करेंगे और चाहेंगे कि जमींदार हमारे साथ ऐसा न करें। क्या यह दिमाग का दिवालियापन नहीं है? ऐसा करने वाले अपने को बेशक बहुत ज्यादा चतुर समझते हैं। मगर यह तो और कुछ नहीं, केवल चातुरी की अपच है। किसान सभा का जन्म इसलिए नहीं हुआ है कि कुछ खास लोगों के जुल्मों को ही मिटाए। उसका तो काम ही है जुल्म मात्र को खत्म करना और शोषण को इस भूमंडल से निकाल बाहर करना। यदि किसी के भी जुल्म को बर्दाश्त करे, कम से कम उसे देख के उसके पदाधिकारी सिहर न जाएँ, काँप न उठें तो वह किसान सभा कहाने का दावा कर नहीं सकती। जो किसान अपने किसान के साथ ही नहीं। किन्तु अपने कमिया और हलवाहे के साथ बराबरी का, भाईचारे का और मनुष्यता का व्यवहार दिल से नहीं करता वह सच्चा किसान नहीं है। उसे किसान सभा से सहायता पाने का हक नहीं है। किसान के मातहत जो किसान हैं जिन्हें शिक भी (under Tenant of tenant at will) कहते हैं उनके साथ भी अपने भाई जैसा सलूक करना ही होगा। हम जमींदारों से जैसा सलूक अपने साथ चाहते हैं हमें उन किसानों के साथ पहले खुद वैसा ही करना होगा। हमारा कमिया और हलवाहा हमारे साथ यदि प्रेम करने लग जाए, यदि हम अपने प्रेम में उसे फाँस लें, न कि मजदूरी के बल पर ही उससे काम कराएँ, तो हमारी शक्ति असीम हो जाएगी और जमींदार हमारे सामने खामख्वाह झुक जाए। कमिया में अपार शक्ति है। वह पारसमणी है। यह बात जो किसान नहीं जानता वह पारस को मामूली पत्थर समझ ठुकराने वाला नादान है, गो वह अपने को बहुत बुद्धिमान मानता है। जमींदार तो सड़क पर पड़ा हुआ पत्थर का टुकड़ा है। सड़क कूटने वाले इंजिन (Steam-roller) की तरह बन के किसान उसे चूर-चूर करना चाहता है। मगर दुखिया कमिया और हलवाहा उस इंजिन की सूराख है जिससे भाप निकल भागती है। फलत: इंजिन चल सकता ही नहीं।

    हमने ऐसे किसानों से जाने कितनी बार बातें की हैं जो जमींदारों के गुमास्ता, पटवारी, बराहिल, अमीन और प्यादे वगैरह बनके काम करते और पैसा कमाते हैं। उनके घर वाले ही नहीं, किन्तु पास-पड़ोस के लोग भी उन्हें सौभाग्यशाली और कुशल मानते हैं कि पैसे कमा के खानदान की परवरिश कर रहे हैं। यही है दुनिया का तरीका। मगर उन पटवारियों ने, गुमास्तों ने और दूसरों ने खुद कहा है कि वे जिस जमींदार के नौकर हैं उसी ने, या दूसरे जमींदार ने भी उनकी जमीनें इसलिए नीलाम करवा लीं कि वे लगान दे न सकें। वह ज्यादा था। फसल भी मारी गई। फिर देते कैसे? इसीलिए अब नौकरी करके दिन काट रहे हैं। उनने यह भी कहा कि जिस नीलामी के करते हम निराश्रय बने और टुकड़े के लिए यहाँ आए हैं वही नीलामी हम खुद करवाते हैं। हम ऑंखों देखते हैं कि फसल मारा पड़ी है। लगान भी ज्यादा है। फिर भी जमींदार के हुक्म से सख्ती के साथ लगान तो पाई-पाई लेने की कोशिश करते ही हैं। फलत: किसानों का खेत नीलाम होता है और वे सपरिवार मारे फिरते हैं।

    यह है हमारी, किसानों की, चातुरी का नमूना। हम ऐसे नालायक हैं कि जो हमारी जड़ खोदता है उसी की मदद इसलिए हमीं करते हैं कि हममें जो बचा बचाया हो उसकी भी जड़ खुद जाए। सो भी खुद हमारे ही हाथों। मेढक जब साँप के द्वारा पकड़ा जाता है तो उसे निगलने में खामख्वाह देर होती है। तब तक न तो वह मरता है और न उस पर साँप के ही जहर का असर होता है। मेढक बहुत शीतल जो होता है। इस बीच में देखा जाता है कि यदि कोई पतंगा उड़ता हुआ उस मेढक के निकट पहुँच जाए तो चट अपना मुँह खोल के उसे पकड़ने और हजम करने की कोशिश करता है। ठीक वही दशा जमींदारों के पटवारी, बराहिल आदि बनने वाले किसानों की है। वह खुद तो जमींदार के पेट में जा रहे हैं, जा चुके, जाने वाले ही हैं। मगर इसी बीच अपने भाइयों में जितनों को भी हजम कर सकें, चौपट कर सकें उतना ही अच्छा समझते हैं। कहाँ तो चाणक्य की तरह संकल्प कर लेना चाहिए कि जमींदारी को उखाड़ के उसकी जड़ में मठा देकर ही दम लेंगे और कहाँ उलटे ये नालायक उसे सींचते हैं। फिर भी अपने को लायक समझते हैं। इस लायकी के खिलाफ, इस चतुराई के विरुद्ध हमें धावा बोलना होगा, जेहाद जारी करना होगा यदि अपना कल्याण चाहते हैं।

    कहते हैं कि लड़ाई में किसी स्त्री का पति लड़ने गया था। जब लौटा नहीं तो उसने समझ लिया कि मारा गया। मगर कम से कम उसकी लाश तो मिले तो उसी के साथ सती हो जाऊँ या उसका अन्तिम संस्कार खुद अपने हाथों करूँ, ऐसी फिक्र उसे हुई। परन्तु कोई उपाय न था। राजक्षेत्र में जाने की मनाही आम लोगों के लिए थी। अत: उसने योगिनी का रूप बनाया, हाथ में एकतारा लिया और 'योगिया को किन बिलमाया' गाती हुई चली। योगिनी को कौन रोके? वह अलख जगाती तथा गाती फिरती थी। उसके आवाज पति के कानों में पहुँची। वह जख्मी पड़ा था। उसने आवाज दी और उससे भेंट हो गई। ठीक उसी प्रकार खुद उजड़ किसानों को तो वेष बदल के जमींदारी में घुसना, अलख जगाना और अपना अवसर देखना चाहिए। ताकि उसकी आवाज को दूसरे किसान समझ के जमा हों, संगठित हों और अपना काम बनाएँ। यह रुपया कमाना कैसा? यह जमींदार की सचमुच नौकरी और फर्माबरदारी कैसी? यह नौकरी नहीं है। किन्तु शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि नामक मछलियों जैसी चतुराई की अपच है।

    अकसर देखा जाता है कि किसान सभा का जब आन्दोलन तेज होता है, बकाश्त की लड़ाई छिड़ती है, या इसी प्रकार के दूसरे काम होते हैं तो सभी किसान पहले जमा हो जाते, पंचायत करते और उस आन्दोलन में शामिल होते हैं, संघर्ष चालू करते हैं। काम तेज होता और आगे बढ़ता है। जमींदार और उसके अमले बुरी तरह घबराते हैं। उन्हें रास्ता सूझता ही नहीं कि कैसे इस तूफान से पार पाएँ। इतने में उनकी नजर किसानों पर जाती है। वे उन्हें गौर से देखने लगते हैं कि इनमें कौन कैसा है। अन्त में उन्हें पता लगी जाता है कि खासतौर से कौन-कौन से किसान चलते पुर्जे या इस आन्दोलन की जान हैं। बस, उन्हें ही फँसाने की धुन उन पर सवार होती है और अन्ततोगत्वा जमीन दे कर, नौकरी दे दिला के या कुछ रुपए पैसे ही के बल से कुछ को वे अपने वश में कर ही तो लेते हैं। और नहीं तो दबाव डलवाते और सम्बन्धियों की सिफारिशें ही पहुँचाते हैं। इस प्रकार जैसे तैसे उन्हें वश में करके आन्दोलन को दबाते हैं, दबाना चाहते हैं। वे चलते पुर्जे किसान भी खुश होते हैं कि चलो, हमारा काम तो बनी गया।

    मगर हम कहेंगे कि यह वही अक्ल का अजीर्ण है। न कि उनका काम बना है। मौत किसी की मित्र नहीं। वह एक साथ सभी को नहीं मारती, इसीलिए नहीं मरनेवाले यदि उसे अपना मित्र मानने की नादानी करते हैं तो करें। मगर एक दिन होगा जब उन्हें भी वह ग्रसेगी ही। उसी प्रकार जमींदार किसानों का मित्र हो सकता नहीं। वह तो मौत से भी बुरा है। हाँ, होशियार है। इसलिए सब पर एक ही बार धावा बोलने की नादानी नहीं करता। लेकिन एके बाद दीगरे सभी को खत्म करता है, खत्म करेगा, यह धु्रव सत्य है। हमने अपनी ऑंखों देखा है कि जो लोग जमींदारों से मिल के किसानों पर आफतें ढाते थे, समय आने पर और अपना काम बन जाने पर जमींदार ने औरों को मिलाया और उन्हें ही सर करना शुरू कर दिया। वह तो चाहता ही है कि एक को मिला के दूसरों को पस्त करूँ। फिर तो यह एक बाकियों का शत्रु हो ही जाएगा। फलत: आगे चल के बाकियों में कुछ को मिला के इसे भी आसानी से दुरुस्त कर लूँगा। यही रवैया बराबर जारी रहता है। किसानों का फर्ज है कि इस मर्ज को, इस बीमारी को जड़-मूल से मिटा डालें, ताकि 'न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी।' खुदा से चोरी करनेवाला मुसलमान रोजे के समय तालाब में डूबके पानी पिया करता था। पीछे कहता था कि क्या मैं खुदा से भी चोरी करता हूँ? मगर एक दिन पानी पीने के समय जब गले में टेंगरा मछली अटकी और हजरत के मरने की नौबत आई तब यह चोरी पकड़ी गई। ठीक वही हालत जमींदारों से मिल जाने वाले जरूरत से ज्यादा चालाक इन किसानों की भी होनी है। अत: इस चोरी से बचें, किनाराकशी करें। तभी भला होगा।

    ऐसे किसान मन ही मन समझते हैं कि हमने अपने दुश्मनों को खूब ही छकाया। यही जमींदार लोग हमें मिटाने पर तुले बैठे थे और आज यही हमारी खुशामद कर रहे हैं। हम आज उन्हीं के माथे पर सवार होके अपना काम बना रहे हैं। कम से कम हमारे सामने तो ये लोग दबे। यही क्या कम है? आखिर दुनिया तो मतलब की ही है। सभी अपना-अपना काम निकालते हैं। हमने भी अपना काम बना लिया। उनके भाईबन्धु भी खुश होते हैं कि चलो खूब ही हुआ। जमीन मिली। खुशामद हुई। रुपए-पैसे मिले। जो जमींदार हमारे खून का प्यासा था उसी ने अपना खून हमें दिया। अपनी इस कुशलता के बारे में उनकी बहक भी काफी होती है। खूब बढ़-चढ़ के बोलते हैं। मगर उन्हें पता नहीं कि बलिदान के बकरे की तरह ही उनकी यह पूजा हो रही है और उन्हें माल चभाया जा रहा है। फर्क इतना ही है कि जहाँ बकरा अकेला बलिदान होता है तहाँ ये हजरत अपने हजारों भाइयों को जिबह कराने के बाद खुद भी उसी घाट उतारे जाते हैं। असली हित तो वही है जो शुरू में कुछ कड़वा एवं दु:खद होने पर भी अन्त में सुखद तथा मधुर रहे। जो आरम्भ में सुन्दर हो, मगर परिणाम में जहरीला वह अहित ही होता है। यही बात यहाँ भी है।

    यह सोचना भी कि जमींदार के साथ देर तक लड़ने में परेशानी काफी होगी, तबाही भी कम न होगी, परिणाम भी अनिश्चित ही रहता है। इसलिए यदि इन सभी नुकसानों को बचा के हमने अपने लिए कुछ कमा भी लिया तो बुरा क्या किया? यह तो व्यवहार कुशलता ही हुई, कोई यथार्थ अक्लमन्दी नहीं है। हद से ज्यादा लोभ करना और बचने बचाने की कोशिश करना अन्त में धोखा देता है, खतरे में डालता है। सर्वत्र एक ही पाठ पढ़ना कि जैसे हो तैसे अपने लिए कुछ संचय कर लिया जाए, बचा लिया जाए, परले दर्जे की बेवकूफी है, चाहे उसे चालाकी भले ही कहा जाए। सोचना तो यह चाहिए कि इस बचाव और किफायत में कोई खतरा तो नहीं है। देखना चाहिए कि हम जो यहाँ प्राप्ति कर रहे हैं, वह आगे चलके हानि तो नहीं सिद्ध होगी। विष से मिले दूध की प्राप्ति को प्राप्ति कहना कौन सी अक्ल है?

    कहते हैं, एक सियार काफी चतुर और किफायतशार था, कंजूसी से काम करता था। किसी किसान के खेत में मक्की लगी हुई थी। उस पर सियारों का हमला होता रहता था। उन्हें मारने के लिए उसने तीर और कमान का प्रबन्ध किया था। जहाँ आहट हुई कि सन्न-सन्न तीर चलने लगे। इससे सियार लोग पनाह माँगते फिरते थे। मगर एक बार ऐसा हो गया कि उसने तीर तो कमान पर चढ़ाया और उसे चलाया भी। फिर भी वह किसी चट्टान से टकरा के उलटे लौटा और किसान के ही कलेजे में ऐसा आ लगा कि हाथ में कमान लिये ही वह लहूलुहान हो गया। खून का फौव्वारा कलेजे से ऐसा छूटा कि कमान की तांत पर उसकी मोटी तह जम गई। किसान वहीं फौरन चल बसा।

    इतने में वह चतुर सियार उधर आ निकला। भूखा तो था ही। उसने दुश्मन चित पड़ा देख खूब खुशी जाहिर की। लाश के पास आया और नाचा-कूदा। फिर भोग लगाने चला तो सोचा कि हिसाब से ही खाऊँ तो कई दिन काम चलेगा। मुर्दा काफी बड़ा है। कंजूसी से खाना ठीक है। जरा भी नुकसान करना अच्छा नहीं है। बहुत मुद्दत पर शिकार हाथ लगा है। कहाँ से खाना शुरू करें यह सोचकर उसकी नजर कमान की तांत पर जमी खून की मोटी तह पर गई। उसने सोचा कि पहले उसे ही खा लें। मीठी भी होगी और पीछे वह तो यों ही चली जाएगी। बस, उसी पर दाँत लगाया। थोड़ा ही चाट पाया होगा कि ताँत कट गई और एकाएक ऊपर उछल के कमान की एक नोक सियार के पेट में ऐसी आ लगी कि वह भी वहीं ढेर हो गया। इस प्रकार उसकी जरूरत से ज्यादा चालाकी ने उसी का काम-तमाम किया। ठीक वही दशा ऐसे किसानों की होती है। शत्रु से फायदा उठाने वालों की यही हालत होती है।

    जब तक किसानों में चेतना नहीं है जब तक उन पर किसान आन्दोलन का असर नहीं होता, जैसे तैसे अपना काम चलाते रहते हैं। कभी इधर दौड़ते और कभी उधर पहुँचते हैं। रोना-गिड़गिड़ाना, आरजू-मिन्नत करना और जमींदारों या उनके अमलों की खुशामद में लगना उनका एक काम होता है। ठीक ही है 'आरत के चित राहत न चेतू।' वे समझ भी तो नहीं पाते कि यदि वे बकरी हैं तो जमींदार बाघ है। फिर दया क्यों करेगा? पुराने दकियानूसी खयालों के करते जमींदार को माँ-बाप मानते और पुकारते हैं। कभी-कभी उदात्त स्वार्थ या दूरअंदेशी के विचार से उनके साथ जमींदार की जरा-मरा रिआयत भी होई जाती है। वह समझता है, इनमें चेतना नहीं है। अत: मेरे आभारी बनेंगे जिससे आगे काम निकलेगा। पुराने जमींदारों में यह बात देखी जाती थी।

    मगर जब किसान सभा का घोर और व्यापक आन्दोलन चल पड़ा है, जब दुनिया में चारों ओर वर्ग संघर्ष का नारा बुलन्द हो रहा है, जब यह माना और खुल्लमखुल्ला कहा जाने लगा है कि जमींदारी मिटाए बिना खैरियत नहीं, इसे तो जैसे हो बिना एक कौड़ी दिए ही खत्म करना ही होगा। और जमीन का मालिक किसान ही होगा, तो भी वही बात देखी जाती है। एक ओर तो जमींदारी मिटाने की बात को किसान हृदय से पसन्द करता है। इस आन्दोलन में काफी सहायता भी यथाशक्ति करता है। जहीं देखिए तहीं किसान मर्द-औरतें, बच्चे जमींदारी प्रथा नाश हो, किसान राज्य कायम हो, जमीन किसकी? किसानों की आदि पुकार मचाते रहते हैं। मगर दूसरी ओर जब जमींदार पहले जैसी रिआयतें जरा भी करने को तैयार नहीं होता, बेढंगे कानूनी शिकंजे में किसानों को फँसा-फँसा के उनकी रही-सही जमीनें भी छीनता है, या छीनने की कोशिश करता है, तो किसान की सब गर्मी ठण्डी हो जाती है। वह घबरा जाता है और दौड़ा-दौड़ा किसान सभा में आता है। वहाँ फरियाद करता है कि जमीन गई। वह मिलती नहीं। जमींदार सुनने को रवादार नहीं। आप लोग चल के या कह-सुन के दिलवा दें। उसे वाकई इस बात का विश्वास रहता है कि किसान सभा जबर्दस्त चीज है। अत: किसान नेताओं के कहने से जमींदार खामख्वाह मान के जमीनें दे देगा और और जुल्म कम करेगा,बन्द करेगा। वह मानते हैं कि किसान सभा ऐसा जरूर कर देगी। और अगर ऐसा न किया गया, अगर किसान सभा इस झमेले में नाहक पड़ने से दूर रही, तो किसानों के मन में खयाल होता है कि सभा तो कुछ करती ही नहीं। गोया जमींदार के दरवाजे पर जाके नाक रगड़ना ही सबकुछ करना है, और अगर सभा ने, नेताओं ने यह नहीं किया तो कुछ नहीं किया। यह आम बात है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि ऐसी फरियादों से तबीयत ऊब उठती है।

    यह कितनी खतरनाक बात है। जब किसानों में जागृति आई, उनकी ऑंखें खुलीं और उनने असलियत समझी या समझनी शुरू की, तब यह बात कैसी? एक ओर जमींदारी मिटाने और खुद जमीन के मालिक बनने का दावा करना, तूफान मचाना, नारे लगाना, और दूसरी ओर उसी साँस में जमींदार से रिआयत भी चाहना। रिआयत की आशा भी करना। जिसे मटियामेट कर देने पर आप कमर कसे तैयार बैठे हैं और इस बात की खुले आम घोषणा कर चुके हैं, ऐलान कर चुके हैं उसी से रिआयत की आशा। सो भी किसान सभा के जरिए। यह तो 'बाँड़ खुद तो गए ही मगर नौ हाथ का पगहा भी लेते गए' वाली बात हो गई। आप स्वयं तो यह जरूरत से ज्यादा अक्लमन्दी करी रहे हैं मगर अपने साथ किसान सभा को जबर्दस्ती घसीटना चाहते हैं और अगर सभा ने इस खतरनाक बुद्धिमानी से पनाह माँग ली, तो उसी पर बिगड़ने लगे। आपने गाढ़ी भाँग पी ली है, तो खैर, मगर सभा को भी क्यों पिलाना चाहते हैं? यह बेहद चालाकी का नशा उस पर चढ़ाने की कोशिश क्यों करते हैं?

    'दुई कि होई एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला'' के अनुसार दोनों बातें कैसे हो सकती हैं? जमींदारी मिटाइएगा भी, उसे छीनिएगा भी और जमींदार से दोस्ती भी रखिएगा? आखिर रिआयत चाहने का और अर्थ होई क्या सकता है? शत्रु के साथ तो मेहरबानी या रिआयत की जाती नहीं। वह तो मित्र के साथ ही या कम से कम ऐसे आदमी के साथ की जाती है जो शत्रु नहीं है। मगर आप तो हैं करारे शत्रु। आप तो डंका पीट के इसकी घोषणा करते हैं। आप तो डंके की चोट जमींदारी को भगाना चाहते हैं, उसे पिंडा पानी देके सदा के लिए उससे छुटकारा पाना चाहते हैं। फिर भी रिआयत कैसी? आखिर जमींदार तो नादान है नहीं। यदि आपको चालाकी का नशा है तो उसे क्यों हो? उसको इसका अजीर्ण क्यों हो? वह तो भरसक एक भी ऐसी बात करने से बाज न आएगा जिससे आपकी नाकों दम हो जाए, आप ऊब के किसान सभा से हट जाएँ, उसके सामने अंटा चित गिरें, घुटने टेक दें। आखिर लड़ाई ही तो ठहरी, फिर उसमें दाँव-पेंच घात की जगह, भी जान से लड़ने और जूझने के स्थान पर, यह दया, कृपा और रिआयत का सवाल कैसा? यह असमय की होली, बेवक्त का राग कैसा? और अगर किसान सभा आपके इस राग सुर में अपना सुर न मिलाए तो उसे धन्यवाद देने तथा उस पर खुश होने के बजाय यह रंजिश कैसी? बल्कि जो सभा या उसके लीडर ऐसा करें उन्हीं पर रंज होना चाहिए। क्योंकि वह वर्ग युद्ध का रास्ता छोड़ मेल-जोल का मार्ग पकड़ते हैं। अत: उनसे धोखे हैं। हाँ, आपकी और हमारी, किसान सभा की, लड़ाई से हार के यदि जमींदार गिरे और समझौता चाहे तो बात दूसरी है। तब हम देखेंगे कि क्या करना चाहिए। परिस्थिति के अनुसार ही उस समय हम कुछ भी कर सकते हैं, समझौते और रिआयत की बात सोच सकते हैं। मगर जब तक वह अकड़ के खड़ा है और झुकना नहीं चाहता तब तक तो यह बात सोचना हमारे लिए बुरा है। धोखे की बात है। हम धोखा खा सकते हैं यदि इसमें पड़े।

        यह वर्ग युद्ध और वर्ग संघर्ष जिसके फलस्वरूप ही जमींदारी मिटाने, या किसान मजदूर राज्य कायम करने की बात कही जाती है, मामूली नहीं है। यह बड़ा ही महत्तवपूर्ण मसला है। यदि किसानों ने इसे बखूबी समझ न लिया यदि उनने इसका रहस्य, इसके सभी पहलू रत्ती-रत्ती जान न लिये तो कुछ न होगा और सारी मेहनत अकारथ जाएगी। सिर्फ जान लेने से ही काम न चलेगा। बराबर ही सौदा कम तौलने वाले किसी बनिये से कहिए कि यह काम बुरा है, यह तो चोरी है, बेईमानी है तो वह भी चटपट कह बैठता है कि हाँ, हाँ, मैं तो यह बात अच्छी तरह जानता हूँ मगर...। उसका यह मगर बड़ा ही खतरनाक है। यही तो उसके जानने को न जानना कर देता है, जानने को बेकार कर देता है। यह ऐसा मगर है कि गज को ग्रस लेता है। यह ऐसा अगस्त्य है कि समुद्र को सोख लेता है। यह ऐसा भस्मक रोग है कि सारे खाए-पिए को जला देता है और रस बनने देता नहीं। किसान के हर ऐसे काम में, हर ऐसी जानकारी में यही मगर लगा हुआ है। वह भी कहता है कि मैं तो मानता हूँ कि बिना बेमुरव्वती के साथ दिल खोल के प्राणपन से जमींदार के साथ लड़े, वर्ग संघर्ष किए, न तो जमींदारी मिटेगी और न हमारा दु:ख ही दूर होगा। यह तो मुझे अब मालूम होई गया। इसमें तो कोई शक नहीं है। मगर, बस, हर जगह यह 'मगर' आ धमकता है, मुँह बाए हुए और सभी को ग्रस लेता है, सब किए-कराए और समझे-बूझे पर पानी फेर देता है। यही कारण है कि वह किसान सभा के द्वारा जमींदार से सिफारिश करवाना चाहता है। यही कारण है कि वह जग के सोता है।

    इसलिए उसका कर्तव्य है, हमारा कर्तव्य है, किसान सभा का और किसान सेवकों का कर्तव्य है कि इस मगर को मार डालें। ऐसा करें कि यह दीखे नहीं। तभी संघर्ष की सफलता होगी, तभी यह ठीक-ठीक चलाया जा सकेगा। तभी किसान वर्ग-संघर्ष और वर्ग युद्ध का रूप जान सकेगा, यह महसूस करेगा, साक्षात्कार करेगा, अनुभव करेगा, रिअलाइज (Realise) करेगा, फील (Feel) करेगा। हम केवल जानकारी नहीं चाहते हैं, जिस प्रकार किताबें पढ़ के लन्दन, पेरिस, बर्लिन, मास्को की जानकारी करते हैं। नहीं, नहीं, हमारी ऑंखों के सामने वह चीज साकार बनके नाचती रहे ऐसी हालत को जानकारी कहते हैं। जब कोई बात हमारे दिल दिमाग में, रग-रग में, खून-मांस में, बिंधा जाए, चुभ जाए, और पल-पल पर खटकती रहे, कदम-कदम पर चुभती रहे, तब हमें उसकी सच्ची जानकारी कही जा सकती है। वही अनुभव, साक्षात्कार, अहसास Realisation, feeling है। जब वह हमें मतवाला बना दे, मस्त बना दे, अधीर, उतावला desperate बना दे, उसे पूरा कर डालने के लिए आतुर और विकल बना दे, बेचैन बना दे, तभी उसकी वास्तविक जानकारी मानी जाएगी जिसकी हमें जरूरत है।

    किसान समझ लें कि वर्ग युद्ध में पड़ने पर जमींदार, सरकार और उनके मददगार, सलाहकार हमें ग्रस लेने, मिटा देने, पस्त कर डालने की सारी कोशिशें पत्थर का दिल बना के करेंगे। वह रिआयत और मेहरबानी का नाम भी नहीं ले सकते। हम उजड़ें नहीं, बसे रहें यह बात सोच भी नहीं सकते। उनकी चले तो हमें, हमारे साथियों को, हमारे परिवार और सगे-सम्बन्धियों को कच्चे ही चबा जाएँ। वह डण्डे से पीटे गए काले नाग और गेहुँवन साँप की तरह, अजगर की तरह फुफकारते रहेंगे, वह आग उगलते और जहर का वमन चौबीसों घंटे करते रहेंगे कि हम ससमाज उसी में दग्ध हो जाएँ, मर-मिट जाएँ, तहस-नहस हो जाएँ। वे वर्ग युद्ध का रहस्य खूब समझते हैं। वे यह युद्ध चलाना जानते हैं। पुश्त दर पुश्त से उन्हें इसकी शिक्षा मिली है। वे इसकी पूरी हिम्मत और धुन रखते हैं। उनके साथ कोई 'अगर, मगर...' नहीं लगा है। उन्होंने इस 'मगर' को कभी का मार डाला है। वह इसका खतरा खूब ही जानते हैं। वे तो इस लड़ाई को आखिरी समझ के लड़ते हैं, लड़ेंगे। वे तो इसके लिए सर्वस्व न्योछावर कर देंगे। वे तो मानते हैं कि 'अभी नहीं तो कभी नहीं' (Now or Never) । इसलिए किसी भी प्रकार चूकने वाले नहीं।

    किसानों को भी उनसे यही सीखना होगा। इस मामले में उन्हें ही अपना गुरु बनाना होगा और गुरुदक्षिणा के रूप में उन्हें जमींदारी की चिता, जो जल के खाक हो गई हो, उन्हें सौंपनी होगी। यह कोई हलवे का भोग नहीं है कि धीरे से गले के नीचे उतर जाए।

    यह तो निहायत ही तीखी और कड़वी दवा है, चिरायते का काढ़ा है जिसके पीते ही रोंगटे खड़े हो जाएँ और सारा शरीर झन्ना उठे। जमींदार तो किसान के साथ रिआयतें करना साँप को दूध पिलाना समझते हैं। अब किसान खुद सोचें कि जमींदारों के सामने दाँत निपोरना बेवकूफी और नादानी है या अक्लमन्दी? बेहयाई है या भलमनसी? उन्हें तो चाहिए कि जमींदार की परछाईं देख के भी दूर हट जाएँ। मछली फँसाने वाले बंसी में आटा या मांस लगा के पानी में उसे छोड़ देते हैं। उसी आटे या चारे के लोभ से मछली फँसती है। ठीक यही हालत जमींदारों की रिआयत की है। वह तो किसान को फँसा मारने के ही लिए चारे की तरह जरा-मरा सहूलियतें दे सकते हैं, देते हैं। सबसे बड़ी हानि जो इस आतुरता, दीनता और दया, भिक्षा से होती है। वह यह कि जमींदार यदि पस्त हिम्मत भी होता हो तो उसे हिम्मत आ जाती है कि अब किसान गिरने लगे। फलत: उन्हें दबाने के लिए और भी ज्यादा बन्दिशें करता और जोर लगाता है। कहते हैं कि 'यदि नाचना है तो मुँह क्या छिपाना?' उसी प्रकार यदि लड़ना है तो जमींदार के सामने यह दीनता कैसी? ओस चाट के प्यास बुझाने का यह यत्न कैसे उचित कहा जाए? तो क्या जमींदार की दी हुई सुविधा ओस से ज्यादा होती है? ज्यादा होगी? यदि कोई ऐसा सोचे तो उसे पागलखाने के सिवाय कहीं स्थान नहीं। जैसे कमान की ताँत में लगे खून-मांस के लोभ से सियार की जान गई, वैसे ही इस लोभ से किसान मारा जाता है।

    हमने देखा है कि किसानों के पास जीवनोपयोगी सभी पदार्थों का प्राय: अभाव रहता है। वे बराबर ही भूख, कपड़े, लत्ते, दवाओं की कमी आदि की शिकायतें करते रहते हैं। वे जब न तब इसी बात का रोना रोते पाए जाते हैं। बाप रे बाप, मर गए, लुट गए, पिस गए की चिल्लाहट सदा सुनाई पड़ती है। बात भी बनावटी नहीं है। यही तो असलियत है। मगर सिर्फ किसान सभा में, मीटिंगों में या किसान नेताओं के ही सामने यह रोना रोने से काम चलने का नहीं। संसार को, मतवाली दुनिया को, खुद किसानों के दुश्मनों को अच्छी तरह मालूम हो जाना चाहिए कि किसान सचमुच दुखिया और मजलूम हैं। वे समझ जाएँ कि यह दशा किसानों को बुरी तरह खलती और तीर की तरह पल-पल में, साँस-साँस में चुभ रही है। वे इससे ऊब चुके हैं। तभी वे डरेंगे, भयभीत होंगे और समझेंगे कि कहीं किसान क्रान्ति न कर बैठें, जान पर खेल के जूझने न लगें।

    लेकिन यह बात होती नहीं। किसान अपनी इस दशा का, इस मनोवृत्ति का, इस भावना का सबूत दुनिया को नहीं देता। किसान सभा में या ऐसे ही मौकों पर चीखने से लोग नहीं मानेंगे। समझेंगे कि यह तो बनावटी बातें हैं। जब तक किसान की रग-रग से, नस-नस से, साँस-साँस से, हर बोली, बानी, भाव-भंगी से, चेष्टा से यह बात टपक न पड़े तब तक बाहरी जगत को उसके रोने-चिल्लाने की सच्चाई पर विश्वास नहीं होगा। मगर ऐसा नहीं होता। हम देखते हैं कि जब कोई साधु, फकीर, पण्डित, पुजारी, विद्वान किसानों के पास पहुँचते हैं तो चटपट आत्मा-परमात्मा, जीव-ब्रह्म, पुण्य-पाप, नरक-स्वर्ग का पँवारा उमड़ जाता है। इसी बात की जिज्ञासा इसी का प्रश्नोत्तर चलता है। कनफुक्के गुरुओं के सामने भी यही कथा चलती है। और ये सभी मालदारों के एजेण्ट और दलाल हैं। इसीलिए यह सारा समाचार सर्वत्र फैलाते रहते हैं। फिर दुनिया कैसे विश्वास करे कि किसान दुखिया है। यदि कोई भूखा हो, जाड़े से काँपता हो, ज्वर से जलता हो तो इन साधु-फकीरों के सामने ये निरर्थक बातें करेगा, या कि रोटी, भात, वस्‍त्र, दवा का प्रश्न छेड़ेगा? वह खुद तो छेड़ेगा ही नहीं। परन्तु यदि दूसरे कोई भी ऐसा करना चाहें तो जल मरेगा। मगर किसान को तो अक्ल का अपच हो गया है जिसके लिए ये बातें चूर्ण का काम करती हैं। रोटी का प्रश्न चूर्ण या वटी तो है नहीं। हाजमा है नहीं। मगर यह तरीका गलत है, नाशकारी है, यह याद रहे। ब्रह्म, बैकुण्ठ, स्वर्ग कहीं भागे चले जाते हैं नहीं। उनके लिए कोई जल्दी नहीं है। पेट भर लेगा तो पीछे आसानी से उन्हें ढूँढ़ लेंगे। और भूख में या ज्वर में तो मिलेंगे ही नहीं, चाहे हजार चिल्लाएँ।

    एक बात और। जब तक किसानों में जागृति नहीं है तब तक तो शायद ही कभी ऊब के आतंकवाद की शरण वे लेते हैं। जब दूसरा कोई चारा रही नहीं जाता। आखिर करें भी क्या? मगर जब वे जगने लगते हैं तो या तो अवसरवादी(opportunists) और मालदारों के दलाल या अतिवादी (ultraleftists) लोग उन्हें गलत रास्ते पर ले जाना चाहते और आतंकवाद या जैसे क्रान्ति के नाम पर जल्दीबाजी करने की बातें हैं। इस प्रकार की गर्मागर्म बातें रुचती हैं सभी को। इसीलिए जनसाधारण की इस रुचि से वे अनुचित लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। किसान भी उधर झुकते हैं। वे समझते हैं कि विपदा दूर करने का सरल रास्ता मिल गया। इसमें नामवरी की भी गुंजाइश काफी रहती है। संसार का ध्‍यान भी ऐसे काम करनेवालों की ओर आसानी से आकृष्ट होता है। मगर है यह चीज बहुत ही गलत और निहायत ही खतरनाक। इसमें तो खतरे ही खतरे हैं। मैंने कभी-कभी कुछ सीधे-सादे नौजवानों को ऐसी बातें बड़े ही जोश के साथ करते देखा है। उनकी बातें सुनी हैं। वे अपने को बहुत ही चालाक समझते हैं। वे मानते हैं कि आतंकवाद का ही नाम, क्रान्ति है। बहुत ही विश्वासपूर्वक ऐसी बातें करते देख मुझे कष्ट भी हुआ है और रंज भी।

    मैं उन्हें और दूसरों को साफ सुना देना चाहता हूँ कि यह चालाकी किसानों को रसातल ले जाएगी,वे मिट जाएँगे इसका अनुसरण करते ही। इसलिए हमें इस प्लेग और संक्रामक रोग से किसानों को बचाना है। यही कारण है कि उन्हें चेतावनी दी जा रही है। क्रान्ति बच्चों का खिलवाड़ या नटलीला नहीं है। वह तो नई दुनिया का, नए जगत का निर्माण है। अतएव जब तक जनसमूह उसकी महत्ता, उसकी उपयोगिता और उसे लाने का मार्ग अनुभव नहीं कर लेता, जब तक उसे अडिग निश्चय और पक्की धारणा हो नहीं जाती कि उसके सिवाय और रास्ता हई नहीं, जब तक समस्त या अधिकांश जनता उसके लिए उतावली हो उठती नहीं तब तक वह हो सकती नहीं। आतंकवाद तो लड़कपन है और क्रान्ति समझदारों का काम है। आतंकवाद का काम यही होता है कि किसानों के संगठन एवं जनजागरण का काम छूट जाता है। और हम भटक जाते हैं, असली काम को छोड़कर नकली में पड़ जाते हैं। शोषकों एवं शासकों को इससे स्वर्ण सुअवसर मिल जाता है कि वह अपना आतंक कायम करके जगती हुई जनता को त्रस्त और पस्त कर दें, बहुत दिनों के लिए विचलित एवं निराश कर दें, किंकर्तव्यविमूढ़ कर दें। इसलिए इस खतरे से हमें बाल-बाल बचना होगा।

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