यह मेरी फितरत है
कि जहाँ जाता हूँ
चाहता हूँ कि मनुष्य ही मिलें
आत्माएँ नहीं
लेकिन मेरी हर कोशिश हो जाती है लहूलुहान
जब मनुष्य की तलाश में निकला मैं
मिलता हूँ विकट आत्माओं से
जिन्होंने जिंदा लोगों से नफरत करना सीख लिया है...
यह 2016 के दशहरे का समय था। हम अरावली के पश्चिम में स्थित मरुथल अर्थात
मारवाड़ क्षेत्र के जैसलमेर की तरफ सरपट भागे जा रहे थे। सिरोही, माउंट आबू,
उदयपुर, चित्तौड़गढ़, जोधपुर जैसी खूबसूरत जगहें एक-एक कर स्मृति में अंकित
होती जा रहीं थी और जैसलमेर के जैसल भट्टी राजाओं की कथाएँ मष्तिष्क में अकुला
रही थीं जिसमें रास्ते का 'पोकरण' और 'लोंगोवाल पोस्ट' को देखने की विकराल
बेचैनी रह-रह कर उछाल मार रही थी। इसके साथ ही गढ़ीसर तालाब के निकट 'टिल्लो की
दीवानगी' भरी सुनी हुई कथाएँ भी बेचैन किए हुए थीं जिसमें शाम में सम में नम
रेत की छुवन के अहसास से मन रोमांचित हो रहा था।
यह जैसलमेर यूँ तो पश्चिमी सीमांत के रेगिस्तान क्षेत्र में बसा है किंतु सबसे
प्राचीन व्यापारिक मार्ग होने के कारण इसका महत्व बहुत पहले से रहा है।
प्रकृति की सूखी टहनियों और उड़ती हुई रेत के बीच यह क्षेत्र व्यापार, संस्कृति
और संघर्ष का प्रमुख केंद्र रहा है जो स्वाधीन भारत में पाकिस्तान से सटे होने
के कारण सामरिक महत्व का भी क्षेत्र है। कह सकते हैं कि इतिहास के गुजरते समय
में जैसलमेर अपनी शुष्क सीमाओं में सरस और सार्थक रहने का विकल्प भी खोजता रहा
है जिसमें एक तरफ इसकी वृहद् सांस्कृतिक उपस्थिति है तो दूसरी तरफ भारत की
सीमा सुरक्षा की उद्दाम लालसा। कहते हैं इसके महत्व पर मुहर लगाने के लिए ही
मुगल बादशाह जहाँगीर ने यहाँ के कल्याणदास को मुगल कोर्ट में बुलाकर 'रावल' की
उपाधि से नवाजा था और बदले में इन्होंने यहाँ के स्वर्णाभ पत्थरों से बादशाह
को खुश कर दिया था। इसी रावल के भीतर कालांतर में 'महारावल' की उपाधि विकसित
हुई।
तो, भारत के सुदूर पश्चिमी किनारे पर बसा जैसलमेर जिला अपने स्वर्णाभ वैभव और
भवनों के लिए तो मशहूर है ही, पश्चिमी ट्रेड रूट के लिए भी विख्यात रहा है।
यहाँ की ठेठ राजस्थानी संस्कृति को देखने समझने की इच्छा तो बचपन से ही थी
जिसमें 'मोरनी बागा मा बोले आधी रात मा' जैसे गीतों और 'सोनार केला' जैसे
सिनेमा ने और भी घनीभूत कर रखा था। जैसलमेर के बारे में एक कहावत है -
घोड़ा कीजै काठ का
पिंड कीजै पाषाण
वस्त्र कीजै लौह का
तब देखौ जैशाण!
तो अपनी कठिन उपस्थिति को सरस, सरल व सुगम बनाता हमारी यादों में बसा जैसलमेर
शहर हमें आमंत्रित कर रहा था और हम कई प्रकार के चमत्कारों से गुजरते एक
चमत्कारनुमा शहर जैसलमेर में दाखिल हुए जो अपनी बनावट व बसावट दोनों में ऊँचे
वास्तु का अहसास करा रहा था। हमें जोधपुर में बताया गया था कि यह शहर एक किले
के भीतर ही बसा है लेकिन यहाँ शहर किले से काफी बाहर तक फैला मिला। हम जिस
होटल में पहुँचे वह स्वर्ण रंग से अपनी छटा विखेर रहा था और यह कुदरत का ही
चमत्कार है कि यहाँ सोने की परत चढ़ा कर भवनों की स्वर्ण दीप्ति नहीं करना
होता। पत्थर ही सोना है, अगर मामला रंगदारी नहीं, रंगीनियत का है। इस रूप में
जैसलमेर, अपने लाल पत्थरों और हाथ की नक्काशी के कारण 'गोल्डन सिटी' कहलाता है
जो पाकिस्तान बॉर्डर के निकट होने के कारण महत्वपूर्ण तो है लेकिन यहाँ तापमान
अधिक होने के कारण खेती नहीं है। लेकिन यहाँ की जिंदादिली बेमिसाल है। पूरा
शहर त्रिकोण पर बसा लगता है जिसकी आबादी कम है। कहते हैं, यहाँ के लोगों का
पेट पत्थर का और दिमाग घोड़े का होता है। तमान विपरीत परिस्थितियों और धूलभरी
आँधियों में भी ये मुस्कुराते है या मुस्कुराने का आभास करते हैं। एक जमाने
में यहाँ आना काले पानी के समान माना जाता था जिस कारण मुगल शासक भी इस इलाके
में आने से घबराते थे। यह और बात है कि अपने जिद और जूनून के कारण आए और कई
बार आए।
तो, हम जिस होटल में रुके, वह "गोल्डन हाउस" था, किले के पास में। अपने नाम को
चरितार्थ करता यह काफी सम्मोहक था जैसे किसी सुदूर इलाके में सोने का कोई बना
बनाया खिलौना रख दिया गया हो। पता चला कि इसमें कोई पेंट नहीं है। पत्थर का
रंग ही ऐसा है। कमरे भी बड़े और आतिथ्य भी अभिभूत करने वाला। समय की कमी के
कारण हमारा चालक प्रदीप हमें किले की ओर लेकर चल पड़ा। किले की तरफ जाने वाले
मार्ग संकीर्ण लेकिन बड़ा वाला टैंपू, जिसे यहाँ टुकटुक कहा जाता है, यहाँ भी
अपनी पर्दा फाड़ू आवाज के साथ उपलब्ध था और हम कुछ ही देर में किले के भीतर थे।
इस 'गढ़ गौरहरा' या 'सोनार किला' के बारे में कहा जाता है -
गढ़ दिल्ली गढ़ आगरो अध गढ़ बीकानेर
भलो चुनायो भाटियो सिरै ज जैसलमेर।।
सचमुच में यह एक सुंदर किला है। बिलकुल त्रिकोण पर बसा जिसे पहले त्रिकूटगढ़ के
नाम से जाना जाता था लेकिन 1974 में सत्यजीत रे के फिल्म 'सोनार केला' के साथ
इसे इसी नाम से ख्याति मिली। इस किले का निर्माण महाराजा जैसल ने 1156 ई. में
किया था जब इस जगह को जैसल मेरु, बाद में जैसलमेर के नाम से जाना गया। यह वही
जैसल था जो अपने भतीजे भोजराज को लोडोरवा की गद्दी से उतार कर वहाँ का शासक
बना।
इस किले का निर्माण किसी सुरक्षा या सामरिक दृष्टि से नहीं, बल्कि शौक के लिए
करवाया गया था जिसे भारत का पहला जीवंत किला, (फर्स्ट लिविंग फोर्ट) होने का
गौरव हासिल है। जैसल को त्रिकूट पर्वत की नैसर्गिक आभा बहुत पसंद आई थी और उसे
लगा कि इसी को आबाद किया जाए। यहाँ की आबादी में ब्राह्मणों की संख्या अस्सी
फीसदी रही जो राजा के सलाहकार भी रहे। यहीं कारण था कि कालांतर में दूर दराज
के ब्राह्मण इस शहर में आ के बस गए और बहुत संभव है कि कुलधरा के पालीवाल
ब्राह्मण भी इसी कारण पाली जिले से यहाँ आकर बस गए हों। रेगिस्तान के बीच इस
तरह का भवन बनाने के बारे में आज कोई सोच भी नहीं सकता क्योंकि एक तो यहाँ की
तपिश, दूसरे पानी का नितांत अभाव। हमें बताया गया कि इस किले के निर्माण में
कहीं भी चूना और सीमेंट का प्रयोग नहीं किया गया है। केवल पत्थरों को तराशकर
एक-दूसरे में इंटरलॉकिंग कर बैठा दिया गया है। यह एक महीन कारीगरी की महान कला
का करिश्मा ही है कि आज तक इन पत्थरों का न तो रंग धूमिल हुआ है न ही इसकी चमक
में कोई कमी आई है। सफाई के लिए तेजाब व नमक का इस्तेमाल होता है जिसके बाद
इसकी चमक निखर उठती है। प्रत्येक दशहरा पर इसे इसी तरह तैयार किया जाता है
जहाँ राज परिवार के लोग भी उपस्थित रहते हैं।
कहते हैं कि 'उत्तर भारत की अर्गला' के नाम से मशहूर इस जैसलमेर को लोग पहले
मरूद्यान कहते थे जो रेगिस्तान के बीचों बीच मौजूद था। यहाँ के शासक भाटी
राजपूत थे जो यदुवंश की एक शाखा थी। यहाँ के सभी भाटी राजा अपने को यदुवंश का
उत्तराधिकारी मानने के कारण खुद की उपस्थिति को यमुना से द्वारिका तक महसूस
करते थे। कर्नल टॉड तो यदु की उपस्थिति मध्य एशिया में मानते है जो बढ़ते
इस्लाम के प्रभाव के कारण पुनः भारत आने को विवश हुए। इस रूप में यह भी संकेत
मिलता है कि इन यदुओं के माध्यम से मध्य एशिया व भारत के बीच एक घनिष्ठ संबंध
पहले से ही रहा है और यह भी कि जैसलमेर, मारवाड़ और अरब के बीच व्यापार का
मुख्य मार्ग था।
जैसलमेर के बारे में कहा जाता है कि इस जगह को जैसल ने खुद के लिए खोजा और
लोडोरवा से कुछ दूरी पर उसे इस चट्टानी पर्वत पर एक अंधा वृद्ध साधु ईसाल मिला
जिसने त्रिकूट पर्वत का इतिहास बताते उसे यहाँ एक किला बनाने का वैसे ही आवाहन
किया जैसे महाराणा उदय सिंह को उदयपुर बसने के लिए एक संन्यासी ने प्रेरित
किया था। उसने यह भी जैसल को बताया कि कृष्ण भी अर्जुन के साथ यहाँ आए थे और
पानी को खारा जानकार चक्र से आघात कर मीठे पानी का स्रोत निकाला था। जैसल को
यह सुनकर अच्छा लगा और उसने यहाँ पर 1156 में किले की नींव रखी और इसी के साथ
किले में ही लोडरवा के लोग भी आकर बस गए। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि भट्टी
राजपूतों के इस मरुभूमि में बसने का इतिहास 731 से शुरू होता है जब इन लोगों
ने तनोट में दुर्ग बनवाया। यह वही तनोट है जिस पर पाकिस्तान ने 1965 में 3000
बम गिराए थे और सभी माता आवड देवी की कृपा से फुस हो गए! तब से इस जगह का
महत्व भी बढ़ गया है। मान्यता के अनुसार यह इसी देवी का प्रसाद था कि
पाकिस्तानी सेना लोंगोवाल पोस्ट तक ही सिमट गई अन्यथा जैसलमेर के रास्ते
जोधपुर एयर बेस तक पहुँचने की तैयारी थी।
तो हम इस किले में दाखिल हुए ही थे और यहाँ के शस्त्रागार का अवलोकन करते
खुखरी के सामने खड़े हुए थे कि हमारे गाईड ने कुलधरा का जिक्र किया और इस
संदर्भ में 'गढ़ीसर तालाब' और 'टिल्लो की दीवानगी' के किस्सों (जिसका वर्णन अलग
से किया जाएगा।) के साथ कुलधरा के भूतों के किस्से सुनाने लगा। इस कुलधरा के
बारे में पहले भी सुन रखा था और यह भी कि यहाँ पर दिन की हवाओं में भी भूत
तैरा करते हैं, हमने किले के तुरंत बाद कुलधरा जाने का निश्चय किया जहाँ आज
शरद पूर्णिमा के अवसर पर सम की शाम का आनंद भी लेना था! आत्माओं के भीतर के
मनुष्य की तलाश का सिलसिला यूँ शुरू हुआ और हम खंडहर की ओर चल पड़े जिसमें
कुलधरा की असंख्य किलकारियाँ दफना दी गई थीं और खंडहरों के बहुत नीचे से
नरपिशाच सालम सिंह के अट्टहास दूर तक, आप इसे अपने अपने शहर तक भी समझ सकते
हैं, सुनाई दे रहे थे!
जहाँ खंडहर भी बोलते हैं!
सभ्यताओं के नष्ट होने का इतिहास पुराना है लेकिन इस एक गाँव के खंडहर होने का
इतिहास नया है!
जैसलमेर से सम के रास्ते लगभग बीस किलोमीटर चलने पर बाईं तरफ कुलधरा नामक एक
खंडहर है जो कभी एक आबाद गाँव था जहाँ बच्चों की किलकारियाँ गूँजा करती थीं और
गीत संगीत की ध्वनि में एक जिंदादिल संस्कृति फल-फूल रही थी। कहते हैं कि जो
लोग भी जैसलमेर से रेगिस्तान का मजा लेने सम की तरफ जाते हैं इस खंडहर को भी
देखने जाते है।
मैं जब 15 अक्टूबर, 2016 को को सम जा रहा था तभी विदुषी कहानीकार सोमा
बंद्योपाध्याय का कोलकाता से फोन आया और यह जानने के बाद कि मैं सम जा रहा
हूँ, उन्होंने कुलधरा भी जाने की सलाह दी जहाँ कभी वे बचपन में गई थीं और
जिसकी एक सिहरन भरी स्मृति उनके जेहन में अब भी मौजूद थी। उन्होंने एक
आश्वस्ति के अंदाज में वहाँ की फोटो भी लेने को कहा और यह भी बताया कि
उन्होंने एक समय में जो भी फोटो ली थी उसमें से कोई भी सुरक्षित नहीं रह पाई।
संकेत यह कि यहाँ सालम सिंह की रूह से फोटो बचाना भी एक मुख्य दायित्व होगा!
यह जानने के बाद तो मुझे जाना ही था और मेरे गाड़ी के चालक प्रदीप ने भी यहाँ
की आत्माओं के बारे में बहुत कुछ बहुत ही आत्मीय रूप में बता रखा था और यह
जानकारी भी दे रखी थी कि खबरिया चैनलों का आए दिन यहाँ जमावड़ा लगा रहता है।
भूत देखने की यह वर्तमान बेचैनी हमारे समय की मीडिया के लिए एक बड़ा बाजार
सरीखा ही है जिसमें अब हम भी शामिल हो रहे थे। यह अकारण नहीं है कि खबरिया
चैनलों में आईबीएन-7, आज तक, जी.टीवी ने काफी मन से इस इलाके का कवरेज किया है
और सरफरोज, बजरंगी भाईजान, जोधा-अकबर, एयरलिफ्ट के साथ 'काला-बिच्छू' जैसी
फिल्मों में इसको प्रदर्शित किया गया है। यह भी एक तथ्य है कि 2000 के आसपास
एक फ्रांसीसी समूह द्वारा यहाँ पर 2 किलो सोना पाए जाने की खबर प्रचारित की गई
जिस कारण यह इलाका अचानक चर्चा में आ गया और सोना पाने की होड़ में लोग इसकी
ईंटों को भी उखाड़ने लगे। पता नहीं यहाँ सोना था कि नहीं लेकिन इस सोना दौड़ में
सोने जैसी ईंटें तो अवश्य ही गायब हो गई। इसका वर्तमान खंडहर रूप इसी सोना दौड़
का दुष्परिणाम रहा है! कहते हैं उड़ने वाले जो बिच्छू यहाँ पाए जाते हैं वे असल
में कुलधरा के सुरक्षाकर्मी ही हैं जिन्होंने अभी तक यहाँ के ढाँचों को बचा
रखा है अन्यथा अब तक यहाँ के सोना दौड़ में सब कुछ नष्ट हो गया होता।
तो कुलधरा के भव्य प्रवेश द्वार पर पहुँचकर प्रवेश टिकट काट रहे आदमी से मैंने
पूछा - 'भाई साहब यहाँ क्या है?' उसने छूटते ही कहा - ''भूत!'' मैं समझ गया कि
यह भूतात्मक सवालों से चिढ़ गया है जिसका सामना इसे प्रतिदिन करना होता है। फिर
हम आगे बढ़े तो थोड़ी ही दूरी पर 84 गाँवों के उजाड़ होने का इतिहास समझ में आने
लगा। रास्ते में सड़कों के निर्माण के कारण काफी धूल उड़ रही थी जिसे पर्यटकों
की बेतहासा आती गाड़ियों ने और भी धूसरित कर रखा था। सब ओर भीड़ थी और सभी
एक-दूसरे से पूछ और देख रहे थे ताकि इस वीरान गाँव की कहानी का कोई मजबूत रेशा
हाथ लगे। मैं भी इसी की तलाश में था कि एक छोटा सा बच्चा मेरे पास आया और दस
रुपये में कहानी सुनाने की बात करने लगा। मैं हँसते हुए कहा कि तुम बीस ले लो
लेकिन बढ़िया कहानी सुनाओ। असल में मुझे सोमा को कहानी के नए पाठ से परिचित
कराना था और वहाँ पहुँचने के पहले इसका पता लगा लिया था कि यह एक बदनाम जगह हो
चुकी है जहाँ आए दिन फिल्मों की शूटिंग और खबरिया चैनलों का जमावड़ा लगा रहता
है।
खैर, इस जगह पर आकर यह तो समझ में आ गया कि सब कुछ अच्छा नहीं है। यहाँ
छोटे-छोटे समूह में दूर से आए पर्यटक कुछ यूँ बात कर रहे थे जैसे किसी की
मृत्यु पर मातमपुरसी के लिए पहुँचे लोग करते हैं। मानों बस फुसफुसा रहे हों और
अहसास कुछ ऐसा जैसे समझ सब कुछ रहे हैं।
इसी बीच जो छोटा लड़का मुझे गाइड के तौर पर मिला उसने एक-एक कर उजड़े मकानों को
दिखाना शुरू किया और साथ साथ सालम सिंह को कोसता भी जाता। वह कुलधरा में 200
वर्षों से वीरान पड़े एक-एक मकान को दिखाता जाता और पालीवाल ब्राह्मणों के
प्रति हुए जालिम अत्याचार का बयान करता रहता। चार-छह मकान देखने के बाद जब वह
तथाकथित मुख्य भुतहे घर व मंदिर की तरफ चलने को कहा तब पत्नी ने तो जाने से
इनकार कर दिया और बच्चों को भी अपने साथ ही रोक लिया। इसके पीछे एक तो सम में
सूर्यास्त को देखने की जल्दी थी जहाँ शरद पूर्णिमा के कारण आज छांदिक चाँद को
भी उगना था। दूसरे खंडहरों में जिस तरह का सन्नाटा पसरा था वे लोग यात्रा के
इस अंतिम पड़ाव पर किसी भी प्रकार का सन्नाटा नहीं चुनना चाह रहे थे। सन्नाटा
मनुष्य को डराता है और एक-दूसरे से दूर भी करता है, यह वे लोग समझ रहे थे!
ऐसी स्थिति में मैं इन सभी को एक बबूल के एक पेड़ की सघन छाया में बिठाकर मुख्य
घर की और चल दिया जहाँ कई खबरिया चैनलों ने भूतों के विचरण व रात्रि विश्राम
की बात स्वीकार की है। अपने मोहल्ले का बबूल यूँ इस रूप में यहाँ काम आया और
यह कथा भी कि बबूल के पेड़ पर भूत नहीं भटकते। संभव है, उसके काँटे उन्हें
अरुचिकर लगते हों अथवा उसकी छाँव में बैठे लोग डरते ही न हों। बबूल आखिरी
पायदान पर अवस्थित आदमी का शरण्य हुआ करता है जिस कारण भूत भी वहाँ नहीं
फटकते! आखिरी आदमी की तरह बबूल भी नाकभर भरे पानी और आँख भर भरी लू में हरा और
भरा रहता है! स्वर्गीय विवेकी राय का 'बबूल' नामक उपन्यास यहाँ बहुत याद आ रहा
था। और यह भी जिन सालम सिंहों से मुक्ति के लिए काशी से चलकर यहाँ तक आया हूँ,
वे तो यहाँ भी मौजूद है और अपनी संपूर्ण नफरत के साथ मौजूद है!
यहाँ यह बताना एक जरुरी क्रम-भंग जैसा है कि असल में यह कुलधरा जिन पालीवाल
ब्राह्मणों का गाँव था, वे राजपूतों की तुलना में ज्यादे समृद्ध थे जो मारवाड़
के पाली जिले से यहाँ आकर उस समय बस गए थे जब पाली पर बारहवीं सदी में
मुसलमानों का आक्रमण हुआ और उन पर दंड लगाया गया जिसे ब्राह्मण होने के नाम पर
इन लोगों ने देने से इनकार कर दिया। इसका भी एक रोचक किस्सा है...।
असल में हुआ यह कि कन्नौज का राजा जयचंद, दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को
पराजित करने के लिए मुहमद गोरी से मिल गया और 1192 में तरायिन के युद्ध में
पृथ्वीराज को पराजय मिली और बाद में 1194 में चंदवर के युद्ध में जयचंद भी
मारा गया। इसके पश्चात अपने पापों के प्रायश्चित के लिए जयचंद के वंशज
द्वारिका के लिए निकले और रास्ते में थककर पाली में डेरा डाले। यह खबर जब वहाँ
के समृद्ध पालीवाल ब्राह्मणों को लगी तो वे मुसलमानों और वहाँ की जनजातियों से
अपनी रक्षा के लिए इनसे अनुरोध किए क्योंकि उस समय इनके व्यापार को जहाँ-तहाँ
मुगल लोग लूट लिया करते थे। इसी नेत्रित्व के भीतर राव सिहा का उद्भव हुआ
जिन्हें अपनी वीरता के लिए राथादा, बाद में राठौर, कहा गया। राठौर राजपूत की
उत्पति इन्हीं से होती है। बाद में जब 1273 में मुगलों से लड़ते इनकी मौत हुई
तब पालीवाल ब्राह्मणों को पाली क्षेत्र से पलायन करना पड़ा और जिस दिन ये यहाँ
से समूह में निकले उस दिन रक्षाबंधन का त्यौहार था। यही से ये पालीवाल कुलधरा
और अन्य क्षेत्रों में पहुँचे। और जैसलमेर, बीकानेर और सिंधु घाटी में फैल गए।
अधिक संख्या में ये जैसलमेर के इसी कुलधरा के आसपास बसे जहाँ एक समय में सारा
भीतरी और बाहरी व्यापार इन्हीं के हाथों में रहा।
असल में तो यह ट्रैड रूट था जो गंगा व सिंधु के बीच व्यापार का पहला केंद्र
था। सिंधु घाटी से हिंदुस्तान आने-जाने का रास्ता जैसलमेर से होकर ही जाता था।
यहाँ से होकर अफगान व्यापारी हाथी दाँत, नारियल, चंदन, पिस्ता, सूखा मेवा।
खजूर और अन्य सामग्री अपने ऊँटों पर लेकर आते रहे और पालीवालों के मुखिया
रुद्र दत्त पालीवाल इनसे चुंगी से टैक्स वसूल कर अपने पूरे समुदाय का पोषण
करते। वे व्यापारी बदले में यहाँ से नील, अफीम, मिसरी, ऊन, तंबाकू व नमक ले
जाते थे। ये पालीवाल उस समय व्यापारिक वर्ग के सबसे संपन्न लोग थे। ये इस
मरुथल के साहूकार कहलाते थे और किसानों को ऋण देते। वे किसानों से ऊन और घी
खरीद लेते और बाहर भेज देते। इस कुलधरा की बसावट उस समय में अद्भुत थी।
मरुभूमि की इस बसावट में इन लोगों ने भू प्रबंधन का बहुत ख्याल रखा था जिसमें
ओरण (वृक्षों के लिए जमीं), तालर (पानी के लिए जमीं), का पूरा ख्याल रखा। यह
भी कि इनके पास एक आण (कसम) भी थी कि इस व्यवस्था को नुकसान नहीं पहुँचाना
चाहिए। इनके पास एक विराट मंडी थी और गाँव की बसावट सुंदर और पंक्तिबद्ध थी।
इनकी गलियों का विस्तार दक्षिण से उत्तर कि तरफ था जिससे हवा का उचित प्रवाह
बना रहता और मकान के उपरी हिस्से पर चारे की ठान बनाई जाती जिससे ऊँट खड़ा-खड़ा
चारा चार सके। पूरा गाँव बहुत ही सुरुचिपूर्ण तरीके से बसाया गया था जो इन
पालीवालों की विकसित तकनीक का हिस्सा था, लेकिन उस समय में राजपूताने में
मौजूद स्काटलैंड निवासी कर्नल टॉड ने बड़े दुख के साथ दर्ज किया है कि
'नरपिशाच' मंत्री सालम सिंह के कारण 1820 तक लोग इस गाँव को खाली करके चले गए।
यह गाँव तब तक वीरान हो चुका था।
खैर, जब मैं पालीवाल ब्राह्मण के मुखिया के इस तथाकथित घर में पहुँचा तो इसकी
बनावट को देखकर चकित था। सब और से व्यवस्थित बनावट। ऐसा लग रहा था जैसे कोई एक
छत रख दे और यह घर हो जाए। घर के लिए छत कितनी जरूरी होती है यह यही पता चला
और यह भी कि उस समय का भाटी राजा यदि इन ब्राह्मणों के छत की रक्षा का तनिक भी
आश्वासन दे सका होता तो शायद सम्मान की रक्षा और सालिम के अत्याचार की सुरक्षा
के लिए समृद्ध पालीवालों को गाँव न छोड़ना पड़ता। लेकिन करेंगे क्या! राजा जब
दुर्बल होता है तो दीवान ताकतवर हो जाते हैं और ताकतवर दीवान अपनी पूरी ताकत
भर बदले की भावना से ग्रस्त रहते हैं। कुलधरा के दुर्दिन में एक दीवान के इसी
ताकत का खेल छुपा है जिसे चाहकर भी भाटी राजा मूलराज सिंह द्वितीय रोक नहीं
पाया और अत्याचारों से प्रतिवाद करते 84 गाँवों के ब्राह्मणों ने एक-एक कर
पूरा इलाका ही छोड़ दिया। सालम सिंह के सामने संभव है खिलजी का उदाहरण रहा हो
जो रत्नसेन की विवाहिता पद्मिनी को पाने की कोशिश में चितौड़ पर चढ़ाई कर दिया
जिसमें 16000 रानियों ने एक साथ जौहर किया और रत्न सिंह मारे गए। या स्वयं
जैसलमेर के जौहर की याद रही हो जिसमें 1296 में 26000 औरतों ने जौहर कर पूरे
किले को ही चीखों से भर दिया हो! यह व्यक्ति भी कुछ इसी अंदाज में ब्राह्मण की
लड़की को पाने व भोगने का प्रस्ताव लेकर गाँव आया और ऐसा न करने पर तरह-तरह के
अत्याचार करने शुरू कर दिए। रूद्र दत्त पालीवाल नाम के मुखिया की बेटी पद्मा
नामक लड़की की सुंदरता पर वह इस कदर रीझा कि कहते हैं उसके रजस्वला होने का
इंतजार भी नहीं किया और गाँव में आए दिन पहुँचकर कहर बरपाने शुरू कर दिए। कहते
हैं वह इसी मंदिर वाले मुखिया के घर अक्सर आता और किसी न किसी बहाने पद्मा को
देखने की कोशिश करता और विफल रहने पर तरह-तरह से पूरे इलाके पर अत्याचार करता।
उसने एक-एक कर अरब व्यापारियों से लिए जाने वाले कर पर नियंत्रण करना शुरू कर
दिया जिसमें कई परिवारों ने भूखे होने के कारण आत्महत्या की राह चुनी तो कई ने
गाँव ही छोड़ दिया। गाँव की आबादी लगातार घटने लगी और तब सालम की नजर पद्मा पर
पड़ी जिसने इस गाँव को पूरी तरह उजाड़ दिया। कहते हैं वह पूरा 'पीवणा साँप' था
जो धीरे-धीरे साँस में जहर उतारता है और जाते हुए पूँछ मार जाता है!
यह प्रवृत्ति उसे अपने पिता से विरासत में मिली। फिर उसने पंडित रुद्र दत्त पर
पद्मा के ब्याहने का दबाव बनाना शुरू कर दिया और जिस रात उठा कर ले जाने की
बात उसने की, उसी रात एक पंचायत कर सभी बचे लोगों ने गाँव छोड़ने का निश्चय कर
लिया। यह सब सुनकर लड़की और उसकी माँ ने आत्मदाह कर लिया और ब्राह्मण ने गाँव
छोड़ते समय प्राण त्याग दिया। उनकी स्मृति में बगल में ही एक मुक्तिधाम बनाया
गया है जिसमें ऐसे कई चित्र हैं। इस रात रक्षाबंधन था और तब से आज तक पालीवाल
लोग इस पर्व को नहीं मनाते। कहते हैं ये ब्राह्मण लून रोटी के साथ यहाँ से
विदा हुए और रक्षाबंधन के कारण उस दिन पूर्णिमा थीं। जिस कारण अपनी रूह को
यहीं छोड़ गए जो पूर्णिमा की चाँदनी में साफ दिखाई देती है।
एक खूबसूरत गाँव यूँ अपनी किलकारियों से वंचित होकर आज भूतों के बसेरे के रूप
में जाना जाता है जहाँ शाम ढलते ही सन्नाटा पसरा जाता है और रात के इसी
सन्नाटे में पायल व हारमोनियम की तथाकथित आवाज सुनाई देती है! पालीवालों के
झुरावे (विरह गीत) ऐसे आख्यानों से भरे हैं!
खैर, इन्ही खंडहरों में टहलता घूमता किंचित असंतोष के साथ जब मुख्य दरवाजे की
और बढ़ा तो अचानक एक व्यक्ति ने मुझे संकेत से अपनी तरफ बुलाया और जाने कैसे
समझ गया कि मैं इन खंडहरों में कोई सूत्र तलाश रहा हूँ और इसकी वीरानी को
चित्तौरगढ़ के किले की वीरानी से जोड़कर देख रहा हूँ। चित्तौड़ तो पद्मावती के
बाद आबाद हो गया लेकिन कुलधरा पिछले दो सौ साल से अभी भी वीरान है और दोनों ही
जगह स्त्री की देह ही दाँव पर रही है।
यह आदमी जिसने अपनी पहचान आलोक आचार्य के रूप में बताई, और यह भी बताया कि
उसके पुरखे इसी कुलधरा के थे, मुझे एक कैक्टस के पास ले गया और कहा कि जो आप
जानना चाहते हैं वह मैं जानता हूँ। असल में इस जगह के किस्से अलग है। यह जो आप
कैक्टस देख रहे है, इसके नीचे डायनासोर के चिह्न छिपे है जिसके ऊपर कैक्टस लगा
दिया गया है और यह इसी वीरानेपन के चिह्न हैं -
आलोक आचार्य अपनी यादों में खो गए और तब इस जगह की एक-एक परतों को खोलना शुरू
किया।
यह कोई दो सौ साल पहले की बात है जब महारावल अखय सिंह, 1722-1762 का बेटा
मूलराज द्वितीय 1792 (1792-1820) में जैसलमेर की गद्दी पर बैठा और उसके कमजोर
होने के कारण स्वरूप सिंह नामक मंत्री एक ताकतवर व्यक्ति के रूप में उभरा। यह
मेहता परिवार का जैन बनिया था जिसे भट्टी राजपूतों से बहुत जलन थी क्योंकि
उसकी चहेती प्रेमिका ने उसे छोड़कर किसी भाटी राजपूत को पसंद किया था। इसकी
शिकायत भी उसने युवराज के सामने की लेकिन समाधान की जगह उसकी हत्या कर दी गई
और जिस समय उसकी हत्या हुई, उसका बेटा सालम सिंह वहाँ उपस्थित था। इस हत्या से
द्रवित होकर मूलराज ने सालम सिंह को उसके पिता की जगह पर दीवान नियुक्त कर
दिया और तब सालम सिंह का अपना कार्य शुरू हुआ जिससे आज भी यहाँ के लोग खौफ
खाते हैं।
स्वभाव से अत्यंत विनीत मेहता, अपने कार्यों में अत्यंत दुर्विनीत था और हमेशा
भट्टी राजा को भय दिखाकर किसी दूसरे को नजदीक नहीं आने देता था। वह दिन भर
साजिश करता और इसकी टोह में रहता की राजा के नजदीक कौन पहुँचने की कोशिश कर
रहा है और जैसे ही किसी नाम की भनक लगती वह उसकी या तो हत्या करा देता या फिर
राजा से पहले ही शिकायत कर उसे सावधान कर देता। उसकी स्थिति फ्रांस के पेपिन
की तरह थी जो अपने राजाओं को कैद में रखते और वर्ष में एक बार उस राजा को जनता
के सामने ले आते। राजा भी जनता के सवालों का जबाब देता लेकिन ये जबाब भी इनके
द्वारा नियुक्त मेयरों के लिखे होते। इससे राजा के प्रति जनता में संदेह भी
नहीं होता। राजा की मूर्खता का शिकार यूँ एक समाज और उसका महत्वपूर्ण
सांस्कृतिक विभाग इस तरह हो रहा था और राजा था कि इस सबसे नासमझ था। कुछ-कुछ
एक दयनीय नासमझ जैसा!
इस तरह वह एक-एक कर सभी को राजा से दूर करता गया और साथ में राजा के मन में
सभी के प्रति संदेह का बीज भी बोत गया। वह राजा के आगे-पीछे साये की तरह लगा
रहता और इस क्रम में वह राज्य के समूचे तंत्र पर कब्जा कर बैठा। राज्य के सभी
गोपनीय दस्तावेज अपने कब्जे में लेकर उसने राजा की मूर्खता और अक्षमता का गलत
फायदा उठाया और अपनी बढ़ती ताकत के खेल में वह संपत्ति के साथ सेक्स के प्रति
भी उन्मत्त हो उठा। पत्नी व बच्चों समेत महारावल का पूरा परिवार उसकी कृपा पर
जीता था। खुद के लिए उसने गढ़ीसर तालाब के निकट एक आरामगाह बनवा रखा था जहाँ
दैहिक संबंध बनाता। राजा को एक दस्तखत से लेकर वक्तव्य देने तक में उसका दखल
होता और माँगी हुई चीजों में से आधा भी मिल जाता तो भी राजा खुश रहता। कई बार
तो खिला-पिला कर ही वह राजा को मस्त कर देता और राजा के थोड़े अधिक नशे में
जाने के बाद सारी गोपनीय जानकारियाँ उससे ले लेता। कई बार वह बदले की भावना से
इतना ग्रसित रहता कि नीम अँधेरे में ही राजा की दस्तखत ले लेता और जब तक राजा
सुबह होते लड़खड़ाते हुए होश में आता, एक पूरी बस्ती उजाड़ हो चुकी होती! रोचक
बात तो यह होती कि जनता को यही लगता कि राजा बहुत खुश है क्योंकि उसकी खुशहाली
की खबर भी इस मंत्री के मार्फत ही जनता तक पहुँच पाती। सालम सिंह के खेल में
यूँ राजा कठपुतली ही साबित होता! जाहिर बात है, राजा जब कठपुतली होता है तब वह
उस धृतराष्ट्रीय प्रवृति को जन्म देता है जिसके अंधत्व के ठीक नीचे दलाल
प्रवृत्ति जन्म लेती है जहाँ जनता हलाल की जाती है!
आचार्य ने आगे बताया - वह यहीं नहीं रुकता। हर सुंदर व जवान लड़की के किस्से
सुनकर राजा को कब्जे में ले लेता और राजा को आकर्षण दिखाकर खुद भोगने को
उद्यत! एक दर्जन पत्नियों का पति होने के बाद भी उसकी पौरुष ग्रंथि शिथिल नहीं
हुई थी और हर सुंदर लड़की को देखकर उसे यही लगता कि वह उसी के लिए बनी है। राजा
भी अपनी तमाम चारित्रिक और बौद्धिक कमजोरियों के कारण उसके अधीन होता गया और
तब सालम सिंह ने ऐसा कहर बरपाना शुरू किया जिसका राजपूताने के इतिहास में शायद
ही कोई दूसरा उदहारण मिले। यह एक ऐसा करैत था जो छन्न से काटकर बिल में घुस
जाता और ऐसा शेर था जो मांस को चिचोड़ने के लिए मुर्दे पर भी घात लगाने को
बेचैन रहता। व्यक्तिगत स्वभाव में वह अत्यंत विनीत, मृदु भाषी, शिष्ट और लचीला
व्यवहार करने वाले निर्दोष व्यक्ति के रूप में अपने को प्रस्तुत करता लेकिन
उसके रोम-रोम में उसके कुटिल दिमाग का चिप लगा रहता। अपनी वैचारिक मान्यताओं
में जैन धर्म की प्रगतिशील परंपरा का पोषक बताता लेकिन अपने हिंसक कर्मों में
वह हर प्रकार की प्रतिक्रियावादी हिंसक हरकतों को करने से गुरेज नहीं करता।
बाहर से वह सामान्य दिखता लेकिन भीतर से वह घातक और हत्यारी प्रवृत्ति का था।
लोग कहते हैं कि उपेक्षा के स्थायी मनोविकार से वह लगातार हिंसक होता गया। यूँ
वह भीतर से रोगी था और बाहर से भोगी!
आचार्य यहीं पर नहीं रुके। उन्होंने इस नरपिशाच के बारे में उसके समय में
जैसलमेर के ब्रिटिश एजेंट रहे एक अंग्रेज अफसर (कर्नल टॉड) के हवाले से यह भी
बताया कि दूसरे की संपत्ति छिनने, दंड देने, रुपया कमाने, मूल्यवान वस्तुओं को
बाहर भेजने, लोगों की हत्या करवाने और ओछी हरकतों करने में वह इतना संलग्न हो
गया कि 1823 में जब उसे उसके अत्याचार से आजिज आकर एक राजपूत ने घायल कर दिया
तो उसकी खुद की पत्नी ने उसे इस आशंका में जहर दे दिया कि कहीं वह दुबारा जी न
उठे। यह घटना मूलराज के बाद गज सिंह 1820-1846 के कार्यकाल में घटित हुई और यह
भी इस समय तक ब्रिटिश सरकार से (1818) स्वयं कर्नल टॉड के कारण जैसलमेर की
संधि हो चुकी थी। यह राजपूत पहले यह सोचा कि सत्ता परिवर्तन के बाद शायद अगला
राजा इस मंत्री की क्रूरता से हमें आजादी दिला सके लेकिन ऐसा हुआ नहीं। स्वयं
गज सिंह भी उसी मंत्री के हाथों की कठपुतली रहे जिससे हत्या के अलावे कोई और
रास्ता नहीं बचा।
यह कथा सुनते मैं भीतर तक हिल गया और सम के लिए रवाना हुआ। सम में उस दिन
पूर्णिमा के शारदीय चाँद का होना था जिसे ऊँटों की ऊँचाई से देखना था। नीचे
चंद्राभ रेगिस्तान और ऊपर रेगिस्तानी चाँद हमारी प्रतीक्षा कर रहा था लेकिन
कुलघरा के खंडहरों से आती प्रतिध्वनि ने हमारे भीतर सभी सालम सिंहों के प्रति
एक घृणा का भाव भी भर दिया था जहाँ शरद के चाँद को भी सुनहरा दिखने की जगह
शातिर दिखना था...!
सम में हम
कुलधरा के स्मृति गंधी बबूलों के बीच बोलते-बतियाते और कुर्ते के पाकिट में
कुछ रेजकारी के टटोलते रहने के "नम-सम" भाव प्रसार के बीच अचानक हमें याद आया
कि हमें तो सम में जाना है और यह भी कि आज शरद की पूर्णिमा है...।
शरद पूर्णिमा! चंद्रमा की सोलह कलाओं की रात...। औषधियों के स्पंदन क्षमता की
रात...। निषेचन क्रिया की रात...। रस और रास की रात...। थिहाने और थिराने की
रात...! और सबसे आगे यौवन की पुनर्प्राप्ति की रात...। कहते हैं रावण अपनी
नाभि पर इसी रात चंद्रमा की अधिकतम किरणों को अवशोषित कर जवान बने रहने का
उपक्रम करता था। शरद की इस तिथि को सूर्यास्त और चंद्रोदय एक साथ होते हैं
जिसके मिलन बिंदु पर अमृत वर्षा होती है, यह हम सुनते आए थे। इस दिन
स्त्री-पुरुष समान अधिकार भाव से धरती पर विचरण करते हैं और सभ्यता में समता,
समानता और बंधुत्व का अहसास सबसे अधिक होता है। यह दिन अहं के विसर्जन और
साहचर्य के सुख का दिन होता है जिसमें हर प्रकार की वर्ण व्यवस्था का निषेध
होता है। जिस शक्ति पूजा का विधान इस शारदीय नवरात्र में होता है, असल में वह
कुछ और नहीं, पुरुष द्वारा अपने भीतर की शक्ति रूपा प्रकृति का अहसास ही है
जिससे वह शाश्वत शिवत्व हासिल होता है जो विमर्श कहलाता है जिसके बगैर कोई भी
प्रकाश अधूरा है। आज हमें 'कोजागर' की इस रात थार के रेगिस्तान में इसी विमर्श
का साक्षी होना था और जमीन की अपनी ऊँचाई से अधिक ऊँट की ऊँचाई से समझना था।
एक कल्पना थी कि चारों और रेत के ढूह हैं और हम फिसल रहे हैं, एक अनंत गति के
सजल आत्मीय संबंधों में जहाँ किसी प्रकार का कोई घर्षण नहीं है। यहाँ हम कई
बार गिर भी रहे है, जाहिर सी बात है फिसलते हुए ही, लेकिन हर गिरावट में तन कर
खड़ा भी हो रहे है या कि खड़े होने का उपक्रम कर रहे हैं। असल बात तो यह है कि
आदमी न तो गिरता है और न ही वह उठता है। वह थार की तरह कई तहों में फैला है और
यह उसकी भीतरी तहें ही हैं जिनके बीच के संघर्ष में उसे उठने गिरने का अहसास
होता है। याद आता है मशहूर फारसी शायर जलालुद्द्दीन रूमी का यह शेर -
ख़मुश ख़मुश कि इशाराते इश्क मा कूस अस्त !
निहान शवंद म, आनी ज गुफ्तने बिसियार!
(शांत रहो। चुप रहो। प्रेम अपने इशारों में उल्टा होता है। अधिक बोलने
से, खुद के बोले गए शब्दों में, अर्थ के छिप जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।)
तो हम सम की और चल दिए और थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि रेत के थर दिखने शुरू हो गए
जिसमें जीप सफारी पर इतराते लोग थे तो सजे धजे खड़े ऊँट सफारी पर खिलखिलाते
जोड़े! क्या दृश्य था। जीप सफारी तो मन की गति से भी अधिक भाग रही थी। पीछे खड़े
सवारी थर के ऊपर नीचे होती परतों में, हवाओं के विकराल वेग को भी मात देते
स्वर्गिक आनंद का मजा ले रहे थे! अजब हलचल थी पूरे वातावरण में। सवारी और
सफारी के द्वंद के बीच यहाँ जीवन काफी खुशदिल और बहुरंगी था और उसी द्वंद्व के
बीच हम भी एक जीप पर सवार हुए - जीप न कहें, जीप सफारी! जो थर के उस निचाट
मध्य में ले जाएगी जहाँ हमारे भीतर को एक अलौकिक गीलेपन से भरता हुआ दिगंत तक
फैला एक आकाश होगा! जाहिर सी बात है, अपना आकाश!
तो जिस जीप पर हम सवार थे वह तूफान के वेग से थर में कूद रही थी। हमारी देह की
नसें सुरक्षा कारणों से तनी हुई थीं और हाथ था कि सुरक्षा की दृष्टि से जीप
में लगे डंडे को कसकर पकड़ा हुआ था। इस निचाट थर में रेत के पहाड़ को देखने का
जोश कुछ इस कदर था कि उस समय भय की जगह गजब के उत्साह से हम भरे हुए थे। कुछ
ऐसे उत्साह से कि जीप के उछलने से ज्यादे हम ही उछाल भर रहे थे। यूँ तो यह सब
डर के कारण हो रहा था किंतु इस उछाल में हम अपने शरीर पर नियंत्रण बनाए हुए
थे। जब भी कोई सिस्टम ज्यादे उछले तब आप को भी उससे ज्यादे गति से उछलना आना
चाहए जिससे आपके शरीर पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, यह यहाँ आकर पता चला!
खैर, जीप जब नीचे जाती तब हम ऊपर की ओर खींचते। जब वह ऊपर जाती तब हम नीचे की
ओर झुकते। और हवा थी कि पूछिए मत। मादक और मोदक एक साथ! कई जगह ऐसा लगता कि हम
जीप से कूदकर इस रेगिस्तान में अपनी गति से लुढ़कते-पुढ़कते इसका मजा लें। रेत
में लिपटे हुए कई टीलों को पार करें जहाँ हवा और रेत के अलावा और कोई न हो!
लेकिन यह सब मन की बात है। अन्यथा तो जीप से हाथ छूटा नहीं कि साथ भी छूटा!
ऐसे ही कूदते फाँदते हम चार जन एक विशाल टीले पर रुके जहाँ से चंद्रमा को साफ
देखा जा सकता था। देखा क्या बल्कि छुआ जा सकता था। वहाँ हमें कई ऊँटों के बीच
दो ऊँट उपलब्ध कराए गए और हमने एक ऊँट के साथ अविलंब एक फोटो खिंचवाई। पत्नी
थोड़ा झुककर जब उसके मुँह पर लगी रस्सी नुमा 'मोरखौ' को निहार रही थीं तब बेटे
ने एक तस्वीर चुपचाप उतार ली। यह तस्वीर हमें आज भी बड़ी मोहक लगती है।
खैर ऊँट यहाँ का जहाज है। माड़ के साहित्य ऊँटों से भरे हैं। उसकी नस्लों में
बीकानेरी, जैसलमेरी, जोधपुरी, कच्छी, और संचोरी हैं। इसमें कच्छी को श्रेष्ठ
माना जाता है। यहाँ शाम होते-होते ऊँट खूब सज-धज कर रखे जाते हैं जिन पर कसे
गए पिलाण, गोरबंध और मालडा काफी आकर्षक होते हैं। ऊँटों ने यहाँ की प्रेम
कथाओं में भी अच्छी जगह बनाई है। मूमल महेंद्रवा और ढोला मारू की प्रेम कथा
में भी ऊँट है। ढोला कि कथा में तो ऊँट की गति देखते ही बनती है। ढोला और ऊँट
के बीच पूरा संवाद है जिसमें एक जगह ऊँट कहता है -
सकती बाँधे वीटुली ढीली मेल्हे लज्ज
सरढी पेट न लोटियऊ मूँध न मेलयुं अज्ज!
(पगड़ी कस कर बाँध लो। लगाम को ढीली छोड़ दो। मैं ऊँटनी के पेट में
नहीं लेटा यदि आज उस मुग्धा से तुम्हें न मिला दूँ।)
तो, चारों तरफ सज धज के चलते फिरते ऊँटों से सम का यह थार पुलकित था और लग रहा
था यहाँ की रेत में अनेक आकृतियाँ उभर आईं हैं। यह अपनी काशी की गंगा वाली
गीली रेत तो नहीं थी जिससे अनंत आकृतियाँ बनती हैं या कि बनाई जा सकती हैं
लेकिन यह वह सूखी रेत थी जो अनंत काल की अनंत आकृतियों की साक्षी रही है जहाँ
कई सभ्यताओं के बनते बिगड़ते पद चिह्नों को देखा जा सकता है।
हम इन्हीं पदचिह्नों को समझते और इनके बारे में सोचते वहाँ से विदा हुए। इस
भाव के साथ कि अभी यात्राएँ और करनी हैं और कितनी ही नई वस्तुओं को देखना है।
यूँ भी संतुष्टि स्थायी नहीं है क्योंकि वह भूगोल के आकर्षण को और भी बड़ा कर
देती है। इसी आकर्षण को लिए हम लौट रहे थे, इस गूँज के साथ कि -
आना
इस रेत में फिर आना
नई आकृतियों की खोज के लिए नहीं
पुरानी आकृतिओं के स्पर्श के लिए।
क्या पता कोई पुरखा मिल ही जाए
तुम्हें उन किलकारियों तक ले जाता हुआ
जो सम से सटे
कुलधरा के खंडहरों में
अभी भी दबी हैं
और फूट पड़ने को बेताब हैं...।