कार्तिक ने पार्टी कार्यालय के भारी भरकम गेट को धीरे से धकेला और बाहर निकल आया।
गेट के बाएँ खंभे के बाहर शेरू, वैसे ही, अपनी दोनों टाँगें सामने निकाले, ऊँघ रहा था। कार्तिक को बाहर निकलता देख वह धीरे से कुनमुनाया। कार्तिक ने उसका सिर हल्के से थपथपाया। शेरू ने कार्तिक के सम्मान में जम्हाई लेते हुए खड़े होने का अभिनय किया और सिर जोर से झटकारा। कार्तिक ने एक बार फिर उसकी पीठ पर हाथ फेरा और कहा, 'बैठ जा शेरू। अब मुझे जाने दे।' फिर वह पार्टी ऑफिस के सामने वाली पतली गली में निकल आया।
दिसंबर की रात थी। कड़ाके की ठंड में गली जैसे और सिकुड़ी हुई, ठिठुरती सी महसूस हो रही थी। एक दो स्कूटरों के कभी-कभी गुजर जाने के अलावा कोई हलचल गली में नहीं थी। अँधेरे और कोहरे के कारण बहुत दूर तक देखना संभव नहीं था। सिर्फ छोटू की दुकान की पीली रोशनी दूर से टिमटिमाती दिख जाती थी। गली से लगी हुई चौड़ी सड़क पर ट्रकों की कतार अगली सुबह का इंतजार करती खड़ी थी और डीजल की गंध तथा हवा में जमा हुआ धुआँ वातावरण को और बोझिल बना रहे थे। कार्तिक को लगा जल्दी से जल्दी इस गली से निकल ले।
उसने पलट कर एक बार गेट की तरफ देखा।
नताशा बाहर निकल आई थी और शायद उसी की तरफ देख रही थी। उसे लगा कितने आश्चर्य की बात थी कि नताशा के साथ हर समय 'शायद' शब्द जुड़ा हुआ सा आता था। शायद वह समझदार थी, शायद नहीं। शायद उन सब बड़ी-बड़ी बातों के अर्थ उसे मालूम थे जिन्हें वह जोर-जोर से कहा करती थी, शायद नहीं। शायद वह वाकई समाज की भलाई के लिए काम करना चाहती थी, शायद नहीं। शायद वह उससे असल में प्यार करती थी, शायद नहीं। भ्रम, कुहासे की तरह एक भ्रम, हर समय उसके आसपास छाया रहता था, जिसके पार देख पाना, उसकी असल इच्छाओं को पहचान पाना, बहुत कठिन था, शायद असंभव।
या शायद बहुत सरल, जैसा कि उमा कहा करती थी। नताशा जो भी कहती है उसके उलट को सच मान लो तो तुम सच तक पहुँच जाओगे। शायद उमा ही सच कहती थी। शायद।
कार्तिक को लगा जैसे नताशा ने अपनी चुन्नी के कोने से अपनी आँखें पोंछीं। शायद धुआँ होगा या धूल का कोई कण या फिर आँसू - कार्तिक के लिए दो बूँद आँसू?
जैसे इस भ्रम को बने रहने देने के लिए उसने एक बार सीधे कार्तिक की ओर देखा। फिर उसे अपनी ओर देखते हुए, मुँह घुमाया और रामनारायण से बात करने लगी।
कार्तिक ने पहले सोचा कि नताशा और रामनारायण का इंतजार कर ले। फिर कुछ सोचकर उसने पैंट की जेब में अपने हाथ डाले और छोटू की दुकान की तरफ बढ़ लिया। अब मोह में पड़ने का समय नहीं रहा। एक सिगरेट पी लूँ फिर घर चलूँ, उसने सोचा।
छोटू मंकी कैप लगाए, गले में मफलर डाले, दुकान में उकड़ूँ बैठा था। कार्तिक को देखकर उसने विल्स का पैकेट आगे बढ़ाया।
कार्तिक ने एक सिगरेट बाहर निकाली, बगल में सुलगती रस्सी से सिगरेट जलाई और एक लंबा सा कश खींचा। कश खींचते हुए उसने थोड़ी गरमाहट महसूस की। लेकिन फिर सर्द हवा का एक झोंका आया और उसे छूकर निकल गया। एक फुरफुरी सी सारे शरीर में फैल गई। अब उसने सिगरेट मुँह में ही छोड़ी, दोनों हाथ रगड़े और जेब में डाल लिए।
तभी किसी ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा। उसने चौंक कर देखा। रामनारायण था।
'क्यों, आज स्कूटर नहीं लाए?'
'नहीं खराब पड़ा है'
'तो आओ, तुम्हें घर तक छोड़ दूँ।'
'नहीं यार, आज तुम जाओ। मैं अकेले घर जाऊँगा।'
रामनारायण ने स्कूटर स्टैंड पर खड़ा किया और नीचे उतर आया।
'कार्तिक, तुम चिंता मत करो। हम लोग तुम्हारे साथ हैं। हम लड़ेंगे।'
'मगर किससे? अपने ही लोगों से?'
'सवाल अपना या दूसरों का नहीं है। लड़ाई हमेशा दो तरह की होती है। एक भीतरी और दूसरी बाहरी। ये भीतरी लड़ाई है, इसे हमें लड़ना होगा।'
कार्तिक ने कुछ नहीं कहा। वह फिलहाल किसी से भी लड़ना नहीं चाहता था। शायद दुश्मन की सही-सही पहचान भी उसके दिलोदिमाग में धुँधला सी गई थी। उसने अपने भीतर एक गहरी उदासी महसूस की। एक ऐसे योद्धा की उदासी जिसने एक लंबी लड़ाई लड़ी हो, जिसका शरीर लहूलुहान हो और जिसे अचानक अपने इस लंबे युद्ध की निरर्थकता का एहसास हुआ हो। एक गहरी थकान उसके पूरे शरीर और दिमाग पर तारी थी। उसने रामनारायण का हाथ अपने हाथ में लिया और कहा,
'तुम चलो, मैं एक दो दिन बाद मिलता हूँ।'
वह रेल्वे क्रॉसिंग की तरफ बढ़ा जिसके उस पार ऑटो रिक्शा मिल सकता था। क्रॉसिंग के दोनों तरफ गाड़ियों की लंबी कतारें थीं, या यूँ कहें कि गाड़ियों के झुंड थे। कारों के पृष्ठ भाग से चिपके टेंपो जो कभी भी उनसे टकरा सकते थे, टेंपो से उलझती मोटर साइकिलें जो कभी भी उनके नीचे आ सकती थीं, मोटर साइकिलों से आगे निकलने की होड़ में स्कूटर और बीच-बीच में फँसे हुए विशालकाय ट्रक, जो किसी को भी रौंद देने के लिए आतुर थे।
कार्तिक ने गाड़ियों की इस बेतरतीब भीड़ पर अपनी उदास निगाह डाली, और उनके बीच से होते हुए क्रॉसिंग पार करने के लिए कदम बढ़ाए। गाड़ी आने में अभी समय था।
अचानक किसी ने कहा,
'कार्तिक!'
उसने पलटकर देखा। नताशा अपने स्कूटर पर, एक पैर जमीन पर टिकाए, फाटक खुलने का इंतजार कर रही थी। उसने चुन्नी को मफलर की तरह कान पर लपेट रखा था। उसने कहा।
'कार्तिक, आओ साथ चलते हैं...'
'नहीं, आज पैदल ही घर जाऊँगा।'
'इतनी ठंड में?'
'हाँ दूर तक चलने का मन है।'
'तो चलो, मेरे साथ कुछ दूरी तक ही सही।'
'नहीं, आज तुम भी अकेले और मैं भी।'
'बहुत नाराज हो?'
'किससे?'
'सभी से!'
'नहीं, सभी से नहीं।'
'कम से कम मुझ से तो नहीं?'
'नहीं तुमसे तो बिल्कुल नहीं।'
'तो कल मिलोगे?'
'शायद।'
एक लंबे सायरन के साथ रेलगाड़ी धड़धड़ाते हुए सामने से निकल गई। नताशा ने कुछ कहा पर कार्तिक सुन नहीं पाया। बैरियर के खुलने के साथ ही स्कूटरों और गाड़ियों ने एक दूसरे को लगभग कुचलते हुए रेल्वे क्रॉसिंग पार करना शुरू कर दिया। कार्तिक बढ़ा और फाटक पार कर दूसरी ओर निकल आया।
कार्तिक के घर की तरफ जाने वाली सड़क पहाड़ी पर से घूमकर दूसरी ओर की लंबी सड़क से जाकर मिल जाती थी। कार्तिक ने पैदल वही राह पकड़ी।
चलते समय कार्तिक नीचे सिर झुकाकर चला करता था, जैसे कुछ सोचता सा जा रहा हो। दोनों कंधे भी थोड़ा सामने की ओर झुक आते थे जिससे पी के झुकने का आभास होता था।
हवा तीर की तरह कानों में चुभ रही थी। उसे लगा स्वेटर के ऊपर जैकेट भी होनी चाहिए थी। उसने शर्ट के कॉलर खड़े कर लिए। कम से कम गला और कान तो बचे। वह सड़क के किनारे चल पड़ा। एक छाया की तरह, जैसे हवा में तिरते हुए।
आदत के अनुसार उसने एक बार फिर दोनों हाथ जेबों में डाल लिए। इस बार एक पतला सा झिरझिरा कागज उसके हाथ से टकराया। उसने उसे एक दो बार छुआ, फिर छोड़ दिया।
कैसे कोई एक कागज आपके जीवन का सारा अर्थ बदल सकता है? आपके बरसों के काम को स्वीकृति या अस्वीकृति प्रदान कर सकता है। आपकी पूरी दुनिया को उलट पुलट कर सकता है। क्या ये इतना सरल है, इसे इतना सरल होना चाहिए?
पिछले दो घंटों में घटी घटनाओं के दृश्य उसके सामने से गुजरने लगे।
हालाँकि शाम को पार्टी मीटिंग होगी, यह सूचना उसे सुबह ही फोन पर मिली थी, पर उसे आभास था कि कुछ न कुछ घटने वाला है। सुदीप ने उसे कुछ दिन पहले ही बताया था कि उसके खिलाफ तैयारी की जा रही है। पर जैसी कि उसकी आदत थी, उसने इस सूचना को खास महत्व नहीं दिया था। उसे अपने काम, अपनी दिशा और अपनी सोच पर भरोसा था। वह मानता था कि वह किसी भी वैचारिक प्रहार को झेल सकता है, उसका जवाब दे सकता है।
वह जब मीटिंग के लिए पार्टी कार्यालय पहुँचा तो सामान्य था।
पिछले कुछ दिनों से पार्टी की बैठक एक यंत्रणा की तरह हो गई थीं। किसी भी कार्यवाही या मुद्दे पर सकारात्मक बहस के बदले आरोपों-प्रत्यारोपों का एक अंतहीन सिलसिला चला करता था, जिसमें सब एक दूसरे को चोट पहुँचाने की कोशिश किया करते थे, और बैठक के अंत में घायल दिलो दिमाग के साथ बाहर निकलते थे। कार्तिक की पार्टी प्रदेश की एक बहुत छोटी पार्टी थी और करने के लिए बहुत से काम पड़े थे। पर न जाने क्यों वे बुरी तरह उलझ गए थे। कार्तिक के दोस्त रामनारायण ने एक बार हँसते हुए कहा भी था - हमारे यहाँ आत्मालोचना का मतलब आत्म-आलोचना नहीं बल्कि दूसरे की आलोचना होता है। अगर हम वाकई आत्मालोचना कर पाते, तो जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाते।
पर उसकी इस बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था। लड़ाई बदस्तूर जारी थी।
आज की बैठक में सचिव कॉमरेड मोहन खुद उपस्थित थे।
उनका चेहरा पत्थर की तरह सख्त था और वे किसी न्यायाधीश की तरह लग रहे थे। वे बीच की कुर्सी पर बैठे थे। उनके दोनों ओर गोला बनाकर, टीन की सात कुर्सियाँ रखी गई थीं, जिन पर बाकी लोग बैने वाले थे। सबको पता था कि किसे कहाँ बैठना है। सरफराज सचिव के बाएँ रखी कुर्सी पर ही बैठता था क्योंकि चर्चा दाहिनी ओर से शुरू कराई जाती थी और उसे आखिर में अपनी बात रखने तथा दूसरों की बात काटने का मौका मिल जाता था। अगर इसके बाद भी कोई 'लाइन' रखने की जरूरत पड़ती तो वह काम सचिव कर दिया करते थे।
सबसे पहले एक वरिष्ठ साथी को, जो अंत में 'सबको धन्यवाद' के अलावा कुछ नहीं कहते थे, अध्यक्ष बनाया गया।
अब कॉमरेड मोहन ने अपने दोनों हाथ सामने रखी लकड़ी की मेज पर टिका लिए। उन्होंने प्रेस की हुई खाकी पैंट और सफेद शर्ट पहन रखी थी जिस पर काली जैकेट और चमचमाते काले जूते शानदार ढंग से फब रहे थे। अगर उनका चेहरा इतना सख्त न होता और वे बीच-बीच में थोड़ा मुस्कुराते, तो उन्हें किसी व्यावसायिक संस्थान का मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी मान लिया जा सकता था। शायद इसी डर से उन्होंने बरसों पहले खुल कर हँसना और सामान्य रूप से मुस्कुराना छोड़ दिया था।
अभी तक, जब वे सचिव नहीं थे और ट्रेड यूनियन आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, उनकी जीवंतता और मिलनसारिता देखते बनती थी। उनके सचिव बनने पर हम सबको खुशी हुई थी। लगता था उनके आने से एक नई बयार पार्टी में बहेगी, एक तरह का खुलापन आएगा। पर वे अचानक पुराने सचिव की तरह हो गए थे। गुरु गंभीर और कठोर - जो उनकी उम्र के हिसाब से कुछ असहज भी था। वे सिर्फ चिट्ठियों और सर्कुलरों की भाषा में बात करने लगे थे। शहर में, जहाँ लगातार गहमागहमी बनी रहती थी, उनका दिखना मुश्किल हो गया था। उनकी ऊर्जा, लोगों को समेटने की उनकी शक्ति, वैचारिक स्फूर्ति पैदा कर सकने की उनकी ताकत, उनके उस कड़े चेहरे और रूखे व्यवहार के पीछे जाने कहाँ छुप गए थे?
वैसे वे अभी लड़के ही थे और खुशनुमा हो सकते थे। पर जैसे उन्होंने एक नकली गंभीरता ओढ़ ली थी। वैसी, जैसी स्कूल के लड़के, किसी उम्रदराज आदमी की नकल करते समय ओढ़ लेते हैं। उसका सबसे पहला प्रभाव तो ये पड़ा कि वे दोस्तों और शुभचिंतकों से दूर होते गए और दूसरा ये, कि वे एक बोर आदमी के रूप में पहचाने जाने लगे।
क्या वे अपनी इस नकली गंभीरता के पीछे कुछ छुपाना चाहते थे? या वाकई लोगों से दूरी बढ़ाना चाहते थे? या उन्हें लगता था कि सचिव को कुछ इसी तरह का होना चाहिए? क्या पता...
पर फिलहाल उनकी यह गंभीरता उन्हें किसी व्यावसायिक संस्थान का अधिकारी होने से रोक रही थी और न्यायाधीश बनने की ओर प्रवृत्त कर रही थी।
एक ऐसा न्यायाधीश जो मुकदमा सुनने से पहले ही जानता है कि उसे फैसला क्या देना है।
बिना कोई समय गँवाए कॉमरेड मोहन ने शुरुआत की।
'साथियों आज की ये बैठक एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात करने के लिए बुलाई गई है।'
कार्तिक को पता था कि इसका मतलब है कि निर्णय पहले ही ले लिया गया है। किसी को ज्यादा कुछ बोलने की जरूरत नहीं है।
'पिछले कई महिनों से कॉमरेड कार्तिक के बारे में पार्टी को बहुत सी शिकायतें मिलती रही हैं। पार्टी ने उन्हें कई बार चेतावनी भी दी है और अब उन्हें कारण बताओ नोटिस देने का निर्णय लिया है। उनसे पूछा जा रहा है क्यों न उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया जाए। मैं ये नोटिस पढ़कर आप सबको सुनाऊँगा।'
कार्तिक को लगा तैयारी पूरी है। अपमान के साथ-साथ जख्म पर नमक भी छिड़का जाना है। नोटिस उसे बुलाकर भी दिया जा सकता था। पर जब तक उसे सबके सामने पढ़कर न सुनाया जाए सचिव की ताकत का एहसास नहीं हो सकता था, और न ही उस मॉरबिड आनंद की प्राप्ति हो सकती थी जो एक आदमी की आत्मा को कुचलकर या उसे नीचा दिखाकर प्राप्त होता है।
सबने अपने चेहरे गंभीर बना लिए। अब कॉमरेड मोहन ने नोटिस पढ़कर सुनाया।
'साथी कार्तिक,
हमारी पार्टी ने विज्ञान और सांस्कृतिक आंदोलन को मजबूत करने और उसके माध्यम से पार्टी निर्माण करने की जिम्मेदारी आपको दी थी। आपके क्रिया कलापों से पार्टी इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि इस जिम्मेदारी को निभाने में आप पूरी तरह असफल रहे हैं।
एक वरिष्ठ साथी के रूप में इस मोर्चे पर एकता व सामूहिकता बनाकर कार्य करने में न सिर्फ आप असफल रहे हैं बल्कि गुटबाजी को भी बढ़ावा दे रहे हैं और पार्टी के विकास में अड़चनें डाल रहे हैं।
आपके इस आचरण और कार्यप्रणाली के लिए कई बार आपको समझाइश दी जा चुकी है लेकिन उसमें कोई परिवर्तन न होने के कारण आपको यह कारण बताओ नोटिस दिया जा रहा है।
कृपया स्पष्ट करें कि क्यों न आपको पार्टी से निलंबित कर दिया जाए?
आपका साथी,
कॉमरेड मोहन
सचिव।'
नोटिस पढ़ने के बाद कॉमरेड मोहन ने टिप्पणी के लिए चेहरा घुमाकर सभी साथियों की ओर देखा। फिर पूछा,
'कोई कुछ कहना चाहता है?'
सब चुप रहे।
कार्तिक ने पूछना चाहा - क्या आप बताएँगे कि आपकी नजरों में विज्ञान और सांस्कृतिक आंदोलन का मूल्य क्या है, और कैसे उसका निर्माण किया जा सकता था? अगर मैं जिम्मेदारी निभाने में असफल रहा तो कैसे हजारों लोग आंदोलन की ओर आकर्षित हुए और अगर आपकी ही कार्यप्रणाली सही थी तो पिछले पच्चीस सालों में पार्टी कहाँ तक पहुँची? फिर यह बताने के लिए आपको ही कारण बताओ नोटिस क्यों न दिया जाए?
पर वह चुप रहा। वह पहले भी कई बार इन प्रश्नों को अलग-अलग तरह से उठाता रहा था। हर बार यही जवाब मिलता था कि ये बैठक उन प्रश्नों पर विचार करने के लिए नहीं बुलाई गई है, कि उसे उन्हें सही फोरम पर उठाना चाहिए, कि जिस दौर में हम हैं उसकी कई सीमाएँ हैं और उन सीमाओं के भीतर ही विचार किया जा सकता है।
इस बार भी शायद वैसा ही कुछ जवाब मिलता।
कार्तिक ने एक उम्मीद के साथ अपने दोस्तों की ओर देखा। शायद वे कुछ कहें। पर वे सब भी चुप थे। वे सभी जिन्हें कार्तिक आंदोलन में लाया था, जिनके साथ साल दर साल कंधा मिलाकर लड़ता रहा था और जिनसे वह गहरा प्यार करता था, चुप थे। 'इश्यू' को 'क्लिंच' करने के लिए सरफराज ने, जिसे एक समय में कार्तिक का सबसे गहरा दोस्त समझा जाता था, कहा -
'ठीक है कॉमरेड।'
अब रामनारायण को गुस्सा आ गया। उसने कहा,
'क्या ठीक है? हम सब कार्तिक के काम से परिचित हैं। मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा कि इस नोटिस का आधार क्या है?'
सचिव ने अपनी ठंडी मगर कठोर आवाज में कहा,
'आधार है पर यहाँ बताना जरूरी नहीं है। इस पर हायर कमिटी ने विचार कर लिया है।'
नताशा उद्विग्न दिख रही थी। उसने कहा,
'पर कॉमरेड विचार तो पहले हमारी कमिटी में होना चाहिए था। ये मसला हमसे संबंधित है। सभी जानते हैं कि कार्तिक के नेतृत्व में पूरे प्रदेश में एक ताकतवर आंदोलन खड़ा हुआ है। अगर आज उस पर कोई सवाल खड़ा किया जा रहा है, तो पहले हमारी समिति में बात होनी चाहिए थी। फिर हायर कमिटी चाहती तो बात करती। पर उसकी बैठक में हमारी समझ भी तो जानी चाहिए।'
विजय सक्सेना ने, जिसने सरफराज के साथ संगठन पर कब्जा करने के लिए असली गुटबाजी शुरू की थी, मामला दूसरी तरफ जाते देखकर कहा,
'मेरा ख्याल है कि हायर कमिटी का निर्णय सही है कॉमरेड।'
लक्ष्मण सिंह ने, जो गहरे तक भ्रष्टाचार के आरोपों में डूबे थे और जिन्हें सचिव के हस्तक्षेप से ही बचने का आसरा था, सचिव के पक्ष में अपनी राय रखने का अवसर देखकर कहा।
'कॉमरेड इसमें इतनी चर्चा की क्या जरूरत है? हायर कमिटी ने जो तय कर दिया सो कर दिया!'
कॉमरेड मोहन ने पूछा।
'कार्तिक आप कुछ कहना चाहेंगे?'
कार्तिक के मन में आया कि वह कहे कि वह पहले से ही जानता था कि ये खेल खेला जाएगा। जिस दिन दिल्ली में उसने हायर कमिटी के सदस्य के हाथ में कॉमरेड मोहन का वह झूठा पत्र देखा था, वह उसी दिन समझ गया था कि वे किस दिशा में जा रहे हैं, वह जानता था कि सरफराज, विजय सक्सेना और लक्ष्मण सिंह वगैरह उसके खिलाफ जहर उगलते रहे हैं और ये नोटिस कॉमरेड मोहन ने उन्हीं के प्रभाव में तैयार किया है। उसने कहा।
'कॉमरेड फिलहाल तो इतना ही कहना चाहूँगा कि अगर मैं प्रदेश के विज्ञान और सांस्कृतिक आंदोलन को मजबूत करने में असफल रहा, तो वह कैसे पूरे प्रदेश में फैल गया? और अगर उसके भीतर पार्टी निर्माण नहीं हुआ तो इतने सारे नए लड़के लड़कियाँ पार्टी में कहाँ से आए? मुझे तो नोटिस का आधार ही पूरी तरह गलत नजर आता है। शेष बातें मैं अपने स्पष्टीकरण में कहूँगा।'
सचिव ने अब चर्चा की समाप्ति करते हुए कहा,
'तो साथियों ये समिति इस बात पर सहमत है कि हायर कमिटि के फैसले को क्रियान्वित किया जाना चाहिए, और कॉमरेड कार्तिक को कारण बताओ नोटिस दिया जाना चाहिए। शेष बातें उनका जवाब आने पर की जाएँगी'
फिर उन्होंने अध्यक्ष महोदय की ओर देखकर कहा।
'अध्यक्ष महोदय!'
अध्यक्ष ने, जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे, अपना घिसा हुआ मजाक पेश किया।
'सबको धन्यवाद'
पर आज कोई नहीं हँसा।
बैठक समाप्त हो गई।
कार्तिक फिर सड़क पर लौटा।
पेट्रोल पंप पर एक दो ट्रक खड़े थे। उसके ऑफिस की, कांच से बनी दीवारें, ओस से ढकी हुई थीं। उनके पीछे से रंग बिरंगे डिब्बे, पानी में हिलती परछाईं की तरह झाँक रहे थे।
किसी ने चिल्ला कर कहा,
'डीजल नहीं है।'
वहाँ खड़े ट्रक घरघरा कर आगे बढ़ने को हुए। कार्तिक ने लंबे कदम बढ़ाते हुए रोशनी का वह धब्बा पार किया और फिर अँधेरे में आते ही राहत महसूस की।
उसके दिमाग में गहरा सन्नाटा था। वह कुछ भी सोच नहीं रहा था। कुछ भी सोचना नहीं चाहता था। दिमाग में एक अवरोध सा था जो किसी भी शब्द, किसी भी विचार को भीतर आने से रोक रहा था।
कार्तिक अब पहले जैसा युवक नहीं रहा था जिसके माथे पर काले घुँघराले बालों की लट झूलकर गिरती थी और जिसकी समूची ऊर्जा उसके चेहरे और शरीर से फूटी पड़ती थी, जिसकी आँखों में चमक और चेहरे पर एक तेज था, जो जब बोलता था तो लगता था कि आवाज उसके दिल से आ रही है और ध्वनि भी ऐसी जो सुनने वाले के दिल में अनायास ही प्रतिध्वनि पैदा कर दे।
अब वह आयु के मध्य भाग में पहुँच चुका था। कई बार उसके पुराने दोस्त भी उसे देखकर एकदम पहचान नहीं पाते थे। सामने झूलकर गिरने वाली लट अब कुछ सफेद हो चली थी, आँखों पर पतली कमानी का चश्मा आ गया था जो उसकी गहरी काली आँखों के कारण अजीब 'फार आउट' लुक देता था। पहली नजर में कार्तिक किसी कवि की तरह नजर आता था। लगातार सोचते रहने और जमीन की ओर देखते रहने की आदत के कारण, चलते समय उसके कंधे सामने की ओर झुक आते थे। रामनारायण अक्सर मजाक में कहता,
'विचारों का सबसे अधिक बोझ कार्तिक पर है।'
और शायद था भी। विचारों का भी और काम का भी। उसे पार्टी के आदर्शों की चिंता रहा करती थी और संगठन की आकांक्षाओं की भी। उसे अपने छोटे से छोटे साथी के सुख दुख का हाल पूछना रहता था और बड़े से बड़े वैचारिक हमले की तैयारी भी। उसे विज्ञान की फिक्र भी रहती थी और साहित्य की चिंता भी। नताशा अक्सर कहा करती, 'आप इतनी फिक्र क्यों करते हैं? आपके फिक्र करने से क्या होगा? लोग सब अपनी तरह से और अपनी सुविधा के अनुसार ही काम करते हैं। सिर्फ आपके कहने या चाहने से कोई बदल नहीं जाएगा। फिर इतनी चिंता क्यों?'
'मैं किसी से बदलने के लिए नहीं कह रहा, मैं सबसे अपने स्वभाव के अनुरूप ही काम करने के लिए कह रहा हूँ। सवाल यह है कि क्या हम अपना स्वभाव पहचानते हैं? क्या तुम अपना स्वभाव पहचानती हो?'
'हाँ। मैं तो अपना स्वभाव और अपने झुकाव अच्छी तरह जानती हूँ।'
'ये गलतफहमी भी हो सकती है। फिर अगला सवाल है अगर हमारा स्वभाव सामाजिक हित में नहीं तो क्या उसे बदलना नहीं चाहिए?'
'और व्यक्ति का हित? उसे कौन देखेगा?'
'मुझे लगता है कि व्यक्ति का हित समाज के हित के साथ जुड़ा हुआ है।'
'और किन्हीं संदर्भों में ऐसा न हो तो?'
यह कार्तिक और नताशा के बीच एक नई बहस की शुरुआत होती थी, जिसमें कई मसलों पर बात की जाती थी, मित्रों के काम पर चर्चा की जाती थी, उनके व्यवहार पर बात की जाती थी, उनके कामों की विवेचना की जाती थी और अक्सर किसी नई शुरुआत का आधार तलाशा जाता था।
कार्तिक और नताशा आंदोलन में एक जोड़ी की तरह पहचाने जाने लगे थे।
पर आज? आज कार्तिक कोई बहस नहीं करना चाहता था। संस्कृति, विज्ञान, पार्टी, प्रतिरोध जैसे शब्द करीब-करीब 'ब्लैंक आउट' हो गए थे। क्या मायने थे इनके? अब तक साफ पानी की तरह उसके जेहन में बहते इन शब्दों में वह इतना घनत्व, इतनी जड़ता क्यों महसूस कर रहा था?
एक गहरी थकान, एक गहरी उदासी, एक गहरा सन्नाटा।
बीस सालों की लंबी लड़ाई के बाद का अकेलापन।
उसे लगा कहीं बैठ कर थोड़ा सुस्ता ले, पर दूर-दूर तक कहीं कोई पुलिया नहीं थी। वह फिर चलने लगा।
एक कार उसके बहुत पास से गुजर गई।
उसने सिहर कर हाथ अपनी छाती पर बाँध लिए।
एक छाया सी, जैसे उसके साथ-साथ चलने लगी।
ऐसी ही कड़ाके की सर्दी वाली दिसंबर की रात थी वह। दिन भर थकने के बाद भी वह सो नहीं पाया था। नींद आती थी पर अचानक खुल जाती थी। किसी अजानी दुर्घटना की आसन्न अनुभूति, कुछ बहुत बुरा घट जाने का भय, एक तरह की व्याकुलता उसे सोने नहीं दे रहे थे।
दूर, कहीं बहुत दूर से क्षीण आवाजें लगातार उसके कानों में आ रही थीं, जैसे बहुत सारे लोग एक साथ कोहराम मचा रहे हों, दौड़ रहे हों, कहीं भाग रहे हों, चिल्ला रहे हों, पीड़ा भरी धीमी आवाजें, जो कभी-कभी तेज हो जातीं, कभी कमजोर और कभी अचानक खत्म। धीमी फिर तेज फिर धीमी - दूर, फिर पास, फिर दूर - पुकार, आर्तनाद, पीड़ा भरी पुकार।
तभी बहुत पास से एक आवाज आई थी।
'खट् - खट् - खट्'।
क्या कोई दरवाजा खटखटा रहा था? फिर किसी ने कहा था,
'दरवाजा खोलो।'
इतनी देर रात गए कौन हो सकता था? नहीं, ऐसे ही उसका भ्रम होगा। यह सोच उसने रजाई ऊपर तक खींच ली थी। फिर किसी ने भर्राई हुई आवाज में कहा था,
'खोलो, दरवाजा खोलो!'
इस बार कार्तिक उठा, उठकर दरवाजे तक आया, पूछा -
'कौन है?'
किसी ने अशक्त डूबती हुई आवाज में कहा,
'खोलो, दरवाजा खोलो।'
इस आवाज ने उसके दिल में पीड़ा की एक लहर सी पैदा कर दी। उसने एक झटके से दरवाजा खोल दिया। एक दुबला सा लड़का, जो शायद दरवाजे से टिक कर खड़ा था, अचानक भरभरा कर उसकी बाँहों में आ गया। उसने चौंक कर देखा। उसका भांजा पीयूष, अर्ध बेहोशी की हालत में उसकी बाँहों में था। उसका नुकीली नाक, भीगती हुई मसों और बड़ी-बड़ी आँखों वाला चेहरा काला पड़ गया था। कार्तिक ने घबराई हुई आवाज में पूछा।
'पीयूष? इतनी रात में? कैसे, कहाँ से?'
पीयूष कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। कार्तिक ने उसे गोद में उठाया और भीतर ले जाकर लिटा दिया। उसके दिल की धड़कन बढ़ गई। ये पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर आ रहा है। कहीं घर में कोई बड़ा हादसा तो नहीं हो गया? कहीं उसे कुछ हो गया तो बहन तो कहीं की नहीं रहेगी। उसका ये इकलौता बेटा था।
कार्तिक दौड़ कर पानी ले आया और उसके चेहरे पर छींटे मारने लगा। उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और बड़े कष्ट से कहा था,
'गैस... गैस...'
'गैस? गैस क्या?'
'गैस... कार्बाइड... गैस...'
कार्तिक की समझ में नहीं आया था कि वह क्या कह रहा है? क्या घर में रखे गैस सिलिंडर से कोई हादसा हुआ है? पर नहीं, ये तो कुछ कार्बाइड-कार्बाइड सा कह रहा है। तो कार्बाइड क्या? हाँ एक फैक्टरी है तो यूनियन कार्बाइड नाम की, पर उसने कभी देखी नहीं थी। तो क्या यूनियन कार्बाइड में कुछ हुआ? पर उससे पीयूष का क्या संबंध है?
उसने फिर पूछा,
'पीयूष... ठीक से बताओ... कार्बाइड क्या? आखिर हुआ क्या है?'
'कार्बाइड की टंकी फट गई... गैस निकली...। घरों में घुस गई... सब लोग भागे...। हम भी ... सब लोग, पापा, मम्मी, रश्मि...। आप जाओ... देखो।'
उसने कहा और फिर बेहोश हो गया।
कार्तिक ने नीति से कहा था,
'पता नहीं ये क्या कह रहा है? जाकर देखना होगा।'
'पहले इसकी तो फिक्र करो।'
'डॉक्टर अय्यर को बुलाकर लाता हूँ। शायद जाग रहे हों।'
वह दौड़कर डॉक्टर अय्यर के घर पहुँचा था। अय्यर जाग रहा था। उसने कार्तिक को देखकर पूछा था,
'क्यों तुम कैसे? क्या तुम्हें भी गैस लग गई?'
'नहीं, पर ये गैस का क्या चक्कर है?'
'कहते हैं यूनियन कार्बाइड की गैस की टंकी फटी है और उसमें से जहरीली गैस निकल कर पूरे शहर में फैल गई है। शहर में हजारों लोग घर बार छोड़कर भाग रहे हैं...।'
'तुम जरा मेरे घर चलोगे? मेरा भांजा भी भागकर आया है। उसकी हालत बहुत खराब है।'
'चलो।'
अय्यर ने अपना बैग उठाया और चल पड़ा।
'रात तीन बजे से लोगों का ताँता लगा है। सबकी आँखों में भयंकर जलन, साँस लेने में दिक्कत, पता नहीं हुआ क्या है...।'
पीयूष की चेतना लौट आई थी पर वह आँखें नहीं खोल पा रहा था। साँस धौंकनी की तरह चल रही थी। बार-बार उबकाई सी लेता था। अचानक उसे जोर की उल्टी हुई। पीले रंग का तरल पदार्थ उसके मुँह से बाहर आने लगा। अय्यर ने उसे थामा और उसकी पीठ सहलाने लगा। उसने कहा,
'घबराओ मत, अब आराम हो जाएगा।'
फिर मुझसे कहा,
'पानी लाओ, जल्दी।'
पीयूष ने आँखें धोई। मैंने एक झलक देखा। आँखें पूरी तरह लाल सुर्ख हो रही थीं। ठंडे पानी से धोने पर आराम लगा। अय्यर ने कहा,
'बीच-बीच में ठंडे पानी से धोओ। आँखों पर ठंडे पानी की पट्टी रखो। यही इलाज है।'
पीयूष ने फिर कहा,
'मैं ठीक हूँ। अब आप जाओ। पापा-मम्मी को देखो... पता नहीं किस हाल में होंगे... हम लोग वैसे ही घर खुला छोड़कर निकले थे...'
अय्यर बोला,
'तुम जाओ। मैं यहाँ सम्हाल लूँगा।'
कार्तिक ने बाहर निकलकर स्कूटर में किक मारी। वह स्टार्ट नहीं हुआ। पेट्रोल की टंकी खोलकर देखा। पेट्रोल नहीं था।
उसने अपनी साईकिल उठाई और चल पड़ा।
आज की तरह उस दिन भी उसका दिमाग सुन्न सा हो रहा था। जैसे-जैसे वह शहर की ओर बढ़ता, दोनों ओर आदमियों की कतारें, औरतों बच्चों और बूढ़ों की कतारें, बदहवास सी भागती नजर आतीं। कोई होशोहवास में नहीं था। औरत को अपने आदमी का, माँ बाप को अपने बच्चों का और बच्चों को अपने माता-पिता का जैसे कोई पता नहीं था। कुछ लोग सड़क के किनारे पड़े हुए थे, कुछ अपनी आँखों पर हाथ रखे बैठे थे, कोई उल्टियाँ कर रहा था और किसी के मुँह से झाग निकल रहे थे।
औरतें लगभग अर्धनग्न अवस्था में, रात के कपड़े पहने ही, जाने कहाँ, जाने किस ओर, भाग रही थीं।
कार्तिक को लगा पूरे समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न करने के लिए सिर्फ एक दुर्घटना काफी होती है। उसने देश के बँटवारे के समय के मंजर के बारे में सुन रखा था। कुछ-कुछ वैसा ही माहौल पूरे शहर पर तारी था। उसने तेजी से जाते एक आदमी से पूछा,
'भाई साहब...'
उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया।
कार्तिक ने थोड़ा आगे बढ़कर साईकिल रोकी। एक आदमी एक बुढ़िया को सहारा दिए चला जा रहा था।
'जरा एक मिनिट, सुनिए तो...'
उस आदमी ने भी कोई उत्तर नहीं दिया।
'आखिर हुआ क्या है?'
'...।'
'आप जा कहाँ रहे हैं?'
'...।'
'आपके परिवार के लोग कहाँ हैं?'
'...।'
'भाई साहब, आप कुछ बोलेंगे भी?'
इस बार उसने एक क्षण रुककर फफकते हुए कहा,
'मारे गए। मेरे बच्चे और मेरी बीवी मारे गए। अब माँ को लेकर भाग रहा हूँ। तुम भी जान बचाना चाहते हो तो भागो। उलटी तरफ।'
कार्तिक को अचानक स्थिति की भयानकता का एहसास हुआ। पर वह उल्टी तरफ कैसे जाता? आगे उसकी बहन, उसके बच्चे और जीजाजी थे। जाने कहाँ, किस हाल में? उसे उन्हें ढूँढ़ना ही था। उसने साईकिल आगे बढ़ा ली।
आदमियों, औरतों, बच्चों और बूढ़ों का रेला पता नहीं कहाँ जा रहा था? क्यों जा रहा था? कोई बात नहीं कर रहा था। हल्की दर्द भरी कराहों के अलावा कोई आवाजें नहीं थीं। लोगों के चेहरे सपाट थे और जिस्म सुन्न। जैसे उन्हें पता न हो कि उन्हें हो क्या गया है?
वातावरण में एक कसैली गंध बसी थी। दिसंबर की रात थी और कड़ाके की ठंड थी। पेड़ पौधे स्तब्ध थे और हवा जैसे हरी हुई थी। लोग भाग रहे थे पर सड़कें रुकी हुई थीं। हजारों लोग थे सड़कों पर लेकिन चारों ओर गहरी चुप्पी और अजब वीरानी छाई हुई थी।
कार्तिक तेजी से रेल्वे कॉलोनी की ओर बढ़ा। पीयूष का परिवार वहीं रहता था। बजरिया के पास पहुँचते-पहुँचते अचानक कोई चीज साइकिल से टकराई। वह किसी का हाथ था। कार्तिक साईकिल से उतरा। उस आदमी को सीधा किया। वह मर चुका था। आँखें चौपट खुली थीं। मुँह से फेन बाहर आ रहा था। शरीर अभी अकड़ा नहीं था, पर अकड़ने की प्रक्रिया में था।
कार्तिक के शरीर में एक झुरझुरी सी फैल गई।
अचानक उसे लगा एक बड़ा हादसा हुआ है। कोई बहुत बड़ा हादसा। स्टेशन के आसपास बजरिया में लाशें बिखरी पड़ी थीं। कोई हाथ पैर मोड़े, कोई मुँह के बल, कोई खंभे का सहारा लिए... आदमी, औरतें, बच्चे... कार्तिक अचानक गिनने लगा...। दो, तीन, छह, सात...। दस। हे भगवान ये क्या हो गया? कैसे हो गया? और मेरी बहन? क्या हुआ होगा उसके पति और बच्चों का?
वह स्टेशन के पास वाले थाने में घुसा।
पूरा थाना चौपट खुला था। वहाँ कोई नहीं था। शांति और व्यवस्था के रखवाले थाना छोड़कर जा चुके थे - या शायद मौत की गोद में थे।
अब कार्तिक स्टेशन की ओर लपका। जीजाजी वहीं तो काम करते थे।
घुसते ही उसने जो दृश्य देखा वह दिल दहला देने वाला था। वह भिखारिन जो हर समय आते जाते लोगों को पुकार पुकार कर भीख माँगा करती थी, वह अंधी भिखारिन जिसके पेट में न जाने कौन अपना बीज डाल गया था और जिसने कुछ दिनों पहले ही एक बच्चे को जन्म दिया था, दरवाजे के पास पड़ी थी। उसका बच्चा उसके स्तन से चिपका था। दोनों मर चुके थे।
अब कार्तिक स्टेशन पर लगभग दौड़ने लगा।
उसने इन्क्वायरी काउंटर में झाँककर देखा। खाली था।
पूरा स्टेशन खुला था और खाली पड़ा था। गाड़ियों का कहीं अता पता नहीं था। भिखारी, कुली और स्टेशन के कई जाने पहचाने चेहरे यहाँ वहाँ बिखरे पड़े थे।
वह दौड़ते हुए स्टेशन मास्टर के कमरे में घुसा। उसका जी धक् से रह गया। वे वहाँ औंधे पड़े थे। टेबल पर एक हाथ और सिर लुढ़का हुआ था। उनकी मौत हो चुकी थी।
सुबह चार बजे का वक्त, दिमाग में अनजाने भय और अपशकुन की फुरफुरी, सुन्न होता शरीर, खत्म होता दिमागी संयोजन, चारों ओर मौत... मौत... मौत। कार्तिक ने अपने आपको इतना असहाय महसूस कभी नहीं किया था।
वह घबराकर बाहर निकल आया।
जैसे-तैसे साईकिल सम्हाली और पीयूष के घर की ओर दौड़ा।
सुबह होने को थी पर पक्षी चहचहा नहीं रहे थे। आसपास के सभी घर खुले थे पर कार्तिक की हिम्मत किसी भी घर में झाँकने की नहीं हुई। पता नहीं वहाँ क्या देखने को मिले?
तभी किसी ने कहा।
'भैया...'
ये बहन के पड़ोस में रहने वाले तिवारी जी का लड़का राजू था। पिछले दो तीन घंटों की भाग दौड़ में पहली बार किसी ने उसे पहचाना था। उसकी आँखों में अचानक आँसू आ गए। उसने लपक कर राजू को बाँहों में भर लिया।
'राजू, तुम ठीक तो हो? और घर वाले सब कहाँ हैं...?'
'मैं रात में शादी में बाहर चला गया था। अभी-अभी लौटा हूँ। भैया ये शहर को अचानक क्या हो गया? घर में भी कोई नहीं है। कहते हैं लोग खेतों की तरफ भागे हैं, जाकर देखता हूँ...।'
'और जीजी वगैरह?...'
'वे भी खेतों की तरफ ही गए होंगे। वहीं देखिए...।'
कार्तिक रेलवे कॉलोनी के उस पार खेतों की तरफ लपका। न जाने क्यों उसे लगा कि वह जीजी और उसके परिवार को जीवित नहीं देख पाएगा।
गेहूँ के खेत हरे थे और सुबह की नमी उन पर जमी हुई थी। खेतों में जगह जगह लोग पड़े हुए थे। अभी भी कॉलोनी की ओर से आने वालों का ताँता लगा हुआ था। कुछ परिचित चेहरे दिखे भी पर किसी ने उसे नहीं पहचाना। वह करीब-करीब दो किलोमीटर तक भागता चला गया।
अचानक वह उसे दिखी।
वह जमीन पर सिर नीचे किए बैठी थी। दोनों बच्चे पास ही लेटे थे। जीजाजी उनके पास ही अधलेटे से टिके हुए थे। उसने आवाज दी,
'जीजी...।'
एक क्षण को वह समझ नहीं पाई। फिर बोली,
'कौन? कार्तिक?...'
उसने कहा,
'हाँ'
अब उसकी बहन सुनीता ने उठने की अजीब सी कोशिश की। शायद वह ठीक से देख नहीं पा रही थी। वह खड़ी हुई, कार्तिक के कंधे पर हाथ रखा और अचानक फूट-फूट कर रोने लगी।
कार्तिक ने उसे सहारा देते हुए कहा,
'अच्छा, अब रोओ नहीं। आँखों को और कष्ट पहुँचेगा...'
जैसे तैसे उसकी हिचकियाँ कम हुई। कार्तिक ने पूछा,
'हुआ क्या?'
'हम लोग घर में सोए हुए थे। करीब दो बजे लगा जैसे आँखों में जलन सी है। लगा जैसे कोई पड़ोस में मिर्च का छौंक लगा रहा है। हमने खिड़कियाँ बंद कर लीं। पर जलन बढ़ती ही गई। फिर साँस लेने में तकलीफ होने लगी। अचानक पीली सी गैस सारे घर में भर गई। हमने ओढ़ कर बचने की कोशिश की, पर बच्चे चीखने लगे। तब पीयूष ने कहा - बाहर निकलो। हम लोग जैसे-तैसे भागे। किसी ने कहा - ऊँची बिल्डिंग पर चढ़िए, गैस नीचे की तरफ बैठ रही है। तो हम लोग तिमंजिले क्वार्टरों पर चढ़ गए। उससे कुछ आराम मिला और शायद उसी से बच भी गए। अभी सुबह-सुबह फिर गैस छूटने की खबर आई। सबके साथ हम भी शहर के बाहर भाग रहे थे... पर इन लोगों से तो अब चला भी नहीं जाता...'
अचानक जैसे उसे याद आया।
'पीयूष, पीयूष कहाँ है?'
'चिंता मत करो, वह सही सलामत घर पहुँच गया है।'
'ठीक है?'
'हाँ, ठीक है।'
बहन के मिल जाने से कार्तिक का मन थोड़ा हल्का हुआ। उसने सिर उठाकर चारों ओर देखा।
गेहूँ का हरा खेत, जगह जगह बिखरे, कष्ट से कराहते लोग, आदमी औरतें और बच्चे - कुछ जीवित और कुछ शायद नहीं। एक असहनीय सी चुप्पी, एक असहनीय सा अकेलापन।
उसने कहा,
'चलो, घर चलते हैं।'
कार्तिक की तंद्रा टूटी।
वह अपने घर के सामने वाले मोड़ पर पहुँच चुका था जहाँ कोई कार अपनी हेडलाइट की तीखी रोशनी उसकी आँखों पर डाल रही थी। शायद वह सड़क के बीचों बीच था या कार के एकदम सामने। उसने दाहिने हटकर कार को जाने दिया।
नीति दरवाजे पर ही खड़ी थी, दरवाजे की ऊपर वाली रेलिंग पर दोनों हाथ टिकाए, जिन पर उसने अपनी ठोड़ी टिका रखी थी।
उसे देखकर नीति ने कहा,
'आज बड़ी देर कर ली।'
'हाँ। आज पैदल आ रहा हूँ।'
'क्यों, पैदल क्यों? रामनारायण से कहते तो वह घर तक लिफ्ट दे देते'
'उसने कहा था, मेरी ही इच्छा नहीं हुई।'
नीति जानती थी, वह इससे ज्यादा नहीं जान पाएगी।
'खाना खाओगे?'
पहले उसे लगा, मना कर दे। फिर सोचा नीति इतनी देर से इंतजार कर रही है। मना करना अच्छा नहीं लगेगा। उसने कहा,
'हाँ।'
फिर जैसे तैसे दो रोटियाँ खाईं, अपने कमरे में गया और बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर पड़ रहा।
उस रात कार्तिक सो नहीं पाया।
बिस्तर पर करवटें बदलते हुए, कमरे में टहलते हुए और बाहर लॉबी में फेंस पर झुके हुए वह लगातार शाम की बैठक के बारे में सोचता रहा था।
क्या वाकई वह अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर सका? क्या उसे उन सभी घटनाओं और बातों के लिए भी जिम्मेदार माना जाना चाहिए जो खुद उसका क्रियेशन नहीं थीं? क्या इतना सब कहने के बाद भी कुछ था जो कहना बाकी रह गया था? क्यों वह दोस्तो को अपनी बात समझा नहीं पाया? या उन्होंने समझकर भी नहीं समझने का अभिनय किया? वह क्या था जो उसके हाथ में आकर भी नहीं आ रहा था? क्या उसके जीवन के बीस वर्ष यूँ ही नष्ट हुए या वह कुछ ऐसा कर पाया जिसे मानवीय और उपयोगी समझा जाएगा?
वह नोटिस जो उसे मिला था वह सिर्फ एक कागज नहीं था। झिरझिरे टाइपिंग पेपर पर लिखी एक इबारत। वह उसके काम और कमिटमेंट पर लगा एक प्रश्नचिह्न था जिसे उसे मिटाना था। वह उसे उसकी सपनों की दुनिया से बाहर खींच लाने की साजिश थी। और अगर वह अपने सपनों को छोड़ देता है तो उसके पास करने के लिए रह ही क्या जाएगा?
वह भयानक उहापोह में फँसा था। नींद आँखों से कोसों दूर थी। नीति दिन भर की थकी-हारी पास ही लेटी थी। उसे लगा कि नीति को उठा दे और उससे बात करे। पर पता नहीं क्यों ये भी महसूस हुआ कि शायद वह उसकी बात ठीक से न समझ पाए। आखिर संघर्ष का एक दायरा होता है जो अपना सिर्फ अपना होता है।
काश उसके आसपास इस समय कोई दोस्त होता, कोई गहरा दोस्त, जिससे वह बात कर पाता, जो उसकी बात समझ पाता। उससे वह पूछ सकता कि भाई अब आगे का रास्ता क्या है? और पीछे कौन सी गलतियाँ थीं?
उसे अचानक इस समय अपने बचपन के दोस्त केदार की बहुत याद आई। वही केदार जो उसकी हर किनाई को चुटकियों में सुलझाने की सामर्थ्य रखता था, जो न जाने किस जादू से उसके दिल की बात जान लेता था, जिसके जीवन संघर्ष का वह खुद साक्षी रहा था, जिसके साथ मिलकर उसने दुनिया बदलने के सपने देखे थे, जिसने अपनी बेचैनी को बाँटने के लिए सिर्फ कार्तिक को ही खत लिखकर दिल्ली बुलाया था और जो अपनी पवित्रता तथा आन की रक्षा करते हुए मारा गया था।
जाने कैसे कार्तिक के मन में ये बात बैठ गई थी कि उसे अपने दोस्त की तरह बनना है। दृढ़ और पवित्र। उसे उसके काम को आगे बढ़ाना है। चाहे कुछ भी हो वह खुद से किए गए इस वादे से नहीं डिगेगा।
उस कागज ने उसके इस निश्चय पर प्रहार किया था, जैसे उसकी प्राण शक्ति पर ही प्रहार किया था।
कार्तिक अपनी तमाम बेचैनी के साथ छत पर निकल आया। सुबह होने को थी पर अभी खत्म नहीं हुई थी रात। लाती थी सुबह की हल्की हवा अनजानी दिशाओं से रहस्य भरे संदेश सरसराते हुए। खड़े थे उसके घर के सामने आम और अशोक के दरख्त जैसे धीमे-धीमे सहानुभूति में थरथराते हुए। आसपास घरों में थी सुबह की अलसभरी चुप्पी और सड़कों ने अभी शुरू नहीं किया था दौड़ना।
आसमान चुप था - नीला, निस्तब्ध। बस कहीं कहीं तोड़ते थे मौन सफेद कपसीले बादल। पूरब में थी रक्तिम व्याकुलता और चारों ओर था रात के अंतिम प्रहर का अशक्त प्रकाश।
तभी वह उसे दिखा।
छत की मुंडेर पर टिका था वह। वैसे ही बायाँ पैर जमीन पर और दायाँ दीवार पर टिकाए हुए, जैसे वह अक्सर खड़ा हुआ करता था। दोनों हाथ पैंट की जेब में डाले, धीमे धीमे मुस्कुराते हुए।
एक ऊष्मा का घेरा सा बन गया कार्तिक के चारों ओर। उसने चकित होते हुए पूछा,
'कौन केदार?'
'हाँ, मैं तुम्हारा दोस्त केदार!'
'तुम...। तुम यहाँ कैसे?'
'मैं तो यहीं था, तुम्हारे आसपास। मैं गया कहाँ था?'
'अच्छा, कुछ देर रुकोगे? मुझे तुमसे ढेर सारी बातें करनी हैं।'
'तुमसे बातें करने ही तो आया हूँ।'
'तुमसे कुछ पूछना भी है।'
'जरूर, लेकिन बात क्या है? बहुत परेशान लग रहे हो।'
'परेशान भी और भ्रमित भी।'
'क्यों?'
'मुझे लगता है कि मैं एक ऐसे मोड़ पर आ गया हूँ जहाँ से रास्ता अंधी गली में मुड़ता है।'
'तो रास्ता बदल लो।'
'क्या ये इतना सरल है? और नया रास्ता सही होगा इसका क्या भरोसा?'
'भरोसा या विश्वास किसी आधार पर ही हो सकता है। लगता है तुम्हारा आधार ही हिल गया है।'
'शायद।'
'तो नए आधार की खोज पर निकलो।'
'मैं भयानक थकान महसूस कर रहा हूँ।'
'थकान एक रिलेटिव टर्म है। मन में उत्साह हो तो थकान काफूर हो जाती है।'
'तुम भी तो खोज पर निकले थे। क्या मेरे और तुम्हारे निष्कर्ष एक ही नहीं होंगे?'
'जरूरी नहीं। तुम्हारी खोज के निष्कर्ष तुम्हारे होंगे। हर आदमी के अपने निष्कर्ष हो सकते हैं, होते हैं।'
'तो क्या कहते हो? क्या करूँ?'
'लिखो। अपनी अब तक की यात्रा के बारे में लिखो। लिखते हुए खुद की तलाश करो और तलाश करते हुए लिखो। हो सकता है कि तुम जहाँ पहुँचो वहाँ से नई शुरुआत कर सको।'
'और सुनाऊँगा किसे?'
'क्यों, मैं तो हूँ तुम्हारे साथ। मुझे सुनाना। और तुम्हारे कॉमरेड मोहन भी तो हैं। क्या उन्हें जवाब नहीं दोगे?'
कार्तिक को लगा जैसे किसी ने उसके दिल पर से एक भारी बोझ उठा लिया हो। भीतर की जड़ता जैसे दोस्ती की ऊष्मा पाकर धीरे-धीरे पिघलने लगी। कार्तिक ने एक अद्भुत उत्तेजना सी महसूस की। वह केदार को गले लगाने के लिए आगे बढ़ा। पर वह उससे दूर होता जा रहा था।
अचानक कार्तिक मुंडेर से टकराया, उसके चारों ओर बना घेरा अचानक टूटा और जैसे भोर की फूटती किरणों पर सवार केदार ललछौंहे सूरज की तरफ चला गया।
दूर क्षितिज पर सूरज अपनी पूरी गरिमा और आश्वस्ति के साथ मुस्कुरा रहा था।
कार्तिक नीचे आया तो एक अजब ऊर्जा से भरा हुआ था, जैसे सूरज की किरणों ने उसमें प्रवेश कर लिया हो। उसने तय किया कि वह लिखेगा अपनी पूरी कहानी। शायद उस कहानी में ही उसकी आगे की राह छुपी हो।
ये कथा जो आप आगे पढ़ेंगे असल में कार्तिक की ही है।